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वैदिक काल का कलात्मक दृष्टिकोण | |||||||
Artistic Outlook Of The Vedic Period | |||||||
Paper Id :
17933 Submission Date :
2023-07-31 Acceptance Date :
2023-08-19 Publication Date :
2023-08-26
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सारांश |
मानव-स्वभाव की कठोरता और कोमलता को सत्ता की लय के रूप में प्रस्तुत करने वाले भारतीय शिल्प और साहित्य में भी यही द्वैतता अन्तर्हित है। वस्तुतः भारतीय मूर्तिशिल्प, काव्य और नाटक सभी में विपर्ययों का, चिर- प्रतिष्ठित सन्तुलन और ऐक्य के साथ नम्यता और स्वच्छन्दता का, विचित्र संयोग का भी कारण यही है भारत, जावा, स्याम धौर कम्बोडिया में भारतीय मूर्तिशिल्प ने श्रादर्शीकृत, वायवी किन्तु रोमांचकारी मूर्तियों की सृष्टि की है, जिनमें पुरुष के गौरवऔर धोज तथा नारी की लालसा धौर कोमलता का आश्चर्यजनक संयोजन है, और जिनमें मानव के व्यक्तिपरक गुणों (जिनमें यौन भी सम्मिलित है) को एक अमूर्त और अलौकिक प्रकार- शिव, विष्णु, बुद्ध, बोधिसत्त्व, और देवी के अधीन कर दिया गया है । अनेक विभिन्न एशियाई जातियों और संस्कृतियों ने इन मूर्तियों को पुननिर्मित किया है, किन्तु उनपर भी इसी प्रकार के प्राध्यात्मिक यथार्थ की छाप स्पष्ट है- यह प्राध्यात्मिक यथार्थ इतना सरल और सार्वभौम है, अतः अधिक विशुद्ध है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The same duality is inherent in the Indian art and literature which presents the hardness and softness of human nature as the rhythm of power. In fact, in Indian sculpture, poetry and drama, the contrasts, flexibility and freedom with the time-honored balance and unity, this is also the reason for the strange coincidence, Indian sculpture in India, Java, Siam Dhaur, Cambodia has produced beautiful, aerial but thrilling sculptures. In which there is a wonderful combination of male pride and dhoj and female longing and tenderness, and in which the subjective qualities of human beings (including sex) are embodied in an abstract and supernatural form – Shiva, Vishnu, Buddha, Bodhisattva, and has been subordinated to the goddess. Many different Asian races and cultures have recreated these sculptures, but they bear the imprint of the same metaphysical reality – a metaphysical reality so simple and universal, so pure. | ||||||
मुख्य शब्द | वैदिक काल, कलात्मक दृष्टिकोण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Artistic Outlook, Vedic Period. | ||||||
प्रस्तावना | अपनी कला के
गांभीर्य, सौंदर्य और वैविध्य के कारण
भारतीय कला विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रसार प्रभावपूर्ण और समीचीन ढंग से
कर सकी है। जातकों, अवदानों, रामायण,
हरिवंश और महाभारत के दृश्य यदि सभी लोगों को स्वीकार्य लाक्षणिक
और प्राध्यात्मिक घटनाक्रम न होते तो जावा, बर्मा और
कम्बोडिया में विदेशियों ने उन्हें हजारों पाटों पर इतने धैर्यपूर्वक और उत्कृष्ट
ढंग से कदापि न उकेरा होता । बोरोबुदुर, अंग्कोर और पगन
मन्दिरों के नक्शे ब्रह्मांड की लाक्षणिक प्रतिकृतियां हैं, जिनमें भारतभूमि के संगति-विज्ञान की धारणाओं के अनुसार संसारों धौर
जीवन के स्तरों का नैयमिक और निश्चित श्रेणी-विभाजन है। कम्बुज और द्वारावती के
मन्दिरों में गर्भगृह, अन्तराल, मंडप
और शिखर का प्रबन्ध भारतभूमि के मन्दिरों के समान है; उनमें
मन्दिर विधान के एक जैसे लाक्षणिक सिद्धान्त प्रयुक्त है, जो मानव की बलि अथवा ब्रह्म के साथ पुनर्मिलन के प्रतीक है। यूनानी
बौद्ध और गुप्तकालीन बना तथा मध्ययुगीन दक्खिनी, पल्लव और
पाल कला की शक्तिमती धाराएं उत्तर और पूर्व में पर्वतीय मार्गों तथा दक्षिण में
समुद्री मार्गों द्वारा पूर्वानुपर तरंगों के रूप में मध्य एशिया, चीन, नेपाल, तिब्बत,
बृहतर भारत और इंडोनेशिया में प्रवाहित हुई। भारत की कला ने ही
भारतीय पुराण, अध्यात्म और धर्म का प्रसार किया, तथा पगन, द्वारावती, चम्पा,
अंग्कोर और पूर्वी जावा की क्षेत्रीय शैलियों को विकसित अथवा
समृद्ध किया |
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अध्ययन का उद्देश्य | वैदिक युग में
चित्रकला - वैदिक काल में चित्र संगीत, नृत्य,
गीत, वाद्य, कविता,
चारक, कहानी, सुनना,
उत्सव मनाना और कला कौशल आदि मनोरंजन के अनेक साधन थे। यह सभी
बातें ललित कला के अन्तर्गत आती थी। |
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साहित्यावलोकन | काल की चित्रकला का ज्ञान साहित्यक रचनाओं, वेद रामायण, महाभारत पुराणों में से प्राप्त कला प्रसंगों से किया जा सकता है। भारत के पुरातन समाज और साहित्य में ललित कला विशेष रूप से चित्रकला की क्या स्थिति थी यद्यपि इसके जीवित प्रमाण बहुत कम उपलब्ध हैं, तथापि उसका उल्लेख वेद वैदिक साहित्य हुए है, रामायण, महाभारत, जैन, बौद्धों के साहित्य, पुराणों, पीतिसार, नाट्य-शास्त्र, कामसूत्र, ज्योतिष एवं आयुर्वेद, शिल्पशास्त्र, काव्य, नाटक और कृथा अख्यायिका आदि आपेक विषयों के ग्रन्थों में देखने को मिलते हैं। शोध पत्र के माध्यम से इस विषय पर विस्तृत विचार किया गया। 2021-2022 मे प्रकाशित "भारतीय कला के अंतर्संबंध" नर्मदा प्रसाद
उपाध्याय द्वारा लिखित पुस्तक के अनुसार वैदिक भारत के कुछ लुप्त चिन्हित चित्र
शैलियों का विवरण अभी तक मूल रूप से साहित्य में सम्मिलित नहीं हुआ इसी बिंदु पर
प्रकाश डालने हेतु इसके माध्यम से भारतीय वैदिक युग की विभिन्न चित्र परंपराओं के
विवरण और उनका कलात्मक दृष्टिकोण का समस्त विवरण इस में समाहित है। |
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मुख्य पाठ |
भारत के दर्शन और धर्म की भांति, भारतीय कला भी चित्रणात्मक नहीं वरन्
कल्पनाप्रधान और आध्यात्मिक तथा व्यक्तिपरक नहीं वरन् जातिपरक और सामाजिक है। भारत
में, शिल्प ज्ञान है तथा कल्पना और काव्य (विद्या) शिल्प
हैं। आध्यात्मिक यथार्थ ही अपने कल्पनापरक रूप अथवा मूर्ति में मानव को उपलब्ध
होता है। ताकि वह ध्यान, पूजा तथा कलात्मक निरूपण कर सके।
इसीके अनुसार, भारतीय कला मायावी संसार की अनेकरूपता में,
जीवन के समस्त स्तरों, सीमाओं और विस्तारों
में एक पारलौकिक यथार्थ का ही उद्घाटन करती है। इसमें जीवन की गुम्फित बहुलता और विलासिता
धमूर्त और प्रगाढ़ सत्य के रूप में मौजूद है। यह कायिक पौराणिक बहुल धौर सन्तुलित
साथ-साथ है। भारतीय मूर्तिकला और अलंकृति में पुरुष के गौरव और विभव, ईश्वर की वैचारिकता और सक्षमता तथा नारी की
प्रसन्नता और सुनम्यता सभी मर्यादित और संयत हैं। यह मर्यादा और संयम अलौकिक कल्पना प्रवणता और आध्यात्मिकता जन्य निर्मलता और संगति की देन है। भारतीय दर्शन के अनुसार, सम्पूर्ण ब्रह्मांड और मानव मस्तिष्क की सभी प्रक्रियाओं के
पुरुष और नारी दो पक्ष हैं। यही द्वैतता भारत में जीवन के प्रति पौराणिक और
चित्रात्मक दृष्टिकोण में निहित है, तथा प्रकृति के
स्थायित्व और गतिमयत्व व मानव-स्वभाव की कठोरता और कोमलता को सत्ता की लय के रूप
में प्रस्तुत करनेवाले भारतीय शिल्प और साहित्य में भी यही द्वैतता अन्तर्हित है।
वस्तुतः भारतीय मूर्तिशिल्प, काव्य और नाटक सभी में
विपर्ययों का, चिर- प्रतिष्ठित सन्तुलन और ऐक्य के साथ
नम्यता और स्वच्छन्दता का, विचित्र संयोग का भी कारण यही है
भारत, जावा, स्याम धौर कम्बोडिया में
भारतीय मूर्तिशिल्प ने श्रादर्शीकृत, वायवी किन्तु
रोमांचकारी मूर्तियों की सृष्टि की है, जिनमें पुरुष के
गौरव और धोज तथा नारी की लालसा धौर कोमलता का आश्चर्यजनक संयोजन है, और जिनमें मानव के व्यक्तिपरक गुणों (जिनमें यौन भी सम्मिलित है) को एक
अमूर्त और अलौकिक प्रकार- शिव, विष्णु, बुद्ध, बोधिसत्त्व, और देवी के
अधीन कर दिया गया है। अनेक विभिन्न एशियाई जातियों और संस्कृतियों ने इन मूर्तियों
को पुननिर्मित किया है, किन्तु उनपर भी इसी प्रकार के
प्राध्यात्मिक यथार्थ की छाप स्पष्ट है- यह प्राध्यात्मिक यथार्थ इतना सरल और
सार्वभौम है, अतः अधिक विशुद्ध है । वैदिक तथा पूर्व बौद्ध कालीन साहित्य में चित्रकला का उल्लेख वैदिक: काल का
इतिहास अस्पष्ट है। अत: इस काल की चित्रकला का ज्ञान साहित्यक रचनाओं, वेद रामायण,
महाभारत पुराणों में से प्राप्त कला प्रसंगों से किया जा सकता है।
भारत के पुरातन समाज और साहित्य में ललित कला विशेष रूप से चित्रकला
की क्या स्थिति थी यद्यपि इसके जीवित प्रमाण बहुत कम उपलब्ध हैं, तथापि उसका उल्लेख वेद वैदिक साहित्य, हुए है रामायण,
महाभारत, जैन, बौद्धों
के साहित्य, पुराणों, पीतिसार, नाट्य-शास्त्र, कामसूत्र, ज्योतिष
एवं आयुर्वेद, शिल्पशास्त्र, काव्य,
नाटक और कृथा अख्यायिका आदि अपेक विषयों के ग्रन्थों में देखने को
मिलते हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण विष्णु धर्मोत्तर पुराण का "चित्रसूत्र"
महाराज भोज का "समरागण सूत्राधार और सौमेश्वर भूपति का "मानसो उल्लास
आदि ग्रन्थों में भारतीय कला भी विधि विधान की चर्चा है संस्कृत साहित्य के रूप
प्राचीन एवं मध्यकालीच ग्रन्थों में हजारों शताब्दियों के पूर्व से लेकर लगभग 16वीं शताब्द
तक भारतीय चित्रकला का क्रमवद्ध इतिहास जाया जा सकता है । वैदिक युग में चित्रकला- वैदिक काल में चित्र संगीत, नृत्य,
गीत, वाद्य, कविता,
चारक, कहानी, सुनना,
उत्सव मनाना और कला कौशल आदि मनोरंजन के अनेक साधन थे। यह सभी बातें
ललित कला के अन्तर्गत आती थी। ऋग्वेद में हम चमड़े पर अग्निदेव के चित्र अंकित होने का उल्लेख पाते हैं।
रामायण और महाभारत के बाद रचे गये उस्तु विषयों के अतिरिक्त जिन ग्रन्थों में
चित्रकला का उल्लेख मिलता है। पाणिनि (500 ई० पूर्व) की" अष्टाध्यायी" का
नाम आता है, अष्टाध्यायी में शिल्प को चारू ललित और कार
उद्योग दोनों के अर्थों में प्रयोग किया है। इन कालिदास के लघु काव्य "मेघदूत”
में विरहिणी द्वारा. अंकित उसके प्रवासी पति पक्ष का चित्र उल्लेख
है। कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में ललित'विष्णुधर्मोत्तरम्'
और 'शिल्परत्नम्' दोनों
में चित्रकला के अंगों का सविस्तार विवेचन है । 'विष्णुधर्मोत्तरम्'
में एक स्थान पर लिखा है कि नृत्यकला के प्रारम्भिक ज्ञान के बिना
चित्रकला में मनःस्थिति की समुचित अभिव्यक्ति असंभव है; इसका
स्पष्ट अर्थ यही है कि 'रूप' ही
चित्रकला और मूर्तिकला का सार है। स्पन्दनशील भंगिमाएं और मुद्राएं अजन्ता और बाघ
के उत्कृष्ट चित्रकर्मों की विशेषताएं हैं। किन्तु इति यहीं नहीं। गुप्त तथा
गुप्तोत्तरकालीन उभारदार तथा अन्य मूर्तियों में भंगिमा और चेतना का गत्यात्मक
प्रवाह है, जो उन मूर्तियों को सौन्दर्य और भोज प्रदान करता
है—कला में इन दोनों गुणों की एकसाथ उपस्थिति अत्यन्त विरल
है। मूर्तिकला और चित्रकला को ये गुण नृत्यकला से मिले थे; नृत्यकला
उस समय सारे देश में शताब्दियों से अत्यन्त लोकप्रिय थी— उसे
सामाजिक उपलब्धि भी माना जाता था और मन्दिरों या उत्सवों में धार्मिक संस्कार भी ।
वस्तुतः भारत में नृत्य तथा धार्मिक मूर्तियों में अत्यधिक साम्य है। 'नाट्यशास्त्र' के रचयिता भरत मुनि ने एक सौ आठ
नृत्यमुद्राओं का वर्णन किया है, कला शब्द का उल्लेख है। रघुवंश के 16 वें
अध्याय में विधिवस्त अयोध्या नगरी का भी वर्णन है। वहाँके प्रसादों की मिट्टियों
पर उपवन के बचे चित्र जिसके मध्य में बड़े-बड़े हाथियों के चित्र हैं हाथियों में उनकी हर्षानियों ने कमाल की उपहल को देती हुयी अंकित है।
हाथियों के चित्र बड़े संजीव है। बड़े-बड़े महलों में जो लकड़ियों के स्तम्भ गड़े हुए
थे उन पर स्त्री मूर्तियाँ अंकित थी तथा उनमें रंग भरा हुआ था ऐसा वर्णन है। आचार्य वात्सायन (200-300) के "कामसूत्र में वर्णित 64 कलाओं और चित्रकला के 6 अंगों उल्लेख मिलता है।
इन्हीं में प्रत्येक नागरिक को रंग एवं कुंची की पेटी अपने विश्राम-कम में रखने का
निर्देश है वृहत संहिता 60 बराह मिहिर" (500 ई0) की वृहत्त संहिता में वर्णित वास्तु, शिल्प तथा कला से सम्वत् 56वें अध्याय में चित्र कर्म पर भी प्रकाश डाला नम्बोधन: गया
है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के "चित्रसूत्र" में चित्रकला पर सविस्तार
वर्णन है। कई पुराणों जैसे - विष्णु धर्मोत्तर पुराण बराह मिहिर की वृहत्त संहिता और रूप मण्डल आदि में
सीता, भरत, शत्रुधन की मूर्ति बनाने का विधान
बताया गया है। बृहत संहिता के अनुसार राम की मूर्ति 120 अंजुल
लम्बी होनी चाहिये 7कादम्बरी बाण भट्ट की महाकृति
"कादम्बरी” जैसेचित्रकला की प्रर्दशनी बन गयी है। इसमें
पील, पीट,लोहित, धवल
और हरित इप पाँच शुद्ध वर्णों का उल्लेख हुआ है। उसमें वर्ण चित्रों, भाव चित्रों और रेखा चित्रों आदि की बड़ी प्रशंसा की गयी है। उनमें राज
प्रसादों (महल) तथा राज भवनों आदि में सुरक्षित चित्र शालाओं और चित्रकला के
सम्बन्ध की अनेक, अनूठी सूचपाएं देखने को मिलती हैं।
कादम्बरी का वैशम्य में पायप नामक टोटा अन्य कलाओं के साथ चित्र कर्म में प्रवीण
था। हर्ष चरित्र दक्षिण के आचार्य दण्डी की "देश्य कुमार चरित" में
चित्र सम्बन्धित चर्चा है। दक्षिण भारत के रजवाड़ों में सम्भवतः राजकुमारों के लिये
अन्य विषयों के साथ चित्रकला की शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य था। कुट पीमित -
कशमीर के कवि दामोदर गुप्त की "कुट नीमित" नामक ग्रन्थ में भी चित्र कला
का उल्लेख मिलता है। तिलक मंजरी "दसवीं शताब्दी" की गधकृति तिलक मंजरी में चित्रकला
सम्बन्धी निपुण चित्रकार चित्र पर "प्रतिविम्ब" आदि परिभाषित शब्द मिलते
हैं । कथा सरित सागर- सोमदेव में कथा सरित सागर की अपेक कथाओं में चित्रकला की चर्चाएं है, उसकी एक कथा से यह सूचना मिलती है कि उदयन का कुमार चित्रकला, मूर्तिकला और संगीत कला में निपुण था। इसके अतिरिक्त अन्य कलाओं में भी चित्रकला सम्बन्धी चर्चा है तथा अन्य दरबारी चित्र कारों का भी उल्लेख है।" नैवह चरिट श्री हर्ष के "चैषह चरित" के महाकाव्य में दरबारों पर बजे
चित्र की गोपियों कृष्ण के साथ लीला करते हुए चित्र, अपसराओं, कामा सत्य
मुनियों, ऋऋषियों आदि की चर्चा है। इसमें राजा पल के प्रमोद
भवन में भिन्ट्टों तथा दीवारों पर जो चित्र बजे थे वे जीते-जागते आप पड़ते हैं तथा
रंगों का अनोखा प्रयोग किये जाने का उल्लेख है। इस प्रकार के चित्रों 66 कल्पवाल्ली" कहा गया है कल्पवल्लियाँ- कल्पबल्लियों के चित्रों का रिवाज प्रचलित हो गया था, क्यों कि
उस समय घरों के अन्दर कल्पवल्लियों को चित्रित किया जाना मंगल का सूचक समझा जाता
था। मध्यकाल में रचे गये संस्कृत के अपेक काव्य, पाटकों में
इसके शब्द चित्र देखने को मिलते हैं। |
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निष्कर्ष |
वैदिक काल का मुख्य
महत्व एक विज्ञान के रूप में वास्तु कला के विकास कला के विकास कला के विकास कला
के हिंदू और बौद्ध वास्तु कला में जीवित प्रकार के आविष्कार में निहित है जिन्हें
अमतौर पर नव पाषाण या प्रगतिशील रूप में वर्गीकरण किया गया है |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. ए० के० कुमारस्वामी : हिस्टरी
ऑफ इण्डियन ऐण्ड इण्डोनीशियन प्राटं (भारतीय और इण्डोनीशियाई कला का इतिहास) 2 .ए० के० कुमारस्वामी द मिरर
थ्रॉफ़ जेस्चर (अभिनयदर्पण) 3. ए० • के०
कुमारस्वामी : द डान्स ऑफ़ शिव (शिव का तांडव) 4. कला और संस्कृति: वासुदेव शरण 5. ए० के० कुमारस्वामी द यक्षाज़ (यक्ष),
२ भाग . 6. एच० जिमर: मिथ्स ऐण्ड सिम्बल्स
इन इण्डियन मार्ट ऐण्ड सिविलिजेशन (भारतीय 6.कला और
सभ्यता में कल्पना और प्रतीक) 7. ई० बी० हैवेल : माइडियल्स
प्रॉफ़ इण्डियन मार्ट (भारतीय कला के आदर्श) 8. ई० बी० हैवेल इण्डियन स्कल्पचर
ऐण्ड पेंटिंग (भारतीय मूर्तिकला एवं चित्र-कला) 9. पर्सी ब्राउन : इण्डियन
आर्कीटेक्चर (भारतीय वास्तुकला), २ भाग 10. एल० बाशोफ़र : अर्ली इण्डियन
स्कल्पचर (प्रादिभारतीय मूर्तिकला), २ भाग 11. भारतीय कला के अंतर्संबंध
-नर्मदा प्रसाद उपाध्याय 2021-22 |