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भारत में संघवाद का
बदलता स्वरूप—एक अध्ययन |
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The Changing Nature Of Federalism In India—A Study | |||||||
Paper Id :
18033 Submission Date :
2023-08-26 Acceptance Date :
2023-09-01 Publication Date :
2023-09-04
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सारांश |
जनसंख्या तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से विशाल आकार वाले लोकतांत्रिक देशों के इस वर्तमान युग में केंद्र तथा इकाईयों के मध्य शक्ति विभाजन के स्वरूप के आधार पर दो प्रकार की शासन प्रणालियां प्रचलित हैं। (1) एकात्मक तथा (2) संघात्मक। भारत विश्व का विशाल लोकतंत्रीय तथा संघीय प्रणाली वाला ऐसा देश है, जहां जाति, धर्म, भाषा तथा सांस्कृतिक दृष्टि से अनेकता पाई जाती है।
भारतीय संघीय व्यवस्था के क्रियात्मक रूप के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भारतीय संघवाद का स्वरूप यद्यपि संघात्मक है किंतु उसकी आत्मा एकात्मक है। संविधान लागू होने के 73 वर्षों के इतिहास में हमारी संघीय व्यवस्था ने अनेक रूप परिवर्तित किये हैं। कभी यह सहकारी संघवाद का रूप धारण कर लेती है तो कभी यह एकात्मक शासन का रूप ग्रहण कर लेती है। कभी यह देश के विविध हितों की पूर्ति का साधन बन जाती है तो कभी यह केंद्र तथा राज्यों और विभिन्न राज्यों के मध्य तनाव का कारण भी बन जाती है।
प्रस्तुत शोधपत्र में संविधान लागू होने से लेकर अब तक के संघीय व्यवस्था के परिवर्तित हुए स्वरूप का अध्ययन करने का प्रयास किया गया है। विशेषकर उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप हमारी संघीय व्यवस्था में क्या परिवर्तन आए हैं तथा उन परिवर्तनों का केंद्र राज्य संबन्धों पर क्या प्रभाव पड़ा है? वैश्वीकरण से उत्पन्न व्यवस्था के कारण भारतीय संघ में केंद्र तथा राज्य़ों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है? प्रस्तुत शोधपत्र में इसी प्रकार के प्रशनों का उत्तर खोजने का प्रयास किया गया है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the present era of democratic countries having huge size in terms of population and area, two types of governance systems are prevalent on the basis of the form of division of power between the center and the units. (1) Unitary and (2) Federal. India is a country in the world with a large democratic and federal system, where diversity is found in terms of caste, religion, language and culture. Study of the functional form of the Indian federal system reveals that although the form of Indian federalism is federal, its soul is unitary. In the 73 years since the Constitution came into force, our federal system has taken many forms. Sometimes it takes the form of cooperative federalism and sometimes it takes the form of unitary governance. Sometimes it becomes a means of fulfilling the diverse interests of the country and sometimes it also becomes a cause of tension between the Center and the states and between different states. In the presented research paper, an attempt has been made to study the changed nature of the federal system since the implementation of the Constitution. In particular, what changes have taken place in our federal system as a result of liberalisation, privatization and globalization and what impact have those changes had on centre-state relations? What has changed in the position of the Center and the States in the Indian Union due to the system arising from globalization? In the presented research paper, an attempt has been made to find answers to similar questions. |
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मुख्य शब्द | संघवाद, सहकारी संघवाद, संघीय शासन, राज्य शासन, एकात्मक शासन। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Federalism, Cooperative Federalism, Federal Governance, State Governance, Unitary Governance. | ||||||
प्रस्तावना | प्रस्तुत शोधपत्र
में संविधान लागू होने से लेकर अब तक के संघीय व्यवस्था के परिवर्तित हुए स्वरूप
का अध्ययन करने का प्रयास किया गया है। विशेषकर उदारीकरण,
निजीकरण तथा वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप हमारी संघीय व्यवस्था में
क्या परिवर्तन आए हैं तथा उन परिवर्तनों का केंद्र राज्य संबन्धों पर क्या प्रभाव
पड़ा है? वैश्वीकरण से उत्पन्न व्यवस्था के कारण भारतीय
संघ में केंद्र तथा राज्य़ों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है? प्रस्तुत शोधपत्र में इसी प्रकार के प्रशनों का उत्तर खोजने का प्रयास
किया गया है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोधपत्र के
उद्देश्य इस प्रकार हैं। 1. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात
भारत की संघीय व्यवस्था के बदलते स्वरूप का अध्ययन करना, 2. वैश्वीकरण, खुदारीकरण तथा निजीकरण के भारत की संघीय व्यवस्था पर पड़ने वाले
प्रभावों का अध्ययन करना, 3. भारतीय संघीय व्यवस्था में हुए
परिवर्तनों का केंद्र राज्य संबन्धों पर प्रभाव का अध्ययन करना, 4. वस्तु तथा सेवा कर अधिनियम के
लागू होने के भारतीय संघ व्यवस्था पर प्रभाव का अध्यययन करना। |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत शोधपत्र के
लेखन हेतु अधिकांशत: द्वैतीयक स्रोतों का ही अध्ययन किया गया है। भारत के संघीय
स्वरूप की व्याख्या करने वाली कुछ पुस्तकों जैसे भारत का संविधान एक परिचय
(दुर्गादास बसू), हमारा संविधान (सुभाष कश्यप),
Select Constitutions (A.C. Kapoor) आदि के अध्ययन के साथ भारतीय
संघवाद से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर इंटर्नेट पर उपलब्ध विभिन्न शोधपत्रों तथा
आलेखों का अध्ययन भी किया गया। |
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मुख्य पाठ |
संघवाद का अर्थ संघ एक विशेष प्रकार का राज्य होता है, जिसमें संघ तथा इकाईयों के मध्य संबन्धों
का निर्धारण लिखित संविधान के द्वारा किया जाता है। यह एक विशिष्ठ संगठनात्मक रूप
या संस्थागत तथ्य है, जिसका उद्देश्य घटक इकाईयों को
समायोजित करना है। संघ शब्द अंगरेज़ी के फेडरल शब्दसे लिया गया है, जो लैटिन शब्द फाडस से लिया गया है। इसका अर्थ है—वादा।
यह वादा प्रतिबद्धता और उपक्रम के विचारों का प्रतीक है और इसलिए संघीय व्यवस्था में
सहयोग और पारस्परिकता के भाव निहित हैं।[1] भारत में संघीय व्यवस्था का क्रियात्मक रूप भारत में संविधान के लागू होने के पश्चात विगत 73 वर्षों के इतिहास पर यदि दृष्टिपात किया
जाए तो यह कहा जा सकता है कि सन 1950 से 1967 तक का काल भारतीय संघवाद के लिए सहियोगी संघीय व्यवस्था का काल था। इस काल
में कुछ अपवादों को छोड़कर संपूर्ण भारत में एक ही दल (कॉंग्रेस) का शासन रहा
इसलिए इस काल में केंद्र तथा राज्य सरकारों के मध्य सौहार्दपूर्ण संबंध बने रहे।
फिर भी राज्यपाल की भूमिका को लेकर विवाद का प्रारंभ हो चुका था। इसके साथ ही पं.
नेहरू की मृत्यु के पश्चात प्रधान मंत्री के उम्मीदवार के चयन में राज्यों का
बढ़ता हुआ प्रभाव हमें भारत में सहकारी संघवाद की विद्यमानता को दर्शाता है। 1967 के चतुर्थ आम चुनाव के बाद भारत की संघ व्यवस्था में
केंद्र व राज्यों के मध्य संघर्ष की स्थिति का प्रारंभ हुआ। इस समय अनेक राज्यों
में गैरकॉग्रेसी सरकारों के गठन से केंद्र राज्य संबंधों का नया समीकरण प्रारंभ
हुआ। यह काल भारत में संघवाद के लिए परीक्षा का काल था। संघवाद का यह अर्थ नहीं कि
केंद्र में जिसदल का शासन है सभी राज्यों में भी उसी दल का शासन रहे। इसकी संविधान
में न तो कोई कल्पना है और न ही इसकी आवश्यकता ही। संघ का सीधा आशय है इसमें
शक्तियों का विभाजन है और अधिकारों का तालमेल भी।[2] गैरकॉंग्रेसी सरकारें राज्यों को अधिक स्वायत्तता देने की मांग करती रहीं।
तमिलनाडु सरकार ने डॉ. राजमन्नार की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की थी ताकि
केंद्र राज्य संबंधों की नए सिरे से जांच की जाए। इस समिति ने यह सिफारिश की कि
केंद्र को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह राज्यों की सीमा में परिवर्तन कर सके।
राज्य विधेयकों पर राष्ट्रपति की अनुमति की व्यवस्था रद्द की जानी चाहिए।
अंतर्राज्यीय नदियों के जल के वितरण संबंधी विवादों का निर्णय सरवोच्च न्यायालय
द्वारा किया जाए। केंद्र ने इन सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया। सन 1971-72 में पुनः श्रीमती गांधी के नेत्रत्व में कॉंग्रेस दल को
केंद्र तथा अनेक राज्यों में अभूतपूर्व सफलता मिलने के बाद भारतीय संघीय व्यवस्था
प्रायः एकात्मक व्यवस्था में परीणित हो गई। सामोहिक नेत्रत्व के स्थान पर अब केवल
प्रधानमंत्री का ही आदेश चलने लगा। यहां तक कि कांग्रेस शासित प्रांतों में मुख्य
मंत्री का चयन भी वहां के विधायकों के स्थान पर प्रधान मंत्री की इच्छानुसार होने
लगा। राज्यपालों को भी मनमाने ढंग से स्थानांतरित और पदच्युत किया जाने लगा। सन 1971
से 1977 तथा 1980 से 1984
का काल संघीय व्यवस्था को एकात्मकता की ओर ले जाने वाला काल कहा जा
सकता है। सन 1977 के छठे आम चुनाव में जनता पार्टी के नेतृत्व में पहली बार
केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। जनता पार्टीकी सरकार द्वारा 30-04-1977
को 9 राज्यों की विधान सभाओं को वहां की
कार्यपालिका की इच्छा के विरुद्ध समय से पूर्व भंग करने के निर्णय ने हमारी संघीय
व्यवस्था पर पुनः प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये। यही कार्य सन् 1980 में कांग्रेस आइ की सरकार ने सत्ता में आने के पश्चात किया। समीक्षकों
द्वारा दोनों सरकारों की इस कार्यवाही को लोकतंत्र की हत्या की संज्ञा दी गई। सन 1984 से 1989 में राजीव गांधी के शासन काल
में प्रधानमंत्री ने सीधे जिलाधीशों से संपर्क स्थापित करने की नीति अपनाई जिसका
अनेक राज्य सरकारों ने विरोध किया। राज्यपाल की भूमिका तथा ग्राम पंचायतों व
नगरपालिकाओं को केंद्र द्वारा सीधे अनुदान देने के प्रश्न पर केंद्र तथा राज्य
सरकारों के मध्य विवाद बना रहा। सन 1989 में केंद्र में गठित संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा विशुद्ध
संघीय व्यवस्था को अपनाने का आश्वासन देने के बावज़ूद जनवरी 1990 में अनेक राज्यपालों से त्यागपत्र की मांग की गई। सन 1991 में नरसिंहाराव के नेतृत्व में गठित कांग्रेस मंत्रीमंडल द्वारा भी अनेक
ऐसे कदम उठाये गये जिनसे केंद्रवादी राजनीति की गंध आती है। जैसे अप्रैल 1992
में नागालैंड में राज्यपाल की बरखास्तगी तथा राष्ट्रपति शासन का
लागू किया जाना, अयोध्या की घटनाओं के पश्चात उत्तर प्रदेश
के साथ साथ 3 अन्य भाजपा शासित राज्यों मध्य प्रदेश, हिमाचल तथा राजस्थान की सरकारों को बरखास्त करने का फैंसला आदि।[3] सन 1989 के नवें आम चुनाव के पश्चात भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में
एक नए युग का सूत्रपात हुआ, जिसे बहुदलीय प्रधानता, केंद्र में त्रिशंकू संसद के गठन तथा मिली-जुली सरकारों की राजनीति का काल
कहा जा सकता है। इस काल में क्षेत्रीय दलों के प्रभाव में पर्याप्त वृद्धि हुई तथा
यह कहा गया कि इसने हमारी संघीय व्यवस्था को सुदृढ़ बनाया है। किंतु कुछ अन्य
समीक्षकों का यह मत है कि संघीय व्यवस्था को दृढ़ता केंद्र में एकदलीय बहुमत वाली
सरकार से प्राप्त हो सकती है न कि एक से अधिक दलों वाली मिली-जुली सरकार से।[4] इस प्रकार भारत की संघीय व्यवस्था, जिसका उद्भव अमेरिकी संघीय व्यवस्था की तरह
संविदा का परिणाम न होकर एक प्रशासनिक संघ की तरह हुआ है, के
क्रियान्वयन के दौरान उसके विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। यथा—अर्धसंघीय व्यवस्था, प्रतियोगी संघ व्यवस्था,
अधोमुखी संघ व्यवस्था, सहकारी संघ व्यवस्था
आदि।[5] वैश्वीकरण तथा उदारीकरण का भारतीय संघ व्यवस्था पर प्रभाव बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में प्रायः संपूर्ण विश्व में बाज़ार अर्थ
व्यवस्था को अपनाने से सभी देशों में संघ तथा इकाईयों के संबन्धों में अनेक
परिवर्तन आये। भारत में भी बाज़ार अर्थ व्यवस्था को अपनाने से एक नये युग की
शुरुआत हुई, जिसमें राज्यों ने इस व्यवस्था में एक ऋणनीतिक स्थिति प्राप्त
की। सन 1990 के दशक में केंद्र ने राज्यों को सीधे प्रत्यक्ष
विदेशी निवेष (Foreign Direct Investment) हेतु प्रोत्साहित
किया। अब केंद्रीय सहायता को वित्त पोषण के एकमात्र साधन के रूप में नहीं देखा जा
रहा है। अपने व्यय को देखते हुए राज्यों ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए परस्पर
प्रतिस्पर्धा प्रारंभ कर दी। विभिन्न देशों द्वारा भारत के विकसित राज्यों में
व्यापार कार्यालय स्थापित करना प्रारंभ कर दिया। अपने दलीय हितों से ऊपर उठकर अब राज्यों के नेताओं ने यह अनुभव किया कि यदि
उन्हें अगला आम चुनाव जीतना है तो उन्हें विकास हेतु प्रयास करने होंगे। अनौपचारिक
अन्तर्राज्यीय संपर्क बढ़ा और एक राज्य द्वारा लागू की गयी सफल योजनाओं का दूसरे
राज्यों द्वारा अनुकरण किया जाने लगा। जो राज्य पिछड़े या बीमार राज्य की श्रेणी
में आते थे उन्होंने भी आगे बढ़ने हेतु प्रयास प्रारंभ कर दिये। इस प्रकार भारत की
संघीय व्यवस्था अधिक कार्यात्मक बन गयी है।[6] बाज़ार अर्थ व्यवस्था का भारतीय संघीय व्यवस्था पर प्रभाव सन 1990 से पूर्व भारत में प्रचलित आदेश अर्थव्यवस्था (Command Economy), जो कि एक मिश्रित अर्थव्यवस्था थी और केंद्रीय नियोजित हस्तक्षेप और आयात प्रतिस्थापन वाली नीति पर आधारित थी, ने जहां एक ओर भ्रष्टाचार तथा अक्षमता को बढ़ावा दिया वहां दूसरी और इसने भारत की संघीय व्यवस्था के साथ साथ केंद्र राज्य संबन्धों को भी प्रभावित किया।[7] पूर्वोदारीकरण युग में राज्यों में औद्योगिक विकास प्रायः केंद्र द्वारा
राजनीतिक पक्षपात पर आधारित होता था। 1980 के दशक में केंद्र राज्य संबन्धों पर
विचार करने हेतु गठित सरकारी या आयोग द्वारा भी इस बात को अनुभव करते हुए कर्नाटक
का उदाहरण देकर यह विचार व्यक्त किया गया कि सार्वजनिक इकाईयों का स्थान न केवल
राजनीतिक विचारों से प्रभावित था बल्कि कर्नाटक सरकार का कांग्रेस द्वारा शासित न
होने के कारण वहां अनेक निजी क्षेत्र के उद्योगों की स्थापना को बाधित किया गया।[8] आदेश अर्थ व्यवस्था के युग में उद्योगों की स्तापना हेतु लाइसन्स की अनिवार्यता से जहां उद्योगों के विकास को नियंत्रित किया गया, वहां केंद्रीय योजना के माध्यम से, औद्योगिक नीति के नियंत्रण के माध्यम से और अखिल भारतीय सेवाओं के माध्यम से राज्यों की स्थिति अत्यधिक दुर्बल हो गयी। इतना ही नहीं संवर्ती सूची का सहारा लेकर, जिसमें आर्थिक और सामाजिक नीतियां शामिल हैं, केंद्र सरकार ने ग्रामीण विकास, कृषि, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण जैसे राज्यों को प्राप्त विषयों में भी हस्तक्षेप किया और इन विषयों पर निर्णय लेते समय राज्यों से कोई चर्चा नहीं की जाती थी। केंद्र सरकार द्वारा राज्यों की सरकारों के परामर्श के बिना राज्यपालों की नियुक्ति, केंद्र से राज्यों को संसाधनों का पक्षपातपूर्ण वितरण तथा संविदान की धारा 356 का अत्यधिक प्रयोग केंद्र तथा राज्यों के संबन्धों को सौहार्दपूर्ण बनाने के मार्ग में प्रमुख बादा बने रहे इसीलिए के. सी. व्हीयर (1963) ने भारतीय संघ व्यवस्ता को अर्धसंघीय व्यवस्था तथा खान (1997) ने इसे केंद्रीकृत, दुष्क्रियाशील एवं कालभ्रमित संघीय व्यवस्था के रूप में चित्रित किया है।[9] सन 1990 के पश्चात भारतीय संघीय व्यवस्था में जो परिवर्तन आया,
उसके लिए अनेक कारक उत्तरदायी हैं। यथा—राज्यों
का असंतोष, दलीय प्रणाली में परिवर्तन, राजनीति का क्षेत्रीकरण, अर्थ व्यवस्था का उदारीकरण
और न्यायपालिका की भूमिका आदि। केंद्र अथवा संघ सरकार की शक्तियों में कमी करने में भारत की न्यायपालिका की
भूमिका महत्वपूर्ण रही है। केशवानंद भारती के वाद में संविधान के मूल ढांचे के जिस
सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया था उसे आगे आने वाले न्यायिक निर्णयों में और अधिक
स्पष्ट कर दिया गया तथा संघात्मक व्यवस्था को संविधान के मूल ढांचे के अनिवार्य
तत्व के रूप में स्वीकार कर लिया गया।[10] 1990 के दशक को भारतीय संघीय राजनीति के लिए एक परिभाषिक दशक के
रूप में जाना जा सकता है। उदारीकरण के परिणामस्वरूप हुए आर्थिक सुधारों ने शासन के
विभिन्न स्तरों की भूमिकाओं तथा उत्तरदायित्वों को प्रभावित किया। बाज़ार अर्थ
व्यवस्था के उद्भव ने जहां लाईसन्स राज को समाप्त कर या वहां उद्योगों के मामले
में केंद्र सरकार की अंतिम निर्णायक भूमिका को भी समाप्त कर दिया। अब भारतीय और
विदेशी राजधानियों को उन क्षेत्रों की तलाश है जो अधिक रिटर्न प्रदान कर सकें। अब
राज्य सरकारें उद्यमियों के साथ सीधे बातचीत कर सकतीं हैं। इसने निवेश को आकर्षित
करने के लिए विभिन्न राज्यों के मध्य प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित किया। यहां वे
राज्य अधिक लाभ की स्थिति में हैं जिनके पास अधिक साधन- जैसे बड़े बाज़ार,
बेहतर बुनियादी ढांचा, अधिक कुशल श्रम की
उपलब्धता आदि, उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप आये परिवर्तनों ने योजना आयोग
की भूमिका को इतना कम कर दिया कि उसे सन 2015 में समाप्त कर दिया गया तथा उसका स्थान
अब एक नयी संस्था नीति आयोग (National Institute of Transforming India) ने ले लिया है। पूर्व के योजना आयोग ने वित्त आयोग की जिस भूमिका को
दुष्प्रभावित किया था, अब वित्त आयोग ने अपनी वास्तविक
भूमिका पुनः प्राप्त कर ली है। वर्तमान समय में राज्यों ने अनेक उपकरणों को अपनाया है, जो स्तानिक
कूटनीति (Para diplomacy) के अन्तर्गत आते हैं। यथा—केंद्र सरकार पर उनके क्षेत्र हित पर प्रभाव डालने वाली संधियों पर
हस्ताक्षर करने या न करने के लिए दबाव डालना, बाहरी निकायों
के साथ व्यापार वार्ता, विश्व बैंक के साथ सीधे ऋण पर बातचीत,
विदेशों में राज्यों की उपलब्धियों को प्रदर्शित करना आदि। मीडिया
तथा संचार की आधुनिकतम तकनीक के प्रयोग द्वारा राज्य अपनी उपलब्धियों का अधिक से
अधिक प्रचार करते हैं तथा अन्य राज्यों की उपलब्धियों से तुलना भी करते हैं। विदेशी निवेषकों में यह बात स्पष्ट हो गयी है कि अब भारत के राज्य आर्थिक
नीतियों के संचालन में पूर्व की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र हो गये हैं और किसी राज्य
में अपने व्यापार को बढ़ाने हेतु केंद्र सरकार से संपर्क करने की पुरानी पद्धति अब
कारगर नहीं हो सकती। वस्तु तथा सेवा कर (Goods and Services Tax GST) तथा भारतीय संघ
व्यवस्था वस्तु और सेवा कर अधिनियम के लागू होने से भारतीय संघीय व्यवस्था अधिक सहकारी संघीय व्यवस्ता का रूप ग्रहण करती जा रही है। यद्यपि भारत का राजनीतिक एकीकरण स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देशी रियासतों के भारतीय संघ में विलय से संपन्न हो गया था तथापि उसका आर्थिक एकीकरण अब वस्तु तथा सेवा कर अधीनियम के पारित होने तथा क्रियान्वित होने के पश्चात संभव हो पाया है। वस्तु तथा सेवा कर (जी.एस.टी.) की नवीन व्यवस्था को लागू करके केंद्र तथा राज्य सरकारों ने सहकारी संघवाद की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल की है। इस व्यवस्था के द्वारा दोनों सरकारों ने अपनी कर लगाने की शक्ति का समर्पण करके संपूर्ण देश में एक कर प्रणाली को लागू किया है। जनता के हित में यह समर्पण पूर्व में इस हेतु गठित मंत्रियों की एक समिति के तथा बाद में जी.एस.टी.परिषद के प्रयासों के द्वारा संभव हो सका है। जी.एस.टी.परिषद का गठन भी सहकारी संघवाद का एक अनुपम उदाहरण है। इस परिषद के
सदस्यों में केंद्रीय वित्त मंत्री, केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री तथा समस्त
राज्यों के वित्त मंत्री सम्मिलित होते हैं। परिषद के एकतिहाई मत केंद्र सरकार के
पास तथा दोतिहाई मत राज्य सरकारों के पास होना भी सहकारी संघवाद का प्रमाण
प्रस्तुत करता है। यद्यपि इसके विधान में निर्णय तीन चौथाई मतों से लिए जा सकते हैं,
तथापि अब तक प्रायः निर्णय सर्वसम्मति से ही लिए गए हैं। वस्तु तथा सेवा कर व्यवस्था से जुड़े कुछ अन्य तथ्यों के अध्ययन से भी इसकी
सहकारिता की प्रवृत्ति को अनुभव किया जा सकता है। प्रथमतः संपूर्ण देश में
केंद्र तथा राज्य सरकारों ने जी.एस.टी. के लिए एक समान कानून बनाये हैं। दूसरे
दोनों सरकारों द्वारा एक सी पारीभाषिक शब्दावली को अंगीकार किया गया है। तृतीय
दोनों ने एक सी प्रक्रिया को अपनाया है। इसके अतिरिक्त शिकायतों के निवारण हेतु
संयुक्त व्यवस्था को अपनाया गया है। इस नवीन व्यवस्था में अधिकारियों के प्रशिक्षण
की भी संयुक्त व्यवस्था की गई है। वस्तु तथा सेवा कर व्यवस्था के सफल क्रियानवयन
हेतु जी.एस.टी. परिषद ने त्रिस्तरीय व्यवस्था की है। 1. राजस्व सचिव का पद, 2. जी .एस.टी. क्रियान्वयन समिति तथा 3. तदर्थ समितियां। विभिन्न राज्य सरकारों तथा केंद्र के प्रतिनिधियों से गठित क्षेत्रीय समूहों
के द्वारा वस्तु तथा सेवा कर व्यवस्था को क्रियान्वित किया जा रहा है। |
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प्रयुक्त उपकरण | इस शोधपत्र हेतु भारतीय संघीय व्यवस्था से संबन्धित विभिन्न पुस्तकों तथा इंटरनेट पर उपलब्ध विभिन्न शोध पत्रों तथा आलेखों के अध्ययन की पद्धति को अपनाया गया। | ||||||
निष्कर्ष |
परिवर्तन प्रकृति का
नियम है। भारत की संघीय व्यवस्था भी समय और परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ साथ
परिवर्तित होती रही है। भारतीय संघवाद की सबसे सही व्याख्या यही होगी की विभिन्न
कालों में इसके विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। इतना ही नहीं एक ही समय पर हमें
संघवाद के विविध रूप देखने को मिलते हैं--यथा सहकारी संघवाद,
प्रतियोगी संघवाद, सौदेबाज़ी वाला
संघवाद आदि। वस्तुतः भारत में संघवाद की सफलता केंद्र तथा राज्य सरकारों के मध्य
सौहार्दपूर्ण संबंधों पर निर्भर है। यदि राज्य सरकारें अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की
पूर्ति हेतु केंद्र सरकार पर निर्भर हैं तो केंद्र सरकार भी अपनी नीतियों तथा
योजनाओं के क्रियानवयन हेतु राज्य सरकारों पर निर्भर है। दोनों के सहियोग अर्थात
सहकारी संघवाद के द्वारा ही सांस्कृतिक विविधता वाले इस विशाल देश का विकास संभव
है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. New trends & Models in Federalism S.M.ALIFF
1OSR Journal Of Humanities And Social Science (IOSR-JHSS) 2. कुमार प्रशांत का लेख केंद्र
राज्य रिश्तों का ऊंचा समीकरण नवभारत टाईम्स 27 सितंबर 1981
3. Federalism in India: Emerging trends and Future
Outlook by R.B. Jain 4. Development of cooperative federalism in India
by Anusha Singh 5. भारतीय राजनीतिकव्यवस्था डी.बी.
ताइलखंड 2 अध्याय 7 6. Current Trends and Issues in Indian Federalism
by Prakash Chandra Jha Indian Journal of Public Administration June 2019 7. Nair B.R. Globalization, the state, and India’s
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the Indian federal union: Original intent, contemporary content. PP.52-53 |