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दक्षिण भारत की
प्रमुख महिला सन्त आण्डाल |
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Prominent Female Saint of South India Andal | |||||||
Paper Id :
17745 Submission Date :
2023-07-06 Acceptance Date :
2023-07-20 Publication Date :
2023-07-25
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सारांश |
भारत के
सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास में दक्षिण के भक्ति आन्दोलन का भी विशेष महत्व रहा है।
यह एक विराट सांस्कृतिक आन्दोलन था। मध्यकालीन भारतीय जीवन पर इस आन्दोलन का
व्यापक प्रभाव पड़ा। दक्षिण में जो भक्ति की कई धाराएं उठीं। उसने उत्तर भारत
को भी प्रभावित किया। दक्षिण में आलवार भक्तों का उल्लेखनीय योगदान रहा। तमिलनाडु
में छठीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी का कालखण्ड भक्ति आन्दोलन का काल था।
सातवीं से आठवीं शताब्दी वैष्णव भक्त आलवारों का समय माना गया है। दक्षिण भारत में
आलवारों ने पहली बार दलितों और स्त्रियों को भक्ति अधिकार देकर सामाजिक क्रान्ति
का शंखनाद मुखरित किया। बारह आलवार भक्तों में आण्डाल अकेली महिला सन्त थीं।
आण्डाल सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में क्रान्ति की उद्घोषिका बनीं। दक्षिण
भारत की अन्य महिला संतों में अक्क महादेवी, माँ
अमृतानन्दमयी का विशिष्ट योगदान रहा है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The Bhakti movement of the South has also had special importance in the socio-cultural history of India. This was a huge cultural movement. This movement had a wide impact on medieval Indian life. Many streams of devotion arose in the South. It also influenced North India. Alwar devotees had a notable contribution in the south. The period from the sixth century to the ninth century was the period of the Bhakti movement in Tamil Nadu. Seventh to eighth century is considered to be the time of Vaishnav devotee Alwars. In South India, the Alwars raised the call for social revolution for the first time by giving devotional rights to Dalits and women. Andal was the only female saint among the twelve Alwar devotees. Andal became the herald of revolution in the social and spiritual fields. Among other women saints of South India, Akka Mahadevi, Maa Amritanandamayi have made special contributions. | ||||||
मुख्य शब्द | आलवार, आण्डाल, अक्क महादेवी, दलित, तिरुप्पावै, नच्चियार, त्रिरूमोली। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Alwar, Andal, Akka Mahadevi, Dalit, Tiruppavai, Nachchiyar, Trirumoli. | ||||||
प्रस्तावना | आण्डाल का जन्म काल
लगभग सन् 715 ई० या 716 ई० माना गया है। लोक मान्यता के अनुसार आण्डाल (गोदा देवी)
विल्लिपुत्तूर के विष्णुचित्त के यहाँ तुलसी की छाया में शिशु रूप में मिली थीं।
विष्णुचित्त अलवारों में पेरियाल्वार नाम से प्रसिद्ध थे। उनकी पोष्यपुत्री गोदा
देवी बचपन से ही कृष्ण भक्ति में लीन रहती थी। तमिल में ‘कोदै’
शब्द का अर्थ पुष्पमाला है। गोदा पिता के साथ रंगनाथ मन्दिर जाती
थी। विष्णुचित्त अपने बगीचे से फूल तोड़कर माला पिरोकर रंगनाथ को चढ़ाते थे और पूजा
करते थे। अपने पिता से आंखें चुराकर भगवान के लिए पिरोयी माला गोदा खुद पहनती थी
और बाद में वही चढ़ाने के लिए ले जाती थी। एक दिन माला में बाल चिपक गया था। तब
विष्णुचित्त को लगा कि अपवित्र माला कैसे रंगनाथ को चढ़ा सकते हैं? बेटी से पूछने पर असली बात सामने आयी। विष्णुचित्त ने ताजा फूल तोड़कर
माला बनाकर चढ़ाया तो उनको लगा कि रंगनाथ की मूर्ति पर वह फबती नहीं थी। बाद में
स्वप्न दर्शन हुआ कि गोदा की पहनी हुई माला ही चाहिए और गोदा साधारण स्त्री नहीं
है, वह पृथ्वी माता है जिसने भगवान रंगनाथ की पत्नी बनने
की कामना रखी है। ऐसा कहा जाता है कि रंगनाथ के मन्दिर में गोदा को ले जाने के लिए
पालकी, छत्र, चामर, गाजे-बाजे के साथ पुजारी आये थे। पेरियाल्वार अपनी बेटी को नव वधू के
वेश में ले आये थे। मन्दिर में गर्भगृह में कदम रखते ही वह रंगनाथ की मूर्ति में
समा गयी थी। इस तरह गोदा आण्डाल बन गयी। भगवान कृष्ण के प्रति आण्डाल की भक्ति
अनुपम थी। |
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. दक्षिण भारत में महिला संतों की
परम्परा का अध्ययन करना। 2. आलवार भक्तों की परम्परा का
अध्ययन करना। 3. तमिल की कृष्ण भक्त महिला संत
आण्डाल के जीवन का परिचय प्राप्त करना। 4. 8वीं शताब्दी के समाज पर आण्डाल
का प्रभाव रेखांकित करना। 5. आण्डाल के कृतित्व का अध्ययन
करना। |
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साहित्यावलोकन | 1. काणे, पी0वी0,
धर्म शास्त्र का इतिहास (द्वितीय खण्ड) (1992),
उ0प्र0 हिन्दी संस्थान लखनऊ। भारतीय धर्म तथा संस्कृति के विद्वान तथा अध्येता के
रूप में पी0वी0 काणे का स्थान रहा है। काणे ने पांच अध्यायों में धर्म,
संस्कार, तथा संस्कृति के विविध विषयों पर प्रामाणिक लेखन कार्य है। द्वितीय खण्ड में
स्त्रियों के धर्म सम्बन्धी अधिकारों का कालखण्ड के अनुरूप लेखन किया गया है।
विभिन्न प्राथमिक संस्कृत ग्रन्थों को सन्दर्भ में देकर लेखन को प्रामाणिक बनाया
गया है। 2. बड़थवाल, पीताम्बर दत्त, संवत 2007,
हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय (अंग्रेजी से
अनुवाद) अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ। इस
ग्रन्थ में मध्यकालीन निर्गुण सन्तों तथा पंथों पर आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत
की गई है। निर्गुण सन्तों के जीवन तथा कार्यों पर एक प्रामाणिक शोध कार्य है। 3. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, 2015, हिन्दी साहित्य का इतिहास,
मलिक एण्ड कम्पनी, दिल्ली। हिन्दी साहित्य के इतिहास में मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन पर लेखन किया
गया है। जिसमें सगुण तथा निर्गुण परम्पराओं का वर्णन किया गया है। 4. इराकी, शहाबुद्दीन, 2012, मध्यकालीन भारत में भक्ति
आन्दोलन सामाजिक एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन,
वाराणसी। इस पुस्तक में मध्यकालीन भारत में भक्ति
आन्दोलन के सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक पक्षों
को विवेचित-विश्लेषित करने का सफल प्रयास किया गया है। साथ ही सूफीवाद के प्रभाव
का भी अध्ययन किया गया है। 5. ताराचन्द, 1663, इन्फ्लुयन्स ऑफ इस्लाम ऑन इण्डियन कल्चर, इंडियन प्रेस, इलाहाबाद। इस पुस्तक में
इस्लाम के विभिन्न प्रभावों का वर्णन है। विशेष रूप से सूफीवाद का भारतीय धर्म तथा
समाज पर व्यापक प्रभाव तथा हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक सम्मिश्रण पर भी लेखन किया
गया है। |
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मुख्य पाठ |
आण्डाल की भक्तिपरक रचनाएं, ‘तिरूप्पावै’ और ‘नच्चियार
तिरूमोली’ लोकप्रिय बन गयी। ‘तिरूप्पावै’
में ‘मार्गशीनोन्पु’ अथवा
कात्यायनी व्रत का वर्णन है। यह व्रत रखते समय मार्गशीर्ष माह में प्रत्येक प्रातः
महिलाएं स्नान करती हैं जो ‘पौष स्नान’ के नाम से प्रसिद्ध है। ‘तिरूप्पावै’ के पदों में आद्यांत कृष्ण प्रेम में लीन आण्डाल
की छवि दर्शनीय है। आण्डाल स्वयं अपने को गोपी मानती थी। श्री बिल्लिपुत्तूर उसके
लिए ब्रजभूमि थी। वहाँ रहने वाली सारी भक्त महिलाएँ गोपियाँ थी। वटपत्रशायी भगवान
के मन्दिर को श्रीकृष्ण का राजमहल मानती थीं।
तिरूप्पावै के प्रथम पद में गोपियों के द्वारा मार्गशीर्ष व्रत रखने की इच्छुक
युवतियों को जगाने का वर्णन मिलता है। पाद सेवन और नाम कीर्तन की महिमा पर जोर
देती हुई बता रही है कि इस व्रतानुष्ठान से धरती की उर्वरता बढ़़ जाती है, समयानुकूल वर्षा होती है, लोक कल्याण हो जाता है।
लोक जीवन से जुड़ी बातें इसमें है। तिरूप्पावै में जो समूह भावना है वह एकदम
अनुकरणीय और सराहनीय है। तिरूप्पावै में नाम संकीर्तन की महिमा को बुलन्द करने
वाले पद मिलते हैं। भगवान का नामस्मरण करने मात्र से मुक्ति संभव है, ऐसा उनका मानना था। नाम संकीर्तन से मन की कलुषता और अहं की भावना मिट
जाती है। ईश्वर साक्षात्कार प्राप्त होता है। आण्डाल रचित तिरूप्पवै में एक स्थान पर कृष्ण और नीला देवी (नप्पिन्नै) के मिलन का
जीवन्त चित्र मिलता है जहाँ गोपियाँ कृष्ण से अभयचन
मांगती हैं। आण्डाल और अन्य सखियाँ कृष्ण के प्रेमावेश में विरह का अनुभव कर रही हैं। अत्यन्त प्रिय
सखी के रूप में आण्डाल शिकायत कर रही है। ये कृष्ण और नप्पिन्नै के मिलन में बाधा
बनना नहीं चाहतीं। अभयवचन मांगती हैं। आण्डाल की गोपियाँ विनयपूर्ण अधिकार भाव
व्यक्त करती हैं। आण्डाल पहले कृष्ण की प्रियतमा
नप्पिनै से प्रार्थना करती हैं कि उन्हें कृष्ण से मिला
दें। बाद में अपनी सखियों के साथ मिलकर कृष्ण से अपनी
अभिलाषा पूर्ति की मांग करती है। आण्डाल की वाणी में अनुपम शक्ति मौजूद है। उनकी
वाणी सिद्ध करती है कि स्त्रियों में भक्ति और ज्ञान की गहराई में पैठने की क्षमता
निहित है। तिरूप्पावै में आण्डाल की भक्ति भावना का अनुपम रूप झलकता है। मधुर भाव
से पूर्ण उनकी सूक्तियों में अनुभूति की तीव्रता है। पूरी श्रद्धा के साथ
तिरूप्पावै के पदों का गायन आज भी होता है। 'नाच्चियार तिरूमोली' आण्डाल रचित है। इसकी 143 सूक्तियों में आण्डाल के विरह दुख का
वर्णन है। गोपियों की तरह आण्डाल भी विरह वेदना का तीव्र अनुभव करती है। प्रकृति
के कण-कण में प्रियतम की खोज कर रही हैं। इन पदों में कृष्ण प्रेमिका के रूप में दुख, मान, क्रोध, आक्रोश, ईर्ष्या इन
सारे भाव और मनोविकारों की अभिव्यक्ति हुई है। नाच्चियार तिरूमोली में कृष्ण मिलन
की आतुरता के चित्र देख सकते हैं। आण्डाल का मन हमेशा कृष्ण के संग बना रहता है। कभी रास लीला तो कभी चीर हरण लीला में आण्डाल और
गोपियाँ रमती हैं। कृष्ण पांचजन्य बजाते हुए उसे अपनी
ओर खींच लेते हैं। इसमें ऐसे पद हैं जहां आण्डाल अनंग की उपासना करती हैं ताकि वे
जल्दी उसे अपने प्रियतम से मिला दें। आण्डाल ने अपने कुछ पदों में स्वप्न में
विष्णु भगवान से होने वाले विवाह का वर्णन किया है। आण्डाल की तुलना मीराबाई के साथ की जाती है। आण्डाल आठवीं शताब्दी में और मीरा
15वीं
शताब्दी में रहीं। आण्डाल और मीरा दोनों ने कृष्ण को ही
प्रियतम माना। इनकी भक्ति भावना में प्रेमपूर्ण सेवा भाव है। दोनों ने मन, वचन और कर्म से कृष्ण की उपासना की। दोनों में समर्पण की भावना है। |
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निष्कर्ष |
आण्डाल के समय में
घर गृहस्थी की मर्यादा तोड़कर बाहर भक्ति मार्ग में एकदम स्वतन्त्र होकर आगे बढ़ना
एक स्त्री के लिए साधारण प्रयास नहीं था। सामाजिक बंधनों के होते हुए भी तत्कालीन
सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को चुनौती देने वाली नारी के रूप में आण्डाल थीं। उनके
पद वैष्णव भक्तों के घरों में विवाह जैसे मंगलकार्य के समय गाये जाते हैं।
आध्यात्मिक दृष्टि से स्त्री-शक्ति जाग्रत करने में आण्डाल की अहं भूमिका रही है।
अपने समय में भोग की प्रवृत्ति के विरूद्ध आण्डाल की वाणी आलवारों के मध्य से
प्रस्फुटित हुई। आण्डाल का मानना था कि स्त्री केवल पुरुषों की वासनापूर्ति का
साधन नहीं है। वह मानती थी कि किसी भी स्त्री का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व है। तन
मन से रंगनाथ को अपनाकर उन्होंने सामाजिक रूढ़ियो का अतिक्रमण करते हुए अपने लिए स्वतन्त्र
राह खोज निकाली। इस तरह आण्डाल ने महिला स्वतन्त्रता का उद्घोष किया। आण्डाल का
सहज एवं उन्मुक्त प्रेम था। आण्डाल के लिए श्री रंगनाथ ही प्रेमी अन्तर्यामी थे।
मार्गशीर्ष महीने में आण्डाल तिरूक्कल्याण का पर्व मनाया जाता है। आज भी दक्षिण
में युवतियाँ सुयोग्य वर पाने के लिए ‘मार्गशीर्ष
व्रत’ रखती हैं और भावलीन होकर आण्डाल के पद गाती हैं।
तमिल जन जीवन के साथ आज भी आण्डाल की घनिष्ठता वर्तमान है। आण्डाल का प्रेम
परम्परा से हटकर एक विद्रोह था। लेकिन वह परम्परा के साथ भी था। उनका सम्पूर्ण
चरित्र दिव्य और आध्यात्मिक भी था। इसलिए तमिल संस्कृति में कवयित्री के साथ ही
देवी के रूप में भी आण्डाल की आराधना की जाती है। ‘मार्गशीर्ष
व्रत’ के माध्यम से स्त्रियों को भक्ति के क्षेत्र में
संगठित कर स्त्री-शक्ति का सामूहिक उपयोग उन्होंने समाज के सांस्कृतिक उत्थान में
किया था। इसलिए ही तमिल जनता आज भी देवी के रूप में उनकी उपासना करती है। श्रीरंगम
तथा अन्य मंदिरों में आण्डाल की अलग से पूजा होना उनके इस सामाजिक प्रदेय का
परिणाम है। भक्ति आन्दोलन के सामाजिक-सांस्कृतिक आधार और सर्जनात्मक स्वरूप को
देखते समय उनके इस योगदान का अपना अलग महत्व है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. वंशी, बलदेव,
भारतीय नारी सन्त परम्परा, वाणी प्रकाशन,
दिल्ली, 2017 |