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(शिल्प) मिथिलांचल के विवाह-संस्कार में हाथी डाला का महत्व | |||||||
(Craft) Importance of Hathi Dala in the Marriage Rituals of Mithilanchal. | |||||||
Paper Id :
17959 Submission Date :
2023-08-13 Acceptance Date :
2023-08-21 Publication Date :
2023-08-25
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सारांश |
यह अभी
तक एक रहस्य है कि सृष्टि की शुरूआत कहाँ से हुई। किसी तारे के टूटने सेया कुछ बड़े
गृहग्रहों के आपस में टकराने से। यह पूरी दुनिया ईश्वर की सांस है या यह ब्रहमांड
ईश्वर का खुला हुआ मुँह है? उसी प्रकार आदिमकला, लोक कला, सभ्यता, संस्कृति,
रीति-रिवाज कब कहां से पैदा हुए यह अनुमान लगाना एक पहेली एवं
रहस्य है। हर समुदाय का एक अपना रीति-रिवाज है ऐसा क्यों है इसका क्या महत्व ले इसके
बारे में अभी भी अलग-अलग धारणाएँ हैं। और अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। इसी क्रम में
मिथिलांचल के विवाह-संस्कार में हाथी डाला (शिल्प) के महत्व के बारे में अपनी
जानकारी साझा करना चाहूंगा। मिथिलांचल अपनी मिथिला/मधुबनी लोक कला के लिए सारी
दुनिया में जानी जाती है और यह अपने रीति-रिवाज से लोगों का ध्यान अपनी ओर
आकृर्षित करती है। सभ्यता के विकास के क्रम में जहाँ एक ओर वह आदिम कला से जुड़ी रही
है, तो दूसरी ओर सुसंस्कृत समाज के मध्य स्थित भी है। यह हाथी
डाला वस्तुतः ग्रामीण परिवेश से संबंधित है अतः इसके रीति-रिवाज को आगे बढ़ाने का
श्रेय ग्रामीण लोगों को ही जाता है। ग्रामीण रीति-रिवाज मानस से प्रेरणा और पोषण
प्राप्त करती रहती है। जिसमें जनसाधारण के सहज आनन्द से परिपूर्ण, सरल, स्वच्छन्द और परम्परागत रूपों की अभिव्यक्ति
होती है। अतः यह प्राचीन परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने वाले रीति-रिवाज भारत की
संस्कृति को गौरव प्रदान करने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण रहे हैं। उसी प्रकार
मिथिला के संस्कारों में मूर्ति शिल्प का महत्वपूर्ण स्थान है। पुलहर-पाती,
गौर-गणेश, हाथी डाला, वरूआ-ढ़कना,
लावन-मटकुरी के बिना कोई भी विवाह संस्कार संपन्न नहीं होता।
विवाह-संस्कार में हाथी डाला का महत्वपूर्ण स्थान है। हाथी को समृद्धि और सौभाग्य
का घोतक माना जाता है। सुखमय दाम्पत्य जीवन केलिए हाथी (शिल्प) चढ़ाकर गौरी पूजन का
प्रचलन है। मिथिलांचल में हाथी का शिल्प विवाह में ही नहीं अपितुबहुत सारे
ग्रामीण त्योहारों में भी अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किया जाता रहा है। छठ पूजा की मनौती
पूजन हो, राजा सल्हेश की पूजा या डिहवार स्थान की पूजा। तमाम
रीति-रिवाज से भरी हुई इस सृष्टि और तमाम रहस्यों की ओर इशारा करने वाली यह प्रथा
को देखने वाले के मन में दो सवाल उत्पन्न होते हैं कि ये कहाँ से आया और क्यों आया ? |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | It is still a mystery as to where the creation started. Due to the breaking of a star or due to the collision of some big planets. Is this whole world the breath of God or is this universe the open mouth of God? Similarly, it is a puzzle and a mystery to guess when and where the primitive art, folk art, civilization, culture and customs were born. Every community has its own customs, why is it so, what is its importance, there are still different beliefs about it. More studies are needed. In this sequence, Author would like to share his knowledge about the importance of elephant dala (craft) in the marriage rituals of Mithilanchal. Mithilanchal is known all over the world for its Mithila/Madhubani folk art and it attracts people's attention with its customs. In the course of the development of civilization, where on the one hand it has been associated with primitive art, on the other hand it is situated in the middle of a cultured society. This elephant cast is actually related to the rural environment, so the credit goes to the villagers for carrying forward its customs. Rural customs keep getting inspiration and nourishment from the mind. In which there is expression of simple, free and traditional forms full of spontaneous joy of the common man. Therefore, the customs that keep these ancient traditions intact have been very important for giving glory to the culture of India. Similarly, idol craft has an important place in the rituals of Mithila. No marriage ceremony is complete without Pulhar-Pati, Gaur-Ganesh, Hathi Dala, Varua-Dhakna, Lavan-Matkuri. Elephant dala has an important place in marriage rituals. Elephant is considered a symbol of prosperity and good fortune. There is a practice of worshiping Gauri by offering an elephant (craft) for a happy married life. In Mithilanchal, the craft of elephant has been presented not only in marriages but also in many rural festivals in different ways. Be it the worship of Chhath Puja, the worship of King Salhesh or the worship of Dihwar place. Two questions arise in the mind of the person who sees this world full of customs and rituals which point towards all the mysteries, where did it come from and why did it come? | ||||||
मुख्य शब्द | हाथी डाला, शिल्प, मिथिला, रीति-रिवाज, संस्कृति आदि। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Hathi Dala, Craft, Mithila, Customs, Culture etc. | ||||||
प्रस्तावना | यह अभी
तक एक रहस्य है कि सृष्टि की शुरूआत कहाँ से हुई। किसी तारे के टूटने सेया कुछ बड़े
ग्रहों के आपस में टकराने से । यह पूरी दुनिया ईश्वर की सांस है या यह ब्रहमांड
ईश्वर का खुला हुआ मुँह है ? उसी प्रकार आदिमकला, लोक कला, सभ्यता, संस्कृति,
रीति-रिवाज कब कहां से पैदा हुए यह अनुमान लगाना एक पहेली एवं
रहस्य है। यदि मिथिलांचल के इतिहास, संस्कृति और रीति-रिवाज
की बात की जाये तो यहां प्राचीन काल से ही अनेक ऐसी कथाएं पनपी जो आज भी यहां के
लोगों द्वारा सहेज कर रखी जा रहा है। मिथिलांचल की स्थापना अयोध्यापति चक्रवर्ती राजा
मनु के पौत्र राजा इक्ष्वाकु के कनिष्ठपुत्र राजकुमार ‘निमि‘
को वहां से सुदूरपूर्व तीर भुक्ति क्षेत्र में एक राज्य स्थापित करने
हेतु भेजा गया। राज्य स्थापना के लिए यज्ञ का आयोजन किया गया। इस यज्ञ के लिए गुरू
वशिष्ठ को आमंत्रित किया गया। गुरू वशिष्ठ इन्द्र के यज्ञ में रहने के कारण बाद में
आने का वचन दिया। परंतु वहां के लोगों व विद्वानों को यह निर्णय सही नहीं लगा और उन्होनें
तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ स्थानीय विद्वान से यज्ञ को सम्पन्न करवा लिया गया। जब गुरू
वशिष्ठ अमरावती से इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करवा कर यहां पहुंचे तो यज्ञ सम्पन्न होते
देख वे क्रोधित हो गये तथा अपना अपमान समझ कर निमि को श्राप दे दिया। जिससे वह अचेत
हो गये। इन ग्रंथो में एक कथासर्वत्र व्याप्त है कि निमि के मृत शरीर के मंथन से मिथि
नामक बालक का जन्म हुआ। इस (मिथि) ने बड़े होकर राज्य की स्थापना की जिसे ‘मिथिलापुरी‘ कहा गया, जो राजा मिथि
का वंश कहा जाने लगा। इस वंश के कुल 56 राजा हुए। जिसमें से 22वां राजा सत्यध्वज (राजा जनक) माँ सीताजी के पिता थे। इस प्रकार मिथिलांचल
के बारे में हम कह सकते है कि मिथिलांचल का इतिहास व संस्कृति अति प्राचीन है जो सत्य
युग से भी माना जाता है। इसी क्रम में मिथिलाचंल के विवाह-संस्कार में लगाये जाने वाला
हाथी डाला (शिल्प) के पदस्थापित होने की परम्परा चलती आ रही है, परंतु यह कहना मुश्किल है कि यह संस्कार कब से चला आ रहा है। मिथिला
(मधुबनी) चित्रकला की शुरूआत भगवान राम व माँ सीता के समय का माना जाता है,
क्योंकि जब माता सीता का विवाह सम्पन्न हुआ था तब राजा जनक ने इसके उपलक्ष्य
में भित्तियों पर कई चित्र उकेरे गये तथा शिल्पों का भी निर्माण किया गया। अतः
सम्भवतः मिथिलांचल के विवाह में हाथी डाला रखने की संस्कृति का प्रचलन यही से हुआ होगा।
हर समुदाय का एक अपना रीति-रिवाज है ऐसा क्यों है, इसका क्या
महत्व है इसके बारे में अभी भी अलग-अलग धारणाएँ हैं और अधिक अध्ययन की आवश्यकता
है। इसी क्रम में मिथिलांचल के विवाह-संस्कार में हाथी डाला (शिल्प) के महत्व के
बारे में अपनी जानकारी साझा करना चाहूंगा। मिथिलांचल अपनी मिथिला/मधुबनी लोक कला
के लिए सारी दुनिया में जानी जाती है और यह अपने रीति-रिवाज से लोगों का ध्यान
अपनी ओर आकर्षित करती है। सभ्यता के विकास के क्रम में जहाँ एक ओर वह आदिम कला से
जुड़ी रही है,तो दूसरी ओर सुसंस्कृत समाज के मध्य स्थित भी
है। यह हाथी डाला वस्तुतः ग्रामीण परिवेश से संबंधित है अतः इसके रीति-रिवाज को
आगे बढ़ाने का श्रेय ग्रामीण लोगों को ही जाता है। ग्रामीण रीति-रिवाज मानव से
प्रेरणा और पोषण प्राप्त करती रहती है। जिसमें जनसाधारण के सहज आनन्द से परिपूर्ण,
सरल, स्वच्छन्द और परम्परागत रूपों की
अभिव्यक्ति होती है। अतः यह प्राचीन परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने वाले रीति-रिवाज
भारत की संस्कृति को गौरव प्रदान करने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण रहे हैं। उसी
प्रकार मिथिला के संस्कारों में मूर्ति शिल्प का महत्वपूर्ण स्थान है। पुलहर-पाती,
गौर-गणेश, हाथी डाला, वरूआ-ढ़कना,
लावन-मटकुरी के बिना कोई भी विवाह संस्कार संपन्न नहीं होता।
विवाह-संस्कार में हाथी डाला का महत्वपूर्ण स्थान है। हाथी को समृद्धि और सौभाग्य
का द्योतक माना जाता है। सुखमय दाम्पत्य जीवन केलिए हाथी (शिल्प) चढ़ाकर गौरी पूजन
का प्रचलन है। मिथिलांचल में हाथी का शिल्प विवाह में ही नहीं अपितु बहुत सारे
ग्रामीण त्योहारों में भी अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किया जाता रहा है। छठ पूजा की
मनौती पूजन हो, राजा सलहेश की पूजा या डिहवार स्थान की पूजा
(स्थानीय देवता)। सभी रीति-रिवाज से भरी हुई इस सृष्टि और सम्पूर्ण रहस्यों की
ओर इशारा करने वाली यह प्रथा को देखने वाले के मन में दो सवाल उत्पन्न होते हैं कि
ये कहाँ से आया और क्यों आया ? |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस लेख का उद्देश्य
हमारी नई पीढ़ी को हमारी परम्परा और रीती रिवाजों से अवगत करवाना है। हमारी जो रस्मे है वो बहुत ही वैज्ञानिक आधार से
संबंधित है चाहे वो हाथी शिल्प रखना हो, अरिपन
बनाना हो, आम के पत्ते रखना हो, हवन
करना हो, ये सब कहीं ना कहीं हमारी प्रकृति से जुडा हुआ
है और प्रकृति को बचाने के उद्देश्य से ही किया गया होगा। |
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साहित्यावलोकन | झा, लक्ष्मीनाथ- मिथिला की सांस्कृतिक लोकचित्रकला, मित्रनाथ झा, दरभंगा बिहार-द्वि संस्करण- 1999
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मुख्य पाठ |
संसार की कोई भी आदि मकलाहो या लोककला तथा वहां की संस्कृति हो, को हम
देखते है तो यह पता चलता है कि किस प्रकार मानव में अपनी भावनाओं को बहुत ही सरल तरीके
से भित्तियों चट्टानों या शिल्प के रूप में अभिव्यक्त किया। इसी क्रम में अगर हम मिथिलांचल
के हाथी डाला(टेराकोटा) को हम देखते है तो हमे ज्ञात होता है कि यहां के कलाकार बहुत
ही सरलता से हाथी और इसके साथ लगाई गई सामग्री को बनाते है। इसे देख ऐसा प्रतीत होता
है जैसे एक प्रतिष्ठापन कला हो। इसमें सर्वथा 5 मटकों अथवा कलशों
को इस प्रकार से जोड़ा गया है कि देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि यह जोड़ा गया है। मिट्टी
के द्वारा पांचो कलशों को जोड़कर अलग से दोनों कानों को जोड़ा गया है जिसे अलग किया जा
सकता है तथा सूंड भी इसी प्रकार जोड़ी गई है। इसके ऊपर अलग से कलश रखा जाता है तथा इसे
विवाह संस्कार में प्रयोग किया जाता है। अतः टेराकोटा निर्मित हाथी डाला मानव मन
की एक असाधारण लोककला शिल्प है। बिल्कुल पृथक, शिल्प तकनीकों
के बिना बनाई गई एक साधारण कला है। मूर्ति को बनाने के पश्चात् इसे भट्टी में पकाया
जाता है, इसके बाद अलग-अलग रंगो से रेंखाकंन तथा चित्राकंन किया
जाता है जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कलाकार अपनी चरम सीमा पर पहुंचकर किसी भी
आकृति को सरल रूप प्रदान करता है जो कि उस कलाकार की एक सुन्दर अभिव्यक्ति होती है,
जिसे हर वर्ग और समाज के लोगों द्वारा आसानी से ग्रहण कर लिया जाता है।
हाथी की मूर्ति के ऊपर कलश रखने के लिए एक आधार तैयार किया जाता है जो कि ढ़क्कननुमा
होता है। यह इसलिए बनाया जाता है कि कलश को आधार मिल सकें। इससे तात्पर्य यह है कि
मानव के जीवन में स्थिरता बनी रहे। कलश के ऊपर दीपक रखा जाता है जिसे हवा से बचाने
हेतु पक्षी की आकृति के समान बनाया जाता है। इस पूरे मूर्ति शिल्प के संयोजन से प्रतीत
होता है कि मानव कठिन से कठिन आकृतियों को सरल रूप में प्रस्तुत करने की विशेषता
रखता है। मिथिलांचल में बालकों के उपनयन अथवा कन्याओं के विवाह के अवसर पर मण्डप, जिसे ‘चौकी‘ अथवा ‘मण्डप‘ कहते है, उस पर वर-वधू के बैठने के स्थान के ठीक
सामने आचार्य के आगे अथवा कन्यादाता के पीछे पूर्व दिशा में हाथी डाला (शिल्प) रखा
जाता है। हाथी डाला के साथ दो चित्रित कलशों को भी रखा जाता है, जिसे मिथिलांचल ने ‘माइव परहक हाथी‘ कहते है। इसकी बांयी तरफ भूमि पर दो भिन्न-भिन्न प्रकार के दो मिट्टी के
कलश को अनेक प्रकार के रंगो तथा अलंकरण से सजाया हुआ होता है। जिसका उस स्थान पर
रखना अत्यांवश्यक माना जाता है। यह मिथिला में ‘पुरहर-पातिल‘‘
के नाम से विख्यात है। मण्डप पर ये सारी सामग्री रखने के बाद हमारी भारतीय और खास कर मिथिला रीति
रिवाज के अनुसार किसी भी कार्य या शुभ अवसर पर श्री गणेश जी की उपस्थिति
अत्यावश्यक मानी जाती है और गजानन होने के नाते यह हाथी या हाथी डाला या हाथी
शिल्प उन्हीं का प्रतीक माना जाता है। यह भी माना जाता है कि कोई भी शुभ कार्य गणेश
जी की उपस्थिति के बिना पूर्ण नहीं हो सकता है। इसलिए ‘‘पुरिहर-पातिल‘‘
अटल सौभाग्य, जन्म-जन्मान्तरिक प्रेम, अनन्त कल्याण, अद्वितीय सतीत्व और अपूर्ण वात्सल्य
का प्रतीक है। इन दोनों पात्रों का चित्रित होना ‘‘कृष्ण जन्म खण्ड‘‘ के
निम्नलिखित वचन के अनुसार वर्णित है - ‘‘रत्नने चित्रकलशैः कृत्रिमैश्च त्रिकोटिभिः। अमूल्यरत्नर नितैर्नानाचित्रेश्ज चित्रितैः।।‘‘ पुरहर में पल्लव (आम का पत्ता) रखना शास्त्रों में वर्णित पल्लवयुक्त कलश के
शुभप्रद होने के साथ दूसरे तात्पर्य से वर के हृदय में वधु का प्रेम हमेशा पल्लवित
रहे इस बात का भी द्योतक है और पातिल का दीप जो ‘‘रातिम‘‘ अथवा चतुर्थी
कर्म के चार दिनों तक अनवरत दीप्त ही रखा जाता है। ‘‘वर‘‘
के हृदय में दिव्य ज्ञान को उद्दीप्त (उत्पन्न) अथवा वधू के हृदय
में वर के प्रति एकागङीप्रीति के उज्जवल रखने का बोधक है। इस दीप को अखण्ड रखने का
तात्पर्य यह भी है कि वधु का सुहाग हमेशा अखण्ड बना रहे। चित्र संख्या 1 हाथी डाला रेखाकंन चित्र संख्या 2 हाथी डाला शिल्प चित्र संख्या 3 अल्पना
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निष्कर्ष |
इस प्रकार
हम कह सकते है कि मिथिलांचल का इतिहास अपने आप में इतना प्राचीन और गौरवशाली है
जिसकी व्याख्या करना या सरल शब्दों में उसके गुणों का व्याख्यान करना बहुत ही कठिन
है क्योंकि इन लोगों ने रीति-रिवाजो को प्रारंभ से लेकर आज तक अपने अस्तित्व में
जीवित रखा हुआ है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. झा, प्रो.
कमलकान्त- मिथिलागौरवशालिनी, अमृतबुक्स, कैथन हरियाणा-2018 2. राम, डॉ.
महेन्द्र- नारायणलोका४जन (मैथिली आलेख संग्रह), नवारम्भ-पटना,2017
3. झा, लक्ष्मीनाथ-
मिथिला की सांस्कृतिकलोकचित्रकला, मित्रनाथझा, दरभंगाबिहार-द्वि संस्करण- 1999 4. साक्षात्कार-
पदमश्रीगोदावरीदत्त श्रीसंजय कुमारजयसवाल 5. कुम्हार- श्रीअर्जुनपंडित 6. रेखाकंन- अमरजीत कुमार |