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मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन में मारवाड़ की महिला संतो का योगदान (नागौर जिले के विशेष संदर्भ में) | |||||||
Contribution of Women Saints of Marwar in Medieval Bhakti Movement (With Special Reference to Nagaur District) | |||||||
Paper Id :
17675 Submission Date :
2023-05-12 Acceptance Date :
2023-05-19 Publication Date :
2023-05-25
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सारांश |
राजस्थान का जनजीवन अनेक धार्मिक मान्यताओ और आस्थाओं में बंधा हुआ था| राजस्थान की भागौलिक परिस्थितिओं, मध्यकालीन राजनीतिक संक्रमण, इस्लाम के प्रवेश एवं तुर्क आक्रमणों उतरभारत में भक्ति आन्दोलन आदि ने राजस्थान के जनमानस को भी उद्धलेत किया| मारवाड़ के महिला संतो ने मुस्लिम प्रभाव तथा रुढ़िवाद और से उत्पन्न वतावरण के विरुद्ध इन महिला संतो ने इन प्रथाओ का विरोध किया| मारवाड़ की महिला संतो ने जाति-पांति के भेदभाव से ऊपर उठकर प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की तथा भक्ति का सहज रूप ‘जाति पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई’ का मन्त्र दिया| जिससे विभिन्न अंधविश्वास और रुढियों से ग्रस्त जनमानस में नवीन चेतना एवं स्फूर्ति जाग्रत हुयी|
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The life of Rajasthan was tied in many religious beliefs. The geographical conditions of Rajasthan, the medieval political transition, the entry of Islam and the Turkish invasions, the Bhakti movement in North India, etc. also aroused the people of Rajasthan. The women saints of Marwar opposed these practices against the Muslim influence and conservatism and the environment created by them. The women saints of Marwar wished for the welfare of all living beings by rising above the discrimination of caste and gave the mantra of 'Jati panti puche nahin koi, Hari ko bhaje so Hari ko hoi'. Due to which a new consciousness and enthusiasm was awakened in the people suffering from various superstitions and customs. | ||||||
मुख्य शब्द | महिला संत, मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन, नागौर| | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Women Saints, Medieval Bhakti Movement, Nagaur. | ||||||
प्रस्तावना |
मध्यकालीन मारवाड़ की महिला की बहुत श्रृंखला है इन महिला संतो में मीरा बाई, करमाबाई, रानाबाई, फुलाबाई का नाम उल्लेखनीय है इन्होने एपीआई साहित्यक रचनाओं और उनमे निहित दर्शन द्वारा समाज में नई चेतना को जन्म दिया| इन संतो कवयित्रियों की रचनाओ में भी संत काव्य की प्रत्येक प्रवृति सम्मलित है| अपने पूर्ववर्ती और समकालीन संतो का प्रभाव ग्रहण करते हुए इन महिला संतो ने भी आत्म विश्वास,साहस एवं निर्भीकता के साथ प्राचीन रूढ़ पारम्पराओ एंव अवधारणाओ को तोडा, स्थानीय आम बोलचाल की भाषा में अपनी कविताओ एंव पदावलियों की रचना कर समाज के व्यापत आडम्बरों पाखण्डो, कुरीतियों की और ध्यान आकृष्ट किया| जाति धर्म एंव संप्रदाय के स्तर पर व्यापत कटुता की भावनाओ को अपने उपदेशो एंव शिक्षाओ से दूर करने का प्रयास किया|
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अध्ययन का उद्देश्य | इस लेख में मध्यकालीन मारवाड़ की महिला संतो में नागौर जिले की प्रमुख संत महिलयों द्वारा जनजागरण में दिए गये योगदान का विभिन्न स्रोतों, साहित्यिक रचनाओं और उसमे निहित दर्शन द्वारा समाज को जागरूक करने के बारे में वर्णन किया गया है| |
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साहित्यावलोकन | मध्ययुग ने मुस्लिम आक्रमण एंव भिन्न सांस्कृतिक परिवेश की स्थापना के साथ
मारवाड़ में पहले संघर्ष और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए जमीन तैयार की| इस
परिवर्तन के कारण महिलाओ की स्थिति में सबसे अधिक गिरावट आई| जो स्त्रियाँ ऋग्वेद काल में धर्म और समाज की प्राण थी उन्हें अब श्रुति
का पाठ करने के अयोग्य घोषित कर दिया गया| मध्यकालीन
मारवाड़ में प्रचलित, बालविवाह, बहुविवाह,
सती-प्रथा, कन्या वध एंव अविधा का अंहकार नारी
समाज के लिए अभिशाप सिद्ध होने लगा था| इन महिला
संतो ने इन कुप्रथाओ का विरोध किया और समाज को सही दिशा प्रदान करने में
महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह किया| सामाजिक जीवन
के पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारन स्त्रियों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया
जाता था इसका भी विरोध इन नारी संतो ने अपने उपदेशो के माध्यम से किया| भारत का मध्यकालीन सामाजिक एंव वैचारिक दृष्टि से सर्वाधिक कुण्ठा तथा संक्रमण
का काल था| ऐसे में भक्ति आन्दोलन के रूप में स्त्रियों को अपने लिए
आशा की किरण दिखाई दी| मीरा, फुलाबाई, कर्माबाई, रानाबाई ने
निर्मल और भक्तिपूर्ण पदों की रचना की| उन्होंने
धर्म गुरुओ द्वारा निर्धारित व् निर्देशित नारी के बन्धनों एंव वर्जनाओ को तोड़ने
का सहस किया| इन संत महिलाओ की प्रगतिवादी सोच
किसी मौन क्रांति से कम नहीं थी| |
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मुख्य पाठ |
मध्यकालीन मारवाड़ (नागौर) की
संत महिलाएं संत मीरा बाई कृष्ण भक्त कवयित्री व गायिका मीरा बाई सोहलवीं सदी के मारवाड़ (नागौर) के महान
संतो में से एक थी अपनी अगाध एंव माधुर्य भाव कृष्ण भक्ति के कारण मीरा काफी
प्रसिद्ध हुई इसलिए मीरा को राजस्थान की राधा की संज्ञा दी जाती है मध्यकाल की
महिला संतो में मीरा का नाम सर्वोपरी है नारी की अस्मिता की पहले आवाज मीरा के
काव्य में सुनाई पडती है मीरा के काव्य में एक और स्त्री की पराधीनता और यातना की
दु:खद अभिव्यक्ति है तो दूसरी और व्यवस्था के बन्धनों का पूर्ण निषेध और उनसे
स्वतंत्र होने का संघर्ष है| उसकी स्वत्रंता की आंकाक्षा जितनी आध्यात्मिक है उतना ही
सामाजिक भी आज स्त्री विमर्श के बुलंद नारों के बिच मीरा का व्यक्तित्व और उसका
काव्य अधिक प्रासंगिक हो गया है| मीरा का समय वह युग था जब राजस्थान में सामंती समाज का वर्चस्व था और नारी को
अपनी कोई स्वत्रंता नहीं थी| रीति रिवाजो परम्पराओ एंव कठोर अनुशासन का पालन करना राज
परिवार व अन्य स्त्रियों की नियति थी| पर्दा
प्रथा, सती प्रथा इस युग का धर्म था| अत: जब वह राज परिवार का युवरानी आई तो सामंती जीवन मूल्यों और उसके जीवन
मूल्यों में संघर्ष होना स्वाभाविक है| मीरा का जन्म परिचय मीरा का जन्म मेड़ता (नागौर) के राठौड राव दुदा के पुत्र रतनसिंह के घर कुडकी
(मारवाड़) नामक ग्राम में 1498 ई के लगभग हुआ था| इनके पिता रतनसिंह बजोली के जागीरदार थे| माता का नाम वीर कुमारी थी| जब यह
अल्पव्यस्क थी तब ही इनकी माता का देहांत हो गया था| तब मीरा का लालन पालन अपने दादाजी राव दूदाजी के पास मेड़ता में हुआ था| मीरा का जन्म का नाम ‘पेमल’ था| दूदाजी स्वयं कृष्ण के बड़े भक्त थे
और उनके आस पास हिन्दू संस्कृति के पोषक वातावरण
का प्राबल्य था| उनके पिता रतन सिंह चाचा
विरमदेव और दादी सभी वैष्णव धर्म के अनुयायी थे| ऐसे विशुद्ध वैष्णव धर्म के वातावरण का प्रभाव मीरा पर पड़ा जिससे उसके
संस्कारो में एक दृढ भक्ति उत्पन्न हो गयी| मीरा में कृष्ण भक्ति का उदभव मीरा में कृष्ण के प्रति निष्ठा अपनी दादी द्वारा उत्पन्न हुई थी एक बार बारात
को देखकर बालिका मीरा ने अपनी दादी से पूछा की यह बारात किसकी है ? तो दादी ने
कहा की यह बारात दुल्हे की बारात है| झट से पुछा
की मेरा दूल्हा कहाँ है ? तो दादी ने कहा की तुम्हारा दूल्हा
तो गिरधर गोपाल है| तभी से मीरा ने कृष्ण को
अपना पति मानकर उसको प्राप्त करने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण को समर्पित कर
दिया| मीरा कविताओ में कृष्ण एक योगी और प्रेमी
है और वह स्वयं एक योगिनी है जो आध्यात्मिक वैवाहिक आनन्द में उनकी जगह लेने के
लिए तैयार है| मीरा की शैली, भावपूर्ण मनोदशा, अवज्ञा लालसा, प्रत्याशा, आनन्द और संघ के उत्साह को जोडती है जो
हमेशा कृष्ण पर केन्द्रित होती है और उनकी कविताओ की विशेषता पूर्ण समर्पण है| मीरा का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था| शादी
के कुछ वर्ष बाद ही 1515 ई. में भोजराज की मृत्यु हो गयी| राजपरिवार की परम्पराओ के अनुसार मीरा को सती होने की सलाह दी गयी किन्तु
मीरा ने यह कहकर सती होने से इनकार कर दिया कि ‘गिरधर
गास्यां सती न होस्या मन मोइयों धण नामी’ आजे से लगभग 500
वर्ष पूर्व सामंती व्यवस्था की परम्पराओ के विरुद्ध यह शब्द घोष कर मीरा ने आत्मबल
का परिचय दिया| अपमान, तिरस्कार,
और घोर यातनाओ से भी वह विचलित नहीं हुई| मीरा ने तत्कालीन सामाजिक मान्यताओ, रुढियों और
परम्पराओ का अपने ढंग से विरोध किया एंव उन पर प्रशन चिन्ह लगया| लोक लाज कुल मर्यादा के नाम पर नाम पर नारी स्वातत्रय पर समाज द्वारा जो
शक्तिशाली बेडिया डाली गयी थी मीरा ने उन्हें काटकर फेंक दिया और घोषणा की- मैं तो सांवरें के रंग राची| साजि सिंगार बांध पग घुंघरू, लोक लाज तज नाची|| भोजराज की मृत्यु के बाद मीरा का जीवन भोजराज की मृत्यु के कुछ समय बाद दादा राव दुदा की मृत्यु हो गयी| कुछ
समय बाद मीरा के पिता खानवा के युद्ध में जो बाबर
के विरुद्ध 1527 में लड़ा गया था में मारे गये और इस युद्ध के बाद 1528 ई में उनके
श्वसुर सांगा का भी देहांत हो गया| इन घटनाओ के
पांच वर्ष की अवधि में उनके चाचा विरमदेव को मालदेव से पराजित होना पड़ा और उसके
फलस्वरूप मेड़ता उन्हें छोड़ना पड़ा| अब वह एक तरह
से बेघर हो गयी| मीरा के जीवन की यह कहानी दू:खी
जीवन की कहानी है सांगा के उत्तराधिकारियों में
गृह कलेश छिड़ गया| जिसमे मीरा ने पति की मृत्यु
से लेकर चाचा को मेड़ता से निकाले जाने की अवधि में चिन्तन मनन व अध्ययन कर समय का
उपयोग क्या| उसे मेवाड़ के राणा द्वारा जहर पिने
के लिए विवश किया जाना, सांप से कटवाना, पानी में डूब मरने के पर्यतन करना , उनके चरित्र पर
राणा द्वारा संदेह करना आदि कथानको के तारतम्य से
येही प्रतीत होता है कि मीरा का रवैया एक राजपूत परिवार की स्त्री के रवैये से
भिन्न था| जीव गोस्वामी से भेंट मीरा बाई वृन्दावन में भक्त शिरोमणि जीव गोस्वामी के दर्शन के लिए गयीं| जो
उच्च कोटि के संत थे, उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया यह
कहते हुए की वे स्त्रियों से नहीं मिलते| मीरा
ने प्रत्युतर में कहलवा भेजा की क्या वृन्दावन में पुरुष रहते है ? यदि कोई पुरुष है तो वे कृष्ण है जीव गोस्वामी इस संकेत से निरुतर हो गये,
क्योंकि पुष्टिमार्ग में सखी भाव से कृष्ण की सेवा की जाती है जहाँ
पुरुष और स्त्री में कोई भेद नहीं रहता उन्होंने तुरंत मीरा से भेंट की| श्रीकृष्ण में समाकर हुआ मीराबाई का अंत जीवनभर मीराबाई ने कृष्ण की भक्ति करने के कारण उनकी मृत्यु श्रीकृष्ण की
भक्ति करते हुई थी| मान्यताओ के अनुसार वर्ष 1547 में द्वारिका में वो कृष्ण
भक्ति करते करते श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गयी थी| जब उदय सिंह राजा बने तो यह जानकर बहुत निराशा हुई कि उनके परिवार में एक महान
भक्त के साथ कैसा दुर्व्यवहार हुआ| तब उन्होंने अपने राज्य के कुछ ब्राह्मणों को मीराबाई को
वापस लाने के लिए द्वारका भेजा| जब मीरा बाई आने
को राजी नहीं हुई तो ब्राह्मण जिद करने लगे कि वे भी वापस नहीं जायेंगे उस समय द्वारका में श्री कृष्ण जन्माष्टमी के आयोजन की तैयारी चल रही थी| मीरा बाई ने कहा कि वे आयोजन में भाग लेकर चलेगी| उस दिन उत्सव चल रहा था भक्तगण भजन में मग्न थे| मीरा नाचते नाचते श्रे रणछोड़राय जी के मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर गयी
और मंदिर के कपाट बंद हो गये| जब द्वार खोले गये
तो देखा की मीरा वहाँ नहीं थी| उनका चीर मूर्ति
के चारो और लिपट गया और मूर्ति अंत्यत प्रकाशित हो रही थी| मीरा मूर्ति में ही समा गयी थी| मीरा
बाई का शरीर भी कहीं नहीं मिला उनका उनके प्रियतम में मिलन हो गया था| जिन चरन धरथो गोबरधन गरब-मधवा-हरन|| दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन|| संत करमाबाई प्रसिद भक्तशिरोमणि करमाबाई का जन्म 20 अगस्त 1615 ई. में जीवणराम जी डूडी के
धर माता रत्नी देवी के कोख से राजस्थान नागौर जिले के कालवा ग्राम में पैदा हुई थी| यह
नागौर जिले में मकराना उपखण्ड मुख्यालय से 8 किमी दूर स्थित जिले का एक प्राचीन
एंव ऐतिहासिक स्थल है| यह गाँव कालूजी डूडी जाट
के नाम पर बसाया गया था| भक्तशिरोमणि कर्माबाई
ने कृष्ण भगवान को कई बार साक्षात अपने सामने बैठाकर खिचड़ा खिलाया था| कहा जाता है की जब मीराबाई का जन्म हुआ था उस समय गाँव में बहुत मुसलाधार
बारिश हुई थी| जो एक चमत्कार था एक बूढी दाई ने
कहा कि यह बालिका इश्वर का अवतार है| भक्त शिरोमणि करमाबाई की कृष्णभक्ति करमाबाई को मारवाड़ की मीरा भी कहा जाता है| जब जब भगवान श्री कृष्ण का उल्लेख आता है करमा का नाम भी
आ जाता है| वे श्री कृष्ण भगवान की महान भक्त थी
और कृष्ण ने उन्हें साक्षात दर्शन दिये थे| इनका जन्म भगवान की बहुत मन्नतें मांगने के बाद इसका जन्म हुआ था| नाम
रखा करमा| करमा के चेहरे पर एक अनोखी आभा थी
बचपन से ही उसमे भक्तिभाव के संस्कार थे, कर्माबाई
के पिता जीवन राम स्वयं ही धार्मिक पुरुष थे और वे अपनी बेटी से बहुत स्नेह रखते
थे इसी माहोल में करमा 3 साल की हो गयी थी एक बार जीवनराम को कार्तिक स्नान के लिए
पुष्कर जाना था| उनकी पत्नी भी उनके साथ जा रही
थी| वे करमा को भी साथ ले जाना चाहते थे लेकिन
एक समस्या आ गयी उनकी अनुपस्थिति में भगवान को भोग कौन लगाता ? इसीलिए उन्होंने करमा को यह जिम्मेदारी दी और बोले बेटी हम दोनों पुष्कर स्नान के
लिए जा रहे है| तुम सुबह भगवान को भोग लगाना और
उसके बाद भोजन करना| करमा ने यह जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली| इधर माता-पिता यात्रा के
लिए रवाना हुय इधर घर पर करमा ने सुबह स्नान आदि कर बाजरे का खीचड़ा बनाया उसमे खूब
घी डाला और पूजा के लिए भगवान की मूर्ति के पास आ गयी थाली सामने रखी और हाथ जोड़कर
बोली, है प्रभु भूख लगे तब भोग कर लेना तब तक मैं घर का काम कर
लेती हूँ| इसके बाद वह काम में लग गयी बीच-बीच में वह थाली देखने आती लेकिन भगवान ने
खिचड़ा नहीं खाया थाली वैसी ही रखी हुई थी जैसी करमा कुछ देर पहले रख कर गयी थी| काफी देर होने के बाद भी जब भगवान ने भोग नहीं खाया तो उसे चिंता हुई क्या
खिचडे में घी की कमी रह गयी या मीठा और ज्यादा करना था? उसने और
गुड मिलाया और वहीं बैठ गयी| लेकिन भगवान ने फिर
भोजन नहीं खाया तब उसने कहा, हे प्रभु आप भोग लगा लीजिये
माता पिता पुष्कर नहाने गये है आपको जिमाने की जिम्मेदारी मुझे दी गयी है इसीलिए
आपके भोग लगाने के बाद ही में खाना खाउंगी लेकिन भगवान फिर भी नहीं आये| करमा की शिकायत वह बोली माँ बापू जब जिमाते है तो भोग लगा लेते हो और आज इतनी देर कर दी खुद भी भूखे बैठे हो और मुझे भी भूखी रखोगे लेकिन भगवान फिर भी नहीं आये और करमा का खिचड़ा वहीं रखा हुआ था| करमा ने इंतजार किया फिर बोली तुम्हे मेरे हाथ से ही खिचड़ा खाना होगा| माता पिता को आने में कई दिन लग जायेंगे तुम जीम लो वरना मैं भी भूखी ही रह जाउंगी| करमा का खिचड़ा खाने कन्हैया नहीं आये दोपहर बीत गयी, शाम होने लगी, लेकिन करमा ने कुछ भी नहीं खाया| आख़िरकार कृष्ण को आना ही पड़ा और बोले, करमा तुमने पर्दा तो नहीं किया| अब ऐसे भोग कैसे लगाऊ? यह सुनकर करमा ने अपनी ओढ़नी की ओट की और उसी की छाया में कृष्ण ने खिचड़ा का भोग लगाया| थाली पूरी खाली हो गयी| इतनी सी बात थी तो पहले ही बता देते खुदभी भूखे रहे और मुझे भी भूखा रखा| इसके
बाद करमा ने भोजन खाया अब तो रोज करमा खिचड़ा बनाती है और कृष्ण को भोग लगाती है| जीवन के अंतिम दिनों में करमा बाई भगवान जगन्नाथ की नगरी चली गयी और वहीं रहने
लगी| वहां रोज भगवान को खिचडे का भोग लगाती और भगवान उसके हाथ
से खिचड़ा खाने आते आज भी भगवान जगन्नाथ को खिचडे का भोग लगाया जाता है| गुरूजी बताते है की श्री कृष्ण भगवान तो भाव के भूखे होते है और अपने भक्त की
पुकार पर दोड़े चले आते है ऐसी ही भक्त थी करमा बाई| संत शिरोमणि फूली बाई जन्म परिचय राजस्थान की जाट जाति में भक्त शिरोमणि राणा बाई के बाद संत शिरोमणि फूली बाई
का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है फूली बाई का जन्म 1568 ई. में मारवाड़
रियासत के मांझवास गाँव में हुआ| मांझवास वर्तमान में नागौर जिले से 25 किमी दूर स्थित है| फुलाबाई के दादा का नाम थेलाजी और पिता का नाम हेमाराम मांझू था जो जाट
गोत्र के थे इनकी माता का नाम नोजा था| फूली बाई
के एक छोटा भाई था जिसका नाम डूंगर राम था| फूलीबाई का बचपन फूली बाई का बचपन गायें चराने व खेती के कामो में व्यतीत हुआ| बचपन से ही उसका रुझान भक्ति भावना की तरफ था| जब फूली बाई के घर कोई साधू संत आता था तो वह बहुत हर्षित होकर उसके आवभगत करती थी| धीरे धीरे उसमें भक्ति की भावना प्रगाढ़ होने लगी थी| संत ज्ञानीजी से प्रभावित लगभग 12 वर्ष की उम्र में एक दिन फूलीबाई दोपहर का भोजन लेकर खेत की तरफ जा रही थी रास्ते में उसे नागाणा गाँव के प्रसिद्ध संत ज्ञानीजी मिले| ज्ञानी जी की सूक्ष्म दृष्टि के सामने फूलीबाई का आध्यात्मिक स्वरूप झलक गया| वे उनमे भक्ति भावना को बढ़ाने के लिए बोले “बाई मै भूखा हूँ, मुझे कुछ खाने को दो" फूली बाई ने भोजन ज्ञानी जी के सामने रखा और उन्हें श्रद्धापूर्वक भोजन कराया| संत ज्ञानी जी इससे बहुत प्रसन्न हुए और भोजन के उपरांत उसके सर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए उसे राम राम स्मरण करने का उपदेश दिया| गुरु के उपदेश से फूली बाई की पूर्व जन्म की संचित भक्ति प्रकट हुई और अब उसमे
राम राम के शब्द का गुजांमान होने लगा| फूलीबाई राम नाम के गुरु मंत्र से धन्य हुई| ज्ञानी को उसने गुरु मान लिया था अब फूलीबाई ने भक्ति की लगन लग गयी और
वह राम नाम में लीन हो गयी| वह अब सांसारिक सुख
व भोगो से दूर हो गयी| फूलीबाई का विवाह से मना करना सांसारिकता दूर देखकर उसके पिता चिंतित हुये और उसे सांसारिक जीवन में बांधने के लिए योग्य वर की खोज करने लगे| परन्तु फूलीबाई ने इसमें किसी प्रकार की कोई रूचि नहीं ली और पिता को कह दिया कि वह विवाह नहीं करेगी| ऐसी स्थिति में पिता ने नाना से बातचीत कर फुलीबाई की सगाई 1583 ई. संवत में उसकी सगाई बाड़ेला गाँव के मानोजी जाणी के पुत्र से कर दी| जब इस बात की जानकारी फूलीबाई को हुई तो वह यह सुनकर चकित हुई और परेशानी में पड़ गयी| अंत में फूलीबाई ने साफ मना कर दिया कि चाहे जो हो वो विवाह नहीं करेगी फूली बाई ने अपने नाना से कहा जिस वर की आप इतनी प्रशंसा कर रहे हो वह मुर्दे के समान है जो आज है और कल मृत्यु को प्राप्त हो सकता है और मुझे वैघव्य झेलना पड़ेगा| इसीलिए मैने ऐसे पुरुष से विवाह कर लिया है जिसका न तो जन्म हुआ न ही मरता है| कन्या जो कुंवारी होती है उसका विवाह किया जाता है मैं तो परमेश्वर से विवाह कर चुकी हूँ| फूली के सामने नाना को झुकना पड़ा और बारात को वापस लौटना पड़ा बाड़ेला के मानोजी जाणी ने विवाह न होने पर इसे अपना अपमान समझा और वह जोधपुर महाराजा के पास अपनी शिकायत लेकर पहुंचे इस पर जोधपुर के महाराजा 384 सवांरो के साथ आये और मांझवास गाँव में डेरा डाला| थेलाजी व हेमाजी मांझू को बुलाया गया| वहां फूलीबाई भी आ गयी और विवाह न कर भगवन की भक्ति पर जोर दिया| वहां फूलीबाई ने प्रमाण के तौर पर सवा सेर चावल में महाराजा सहित 384 सवांरो को भोजन कराया| भक्ति में लीन फूलीबाई भी मीरा की तरह परमेश्वर को ही अपना पति मानकर उसकी भक्ति में लीन हो
गयी सन 1587 ई. ने पूर्ण भक्ति का मार्ग अपना लिया| फुलीबाई
अब निश्चित होकर महादेवजी के मंदिर के पास खेजडा
के नीचे अपना सारा समय भजन चिंतन व राम स्मरण में लगाने लगी भक्ति के दौरान ही
1615 में उसके गाँव के उत्तर की तरफ पीलकुडी नामक तालाब खुदवाया| इश्वर प्रेम भोगी मांझवास गाँव की जाट खेतिहर परिवार की अशिक्षित फुलीबाई
की भक्ति सम्बन्धी चर्चा चारों और फैलने लगी| साधू संत फूलीबाई की भक्ति ज्ञान से प्रभावित होकर उनसे मिलने पर अपने को
धन्य महसूस करने लगे| महाराजा जसवंत सिंह और फूलीबीई एक बार फूलीबाई के सत्संग से प्रभावित होकर एक टोली घूमते फिरते काबुल पहुंची| उस समय जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह मुगल बादशाह की ओर से काबुल में तैनात थे| महाराजा जसवंत सिंह साधू संतो से मिलकर बड़े प्रसन्न हुए उनके मन में फूलीबाई के दर्शन की लालसा पैदा हुई काबुल से लौटते समय जोधपुर न जाकर महाराजा फुलीबाई से मिलने मांझवास पहुंचे फूलीबाई उस समय घर के बाहर बाड़े में थेपडीया थाप रही थी राजा ने पूछा फूलीबाई कौन है? तब फूलीबाई ने उत्तर दिया कि वही फूलीबाई है यह कहकर उपेक्षाभाव से ठेपडीया थापने लगी महाराजा वहीं खड़े रहे| उस दौरान गोबर के छींटे उछलकर राजा जसवंतसिंह के कपड़ो पर लग गये| राजा अपने कपड़ो को झाड़ते हुए विस्फ़टित नेत्रों से घूरते हुए मन ही मन में कहने लगे ‘तू बड़ी असभ्य और निर्लज्ज है| मैं तो महाराजा होकर तेरे घर सत्संग करने आया परन्तु तूने मेरी और ध्यान भी नहीं दिया उल्टे गोबर के छींटे डालकर मेरे कपडे ख़राब किये और मेरा अपमान किया| फूलीबाई ने राजा को सुनाया की तुम्हारा रजोगुण तो गया नहीं, राजस्व का
अभिमान पूरा बना हुआ है और आये हो मेरे साथ सत्संग करने फूली बाई ने राजा को
चेतावनी देते हुए कहा की “ऊँच-नीच का भाव ह्रदय से दूर कर मन
को स्थिर करो और यह निश्चित रूप से जान लो की तुम्हारा राजत्व, राजत्व के चिन्ह वस्त्र, मुकुट आदि और तुम्हारा शरीर
सब कुछ मिटटी में मिल जायेगा” तुम भी मिट्टी से उपजे हो और
मिट्टी में मिल जाओगे यदि विनाश से बचना चाहते हो तो भजन करो| दूसरा कोई उपाय नहीं, ऐसी देह की इतनी
साज-संभाल और एक गोबर का छींटा पड़ जाने पर इतना रोष क्यों| महाराजा फूलीबाई की बात समझ गये की यह पहुंची हुयी संत है फिर परीक्षा
लेते हुए पूछा तुम्हारा नाम फूलीबाई क्यों है? फूलीबाई ने उत्तर दिया की जब तक शरीर में सांस है तब तक फूली नहीं कई नाम रखे जा
सकते है जिस दिन शरीर से छुटकारा मिल जायेगा, उस दिन नाम रहेगा पुरणा| आत्मा और परमात्मा एक हो जायेंगे इसीलिए मुक्ति का एक ही मार्ग, राम नाम
का स्मरण है| फूली बाई उसी परमात्मा का स्मरण
करती है और आस पास कोई दूसरा दिखाई नहीं देता है| फुलीबाई के मुख से निकले प्रत्येक शब्द में शक्ति थी जिसकी उन्होंने कोई
कल्पना भी नहीं की थी| फूलीबाई के शब्द तीर के
तरह उनके मर्म स्थल में जा चुभे| वे जैसे सोते
से जग उठे| उन्होंने फूलीबाई की आध्यात्मिक शक्ति
को जानते हुए विन्रमतापूर्वक कहा फूली बहन तुमने मेरा बड़ा उपकार किया है मैं तुम्हें अपनी धर्म बहन बनाता हूँ| यह कहकर पांच
स्वर्ण मुद्राएँ और बाग्वेश उन्होंने फूलीबाई को भेंट किये| स्वर्ण मुद्राएँ की ओर देखते हुए उसने कहा ‘महाराज’
यह सब कुछ नहीं आपका तो भक्ति का
सम्बन्ध है भक्ति के सम्बन्ध में आपकी बहिन हूँ और आप मेरे भाई है, आप मेरे घर आये
है, आप मेरा आतिथ्य स्वीकार करें| सेना को भोजन कराया आतिथ्य स्वीकार करने के बाद महाराजा को भोजन करने के लिए बोला तब राजा ने कहा मैं अकेला नहीं हूँ मेरे पास सेना भी है उसको तुम कैसे भोजन करा पाओगी इस पर विचार
कर लो फूलीबाई ने कहा आप इसकी चिंता न करे| मेरे पास कुछ नहीं परन्तु प्रभु के भण्डार में कोई कमी
नहीं है| वे सब पूरा करेंगे फूलीबाई के आग्रह पर
सेना को बुला लिया गया| सब सैनिक आकर पंक्तिबद्ध
होकर भोजन के लिए बैठ गये| महाराजा व सैनिकों को विस्मय था की इतने सैनिको को भोजन बिना कोई पूर्व सूचना व तैयारी के कैसे बनेगा और कहाँ से आएगा और आ भी गया तो अकेली जाटनी भोजन
कैसे कराएगी? फूली ने बाजरे की रोटी और राबड़ी
बनायी और उसे लेकर जब फूली बाई ने उन्हें भोजन शुरू परोसना किया तो जितने फौज के सैनिक थे
उतनी ही फूलीबाई हो गयी वह प्रत्येक को मनुहार करके खिलाने लगी| इस तरह फूलीबाई ने बड़े प्रेम से सारी फौज को भोजन कराने के बाद फौज को पानी पिलाने की
व्यवस्था के अंतगर्त फूलीबाई ने 4 फुट गहरा एक गढ़ा खोद दिया जिसमे पानी आ गया और
सारी फौज ने उससे पानी पीकर अपने को तृप्त किया| घोड़ो के लिए भी जन्जलाई ताल में गड्डा खोद कर पानी की
व्यवस्था की गयी| इन चमत्कारों से प्रभावित होकर महाराजा जसवंतसिंह ने फूलीबाई को नतमस्तक होकर
प्रणाम किया और हाथ जोड़कर निवेदन किया कि बाई तुम मेरे साथ चलकर राजमहलों को पवित्र
करो तथा रानियों को ज्ञान देकर उनका भी कल्याण करो राजा के निमंत्रण पर फूली बाई
ने जोधपुर दरबार में रानियों को उपदेश दिए| जीवित समाधि ली कुछ दिन रानियों व राजा को स्पष्टता के साथ निर्भीकतापूर्वक उपदेश देने के बाद
फूलीबाई वापस अपने गाँव मांझगाँव आ गयी और भक्ति में लगी रही| यही पर
तालाब की पाल पर राम की भक्ति करते हुए 1646 ई.
(संवत 1703) में फूलीबाई ने 78 वर्ष की आयु में
जीवित समाधि ली| महाराजा जसवंतसिंह के काल में
ही चौधरी जियोजी,मेवाजी,घेवरजी ने संत
फूलीबाई की समाधि पर पक्की बनवाई| जहाँ आज फूली
बाई का मंदिर बना हुआ है| संत फूलीबाई की निर्गुणधारा भक्ति फूलीबाई नारी संतो में निर्गुणधारा की एक प्रमुख संत थी जो आत्मबल व निश्चय की
पक्की थी| वह बाल ब्रह्मचारिणी थी जिसने आजीवन कुंवारी रहकर अपना
पूरा जीवन ईश्वर भक्ति में व्यतीत किया| फूलीबाई
के जीवन काल में ही उसकी भक्ति के कई किस्से व
चमत्कार प्रसिद्ध हो गये थे जो कुछ इस प्रकार है – 1. फूलीबाई की थेपडी चुराने पर पहचान के रूप में थेपडीया से राम नाम की ध्वनि निकलना| 2. फूलीबाई के विवाह के दौरान बारात आने पर एक फूली के स्थान पर अनेक फूली बाई
दिखाई देना 3. खेत में न जाने पर भी उनके पिताजी को चारे के भारे बाड़े में पड़े मिलना| 4. साधू संतो के बर्तन के पीछे छोड़ आने के बावजूद उनके बर्तन मंगवा कर उनमे साधू
संतो को भोजन करवाना 5. महाराजा जसवंतसिंह की सारी सेना को बिना तैयारी के भोजन कराना पर जितने सैनिक
उतनी फूलीबाई तथा 4 फीट गहरा गढ़ा खोदकर सारी फौज को और उनके घोड़ो का पानी पिलाना उनके
जग प्रसिद्ध चमत्कार थे| इन सब चमत्कारों के कारण फुलीबाई अपने समय में ही संत के रूप में प्रसिद्ध हो
गयी थी| संत फूलीबाई आजीवन निराकार ब्रम्ह की उपासना में रही थी| अन्य
संतो की भांति उन्होंने सांसारिक नश्वरता,धार्मिक आडम्बरो और
माया का प्रतिकार किया| उन्होंने राम स्मरण
पर बल दिया उनका कहना था की मनुष्य जन्म बहुत ही दुर्लभ है उसे यों ही विषय भोगो
में गवाँ देना मुर्खता है| परमात्मा से भिन्न यह
सारा संसार नाशवान है और वह क्षण क्षण नाश की ओर दौड़ रहा है| फूलीबाई में जगत को माया का पसारा बताया और
कहा की प्राणी जगत में फंस का योनियाँ भुगतता है और जन्म मरण के चक्कर में उलझा
रहता है उसका एकमात्र उपाय राम स्मरण है| जब तक
मन में राम का वास हो जाता है तब संसारिकता विषय नष्ट हो जाता है संसारिकता से छुटकारा पाने का एक मात्र
उपाय साधू संतो की संगति व राम स्मरण है जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से अँधेरा
नष्ट हो जाता है उसी प्रकार राम की भक्ति से मनुष्य का अज्ञान नष्ट होकर ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है राम की भक्ति ही सच्चा
सुख है और इसी में मोक्ष समाहित है| वैराग्य,
सत्संग और राम स्मरण ही फूली बाई
की भक्ति में मुख्य साधन थे| उसकी राम में अपार
श्रद्धा फूली बाई में थी वैसा इसका उदाहरण दुर्लभ है| उसकी राम स्नेह से परिपूर्ण फूलीबाई की भक्ति में किसी का कोई आडम्बर नहीं
था उसने भक्ति का सरल मार्ग अपनाया और स्वयं राम की भक्ति में डूबकर राम मय हो गयी| फूली बाई ने बहुत ही सरल व सीधी भाषा में ज्ञान मार्ग व गूढ़ तथ्यों को
जनमानस के सामने रखा जिसने 78 वर्ष की आयु में जीवित समाधि लेकर संतो की श्रेणी में अमर हो गयी तथा मारवाड़ की धरती के गौरव को बढाया| वीरांगना रानाबाई वीरांगना रानाबाई प्रसिद्ध जाट वीर बाला एंव कवयित्री थी उनकी रचनाएँ राजस्थान
के मारवाड़ क्षेत्र में लोकप्रिय थी| रानाबाई को राजस्थान की दूसरी मीराबाई के रूप में भी जाना
जाता है| रानाबाई संत चतुरदस जी महाराज की शिष्या थी| जन्म परिचय रानाबाई का जन्म राजस्थान के नागौर जिले के परबतसर तहसील के हरनावा गाँव में
इस्वी सन 1504 व विक्रम संवत 1561 को वैशाख सुदी तृतीया (आखा तीज) के दिन चौधरी
जालम सिंह जी धूंण के घर में हुआ| डॉ पेमाराम के अनुसार वह धुन गोत्र जाट वंश की थी| पन्द्रह सौ इकसठ प्रकट, आखा तीज उत्सव| जाहिं दिन राणा जन्म हो, घर घर मगलाचार|| डॉ पेमाराम के अनुसार रानाबाई के पिता रामगोपाल थे और जालमसिंह उनके दादा थे| यह
बिरधिचंद के एक दोहे से भी स्पष्ट होता है| जाट उजागर धुन जंग,नामी जाल जाट| बैठे रचक ओ विगत, गण हारनावे ग्राम|| जालम सूत रामो सुजन, जा का राम गोपाल| उनके पुत्र भुवन ओरु, बुद्धि विशाल|| यह शोध का विषय है कि राव जैसल की वंसावली में नूनकर्ण के पुत्र हुए राज के
रूप में वर्णित हरजीराम भट्टी वहीं व्यक्ति है जिसने हरनावा ग्राम की स्थापना की
थी भात बहियों के अनुसार रानाबाई के दादा जालिमसिंह के दो बेटे थे जिनका नाम
रामोजी और रामगोपाल था|रामगोपाल का विवाह गढ़वाल जाट गोत्र की गंगा बाई से हुआ था रामगोपाल व गंगाबाई
के एक पुत्र व् तीन पुत्रिया थी पुत्र- बुवानजी और पुत्रिया- धनीबाई, राणाबाई और
धापूबाई थी| रानीबाई उनकी दूसरी पुत्री थी’|
रानाबाई के दादा जालम बाई हरनावा के आसपास बीस गाँव के प्रमुख सरदार
थे और वह खियाला के बिडियासर चौधरी के पास जमा कराते थे| रानाबाई की रहस्यमय शक्तियाँ व देवी का दर्जा रानाबाई ने अपने गुरु चतुरदास जी महाराज जिन्हें खोपा के नाम से भी जाना जाता
है से दीक्षा लेने के बाद खुद को पूरी तरह से भक्ति के लिए समर्पित कर दिया| जब
उसके माता-पिता आध्यात्मिक मामलों में उसके विकास के बारे में चिंतित हो गये तो
उसने एक ऐसी जगह खोजने की कोशिश की, जहाँ कोई ईश्वर की
भक्ति में बाधा न डाले| एक दिन उसे अपने घर के
पीछे एक जंगल में एक गुफा में ऐसी जगह मिली, जिसे स्थानीय
रूप से भंवरा के नाम से जाना जाता है| बिना किसी
को बताये वह गुफा के बिना कुछ खाए पिए रही| लोगों
का मानना है की इस दौरान भगवान ने खुद उन्हें जल भोजन प्रदान किया था| आखिर में जब जब लोगों ने उसे भंवरे में पाया, उन्होंने
लोगों के सामने बाहर आने का अनुरोध किया| तपस्या
और ध्यान केन्द्रित करने के बाद राणाबाई ने आत्मज्ञान प्राप्त किया उसकी कीर्ति
चारों और फ़ैल गयी और लोग उसके पास आशीर्वाद लेने आने लगे और उन्होंने देवी का
दर्जा प्राप्त किया| रानाबाई की वीरता की कहानी बादशाह अकबर के एक सूबेदार ने रानाबाई की अप्रतिम सुन्दरता और उनकी भक्ति के
बारें में सुना| एक बार 500 घुड़सवारों के दल के साथ ग्राम हरनावा से 6 किमी
की दूरी पर गेछोलाव तालाब के पास तैनात था| वह
दुराचारी व्यक्ति था एक दिन जालम सिंह खिन्याला से कर चूका कर लौट रहे थे, जालम सिंह ने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और उनके
साथ दुर्व्यवहार किया| मुस्लिम सूबेदार ने
जालमसिंह को गिरफ्तार कर लिया और हरनावापर हमला कर दिया जब रानाबाई को पता चला की
मुस्लिम सूबेदार ने उससे शादी करने के इरादे से हरनावा पर हमला किया है तो उसने हाथ में तलवार ली और एक शेरनी की तरह मुस्लिम सैनिकों पर हमला कर दिया| उसने मुस्लिम सूबेदार पर हमला किया और उसका सर काट दिया| उसने कई सैनिको को भी मार डाला| उसकी
बहादुरी को देखकर बाकि सैनिक भाग खड़े हुए और रानाबाई
ने अपने दादा जालमसिंह को मुक्त करवा लिया| रानाबाई
की यह वीरता पूरे मारवाड़ में फ़ैल गयी| रानाबाई द्वारा राधा-कृष्ण की भक्ति राना बाई एक ब्रह्मचारिणी, भगवान गोपीनाथ की प्रबल भक्त और भक्ति परम्परा की अनुयायी थी| भजन पूजन की रानाबाई की बचपन से ही प्रवृति ने उनके पिता को चिंतित कर दिया
था| उसके माता-पिता ने उससे शादी करने के लिए एक
उपयुक्त लड़के की तलाश शुरू कर दी लेकिन उसने यह कहते हुये शादी करने से इनकार कर
दिया की उसने भगवान को अपने पति के रूप में मान लिया| जब उसके पिता ने शादी के लिए राजी किया तो उसने उत्तर इस प्रकार दिया राणा कहे राम वर मेरा, सतगुरु मेथा सब उलझा हुआ| अमर सुहाग अमर वह पाया, तेज पुंज की उनकी काया|| रानाबाई ने सलेमबाद के निम्बार्काचार्य परशुराम के साथ मधुरा वृंदावन के
तीर्थस्थलों का भ्रमण किया था| कहा जाता है कि उन्होंने स्पष्ट रूप से कृष्ण को वृन्दावन
में देखा था उसने भगवान गोपीनाथ से अपने मरुधर देश में आने का अनुरोध किया| ऐसा माना जाता है की गोपीनाथ ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया और मूर्तिकला के रूप में जाने की कामना की| रानाबाई राधा के साथ गोपीनाथ की मुर्तिया लाई और उन्हें हरनावा में
स्थापित किया| इस प्रकार रानाबाई गोपीनाथ और राधा को हरनावा ले आई| वह
सदैव उनकी पूजा अर्चना में लगी रहती थी| उन्होंने
भगवान गोपीनाथ के लिए कई कविताओं की रचना की है वह अपना अधिकांश समय राधा और कृष्ण
की पूजा में व्यतीत करती थी| रानाबाई अपने पीछे
कई भावपूर्ण और प्राथनापूर्ण गीतों की विरासत छोड़ गयी जो आज पूरे मारवाड़ में गर्व
के साथ गाये जाते है रानाबाई को भक्ति आन्दोलन की परम्परा में एक महत्वपूर्ण संत के रूप
में जाना जाता है| रानाबाई की समाधि रानाबाई ने फाल्गुन शुक्ल त्रियोदशी संवत 1627 (1570 ई) को ग्राम हरनावा में जीवित समाधि ली| बिरधि चन्द ने एक दोहे में समाधि लेने के बारे में उल्लेख किया है सौला सौ विक्रम सही, सताइस शुभ वर्ष| ली समाधि राणा समझ जग झूठा जंजाल||
रानाबाई के दुनिया छोड़ने के बाद उनके भाई भुवनजी ने कच्ची समाधि बनवाई| समाधि
आज भी हरनावा में गोपीनाथ के मंदिर के पास मौजूद है| हरनावा में भादवा सुदी तेरस को रानाबाई के समाधि पर भव्य मेला आयोजित होता
है| |
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निष्कर्ष |
भक्ति आन्दोलन महिलाओ के बेहतर स्थिति को वापस हासिल करने की कोशिश की और प्रभुत्व के स्वरूपों पर सवाल उठाया| भक्ति आन्दोलन ने मारवाड़ में नारीवाद की जड़े मजबूत की| महिलाओ ने अपनी भक्ति से अपने लिए स्वायत स्थान बनाया और उन्हें बाध्य करने वाले सभी सामाजिक मानदंडो को उजागर किया| भक्ति आन्दोलन ने हिन्दुओं और उनकी महिलाओं को प्रेम और भगवान की भक्ति की ओर प्रेरित किया| भक्ति आन्दोलन में महिलाओ ने गृहस्थ जीवन को त्याग कर भगवान कृष्ण के प्रति अपने को समर्पित कर दिया और तप के द्वारा आत्मविश्वास और आत्मस्वाभिमान को प्रकट किया| मीरा उन्मुक्त स्वर में शक्ति सम्पन्न सामन्ती अभिजातियों से ये पूछने का दुस्साहस करना ही रुढ़िग्रस्त समाज के मुहं पर पर्याप्त प्रहार है की “राणाजी थे क्याने महान्सू बेर” मीरा का यह मुखर स्वर नारी का आत्मविश्वास आत्मस्वाभिमान का उद्धघोष है और भीतरी स्वयंप्रभा का उज्जवल आलोक है जिससे आने वाली पीढ़ियों को निरन्तर मार्गदर्शन मिलता है| |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डॉ. पेमाराम और डॉ. विक्रमदित्य चौधरी, जाटो की गोख गाथा
2. ठाकुर देशराज: जाट इतिहास, महाराजा सूरजमल स्मारक शिक्षा संस्थान, दिल्ली 1934
3. सागरमल शर्मा: राजस्थान के संत ‘भाग-1, चिरावा, 1997, पृ- 193
4. चन्द्रप्रकाश डूडी : श्री रानाबाई व करमाबाई का इतिहास जयपुर, 1999, पृ.- 3
5. ओझा: जोधपुर राज्य का इतिहास
6. रैदास की पर्ची
7. डॉ जी. एन शर्मा, सोशल लाइफ इन मेडिवल राजस्थान
8. प्रियदास भक्त माला
9. राजस्थान का इतिहास,कला,संस्कृति,साहित्य परम्परा एंव विरासत- डॉ हुकम चंद जैन डॉ नारायण लाल माली
10. राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास- डॉ गोपीनाथ शर्मा
11. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A5%8C%E0%A4%B0 |