ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- IV May  - 2023
Innovation The Research Concept
फुलवा: देशकाल की यही दरकार !
Phulwa: This is the Need of the Country!
Paper Id :  17695   Submission Date :  06/05/2023   Acceptance Date :  18/05/2023   Publication Date :  22/05/2023
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रामाश्रय सिंह
प्रोफेसर
हिंदी विभाग
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ,
वाराणसी,उत्तर प्रदेश, भारत
गजेन्द्र यादव
शोध छात्र
हिंदी विभाग
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ,
वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश ‘फुलवा’ कहानी रत्नकुमार सांभारिया जी की पहली कहानी है जो ‘हंस’ पत्रिका में 1997 ई0 में प्रकाशित हुई। इनकी मानसिकता का स्पष्ट रूप पहली ही कहानी में दिखाई दे जाता है। रत्नकुमार संभारिया जी की कहानी ‘फुलवा’ से ऐसी दरकार है, जो भारतीय लोकतंत्र में बदलाव की स्थिति को रेखांकित करती है। सवर्ण मानसिकता के लोग आज भी उसी मानसिकता में जी रहे हैं, जबकि ऐसा नहीं है। ‘फुलवा’ कहानी पढ़ने के बाद हम जैसे लोगों को सुकून मिलता है। दलितों और स्त्रियों के अन्दर जो गुणात्मक बदलाव आया है, वह बदलाव अब रिसने लगा है और सीढ़ी से ऊपर से नीचे की ओर खिसकने लगे हैं। जमींदार रामेश्वर जब गाँव से शहर आता है तो देखता है कि शहर में बरसात के मौसम में सर छिपाने के लिए भी जगह नहीं है, क्योंकि शहर में मकान के आगे गेट लगे हैं, जबकि गाँव में ऐसा नहीं। वहाँ जब जमींदार आता है और शहर की व्यवस्था को देखता है तो सर छिपाने अर्थात रहने की जगह ढूंढने लगता है। रामेश्वर शहर आया है अपने बेटे के नौकरी की सिफारिश करने गाँव के पंडित माता प्रसाद के पास। लेकिन गाँव के पंडित का सही पता नहीं होने के कारण ढूंढ़ नहीं पाता है। पता ढूंढ़ने के क्रम में ही जमींदार के यहां टहलुआई करने वाली ‘फुलवा’ के यहाँ पहुंच जाता है। रामेश्वर, मकान और उसकी व्यवस्था को देखकर आश्चर्य चकित रह जाता है। जातिगत संस्कारों में लिप्त होने के कारण फुलवा के यहां चाय और नाश्ता नहीं करता है। फुलवा शाम के समय रामेश्वर को पंडिताइन के पास पहुँचाने जाती है, पंडिताइन फुलवा को सम्मान के साथ बैठाती है। पंडिताइन के अन्दर जातिगत भेदभाव नहीं है। पंडिताइन भी विधवा है। पंडिताइन और फुलवा का व्यवहार जाति की सीमा को तोड़ता है। पंडिताइन रात में भोजन के बाद रामेश्वर को समझाती है और कहती है कि फुलवा का पुत्र एस0 पी0 है, जाकर फुलवा के पैर को पकड़ लो और अपनी समस्या को बता दो, तुम्हारा काम हो जायेगा। अंत में रामेश्वर भी अपनी मजबूरी के कारण जातिगत सीमा को तोड़ देता है और फुलवा के घर की ओर चल देता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The story 'Phulwa' is the first story of Ratnakumar Sambhariya ji which was published in 'Hans' magazine in 1997 AD. The clear form of his mentality is visible in the very first story. Ratnakumar Sambhariya ji's story 'Phulwa' has such a need, which underlines the situation of change in Indian democracy. Even today people of upper caste mentality are living in the same mentality, whereas it is not so. People like us feel relieved after reading the story 'Phulwa'. The qualitative change that has taken place in Dalits and women, that change has now started percolating and they are moving from top to bottom of the ladder. When Zamindar Rameshwar comes to the city from the village, he sees that in the city there is no place to hide his head in the rainy season, because there are gates in front of the houses in the city, while this is not the case in the village. When the landlord comes there and sees the arrangement of the city, he starts looking for a place to hide his head. Rameshwar has come to the city to recommend his son's job to the village Pandit Mata Prasad. But due to not having the exact address of the village priest, he is unable to find it. In order to find the address, he reaches the place of 'Phulwa', who wanders at the landlord's place. Rameshwar is amazed to see the house and its arrangements. Due to indulging in caste rituals, he does not have tea and breakfast at Phulwa's place. Fulva goes to take Rameshwar to Panditine in the evening, Panditine makes Fulva sit with respect. There is no caste discrimination in Panditian. Panditine is also a widow. The behavior of Panditine and Phulwa transcends caste boundaries. Panditain explains to Rameshwar after dinner at night and says that Phulwa's son is S.P., go hold Phulwa's leg and tell your problem, your work will be done. In the end, Rameshwar also breaks the caste boundary due to his helplessness and walks towards Phulwa's house.
मुख्य शब्द गँवई, सरसना, चक्करघिन्नी, फूँक, टेंटुआ, झिंझोड़ा, जात्याभिमानी, पानियाँ, फफोले, हरिश्चन्द्र, रामा मोहन, रामेश्वर, संती, रामेश्वर, पंडिताइन, मिंगन, नकसोर, बेमौसम।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Gawai, Sarsana, Chakkarghinni, Phoonk, Tentua, Jhinjhoda, Jatyabhimaani, Paaniyan, Fhole, Harishchandra, Rama Mohan, Rameshwar, Santi, Rameshwar, Panditain, Mingan, Naksor, Bemousam.
प्रस्तावना
रत्नकुमार सांभारिया जी दलित एवं वंचित वर्ग के कथाकार हैं। आज के बदलते समय के यथार्थ, बदलती सामाजिक प्रतिष्ठा की यह दरकार है? वह क्या है ? वह यह है कि यह कहानी अतीत को छोड़कर वर्तमान में जीने के लिए प्रेरित करती है। दलित किस तरह का संघर्ष कर नए सामाजिक वातावरण में समायोजित होता है। उदाहरणार्थ-किसी समय गाँव में बड़े मालिक के घर काम करने वाली फुलवा सचमुच वह फूल है। उसका वजन एक फूल के ही बराबर है। अब वह फुलना चाहती है, फुलने का सीधा अर्थ है वह लोकतंत्र को चुनौती देती है और कहती है- ‘‘हाय राम ! गाँव से आई तो मुटियार थे। बुढ़ा गये हो पन्द्रह साल में ही। अन्दर आइये न। फुलवा फूली नहीं समा रही थी। उसके घर गाँव के जमींदार के कुँवर आये हैं।’’[1] दरअसल किसी अर्थी को उठाने में 1,000 फूल कम हैं, किसी दुल्हन को सजाने में 100 फूल कम हैं, किसी के आँसू पोछने के लए 10 फूल कम हैं, लेकिन एकता, जाति गौरव के बोध के लिए एक ही फूल काफी है। हमारी माने तो वह फूल फुलवा है। जिसका शीर्षक सांभारिया जी ने बहुत ही ठोक ठठाके रखा है। उनका मानना है कि अतीतग्रस्तता, अज्ञानता, अविवेक, मोहमाया, अंधविश्वास, भ्रम, भय, भूल, भूख और भीख के कारण दलित कहानियों में उस समाज की स्पष्ट तस्वीरें नहीं उभर पाती, फुलवा के माध्यम से उसे उकेरने का सार्थक प्रयास है। यही शीर्षक की सार्थकता भी दिखाई पड़ती है। ‘फुलवा’ शीर्षक की व्यापकता को हम एक छोटी सी बात से जोड़कर भी देख सकते हैं। ‘‘एक गाँव में बुद्ध का आगमन हुआ। उस गाँव में एक गरीब दलित रहता था। उसका नाम सुदास था। जिस सुबह बुद्ध गाँव में आए, सुदास भोर में ही उठ गया था। सूरज निकला। सुदास अपनी झोपड़ी के पीछे जाकर देखा तो उसके तलैया में कमल का फूल खिला है। बेमौसम कमल के खिलने पर उसने सोचा, अगर इसको बाजार ले जाऊँगा तो जरूर एक रूपया देने वाला कोई न कोई ग्राहक मिल जाएगा। फूल तोड़कर सुदास बाजार की ओर यह सोचते हुए बढ़ा कि अगर एक रूपया मिल जाए तो धन्य हो जाऊँगा। नगर सेठ का रथ रास्ते में मिला। सुदास के हाथ में फूल देखकर उसने रथ रूकवाया और पूछा, कितने में कमल दोगे? सुदास की हिम्मत न पड़ी यह कहने की, कि पूरा एक रूपया लूँगा।’’[2] सुदास गरीब, दलित और सम्मान देने वाला व्यक्ति था। इससे वह संकोच कर रहा था तथा दूसरे वह बेमौसम फूल था, वह बोला ‘‘बेमौसम का फूल है, जो आप दे देें। नगर सेठ ने कहा, मैं इसके लिए पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ दूँगा, किसी और को मत देना। तभी राज्य के सेनापति का घोड़ा पीछे आकर रूका। उसने सुदास से कहा-वह फूल मैंने खरीद लिया है। नगर सेठ जितनी मुद्राएँ तुम्हें इसके दे रहे थे, मैं उससे दस गुना ज्यादा दे दूँगा। उनकी बात अभी चल ही रही थी कि राजा का रथ भी आ गया और उससे पूछा कितने का फूल है। जितने धन सेनापति देने का वचन दिया है, उससे दस गुना मुझसे ले लेना। सुदास बोला- जिसके बदले एक रूपया मिलने की भी मुझे आशा न थी, उसके लिए इतना धन कारण क्या है ? राजा ने कहा गाँव में बुद्ध आये हैं हम उनके स्वागत के लिए जा रहे हैं। उनकी कल्पना भी न होगी कि इस मौसम में कोई कमल का फूल उनके चरणों में रखेगा। इसलिए यह फूल मैं ही चढ़ाना चाहता हूँ। सुदास ने कहा महाराज, मुझे पता न था कि गाँव में भगवान का आगमन हुआ है मगर अब मैं इसे बेच नहीं सकता। इतने दिन गरीबी में गुजरा। आगे भी गुजार दूँगा। मगर वह फूल सुदास ही चढ़ाएगा।’’[3] सेनापति और नगर सेठ सुदास को गरीब जानकर प्रलोभन दे रहे थे कि वह अपनी बात से बदल जायेगा क्योंकि गरीब का कोई वजूद नहीं होता है। ‘‘जाहिर है, सुदास से पहले राजा, सेनापति व नगर सेठ, बुद्ध के पास पहुँच चुके थे। उन सबने जाकर उन्हें यह पूरा वाकया सुनाया। फिर सुदास आया उसने बुद्ध के चरणों में वह फूल रखा। बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा सुदास शिक्षित नहीं, पर विद्यावान है। जिसे जीवन में श्रेष्ठतर मूल्यों का बोध हो, जो श्रेष्ठ मूल्यों के लिए निम्न मूल्यों को समर्पित कर सके वही विद्यावान है। सुदास गरीब हो सकता है, पर हृदय से वह एक सम्राट है। तो बांटो जो कुछ भी तुम्हारे पास हो। भले वह एक फूल हो, एक गीत हो, या बस मौन, जो भी तुम्हारे पास है उसको बाँटों, जितना तुम बाँटोंगे, उतनी ही तुम्हारी चेतना विराट होगी, विस्तीर्ण होगी।’’[4] यहाँ रचनाकार की दृष्टि, सौन्दर्य बोध और संवेदनशीलता ‘फुल-वा’ से मिलती है।
अध्ययन का उद्देश्य फुलवा कहानी का उद्देश्य यही है कि आज भी देश के वीरानों को जो धरती बिछाते हैं। आकाश ओढ़ते हैं। पसीना से नहा लेते हैं। भूख खाकर सो जाते हैं। मुख्यधारा से दूर रहकर सजा याफ्ता की तरह जी रहे हैं ।इस कहानी से ऐसे लोगों के व्याकुल सपनें ? भींगी अरमाने?, छटपटाती आखों को अपने समय के सरोकारों के संग साथ साथ रहने का अवसर मिल जाएगा। सचमुच फुलवा की जिंदगी पेंडुलम की तरह कई स्तरों पर गांव, शहर व उसके रिश्तों के बीच ज्यादा झूलती है। जो भाव भूमि एवं संवेदनात्मक ऊर्जा के कारण हमारा ध्यान आकृष्ट कराती है। जिंदगी की लड़ाई एक व्यक्ति कितने स्तरों पर लड़ता है। जीतने का पैमाना तय कराती है। संदेश देती है कि हारा वही है, जो लड़ा नहीं है। यानी जीतने के लिए लड़ना ही पड़ेगा।
साहित्यावलोकन

संपूर्ण पेपर इस विषय पर उपलब्ध साहित्य पर आधारित है, इसलिए मुख्य लेख के अंदर रखने के लिए किसी अलग साहित्य समीक्षा की आवश्यकता नहीं है।

मुख्य पाठ

दरअसल सांभारिया जी पर यह बात हो रही है कि उनका मूल्यांकन इस बात पर नहीं होनी चाहिए कि उन्होंने क्या नहीं लिखा, बल्कि इस पर होना चाहिए कि उन्होंने क्या लिखा। शहर और गाँव का जो द्वन्द्व है वह सराहनीय है। जैसे-‘‘गँवई रामेश्वर शहर आकर सवाल बन गया था। बादल बनते हैं गॉव में पक्षी चहचहाकर बसेरा ढूँढ़ते हैं। कोयल कूँकती है। मोर पीहूँ-पीहूँ करने लगते हैं। चिड़िया रेत में नहाने लगती है। मेढ़क टर्राते हैं। कौए घबराकर कॉव-कॉव करते हैं। ......... ईंधन उपले, कपड़े लत्ते, खाट-पीढ़ी अन्दर पटको। बाहर पड़ा आधा घर, घर में आता है। पाँव धरने की जगह नहीं बचती घर में। वही शहर ! शहर कैसा बन्द है, मकानों में लोग ............ बादल देखने एक दो नवविवाहित जोड़े हाथ में हाथ डाले छतों पर टहल रहे थे। ...... रामेश्वर को एक कहावत याद आ गई, शहर बड़े होकर भी छोटे हैं। गॉव छोटे होकर भी बड़े हैं।’’[6] गाँव और शहर को समझने के लिए काल को समझना, काल से संवाद आवश्यक है। इसी उद्देश्य से वर्तमान समय और उसके संकटों की पड़ताल करती हुई यह कहानी प्रस्तुत है। यह कह देना भी आवश्यक है कि शहर से अच्छा गाँव है, जहाँ अमरूद की छाँव है। वहीं शहर में जहाँ जाइये वहाँ गम ही मिलता है, कुछ कम ही मिलता है, सुना है कि आजकल फूलों में बम मिलता है। शहर में हर मकान दुकान बनने की स्थिति में है। इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है- रामेश्वर कहता है- ‘‘पानी आएगा। वह सिर कहाँ छुपाएगा ? ऐसा रूख-दरख्त भी नहीं जो छायादार हो। ........ यहाँ तो सब गेट के भीतर ही बसा है। गेट पर हथेली रखते ही कुत्ते भौंककर दौड़ते हैं, बाद में कोई आदमी आता है। शहर मजाक की आँखों में देखता है उसे, जैसे वह रामेश्वर नहीं, कोई विचित्र जीव हो। उसे पंडित माता प्रसाद का मकान नहीं मिलता। शहर आकर बौने हो गये। ऐसे बौने कोई जानता तक नहीं है।’’[7] रामेश्वर का वेश-भूषा भी गँवई मनई की तरह था। शहर का कोई आदमी देखेगा तो जान जायेगा। यह गॉव का आदमी है, गाँव के आदमी की पहली पहचान उसकी वेश-भूषा ही है। ‘‘मुटाई देह। गोरे चेहरे पर पड़ी झुर्रियों में कान्ति दिपदिपा रही थी। उसकी ऑखों पर चश्मा था। वह धुली हुई धवल साड़ी पहने थी। उसने साड़ी को सिर पर लेते हुए गेट खोला। फुलवा थी वह।’’[8] सुख और दुःख जीवन के दो पहिए हैं। हर्ष के साथ विषाद होना लाजिमी है। इसे हमें स्वीकार करना होगा। उदाहरणार्थ- ‘‘साहूकार को साहूकारी मिल जाती है। जमींदार को जमींदारी। दो पेट थे। वह जमींदार के घर घास छीलती, पानी भरती और पशुओं को चारा पानी करती थी।’’[9] आज वह शहर में रह रही है। पम्पी, मोनू उसके कुत्ते हैं। कुत्तों को भी उसी तरह डाँटती है। जाने कभी जमींदार उसको डाँटता था। वह कहती है ‘‘गॉव के जमींदार हैं, मेहमान हैं अपने.........। फुलवा की खुशी के डैने फैले थे। हवा में तिरने लगी थी वह। एक-एक चीज रामेश्वर को दिखाएगी।’’[10] रामेश्वर जब सोफे पर बैठा तो छह इंच नीचे धँस गया था। यहाँ गॉव का कथरी नहीं है, गॉव का मसलन्द नहीं है, जो गॉव के पुवाल का बिछौना होता था यहाँ सोफे हैं। दुःखों में झुलसी फुलवा के बदन पर फफोले पड़ गये थे। आज वह इतनी बड़ी कोठी में सुखों में भींगी बैठी थी। उसे अतीत स्मरण हो आया फुलवा के कच्चे घर की छान पर फूस नहीं होती थी। सूरज सारे दिन उसके घर में रहता। बरसात बाहर भी होती और घर में भी होती थी। बेदर्द जाड़ा दिन-रात घर में घुसा रहता था।’’[11]

फुलवा के शरीर पर फफोले पड़ने का आशय उस समय से है, जब फुलवा जमींदार के यहां काम करती थी और काम करते-करते उसके हाथों में फफोलें पड़ जाते थे। वह जमींदार फुलवा को दो वक्त की रोटी भी नहीं देता था ताकि वह एक ही वक्त खा सके क्योंकि वह तभी दूसरे दिन काम करने आयेगी। फफोले के कारण आराम नहीं करेगी। कहना नहीं होगा यह वह युग था जहाँ मानवीय मेधा मशीनी मेधा के सामने लज्जित पराजित हुई। उपयोगितावाद के कंधे पर सवार युग ने बाजारवाद के दबाव में मानवीय मेधा को अपदस्थ करते हुए कृत्रिम मेधा को बाजार की रानी बना डाला। अब हम मनुष्य नहीं, मशीने गढ़ रहे हैं। आज का युग साम्यवाद, समाजवाद और पूँजीवाद के अतिवादों के बीच नव पूँजीवाद या नैतिकपूँजीवाद के नाम पर एक ऐसी अर्थव्यवस्था की तलाश में है, जहाँ विकास के उद्देश्य से पूँजी पर आधारित उद्योग, व्यवसाय तो बढ़ते हैं, किन्तु इस पूँजीवाद व्यवस्था में मनुष्य की गरिमा सुरक्षित रहे। आज का युग ऐसी पूँजीवादी व्यवस्था चाह रहा है, जहाँ पूँजी विकास का उपकरण बन कर रहे तथा मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण का उपकरण बनकर नहीं।

दरअसल में फुलवा ने आँखों पर चश्मा चढ़ा लिया और एक आह ली- ‘‘औरत का विश्वास ? कुँवर रोज माँग भरती है। रोज रोती है!...... इतनी बड़ी जाति की औरत, फुलवा जैसी छोटी जात के घर नौकरानी। वह भी फुलवा के घर, जो खुद थेंगली जैसी वेस्वाद जिन्दगी जीती थी। आड़ेवक्त आदमी असहाय हो जाता है। एक समय राजा हरिश्चन्द्र ने भी नीची जात के घर पानी भरा था।’’[12] फुलवा कुँवर से अपनी बहुरानी को बुलावा भेजती है। फुलवा रामेश्वर से अपनी बहु को मिलवाती है। ‘‘संती गोरी-चिट्टी थी। बदन छरहरा था। गुलाबी रंग का सूट उसकी देह पर खूब फब रहा था। उसके हाथों में कड़े, कानों में सोने के टॉप्स, गले में सोने का मंगल सूत्र था। उसके बालों में सोने की क्लिपें खुँसी थी। छत्तीस-सैंतिस की उम्र में पच्चीस की लगती थीं वह। ब्याह हुआ और राधामोहन के साथ शहर आ गई। तुम्हारी हवेली तो इसने देखी तक नहीं। ‘‘पंडित माता प्रसाद की विधवा परती और फुलवा के बीच गॉव में चाहे कितनी दूरियाँ थीं। शहर आकर वे दोनों एक दाँत काटी रोटी खाने लगी थीं।’’[13] परती और फुलवा के बीच जाति और धर्म का भेदभाव नहीं था, शहर आकर। गांव में छोटे-बड़े का जो भाव होता है, वह जाति-पांति और धर्म पर ही आधारित होता है। ‘‘फुलवा को पाकर वह गदगद हो गई। पंडिताइन ने उसका हाथ पकड़कर सिरहाने बैठा दिया। वह उसे फुलवा नहीं फूलवन्ती कहती....... रामेश्वर जैसे भंवर में फँसा तिनका। पंडिताइन पांयताने, फुलवा सिरहाने। देहरी र्की इंट चौबारे। अनुरक्ति और विरक्ति के बीच ईर्ष्या और द्वेष ऐसी जलन पैदा कर रहे थे, जैसे-अधपके फोड़े में पीव और लहू। रामेश्वर चिबुक पर हाथ रखकर बतकही सुनता रहा, जैसे दो बच्चों का खेल देख रहा हो। रामेश्वर ने अपनी कुर्सी पंडिताइन के नजदीक सरका ली। वह आस्था और विश्वास भरे स्वर में बोला- दादी गॉव में क्या धरा है? मौज में हो यहाँ। अब हाल-चाल बताओ-दीप सिंह को कहीं नौकरी पर चिपकवा दो। फुलवंती की कोठी पर गया था तूं? रामेश्वर ने सूखा थूक निगला- दादी फुलवा सोने की हो जाए, पर रहेगी उसी जात की। धर्म भ्रष्ट होने से मर जाना अच्छा समझता है रामेश्वर सिंह। पंडिताइन ने उसे डपटा तू तो कुएँ का मेढ़क ही रहा, रामेसरिया। अब तो पद और पैसा का जमाना है, जात-पाँत का नहीं। फुलवन्ती का राधा मोहन कोई छोटा मोटा अफसर नहीं है। एस0पी0 है, एस0पी0। मेम साब के पॉव पकड़ ले और तब तक मत छोड़ जब तक वह हां न कह दें। बकरी के मिंगन और पेशाब से समूचा गैराज बास मार रहा था। कुत्ते की खों-खों अलग। रामेश्वर की नींद कोसों दूर भाग गई। अपना बैग लेकर वह बाहर निकल आया था। आकाश में बिजली चमक रही थी, बूंदे गिरने लगी थीं। उसका बदन अनायास ही फुलवा की कोठी की ओर बढ़ने लगे थे।’’[14] यह जो ’फुलवा’ कहानी है वह रामेश्वर के अन्दर से जाति और धर्म के भेदभाव को मिटाने का कार्य करती है।

’’साहित्य में अनुपस्थिति का सवाल उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उपस्थित का। ऐसा नहीं होता तो यह सवाल क्यों उठता कि मुख्य धारा के साहित्य में दलित लगभग अनुपस्थित रहा। इसलिए दलित साहित्य की अलग धारा निकल पड़ी, क्या यह सवाल बेमानी है कि कुछ अपवादों को छोड़कर विभाजन की त्रासदी हिन्दी साहित्य में लगभग अनुपस्थित क्यों है ? कल को यह सवाल भी तो उठेगा ही कि जब आदिवासी भारत के हृदय स्थल में जीवन-मरण संघर्ष में थे तो हिन्दी साहित्य में उनकी गूँज अनुपस्थिति क्यों थी?[15] खैर इन सब सवालों का हल ‘फुलवा’ कहानी में बहुत ही शिद्धत के साथ है। मनन करने की जरूरत है। सांभारिया जी के यहाँ अन्याय की उपस्थिति की स्वीकृति है। उसकी बाइनरी में खड़े होने का बयान है। पर उस बयान में आक्रोश नहीं है। एक किस्म की बेचारगी है। कुछ कहने और मामलों की तह में जाने की अनिच्छा है। वे इस तथ्य को भी उजागर करते हैं कि सब कुछ सुन्दर ही सुन्दर कैसे है ? संसार की कुरूपता क्यों छिपी रही है? उनके यहाँ आम जन की पीड़ा का चित्रण तो है लेकिन सिर्फ सान्तवना के लिए नहीं है। जैसे-जातिवादी संस्कारों में लिपटा रामेश्वर अपने मन में जाति गौरव के बोध को नहीं उतार पाता और भूखे होने के बाद भी फुलवा के घर कुछ नहीं खाता। फुलवा के मेहमान गिरि को नजरअन्दाज करता है, फिर भी फुलवा के ही शरण में आता है। यह आज के बदलते समय का, देशकाल, परिस्थिति, वातावरण का ज्वलन्त उदाहरण है। यह देशकाल की माँग है, दरकार है। पंडित माता प्रसाद की विधवा और फुलवा का परस्पर मेल मिलाप बातचीत यह साबित करता है कि मनुष्यता की कोई जाति नहीं होती है, मानव-मानव एक समान। 

’’कहना नहीं होगा लोकतंत्र बुर्जुआ पाठशाला से ही निकली सैद्धान्तिकी है। सामाजिक परिवर्तन उसका एक भाग। भारत में वर्गीय चेतना का विकास किए बिना सामाजिक न्याय के प्रयास हमेशा कठिन होंगे। इसलिए रूढ़ि से मुक्ति का अभ्यास और वैज्ञानिक चेतना का विकास करने की ओर ध्यान ले जाना होगा। इसके बिना हमारे सारे प्रयास ऐसे ही विवादों के खाँचे में फँसे रहेंगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि रूढ़ि से मुक्त समाज धीरे-धीरे सामने आ रहा है। अंतर्जातीय विवाह का चलन और उसकी सामाजिक स्वीकार्यता तेजी से बढ़ी है। जातिगत भेदभाव खतम हो रहा है। इस कोशिश को पलीता लगाने वाली ताकतें भी उतनी ही तेजी से काम कर रही हैं। मानव विकास की धुरी अब वही नहीं है, जो पचीस-पचास साल पहले थी। जिस तरह क्रान्ति के विलोम में उदारवादी लोकतंत्र विकसित हुआ है। इस दौर में नव साम्राज्यवादी तरीके से घुसपैठ कर रहा है। उस स्थिति में अपने समाज को बेहद संतुलन के साथ चलने की जरूरत है, ताकि क्रान्ति धर्मा वैकल्पिक शक्तियाँ उभार ले सके और हम नया समाज बनाने में कामयाब रहें।’’[16]

सच में सांभारिया जी फुलवा को आधार बनाकर कहना चाहते हैं और हम जैसे लोगों को जो शहर और गाँव में रहते हैं, उनसे अपील करते हैं, फुलवा के बहाने संदेश देना चाहते हैं कि दुनिया रोज बनती ही नहीं, बदलती भी है। इस एक दुनिया के भीतर अनेक दुनिया है एक दुनिया बाहर से दिखती है, भीतर उतर आती है। बीसवीं सदी बीत चुकी है। नई शताब्दी तीसरे दशक में प्रवेश कर चुकी है। इतिहास साहित्य को दृष्टि देता है क्योंकि साहित्य का स्रोत हमारा जीवन और समझ है। इसे समझने के लिए इतिहास दृष्टि परिहार्य है। इस क्रम में ‘फुलवा’ कहानी को देखें तो कहानी जीवन का खुला विस्तृत मैदान है। उस मैदान पर स्थित किसी मकान का एक कमरा। यह अकारण नहीं है, उसका सम्बन्ध अपने चरित्रों के कर्म और विचार उसके देवत्व और पशुत्व, उनके उत्कर्ष और अपकर्ष है। मनोभाव के विभिन्न रूप और भिन्न-भिन्न दशाओं में उसका विकास मुख्य विषय है। सांभारिया जी ने कहानी के विषय में संकेत दिया है कि भविष्य में कहानी में कल्पना कम, सत्य अधिक होगा। हमारे जीवन एवं चरित्र कल्पित न होंगे। बल्कि व्यक्तियों के जीवन पर आधारित होंगे। 

कहना नही होगा कहानी की कोमल कला कोमलता का सुखद स्वर लहरी, जो हमारे विवेक के साथ हमारी सृजन चेतना को झकझोरती है, जो कथन और गठन के स्तर पर रोचक एवं पठनीय है। कहानी संरचना की पुरानी प्रविधि है, फ्लैश बैक। इस कहानी का मुख्य चरित्र ‘फुलवा’ भले आदर्श स्त्री पात्र न हो, लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर बेहद सजग ओर संघर्षशील है। रोचकता और पठनीयता सहज ही पाठक को आकर्षित करती है। कभी-कभी मुझे लगता है प्रेम, प्रकृति और मानव-जीवन की जटिलता ही है। धर्म, समाज, राष्ट्र-भाषा, संस्कृति, इतिहास इसके रोयें हैं। सचमुच ‘फुलवा’ की गहरी जिजीविषा, साहस, दुस्साहस, संघर्ष, लक्ष्य के बीच जिन्दगी यानी साहित्य के वृत्त पर खिला फूल है। स्पष्ट बात है- यहाँ एक तरफ जीवन विस्तार की बात है, तो दूसरी तरफ जीवन के किसी क्षण की झलक मात्र। इनकी कहानी चौंकाती रही है, लेकिन सीधे मन-प्राण में उतर जाती है। फुलवा, रामेश्वर को गाँव नहीं घुमाती है बल्कि शहर की उस तासीर से रूबरू कराती है। विनोद शुक्ला की कविता ठीक से बैठती है-

              जाते जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब

              तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा,

              और कुछ भी नहीं में,

              सब कुछ बचा रहेगा। 

रत्नकुमार सांभारिया जी गँवई मन के कथाकार हैं। दशकों से शहर में रहने के बाद भी उन्होंने अपने जीवन में गॉव को बचा रखा है। ‘फुलवा’ इसी गँवई मन की आख्या है। सामन्तवादी सत्ता का क्रूर चेहरा बेनकाब होता है। उनकी भाषा में भोजपुरी का रसात्मक पुट है। यही कारण है कि समाज की अंतिम पंक्ति के आदमी से भी उन्हें मिलना पड़ता है। जीवन संघर्ष को साधने का हूनर है। प्रेम के साथ सामाजिक दायित्व का निर्वहन बखूबी करते हैं। जीवन की अनेक विद्रूपताएं कहानी में ढ़ली हैं। पूर्ण समर्पित स्त्री का प्रेम दिखाई पड़ता है, जिसमें आजादी के संघर्ष की दास्तान भी चित्रित है। रिश्तों की यह संवेदनशीलता सुखद और प्रीतिकर है। ‘फुलवा’ का दुःख दर्द जिस शिद्दत से व्यक्त हुआ है वह सुखद आश्चर्य से भर देता है। कहानी में कमाल की लोकभाषा है। मुहावरों, लोकोक्तियों, लहजों में पगी हुई है। कहना नहीं होगा कि सांभारिया जी, भाषा के जुलाहा और लोक जागरण के सूत्रधार हैं।  

यही नहीं दलित साहित्य के मैदान में जहाँ चारों ओर जगह-जगह अलग-अलग तम्बू गड़े हों, ‘तुम मुझे पूजो, मैं तुम्हें....’ की प्रथा जोर-शोर से निभाई जा रही हो, वहाँ लेखक रचनात्मक पर चाबुक-सा प्रहार करता है। इसमें कोई संशय नहीं। वर्तमान साहित्य का आकलन किसी न किसी को तो करना ही होगा। क्योंकि इस कहानी में सांभारिया जी की मंशा और नियत पर उठाये गये सवाल बेहद वाजिब और माकूल हैं। जिसे देशभर के पाठकों ने स्वीकारा, सराहा और इतना असीम स्नेह दिया जो सामान्यतः किसी लेखक के लिए दुर्लभ उपलब्धि है। ऐसी सार्थक कहानी अपेक्षित तो है ही, स्वागत और प्रशंसा योग्य भी है, इसमें कोई संशय नहीं। मेरा मानना है कि जब बोध जागृत होता है तो मुक्ति की कामना कई-कई रूपों में प्रकट होती है जैसा कि हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा। देश की सीमाओं और खूबियों का बयान करते हुए एकता की अपील करते हैं। इसके मार्फत कथा साहित्य में यों कहें विमर्शों के दौर में पहली बार कहानीकार के द्वारा राष्ट्रीय चेतना का उद्घोष होता है। इसकी पंक्तियाँ जिस गौरव बोध और अधिकारभाव से कही गई हैं, वह प्रमाण राष्ट्रीय चेतना के निर्माण की यह पहली कहानी है। सांभारिया जी ने भारतवासियों को इस मानसिक गुलामी से निकलने, खुद को आजमाने और इस तरह स्वाधीनता हासिल करने के लिए प्रेरित किया। इस मानसिक गुलामी ने ही स्त्रियों को गुलामों का गुलाम बना दिया। स्त्रियों की यह गुलामी युगों से चली आई है। इसके केन्द्र में कहानीकार ने ‘फुलवा’ को रखा है। इसलिए साहित्य का काम अभी खत्म नहीं हुआ है। 1947 में राजनैतिक आजादी तो हमें मिल गई लेकिन स्त्रियों सहित समाज के अनेक तबकों को आजादी मिलना अभी बाकी है। जब तक यह हो नहीं जाता, साहित्य का काम बचा रहेगा। इसलिए बचा रहेगा जैसे-बहुत से लोग हैं, बाहर निकलने से दीन-दुनिया का बोध ज्यादा हुआ है। विचारों का, विविधताओं का, नवीनताओं का, टकराहटों का बोध अधिक हुआ है और उनमें नई राह बनाने की चिन्ता भी अधिक बढ़ी। ‘फुलवा’ कहानी में आज जो कुछ है वह टकराहटों और नवीनताओं से जुड़ा हुआ है। केवल एक विचारधारा-भावधारा खोजना ज्यादती है। जैसा कि परम्परा से विद्रोह के लिए परम्परा बोध जरूरी है। लेखक जिनके पास युगीन संवेदना की शक्ति के साथ-साथ उसे व्यक्त करने के लिए नई भाषा, नए मुहावरे और नया शिल्प भी है। ’’वर्तमान की चुनौतियों से पलायन कर, राजसत्ता की क्रूरता में सहयोगी-सहभागी बनकर निजी जीवन के लिए कुछ सुविधाएँ भले ही प्राप्त की जा सकती हैं, किन्तु व्यक्ति और समाज का स्थायी हित उनके प्रतिरोध से ही सम्भव है। जैसा कि एक संसार जो सबके सामने है और जिसमें छल-छद्म, क्रूरता, शोषण, अन्याय, अविवेक है, तो दूसरा संसार वह जिसमें इन निकृष्टताओं को दूर करने का संकल्प तो है ही। संकल्प के साथ आपसी सद्भाव मानवीयता, शोषण का प्रतिरोध, न्यायिक मूल्य व सामाजिक हित में अपना हित समझने की विवेक शक्ति भी है।’’[17] वहीं जब ‘फुलवा’ अपने अधिकारों और अपनी आजादी के लिए खड़ी होती है, तो उसकी आवाज इस दुनियाँ में सबसे सम्मोहक प्रमाणिक और न्यायसंगत है। जो भाव भूमि एवं संवेदनात्मक ऊर्जा के कारण हमारा ध्यान आकृष्ट कराती है। जिन्दगी की लड़ाई एक व्यक्ति कितने स्तरों पर लड़ता है तो इसका कोई फार्मूलाबद्ध जबाव नहीं मिलेगा है भी नहीं और कहें तो हो भी नहीं सकता। उसमें भी एक स्त्री, वह भी कामकाजी हो, घर-बाहर के कई मोर्चों को एक साथ सम्भाले हुए अपने अस्तित्व को भी बचाए रखने क लिए संघर्ष करती है। सच में सांभारिया जी की यह कहानी बिना सांस लिए पढ़े जाने के बाद ही हाथ से छूटती है। जैसे एक ऐसी लम्बी सुरंग में घुस गये हों जहाँ दम घुटने पर भी वापस मुड़ सकने की जगह नहीं है। ‘फुलवा’ की जिन्दगी पेंण्डुलम की तरह कई स्तरों पर गाँव, शहर व उसके रिश्तों के बीच ज्यादा झूलती है। गाँवों का कस्बों में बदलना, कस्बों का महानगरों से तुलना व नकल करना अलग-अलग परम्पराओं, आधुनिकता में घर और बाहर मिल जाएंगे। सामन्ती परिवार के रंग में रंगने से एक क्षोभ के रूप में मौन व तिरस्कार का बाना धारण करके भीतर ही भीतर रामेश्वर कुढ़ता है। जिस औरत को वह द्रोपदी-सा बेआवरू करने की सोच रहा था, उसी के पॉव पकड़ ले ? वहीं पंडिताइन चिन्ता में थी। गेट पर पर्दा है। पर्दा तो शर्म होता है, आड़ नहीं होता। बहू है, जवान लड़कियाँ हैं। जमींदार और जानवर क्या भरोसा उसकी नियत कब खराब हो जाये। यह बातें पंडिताइन अपने कमरे में रामेश्वर को न सुलाने पर सोचती है। 

निष्कर्ष यह कहानी एक बदलाव की लड़ाई लड़ते हुए और नई पीढ़ी के लोगों में जागरूकता पैदा करती है। समाज की पुरानी मान्यताओं व नीतियों से संघर्ष करने की सोच को बढ़ावा देती है। हमें उम्मीद है एक न एक दिन जमाना बदल जाएगा और उन रामेश्वर जैसे बहुत सारे लोग होंगे जो जमाने को बदलने में सारथी का काम करेंगे। यही ‘फुलवा’ की चाह है। यह दृश्य एक दिन साकार होते देख ही लिया। अब उसे पूरा विश्वास हो गया है वह अपने अहाते में वर्तमान का धधकता हुआ भारत का भविष्य देख रही है। सांभारिया जी ने गॉव की भोली-भाली ग्रामीण जीवन की सादगी, ग्रामीण संस्कारों की शालीनता का सहारा लिया है। ग्राम जीवन के यथार्थ की अनुभूतियों से उपजे शब्द की संवेदना में पिरोकर ऐसा अंतरा रचा है मानों उन्होंने ग्राम्य और शहरी देशकाल के जीवन, संस्कृति, संस्कार और उसके सरोकार की आरती उतारी हो। ज्यादा तो नहीं फिर भी हम कह सकते हैं कि यह कहानी करोड़ों सीधे-सादे, भोले-भाले भारतीयों से हमदर्दी जताती है, उन्हें अपना बनाती है, आग और राग का पाठ पढ़ती है, गर्दिश में भी आसमान का तारा बनकर जगमगाने की प्रेरणा देती है। उन्हें दुःख में मल्हार गाने की ताकत देती है। यही कहानी की दरकार है। कुल मिलाकर इस कठिन दौर में यह कहानी मानवीयता के प्रति हमारे भरोसे को और मजबूत करती है जो अपने समय की प्रवृत्तियों को, हलचलों को, उद्वेगों को, चिन्ताओं को, खतरों को इस कहानी में पढ़ पा सकते हैं। शब्दों की उबड़- खाबड़ पगडंडी से होकर अव्यक्त भाव या अर्थ तक पहुँचने का ‘फुलवा’ कहानी सूत्र प्रदान करती है। ‘‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं, वह एक प्रक्रिया का नाम है। यह प्रक्रिया अन्धविश्वास से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया है नैतिकता में उदारता बरतने की। यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है। आधुनिकता वह है जो मनुष्य को ऊँचाई, उसकी जाति या गोत्र से नहीं, बल्कि कर्म से नापता है। आधुनिकता वह है जो मनुष्य-मनुष्य को समान समझे।’’[18] रामेश्वर कितने अरमानों के साथ गॉव से शहर आया था। शहर में आकर अपनी जमीन और जड़ों की ही सच्चाई भूल गया। हवा की पीठ पर सवार होकर उड़ गया पंक्षी सागर पर। पछुआ हवा का सुख फिर पूरब की इस जिल्लत भरी कॉदो-बीच की गँवई जिन्दगी की ओर भला कब लौटने देगा। अब हमें उस मानसिकता से बाहर आ जाना चाहिए। देश फुलवा की पटरी पर चढ़कर आगे बढ़ रहा है। इसे खुलेमन से अपनाएँ। फुलवा का जीवन इतना दुःखमय, कष्टमय और संघर्षमय हो गया था कि और कोई होता तो टूटकर हार मान लेता, लेकिन ‘फुलवा’ ने अपने संघर्ष से पतझड़ को बसन्त बेला में बदल दिया। ‘फुलवा’ प्रेम, सौहार्द, समानता, स्वतंत्रता एवं भाई चारे की संदेश देती है, जो व्यक्ति, समाज, देश के विकास हेतु अत्यन्त आवश्यक तत्व है।।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. हिन्दी गद्य: स्वरूप, इतिहास एवं चयनित रचनाएँ, पृ0 138 ‘फुलवा’- रत्नकुमार सांभारिया, संपादक निरंजन सहाय, सुरेन्द्र प्रताप सिंह 2. हिन्दुस्तान-21 मार्च वाराणसी पृ0 6, एक फूल बुद्ध के लिए -ओशो, मनीष आजाद 3. हिन्दुस्तान- 21 मार्च वाराणसी पृ0 6, एक फूल बुद्ध के लिए-ओशो, मनीष आजाद 4. हिन्दुस्तान-21 मार्च वाराणसी पृ0 6, एक फूल बुद्ध के लिए -ओशो, मनीष आजाद 5. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ, पृ0 141, संपा0 निरंजन सहाय सुरेन्द्र प्रताप सिंह 6. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ- संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0 सं0 137 7. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ- संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0सं0 137 8. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ- संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0 138 9. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ- संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0सं0 139 10. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ- संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0सं0 139 11. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ- संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0सं0 141 12. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ- संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0 सं0 143 13. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ- संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0सं0 144-45 14. हिन्दी गद्य: स्वरूप इतिहास एवं चयनित रचनाएँ- संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पृ0सं0 145-46-47 15. हिन्दुस्तान- वाराणसी, 21 मार्च 2023, पृ0 6, मनीष आजाद 16. वर्तमान साहित्य-04 दिसम्बर 22 जनवरी, 23, पृ0 4, संजय श्रीवास्तव 17. हिन्दुस्तान: वाराणसी रविवार 26 मार्च 2023, पृ0 8, कैलाश सत्यार्थी नोवेल पुरस्कार विजेता 18. हिन्दी गद्य: स्वरूप, इतिहास एवं चयनित रचनाएँ, संपा0 प्रो0 निरंजन सहाय एवं सुरेन्द्र प्रताप सिंह पृ0 सं0 9