ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- VII August  - 2023
Innovation The Research Concept

कला सौंदर्यशास्त्र में संवेदनाओं की अभिव्यक्ति

Expression of Sensibilities in Art Aesthetics
Paper Id :  18007   Submission Date :  2023-08-12   Acceptance Date :  2023-08-21   Publication Date :  2023-08-25
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DOI:10.5281/zenodo.8346335
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अचल अरविन्द
सहायक आचार्य
चित्रकला विभाग
माँ भारती पी.जी. कॉलेज
कोटा ,राजस्थान, भारत
सारांश
जब बालकों का जन्म होता है तो वह वातावरण के बारे में कुछ भी नहीं जानता। जब धीरे-धीरे उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ कार्य प्रारम्भ कर देती हैं तो उसे विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त होने लगता है। इसी ज्ञान को ‘संवेदना‘ या ‘इन्द्रिय‘ ज्ञान कहते हैं। भारतीय मान्यता के अनुसार “शिवत्व की उपलब्धि के लिए सत्य की सुन्दर अभिव्यक्ति ही कला सृजन का सामान्य अर्थ व सौन्दर्य रचना माना गया है। आगे चलकर कलाकार अपनी योग साधना से जो परिकल्पनाकरता है, उस परिकल्पना की रचना एवं रूप ही सौन्दर्य कला एवं ललित कला है और उस कलाकार की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति है। जहाँ पर रचना में हम सत्य और वास्तविकता की सराहना करते हैं और कला में हम वैचित्रय चमत्कार या वैलक्षण्य को महत्व देते हैं। इसका उदाहरण-‘भवन निर्माण’ की कला, समग्र निर्मित रूप में नहीं, वरन् उसके दृश्य बाह्य स्वरूप, आकार तथा सुन्दर रंग भरने में हैं। जिस कला के आनन्द या रस से कलाकार स्वयं उत्प्रेरित होता है तथा दर्शन अथवा श्रोता भी उसी आनन्द या रस में विभोर हो जाते है और वह अभिव्यक्ति केवल आनन्ददायक ही नहीं, वरन सत्य की परिचायक और कल्याण की धात्री भी होती है। अतः सत्यम, शिवम, सुन्दरम् कला का एक आदर्श रूप है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद When children are born, he doesn't know anything about the atmosphere. When slowly his sense organs start functioning, then he starts getting different types of knowledge. This knowledge is called 'sensation' or 'indriya' knowledge. According to the Indian belief, “The beautiful expression of truth for the achievement of Shivatva is considered to be the general meaning of art creation and aesthetic creation. Later on, whatever the artist visualizes through his yoga practice, the creation and form of that visualization itself is beauty art and fine art and is the free expression of that artist. Where in creation we appreciate truth and reality and in art we give importance to vaichitraya miracle or vailakshana. An example of this is the art of 'building construction', not in the overall built form, but in its visible external appearance, shape and beautiful colouring. The artist himself is inspired by the joy of the art and the audience or the listeners also get immersed in the same joy or juice and that expression is not only enjoyable, but also the representative of truth and the mother of welfare. Hence Satyam, Shivam, Sundaram is an ideal form of art.
मुख्य शब्द वैलक्षण्य, वैचित्रय, आत्मरंजन, वीभत्य, सन्निविष्ट, श्रेयस्कर, उत्प्रेरित।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Spectacular, Bizarre, Self-indulgent, Gruesome, Convoluted, Creditable, Inspired.
प्रस्तावना

सत्यं शिवं सुन्दरंइन तीनों में से एक या अधिक विशेषताएँ जब समविष्ट होती हैं तो हमें कला के दर्शन होते हैं। कलाकृति को सदैव सुन्दर कहना कठिन है। युद्ध के भयानक और वीभत्य चित्रण, नरक ही कहे जा सकते हैं। हाँ, उनमें है। युद्ध के भयानक और वीभत्स चित्रण, नरक ही कहे जा सकते हैं। हाँ, उनमें आकर्षण अवश्य रहता है। उनको देख, सुनकर हमारी आँखें और कान इनके माध्यम से मन चमत्कृत हो जाता है, अतः चमत्कारी क्षमता कला में अवश्य होती है। कला जितनी अधिक समग्रता और स्वाभाविकता के साथ समाविष्ट और व्याप्त हो सके उतनी ही उसकी सफलता है। अपने इस व्यापक स्वरूप की विशेषता के कारण ही कला के स्वरूप का विश्लेषण करना कठिन हो जाता है। उसकी इस व्याप्ति में वस्तु विषय का स्वरूप परिवर्तन हो जाता है। अपनी चरम सफलता में विषय का स्वरूप इतना बदल जाता है कि हम इस प्रकार नयी रचना को कला के नाम से ही पुकारने लगते हैं।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य भारतीय कला सौंदर्य शास्त्र में संवेदनाओं की अभिव्यक्ति की उपलब्धि प्रस्तुत करना है।

साहित्यावलोकन
कला जीवन में किसी वस्तु को सुन्दर, आकर्षक या चमत्कारपूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का ढंग है। इसमें कल्पना का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ वस्तु के अन्तर्गत कला के समस्त विषयों के वर्ग सम्मिलित किये जाते हैं। इसके अन्तर्गत कोई पदार्थ, मानवनिर्मित वस्तुएँ, कोई घटना, विचार, भाव आदि सत्य का कोई भी रूप हो सकता है। इसके वास्तविक रूप में कहें तो हम यही कहेंगे कि काव्य सत्य को सुन्दर, आकर्षक और चमत्कारपूर्ण रूप में प्रस्तुत करने की कला है।
मुख्य पाठ

संवेदना का पूर्ण-ज्ञान या पूर्व-अनुभव से कोई सम्बन्ध नहीं होता, जैसा शिशु के कानों में कोई आवााज आती है, वह उसे सुनता है, लेकिन वह यह नहीं जानता कि यह आवाज किसकी है और कहाँ से आ रही है, उसे इस प्रकार की आवाज का न तो पूर्ण ज्ञान होता है, न पूर्व-अनुभव। आवाज के इसी प्रकार के ज्ञान का संवेदनाकहते हैं। संवेदनासबसे साधारण मानसिक अनुभव और मानसिक प्रक्रिया का साधारण रूप है। यह ज्ञान प्राप्त करने की प्रथम सीढ़ी है। यह सभी प्रकार के ज्ञान में होती है। इसके अभाव में किसी प्रकार का अनुभव नहीं है।

दीर्घकालीन संवेदनाएँ अल्पकालीन संवेदनाओं की अपेक्षा स्पष्ट होती हैं। हम जितना ध्यान उस पर केन्द्रित करते हैं वह उतनी ही अधिक स्पष्ट होती है। संवेदना की अवधि निश्चित होती हैं क्योंकि उसके उपरान्त उसका अनुभव नहीं रहता है।

सभी संवेदनाएँ समान रूप से तीव्र नहीं होती हैं। कुछ संवेदनाएँ प्रबल व कुछ निर्बल व कुछ निर्बल होती है।

प्रत्येक संवेदन के अपने गुण होते हैं। एक ज्ञानेन्द्रिय द्वारा अनुभव की गई दो संवेदनाओ में भी समानता नहीं होती है।

ज्ञानेन्द्रिय के कम क्षेत्र को प्रभावित करने वाली संवेदना का विस्तार कम व अधिक क्षेत्र वाली का विस्तार अधिक होता है। प्रत्येक संवेदना में स्थानीय चिह्न की विशेषता होती है जिसके आधार पर हमें संवेदना स्थल का पता चलता है। अर्थात कला व संवेदना में गहरा सम्बन्ध होता है। कला में वही अभिव्यक्ति कलाकार की होती है जैसी उसकी संवेदनाएँ होती हैं।

कला हमारे विचारों का एक दृश्य रूप है। वह हमारी कल्पना शक्ति, आदर्श प्रियता एवं सृजनशक्ति मानव में अपनी विशेष मनोभावनाएँ, संवेदनाएँ विचार पद्धति के कारण होती है। क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के कारण नई-नई सम्भनाएँ जन्म लेती हैं और सभ्यता एवं संस्कृति का विकास होता है और कला का नया रूप, मापदण्ड स्थापित होते हैं। अतः वास्तव में कला वह है जिसमें कोई भी व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिए नवीन सृजन करता है। इस कला का सम्बन्ध आत्मरंजन से है भले ही उसका अप्रत्यक्ष रूप में अर्थ से सम्बन्ध बन जाये।

भारतीय मान्यता के अनुसार, “शिवत्व की उपलब्धि के लिए सत्य की सुन्दर अभिव्यक्ति ही कला सृजन का सामान्य अर्थ सौन्दर्य रचना माना गया है। आगे चलकर कलाकार अपनी योग साधना से जो परिकल्पना करता है, उस परिकल्पना की रचना एवं रूप ही सौन्दर्य कला एवं ललित कला है और उस कलाकार की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति है। इस अभिव्यक्ति में कला कोई भी हो वह आदमी के मन में सौन्दर्य जगाती है। सौन्दर्य का मूर्त या अमूर्त कोई एक रूप कला सृजन में सदैव उपस्थित रहता है। हर तरह की कला एवं सृजन में सौन्दर्यनुभूति साकार रहती है।’’

मूर्ति में केवल मूर्ति रचना की कला ही नहीं है, वरन् उसके साथ-साथ पत्थर और मूर्ति की कल्पना भी सम्मिलित हो जाती है। पत्थर और मूर्ति की कल्पना मात्र से मूर्ति का निर्माण नहीं हो जाता, जब तक कि कलाकार अपनी रचना की कला नहीं दिखलाता।

संगीत में ध्वनि मुख्य वस्तु है। नाद तत्व को एक विशिष्ट संयोग और सामंजस्य के साथ प्रस्तुत करने से उसमें चमत्कार की सृष्टि होती है। चमत्कार की सृष्टि का ढंग ही कला है, पर इस कला से युक्त होकर ध्वनि संगीत का रूप धारण करती है। कला का चमत्कार पक्ष जितना ही स्वाभाविक रीति से घुलता-मिलता जाता है उसका वस्तु पक्ष उतना ही महत्व ग्रहण करता जाता है। अतः वस्तु कला के समावेश से नवीन सृष्टि होती है और इसे रचना कहना चाहिए कला नहीं। रचनाओं में कला एक पक्ष-मात्र है। सभी कलाओं के मूल स्वरूप में रचना विद्यमान है। वास्तु कला में भवन स्वयं कला नहीं है, वह स्वयं एक रचना है। इस रचना में सन्निविष्ट आकर्षण रूप को भरने का कौशल ही कला पक्ष है। हम भवन को कला नहीं कहते, वह तो वस्तु है। मूर्ति, चित्र, संगीत इत्यादि भी कलाएँ न होकर रचनाएँ हैं। इन रचनाओं के वस्तु पक्ष और कला पक्ष इसमें ढूँढ़े जा सकते हैं।  

 जहाँ पर रचना में हम सत्य और वास्तविकता की सराहना करते हैं, कला में हम वैचित्रय चमत्कार या वैलक्षण्य को महत्व देते हैं। इसका उदाहरण-भवन निर्माणकी कला, समग्र निर्मित रूप में नहीं, वरन् उसके दृश्य बाह्य स्वरूप, आकार तथा सुन्दर रंग भरने में हैं। मूर्तिमें कला उसकी सजीवता और वास्तविक व्यक्ति के अनुकरण में देखी जा सकती है। संगीतकी कला चमत्कारपूर्ण ध्वनि या नाद योजना में है। चित्रकलामें वास्तविक सजीवता और चमत्कार दोनों ही प्रकार के कला पक्ष में है जबकी काव्यमें शब्द प्रयोग अप्रस्तुत योजना, उक्त चमत्कार आदि में देखा जाता हैै।

कला मानव की सहज अवलोकन की अभिव्यक्ति है। प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक वर्तमान समय में भी देशकाल की परिस्थितिनुसार उसे जब भी, जो कुछ भी, किसी भी रूप  में मिला है उसके माध्यम से मानव निरन्तर सृजन करता रहा है। पहाड़ों को काट देवालयों का निर्माण, पत्थरों को जोड़ नयनाभिराम मन्दिर, उसकी भित्तियों पर भी विभिन्न प्रयोग के रूप में ताड़-पात्र, छाल, कपड़ा व कागज का प्रयोग कर उसे ही सृजन का माध्यम बना लिया।

कला जीवन में किसी वस्तु को सुन्दर, आकर्षक या चमत्कारपूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का ढंग है। इसमें कल्पना का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ वस्तु के अन्तर्गत कला के समस्त विषयों के वर्ग सम्मिलित किये जाते हैं। इसके अन्तर्गत कोई पदार्थ, मानवनिर्मित वस्तुएँ, कोई घटना, विचार, भाव आदि सत्य का कोई भी रूप हो सकता है। इसके वास्तविक रूप में कहें तो हम यही कहेंगे कि काव्य सत्य को सुन्दर, आकर्षक और चमत्कारपूर्ण रूप में प्रस्तुत करने की कला है।

राजा रवि वर्मा ने चित्रकला की नई सृजना ही नहीं की वरन् आधुनिक धारा को अबोध गति से पालन किया। उन्होंने पाश्चात्य शैली का अध्ययन किया और सैकड़ों वर्षों की परम्परागत रूढ़िबद्ध चित्र प्रणाली से विमुख हुये। जिस समय रवि वर्मा के मिले-जुले चित्रों की धूम थी, पाश्चात्य मिश्रित रंगावली से रंगे चित्र अपनी ख्याति-रश्मियों को बिखरे रहे थे, उसी समय शुद्ध भारतीय की छाप लिए पुनरुस्थान काल के अग्रणी नेता, चित्र पारखी प्रो. ई. बी. हैवेल का उदय हुआ। इनके परम सहयोगी ठाकुर अवनीन्द्रनाथ थे।

भारतीय शास्त्रीय दृष्टिकोण के अनुसार, जो कला का सृजन हुआ है, उसमें मनोरंजन विधि से कला शिक्षण प्रदान करना, मनुष्य को आनन्द की ओर ले जाना, शब्द, गुण, रीतियों के द्वारा काव्य अथवा कला में सौन्दर्य की अभिवृद्धि करना और चित्रकला के सन्दर्भ में यह कार्य रंग रेखाओं एवं भावों की अभिव्यक्ति के द्वारा पूरा किया जाता है।

कला जीवन में किसी वस्तु को सुन्दर, आकर्षक या चमत्कारपूर्ण रूप में प्रस्तुत करने का ढंग है। यहाँ पर वस्तु के अन्तर्गत कला के समस्त विषयों के वर्ग सम्मिलित किए जाते हैं। इसके अन्तर्गत कोई पदार्थ, कोई विचार, कोई घटना, भाव, सत्य का कोई स्वरूप एवं मानव निर्मित वस्तुएँ आदि कुछ भी हो सकता है। इस वास्तविक रूप में हम कह सकते हैं कि काव्य सत्य को सुन्दर, आकर्षक और चमत्कारपूर्ण रूप में प्रस्तुत करने की कला है। यह सत्य वास्तविक सतत् संभाव्य या काल्पनिक सतत् कोई भी स्वरूप में हो सकती है और यदि हम यह सिद्धान्त स्वीकार करें कि हम जो भी कल्पना में देख सकते हैं, वह सब वास्तविक या भव्य कहने की भी आवश्यकता नहीं है।

कला आन्तरिक भावनाओं व विचारों की अभिव्यक्ति है। कला का उद्गम सौन्दर्य की मूलभूत प्रेरणा से हुआ है। प्रकृति के रमणीय दृश्य, जैसे-सूर्योदय, सूर्यास्त मानव मन को आनन्द से भरते रहे हैं इन दृश्यों का वह स्वतः भी निर्माण करे, ऐसी इच्छा मनुष्य के मन में जागृत हुई। मनुष्य की इस स्वाभाविक रचनात्मक प्रवृत्ति के फलस्वरूप अनेक शिल्प और कौशल का जन्म हुआ।

कला की प्रकृति के विषय में कुछ अधिक जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि आनन्द क्या है ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि- किसी सुन्दर वस्तु को देखने पर जिस रस का आस्वादन हमारा मन करता है, उस आस्वादन को सौन्दर्य कहा जाता है। आस्वादन समाप्त होने पर आनन्द की समाप्त हो जाता है। कला के क्षेत्र में सौन्दर्य कलाकार के हृदय में उदय होता, पलता और पुष्ट होता है और अनेक माध्यमों द्वारा अभिव्यक्त होता है। सुन्दर अभिव्यंजानाओं का लक्ष्य ही आनन्द की उपलब्धि कराना होता है। यह तभी सम्भव होता है, जबकि कलाकार में तीव्र वेदना को अनुभव करने की स्वाभाविक ग्राह्यता हो। इस अभिव्यक्ति में नियम और स्वच्छन्दता का सामन्जस्य आवश्यक होता है, परन्तु नियम को कठोरता में अभिव्यक्ति नीरस और मृतवत् हो जाती है। अतः कलाकार की कलात्मक प्रतिभा का स्वच्छन्द गति से बहना ही श्रेयस्कर है।

आदिकाल से ही मनुष्य व कला का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। आदि मानव का जंगली जानवरों की भाँति जंगली जीवन था। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ कला भी विकसित हुई और आदि मानव कला के माध्यम से विकास की ओर उन्मुख हुआ। सर्दी, गर्मी व वर्षा से बचने के लिए मानव ने पेड़ो की टहनियों, पत्तों से कलात्मक ढंग से ढकने का प्रयास किया। जंगली जानवरों की खाल को सिलकर शरीर ढकने व ओढ़ने-बिछाने के लिए वस्त्रों की भाँति प्रयोग किया। आज भी शेर, हिरण, चीता इत्यादि जानवरों की खालों को कीमती वस्त्रों की जगह प्रयोग में लाया जाता है।

मानवीय बुद्धि के विकास के साथ-साथ गर्मी, सर्दी व जंगली जानवरों से बचने के लिए गुफाओं का निर्माण किया गया, इस प्रकार जंगली मानव ने कला के माध्यम से अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और उसे विकसित करता रहा। जंगली जानवरों का शिकार नुकीले पत्थरों की अपेक्षा तीर-कमान से करने लगा। नुकीली हड्डियों से उसने सुई का कार्य किया। मानव ने प्रकृति से प्रभावित होकर जंगली जानवरों तथा प्रकृति के चित्र बनाए। मानव ने पत्थरों को तराश कर पशुओं, पेड़-पौधों तथा प्राकतिक दृश्यों के चित्र बनाकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।

समाज में धर्म के विकास से प्रभावित होकर मानव ने देवी-देवताओं के धार्मिक चित्र बनाए। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नृत्य-मुद्रा में भी चित्र बनाए गए। रामायण और महाभारत में प्रचलित चित्र कला की ही देन है।

वर्तमान समय में मानवीय जीवन कला के बिना अधूरा व नीरस है। कला निराशा को आशा तथा नीरसता को सरसता में  बदल देने में सक्षम होती है। कला मनुष्य को उपयोगिता और सौन्दर्य प्रदान करती है। उदाहरणस्वरूप, रंगदार एवं आकर्षिक खिलौना से रोता हुआ बच्चा प्रसन्नचित हो जाता है। मिट्टी के घड़े को निर्मित करने और उस पर सुन्दर चित्र अंकित करने में जितनी अधिक कुशलता दिखाई देती है, उतना ही उसे देखकर आनन्द का अनुभव होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जिस गुण व कौशल के कारण किसी वस्तु में सुन्दरता एवं उपयोगिता आती है, उसे कला कहते हैं। कलाशब्द की रचना कलधातु से हुई जिसका अर्थ है - सुन्दर व मधुर। कला भावों, विचारों, इच्छाओं तथा गुणों को अभिव्यक्त करने का माध्यम है। कला मानव के साथ-साथ पशु-पक्षियों को भी अपनी तरफ सम्मोहित कर लेती है। भगवान श्रीकृष्ण की वंशी की मधुर तान सुनकर गायों का उनके पास आ जाना कला की महत्ता का साक्षात् प्रमाण है। कलाशब्द तो कितना छोटा है, परन्तु इसका विस्तार एक विशाल सागर की भाँति है, जिसका कोई भी किनारा नहीं है। एक प्रसिद्ध कलाकार की दृष्टि से कला कलाकार की आत्मा का बाहरी स्वरूप है जो रेखाओं, रंगों, शब्दों, सुरों तथा तानों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।

सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के हृदय में अनेक आशाएँ, आकांक्षाएँ और संवेदनाएँ होती हैं जिनके द्वारा उसके मन में अनेक प्रकार के भावों की उत्पत्ति होती है और वह अपने भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करना चाहता है। प्रारम्भ में मनुष्य इन्हीं भावों को व्यक्त करने के लिए शारीरिक हाव-भावों अथवा संकेतों का सहारा लेता था, उसके बाद धीरे-धीरे उसने चित्रकला और लिपि को भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।

भाव, रंग शब्द, लय आदि को आधार बनाकर मानव ने अपने मन की अतृप्त भावनाओं को प्रकट किया, इस प्रकार अनेक विद्याओं, कलाओं की सृष्टि होती चली गई। इस प्रकार मानव ने जहाँ कला के माध्यम से अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति की, अपनी अभिव्यक्ति को सुजनात्मक रूप देकर उसका आनन्द प्राप्त किया, उसके साथ समय का दुरूपयोग कर उस कला को अपनी जीवकोपार्जन का माध्यम भी बनाया। रूस से प्रसिद्ध साहित्यकार टॉलस्टाय के अनुसार, ‘‘कला मानव की भावनाओं को जोड़कर कल्याण के लिए प्रचार एवं प्रसार का साधन है।’’ इसी प्रकार राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त के अनुसार, ‘‘कला से जीवन का महत्व है। यदि कला से जीवन को सुमार्ग पर न लाए तो वह कला क्या हुई ? अर्थात् कला समाज को सद्मार्ग पर लाने और आदर्श बनने की प्रेरणा देती रही है।

कला भावनात्मक अनुभूति को प्रकट करने का सरल और आकर्षिक साधन है। कला प्रतिभा (गुणों) को अभिव्यक्त करने का प्रभावी माध्यम है। मानव-मन की कल्पनाओं को कला ही निखारती है। वर्षा की रिमझिम तथा काली घटाओं से प्रेरित होकर वर्षा ऋतु के पपीहे, मोर के गीतों और नृत्य को अभिव्यक्त करना इसी का प्रभाव है। कला अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष तथा अदृश्य को दृश्य रूप में प्रदर्शित करती है। इतिहास अथवा विज्ञापन में किसी चीज का मॉडल दिखाकर उन्हें प्रत्यक्ष वस्तु के विषय में सरलता से समझाया जा सकता है। कला के बिना मानव जीवन अधूरा रह जाता है। मानव के पूरे व्यक्तित्व और जीवन की सफलता के लिए कलात्मक दक्षताओं का होना आवश्यक है। यह कलाएँ साहित्य, संगीत, चित्रकला मूर्तिकला तथा वास्तुकला के नाम से सुशोभित होती है। इन्हें ललितकला के नाम से भी पुकारा जाता है। कुछ अन्य उपयोगी कलाएँ हैं जो अन्य कौशलपूर्ण कार्यों से की जाती हैं।

साहित्यकार शब्दों को इस प्रकार एकत्रित करके सजाता है कि पढ़ने अथवा सुनने वाला आनन्द-विभोर व चकित रह जाता है। चित्रकार अपनी कला का प्रदर्शन रंगों व रेखाओं के विभिन्न आकारों से करके अपनी भावनाओं को चित्र पर अंकित करता है। संगीतज्ञ अपनी मधुर वाणी द्वारा अपनी कला को प्रकट करता है तथा श्रोताओं को आनन्द-विभोर कर देता है। आशा भोंसले, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, माधुरी दीक्षित इत्यादि सभी अपनी कला के कारण देश-विदेश में प्रसिद्ध हैं। उनका जीवन सफल व प्रेरणादायक है। जिस कला के आनन्द या रस से कलाकार स्वयं उत्प्रेरित होता है, दर्शन अथवा श्रोता भी उसी आनन्द या रस में विभोर हो जाते है, और वह अभिव्यक्त केवल आनन्ददायक ही नहीं, वरन सत्य की परिचायक और कल्याण की धात्री भी होती है। सत्य, शिवम, सुन्दरम् कला का आदर्श है।

निष्कर्ष

सौंदर्य कला में कल्पनाओं की संवेदनाएँ वह वस्तु है जिसके द्वारा हम अपनी प्रतिभाओं का नये प्रकार से प्रयोग करते है। वह हमको अपनी पिछले अनुभव को किसी ऐसी वस्तु का या आकार का निर्माण करने में सहायता देती है। जो हमने पहले कभी नहीं देखी। हमारे संवेदनाओं या कल्पनाओं की व्याख्या करने की उचित परिभाषा अप्रत्यक्ष तथ्यों के सम्बन्ध में विचार करने के रूप में उत्प्रेरित करती है। जिससे कला सौंदर्य में संवेदनाओ का विकास होता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

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