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मानव अधिकार एवं भारतीय संविधानः एक विश्लेषणात्मक मूल्यांकन | |||||||
Human Rights and the Indian Constitution: An Analytical Assessment | |||||||
Paper Id :
18016 Submission Date :
2023-08-12 Acceptance Date :
2023-08-22 Publication Date :
2023-08-25
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सारांश |
व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा से सम्बन्ध रखने वाले अधिकार मानव अधिकार कहलाते है। मानव अधिकार हर व्यक्ति के समग्र विकास के लिये अपरिहार्य है। मानवअधिकार या अन्य न्यायिक अधिकारों को सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक सिद्धान्तों को इसी भावना से ध्यान में रखते हुए स्थान दिया गया है। संविधान में परिभाषित ये अधिकार नस्ल, जन्मस्थान, जाति, धर्म या लिंग के भेद के बिना सभी को प्राप्त है। लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के साथ-साथ मानव अधिकारों के दायरे में निरन्तर अभिवृद्धि हो रही है। न्यायपालिका द्वारा समय-समय पर नये-नये मानव अधिकारों की व्याख्या और संरक्षण की दिशा में अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कई महत्वपूर्ण फैसले प्रदान करके किया गया है और किया जा रहा है। आज उन सभी अधिकारों को मानव अधिकार माना जाने लगा है जो एक सम्मानजनक अथवा मानव गरिमायुक्त जीवनयापन के लिए आवश्यक है। ऐसे मानव अधिकार जिनका संविधान में विर्निदिष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, उन्हें उच्चतम न्यायालय द्वारा कुछ विद्यमान मौलिक अधिकारों, जैसे- अनुच्छेद 24,14 तथा 19 में ही उल्लेखित मौलिक अधिकारों के भाग या प्रसार के रूप में मान्यता दी गई है, जैसे- प्रेस की स्वतन्त्रता, जानने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, आहार पाने का अधिकार, जीविकोपार्जन का अधिकार आदि। संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को इन अधिकारों के रक्षक के रूप में नामित किया गया है। कुल मिलाकर, भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधान स्वस्थ व समाज निर्माण हेतु जनता के मानवाधिकारों को अक्षुण्ण रखने में पूर्णतः सक्षम है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The rights related to the freedom and dignity of a person are called human rights. Human rights are indispensable for the overall development of every individual. It is the responsibility of the government to ensure human rights or other legal rights. Keeping in mind the same spirit, the fundamental rights and the Directive Principles of State Policy have been given a place in the Indian Constitution. These rights defined in the constitution are available to all without distinction of race, place of birth, caste, religion or gender. Along with the concept of public welfare state, the scope of human rights is continuously increasing. From time to time, the Judiciary has been discharging its responsibility towards interpretation and protection of new human rights by providing many important decisions. Today all those rights are being considered as human rights which are necessary for a respectable or human dignified living. Such human rights, which are not specifically mentioned in the constitution, have been recognized by the Supreme Court as part or extension of some of the existing fundamental rights, such as the fundamental rights mentioned in Articles 24, 14 and 19 itself, such as - Freedom of press, right to know, right to education, right to get food, right to earn livelihood etc. The Supreme Court is designated by the Constitution as the protector of these rights. Overall, the various provisions of the Indian Constitution are fully capable of keeping the human rights of the people intact for building a healthy society. | ||||||
मुख्य शब्द | मानव अधिकार एवं भारतीय संविधान। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Human Rights and Indian Constitution | ||||||
प्रस्तावना | अधिकार सभ्य समाज की
परिकल्पना है। व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक
एवं बौद्धिक विकास के लिए अधिकार अपरिहार्य है। ऐसे अधिकार जिनका सम्बन्ध व्यक्ति
की स्वतंत्रता, समानता एवं गरिमा से है, वे मानव अधिकार है। सरल शब्दों में, “किसी भी
व्यक्ति को एक मानव होने के नाते अपने समुचित विकास, सुरक्षा,
स्वतंत्रता, समानता, गरिमा एवं सम्मानपूर्वक जीने के लिए जिन न्यूनतम वैधानिक अधिकारों की
आवश्यकता होती है, वे मानव अधिकार कहलाते हैं।” मानव अधिकार हर व्यक्ति के लिए स्वाभाविक और सार्वभौमिक है। किसी भी
राष्ट्र की सीमा ऐसे अधिकारों को न ही बाँध (रोक) सकती है और न ही बदल सकती है।
ऐसे अधिकारों में भले ही संवैधानिक बल न हो, परन्तु इसकी
स्वीकारोक्ति लगभग प्रत्येक मानव समुदाय, प्रत्येक धर्म
द्वारा की जाती है। विश्व की सभी सभ्यताओं, संस्कृतियों,
जीवनमूल्यों और आदर्शों का आधार भीमानव अधिकार ही है। हमारे
संविधान में मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धान्तों का इसी भावना से दिया
गया है। मानवाधिकारों को कभी-कभी मूल अधिकार, अन्तर्निहित
या जन्मजात अधिकार, नैसर्गिक या प्राकृतिक अधिकार,
आधारभूत अधिकार आदि नामों से भी सम्बोधित किया जाता है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | उपरोक्त कथन से यह
स्पष्ट है कि मानव अधिकार या अन्य न्यायिक अधिकार अत्यन्त महत्वपूर्ण है और इनको
सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है। |
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साहित्यावलोकन | लक्ष्मीकान्त, एम: भारत की राज्य व्यवस्था, नई दिल्ली, 2014 मे मानवाधिकारों के
संवैधानिक संरक्षण के सन्दर्भ में उल्लेख किया गया है। सिंह, विकास: भारत का संविधान एक समग्र अध्ययन, जयपुर (2013-14) में
मानवाधिकारों का एक व्यापक एवं मानव के विकास के लिए अनिवार्य मानते हुए संविधान
मे उनके विधिक तत्वों का उल्लेख किया गया है। तिवारी, एम.के. भारत का संविधान, इलाहबाद, में भारतीय संविधान में किन धाराओं एवं
अनुच्छेदों के माध्यम से इन अधिकारों का उल्लेख किया गया है। शर्मा, बृज किशोर: भारत का संविधान एक परिचय, नई दिल्ली, 2016, में भारतीय संविधान मे मानवाधिकारों के सम्बन्ध में लगाये गये वादो के सम्बन्ध मे न्यायालय के निर्णयों का उल्लेख किया गया है। सिंह उदयभान: भारतीय संविधान एवं राजव्यवस्था प्रभात प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली 2023 में मानवाधिकारों के राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मानकों के सम्बन्ध में व्याख्या की गई है। |
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मुख्य पाठ |
मानवाधिकार शब्द भले ही आधुनिक लगता हो किन्तु इसकी अवधारणा
उतनी ही पुरानी है जितनी की मानव जाति। इस अवधारणा का विकास सत्ता के निरंकुश
उपयोग पर अंकुश लगाना है। “मध्यकाल में 13वीं
शताब्दी में सन1215 का
इंग्लैण्ड का प्रसिद्ध आज्ञापत्र (राजा जॉन और सामन्तों के मध्य हुआ समझौता), जिसे
मैग्नाकार्टा‘ कहा
जाता है, ने
मानवाधिकार की पृष्ठभूमि तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।”[1] सन1689 में
ब्रिटेन में हुई क्रान्ति ने मानवाधिकार की अवधारणा को विस्तार दिया। इस क्रान्ति
में ‘बिल
आफ राइट्स‘ के
द्वारा व्यक्ति की उन मौलिक स्वतंत्रताओं को मान्यता दी गयी जिनका अब तक हनन किया
जाता रहा था। इसके बाद 1776 की अमेरिकी क्रान्ति जिसमें
अमेरिका ब्रिटेन की गुलामी से मुक्त हुआ तथा “1789 की
फ्रांस की क्रान्ति, जिसका
मुख्य नारा था स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व, ने
मानवाधिकारों को विकसित होने के लिए आधार भूमि तैयार की।’’[2] मानवाधिकार
की आधुनिक संकल्पना का विकास प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध की
समाप्ति के मध्य हुआ क्योंकि इन्हीं वर्षों के दौरान समाज के सामने व्यापक स्तर पर
मानवाधिकार हनन की घटनाएं पुष्ट हो रही थी। अतः द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक ऐसी
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था स्थापित करने के प्रयास शुरू हुए जिसमें युद्ध की
विभीषिका दोहराई न जा सके, फलस्वरूप “24 अक्टूबर
1945 को
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई।”[3] 11 फरवरी 1946 को
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 68 के
तहत मानवाधिकार संरक्षण के लिए प्रारूप तैयार करने हेतु एलोनोर रूजवेल्ट की
अध्यक्षता में एक मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने जून 1948 में
मानवाधिकारों की एक विश्वव्यापी घोषणा का प्रारूप तैयार किया जिसे संयुक्त राष्ट्र
संघ की महासभा द्वारा 10 दिसम्बर को स्वीकृत और घोषित किया
गया। इस प्रकार “10 दिसम्बर, 1948 को
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक एनडीपीएअमेटेंस घोषणा (eclaration buqan rights) की गयी। तभी से प्रतिवर्ष 10 दिसम्बर को अन्तर्राष्ट्रीय
मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है।’’[4] “इस घोषणा पत्र में 30 अनुच्छेद
है जिनमें नागरिक और राजनीति अधिकारों के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक
तथा सांस्कृतिक अधिकारों को भी शामिल किया गया है।”[5] इसकी
प्रस्तावनां में संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों से यहआग्रह किया गया है कि वे
इस घोषणा में वर्णित अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं को मान्यता प्रदान करें तथा उन्हें
बिना किसी भेदभाव के अपने-अपने क्षेत्रों में लागू करें। फलस्वरूप विश्व समुदाय
द्वारा न केवल इस घोषणा को मान्यता दी गयी बल्कि अपने-अपने संविधानों में स्थान
देकर विधिक स्वरूप भी प्रदान किया गया। मानवाधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय घोषणा और भारतीय संविधान यह भी एक संयोग है जब 10 दिसम्बर 1948 को विश्व स्तर पर संयुक्त
राष्ट्र मानवाधिकारों की घोषणा हुई, उस समय स्वतंत्र भारत का
संविधान निर्माणाधीन था। हमारे संविधान निर्माता इस तथ्य से पूरी तरह परिचित थे
और अपने देश के नागरिकों के लिए ऐसी ही व्यवस्था के लिए प्रयत्नशील थे।
परिणामस्वरूप “भारतीय संविधान में अत्यन्त महत्वपूर्ण
मानवाधिकारों को मौलिक अधिकारों के रूप में अनु. 12 से लेकर
अनु. 35 में सम्मिलित किया गया और इनकी रक्षा का दायित्व
न्यायपालिका को सौंप कर इन्हें गारन्टीकृत भी किया गया।”[6] तथा
“कतिपय कम महत्वपूर्ण मानवाधिकारों को नीति निर्देशक तत्वों
के रूप में अनु. 36 से लेकर अनु. 51 में
सम्मिलित किया गया है।”[7] भारतीय संविधान में मानव अधिकारों का पर्याप्त‘ उल्लेख हुआ है। संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग‘ शब्द का प्रयोग यह दर्शाता है कि,
भारत की सम्प्रभुता भारत की जनता में निहित है अर्थात शासन की
सर्वोच्च शक्ति भारतीय जनता के हाथ में है। प्रस्तावना में प्रत्येक व्यक्ति को
न्याय, स्वतंत्रता, मानता, गरिमा, बन्धुता आदि मानव अधिकारों को प्राप्त कराने
व बढ़ाने का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया गया है। मानव अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाएँ (1966) और
भारतीय संविधान मानव अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाएँ और भारतीय संविधान का मूल्यांकन
करने पर हम पाते हैं कि इन प्रसंविदाओं के अनेक अनुच्छेद भारतीय संविधान के भाग-.3 तथा भाग-4
में पहले से ही सम्मिलित हैं किए हुए हैं। जैसे - सिविल एवं
राजनीतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (1966) के
अनेक अधिकार भारतीय संविधान के भाग-.3 के अनुच्छेद-14,
15(1), 16(1), 19(1), (क), 19(1) (ख),
19(1) (ग), 19(1) (घ), 20 (1), 20 (2),
20 (3), 21, 22, 23, 25, 29 तथा 30 में
शामिल है । तथा आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की
अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (1966) के अनेक अनुच्छेद भारतीय
संविधान के भाग-4 के अनुच्छेद - 39 (घ),
39 (च), 44, रु2, 43, 45 तथा 47 में पहले से ही शामिल है। भारतीय संविधान की
यह दूरदर्शिता उसकी मानव अधिकारों के प्रति महत्व व प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती
है। मौलिंक अधिकारों को सभी नागरिकों के बुनियादी मानव अधिकारों के रूप में
परिभाषित किया गया है। संविधान के भाग-3 में परिभाषित ये अधिकार नस्ल, जन्मस्थान,जाति, धर्म या लिंग
के भेद के बिना सभी को प्राप्त है। ये विशिष्ट प्रतिबन्धों के अधीनन्यायालयों
द्वारा प्रवर्तनीय है। दूसरी और वे मानव अधिकार जिन्हें संविधान के भाग-4 में उल्लेखित किया गया है, राज्य के नीति-निर्देशक
सिद्धान्त कहलाते हैं। इन्हें न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है।
संविधान के अनुच्छेद-37 में यह स्पष्ट किया गया है कि ये
(नीति निर्देशक तत्व) देश के शासन के लिए मौलिक है तथा राज्य का कर्तव्य है कि
इन्हें कार्यान्वित करें । परन्तु यह उल्लेखनीय है कि संविधान के भाग-4 में उल्लेखित है। मांनव अधिकार आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक है अतः उनके कार्यान्वयन की कोई समय
सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती है। नीति निर्देशक तत्वों के सम्बन्ध में उच्चतम
न्यायालय का नया दृष्टिकोण सामने आया है, “एयर इण्डिया
स्टेट्यूटरी का0 बनाम युनाइटेड लेकर यूनियन”[8] के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि निर्देशक तत्वों
को अब असंक्राम्य (Non-transferable) मूल अधिकारों को दर्जा
प्रदान कर दिया गया है और वे स्वयं न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय (enforceble) हो गये हैं। वर्तमान समय में लोकहित सम्बन्धी याचिकाओं (P.I.L.) के माध्यम से न्यायपालिका नीति-निर्देशक तत्वों की महत्ता को स्वीकार
करती है और जहाँ आवश्यक हो, सरकार को उन्हें लागू करने के
निर्देश भी देती है। हालांकि भारतीय संविधान में सभी व्यक्तियों और वर्गों को
अनुच्छेद 14 से लेकर अनुच्छेद-51 तक
में पर्याप्त संख्या में अधिकार प्रदान किये गये हैं परन्तु इनके अतिरिक्त भी
संविधान में पांचवी अनुसूची, छठी अनुसूची तथा अनेक अनुच्छेद
जैसे, अनु. 160 (1), 243 (घ),
243 (न), 244, 244 (क), 365, 275, 300
(क), 301, 326, 330, 331, 332, 333, 335, 336, 338, 338 (क), 339, 340, 350 (क), 350 (ख) आदि ऐसे हैं जिनमें भी इन्हें विशेष अधिकार प्रदान किए गए हैं। भारतीय संविधान और मानवाधिकारों के नये आयाम मानव सभ्यता एवं लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के साथ-साथ मानव अधिकारों के
दायरे में अभिवृद्धि हुई है तथा हो रही है। इस कारण न्यायपालिका द्वारा समय-समय पर
नये-नये मानव अधिकारों की व्याख्या और संरक्षण की दिशा में अपने उत्तरदायित्व का
निर्वाह कई महत्वपूर्ण फैसले प्रदान करके किया गया है और किया जा रहा है। आज उन सभी
अधिकारों को मानव अधिकार माना जाने लगा है जो एक सम्मानजनक अथवा मानव गरिमा युक्त
जीवनयापन के लिए आवश्यक है, क्योंकि अब जीने के अधिकार से अभिप्राय पशुवत जीने से नहीं
होकर सम्मानपूर्वक एवं गरिमायुक्त जीवन जीने से है “खडक सिंह
बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश)”[9] तथा “(मेनका
गांधी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया)’’[10]। ऐसे मानव अधिकार जिनका संविधान में विनिर्दिष्ट रूप में उल्लेख नहीं किया
गयाहै (not sepcifically enumerated), उन्हें
उच्चतम न्यायालय द्वारा कुछ विद्यमान मौलिक अधिकारों, जैसे
अनुच्छेद-24, 44 तथा 19 में ही उल्लेखित मौलिक अधिकारों के भाग या प्रसार के रूप में मान्यता दी गई है। जैसे - 1. प्रेस की स्वतंत्रता: भारतीय संविधान में प्रेस
की स्वतंत्रता का अधिकार अलग से वर्णित नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने “रोमेश थापर
बनाम मद्रास राज्य”[11] के मामले में अपने निर्णय में,
कहा कि भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद19:1) (क)) में ही प्रेस की स्वतंत्रता निहित है तथा प्रेस की स्वतंत्रता में
वितरण की स्वतंत्रता सम्मिलित है। 2. जानने का अधिकार (Right to Know): “एस.पी.गुप्ता
बनाम भारत का राष्ट्रपति“[12] के मामले में उच्चतम न्यायालय
द्वारा यह कहा गया है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद-19(1))
में सरकार के संचालन से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त करने का अधिकार
भी सम्मिलित है। इसी आलोक में संसद ने 2005 में सूचना का अधिकार
अधिनियम पारित कर लागू किया। 3. शिक्षा का अधिकार (Right toEducation): “कुमारी मोहिनी जैन बनाम् स्टेट ऑफ कर्नाटक”[13] के
वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत शिक्षा का अधिकार एक मूल अधिकार है। इसी आलोक में संसद ने 86वां संविधान संशोधन पारित कर अनुच्छेद 2।-क के
तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा प्रदान किया ‘है। 1
अप्रैल, 2010 से लागू इस अधिकार के तहत 6
से 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य
शिक्षा उपलब्ध कराई जाती है। 4. आहार पाने का अधिकार (Right to Food): “पी.यूसी.एल. बनाम् भारत संघ(2000(5) स्केल 30)”[14]
के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि ऐसे
लोग जो खाद्य सामग्री खरीदने की असमर्थता के कारण भूख से पीड़ित है उन्हें
अनुच्छेद-21 के अधीन राज्य द्वारा खाद्य सामग्री मुफ्त पाने
का मूल अधिकार है। इस दिशा में संसद द्वारा 2013 में खांच
सुरक्षा अधिनियम पारितकर लागू किया जाना एक महत्वपूर्ण कदम है। 5. जीविकोपर्जज का अधिकार (Right to Livelihood): “दिल्ली
डेवलपमेंट हार्टीकल्बर एम्पलाइज यूनियन बनाम् दिल्ली प्रशासन”[15] के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अनुच्छेद-21 के अन्तर्गत ‘प्राण के अधिकार में जीविकोपार्जन का
अधिकार भी आता है। अतः काम का अधिकार भी इसमें शामिल है। 2005 में संसद द्वारा पारित तथा 2 फरवरी, 2006 से लागू महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम
(महानरेगा) ने ग्रामीण व्यक्तियों को रोजगार के अधिकार के रूप में सामाजिक सुरक्षा
की गारन्टी प्रदान की है। 6. चिकित्सा सहायता पाने का अधिकार: “परमानन्द
कटारा बनाम् भारत संघ“[16] के वाद में यह निर्धारित किया गया
कि राज्य की अनुच्छेद-21 के अधीन यह बाध्यता है कि वह
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की रक्षा करे चाहे वह दोषी हो या न हो, प्रत्येक रोगी को तुरन्त चिकित्सा सहायता मिलनी चाहिए। 7. एकान्तता का अधिकार (Right to Privacy): “पीपुल्स
यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया”[17] के बाद
में सर्वोच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि एकान्तता का अधिकार अनुच्छेद
21 के अन्तर्गत प्रदत्त प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार
में सम्मिलित है। टेलीफोन टेप करना व्यक्ति के एकान्तता के अधिकार का सीधा उल्लंघन
है। जब तक सार्वजनिक आपातकाल या लोक सुरक्षा के लिए आवश्यक न हो, राज्य द्वारा फोन टेपिंग नहीं किया जा सकता है। 8. इनके अलावा निशुल्क विधिक सहायता पाने का अधिकार, शीघ्र विचारण (Speedy Trail) का अधिकार, विदेश जाने
का अधिकार, प्रदूषण मुक्त जल एवं वायु के उपभोग का अधिकार,
बिजली एवं पानी का अधिकार, विद्यार्थियों
का रैगिंग से संरक्षण का अधिकार, सार्वजनिक स्थानों पर
धूम्रपान से संरक्षण का आश्रय का अधिकार, हथकड़ी-बेड़ी लगाने
के विरूद्ध अधिकार, हिरासत हिंसा के विरूद्ध अधिकार आदि अनेक
अधिकारों को भी विभिन्न न्यायिक निर्णयों द्वारा अनुच्छेद-21 के
तहत मूल अधिकार माना गया है। उच्चतम न्यायालय ने ‘जाली जार्ज वर्गीज बनाम् बैंक ऑफ कोचीन‘, ‘विशाका बनाम् राजस्थान, अपेरेल बनाम् एक्सपोर्ट
प्रोमोशन काउंसिल बनाम् ए.के. चौपड़ा‘ आदिदस वादों में यह
धारित किया है कि मानव अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदायें तथाव अधिकारों पर
अन्य अभिसमय, जिन पर भारत ने हस्ताक्षर किये हैं तथा
अनुसमर्थनता है. उनकी सहायता मानव अधिकारों से सम्बन्धित भारत के संविधान के
उपबन्धों केचन में ली जा सकती है। यदि भारतीय संविधान या विधि तथा मानव अधिकारों
के अभिसमय में कोई संघर्ष है तो भारतीय संविधान या विधि ही अधिक मान्य होंगे!
परन्तु यदि दोनों के मध्य कोई संघर्ष नहीं है तथा संवैधानिक उपबन्ध (अर्थात् मौलिक
अधिकार)की परिधि इतनी व्यापक है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय के उपबन्धों को
समाहित करता है तो अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय के उपबन्धों को मानव अधिकारों के
अन्तर्गत पढ़ा जा सकता है या उनका भाग माना जा सकता है। मानव अधिकारों के संरक्षण का अधिनियम 1993: भारत में
मानवाधिकारों के संरक्षण का मुख्य सैद्धान्तिक आधार सन1993 के
मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम मेंनिहित है। यह कानून संविधान के अनुच्छेद 51 के अन्तर्गत दिए गए निर्देशों के अनुकरण और वियना सम्मेलन में दिए गए भारत
के वचन को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। अधिनियम में राष्ट्रीय मानवाधिकार
आयोग, राज्यों में राज्य मानवाधिकार आयोग और मानवाधिकार
न्यायालय स्थापित करने का प्रावधान किया गया है ताकि मानवाधिकारों और इनसे जुड़े मामलों को बेहतर ढंग से संरक्षण प्रदान किया जा सके। - मानवाधिकारों के लिए संवैधानिक उपचार मानवाधिकारों का भारतीय संविधान में विशद् उल्लेख ही नहीं किया गया है बल्कि उन्हें लागू करने की पूर्ण व्यवस्था भी की गई है। संविधान द्वारा सर्वोच्चन्यायालय
को इन अधिकारों के रक्षक के रूप में नामित किया गया है। अनुच्छेद 32 “संवैधानिक
उपचारों का अधिकार” नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों के
प्रवर्तन हेतुया उल्लंघन के विरुद्ध सुरक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने की
शक्ति प्रदान करता है। “डा0 भीमराव
अम्बेडकर ने इस अधिकार को भारतीय संविधान की आत्मा कहा है।’‘[18] सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए अनु. 32 के अन्तर्गत बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेद्याज्ञा (Prohibition), उत्प्रेषण और अधिकार-पृच्छा रिट (rit) जारी करने का अधिकार दिया गया है। उच्च न्यायालयों को भी अनुच्छेद 226 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघंन होने पर इन विशेषाधिकार प्रदेशों को जारी करने का अधिकार दिया गया है। प्राइवेट व्यक्ति और संस्थाओं के विरूद्ध भी मौलिक अधिकार को लागू करना तथा उल्लंघन के मामले में प्रभावित व्यक्ति को समुचित मुआवजे का आदेश जारी करना भी सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में है। सर्वोच्च न्यायालय स्वप्रेरणा से या जनहित याचिका के आधार पर अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है। मूल अधिकारों के अतिरिक्त अन्य अधिकार भी समान रूप से न्यायोचित है। इन अधिकारों के प्रवर्तन हेतु पीड़ित व्यक्ति सामान्य मुकद्मों या अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में जा सकता है। |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार
मानवाधिकारों के प्रति भारत की निष्ठा संविधान के विविध प्रावधानों में स्पष्ट
देखी जा सकती है। संविधान के प्रावधानों द्वारा सामाजिक समता की स्थापना और
विभिन्न पिछड़े वर्गों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को सुधारने का प्रयत्न
मानवाधिकारों का ही प्रयास है। भारत में केन्द्र और राज्य की विभिन्न कल्याणकारी
सुधार योजनाओं, गरीबी निवारण कार्यक्रम, पंचवर्षीय योजनाएँ, सार्वजनिक वित्तरण प्रणाली,
खाद्य सुरक्षा कानून, रोजगार का अधिकार
(महानरेगा), शिक्षा का अधिकार, सूचना
का अधिकार आदि का उद्देश्य मानवाधिकार की रक्षा का ही रहा है। कुल मिलाकर भारतीय
संविधान केविभिन्न प्रावधान स्वस्थ व सम्यक समाज निर्माण हेतु जनता के
मानवाधिकारों को अक्षुणरखने में पूर्णतः सक्षम है। यह हमारे लिए बड़े ही गर्व की
बात है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. लक्ष्मीकान्त, एम.: भारत की राजस्थान व्यवस्था (टाटामैग्ग्राहिल, नई दिल्ली), चतुर्थ सं. 2014,पृ. 7.27. 2. डॉ. जयकुमार मिश्र: भारत का
संविधान-एक पुनर्दृष्टि (कल्पज पब्लिकेशन्स, दिल्ली),
प्र. सं.2010, पृ. 43. 3. डॉ. कुलदीप फड़िया: संयुक्त
राष्ट्र संघ एवं प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय संगठन (साहित्य भवनपब्लिकेशन्स, आगरा), दसवां सं. 2011, पृ. 2, 95. 4. कुरुक्षेत्र, दिसम्बर 2006, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार,मानवाधिकारः मानवीय संवेदना का द्योतक (चंदेश्वर यादव), पृ. 12-14 5. डॉ. डी.डी.बसु: भारत का
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दसवाँ सं. 2013, पृ. 92-174. 6. बेयर एक्ट: भारत का संविधान
(कानून प्रकाशक, जोधपुर), पृ. 27-30.
7. तिवारी, एम.के. भारत का संविधान (सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी, इलाहाबाद), पृ०-133. 8. डॉ0 जयनारायण
पाण्डेयः भारत का संविधान (सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी, इलाहाबाद),
छियालिसवांसं. 2013, पृ0 227. 9. शर्मा, बृजकिशोर: भारत का संविधान-एक परिचय (पीएचआई लर्निंग प्राइवेट लिमिटेड,
नईदिल्ली), नोवां सं. सितम्बर 2042,
पृ0-440. 10. डॉ0 जयनारायण
पाण्डेय: भारत का संविधान (सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी, इलाहाबाद),
छियालिसवांसं, 2013, पृ० 178,
187, 236, 241. 11. कश्यप, सुभाषः हमारा संविधान (नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया,
नई दिल्ली), तीसरा पुनर्मुदित सं.2013,
पृ0 112. 12. कश्यप, सुभाषः हमारा संविधान (नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया,
नई दिल्ली), तीसरा पुर्नमुद्रित सं.2013,
पृ0-109, 111 13. सिंह, विकासः भारत का संविधान-एक समग्र अध्ययन (आर्शवाद पब्लिकेशन, जयपुर), द्वि.संशोधित सं. 2013-14, पृ0-70. |