P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- XII August  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika

पर्यावरण विमर्श और समकालीन उपन्यास

Environmental Discourse and Contemporary Fiction
Paper Id :  18024   Submission Date :  2023-08-11   Acceptance Date :  2023-08-19   Publication Date :  2023-08-25
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बिजय रवानी
सहायक प्राध्यापक
हिन्दी विभाग
महाराजा श्रीशचंद्र कॉलेज, रामकान्तो बोस स्ट्रीट
कोलकाता,पश्चिम बंगाल, भारत
सारांश

मनुष्य ने जब से आँख खोला है तब से प्रकृति पर्यावरण में ही पाया है| यह अध्ययन समकालीन उपन्यास में पर्यावरण विमर्श को रेखांकित करता है| यह शोध पत्र अन्वेषणात्मक शोध प्रणाली पर आधारित है| इस अध्ययन में नवीन स्रोतों का प्रयोग किया गया है, जो पूर्व के अध्ययनों से अलग है तथा समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं| समकालीन लेखकों ने स्वतंत्रता के बाद हिंदी उपन्यास में अपनी एक अलग पहचान बनायी हैं| उनमें नासिरा शर्मा, संजीव, महुआ माजी, रणेन्द्र, कुसुम कुमार आदि का नाम सर्वोपरि है| इन सभी रचनाकारों के उपन्यास में पर्यावरण का मुद्दा पूरे जोर शोर के साथ उठाया है| वें इन मुद्दे को केवल उठाते ही नहीं अपितु उसके कारणों की तलाश भी करते हैं| नासिरा शर्मा ने अपने उपन्यास कुइयाँजानमें जल की समस्या को चित्रित किया है, तो संजीव ने अपने कथा साहित्य में कोयला खनन से प्रकृति एवं मनुष्य किस तरह तबाह हो रहे हैं, उसे रेखांकित किए है| महुआ माजी ने अपने उपन्यास मरंग गोंड़में यूरेनियम खदानों से निकलने वाले विकिरण, प्रदूषण के मुद्दे को उठाया है| राणेन्द्र ने अपने उपन्यास में प्राकृतिक पर्यावरण को हो रहे नुकसान से किस प्रकार जीवों का अस्तित्व कैसे धीरे- धीरे मिटता है इसका स्पष्ट चित्रण अपने उपन्यास में किया है| आज सभी बुद्दिजीवियों को गंभीरता के साथ विचार विमर्श करना होगा कि कैसे पर्यावरण को बचाया जाये? अगर पर्यावरण है तो मनुष्य, जीव-जंतु, प्राणी का अस्तित्व है|

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Ever since man has opened his eyes, he has found nature in the environment. This study underlines the environmental discourse in contemporary novels. This research paper is based on exploratory research method. New sources have been used in this study, which are different from previous studies and are very important for the society. Contemporary writers have created their own identity in Hindi novels after independence. Among them the names of Nasira Sharma, Sanjeev, Mahua Maji, Ranendra, Kusum Kumar etc. are paramount. The issue of environment has been raised with full force in the novels of all these writers. He not only raises these issues but also looks for their reasons. Nasira Sharma has depicted the problem of water in her novel 'Kuiyanjaan', while Sanjeev in his fiction has underlined how nature and humans are being destroyed by coal mining. Mahua Maji has raised the issue of radiation and pollution emanating from uranium mines in her novel ‘Marang Gond’. Ranendra has clearly depicted in his novel how the existence of living beings gradually disappears due to the damage being caused to the natural environment. Today all the intellectuals will have to seriously discuss how to save the environment? If there is environment then humans, animals and creatures exist.
मुख्य शब्द पर्यावरण, समकालीन उपन्यास, जल, वायु, स्वास्थ, कोयला खनन, परिवेश, नदी, बाक्साइड, यूरेनियम आदि |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Environment, Contemporary Novel, Water, Air, Health, Coal Mining, Environment, River, Bauxide, Uranium etc.
प्रस्तावना

पृथ्वी पर्यावरणीय तत्वों से बनी है| पर्यावरण के विभिन्न घटकों और अवयवों के बीच ही जीवन का अस्तित्व निर्भर करता है| अतः पर्यावरण हमारे चारों ओर उपस्थित प्राकृतिक और अप्राकृतिक परिस्थितियों का योग है| जो मनुष्य को प्रभावित करता है और मनुष्य जिसे प्रभावित करता है| पर्यावरण संतुलन न केवल मानव जाति के लिए बल्कि संपूर्ण पृथ्वी पर पाए जाने वाले समस्त जीवों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है| पर्यावरण प्रबंध के प्रति मानव की संवेदनशीलता को केवल वर्तमान में ही नहीं बल्कि प्राचीन समय में भी देखा जा सकता है|

अध्ययन का उद्देश्य

इस शोध आलेख का मूल उद्देश्य है कि पर्यावरण के प्रति लोगों को ध्यान आकृष्ट कराना| अगर पर्यावरण के साथ हम खिलवाड़ करेंगे तो जीव-जंतु का अस्तित्व ख़त्म हो जायेगा| प्रकृति ने हमें नाना प्रकार के स्वास्थ संबंधी उपहार दिया है और आज हम प्रकृति को इतना दोहन कर रहे हैं कि प्राकृतिक संसाधन बहुत ही सीमित मात्रा में है| अगर हम अभी भी सचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब सारे गोचर-अगोचर प्राणी ख़त्म हो जायेंगे| इन्सानी वजूद कायम रखने के लिए प्रकृति एवं पर्यावरण को सुरक्षित रखना जरुरी है|

साहित्यावलोकन

इस शोध आलेख में, लेखक ने उद्देश्यपूर्ण अध्ययन अवलोकन पद्धति को अपनाया क्योंकि इस पद्धति का उपयोग सामूहिक व्यवहार के अध्ययन के लिये किया जाता है| संजीव के उपन्यास ‘धार’ और ‘सावधान नीचे आग है’ में तेजाब की फैक्ट्री से निकलने वाला तेजाब पीने वाले जल में मिल जाने से वहाँ के लोग बीमार पड़ जाते हैं और कोयला खनन पर ये दोनों उपन्यास आधारित है| नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘कुइयाँजान’ में जल की समस्या को चित्रित किया गया है| महुआ माजी का उपन्यास ‘मरंग गोड़ा’ यूरेनियम खदानों से निकलने वाले विकिरण, प्रदूषण पर आधारित है| कुसुम कुमार का ‘मीठी नीम’ (2012) प्रकृति को लक्षित कर लिखा गया है| राणेन्द्र का उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ बाक्साईड खनन के दुष्परिणामों को रेखांकित करता है| संजीव कृत ‘रह गई दिशाएँ इसी पार’ (2011) में वे प्रकृति के साथ मानव जीवन को किस तरह वैज्ञानिकों द्वारा क्लोनिंग और जेनेटिक्स के क्षेत्र में होने वाले विकृतियों का उल्लेख किया है| अभय मिश्र के उपन्यास ‘माटी मानुष चून ‘(2019) में प्रकाशित उपन्यास में फरक्का बाँध के टूटने से आई प्रलय का वर्णन है| आर. राजगोपाल की पुस्तक 'पर्यावरण एवं परिस्थितिकी' (2023) में पर्यावरण के मुख्य बिन्दुओं पर उल्लेख किया गया है| इस पुस्तक में पर्यावरण से संबंधित मुख्य घटनाओं का समावेश हुआ है|

मुख्य पाठ

मनुष्य आज जिन उपलब्धियों पर गर्व कर रहा है वह उपलब्धियां उनके सामने विनाश और त्रासदी बन कर खड़ी है| आज हम ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्यायों से गुजर रहे हैं, लगातार हो रहा प्रदूषण चिंता का विषय है| उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के नाम पर जिन ऊँचाईयों को हम छू रहे हैं वह विनाश की ओर ले जा रही है| रोहणी अग्रवाल कहती हैं –“विज्ञान प्रोद्योगिकी और सूचना तकनीक के जरिये मनुष्य जिस तेजी से लंबी और ऊँची छलांग लगाते हुए लगातार दूरियाँ तय कर रहा है और उसी अनुपात में प्रकृति के साथ मुठभेड़ कर रहा है न जाने कब उसके सामने एक बड़ी त्रासदी का सामना आ जाय |"[1]

आज मनुष्य इतना उपभोक्तावादी हो गया है कि अपने क्षणिक लाभ के लिए प्राकृतिक तत्वों का विनाश करता है| पूंजीवादी प्रणाली प्रारंभ से लेकर आज तक प्रकृति को दोहन करती आ रही है| उसे केवल मुनाफे से मतलब है मनुष्य पर उसका क्या असर हो रहा है उससे उसका कोई संबंध नहीं है| आज पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में बड़ी -बड़ी खदान, फैक्ट्री या कारखाना स्थापित हो रहा है| इन खदानों या कारखानों से नैसर्गिक तत्वों को निकाला जाता है तब हम एक ओर भौतिक सुखसुविधाओं का लाभ लेते हैं| इस बात पर हम विचार नहीं करते कि पर्यावरण पर क्या प्रभाव पर रहा है| भारत वर्ष के जितने भी बड़ेबड़े स्टील प्लांट हैं चाहे वह वर्णपुर स्टील प्लांट हो या दुर्गापुर स्टील प्लांट हो, इनसे विषैली गैस निकलती हैं और लोहे के छोटे-छोटे कण निकलते हैं उससे वातावरण को क्षति पहुँचता है और जो गैस निकलता है, उस गैस से वहाँ के लोगों के शारीर में जाकर अनेक तरह की बीमारियाँ पैदा होती है| उसी तरह जहाँ ओपन कोयले का खदान चल रहा है| वहाँ कोयला के छोटेछोटे कण वातावरण एवं मनुष्य को नुकसान पंहुचा रहे है| उस क्षेत्र के पेड़-पौधों में वृद्धि नहीं हो पाती है और हमेशा मुरझाया रहता है एवं वहाँ के लोगों में ब्रोंकाइटीस नामक बीमारी हो जाती है| जिससे वहाँ के लोगों में साँस लेने में तकलीफ होती है| इसी तरह कल-कारखानों से निकलने वाली जहरीला पानी, हवा वातावरण को दूषित कर देती है, और वहाँ के लोग विभिन्न तरह के रोग से ग्रसित हो जाते हैं| अब तो मोबाईल से निकलने वाले विकिरण से अनेक छोटे-छोटे जीव-जन्तु मारे जा रहे है | इस तरह बहुत से उदाहरण हमारे समाज में देखे जा सकते है |

समकालीन उपन्यास में मनुष्य जीवन की कथाव्यथा, उसका स्पंदन व उसकी महाकाव्यात्मक पीड़ा को अभिव्यक्त करता है| वह समाज को व्यापक रूप में अपनी अभिव्यक्ति प्रक्रिया के साथ- साथ जोड़ देता है| कई उपन्यासकारों ने पर्यावरण का मुद्दा पूरे जोर शोर के साथ उठाया है| वे इस मुद्दे को केवल उठाते ही नहीं अपितु उसके कारणों की तलाश भी करते हैं| आज जिस तेजी के साथ वृक्षों की कटाई हो रही है उसके गंभीर परिणाम सामने प्रस्तुत हो रहे हैं| नासिरा शर्मा ने अपने उपन्यासकुइयांजानमें जल की समस्या को चित्रित किया है| पानी की किल्लत का ज्वलंत चित्रण कुछ इस तरह है– “महले के कुएं बरसों पहले बाट दिए गए थे| मस्जिद वाली गली के अन्दर वाली गली में वहाँ पक्के बड़े-बड़े घर थे उसके यहाँ भी पानी की हाय -तोबा मची थी| शिव मंदिर के पुजारी भी बिना नहाए परेशान बैठे थे| उन्होंने न मंदिर धोया था न भगवान् को भोग लगया था| उसके सारे गागरेलोटे खाली लुढ़के पड़े थे| नल की टोटी पर कई बार कौआ पानी की तलाश में आ -आकर बैठ उड़ चुका था|"[2] इस चित्र के माध्यम से लेखिका ने जल संकट की गंभीर समस्यां की ओर ध्यान केन्द्रित किया है| आज यदि हमने जल (पर्यावरण) के महत्त्व को नहीं समझा तो कोई शक्ति हमारा साथ नहीं दे सकती है| आज जल के संकट पर भी वैज्ञानिकों ने चिंता व्यक्त की है और कहा है कि एक दिन जल की समस्या के कारण विश्व की दो तिहाई आबादी तबाह होंगी|

संजीव ने अपने उपन्यासधार’ में तेजाब की फैक्ट्री से निकलने वाला तेजाब पीने वाले जल में मिल जाने से वहाँ के लोग बीमार पड़ जाते है और स्वास्थ संबंधी बिमारी होती है उसी पर आधारित है| इस उपन्यास की नायिका मैना पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए अपने पिता और पति से बगावत करती है| वह कहती है –“मैं ऐसे पिता और पति को देखना पसंद नहीं करती जो तेजाब की फैक्ट्री खोलने की चाहत रखता है| वह चाहती थी कि हर प्रकार से यहाँ के लोगों  के स्वास्थ की रक्षा हो सके| वह लोगों की स्वास्थ्य को बचाना चाहती थी|"[3] इस उपन्यास में जल (पर्यावरण) को रेखांकित किया गया है कि किस तरह तेजाब की फैक्ट्री खुलने से एक भी कुआ का पानी पीने लायक नहीं रह गया है| यहाँ काम करने वाले बाहर के मजदूर बीमार होकर चले जाते हैं| उनके दूसरे उपन्याससावधान नीचे आग हैधनबाद जिला (झारखण्ड) की चन्दनपुर कोयला खादान पर आधारित इस उपन्यास में प्राकृतिक संसाधनों के असीमित शोषण, जमीन की दुर्गति, कोयले से निकलने वाली हानिकारक मीथेन आदि गैसों से होते जलवायु प्रदूषण, जल संकट आदि का उल्लेख मिलता है| वे लिखते हैं– “ट्रकें धुंध की एक मोटी परत बिछाकर जा चुकी थी| अब महसूस होने लगा था कि वह कोयलांचल में है और झरिया में है| आग की नदी दामोदर और धुआँसे का शहर झरिया| कुहासा नहीं, धुआँसा| धू, धुआँ और कुहासाइनसे मिलकर एक शब्द बनता है धुआंसा| श्मशान की चिता की तरह जगह-जगह जलते कोयले| विशाल रवात गह्वरों में कसमसाती पोखारियां, रवादों के मलवों से झंकारता सांय-सांय सन्नाटा| जहाँ-तहाँ रेल लाइनों के जाल, पंक्ति-पंक्ति खड़ी मालगाड़ियाँ उच्छवास फेंकते स्टील इंजन .... रात डाल जाती है रोज एक काली परत की झिल्ली|"[4] संजीव जी की इस पंक्ति से स्पष्ट होता है कि दामोदर नदी और झारियां शहर पूरा प्रदूषित क्षेत्र हो गया है जिससे मानव जीवन को अनेक बीमारियों की गिफ्ट से नहीं बचाया जा सकता है| ऐसे प्रदूषित वातावरण में न केवल मानव जीवन खतरे में है बल्कि पशु-पंक्षी, वन्य जीव-जन्तु के लिए भी अस्तित्व का खतरा है| इस उपन्यास में कोयला खदान में जो डाइनामाईट से ब्लास्ट होता है उससे साथ कोयला खदान से अनेक प्रकार के जो गैस निकलते हैं, उससे वहाँ के लोगों में दमें की बीमारी का शिकार होना पड़ता है| इस उपन्यास में जल (पर्यावरण) और वायु (पर्यावरणपर चिंतन किया गया है|

महुआ माजी का उपन्यासमरंग गोड़ा नीलकंठ हुआझारखण्ड के यूरेनियम खदानों से निकलने वाले विकिरण, प्रदूषण पर आधारित उपन्यास है| इस उपन्यास ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है कि यूरेनियम के रेडियेशन और उससे उपजे स्वास्थ संबंधी दुष्प्रभावों का| उपन्यास में विनाश के व्यापक खतरों की ओर संकेत करते हुए महुआ माजी लिखते हैं कि– “परमाणु संयंत्रों में एक हजार मेगावट बिजली पैदा करने से करीब 27 किलोग्राम रेडीओधर्मी कचरा उत्पन्नं होता है और उसे निष्क्रिय होने में एक लाख साल से भी ज्यादा समय लग जाता है|"[5] यूरेनियम के कचड़े का पानी की पतली धारा आकर एक नाले की मार्फ़त गिर रही होती है और यही नाला आगे चलकर झारखण्ड की एक प्रसिद्ध नदी सुवर्णरेखा नदी बंगाल की खाड़ी में जाकर मिलती है, लगभग दस हजार वर्ग किलोमीटर तक के लाखों लोगों की प्यास बुझाती है| जलीय जीव-जंतुओं पर विकिरण का प्रभाव का वर्णन उपन्यास में कुछ इस प्रकार किया गया है– “जहरीली हो गई है यहाँ की मछलियाँ| खाने से पेट में येठन होती है, जी मिचलता है| वैसे मछलियों की मात्रा काफी घट गई है आजकल| कितने सांप, मेढ़क, बिच्छु मरते रहते हैं|"[6] इस उपन्यास में जल प्रदूषण (पर्यावरणको उद्घाटित करता है|

रणेंद्र के उपन्यासग्लोबल गाँव के देवतामें विकास की प्रक्रिया में प्रकृति एवं उस पर आश्रित जीवों का अस्तित्व कैसे धीरे -धीरे मिटता है इसका स्पष्ट चित्रण इस उपन्यास में है| साथ ही बांक्साइड के खनिज के लिए प्रकृति एवं लोगों का किस प्रकार शोषण हो रहा है, उसे रणेंद्र ने गंभीरता से उठाया है| रणेंद्र कहते हैं– “पहले ही शर्त को दरकिनार करते हुए खदानों से बाक्साइड की निकासी के बाद गढ्ढे भरने की बजाय यों ही छोड़े जा रहे थे| लाभ का कुछ भी हिस्सा लोगों के विकास पर कम्पनियाँ खर्च नहीं करती थी| न पीने का पानी की व्यवस्था, न हास्पिटल,  मलेरिया-डायरिया की रोकथाम का कोई इन्तजाम|"[7] ‘ग्लोबल गाँव का देवताउपन्यास में यह दिखाया गया है कि बाक्साइड खनन जो किया जा रहा है वह प्रकृति के विरुद्ध और मानव जाती-प्राणी, जी-जंतु आदि का शोषण एवं दोहन हो रहा है| बक्साइट खनन के बाद पूरा जमीन एवं जंगल ख़राब हो गया| जानवरों के चरने के लिए कोई घास नहीं रह गया है| भूमि को इस कदर बरबाद कर दिया गया है कि वहाँ के लोगों में प्रदूषण रहित जल, एवं वायु मिल रहे हैं| जिसके कारण वहाँ के लोगों में दूषित जल पीने से डायरिया होते रहता है| जल-जमाव के कारण मलेरिया लोगों में होता है| खनन में जो डाइनामाइट का प्रयोग होता है| उससे निकलने वाली वायु से लोगों में दमा नामक बीमारी होती है| रणेंद्र के इस उपन्यास में जल एवं वायु प्रदूषण के कारण किस तरह पर्यावरण को नुकसान हो रहा है उसका वर्णन है|

कुसुम कुमार कामीठी नीमएक ऐसा ही उपन्यास है जिसमें मानवीय क्रियाकलापों द्वारा होने वाले प्रकृति में परिवर्तनों को लक्षित किया गया है और इससे पारिस्थितिक संतुलन भी बिगड़ने लगा है जिससे ऋतुएं भी समय से नहीं आती| धरती से हरियाली का स्थान सीमेंट की बनी पक्की सड़कों और बहुमंजिला इमारतों ने लिया है| इसी की ओर संकेत करते हुए उपन्यास में पृथ्वी को हरा भरा बनाने की अपील की गई है| संजीव अपने उपन्यासरह गई दिशाएँ इस पारमें लिखते हैं कि– “जीवन-मृत्यु, काम व प्रजनन, पदार्थ और अध्यात्मक रहस्य गुथ्थियों को सुलझाकर मनुष्य ने अनावश्यक हस्तक्षेप किया| अब तो आसमान और चाँद पर भी छलांग लगा दिया|"[8] उनका कहना है कि मनुष्य जहाँ भी पहुँचेगा वह प्रकृति के साथ खेलवाड़ करने लगेगा| अभय मिश्र अपने उपन्यासमाटी मानुष चूनमें लिखते हैं कि- “गंगा में मौजूद आर्सेनिक जो कभी मानव जाति के लिए खतरा नहीं बना वो अब इतना खतरनाक बन कर उभरा है कि बनारस से बलिया तक का क्षेत्र कैंसर का शिकार हो रही है|”[9]

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रकृति इन्सान की जरूरतों को पूरा कर सकती है, उसकी लालच को नहीं| क्योंकि प्रकृतिक संसाधन बहुत ही सीमित मात्रा में है| अगर हम अभी से सचेत नहीं हुये तो वह दिन दूर नहीं जब सारे गोचर–अगोचर प्राणी ख़त्म हो जायेंगे| समकालीन उपन्यासकारों ने अपने-अपने उपन्यासों में जो समस्यायें उठायी हैं वह यथार्थ है एवं पर्यावरण प्रदूषण से होने वाले नाना प्रकार की बीमारियों से सम्बंधित जिन मुद्दों को समाज के सामने उठाया है| उस पर सभी बुद्धिजीवियों को गंभीरता के साथ विचार-विमर्श करना होगा| साथ ही विकास के अन्य माडलों की खोज करनी होगी तभी इन्सानी वजूद कायम रह सकेगा अन्यथा नहीं| जिस प्रकार पानी के बिना मछली का अस्तित्व न के बराबर है, उसी तरह पर्यावरण के बिना मनुष्य मछली के समान अस्तित्व बिहीन हो जायेगा| नई परिस्थिति सभ्यता वैज्ञानिक प्रगति या तकनीकि विकास की विरोधी नहीं, बस इसके अंधाधुंध दुष्प्रयोगों की विरोधी है|

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. https:www.hindisamay.comcontent49111
2. नासिरा शर्मा, कुइयाँजान, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2005,पृ.87
3. संजीव, धार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-1990, पृ.-13
4. संजीव, सावधान निचे आग है, राधा कृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-1986 पृ.-12-13
5. माजी महुआ, मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ, राजकमल प्रकाशन, 2015 पृष्ट.-37
6. वही, पृष्ट.-38                     
7. रणेंद्र, ग्लोबल गाँव के देवता, प्रकाश भारती ज्ञान पीठ प्रकाशन-2009, पृ.-51
8. संजीव, रह गई दिशाएँ इसी पार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष– 2011, पृ. 169
9. मिश्र अभय, माटी मानुष चून, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष– 2019, पृ. 137