ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- VI July  - 2022
Innovation The Research Concept
गुनाह बेगुनाह: स्त्री-विमर्श
Gunah Innocent: Feminism
Paper Id :  17853   Submission Date :  2022-07-16   Acceptance Date :  2022-07-21   Publication Date :  2022-07-25
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मीना कुमारी
सहायक प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
राजकीय महाविद्यालय
नारनौल,हरियाणा, भारत
सारांश
पिछले चार दशकों से शुरू हुआ स्त्री विमर्श सामाजिक बदलाव के साथ साहित्य के बदलते स्वरूप का भी सूचक है, इसका व्यापक स्वरूप समाज में देखने को मिलता है। यह विभिन्न सरोकारों स्थितियों, परिस्थितियों से जुड़ा है। स्त्री-विमर्श न तो साहित्य का फलेवर बदलने के लिए है और न ही हाशिए का विमर्श है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Women's discussion started from the last four decades is also an indicator of the changing nature of literature along with social change, its widespread form is seen in the society. It is related to various concerns, situations, circumstances. Feminist discussion is neither to change the flavor of literature nor is it a marginal discussion.
मुख्य शब्द स्त्री विमर्श, समाज।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Feminist Discussion, Society.
प्रस्तावना
स्त्री विमर्श साहस और चुनौती भरा काम है। ‘स्त्री की बेबाक कलम का चलना सिर पर कफन बाँधकर चलने जैसी बात है।‘ वास्तव में स्त्री-विमर्श समय के बहाव के खिलाफ चलना है‘ जिसे आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता। हमारे सामंती व पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री कोे चेतना संपन्न माना ही नहीं जाता। उसे सीता, सावित्री और श्रद्धा के रूप में देखा गया या फिर सुमुखि, सुन्दर पयोधरा, क्षीणकटि इत्यादि संबोधनों से आभूषित करके स्त्री के देह के रूप में विभूषित किया गया। इतिहास साक्षी है कि जब-जब स्त्रियों में प्रतिरोध का स्वर तीव्र हुआ सामंती समाज ने उसे साम-दाम, दण्ड, भेद से कुचलने की कोशिश की। उसे बिगडैल और चरित्रहीन कहा गया। जैसे चरित्र-प्रमाण पत्र देना पुरूषों का जन्मसिद्ध अधिकार हो।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य उपन्यास ‘गुनाह बेगुनाह‘ में स्त्री-विमर्श का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

स्त्री-विमर्श साहस और चुनौती भरा काम है और इस कार्य को चर्चित कथाकार और स्त्रीविमर्श मैत्रेयी पुष्पाके लेखन में बखूबी देखने को मिलता है। उनकी महत्वपूर्ण रचना की इस लेख में एक विमर्शकार के रूप में परिचर्चा करते है- गुनाह-बेगुनाहमैत्रेयी पुष्पा के लेखन में हत्याऔर बलात्कारकी घटनाएं बार-बार घटती है। पुरूष अपने विकृत आनंद के लिए स्त्री को सजा देने के लिए, अपनी सत्ता से भयभीत रखने और सम्पत्ति हथिया कर उसके हिस्से की जमींन हड़पने के लिए स्त्री का बलात्कार और हत्या करता है। मैत्रेयी ने स्त्रियों के प्रति कुसंस्कारों से मुठभेड की है। उपन्यास गुनाह बेगुनाहमें उनके साथ ही दूसरा सवाल स्त्री की सुरक्षा का है। स्त्री न घर में सुरक्षित है, न थाने में। शायद इसलिए मैत्रेयी ने उपन्यास के पहले ही भाग का शीर्षक लिखा, ‘‘घर और गुफा हमें सुरक्षित रखते हैं।‘‘ बेटे को खत्म करने के जुर्म में जब शारदा बतौर गुनाहगार खुद पकड़ी गई, तब उसके बाद 11 वर्षीय बेटी की रक्षा के लिए पीछे कौन रह गया? सवाल यहाँ भी रहता है कि थाने के भीतर क्या स्त्री की देह सुरक्षित बचेगी?

थाने का खौफ और पुलिस के चरित्र की कहानियां मन में इतनी विदू्रप शक्त में छाई होती है कि स्त्री अपनी गुहार लगाने से डरती है। मैत्रेयी इस सच को बहुत पहले से जानती है। मैत्रेयी यह भी जानती है कि भले ही नायिका इला चौधरी पुलिस की वर्दी पहनकर आत्म विश्वास से भरी हो, लेकिन स्त्री की इज्जत समाज में न तो पुलिस बनकर है, न ही पुलिस वालों के बीच में। समीना ट्रेफिक पुलिसकर्मी बनकर चौराहे पर ट्रक वाले, बाइक वाले और कार वाले की छेड़छाड़ भरे जुमलों से बेइज्जत होती है तो इला थाने में अपने ही पुरूष सहकर्मियों की आँख से देहके रूप में देखी जाती है। थाने के इस सच को लिखने का मकसद है कि आप हमारे ममताममता, रेशमी और मनोरमा की यातना से वाकिफ हो सके। यह उपन्यास भाषा की पर्तो को उखाड़ने की जददोजहद से शुरू होता है। मैत्रेयी भाषा के नीचे औरत को कुचलने की साजिश का पर्दाफाश करना चाहती है। नायिका इला भाषा के प्रति सजग है। उसकी भावनाएं एस.आई द्वारा महिला मुजरिम को रंडीकहने पर ऐतराज करती है। भाषा की चेतना को इला व्यवहार में देखना चाहती है। इला अपने अफसर की भाषा के बहाने समाज के नियमों को बदलना चाहती है। मैत्रेयी भाषा के लैगिक भेदभावपूर्ण रवैये पर सवाल उठाते हुए सत्तीऔर कुलटाकी साजिशपूर्ण परिभाषा को स्पष्ट करती है। मैत्रेयी सभ्य मार्डन समाज की भाषा की तुलना गांव की पुरानी बड़ी-बूढ़ियों के लोकगीत से कर लेती है। स्त्री के प्रति समाज की साजिश मैत्रेयी ने बहुत पहले पहचान ली और अपनी रचनाओं में उसे उजागर किया। स्त्री संपत्ति और देह के कारण साजिश की शिकार होती है। गुनाह-बेगुनाह में यह बात तब साफ होती है तब गवाह कहता है। ‘‘हम गवाही में चाहे कुछ भी कहें, पर असल बात यह है कि शारदा के आदमी ने अपना रास्ता साफ किया है। माँ-बेटे को ऐसे लड़ाया कि दोनों कट-मर गए, अब दो हिस्सा खेती उसकी जांघ के नीचे है। यह होती है हमदर्दी लूटने का सौ फीसदी शर्तिया हथियार। जिस बेटी के कारण यह शारदा बेटे के कत्ल पर उतारू हो गई, उसको ही रघुवंश एक दिन जहर देकर मारेगा, पर हमें क्या।‘‘

मुख्य पाठ

गुनाह-बेगुनाहमें शीतल ऐसे पति को जलाकर मार देती है जो उसे केवल उपभोग की वस्तु समझते हुए स्वयं भोगकर फिर मित्रों को परोसता रहा। शीतल उसे जलाकर खुद को बचाने के साथ-साथ उस मर्दाने संस्कार को भी खत्म करती हैजो स्त्री को केवल उपभोग के लिए वस्तु मात्र समझता है, स्त्री गुनाहगार मानी जाती है और सजा पाती हैजबकि पुरूष गुनाह करके भी बच निकलता है।

मैत्रेयी लेखन का उद्देश्य गुनाहगार मानी जाने वाली औरतों की बेगुनाही साबित करना, नैसर्गिक प्रेम की इच्छा, करवाचौथी संस्कृति पर हल्ला बोल, उपर्युक्त उद्देश्यों के बहाने मैत्रेयी जी दरअसल समाज की अव्यवस्था और अन्याय को ही उजागर करती रही है। यहां सबसे पहले हम दृष्टिपात करेगे कि गुनाहगार मानी जाने वाली औरतों की मैत्रेयी जी कैसे बेगुनाह साबित करती है। गुनाह-बेगुनाहमें गुलाब और शारदा को गुनाहगार मानी गई। कुछ मौत के घाट उतार दी गई और कुछ बदनामी की शिकार हुई। ऐसी स्त्रियों के लिए मैत्रेयी ने जीने के खुफिया रास्ते भी बनाए। ये अपने उद्देश्य को लेकर अपने मन मुताबिक जीवन होती है। अपने निर्णय का अधिकार लेने वाली ये स्त्रियां मैत्रेयी की लगभग हर रचना में है। यहां हम उनकी फैसलाकहानी पर भी दृष्टिपात कर सकते है, मैत्रेयी जी की कहानी फैसलास्त्री के चिर बन्दिनी मूक छवि को तोड़ कर विद्रोह का स्वर प्रदान करती है। कहानी की वसुमती का विद्रोह सैलाब की तरह अचानक नहीं उमड़ा बल्कि दमन की एक लम्बी श्रृंखला को पार करती हुई अपने को बचाने की एक आखिरी कोशिश सफल हो जाती है।

वसुमति ग्राम प्रधान तो बन जाती है लेकिन उसे सब प्रकार के अधिकारों से दूर रखी जाती है। स्वयं प्रधान बनने के बाद भी वसुमति की पहली और आखिरी पहचान है। ब्लॉक प्रमुख की पत्नी और एकमात्र दायित्व है घर-गृहस्थी को संभालना, वसुमति की ग्राम पंचायत प्रधान के रूप में योजनाएं, उसके सीने में ही दम तोड़ देती है। क्योंकि ग्राम-प्रधान के रूतबा और पद का दायित्व उसका पति निभा रहा है। लेकिन हरदेई की मृत्यु के बाद कहानी में घटनाविहीनता का समय वसुमती के चैतन्य हो जाने का समय है। ईसुरिया स्त्री चरित्र के द्वारा वसुमती पर आरोप लगाया जाता है ‘‘अच्छा होता वसुमति, हम अपना वाोट काठ की लाठिया को दे आते।‘‘ इसे भी वसुमति धोने का प्रयत्न करती है। निम्न जाति, की स्त्री पात्र ईसुरिया वसुमति की चेतना को जगाने का काम करती है और वसुमति अपना वोट अपने पति रनवीर को न देकर लुहार को देकर आती है।

मैत्रेयी जी की लेखनी का दूसरा उद्देश्य नैसर्गिक प्रेम की इच्छा गुनाह बेगुनाहमें इला, समीना, सुरिन्दर कौर और शीतल सभी प्रेमिकाएं है। ये प्रेमिकाएं केवल भावुक और संवेदनशील ही नहीं है अपितू ये प्रेम की राह में अपना हक लेना भी जानती है, समीना पति को छोड़ देती है। अर्थ और अपने अस्तित्व के लिए सजग है। इला कर्म की राह पर आगे बढ़ जाती है। मैत्रेयी ने अपने लेखन की शुरूआत प्रेम कहानी से करनी चाही। मैत्रेयी अपनी रचनाओं में परम्परा के परिवर्तन के स्वपन को यथार्थ में बदल देती है। मैत्रेयी सिस्टम की ओर आँख लगाकर नहीं देखती, बल्कि सिस्टम में घुस जाती है। मैत्रेयी सिस्टम में सेंध लगाकर बदलाव के लिए प्रयास करती है। इला और जयन्त के संवाद से ‘‘जयन्त, मैं जानती हूँ जो तुम कर रहे हो सच है मगर पुरूष लोग बड़ी जल्दी अपना शामिल खाता कर लेते है, अफसरों के साथ यहाँ पैसा और देह के लेन देन की बात है। मनी एण्ड सेक्स का आदान-प्रदान है। मनी जितनी आसानी से दिया जाता है। देह दान करना आसान बात नहीं है। वह अपनी होती है, आत्मा से जुड़ी आवाजें अपमान के खिलाफ अपने ही मन से उठती है।‘‘

गुनाह-बेगुनाह में हत्या के कारण पर बराबर नजर रखते हुए हत्यारिन औरतों के समक्ष संवेदनशील महिला कांस्टेबल इला चौधरी खड़ी है और हम देखते है कि अंत में बेटी को बचाने वाली माँकी लाश को इला चौधरी थाने में ही फूल चढ़ाकर सैल्यूट देकर सम्मानित करती है। मैत्रेयी इला चौधरी के रूप में ऐसी ही हृदय विदारक स्थितियों की सांझीदार सामने लाई है, अपने औरतपन के सम्मान के लिए जिस साहस और हिम्मत का इस्तेमाल किया, उसके लिए इन्हे धैर्य या दया की बजाय सम्मान का पात्र होना चाहिए। मैत्रेयी की लेखनी का तीसरा उद्देश्य करवा चौथी संस्कृतिपर हल्ला बोल। पति-पत्नी के संबंधों के बीच बेईमानी और सच्चाई की पर्ते खोलती है। इला कराह उठती है, ‘‘शारदा, तू सुहाग और श्रृंगार की गुलाम हो गई थी? गुलामों की इससे श्रेष्ठ गति नहीं होती। बलात्कारों को बर्दाश्त करने के लिए ही तुझे चुना गया था।‘‘

‘‘पत्नी की इच्छा हो या न हो, पत्नी का कर्तव्य है कि पति की इच्छा होने पर वह देह संबंध के लिए तैयार रहे। पत्नी न तैयार हो तो पति जबरदस्ती भी सम्बन्ध बना लेता है। यह दोनों ही स्थितियां बलात्कार नही है। पति होने के नाते स्त्री की देह पर मालिकाना हक पति का है।‘‘

मर्दाना सता की एक भीषण रचना यानि भारतीय पुलिस के सामने स्त्री के सपनों को रखकर यह उपन्यास एक तरह से उसकी ताकत को भी आजमाता है।

इला चौधरी अपने स्त्री वजूद को अर्थ देने और समाज के लिए कुछ करने का जज्बा लेकर पुलिस की वर्दी पहनती है, वहां जाकर देखती है कि वह चालाक, कुटिल लेकिन डरपोक मर्दो की दुनिया से निकलकर कुछ ऐसे मर्दो की दुनिया में आ गई है जो और भी ज्यादा क्रुर, हिंसाालोलुप और स्त्रीभक्षक है, ऐसे मर्द जिनके पास खाकी वर्दी की ताकत है, अपनी मर्दाना कुंठाओं को अंजाम देने की निर्लज्जता भी और सरकारी तंत्र की अबूझता से भयभीत समाज की नजरों से दूर, थाने की अंधेरी कोठरियों में मिलने वाले रोज-रोज के मौके भी बात करें हम घरेलू हिंसा की तो केवल गांवो, अशिक्षितों, असभ्य, और बर्बर समाज की ही समस्या नहीं है बल्कि आज के पढ़े-लिखे लोगों के आधुनिक समाज में भी संक्रामक रोग की तरह फैली है। उपन्यास में निर्ममता, बर्बरता और अमानवीय क्रुर गतिविधियों की विस्तृत चर्चा की गई है। शिक्षित वर्ग के चेहेरे का एक कुरूप पक्ष है जो भयानक सच की तरह उनके जीवन में तनाव, घुटन और अलगाव की स्थिति के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है। आज हमें टेलीविजन और मिडिया ने यौन सुखाकाक्षाओं के पीछे छिपे ऐसे अपराधों, घृणित मानसिकताओं और प्रवृतियों से रूबरू कराया है। इला द्वारा पढ़े लिखे अफसर की भाषा पर ऐतराज करने पर अफसर उसे अपने रूतबे पर इला का हसला समझता है। ‘‘रंडी को गिरफतार करना है, सर ने कहा। उन्होंने इस तरह कहा कि इस शब्द को गर्द की तरह चारों और उड़ा दिया। सर पढ़े लिखे सभ्य व्यक्ति है, मगर औरत को वे - अफसोस कि उनकी भाषा का फूहड़पन अपने आप में असभ्यता की मिसाल है। क्यों? रंडी को रंडी न कहे तो क्या कहे मिस इला चौधरी?‘‘

गुनाह-बेगुनाह की इला जब गांव में रहती थी। दिन में दस बार रंडी, बेड़िनी शब्द सुनती है। औरतों के शरीर से गुजरने वाली गालियां मर्दो की जबान पर चढ़ी थी, इला इन सब बातों को याद करती हुई सोने का प्रयास करती है कि तभी फोन बजता है और स्क्रीन पर थाना काँलिग देखकर फोन उठाती है तभी अफसर कहता है कम सून। एक मुजरिम गिरफतार करनी है।साथ में व्यंग्य कसते हुए कहता है। ‘‘अब तो खुश, देखो, मैंने औरत को रण्ड़ी नही कहा।‘‘ उपन्यास में मनुष्य के दोहरे चरित्र को भी उजागर किया है। उपन्यास के कथानक में रश्मि एक ऐसी पात्र है जो अपनी माँ की अनुपस्थिति में अपने ही पिता द्वारा हवश की शिकार बनाई जाती है। जब रश्मि की माँ को इस बात का पता चलता है तो वह अपने भाई के साथ मिलकर, समाज की परवाह न करते हुए पति को सजा दिलवाती है और बाद में समाज की मान-मर्यादा ही उसे मुजरिम पति को छुड़ाने के लिए विवश कर देती है। रश्मि को अपने से ज्यादा अपनी माँ पर विश्वास होता है लेकिन जब रश्मि का विश्वास टूट जाता है, जब एक माँ पर पत्नी की विजय होती है। अब रश्मि उस घर में रह नहींे पाती और घर  छोड़कर चली जाती है क्योंकि अब उसे अपने पिता  से अधिक अपनी माँ से डर  लगता है और बिना कुछ सोचे-समझे  घर से भाग  जाती है और जब जालिम दुनिया  किसी प्रकार भी जीने नहीं देती तो उसे वेश्यावृति अपनानी  पड़ती है और  जब रश्मि वेश्यावृति करते हुए पुलिस के द्वारा पकड़ी जाती है। पुलिस बर्बरता और अत्याचारों से थककर अपनी पीड़ा  इला चौधरी के सामने कहती है, ‘‘आप ही देख लो नाइंसाफी की मेरे बाप ने तो पुलिस ने छोड़ दिया। पर मुझे जब न तब गिरफतार करने को उतावला रहते है, उन्हे यह इल्म ही नहीं कि जुर्म किसने किया, मुजरिम कौन है‘‘

गुनाह-बेगुनाहमें लगातार अपना संवेदनशील, संघर्षशील प्यार भरा दिल लेकर भविष्य की स्त्री का मानचित्र गढ़ती है। हमारे समय का सच एक ऐसी स्त्री को देख रहा है, जिसकी एक आँख में स्त्री की अपनी जमींन और खुला आसमान है तो दूसरी आँख में सड़क पर स्त्री की हत्या और बलात्कार का दृश्य है। एक कान स्त्री की मुक्ति की गूंज से आह्यदित है, तो दूसरा कान परिवार और पंचायती फैसलों में स्त्री की नृशंस ऑनर किलिंगके समाचारों से लहूलुहान है।

स्त्री अपना हाथ इन्द्रधनुष को छूने के लिए आगे बढ़ाती है तो पांव सजाओं में जकड़ जाते हैमैत्रेयी जी एक ऐसी लेखिका है जिन्होने स्त्री-लेखन पर बड़ी बेबाकी से कलम चलाई। एक स्त्री को निर्णय की स्थिति तक आने में आत्म-संघर्ष से भी गुजरना होता  है। जिन प्रियजनों को वो प्रेम करती है, उन्हे आसानी से या किसी छोटी घटना से उसे छोड़ना नहीं चाहतीजल्दी से हार भी नही मानती।

स्त्री प्रारम्भ में अपनी परिस्थिति को ठीक करना चाहती हैसंघर्ष भी करती है लेकिन जब उसे यह विश्वास हो जाए कि अब ये सब ठीक नहीं  किया जा सकता  है। तभी वह दूसरे रास्ते की तरफ आगे बढ़ती है। निश्चित ही इला और समीना दोनों समाज में अपनी नई राह और पहचान बनाने तथा कुछ कर गुजरने की तमन्ना है, समाज में सुधार और बदलाव लाना चाहती है।

इनकी तरह की तमाम लड़कियां आज अपनी-अपनी राह खोज रही है। दोनों ने ही पितृसत्ता के नैतिक मानदड़ों को नकार दिया है।  एक माँ अपनी बेटी के साथ खड़े होने की हिम्मत करती है, लेकिन समाज की व्यवस्था चैन से जीने नहीं देती। जिस पति को सजा दिलाने का साहस दिखाती है वही पति को वापिस जेल से छुड़ा लाती है और वही जो बेटी अपने से अधिक माँ पर विश्वास करती है। एक माँ अपनी बेटी का विश्वास खो देती है और इसी अविश्वास के चलते वह घर छोड़ देती है।

समाज के नियम, कानून व्यवस्था सबको मैत्रेयी जी ने कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। जब समाज और समाज के ठेकेदार एक लड़की को वेश्यावृति के दलदल में धकेल देते है। तब भी कानून की नजरों में गुनहगार रश्मि जैसी लड़कियां ही है, फिर पुलिस उन्हें वेश्यावृति की सजा देने के लिए गिरफतार करती है, लेकिन जेल की कोठरी में भी पुलिस की बर्बरता और वहां भी पुलिस पुरूषों की गन्दी नजर और उनका देह शोषण बन्द नहीं होता।

विचारणीय प्रश्न यह है कि आखिर गुनहगार कौन है? और बेगुनाह कौन? क्या महिला घर में सुरक्षित है? क्या इस संसार में स्त्री के लिए कोई सुरक्षा कवच है? इन सबका जिम्मेवार कौन है?

‘‘क्या यह भी पूछा जाएगा कि क्यों किया था कत्ल?‘‘ स्त्री के प्रति समाज की यह साजिश मैत्रेयी जी बहुत पहले पहचान गई, एक तरफ स्त्री संपति और देह के कारण साजिश की शिकार होती है, जो शारदा और उसकी बेटी के माध्यम से दर्शायी गई है। दूसरी तरफ अपनी अस्मिता और अस्तित्व का तलाश कर रही शीतल अपने पति को जलाकर खुद को बचाने के साथ-साथ मर्दाने संस्कार को भी खत्म करके अपनी अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा करती है। इसी प्रकार समीना पति को छोड़कर पुलिस की नौकरी करती है और समाज के समक्ष एक सजग व्यक्तित्व के रूप में उभर कर आती है।

निष्कर्ष
इस प्रकार गुनाहगारों को बेगुनाही के साथ संवेदना का प्रसार मैत्रेयी जी की ‘कलम से कागज पर छेड़ी गई जेहाद‘ है और आधुनिक स्त्री-लेखन की पुरजोर आवाज है। प्रेम और हमदर्दी भरे दिल, साहस और हौसलें से लबालब मैत्रेयी जी अपने इस उपन्यास में समाज , कानून और पुलिस व्यवस्था पर आग उगलती नजर आती है। यह कथा गुनाह-बेगुनाह की कुछ चुनिन्दा पात्रों की कहानी नहीं है ये प्रत्यक्ष समाज का दर्पण है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. मैत्रेयी पुष्पा: उपन्यास गुनाह बेगुनाह, प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन प्रा0 लि0 दरियागंज नई दिल्ली - 110002 2. मैत्रेयी पुष्पा: फैसला कहानी