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बौद्ध साहित्य में वर्णित शिल्प शिक्षा | |||||||
Craft Education Described in Buddhist Literature | |||||||
Paper Id :
17963 Submission Date :
2023-08-11 Acceptance Date :
2023-08-22 Publication Date :
2023-08-25
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सारांश |
शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास का माध्यम है। इससे मानसिक तथा बौद्धिक शक्ति तो विकसित होती ही है भौतिक जगत का भी विस्तार होता है। गुरुकुल परंपरा में चली आ रही प्राचीन शिक्षा पद्धति का बौद्ध काल में परिवर्तन हुआ और यह अब मठों तथा विहारों में दी जाने लगी तथा आत्म-संयम एवं अनुशासन की पद्धति द्वारा व्यक्तित्व के निर्माण पर बल दिया जाने लगा।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Education is the medium of all round development of man. This not only develops mental and intellectual power but also expands the physical world. The ancient education system, which was going on in the Gurukul tradition, changed in the Buddhist period and it was now being given in monasteries and viharas and the emphasis was on the formation of personality by the method of self-restraint and discipline. | ||||||
मुख्य शब्द | बौद्ध साहित्य, शिल्प शिक्षा, व्यक्तित्व। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Buddhist Literature, Craft Education, Personality. | ||||||
प्रस्तावना | शिक्षा के क्षेत्र
में बुद्ध ने जनतांत्रिक परंपरा का सूत्रपात किया। अलामा-सुत्त में स्पष्ट ही
निर्देश दिया गया है कि ’’तुम किसी बात को केवल इसलिए न
मानो कि वह उच्च स्थान पर बैठा है, या उम्र में वयोवृद्ध
है, या वह वर्ण विशेष से सम्बद्ध है।’’ इस प्रकार संगठन के क्षेत्र के समान ही गुरु-शिष्य-सम्बन्ध, आचार्य-समाज-सम्बन्ध के क्षेत्र में भी बौद्ध शिक्षा-प्रणाली ने एक नये
युग का सूत्र पात किया। |
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अध्ययन का उद्देश्य | बौद्धकाल
में मानव जीवन का लक्ष्य निर्वाण (मोक्ष) प्राप्ति माना गया। इसकी प्राप्ति के
लिये शिक्षण में धार्मिक साहित्य को अधिक महत्त्व मिला,
परन्तु जीवनोपयोगी एवं शिल्प शिक्षा की उपेक्षा नहीं की गयी।
शिक्षा का उद्देश्य था-जीवन के लिये तैयारी, चरित्र
निर्माण, व्यक्तित्व विकास एवं धार्मिक शिक्षा का प्रसार
। लौकिक पाठ्यक्रम का उद्देश्य था-स्त्रियों एवं पुरुषों को उचित नागरिक बनाना तथा
उन्हें सामाजिक-आर्थिक जीवन के लिये उपयुक्त बनाना था। इन्हीं बातों को ध्यान में
रखते हुए प्रस्तुत पेपर का उद्देश्य बुद्ध युगीन शिल्प शिक्षा को रेखांकित करना है। |
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साहित्यावलोकन | इस ग्रंथ को लिखने में
निम्न पुस्तकों की सहायता ली गयी है: नत्थूलाल गुप्त, जैन-बौद्ध शिक्षण पद्धति, विश्वभारती प्रकाशन, नागपुर, प्र0सं0, 1985, से प्रकाशित इस
ग्रंथ में बौद्ध शिक्षण पद्धति पर प्रकाश पड़ता है। गुरु शिष्य परंपरा में किस
प्रकार शिल्प शिक्षा पल्लवित एवं पुष्पित हुई देखा जा सकता है। राधाकुमुद मुकर्जी, एंशिएंट इण्डियन एजूकेशन, मोतीलाल बनारसी दास, नई दिल्ली, 1960, से प्रकाशित इस ग्रंथ में बौद्ध शिक्षण पद्धति पर विस्तार से प्रकाश पड़ता
है। मदन मोहन सिंह, बुद्ध कालीन समाज एवं धर्म, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी पटना, प्र0सं0, से प्रकाशित इस ग्रंथ में उस काल के समाज एवं
धर्म को समझा जा सकता है। मोहन लाल मह्तो, जातक कालीन भारतीय संस्कृति, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना, 1958, इस ग्रंथ से
जातक कालीन संस्कृति का विशद विवरण है। केदारनाथ सिंह, भारतीय शिक्षा-इतिहास एवं समस्याएँ, इस ग्रंथ से बौद्ध कालीन शिक्षा के पर विशद प्रकाश पड़ता है। कैलाश चन्द्र जैन, प्राचीन भारत का समाजिक संस्कृतिक और भौगोलिक अध्ययन, दिल्ली, 1996, इस ग्रंथ से भी बुद्ध कालीन सांस्कृतिक अध्ययन पर विस्तार
से प्रकाश पड़ता है। |
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मुख्य पाठ |
बौद्ध शिक्षा वस्तुतः बौद्ध विहारों में प्रदत्त बौद्धिक जीवन की प्रक्रिया का
इतिहास है। भिक्षु की प्रशिक्षण पद्धति (निःसह्य पद्धति) इसका प्रारम्भिक रूप था।
कालान्तर में नयी बौद्धिक आवश्यकताओं और रुचियों के अनुरूप इसका क्षेत्र और
उद्देश्य विस्तृत होता गया। इस प्रकार बौद्ध विहार जो धार्मिक चिन्तन और मनन के
प्रमुख केन्द्र थे, कालान्तर में ज्ञान और संस्कृति के प्रमुख केन्द्र के रूप में
विकसित हुए। जहाँ देश के कोने-कोने से जिज्ञासु छात्र अध्ययन के निमित्त आते थे।[1]
इस बात की पुष्टि मिलिन्दपन्ह से भी होती है।[2] ललितविस्तर[3] में कुमार सिद्धार्थ को सिखाई हुई 86
पुरुष कलाओं की गणना विस्तारपूर्वक की गयी है। समस्त विषयों में से
विद्यार्थी किसी एक विषय में विशेषज्ञता प्राप्त करते थे। विनय पिटक के अनुसार
विद्यार्थियों के माता-पिता परस्पर वार्तालाप किया करते थे कि उनके पुत्र किन-किन
विषयों का अध्ययन करेंगे। इस प्रसंग में लेख, गणना और रूप
(मुद्रा शास्त्र) का उल्लेख प्राप्त होता है।[4] चुल्लवग्ग
में भिक्षुओं को भी उन उपकरणों का उपयोग करते हुए दिखलाया गया है जो कपड़े बुनने के
काम आते थे।[5] इससे प्रतीत होता है कि बुद्ध काल में अनेक शिल्पों का विकास हो गया था और
दिनों दिन उनकी संख्या में वृद्धि होती जा रही थी[6] तथा उनके शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था थी।
ज्यों-ज्यों समाज तकनीकी क्षेत्र में प्रगति करता गया त्यों-त्यों नये-नये शिल्पों
की शिक्षा का द्वार नवयुवकों के लिए खुलता गया। बौद्ध साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि आचार्य और विद्यार्थी के मध्य
पिता-पुत्र (पुत्रमिवैनमभिकांक्षन्) संबन्ध थे।[7] शिष्य भी आचार्य का पिता से अधिक सम्मान
करते थे। जातकों के विवरण से प्रकट होता है कि शिल्पों की शिक्षा विहारों के
साथ-साथ पूर्व की भाँति आचार्यकुल में भी चलती रही। वाराणसी जनपदवासी ब्राह्मण
विद्यार्थी नें अपने नगर के एक प्रसिद्ध आचार्य से तीनों वेदों और अट्ठारह शिल्पों
का ज्ञान प्राप्त किया।[8] बौद्ध काल में शिक्षा धर्म प्रधान थी और निर्वाण प्राप्त करना ही उसका मूल
लक्ष्य था, किन्तु जीवनोपयोगी कलाओं एवं शिल्पों की भी शिक्षा दी जाती
थी। बौद्ध साहित्य में अट्ठारह प्रकार के शिल्पों (सिप्पों) की शिक्षा का स्पष्ट
उल्लेख मिलता है। यह शिक्षा भी दो प्रकार की होती थी- प्रारम्भिक शिक्षा में लेखन,
पठन और साधारण गणित का ज्ञान कराया जाता था जबकि उच्च शिक्षा के
अन्तर्गत दर्शन, आयुर्विज्ञान, सैनिक
शिक्षा, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष, योग आदि विषयों का अध्ययन कराया जाता था। इस काल में औद्योगिक और व्यावसायिक शिक्षा की भी काफी प्रगति हुई। भिक्षु कई
प्रकार के हस्त शिल्प भी सीखते थे। उपयोगी कलाओं में लुहार, बढ़ई,
सुनार, कुम्हार, जुलाहे
आदि की व्यावसायी कलाएँ सम्मिलित थीं।[9] परवर्ती बौद्ध
विहारों में न केवल पुराने श्रमण तथा नवागत भिक्षु शिक्षा-ग्रहण करते थे, बल्कि इनमें ऐसे सामान्य छात्र भी शिक्षा ग्रहण करते थे, जिनका उद्देश्य भौतिक शिक्षा प्राप्त कर गृहस्थ जीवन व्यतीत करना था। लगभग
ईस्वी शती के पहले से ही बौद्ध संघ जन-सामान्य की शिक्षा के लिए कटिबद्ध सा हो
गया।[10] बौद्ध शिक्षा-पद्धति के अन्तर्गत दीक्षा संस्कार का उल्लेख मिलता है। बौद्ध
संघ में सम्मिलित होने हेतु दो प्रकार के संस्कारों का उल्लेख मिलता है, ’प्रव्रज्या’
और ’उपसम्पदा’। प्रव्रज्या की दीक्षा से बौद्ध शिक्षार्थियों का उपासकत्व प्रारम्भ होता था।[11] आठ वर्ष
से अधिक उम्र के किसी भी व्यक्ति को दीक्षा दी जा सकती थी। इसके लिए उसके संरक्षक
की अनुमति आवश्यक थी।[12] प्रव्रज्या का अर्थ है, प्रव्रजन करना अर्थात् अपनी पूर्व अवस्था से अन्य आचरण में प्रवेश करना। ’उपसम्पदा’ की दीक्षा से बौद्ध शिक्षा का
समापन माना जाता था।[13] यह साधारणतया 30 वर्ष की अवस्था में सम्पन्न की जाती थी। किसी भी वर्ण जाति, वर्ग, क्षेत्र एवं धर्म के व्यक्ति को, जो बुद्ध, धम्म एवं संघ के प्रति आस्था रखता था,[14]
उसे ’प्रव्रज्या’ की
दीक्षा दी जाती थी। इस काल में उच्च-शिक्षा के पाठ्यक्रमों का पर्याप्त विस्तार हुआ। विभिन्न
विद्यार्थी विशिष्ट विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करने आचार्यों के पास और शिक्षा
केन्द्रों पर जाते थे। तक्षशिला व अन्य आचार्य कुलों में पढ़ाये जाने वाले अनेक
शिल्पों एवं विज्ञानों का विवरण मिलता है-चिकित्साशास्त्र, धनुर्विद्या
(तीर चलाने का विशेष ज्ञान), तलवार विद्या, मृत संजीवनी-विद्या, नट-विद्या, अंकविद्या, हाथीसूत्र, अंगविद्या,
नक्षत्रविद्या, लक्षण-विद्या, वास्तु विद्या (भवन निर्माण कला), पशुचिकित्सा,
स्वप्नविद्या[15] आदि। तक्षशिला 18 शिल्पों के अध्ययन के लिए प्रसिद्ध था, जहाँ जिज्ञासु शिक्षार्थियों को धनुर्वेद, आयुर्वेद,
युद्धकला, इन्द्रजाल, सर्पक्रीड़ा,
रत्नावेषण,[16] गीत, नृत्य,
चित्रकला, अर्थशास्त्र, वास्तुकला,
तक्षण, वार्ता, पशुपालन,
व्यापार आदि की गणना की जाती थी। कुछ विद्यार्थी किसी एक विशेष विद्या में पारंगत होने के लिए थोड़े समय के लिए
ही शिल्प सीखते थे। तक्षशिला के एक आचार्य से ब्राह्मण पुत्र नें ही एक ही रात्री
में तीनों वेद और हस्तिसूत्र सीख कर विदा ली तथा एक अन्य नवयुवक ज्योतिपाल आचार्य
से एक ही सप्ताह में धनुर्विद्या में पारंगत हो गया,[17] परन्तु ये विवरण अतिरंजित प्रतीत होते
हैं। गौतम ने भी भिक्षुओं को ज्योतिष आदि कुछ लोकोपयोगी विद्याएँ सीखने के लिए
आदेश दिया था।[18] बुद्ध के जीवन काल में विहारों के निर्माण
कार्य के पर्यवेक्षण के लिए नककर्मिकों की नियुक्ति के साक्ष्य प्राप्त होते है।[19]
सम्भवतः नवकर्मिकों को संघ में सम्मिलित होने के पश्चात् वास्तुकला
की शिक्षा दी जाती थी। कम से कम विहार-सम्बन्धी वास्तु-कला की अभिज्ञता भिक्षुओं
को प्राप्त होती ही थी। ईस्वी शती के आरम्भ से पहले ही गुफा विहारों और चैत्यों
में उच्चकोटि की कला का अभ्युदय हुआ। इसके लिए प्रधानतः भिक्षुओं को ही श्रेय दिया
जा सकता है। दीघ निकाय के ब्रह्मजाल सुत्त में अनेक विद्याओं की सूची है, जिसमें अङ्गविज्जा, वत्थुविज्जा, खत्तविज्जा के नाम भी हैं। जातक कथाओं से ज्ञात होता है कि वास्तुविद्या
विशेषज्ञ जंगल में जाकर पुराने पेड़ों का चुनाव करते थे तत्पश्चात् उनकी पक्की लकड़ी
कटवाकर प्रासाद के लिए लाते थे। धर्मप्रचारार्थ शिल्प एक अद्भुत माध्यम था। बुद्धकालीन स्मारकों एवं धार्मिक
स्थलों से इस तथ्य की पुष्टि होती है। अशोक कालीन पाषाण स्तम्भ, सांँची एवं
भरहुत के स्तूप, मथुरा एवं गांधार कला में निर्मित बुद्ध
प्रतिमा, अंजता एवं बाघ की चित्रकारी तत्कालीन शिल्प शिक्षा
के शिक्षार्थियों की उच्चतम दक्षता को प्रदर्शित करते हैं। इस तथ्य की पुष्टि
अभिलेखिक साक्ष्यों से भी होती है। सांँची स्तूप निर्माण में अनेक शिल्पियों के
नाम अभिलेखों से प्राप्त होते हैं जैसे- राजलिपिकार (सं0 175), दंतकार (सं0 400), कम्र्मिक (सं0 199), आसवारिक (सं0 321), आवेसनिक (सं0 398) वढ़की (सं0 454 तथा 589) आदि।[20]
एक अभिलेख में उल्लिखित है कि साँंची के दक्षिणी द्वार का निर्माण
विदिशा के दंतकारों या हाथी दांत का काम करने वाले गुणीजनों ने किया।[21] भरहुत के अभिलेख से बुद्ध रक्षित नामक मूर्तिकार[22] (रूपकार) तथा जोगीमारा की गुफा से देवदत्त नामक रूपदक्ष (कलाकार)[23]
का नामोल्लेख प्राप्त होता है। इसी प्रकार अजन्ता गुफा सं0
16 से संस्कृत भाषा में प्राप्त लेख (छठीं श0 के
आरम्भ) में सुत्रधार युगांधर का नामोल्लेख है जो स्पष्टतः इस एवं सम्भवतः कुछ अन्य
समकालीन शीलागृहों के समायोजन और निर्माण से सम्बन्धित था। सूत्रधार का उल्लेख
अजंता के अन्य किसी भी लेख में प्राप्त नहीं होता और इस दृष्टि से प्रस्तुत लेख का
विशेष महत्व है।[24] बौद्ध संस्कृति का प्रचार करने के लिए चित्रकला और मूर्तिकला महत्त्वपूर्ण
साधन सिद्ध होने पर कलाओं में शिक्षार्थियों को निष्णात बनाने हेतु बौद्ध
विद्यालयों ने इसे और अधिक उत्साह के साथ अपनाया। साक्ष्यों से विदित होता है कि
विभिन्न शिल्पों की शिक्षा तक्षशिला, नालंदा बलभी जैसे-बड़े शिक्षा संस्थानों में
दी जाने लगी थी। विभिन्न शिल्पों के संरक्षण एवं विकास में श्रेणी संगठनों ने पर्याप्त योगदान
दिया। जातक कथाओं में श्रेणियों की संख्या 18 बताई गयी है, किन्तु
नाम केवल चार के ही वर्णित हैं- बढ़ई, धातुकार, कर्मकार एवं चित्रकार।[25] जातकों में विभिन्न
संदर्भों में प्राप्त श्रेणी विषयक उल्लेखों को संकलित कर रीज डेविड[26] नें महात्मा बुद्ध के काल में 18 श्रेणी संगठनों का
अस्तित्व माना है- बढ़ई, धातुकार, पत्थर
का काम करने वाले, बुनकर, चर्मकार,
कुंभकार, हाथीदाँत का काम करने वाले, रंगरेज, मणिकार, मछुआरे,
कसाई, शिकारी, रसोइए एवं
हलवाई, नाई, मालाकार, नाविक, जलबेत का काम करने वाले तथा बांस की टोकरी
बनाने वाले तथा चित्रकार। प्रत्येक श्रेणी संगठन का एक प्रधान होता था जिसे बौद्ध साहित्य में जेट्ठक, प्रमुख एवं सेट्ठि कहा गया है। जातक कथाओं में बड्ढकि जेट्ठक (बढ़इयों का प्रमुख), कम्मकार जेट्ठक (धातुकारों का प्रधान), मालाकार जेट्ठक (मालियों का प्रमुख) आदि के पृथकतः उल्लेख भी आए हैं।[27] बढ़इयों के एक ग्राम के विषय में बताया गया है कि इसमें 1000 परिवार रहते थे जो दो समूहों में विभक्त थे और प्रत्येक समूह (संगठन) के जेट्ठक के अधीन 500 परिवार थे।[28] नगरों में एक प्रकार के व्यवसाय करने वाले व्यापारी और शिल्पी संगठित रूप से एक ही क्षेत्र में रहते थे। ’सुचि जातक’ का ग्राम लुहारों का था जिसमें एक हजार लुहार परिवार एक प्रधान लुहार के अधीन रहते थे। इस काल में अधिकतर शिल्प पितृक्रमागत ढंग से चलते थे तथा इसी शिल्प के आधार पर
शिल्पियों के ग्राम विशेष बसने लगे थे। एक कुंभकार अधिकांशतः ग्राम के बाहर अपने
कुलों के साथ निवास करते थे।[29] अलिनचित जातक के अनुसार वड्ढकी ग्राम[30] नामक एक गाँव वाराणसी के समीप बसा हुआ था। ’महावड्ढकी
ग्राम’ में काष्ठ शिल्पियों के परिवारों का उल्लेख मिलता
है।[31] ’साधुक’ नामक ग्राम श्रावस्ती
के जेतवनराम के निकट था जहाँ ऋषिदत्त और पुराण नामक कारीगरों नें कुछ समय निवास
किया था।[32] संयुक्त निकाय में उल्लेख है कि भगवान् बुद्ध
एक समय श्रावस्ती से बाहर जा रहे थे तो मार्ग में इन दोनों शिल्पियों नें ’साधुक’ गाँव के निकट उनके दर्शन किये थे। इसी अवसर
पर बुद्ध नें उन्हें ’थपित सुत्त’ का
उपदेश दिया था।[33] थपित से यह निष्कर्षित होता है कि यह
थपितों-स्थपतियों का गाँव रहा होगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक विशेष शिल्प को करने वाले लोग विशिष्ट ग्रामों और नगरों की वीथियों में रहते थे जिनके नाम उनके (शिल्पकारों) नाम पर ही अक्सर पड़ जाते थे। यही कारण है कि ’कुंभकार कुलं,’ ’सात्वाह कुलं,’ ’पण्णिक कुलं’ जैसे प्रयोग, जिनमें विशिष्ट शिल्पों का सम्बन्ध विशिष्ट परिवारों के साथ कर दिया गया जैसा कि हमें जातकों में देखने को मिलता है। इसी प्रकार नगरों की वीथियों के नाम यथा दंतकार वीथि,[34] रजकवीथि और तत्तवितत्टठान आदि देखने को मिलते हैं।[35] इससे विभिन्न शिल्पों के स्थानीयकरण होने का भी पता चलता है। इन श्रेणियों का समाज में पर्याप्त सम्मान था तथा राजा इनके कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था। इन श्रेणियों नें शिल्पों को संरक्षित करने के साथ-साथ परिष्कृत भी किया। शैल्पिक कारखानों में शिल्पयों केा प्रशिक्षित भी किया जाता था जिससे व्यवसाय प्रवीणता का सिद्धान्त चला तथा शिल्पों की दशा उन्नत हुई। जातकों से गुरु-शिष्य संबन्धों पर भी प्रकाश पड़ता है। इस काल में अंतेवासिक् आचार्य घर पर रह कर शिक्षा प्राप्त करता था तथा आचार्य द्वारा सौंपे गये सभी उत्तरदायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करता था बदले में वह आचार्य से भोजन और वस्त्र प्राप्त करता था। यद्यपि की अंतेवासी प्रशिक्षु था तथापि कभी-कभी वह तकनीकी एवं कौशल में अपने गुरु को भी मात दे देता था।[36] सुसीम जातक (सं0 163) से पता चलता है कि शिष्यों नें अपने आचार्य का शिक्षण शुल्क चुकाया था। |
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निष्कर्ष |
उपर्युक्त विवरण से
स्पष्ट है कि बौद्ध साहित्य में शिक्षा सम्बन्धी विभिन्न् विषयों के साथ-साथ
शिल्प-शिक्षा की भी उस युग में प्रमुखता थी। पालि ग्रन्थों में अष्टादश शिल्पों के
उल्लेख मिलते हैं और इस प्रसंग में यह भी कहा गया है कि इनकी श्रेणियाँ बन चुकी
थीं। मौर्यकाल से पूर्व ही शिक्षा के प्रमुख केन्द्रों में तकनीकी शिक्षा की
समुचित व्यवस्था की गयी। यदि ऐसा न हो तो आयुर्वेद के अध्ययन के लिए जीवक को मगध
से तक्षशिला नहीं भेजा जाता, और न ही
चंद्रगुप्त को ही वहाँ जाकर रणविद्या सीखने की आवश्यकता पड़ी। अभ्यास के बिना शिल्प
ज्ञान न तो पूर्ण होता है और न उपयोगी अतः कर्मशालाओं में छात्रों को अभ्यास का
अवसर दिया जाता था। अतः स्पष्ट है कि वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों के शिक्षण में
प्रात्यक्षिक कर्म का विशेष महत्व था। शिल्प शिक्षा के क्षेत्र में श्रेणी-संघों
का योगदान महत्वपूर्ण था। ये संघ अपने-अपने शैल्पिक कार्यशालाओं में विभिन्न्
क्षेत्रों के अभियन्ताओं को व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करते थे। इसके अतिरिक्त कताई,
बुनाई, रंगाई, बढ़ईगीरी
आदि व्यवसायों का प्रशिक्षण भी इन संघों द्वारा व्यापक स्तर पर दिया जाता था। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. जा0, तृ0,
पृ0 158 28. तत्रैव, पृ0 223 |