|
|||||||
भारतीय ज्ञान परंम्परा का व्यावहारिक पक्ष और पंडित
दीनदयाल उपाध्याय का योगदान |
|||||||
Practical Side of Indian Knowledge Tradition and Contribution of Pandit Deendayal Upadhyay | |||||||
Paper Id :
17911 Submission Date :
2023-07-17 Acceptance Date :
2023-07-22 Publication Date :
2023-07-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/innovation.php#8
|
|||||||
| |||||||
सारांश |
भारतीय जीवन मूल्य तथा यहाँ की ज्ञान परंम्परा सदियों से विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं। यही कारण है कि दुनिया के अनेक ज्ञान पिपासु मूर्धन्य विद्वानों ने समय-समय पर भारत की ज्ञान अर्जन यात्रा की तथा न केवल यहाँ रहकर ज्ञान अर्जित किया बल्कि जाते हुए अपने साथ भारी मात्रा मे ज्ञान से परिपूर्ण सहित्य भी लेकर गए तथा रास्ते भर बांटते हुए अपने देशों मे भी जाकर प्रचारित,प्रसारित और वितरित किया। इसी क्रम मे चीन के अनेक विद्वान, मध्य युरोप, पश्चिमी एसिया व अन्य देशों तक पहुंचाया। साथ ही दुनिया ने भारत की ज्ञान संपदा से भरपूर लाभ भी उठाया। मध्य काल मे जब भारत पर भारत पर विदेशी आक्रमण बढ गए और आपसी फूट की वजह से जहाँ-तहाँ विदेशी शासन स्थापित हो गया, तब भारतीयज्ञान परंम्परा के प्रचार-प्रसार मे न केवल विपरीत प्रभाव पडा बल्कि ज्ञान की धार भी कुंद पड गई, मगर रुकी नही। रुक रुक कर ही सही मगर भारत मे ज्ञान सृजन व पुन:सृजन की परंपरा अक्षुण्ण रही। |
||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Indian values of life and the knowledge tradition here have been attracting the attention of the world for centuries. This is the reason why many eminent scholars of the world, who are thirsty for knowledge, traveled to India from time to time and not only by staying here, they acquired knowledge. Rather, while leaving, he also took a large amount of knowledge-filled literature with him and distributed it throughout the way and propagated, disseminated and distributed it in his countries. In this sequence, many scholars of China, travelers from Central Europe, Western Asia and other countries Are included . Not only this, but the religious preachers of India also took Indian knowledge tradition to South-East countries including North, North East, West Asia and other countries. Along with this, the world also took full advantage of India's knowledge wealth. In the medieval period When foreign invasions on India increased and due to mutual disunity, foreign rule was established everywhere, then not only the propagation of Indian knowledge tradition had adverse effect, but the edge of knowledge also became blunt, but did not stop. Though intermittently, the tradition of creation and re-creation of knowledge remained intact in India. | ||||||
मुख्य शब्द | जीवन- मूल्य, आकर्षित, पिपासु, मूर्धन्य, अर्जन, प्रचारक, संपदा, धार, कुंद, सृजन, अक्षुण्ण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Life- value, Attractive, Pipasu, Valuable, Earning, Propagandist, Wealth, Edge, Blunt, Creation, Intact. | ||||||
प्रस्तावना | विपरीत वातावरणीय स्थिति मे भी अनेकों महापुरुषों, विद्वानों, संतों और महंतों ने भारतीय ज्ञान परंम्परा की गंगा मे अपने योगदान रूपी आंचवन से भारतीय ज्ञान को समृद्ध बनाएं रखा । गोस्वामी तुलसीदास, नरसिंह मेहता, सूरदास जी, गुरु नानक देवजी व दस गुरु परंम्परा,रहीम व उत्तर मध्य काल मे आधुनिक शिक्षा प्राप्त महा पुरुषों यथा राजा राम मोहन राय,विद्यासागर,स्वामी दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद जी सहित अनेक महापुरुषों ने अपनी लेखनी,उद्बोधन,भारत भ्रमण व अन्य प्रयासों से न केवल भारत की समृद्ध ज्ञान परंम्परा से भारत के जन मानस को झंकृत किया बल्कि भारत के सोए भाग्य को जगाने का सफलतापूर्वक प्रयास भी किया। स्वामी विवेकानंद जी जैसे महान संतों ने तो विदेशी धरती पर जाकर भारतीय ज्ञान का जो शंखनाद किया उससे पूरी दुनिया चकित रह गई । यह क्रम बाद के वर्षों मे भी जारी रहा। पराधीनता के काल मे भी भारतीय ज्ञान परंम्परा की गंगा बहती ही रही।महात्मा गाँधी,बाल गंगाधर तिलक,रविन्द्र नाथ टैगोर,गोपाल कृष्ण गोखले, महर्षि अर्विन्द व डाॅ राधाकृष्णन सहित तात्कालीन साहित्यकारों व विद्वानों ने बहुत ही प्रभावशाली ढंग से भारत की ज्ञान संस्कृति को न केवल जन जन तक पहुंचाया बल्कि अपने प्रेरक कृतित्व व व्यक्तित्व से पूरी दुनिया को भी प्रभावित किया। |
||||||
अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोध पत्र
हेतु अध्ययन के लिए निम्नलिखित उद्देश्य थे: 1. भारतीय ज्ञान परंम्परा का
अध्ययन करना। 2. अध्ययन उपरांत व्यापक ज्ञान
अर्जित करना। 3. भारतीय ज्ञान परंम्परा का पंडित
दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व पर पडे प्रभाव का अध्ययन करना। 4. भारतीय ज्ञान परंम्परा का पंडित
दीनदयाल उपाध्याय के विचारों पर पडे प्रभाव का अध्ययन करना; और 5. पंडित दीनदयाल उपाध्याय के
विचारों ने भारतीय ज्ञान परंम्परा को किस तरह पुष्ट किया, इत्यादि। |
||||||
साहित्यावलोकन | वर्तमान शोध अध्ययन के दौरान शोधार्थी ने भारतीय ज्ञान परंम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रंथों, पुस्तकों और शोध प्रबंधों का अध्ययन किया है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, कल्हण की राज तरंगिनी, गीता, रामायण सहित अनेक शोध पत्रों का भी अध्ययन किया गया है। इन अध्ययन सामग्री मे शोधार्थी को भारतीय ज्ञान परंम्परा से संबंधित बहुत ही महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ तथा इस शोध कार्य को पूरा करने मे सहायता मिली। इसके अलावा पंडित दीनदयाल उपाध्यायकेविचरों पर किस तरह से भारतीय ज्ञान परंम्परा का प्रभाव पडा, उसका भी सम्यक् अध्ययन किया गया है। डाॅ महेश चंद्र शर्मा द्वारा पंडित दीनदयाल उपाध्याय वांगमय ,प्रो कुलदीप चंद्र अग्निहोत्री, प्रो सक्सेना,प्रो बजरंग लाल गुप्ता व अन्य विद्वानों द्वारा लिखित रचनाओं का भी अध्ययन करते हुए पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन, विचारों, दृष्टि और दर्शन पर पडे भारतीय ज्ञान परंम्परा के प्रभाव का अध्ययन व्यापक रूप से किया गया है। |
||||||
मुख्य पाठ |
पंडित दीनदयाल उपाध्याय और भारतीय ज्ञान परंम्परा स्वतंत्रता पश्चात राजनीतिक सत्ता के साथ साथ भारतीय मनीषा इस बात को लेकर चिंतित थी कि अब भारत के भविष्य की दिशा क्या हो? भारतीय राज-काज मे हिस्सा ले रहे राजनीतिज्ञों मे भी अनेक प्रकार के मतभेद इस विषय मे उपस्थित थे। राजनीतिक सत्ता से दूर गांधी जी का दर्शन पूरी तरह से भारतीय परंपरा पर आधारित था। जबकि नेहरू और उनके समर्थकों का दृष्टिकोण पश्चिम और समाजवाद से प्रेरित था। गांधी के निधन के साथ ही भारत का शासन और भवितव्य अब पूरी तरह से नेहरु के हाथ आ गया था। नेहरूवादी अर्थव्यवस्था, राजनीति, प्रशासन और अन्य व्यवस्थाओं की परिणति क्या रही, उसे हम सब जानते ही हैं। मगर इसी बीच अनेक दृष्टा ऐसे भी हुए जो भारत की समस्याओं का समाधान भारतीय दृष्टि, अनुभव और उपस्थित ज्ञान परंम्परा मे ही देखते थे। वह बात अलग रही कि उनके क्रियान्वयन का अवसर तब उन्हें नही मिला। ऐसे दूर दृष्टा थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म राजस्थान मे हुआ था (कुछ लोग उत्तर प्रदेश के मथुरा जिला को भी मानते हैं) बाल्य काल मे ही माता पिता के निधन से पंडित दीनदयाल उपाध्याय का पालन-पोषण नाना नानी तदोपरान्त मामा मामी के यहाँ हुआ। बचपन से ही मेधावी दीनदयाल काफी दिक्कतों का सामना करते हुए पढ़ाई की तथा उच्च शिक्षा के दौरान ही उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूरदर्शी प्रचारकों से हुआ तथा नाना जी देशमुख के माध्यम से तात्कालीन सरसंघचालक जी से भी हुआ। परिणाम स्वरूप दीनदयाल जी अपनी पढ़ाई के बीच मे ही संघ के प्रचारक बन गए। बाद मे संघ योजना से उन्होंने राजनीति मे प्रवेश किया तथा 1952 मे गठित भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य भी बने। गहन चिंतन-मनन करने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय का ध्यान जब भारतीय राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज व्यवस्था व अन्य क्षेत्रों की ओर व्याप्त समस्याओं पर गया तो उन्होंने पाया कि इन समस्याओं का निराकरण भारतीय दृष्टि और दर्शन से ही संभव है। गहन अध्ययन के बाद उन्होंने अनेक विचार राष्ट्र के समक्ष रखे जो तात्कालीन परिस्थितियों मे भारत के लिए अंत्यंत श्रेयष्कर थे। वह बात अलग है कि उस समय परिस्तिथि ऐसी नही थी की उनका क्रियान्वयन हो पाता। परंतु जब-जब राष्ट्रीयता व भारतीय संस्कृति से प्रभावित सत्ता प्रतिष्ठान को अवसर मिला तब- तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि पर आधारित शासन व्यवस्था, नीति निर्धारण का संकल्प लेकर उन्हें भरसक क्रियान्वित करने का सफलतापूर्वक प्रयास किया गया है। वर्तमान केन्द्र व अनेक राज्यों की सरकारों की विभिन्न नीतियां और उनका क्रियान्वयन इसका उदाहरण हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का अधिष्ठान भी,यदि ध्यान से विवेचना करें तो,वह भी पंडित दीनदयाल उपाध्याय के व्यावहारिक व भारतीय ज्ञान परंम्परा पर ही आधारित है। क्या है पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि? वास्तव मे यदि पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के विचारों,दर्शन और दृष्टि का विशद अध्ययन हम करते हैं तो पाते हैं कि पंडित जी ने भारतीय राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज, पत्रकारिता, विदेश नीति व अन्य पर जो भी विचार व्यक्त किए वह कोई नए नही हैं बल्कि वह सब दृष्टि और दर्शन भारतीय वांगमय, परंम्परा व संस्कृति मे पहले से ही व्याप्त रहें हैं। पंडित जी ने तो तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार उनकी सहजता से व्याख्या करके उनके समूल क्रियान्वयन की बात रखी थी, जो कि व्यवहार्य थीं। पंडित जी ने व्याप्त भारतीय अनुभवों, ज्ञान, परंम्परा के ही अनुसार अपनी दृष्टि रखी जो उस समय की समस्याओं के समाधान के लिए न केवल अनुकूल थीं बल्कि राष्ट्र सहित मानव मात्र के लिए हितकारी थीं। इसका प्रमाण यह है कि जब-जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों पर आधारित नीति व कार्यक्रम बनाए गए, उन्होंने व्यापक सफलता प्राप्त किया है। वर्तमान केन्द्र सरकार की भी अनेक ऐसी नीतियां और योजनाएं हैं जो नितांत पंडित जी के विचारों पर ही आधारित और क्रियान्वित हैं तथा जिनके प्रभाव दूरगामी साबित हो रहे हैं । पंडित दीनदयाल के प्रमुख विचार अंत्योदय : पंडित दीनदयाल उपाध्याय के प्रमुख विचारों मे से एक है अंत्योदय। अंत्योदय का अर्थ है- अंत+उदय अर्थात अंत का उदय। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि समाज की अंतिम पंक्ति मे जो खडा है, उसका सर्वागीण विकास हो, ऐसी भावना से परिपूर्ण प्रयत्न, नीति और कार्यक्रम तथा उनका प्रभावी क्रियान्वयन। पंडित जी का मानना था कि समाज के सबसे दीन हीन और वंचितों की चिंता सर्वप्रथम होनी चाहिए क्योंकि वही सबसे ज्यादा उपेक्षित और अपेक्षित हैं। पहली, दूसरी, तीसरी व अन्य पंक्तियों की चिंता से पहले जो अंतिम पंक्ति मे हैं, उनका कल्याण व उनकी प्रारंभिक व अति आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत जरूरी है। अगर उन्हें मौके पर अपेक्षित सहायता मिलती है तो वह धीरे-धीरे मुख्य धारा मे न केवल आने मे सक्षम होंगें बल्कि समाज व्यवस्था के विकास मे भी उनका योगदान मिल पाएगा। इस तरह पहली पंक्ति से लेकर अंतिम शक्तियों का सहयोग समाज को मिलेगा तभी सर्वागीण विकास का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। देखा जाए तो पंडित जी का यह विचार भारतीय परंपरा मे विद्यमान "सर्वे भवंतु सुखिन:" के सिद्धांत पर ही आधारित है। यही कारण है कि आज भारत मे चल रही अनेक जन कल्याणकारी योजनाओं की प्रेरणा पंडित जी के विचार ही हैं। एकात्म मानव दर्शन पंडित दीनदयाल उपाध्याय का यह दर्शन भी भारत की समृद्ध ज्ञान परंम्परा से से ही उद्घृत या कहना चाहिए कि उसी से प्रभावित व प्रेरित है। भारतीय परंपरा मे व्यक्ति ही परिवार की इकाई है। परिवार से समाज व समाज से राष्ट्र और फिर विश्व व ब्रम्हाण्ड है । पं. दीनदयाल उपाध्याय जी का ‘एकात्म मानव दर्शन’, सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों ही दृष्टि से, एक सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक जीवन दर्शन है। इस दर्शन के अनुसार, ‘मानव’ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के केन्द्र में अवस्थित रह कर, एक ‘सर्पलाकार मण्डलाकृति’ के रूप में, अपने स्वयं के अतिरिक्त, क्रमश: परिवार, समुदाय, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के प्रति, अपने बहुपक्षीय उत्तरदायित्वों का निर्वहन करता हुआ ‘प्रकृति’ (ब्रह्माण्ड) के साथ संग्रथित होता हुआ, एकीकृत हो जाता है। ‘व्याष्टि’ से ‘समाष्टि’ की ओर गतिमान ‘व्यक्ति’ के इस बहु आयामी सृजनात्मक व्यक्तित्व का ‘प्रकृति’ के साथ, तादात्म्य स्थापित होना ही, एकात्म मानव दर्शन के मूल में निहित है। पंडित जी के अनुसार मानव ही, उस ब्रहमाण्ड अर्थात समष्टि का अणु अर्थात व्यष्टि इकाई है, जिसके सर्वांगीण विकास के बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं है। अथर्ववेद में हमारे ॠषि भी कह चुके हैं ’’अभिवर्धतां पयसाभि राष्ट्रेण वर्धताम्’’ अर्थात सभी प्रजा दुग्धादि धनधान्य से पुष्ट हो तथा राष्ट्र के साथ विकसित हो। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के इस दर्शन की सामान्यतः एकात्म मानव वाद भी कह दिया जाता है। यद्यपि ऐसा नही है ।यह अलग चर्चा का विषय हो सकता है। मगर इतना अवश्य है कि पंडित जी की इस दृष्टि पर भी पूरी तरह से परंपरागत भारतीय ज्ञान का व्यष्टि प्रभाव परिलक्षित होता ही है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अन्य विचारों पर भारतीय मनीषीयों का बौद्धिक प्रभाव पंडित दीनदयाल उपाध्याय के उक्त कालजयी विचारों के अलावा भी राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय, धर्म, राजनीति, विदेश नीति, शिक्षा नीति सहित मानव व समाज जीवन से संबंधित अभूतपूर्व विचार व दृष्टि हमे मिलती। स्थानाभाव के कारण सब की तथा विस्तार से चर्चा यहाँ संभव नही हो पाएगी, किंतु सार संक्षेप मे कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं का उल्लेख हो सकता है। दीनदयाल उपाध्याय स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति के प्रमुख शिल्पियों में से थे। सामान्यतः उनकी ख्याति सक्रिय राजनीतिज्ञ और कुशल संगठन के रूप मे रही हैं, पर इससे अधिक वे एक महान विचारक और चिंतक थे। उनकी वैचारिक आभा पर भारतीय मनीषा और संस्कृति की स्पष्ट झलक दिखाई पडती है। इतना ही नही विद्वानों ने यह भी स्वीकार किया है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र पर अपने जो भी विचार व्यक्त किया था उनपर भारतीय ज्ञान परंम्परा का ही असर था कि उनके सभी विचार आज पथ प्रदर्शक बन कर उभरे हैं। उनके यह सब विचार उनके दीर्घकालीन अनुभव की देन तो थे ही, साथ ही भारत की समृद्ध ज्ञान विरासत का समयानुसार प्रस्फुटन भी था। कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं की बात करना यहाँ समीचीन होगा: राष्ट्र निर्माण राष्ट्र निर्माण अथवा संगठन को लेकर पश्चिमी विद्वानों के साथ साथ ही भारतीय विद्वानों मे भी मतैक्य नही है। जबकि भारत की ज्ञान परंम्परा सटीकता से राष्ट्र निर्माण अथवा संगठन को संसूचित करती है। इसीलिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का मानना है कि राष्ट्र एक स्वाभाविक संगठन हैं। मानव-शरीर के सभी अवयव जिस प्रकार स्वाभाविक रूप से क्रियाशील रहते हैं, उसी प्रकार राष्ट्र के विभिन्न घटक भी राष्ट्र सेवा के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं। एक राष्ट्रभाव की विस्मृति के कारण यदि घटक अंग शिथिल पड़ते हैं, तो राष्ट्र का पतन होता हैं और यदि ये पूरी तरह निष्क्रिय हो गये तो संपूर्ण राष्ट्र के विनाश का कारण बनते हैं। इस प्रकार पंडित जी ने भारतीय दृष्टि से राष्ट्र और उसके निर्माण के आयाम पर वास्तविक विवेचना कर सही राह दिखाया है। चिर अखण्ड भारत की कल्पना चिर अखंड भारत की संकल्पना सामान्यतः आज के तथाकथित सूडो सेकुलरों, छद्म लोकतंत्र वादियों और राजनीति को वंश व अपने स्वार्थों की सीढी बनाने वालों को न कभी समझ आई है न कभी समझ आएगी भी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अखण्ड भारत की कल्पना में कटक से अटक, कच्छ से कामरूप तथा काश्मीर से कन्याकुमारी तथा संपूर्ण भूमि के कण-कण को पुण्य और पवित्र नहीं अपितु आत्मीय मानने की भावना अखण्ड भारत के अंतर्गत अभिप्रेत हैं। यही अभिप्रेरणा भविष्य का लक्ष्य हो, ऐसा हर एक भारत वासी के हृदय मे होना चाहिए, ऐसा पंडित जी का मंतव्य था। सांस्कृतिक भारत न कि राजनीति भारत अपने कोटिशः वर्षों से प्राप्त ज्ञान परंम्परा से आप्लावित तथा सांस्कृतिक वैविध्यता से परिपूर्ण भारत ही पं दीनदयाल उपाध्याय का विचार था। उनका यदि भारत की आत्मा को समझना हैं तो राजनीति अथवा अर्थनीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक व भारतीय धर्म, दर्शन व आध्यात्म के दृष्टिकोण से ही देखना होगा। विश्व को हम अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता तथा कर्तव्यपरायणता से बहुत कुछ समझा सकते हैं। विश्व के उथल-पुथल को शांत कर एक आदर्श विश्व की स्थापना का सामर्थ्य भारत उसके वैश्विक ज्ञान और दर्शन मे समाहित है। साधना स्वराज्य की एक देश व देशवासियों के लिए स्वराज्य किसी भी राष्ट्र के लिए प्राण हैं और कटिबद्ध देशवासी इसके लिए सर्वस्व न्योछावर देते हैं। भारत का स्वातंत्र्य समर तथा कोटि-कोटि बलिदान इसका ज्वलंत उदाहरण है। स्वराज्य समाज की वह स्थिति हैं, जिसमें समाज अपने विवेक के अनुसार निश्चित ध्येय की ओर बढ़ सकता हैं। इसीलिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय के समग्र चिंतन मे ही स्वराज्य केन्द्र मे है। स्वराज्य किस तरह से जीवंतता के साथ उत्कर्ष प्राप्त करे, यही उनकी व्यवस्था का ध्येय होना चाहिए। राष्ट्र के लिए व्यक्ति साधन है पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार व्यक्ति राष्ट्र की आत्मा को प्रकट करने का एक साधन हैं। इस प्रकार व्यक्ति अपने स्वयं के अतिरिक्त राष्ट्र का भी प्रतिनिधित्व करता हैं। इतना ही नहीं, अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए राष्ट्र जितनी भी संस्थाओं को जन्म देता हैं, उसका उपकरण व्यक्ति ही हैं और इसलिए वह उनका भी प्रतिनिधि हैं। राष्ट्र में व्यापक जो समष्टियाँ हैं, जैसे मनुष्य उनका प्रतिनिधित्व भी व्यक्ति ही करता हैं। अभिन्न हैं व्यक्ति व समाज पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना है कि व्यक्ति तथा समाज में किसी प्रकार विरोध नहीं हैं। विकृतियाँ तथा अव्यवस्था की बात छोड़ दे, उन्हें दूर करने के उपाय भी जरूरी होते हैं, किन्तु वास्तविक सत्य यह हैं कि व्यक्ति और समाज अभिन्न और अभिवाज्य हैं। सुंसस्कृत अवस्था यह हैं कि व्यक्ति अपनी चिन्ता करते हुए भी समाज की चिन्ता करेगा तभी समाज का उत्कर्ष संभव हो पाएगा । राष्ट्र के अनिवार्य तत्व पंडित जी ने किसी राष्ट्र के लिए चार आवश्यक तत्व बताये हैं- प्रथम भूमि और जन जिसे देश कहते हैं। द्वितीय, सबकी इच्छा शक्ति अर्थात् सामूहिक जीवन का संकल्प। तृतीय, एक व्यवस्था जिसे नियम अथवा संविधान कहा जा सकता हैं, जिसे वे धर्म कहते हैं तथा चतुर्थ हैं जीवन आदर्श। इन चारों के सम्मिलित स्वरूप को ही राष्ट्र कहा जाता हैं। राज्य और व्यक्ति के बीच सावयवी एकता बताते हुए उन्होंने कहा, जिस प्रकार व्यक्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा जरूरी हैं तथा इन चारों से मिलकर व्यक्ति का निर्माण होता हैं, उसी प्रकार देश, संकल्प, धर्म और आदर्श के समुच्चय से राष्ट्र का निर्माण होता हैं। पंडित जी की इस व्याख्या से राष्ट्र को लेकर जो विशुद्ध भारतीय परंपरा रही है,वह स्पष्टया परिलक्षित होती है। चित्ति ही राष्ट्र का केन्द्र बिन्दु पंडित दीनदयाल उपाध्याय का विचार है कि राष्ट्र की भी एक आत्मा होती हैं। इसे 'चित्ति' कहा जाता हैं। यह किसी समाज की जन्मजात प्रकृति होती हैं। इसे लेकर ही प्रत्येक समाज का निर्माण होता हैं। किसी भी समाज की संस्कृति की दिशा का निर्धारण इसी चित्ति के अनुकूल ही होता हैं। अर्थात् जो चीज इस चित्ति के अनुकूल होती है वह संस्कृति में सम्मिलित कर ली जाती हैं। चित्ति वह मापदंड हैं, जिसके द्वारा प्रत्येक वस्तु को मान्य अथवा अमान्य किया जाता हैं। यह चित्ति राष्ट्र के प्रत्येक श्रेष्ठ व्यक्ति के आचरण द्वारा प्रकट होती हैं। इसी आचरण के आधार पर राष्ट्र खड़ा होता हैं। पंडित जी के अनुसार चित्ति जब विघटित होती है अथवा कमजोर पडती है तो राष्ट्र पर उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।इसलिए चित्ति की मजबूती और प्रभावशाली होना बहुत आवश्यक है। राष्ट्र और राज्य अलग अलग हैं दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्र एवं राज्य में अंतर किया हैं। उनका मत हैं कि राष्ट्र एक स्थायी सत्य हैं। राष्ट्र की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिये राज्य उत्पन्न होता हैं। राष्ट्र निर्माण केवल नदियों, पहाड़ों, मैदानों या कंकड़ों के ढेर से ही नहीं होता और न ही यह केवल भौतिक इकाई ही हैं। इसके लिए देश में रहने वाले लोगों के ह्रदयों में उसके प्रति असीम श्रद्धा की अनुभूति होना प्रथम आवश्यकता हैं। इसी श्रद्धा की भावना के कारण हम अपने देश को मातृभूमि कहते हैं।जबकि उपाध्याय के अनुसार उनके अनुसार राज्य कृत्रिम है तथा मानव निर्मित एक संस्थान है। राज्य की आवश्यकता दो परिस्थितियों में होती हैं। पहली आवश्यकता तब होती हैं जब राष्ट्र के लोगों में कोई विकृति आ जाए। ऐसी स्थिति में उत्पन्न समस्याओं के नियमन के लिए जटिलता उत्पन्न हो जाती हैं तथा सार्वजनिक जीवन में व्यवस्था का निर्माण करना आवश्यक हो। निर्बलता, असहायता, दरिद्रता का लाभ शक्ति सम्पन्न तथा साधन सम्पन्न वर्ग न उठा सकें, सब न्याय की सीमाओं में अपने कार्य को करें, इसके लिए राज्य का निर्माण किया जाता हैं। राष्ट्र के अंदर अनेक राज्य हो सकते हैं तथा उनकी अपनी-अपनी शासन व्यवस्थाएँ हो सकती हैं। मगर राष्ट्र तो एक अनुभूति है, एक ऐसा सूत्र है जो एकात्म की भावना से रचा और बसा होता है। |
||||||
सामग्री और क्रियाविधि | प्रस्तुत शोध पत्र
पूरी तरह से सैद्धांतिक अध्ययन है। भारतीय परंपरा मे मे उपलब्ध ज्ञान संबंधी
साहित्य, ग्रंथों, शोध सामग्रियों का का अध्ययन करते हुए निष्कर्षों पर पहुंचने का प्रयास
किया गया है। साथ ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन, विचारों
और दर्शन पर आधारित साहित्य का अध्ययन किया गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के
विचारों पर भारतीय ज्ञान परंम्परा का किस तरह का प्रभाव पडा,इसे भी समझने की कोशिश करते हुए निष्कर्षों तक पहुंचा गया है। |
||||||
निष्कर्ष |
इस प्रकार हम कह
सकते हैं कि भारत की ज्ञान परंम्परा अर्वाचीन है ।इस परंपरा ने न केवल विश्व को
प्रभावित ही किया है बल्कि दुनिया को प्राचीन काल से ही आकर्षित भी किया है।दुनिया
के विद्वानों ने भारतीय धर्म, ज्ञान,
आध्यात्म और दर्शन से बहुत कुछ हासिल कर अपने-अपने देशों को
समृद्ध किया है। भारत के अनेक महापुरुषों ने भी भारत की अनवरत ज्ञान परंम्परा से
बहुत कुछ सीखा व उसके ही प्रकाश मे समयानुसार अपने बहुमूल्य विचार समाज को दिया।
ऐसे ही अनेक महापुरुषों और विचारकों मे पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी शामिल हैं,
जिन्होंने तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए भारत के सर्वागीण
विकास का चित्र अपने विविध विचारों से रेखांकित कर शासन व्यवस्था का पथ प्रदर्शित
किया। पंडित जी के इन सब विचारों और दृष्टि का आधार पश्चिम की अधकचरी या अन्य कोई
उधार की ली गई विचार धारा नही थी बल्कि समृद्ध भारतीय ज्ञान परंम्परा ही थी।
भारतीय ज्ञान परंम्परा मे अद्भुत शक्ति है। इससे आज की और भावी पीढ़ी को ठीक ढंग से
परिचय कराने की महती आवश्यकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय शिक्षा
नीति-2020 मे भारतीय ज्ञान परंम्परा को समाहित किया गया
है। अपेक्षा है भावी पीढ़ी इससे आशातीत लाभ लेकर भारत का भवितव्य पुनश्च गौरवशाली
पथ पर अग्रसर करेगी । |
||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. प्राचीन भारतीय ज्ञान की गूँज,
सार्वभौमिक हिंदू दृष्टि और इसकी इमारत- डॉ. शांता एन नायर |