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कृषि उत्पादकता में हरित क्रांति का योगदान | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Contribution of Green Revolution to Agricultural Productivity | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Paper Id :
17712 Submission Date :
2023-04-16 Acceptance Date :
2023-04-21 Publication Date :
2023-04-25
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सारांश |
किसी भी क्षेत्र के विकास में मानवीय पक्ष की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है। मानव ही किसी क्षेत्र की प्रगति की योजना बनाता है तथा उसके क्रियान्वयन हेतु सकारात्मक प्रयास करता है। मानव संसाधन यदि शिक्षित, प्रशिक्षित, बुद्धिमान तथा विवेकशील है तो देश का विकास शीघ्रता से होता है। इसके विपरीत स्थिति में प्रगति धीमी हो जाती है। यही बात भारतीय कृषि के संबंध में भी लागू होती है। भारत में कृषक अभी भी अशिक्षा, अज्ञानता, अनभिज्ञता, धनाभाव तथा रूढ़िगत भावना से ग्रस्त हैं तथा अभी भी कृषि के परंपरागत तकनीक अपनाये हुए हैं यही कारण है कि यहाँ कृषि प्रगति की गति धीमी है। कृषि की दृष्टि से भारत एक महत्वपूर्ण देश है। इसकी दो-तिहाई जनसख्ं या कृषि कार्यों में संलग्न है। कृषि एक प्राथमिक क्रिया है जो हमारे लिए अधिकांश खाद्यान्न उत्पन्न करती है। आज भी कृषि विश्व की अधिकांश जनसंख्या का प्रमुख व्यवसाय तथा आय का सबसे बड़ा स्त्रोत है। विकासशील देशों में प्रधान व्यवसाय होने के कारण कृषि राष्ट्रीय आय का सबसे बड़ा स्त्रोत रोजगार एवं जीवन-यापन का प्रमुख औद्योगिक विकास, वाणिज्य एवं विदेशी व्यापार का आधार है। “हरित क्रांति” शब्द की रचना डॉ. विलयिम माड S (USAID के तत्कालिक प्रशासक) द्वारा की गई थी। उन्होंने 1968 में एशिया और लेटिन अमेरिका के विकासशील देशों में नई कृषि प्रौद्योगिकी द्वारा प्राप्त सफलता का वर्णन करने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया। भारत में हरित क्रांति के प्रारंभ और उसको सफल बनाने का श्रेय मुख्यतः अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के भारतीय कृषि वैज्ञानिक डॉ एम.एस. स्वामीनाथन को जाता है। हरित क्रांति से सर्वाधिक उत्पादन गेहूँ और धान की फसलों का हुआ है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The role of the human side is most important in the development of any area. It is human who plans the progress of any field and makes positive efforts for its implementation. If the human resource is educated, trained, intelligent and sensible, then the development of the country happens quickly. On the contrary, progress slows down. The same thing is applicable in relation to Indian agriculture. Farmers in India are still suffering from illiteracy, ignorance, lack of money and conservative spirit and are still adopting traditional techniques of agriculture, that is why the pace of agricultural progress is slow here. India is an important country from the point of view of agriculture. Two-thirds of its population is engaged in agriculture. Agriculture is the primary activity that produces most of the food for us. Even today, agriculture is the main occupation of most of the world's population and the biggest source of income. Being the dominant occupation in developing countries, agriculture is the largest source of national income, the main source of employment and livelihood, the basis of industrial development, commerce and foreign trade the term Green Revolution was identified by Dr. William Mad S. He used the term in 1968 to describe the success achieved by new agricultural technology in the developing countries of Asia and Latin America. The credit for starting the Green Revolution in India and making it successful mainly goes to Dr. M.S. Swaminathan. The maximum production of wheat and paddy crops has been done by the Green Revolution. | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मुख्य शब्द | हरित क्रांति, कृषि, देशों की अर्थव्यवस्था, औद्योगीकरण। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Green Revolution, Agriculture, Economy of Countries, Industrialization. | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रस्तावना |
कृषि की दृष्टि से भारत एक महत्वपूर्ण देश है। इसकी दो-तिहाई जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न है। कृषि एक प्राथमिक क्रिया है जो हमारे लिए अधिकांश खाद्यान्न उत्पन्न करती है। खाद्यान्नों के अतिरिक्त यह विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चा माल भी पैदा करती है। इसके अतिरिक्त, कुछ उत्पादों जैसे - चाय, कॉफी, मसाले इत्यादि का भी निर्यात किया जाता है। कृषि समस्त उद्योगों की जननी, मानव-जीवन की पोषक, प्रगति की सूचक तथा सम्पन्नता का प्रतीक समझी जाती है। तीव्र कृषि विकास की ओर उन्मुख वर्तमान गतिशील विश्व के समस्त विकसित एवं विकासशील देश अपने उपलब्ध संसाधनों को अपनी परिस्थितियों एवं क्षमताओं के अनुरूप यथा सम्भव अनुकूलतम उपभोग कर कृषि उत्पादों में परिमाणात्मक एवं गुणात्मक सुधार तथा प्रगतिशील एवं व्यावसायिक कृषि के विकास हेतु सचेत एवं सतत प्रयासरत है।
मानव सभ्यता के विकास के प्रारम्भ से ही कृषि लोगों की अजीविका का प्रमुख साधन रही है। आज भी कृषि विश्व की अधिकांश जनसंख्या का प्रमुख व्यवसाय तथा आय का सबसे बड़ा स्त्रोत है। विकासशील देशों में प्रधान व्यवसाय होने के कारण कृषि राष्ट्रीय आय का सबसे बड़ा स्त्रोत रोजगार एवं जीवन-यापन का प्रमुख औद्योगिक विकास, वाणिज्य एवं विदेशी व्यापार का आधार है। कृषि इन देशों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तथा विकास की कुँजी है। सोपान पर चढ़कर ही विश्व के विकसित राष्ट्र आज आर्थिक विकास के शिखर पर पहुँच सके हैं। इग्ंलैण्ड जर्मनी, रूस तथा जापान आदि देशों के विकास में कृषि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा तीव्र औद्योगीकरण के लिए सुदृढ़ आधार प्रदान किया।
स्वतंत्रता के बाद कृषि विकास और खाद्य सुरक्षा भारत की मुख्य समस्याएँ रही हैं परंतु उन पर बल विविधतापूर्ण रहा है। परिणाम यह हुआ कि कृषि सेक्टर के विकास ने सविरामी रूप से शिखर और गर्त देखे। पहली पंचवर्षीय योजना ने अपने मुख्य फोकस के रूप में कृषि के विकास को अपने मुख्य केंद्र पर रखा इसके बावजूद दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत ने गंभीर खाद्य कमी का सामना किया। इस समस्या से निपटने के लिए 1958 में भारत में खाद्यान्न कमी के कारणों की जाँच करने और उपचारी उपाय सुझाने के लिए (संयुक्त राज्य के कृषि विभाग के डॉ. एस. एफ. जानसन की अध्यक्षता में) विशेषज्ञों का दल आमंत्रित किया।
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अध्ययन का उद्देश्य | शोध अनुसंधान के अन्तर्गत लक्ष्य प्राप्ति ही उद्देश्य शब्द का पर्याय है। अतः शोध कार्य किस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किया जा रहा है, यही वास्तव में शोध अनुसंधान का उद्देश्य होता है।
1. अध्ययन क्षेत्र में वर्तमान में हरित क्रांतियों का विश्लेषण करना।
2. हरित क्रांति के कारण कृषि की संरचना में हुए परिवर्तनों तथा कृषि विकास के लिए भावी रूपरेखा का आंकलन करना। |
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साहित्यावलोकन | रोहाणी, ईश्वरदास 2012 के
अनुसार ‘‘खेती-किसानी से अधिक श्रम साध्य एवं जोखिम भरा दूसरा
काम नहीं है, किसान का भाग्य प्रकृति पर निर्भर करता है।
कृषि लागत को कम कर खेती किसानी को लाभकारी बनाया जा सकता है। जो कि कृषि में
यंत्रों की सब्सिडी देकर कृषि यंत्र उपलब्ध कराने से संभव हो सकता है। भार्गव एम.के.एवं बडाया ए.के. 2013 ने
कुरूक्षेत्र पत्रिका के उन्नत तकनीक से गेहूँ उत्पादन’ नामक
लेख में बताया की खाद्यान्न उत्पादन में गेहूँ का धान के बाद दूसरा स्थान है।
गेहूँ लगभग 27 मिलियन हेक्टेयर में उगाई जाने वाली फसल है,
जिसका उत्पादन लगभग 75 मिलियन टन है। देश में
गेहूँ की औसत उपज 27.1 क्वि. हेक्टेयर है, जो अन्य देशों से काफी कम है। बीज मात्रा, बीजोपचार
पोषक तत्व प्रबंध सीमित सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण से यह उपज
बढ़ायी जा सकती है लेकिन उन्नत कृषि यंत्रों का प्रयोग कर मानव श्रम में कमी करने
के साथ-साथ कृषकों की आर्थिक उन्नति भी हो सकती है। श्रीवास्तव, आशीष 2014 ने
कुरूक्षेत्र पत्रिका के ‘‘खेती कैसे बने लाभ का व्यवसाय”
नामक लेख में बताया कि ‘‘कृषि में अनुकूल फसल
चक्र तोड़ने की क्षमता होती है। मिट्टी को रसायनों के जहरीले प्रभाव से मुक्त करने
के लिये विशेष प्रयास की आवश्यकता है, जो कि कृषि जैविक के
माध्यम से ही संभव है। समपोषीय जैविक कृषि उत्पादकता के मॉडल को अपनाकर कृषकों का
सामाजिक एवं आर्थिक स्तर ऊपर उठाया जा सकता है। कमजोर वर्ग के किसानों को जैविक
कृषि के प्रशिक्षण देकर उन्हें आर्थिक रूप से सक्षम बनाया जा सकता है। बढ़ती
जनसंख्या के फलस्वरूप प्रतिव्यक्ति घटती जा रही जोत एवं रसायनों के प्रयोग से
महंगी होती जा रही खेती लघु कृषकों की कमर तोड़ रही है। इसका समाधान अब प्राकृतिक
संसाधनों के समुचित उपयोग एवं पोषण पर आधारित आर्गेनिक फार्मिंग से ही सम्भव होगा
किन्तु ऐसी तकनीक की आवश्यकता है, जो जैवीय अपशिष्ट को कम
समय में कम्पोस्ट में बदल सके इसलिए ग्रामीण किसानों को इसकी विधियों एवं तरीकों
से अवगत कराना जरूरी है। इसके साथ ही साथ कृषि यंत्रों का कम दामों में अनुदान पर
मिलना भी एक कारगर कदम हो सकता है। उपाध्याय, मणिशंकर 2016 ने
कृषि आंकलन’ शोध पत्र में विकासशील देशों में कृषि उत्पादन
में हुए वृद्धि का वर्णन किया है, एक शताब्दी से भी कम समय
में इस एक तरफा कथित विकास के चारों ओर विनाशकारी परिणामों और प्रभावों का काला
घेरा गहराता जा रहा है। महंगे होते जा रहे कृषि यंत्रों की उपलब्धतता कृषकों से
दूर होती जा रही है।“ जोशी अनिरूद्ध 2021 ने ‘‘कस्तुरबा कृषि विज्ञान पत्रिका’’
के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत खाद्यान्नों तथा अन्य
कृषि उत्पादों की भारी कमी से जूझ रहा था। वर्ष 1947 में देश
को स्वतंत्रता मिलने से पहले बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था, जिसमें
20 लाख से अधिक लोगों की मौत हुई थी। इसका मुख्य कारण कृषि
को लेकर औपनिवेशिक शासन की कमजोर नीतियाँ थीं। उस समय कृषि के लगभग 10% क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी और नाइट्रोजन- फास्फोरस- पोटैशियम (छच्ज्ञ) उर्वरकों का औसत इस्तेमाल एक किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम था। गेहूँ और धान की औसत पैदावार 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास थी। |
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मुख्य पाठ |
वर्ष 1947 में देश की जनसंख्या लगभग 30 करोड़ थी
जो कि वर्तमान की जनसंख्या का लगभग एक-चौथाई है लेकिन खाद्यान्न उत्पादन कम होने
के कारण उतने लोगों तक भी अनाज की आपूर्ति करना असंभव था। रासायनिक उर्वरकों का उपयोग अधिकतर रोपण फसलों में किया जाता था। खाद्यान्न
फसलों में किसान गोबर से बनी खाद का ही उपयोग करते थे। पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं
(1950-60) में
सिंचित क्षेत्र के विस्तार व उर्वरकों का उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया गया लेकिन इन
सबके बावजूद अनाज संकट का कोई स्थायी समाधान नहीं निकल सका। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक स्तर पर अनाज व कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिये शोध किये जा रहे थे तथा अनेक वैज्ञानिकों द्वारा इस क्षेत्र में कार्य किया जा रहा था। इसमें प्रोफेसर नार्मन बोरलाग प्रमुख हैं जिन्होंने गेहूँ की हाइब्रिड प्रजाति का विकास किया था, जबकि भारत में हरित क्रांति का जनक एमएस स्वामीनाथन को माना जाता है।
मध्यप्रदेश में हरित क्रांति - मध्यप्रदेश में हरित
क्रांति का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। यद्यपि यहां पंजाब, हरियाणा,
आंध्रप्रदेश आदि की तरह प्रगति नहीं हो पायी तथापि खाद्यान्नों,
व्यापारिक फसलों, तिलहन आदि सभी के उत्पादन
में वृद्धि देखी हुई है। मध्यप्रदेश में हरित क्रांति से संबंधित लाभ गेहूँ की फसल
को हुआ है। हरित क्रांति के बाद उत्पादन के क्षितिज पर गेहूँ का ग्राफ तेजी से बढ़ा
है। इस अवधि के दौरान नलकूप प्रौद्योगिकी का आविष्कार, कृषि
उत्पादकता, विशेषकर पंजाब, हरियाणा और
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वृद्धि करने में योगदान से और फसल स्वरूप में परिवर्तन
करने में सहायक हुआ है। बहुत कम समय में गेहूँ क्रांति संपूर्ण उत्तर भारत में फैल
गई है और गेहूँ के उत्पादन और उत्पादकता में भारी वृद्धि हुई। बाद में ऐसी ही
क्रांति चावल की खेती में हुई। किंतु इसकी औचित्य, पारितंत्र
और पर्यावरण संबंिधत मुद्दांे पर गंभीर आलोचना भी हुई है। इसके बावजूद हरित
क्रांति प्रौद्योगिकी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के रूपांतरण में असाधारण योगदान
किया। खाद्य कमी की असम्मानजनक स्थिति जलयान से मुँह तक में ऐसे परिवर्तन हुआ कि
देश न केवल आत्मनिर्भर, बल्कि खाद्य अधिशेष देश भी बन गया। प्रस्तुत अध्ययन में कृषि उत्पादकता से संबंधित सरकारी अधिनियमों के लागू होने
एवं कृषि विकास पर कृषि क्रांतियों के प्रभाव को जानने का प्रयास किया गया है।
कृषि उत्पादन को कैसे बढ़ाया जा सकता है व इन कृषि क्रांतियों का कृषकों की सामाजिक
व आर्थिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है, जानने का प्रयास किया गया। साथ ही शासन
द्वारा चलाए जा रहे कृषि नीतियों, अधिनियमों, कार्यक्रमों एवं योजनाओं को जानने का प्रयास किया गया हैंहरित क्रांति से
कृषि उत्पादन में वृद्धि से कृषक परिवारों के सामाजिक व आर्थिक जीवन किस प्रकार
प्रभावित हुआ है, आदि तथ्यों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया
गया है। यह अध्ययन योजनाकारों व नीति निर्माताओं को भविष्य में तैयार की जाने वाली
विकास योजनाओं के निर्माण में मार्गदर्शन करेंगे। इस शोध के अध्ययन हेतु दो प्रकार के समंकों का चयन किया गया जो कि प्राथमिक
एवं द्वितीयक प्रकार के थे। द्वितीयक समंकों का संकलन विभिन्न शासकीय पुस्तकों, पूर्व शोध
पत्र पत्रिकाओं, जर्नल्स (राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय)
शासकीय प्रतिवेदनों तथा शासकीय विभागों का वेबसाइट्स के माध्यम से किया गया
है।प्राथमिक समंक संकलन के लिए साक्षात्कार अनुसूची जो कि शोधार्थी द्वारा विगत्
शोध पत्रों की सहायता से तैयार की गयी है। फसल के प्रतिरूप के आधार पर वर्गीकरण-
स्त्रोत: क्षेत्र सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त जानकारी के आधार
पर फसल के प्रतिरूप के आधार पर यह विदित होता है कि 38 प्रतिशत
कृषक एक फसली अर्थात एक भूमि खंड पर एक ही प्रकार की फसल की खेती करते हैं,
28 प्रतिशत कृषक दो प्रकार की फसल की खेती करते हैं तथा 34 प्रतिशत कृषक मिश्रित फसल की खेती करते हैं। तथ्य यह है कि विभिन्न प्रकार
की फसल की खेती एक ही भूमि खंड पर करने से भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती
है। शासन द्वारा सिंचाई कार्यों को दो भागों में विभाजित कर कार्य योजना संचालित
की जा रही है- 1. लघु सिंचाई 2. लघुतम सिंचाई राज्य में लघु सिंचाई कार्य योजनांतर्गत कृषकों के निजी सिंचाई स्रोतों की
वृद्धि हेतु कृषकों के खेतों पर नलकूप खनन तथा पंप लगाने के लिये नाबार्ड के
नार्म्स के आधार पर किसानों को आर्थिक मदद दी जा रही है। विभिन्न केन्द्रीय सहायता
योजना के अंतर्गत स्प्रिंकलर सेट स्थापित करने का कार्य भी संचालित है जिसमें हितग्राही
कृषक को अनुदान दिया जा रहा है। लघुतम सिंचाई के अंतर्गत 40 हेक्टेयर
तक भूमि में सिंचाई क्षमता वाले छोटे तालाब तथा भू-जल स्तर में वृद्धि के लिए
टैंक/वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर बनाने का कार्य भी कृषि विभाग द्वारा किया जा
रहा है। प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन अर्थशास्त्र के सिद्धांत में उत्पादन हेतु एक सूत्र बताया गया है जिसे ‘‘उत्पादन
फलन” कहते हैं। सूत्र में इसे निम्नानुसार परिभाषित किया गया
हैः- सूत्र P=f (a,b,c,....) P = Production (उत्पादन) f = function (सम्बन्ध) a,b,c,.....उत्पादन के घटक औद्योगिक उत्पादन, उत्पादन इनपुट्स पर निर्भर करता है। इनपुट्स के अंतर्गत पूंजी,
भूमि, प्रबंध, श्रम आदि
से उत्पादन बढ़ाया जा सकता है परन्तु कृषि में अर्थशास्त्र का सिद्धांत- ‘‘यदि अन्य बातें यथावत” (if the other things being equal) रहेंगी तो उत्पादन कम/अधिक हो सकता है। कृषि का पूरा दारोमदार जलवायु पर
निर्भर करता है। जलवायु प्रकृति का एक कारक (factor) है।
दूसरी ओर पर्यावरण का प्रभाव भी विपरीत असर डालने में सक्षम है। भारतीय कृषि के
बारे में कहा भी गया है ''Agriculture is gamble on rain” जाहिर
है कि कृषि अर्थशास्त्र में उत्पादन फलन कार्य नहीं करता जिससे कुल मिलाकर सकल
उत्पादन तथा बायप्रोडक्ट प्रभावित होता है। शोध प्रबंध
में सर्वेक्षित किसानों से ली गई जानकारी के संकलन का मूल्याँकन तालिका 5.10
में प्रस्तुत किया गया है। प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन कृषि क्रांतियों का योगदान एवं उत्पादकता में वृद्धि Chi-Square Tests
a. 0 cells (0.0%) have expected count less than 5. The minimum expected
count is 11.72. उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि वर्ग विश्लेषण (X2) का मान 9.979a5 प्रतिशत सार्थकता
स्तर (0.000<0.05) पर स्वीकृत है, अतः
उक्त परिकल्पना “कृषि क्रांतियों का योगदान एवं कृषि
क्रांतियों का योगदान एवं उत्पादकता में वृद्धि के मध्य सहसंबंध नहीं है" को
निरस्त किया जाता है। अतः कृषि क्रांतियों का योगदान एवं उत्पादकता में वृद्धि के
मध्य सहसंबंध को स्वीकृत किया जाता है। H0(1) कृषि क्रांतियों का कृषि विकास पर प्रभाव
सकारात्मक नहीं है।
फसल का प्रतिरूप के संदर्भ में 38 प्रतिशत कृषक एक फसली पर निर्भर है,
28 प्रतिशत कृषक द्विफसली बोते हैं तथा शेष 34 प्रतिशत कृषक मिश्रित फसल बोते हैं। यह प्रतिरूप भूमि की उपजाऊपन व
प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करता है। |
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निष्कर्ष |
शोध अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि सिंचाई के मुख्य साधन नहरें, तालाब व कुऐं हैं। वैसे तो सिंचाई का मुख्य स्रोत वर्षा है परंतु किन्हीं कारणों से वर्षा का वितरण सामान नहीं मिल पाता है तो इन भूमिगत स्त्रोतों से सहायता ली जाती है। अध्ययन के अनुसार 37 प्रतिशत कृषक तालाबों के माध्यम से सिंचाई का कार्य संपादित करते हैं, 31 प्रतिशत कृषक कुओं के माध्यम से सिंचाई करते हैं तथा शेष 32 प्रतिशत कृषक नहरों के माध्यम से सिंचाई करते हैं। इन साधनों में प्रारंभिक व्यय अधिक होता है व कुशल श्रम की आवश्यकता होती है।
कृषि जोत के आकार में परिवर्तन के संबंध में 69 प्रतिशत कृषक यह स्वीकार करते हैं कि विगत 10 वर्षों में कृषि जोत का आकार में परिवर्तन हुआ क्योंकि परंपरागत प्रणाली के स्थान पर आधुनिक यंत्रों का प्रयोग बढ़ने लगा तथा हरित क्रांति के फलस्वरूप विभिन्न प्रणालियों की सहायता से भूमि की क्षमता भी बढ़ने लगी।
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भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव | कृषि में उत्पादन बढ़ाने तथा वैज्ञानिक ढंग से खेती करने के लिए कृषि यंत्रीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। ट्रैक्टरों, पावर टिलर्स, आधुनिक हलों, पंपिंग सेट, थ्रेसरों आदि के अधिक से अधिक प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जनपद में बहु-फसली कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए तथा मिश्रित खेती का ढंग अपनाया जाना चाहिए। इसके लिए पशुपालन, डेरी व्यवसाय, फलों व सब्जियों को उगाने आदि कार्यों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जनपद में कृषि विकास के बारे में प्रयास किसी भी वर्ष मानसून की प्रतिकूलता के कारण निष्फल हो जाते हैं। अतः मानसून प्रकृति की निर्भरता को कम करने तथा दोहरी फसल उत्पन्न करने के लिए सिंचाई सुविधाओं का पर्याप्त विकास किया जाना चाहिए। कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए कृषकों को समय से उचित मूल्य पर उन्नतशील बीज उपलब्ध कराया जाना चाहिए, इसके लिए कृषकों को निजी स्तर पर अथवा सहकारिता के माध्यम से साख पर आधारित बीच वितरित किया जा सकता है यह व्यवस्था जितनी कुशल होगी एक सीमा तक उत्पादकता में सुधार लाना उतना ही अधिक संभव होगा। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. जोशी अनिरूद्ध (2021) ‘‘कस्तुरबा कृषि विज्ञान पत्रिका”, कस्तुरबा कृषि विज्ञान केन्द्र, इंदौर पेज नं. 48-51
2. कुमार. पी., शर्मा एस.के., सिंह जसबीर एवं कुमार खत्री हरीश (2014): ‘‘कृषि भूगोल’’, कैलाश पुस्तक सदन, भोपाल, पेज नं. 191-192
3. सेन, अमृत्य (2000) “भारतीय अर्थव्यवस्था“(रूद्रदत्त एवं के.पी.एस. सुंदरम) एस. चंद एडं कंपनी लिमिटेड पृ.स. 410-411
4. Swaminathan, M.S. (1992). Conserving Natural Resources for sustainable agriculture. In V.Kumar, Shrotriya & S.V. Kaore (eds.), Soil Fertility & Fertilizer use, vol, V. IFFCO, New Delhi, p. 226
5. गाविल ऋषि कुमार (2012) Green Revolution in India: Environmental Degradation and Impact on Livestock. Asian Journal of Water, Environment and Pollution, vol. 12, no. 1, pp. 75-80.
6. मिश्र श्रीकांत (2014) Modernity and Culture. Economic and Political Weekly, 2620-2620.
7. पंत, प्रीति (2016) भारत में हरित क्रांति के पूर्व एवं पश्चात् कृषि उत्पादकता का विश्लेषणात्मक अध्ययन, विज्ञान शोध पत्रिका, वॉल्यूम 2 (1), पृष्ठ संख्या 54-631।
8. Dhawan, B. D (1982) Development of Tube bell Irrigation in India”. Agro Publishing Academy. New Delhi.
9. www.technical development inagriculture.com कृषि तकनीकी विकास |