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चित्रांकित क्रीड़ा साधनों के मनोवैज्ञानिक पहलू | |||||||
Psychological Aspects of Painted Sports Equipment | |||||||
Paper Id :
17643 Submission Date :
2023-05-07 Acceptance Date :
2023-05-16 Publication Date :
2023-05-22
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सारांश |
जितना व्यापक क्रीड़ाओं का सामाजिक पहलू है उससे भी अधिक विस्तृत रूप क्रीड़ाओं का मनोवैज्ञानिक पहलू का है। इस लेख के अन्तर्गत क्रीड़ाओं का स्वरूप दर्शाने का प्रयत्न किया गया है और उनमें से कुछ वे क्रीड़ायें जो आज कम्प्यूटर व मोबाईल के गेम्स होने के कारण लुप्त सी होती जा रही हैं। इस प्रपत्र में इन क्रीड़ाओं के मनोवैज्ञानिक पहलु को दर्शाया गया है और इनके माध्यम से यह भी बताया गया है कि वह क्रीड़ायें बालक की बुद्धि विकास में बहुत सहायक हैं और इन भारतीय क्रीड़ाओं को चित्रों के माध्यम से भी दर्शाया गया है क्योंकि ये खेल आज हमारे समक्ष चित्रों के माध्यम से ही जीवित हैं अर्थात् इसके अन्तर्गत क्रीड़ाओं का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण बताया गया है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The more comprehensive is the social aspect of sports, the more comprehensive is the psychological aspect of sports. Under this article, an attempt has been made to show the form of sports and some of those sports which are becoming extinct today due to computer and mobile games. In this form, the psychological aspect of these sports has been shown and through them it has also been told that these sports are very helpful in the development of the child's intelligence and these Indian sports have also been shown through pictures because these sports are very important to us today. They are alive only through the pictures in front of us, that is, the psychological approach of sports has been described under it. | ||||||
मुख्य शब्द | मनोवैज्ञानिक, चित्रावली, गंजीफा, वृत्ताकार, चौपड़, मानवाकृति, ऐतिहासिक, चतुरंगा, हस्तनिर्मित, सांस्कृतिक। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Psychological, Painting, Ganjifa, Circular, Quad, Anthropomorphic, Historical, Chaturanga, Handmade, Cultural. | ||||||
प्रस्तावना |
प्राचीन क्रीड़ाओं को सुरक्षित रखने व उसके रूप को हमारे समक्ष प्रस्तुत करने में कला का सर्वाधिक योगदान रहा है। क्रीड़ाओं के द्वारा व्यक्तियों में आत्मशक्ति तथा आत्म निर्भरता का विकास होता है। मस्तिष्क विकासात्मक क्रीड़ाओं में चौपड़, शतरंज, रिक्त स्थान की पूर्ति, शेर और खरगोश का खेल तथा पासों का खेल आदि तथा अन्य बाह्य क्रीड़ा भी जैसे कन्दुक क्रीड़ा, क्रिकेट, शिकार आदि भी आते हैं।
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अध्ययन का उद्देश्य | आज इस भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में सभी को इन चित्रांकित क्रीड़ाओं से अवगत कराना है जो कि इंसान के बुद्धि विकास में भी सहायक है तथा भारतीय संस्कृति को बनाये रखने के उद्देश्य से इस लेख को सचित्र प्रदर्शित किया गया है। |
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साहित्यावलोकन | Topsfield, Andrew ने अपनी पुस्तक The Art of Play Board and
Card Games of India (2006) में इन आंतरिक चित्रांकित क्रीड़ाओं के स्वरूप को सचित्र
समझाया है जो इस प्रपत्र के लिए अत्यधिक सहायक रहा है तथा इनके द्वारा गंजीफा के पत्तें
और बुद्धि विकास जैसे क्रीड़ाओं के बारे में व्यापक जानकारी प्राप्त हुई है। Banerjee, P. की पुस्तक The Blue God, Lalit Kala Akadmi (1999)
में भी भारतीय चित्रांकित क्रीड़ाओं का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य दर्शाया
गया है। केन्द्रीय पुस्तकालय, दिल्ली के क्यूरेटर महोदय और अन्य सहकर्मियों के सहयोग
से भी इस विषय से सम्बन्धित हस्तनिर्मित क्रीड़ा साधन व चित्रांकित कृतियाँ प्राप्त
हो पायी हैं । इन सभी के सहयोग के कारण वर्तमान में क्रीड़ाओं का चित्रांकित स्वरूप
हमारे समक्ष है। |
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मुख्य पाठ |
चित्रांकित क्रीड़ाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बुद्धि विकासात्मक
चित्रावली या रिक्त स्थानों की पूर्ति चित्रण है। इन चित्रावलियों में अलग-अलग आकृतियाँ
व संख्यायें होती हैं जिन्हें हल करना होता है इस क्रीड़ा द्वारा अत्यधिक तीव्रता से
मनोबल का विकास होता है। मैसूर के महाराजा कृष्ण राजा वॉडियार की इस क्रीड़ा में रूचि
अधिक थी। वह इस प्रकार के चित्रांकित क्रीड़ा साधनों की जानकारी रखते तथा इनको बनवाने
में भी अधिक सहयोग करते तथा वह अपने कोर्ट में ऐसी क्रीड़ाओं की चित्राकृतियों के विकास
में अधिक प्रयासरत भी थे। कृष्ण राजा के बुद्धि विकास के खेलों की चित्रावलियाँ लिखित
भित्ति चित्रकारी भी थीं जो भित्ति चित्रावलियाँ बनाई गई वह ज्ञानवर्धक, सांख्यिकीय
व अति कलात्मक थीं। 19 वीं शताब्दी का एक संघर्षमय एवं लगनशील समूह मैसूर के बोर्ड गेम्स
के रूपों पर जो चित्राकृतियाँ व लिखित विवरण है उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण इन मानसिक
विकास सम्बन्धी क्रीड़ाओं के लिये था। 6 चित्राकृतियाँ निजी संग्रह की हैं। चतुरंगा
सरासरवासणम (Chaturanga Sarasarvasvam) 666
पृष्ठ की है। यह कृति जर्मनी के निजी संग्रह में है। अन्य कृतियां जैसे 18 पृष्ठ
की श्री कृष्णराजा चतुरंगा सुधाकरह, केम्पू किताबू (Red book) 98 पृष्ठ की, समख्या शास्त्र (Concerning numerology used for play) 65 पृष्ठ की तथा चतुरंगा चमत्कारिता
चक्रमंजरी 248 पृष्ठ की तथा (abridged) रंगीन
लीथोग्राफी द्वारा उसी समान रूप में 6 अलग-अलग भाषाओं में 1858 में लिखी गई। तीन कृतियाँ
यहां लोगांे के लिए संग्रह में है। चतुरंगा सुधाकरह 16 पृष्ठों की ब्रिटिश संग्रहालय
लंदन में है, कौटुक निधी (eight chapter
of the encyclopaedic shri tattvanidhi) 46 पृष्ठ की तथा चतुरंगदा बन्नाडा माने
156 पृष्ठ की जो कि कनाडा के Institute
के पुस्तकालय व मैसूर में है।[1] क्रीड़ाओं के मनोवैज्ञानिक पहलू को कृष्ण राजा वॉडियार ने भंलीभांति
प्रकाशित किया है। राजा वॉडियार बुद्धि विकास सम्बन्धी क्रीड़ाओं मे इतनी रूचि रखते
थे कि उन्होंने अम्बा विलास पैलेस से लीथोग्राफ मशीन रखी तथा अपने चयनित लेख शतरंज
की समस्यायें, वर्ग पहेली आदि को अपने सभी मिलने-जुलने वालों को बांटते थे। ये लेख
विभिन्न भाषाओं हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू उनकी घरेलू भाषा कन्नड़ में भी होते थे। राजा
वॉडियार शतरंज के एक अच्छे खिलाड़ी होने के साथ-साथ शतरंज की समस्याओं का हल किया करते
थे तथा उसी हल को प्रिन्ट करवाकर लोगों में बाँटा करते थे। ये लेख केवल कागज पर ही
नहीं बल्कि पीले और सफेद साटिन के कपड़े पर भी होता था।[2] इस विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं है कि यह विधि या लेख अब कितने
शेष हैं। 1982 में 7 छपे हुए लेखों का समूह ब्रिटिश निजी संग्रह में पाया गया जिनमे
से दो लेखों पर अंग्रेजी भाषा द्वारा लिखाई की गई है। एक लेख में बताया गया है कि प्रिन्टर
(छपाई द्वारा) U.Dove ने इन लेखों
की यूरोपियन प्रभाव द्वारा छपाई करी जिसमें घुमावदार फूलपत्तियों जिनको तराश के गढ़ाई
करके बनाया गया था तथा मध्य में शाही चिन्ह व अगल-बगल पीछे के पोरों पर खड़े घूमे हुये
घोड़े चित्रित हैं। यदि एक अर्थ में कहा जाये तो यह चित्रांकित मनोवैज्ञानिक क्रीड़ायें
हैं जो चित्रों के माध्यम से छायाचित्र के रूप में हमारे समक्ष हैं।
एक शतरंज का बोर्ड जो पहले से ही विकसित तथा इसे कृष्ण राजा वॉडियार
ने पुनः अपनी कल्पना शक्ति द्वारा प्रस्तुत किया। यह पाण्डुलिपि 12X12 सेमी. की काले
व सफेद रंग से द्वारा निर्मित है। शतरंज इतिहास में एक अद्भुत अविष्कार था। शतरंज आने
वाली पीढ़ी के लिये एक रूचिकर विषय था। इस क्रीड़ा का उद्देश्य प्रतिद्वन्दी को नियन्त्रित
कर उसके मार्ग में विध्न डालना था। इस क्रीड़ा को बलावली के नाम से भी जाना जाता था।
यह युद्ध क्षेत्र को दर्शाता है जिसमे दोनों शत्रु अपनी संख्या व ताकत का प्रदर्शन
करते हैं। मैसूर का 19 वीं शताब्दी के मध्य का यह कागज 18X24 सेमी. निजी संग्रह बैगंलोर
में है। कृष्ण राजा ने इस क्रीड़ा की गोटियों का विस्तृत कार्य नही दर्शाया है। इनके
स्थान व चाल को ज्योतिष विद्या से सम्बन्धित दर्शाया है तथा सम्बन्ध ग्रहों से लगाया
गया है। चित्र संख्या-1[3] में देखा जा सकता है। इस लिपि के मध्य भाग में वर्ग पहेली
बनायी गयी है। इस कागज पर लेख में लिखा गया है कि यह वर्ग पहेली 64 खानों की है तथा
इन खानों की संख्याओं का योग लेटी, आड़ी, तिरछी व खड़े कैसे भी करने पर 260 ही होगा।
इसमें यह भी लिखित है कि अगर इस वर्ग पहेली में योद्धा चारों खानों में घूमे तो योग
130, 8 में घूमे तो 260, 16 में घूमे तो 320, 32 में 1040, 64 में 2080 आयेगा। चित्र 1- महाराणा वॉडीयार की सातन्त जादुई वर्ग पहेली,
सृष्टयात्मक वृक्ष रूप में, साटन पर छपाई द्वारा, 1850 ई., अम्बा विलास, मैसूर उन्होंने अपने द्वारा निर्मित इस वर्ग पहेली को इच्छापूर्ति वृक्ष
(पूरनाताराकल्पतरू) का नाम दिया। इस चित्र में उन्होंने एक अद्भुत धार्मिक इच्छापूर्ति
वृक्ष को एक कुम्भ में से उभरता हुआ दर्शाया गया है। यह मानचित्र राजा वॉडियार की
31 जुलाई 1852 की खोज को दर्शाते हैं। इस पाण्डुलिपि में राजशाही चिन्ह उच्चभाग में
गोले के अंदर चित्रित है तथा यह लिपि व क्रीड़ा संबंधी वृक्ष 1850 का अम्बा विलास पैलेस
मैसूर में छापा गया है। इस प्रकार के क्रीड़ा में मानसिक विकास की प्रक्रिया अधिक होती है
तथा ध्यान को एकाग्रचित करती है इसलिये इस चित्र को देख प्रतीत होता है कि यह क्रीड़ा
में चित्रांकित के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक रूप भी समाहित है। चित्र संख्या-2[4] यह कार्य बिट्रिश कलाकार से कीमती ऐतिहासिक रीत
व संस्कृति को इस नदी के किनारे बगीचे मे पुरूषों को अलग-अलग समूह बना मनोरंजन करते
व नौकाओं को देख तथा नौका में सैर के लिए प्रतीक्षा करते दर्शाया गया है। चित्र की
वेष-भूषा को देख प्रतीत होता है कि चित्र मुगलकालीन है तथा बोर्डर को भी मुगल बेलबूटों,
फूल पत्तियों द्वारा सजाया गया है। नदी में बहुत सी नौकाएँ हैं। नौकाओं में भी सामुहिक
रूप में मनोरंजन कर रहे है। मध्य में जल महल भी चित्रित है चित्र की नाम रूप सादृश्य
को अत्यधिक सौन्दर्यात्मक रुप में बनाया गया है। नदी पार भी अति आकर्षक बगीचे बनाये
गये हैं। वृक्षों को अधिक सजीव बनाया गया है। यह चित्र चित्रांकित क्रीड़ा साधनों के सामाजिक पहलू को दर्शाया है कुछ समूह बगीचे में खेल रहे हैं कुछ संगीत के द्वारा मनोरंजन
कर रहे हैं। ये बगीचा महल के बाहर पिछवाड़े का प्रतीत होता है। चित्र Col. Palier's Album से है तथा मिहिरचन्द
द्वारा चित्रित है। चित्र 2- कश्मीर महल के बाहर नदी में नौका विहार द्वारा
मनोरंजन, लखनऊ, 1785 ई., भारतीय कला संग्रहालय, बर्लिन चित्र संख्या-3[5] पूर्ण निपुण या प्रामाणिक चित्रित ग्रंथ है। जो
कि विपद्य मुड़ा हुआ कागज Prince of wales
Museum का है परन्तु यह इसका सुरक्षित समय नहीं था। इसके बारे में अधिक जानकारी
प्रारम्भिक मुगल काल में प्राप्त हुई परन्तु चित्र भारतीय संस्कृति पर ही आधारित है,
जो कि विशिष्ट शैली में बदल सकता है। चित्र में बांयी ओर एक मानवाकृति तीरन्दाजी की
एकाग्रचित्त मुद्रा में निशाना लगाते हुए चित्रित हेै। सम्पूर्ण मानवाकृति धुंधली सी
प्रतीत होती है परन्तु भाव भंगिमाओं को देख लगता है कि वह तीरन्दाजी में पूर्ण ध्यान
लगाते हुये मनोरंजन कर रहा है तथा दांयी ओर मन्दिर में शास्त्रीय कृति व कवयित्री संगीत
द्वारा मनोरंजन कर रहे हैं। जल रंग द्वारा बने इस चित्र में निचले भाग के पैनल पर एक
मानवाकृति को एक हाथ में ढ़ाल लिये हुये दर्शाया गया है तथा दूसरे हाथ में तलवार होने
का संकेत मिलता है तथा मध्य में एक कबूतर तथा दांयी ओर एक बैल है पृष्ठभूमि सपाट व
अस्पष्ट है। चित्र 16 वीं शताब्दी के उत्तरी भारत का है। इस पत्र की माप 25.5X19.5
सेमी तथा सम्पूर्ण कलाकृति 18.8X14 सेमी है। चित्र को मनोवैज्ञानिक चित्रांकित क्रीड़ा
की श्रेणी में रखा जा सकता है परन्तु जिस प्रकार संगीतज्ञ व ढ़ाल-तलवार आदि को देख चित्र
को सामाजिक चित्राकृति की श्रेणी में भी लिया जा सकता है। चित्र 3- तीरन्दाजी दृश्य अस्पष्ट जल रंगों द्वारा कागज
पर चित्रित, चित्रपोथी 25.5×19.5 सेमी, चित्रकारी 18.8×14 सेमी, उत्तरी भारत, मध्य
16 वीं शताब्दी, प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय, लंदन 18 वीं शताब्दी उढ़ (अवध) में चौपड़ का खेल अत्यधिक लोकप्रिय था। चित्र
संख्या-4[6] में हिन्दुस्तान के रहन-सहन व संस्कृति को प्रदर्शित किया गया है। 1770 में
कर्नल वैपटिस्ट जैन्टिल फ्रैंच आरमी सलाहकार से नवाब सूजा उड़ ददौला को फैजाबाद की इस
चित्राकृति में चित्रित किया गया है। फैजाबाद के ही एक चित्रकार ने अपने भरपूर प्रयास
से यह चित्र जिसमें कई प्रकार के क्रीड़ा साधनों को चित्रित किया गया है जिसमे भारतीय
संस्कृति की छवि दिखाई देती है। चित्र 4- भारतीय क्रीड़ायें, फैज़ाबाद, उड़, 1774 ई., विक्टोरिया अल्बर्ट संग्रहालय, लंदन एक छोटे कागज पर चित्रित इस चित्र में प्रथम चौपड़ के क्रीड़ा की आकृति
जिसमें चार खिलाड़ियों को बैठे दर्शाया है। रेखाओं द्वारा चित्रित इस चित्र में काले
और सफेद रंग के अतिरिक्त अन्य रंगों का उपयोग नहीं किया गया है। दो खिलाड़ियों को शतरंज
का खेल खेलते दर्शाया गया है तथा पास ही दो व्यक्तियों को उनके पास खड़े चित्रित किया
गया है तथा उसके पश्चात् तीन व्यक्तियों को गंजीफा का खेल खेलते दिखाया गया है। उसके
पश्चात चतुर्थ स्थान पर बैकगमन का खेल देख मनोरंजन कर रहे हैं तथा इस के पश्चात् आठ
खिलाड़ी दो-दो के जोड़े में बैठे सामूहिक रूप में पासों का खेल खेलते चित्रित किये गये
हैं तथा इसके पश्चात तीनों खेल शेर और भेड़ के हैं। जिसमें प्रत्येक में सामूहिक रूप
में खिलाड़ी खेलते दर्शाये गये हैं तथा नवे स्थान पर निशानेबाज़ी के खेल चित्रित हैं
जो तीर कमान हाथ में लिये चित्रित हैं। इन क्रीड़ाओं में सभी क्रीड़ा साधन मानवीय विकास
में सहायक हैं तथा चित्रांकित क्रीड़ाओं का मनोवैज्ञानिक रूप है परन्तु मनोवैज्ञानिक
विकास के साथ-साथ यह सामाजिक विकास में भी सहायक है क्योंकि चित्र में सामूहिकता, सामाजिकता
अधिक प्रदर्शित होती है। मानसिक विकास की दृष्टि से तथा मनोवैज्ञानिक पहलू में भारतीय
चित्रांकित क्रीड़ाओं में गंजीफा का भी विशिष्ट स्थान है। इसका उदाहरण चित्र संख्या-5
में वृत्ताकार गंजीफा समूह और संदूक दर्शाया गया है जो करौली का 19 वीं शताब्दी का
है। चित्र 5[7] में इस समूह के 26 पत्ते दर्शाये हैं जिनमें विभिन्न
मानवाकृतियाँ अंकित की गई हैं तथा संदूक पर भी चित्रकारी की गई है। इन पत्तों में चित्रकारी
को सूक्ष्म रूप से दर्शाया गया है। चित्र अत्यधिक आलंकारिक व कलात्मक है। चित्र 5- वृत्ताकार गंजीफा समूह और संदूक, संदूक ल.
9 सेमी, ऊ. 4.6 सेमी, चौ.- 5 सेमी, पत्तें की परिधि 3.1 सेमी, 19 वीं शताब्दी, करौली,
राजस्थान, निजी संग्रह क्रीड़ाओं में मनोवैज्ञानिक
दृष्टिकोण से शतरंज सर्वोत्तम है। वर्तमान में भी विश्वनाथन आनन्द ने हमारे देश को
गौरवान्वित किया है। शतरंज क्रीड़ा के द्वारा आत्म विश्वास व मनोदृष्टि का विकास सहज
किया जा सकता है। चित्र 6[8] में चौकीनुमा शतरंज का बिसात व हाथीदांत तथा लकड़ी की सहायता
से निर्मित मोहरें हैं। इन मोहरों पर लाल, काले व चमकीले रंग की सहायता से चित्रकारी
की गई है। यह कलात्मक क्रीड़ा साधन राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में संगृहीत हैं। चित्र 6- शतरंज बिसात तथा मोहरें, हाथी दाँत व लकड़ी द्वारा निर्मित, 19 वीं शताब्दी, राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली सामाजिक व मनोवैज्ञानिक क्रीड़ाओं में पोलो का एक प्राचीन उदाहरण
चित्र संख्या-7[9] में दर्शाया गया है जो शाहनामा का है तथा लगभग 400-1010 ई. का है। चित्र 7- पोलो खेल, शाहनामा, लगभग 400-1010 ई., अल्बर्ट
हॉल संग्रहालय, जयपुर |
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निष्कर्ष |
चित्रांकित क्रीड़ाओं के मनोवैज्ञानिक व सामाजिक दोनों ही रूप परस्पर सहयोगी हैं। यह प्राचीन क्रीड़ा मानसिक विकास में तो महत्वपूर्ण हैं ही, परन्तु सामाजिक विकास में भी ये पौराणिक क्रीड़ायें अत्यधिक महत्वपूर्ण रही हैं। इनके माध्यम से सीखने की क्षमता का विकास होता है तथा नेतृत्व की क्षमता का भी विकास होता है। मानवीय अभिव्यक्ति का ज्ञान भी होता है। इन मनोवैज्ञानिक पहलूओं के अतिरिक्त प्रत्येक समाज के लोग एक-दूसरे के साथ इन क्रीड़ाओं के माध्यम से समय व्यतीत करते हैं। चित्रांकित क्रीड़ाओं के मनोवैज्ञानिक व सामाजिक ही नहीं वरन् क्रीड़ाओं के शैक्षणिक व राजनैतिक पहलू भी हैं जो मनुष्य के शैक्षणिक विकास व राजनैतिक विकास में भी सहायक हैं। शतरंज की चालें व चौपड़ के दांव-पेच में क्रीड़ा का राजनैतिक रूप भी देखा जा सकता है। क्रीड़ाओं का राजनैतिक पहलू इतना व्यापक है कि इतिहास भी इनसे प्रभावित है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. Topsfield, Andrew, The Art of Play Board and Card Games of India, Marg Publications, Mumbai, 2006, P. 143-144
2. वहीं, पृ. 155
3. वहीं, पृ. 156-157
4. Banerjee, P., The Blue God, Lalit Kala Akadmi, Delhi, 1999, Pl. No. 103
5. Goswami, B.N., In Association with Usha Bhatia, Lalit Kala Akadmi, Rabindra Bhawan, New Delhi, Ch. 28, P.38
6. Topsfield, Andrew, The Art of Play Board and Card Games of India, Marg Publications, Mumbai, 2006, P. 21
7. Leyden, R. Van, Ganjifa : The Playing Cards of India, Francis Cairns Publications, London, 1982, P. 68
8. शतरंज बिसात, मोहरें, हाथीदांत व लकड़ी द्वारा निर्मित, 19 वीं शताब्दी, राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली
9. पोलो खेल, शाहनामा, लगभग 400-1010 ई., अल्बर्ट हॉल संग्रहालय, जयपुर |