ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- VII August  - 2023
Innovation The Research Concept

कोणार्क का सूर्य-मन्दिर

Sun Temple of Konark
Paper Id :  18069   Submission Date :  2023-08-13   Acceptance Date :  2023-08-21   Publication Date :  2023-08-25
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DOI:10.5281/zenodo.8364256
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धर्मेन्द्र कुमार तिवारी
विषय विशेषज्ञ
प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय
लखनऊ,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश

प्राचीन भारत में अन्य देवी-देवताओं की भांति भगवान सूर्य के मन्दिरों का निर्माण भी विभिन्न राजवंशों द्वारा अनवरत् करवाया जाता रहा। भारत के विभिन्न दिशाओं से इन मन्दिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं। इन प्राचीन सूर्य मन्दिरों में उड़ीसा स्थित कोणार्क का सूर्य-मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है, जो आज भग्नावस्था में भी अपनी भव्यता से आम जन-मानस को चमत्कृत कर देता है। भविष्य, साम्ब और स्कन्द आदि पुराणों में जिन तीन प्रमुख मन्दिरों का उल्लेख किया गया है, उनमें से एक कोणार्क का मन्दिर भी है। इस मन्दिर के भग्नावशेष अपनी खण्डित अवस्था में भी भव्यता लिए हुए पुरी से लगभग 20 कि.मी. उत्तर-पूर्व में समुद्र के किनारे स्थित हैं। पौराणिक साहित्य में इस स्थल को सुतीर, उदयाचल, सूर्यकानन, रविक्षेत्र, मित्रवन, सूर्यक्षेत्र, अर्कक्षेत्र, आदि नाम दिए गए हैं।

कोणार्क का सूर्य मन्दिर उत्तर भारत के नागर शैली के मन्दिरों में सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं भव्य है। इस मन्दिर के सम्बन्ध में डॉ उदय नारायण राय जी का यह कथन बिल्कुल सत्य है कि- ’’इस मन्दिर के निर्माता नरसिंहदेव ने उड़ीसा के पुरी जिले में सूर्य की रश्मियों की दृष्टि से सबसे उपयुक्त भौगोलिक स्थल कोणार्क को इस रथ मन्दिर के निर्माण का स्थल चुना था। यह मन्दिर अपनी स्थापत्य कला के साथ-साथ भव्यतम् मूर्तिकला के लिए भी जगत प्रसिद्ध है।’’

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In ancient India, like other gods and goddesses, the temples of Lord Surya were also continuously constructed by different dynasties. Remains of these temples are found from different parts of India. Among these ancient Sun temples, the Sun Temple of Konark located in Orissa is the most famous, which even in its ruined state amazes the common people with its grandeur. Konark temple is one of the three major temples mentioned in the Puranas like Bhavishya, Samba and Skanda. The ruins of this temple, even in their ruined state, look grandeur towards Puri. 20 km Located on the sea shore in the north-east. In mythological literature, this place has been given names like Sutir, Udayachal, Suryakanan, Ravikshetra, Mitravan, Suryakshetra, Arkakshetra, etc.
The Sun Temple of Konark is the most famous and grand among the Nagar style temples of North India. The statement of Dr. Uday Narayan Rai ji regarding this temple is absolutely true that - "The creator of this temple, Narasimhadev, chose Konark, the most suitable geographical place from the point of view of sunlight in Puri district of Orissa, as the site of construction of this chariot temple. This temple is world famous for its architecture as well as its magnificent sculpture.
मुख्य शब्द कोणार्क, मन्दिर, नरसिंहदेव प्रथम, ब्लैक पगोडा, सूर्यकानन, रविक्षेत्र, मित्रवन, सूर्यक्षेत्र, अर्कक्षेत्र, चन्द्रभागा नदी, वय चकड़ा, गर्भगृह, जगमोहन, नाट मण्डप, सप्ताश्वरथ की वैदिक अवधारणा, रथ देउल ;मन्दिरद्ध, शिल्पशास्त्र।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Konark, Temple, Narasimhadeva 1st, Black Pagoda, Suryakana, Ravi Kshetra, Mitravana, Surya Kshetra, Ark Kshetra, Chandrabhaga River, Vaya Chakda, Garbhagriha, Jagmohan, Nat Mandap, Vedic concept of Saptashvarath, Ratha Deul (Temple), Shilpashastra.
प्रस्तावना

देवताओं के वासस्थल को अर्थशास्त्र, रामायण, एवं महाभारत में देवालय, देवायतन, देवकुल तथा देवगृह आदि शब्द का प्रयोग मिलता है। देवालय के लिए मन्दिरशब्द गुप्तकाल के अनन्तर प्रचलित हुआ प्रतीत होता है। शिल्पशास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थों में उत्तर भारत के मन्दिरों के लिए प्रासादऔर दक्षिण भारत के मन्दिरों के लिए विमानशब्द का प्रयोग मिलता है। कला एवं स्थापत्य की दृष्टि से उड़ीसा (कलिंग) के इतिहास में पांच सौ वर्ष (8वीं शती ई0 से 13वीं शती ई0 तक) काफी महत्वपूर्ण हैं। इस युग में उड़ीसा में भुवनेश्वर, कोणार्क और पुरी कला के तीन प्रमुख केन्द्र थे। पुरी से लग. 20 मील की दूरी पर कोणार्क स्थित है। यहां का सूर्य-मन्दिर कला की दृष्टि से अनुपम है। इस मन्दिर का निर्माण गंगवंशी शासक नरसिंहदेव प्रथम (1238-1264 ई.) ने करवाया था। यह मन्दिर काफी समय तक जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़ा रहा इसलिए यह काला पड़ गया और विदेशी विद्वानों द्वारा इसको इस अवस्था में देखने के बाद ब्लैक पगोडा’ ;काला पिरामिडद्ध नाम दिया गया। कोणार्क मन्दिर का निर्माण उस पौराणिक अवधारणा पर किया गया है जिसमें सूर्यदेव अंतरिक्ष में अपने वाहन रथ पर विचरण करते हैं। इस रथ को सात घोड़ों द्वारा खींचा जाता हुआ कोणार्क मन्दिर में प्रदर्शित किया गया है। कोणार्क शब्द कोण अर्थात कोना तथा अर्क अर्थात सूर्य शब्दों के योग से बना है। इसका तात्पर्य सूर्य का कोना होता है।[1]

अध्ययन का उद्देश्य

प्राचीन भारत में अन्य देवी-देवताओं की भांति भगवान सूर्य के मन्दिरों का निर्माण भी विभिन्न राजवंशों द्वारा अनवरत् करवाया जाता रहा। भारत के विभिन्न दिशाओं से इन मन्दिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं। इन प्राचीन सूर्य मन्दिरों में उड़ीसा स्थित कोणार्क का सूर्य-मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है, जो आज भग्नावस्था में भी अपनी भव्यता से आम जन-मानस को चमत्कृत कर देता है। इस मन्दिर से सम्बन्धित विभिन्न प्राचीन और आधुनिक ग्रंथों के माध्यम से प्राप्त हुए संदर्भों का उद्धरण देते हुए प्रस्तुत लेख में इस मन्दिर का विस्तृत विवरण दृष्टव्य है।

साहित्यावलोकन

पुराण, उत्तर भारत के मन्दिर, दक्षिण भारत के मन्दिर, भारतीय कला: शिल्पशास्त्र एवं प्राचीन स्थापत्य, भारतीय वास्तुकला का इतिहास, सन् वर्शिप इन एन्शेन्ट इन्डिया।

मुख्य पाठ

भविष्य, साम्ब और स्कन्द आदि पुराणों में जिन तीन प्रमुख मन्दिरों का उल्लेख किया गया है, उनमें से एक कोणार्क का मन्दिर भी है। इस मन्दिर के भग्नावशेष अपनी खण्डित अवस्था में भी भव्यता लिए हुए पुरी से लग. 20 कि.मी. उत्तर-पूर्व में समुद्र के किनारे स्थित हैं। पौराणिक साहित्य में इस स्थल को सुतीर, उदयाचल, सूर्यकानन, रविक्षेत्र, मित्रवन, सूर्यक्षेत्र, अर्कक्षेत्र, आदि नाम दिए गए हैं।[2] ब्रम्हपुराण में इसे स्पष्ट रूप से ओड देश (उत्कल) में में स्थित कोणादित्य या कोणार्क कहते हुए इसके महात्म्य का वर्णन किया गया है।[3] इस सम्बन्ध में उमियाशंकर व्यास का भी मानना है कि पुराणों में वर्णित अर्कक्षेत्र अथवा पद्मक्षेत्र ही कोणार्क है। उसके दक्षिण में एक-दो मील पर ही बंगाल की खाड़ी है उत्तर में लगभग आधे मील पर चन्द्रभागा नदी बहती है। कोणार्क मन्दिर जहां स्थित है, वहां अब कोणार्क नगर बस गया है, जो पुरी से 30 मील दूर स्थित है।[4]

कोणार्क के वैभव सम्पन्न सूर्य मन्दिर का निर्माण मध्य तेरहवीं शताब्दी में गंग वंश के शासक नरसिंहदेव प्रथम (1238-1264 ई.) ने करवाया था।[5] किंवदन्तियों के अनुसार उसने इस मन्दिर का निर्माण कुष्ठ रोग से मुक्त होने के लिए करवाया था।कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इस मन्दिर का निर्माण नरसिंहदेव ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में करवाया था। इसके निर्माण के प्रायः तीन शताब्दी बाद (लगभग 1580 ई.) अबुल फजल ने अपने आइन-ए-अकबरीमें इस मन्दिर की भव्यता का वर्णन करते हुए लिखा है कि-’’जिनकी दृष्टि आलोचनात्मक है और जो किसी वस्तु से जल्दी प्रसन्न नहीं होते, वे भी इसे देखकर चमत्कृत हो जाते हैं।’’[6] इसके बाद कभी यह मन्दिर ध्वस्त हो गया किन्तु इसकी प्रसिद्धि बराबर बनी रही। श्रीनारायण चतुर्वेदी के अनुसार-’’लग. 1759 ई. के कुछ बाद बाबा ब्रम्हचारी ने मन्दिर के खण्डहरों से अनेक मूर्तियां और स्तम्भ खोदकर निकलवाए तथा उन्हें पुरी ले गए।’’[7] एलाइस बोनर भी इसी बात को प्रमाणित करते हुए कहते हैं कि बाबा ब्रम्हचारी ने निकटस्थ गोलरा और कड़िया गांवों से लग. एक सौ आदमियों को बुलाकर उनकी सहायता से पत्थरों के ढेर के बीच में पडे़ एक सुन्दर स्तम्भ को निकलवाया। स्तम्भ को साफ करने के बाद बाबा ने अनुभव किया कि इस प्रकार का स्तम्भ सम्पूर्ण भारत में कहीं नही मिला। बहुत ही कठिनाइयों के साथ आगे बढ़ने पर उन्होंने अतिसुन्दर एवं उत्कीर्णन से युक्त एक मेहराब देखा, जिसके मध्य में सूर्य की मूर्ति का सिर दिखाई पड़ा। इसके बाद उन्होंने अनेक सुन्दर आकृतियों तथा भग्न मूर्तियों के अंगों को भी खोज निकाला, जो कला जगत की अनुपम कृतियां सिद्ध हुईं।[8] अठारहवीं शती के अन्त में उड़ीसा के राजा दिव्यसिंहदेव (1793-1798 ई.) ने भी मलबे की सफाई कराने का प्रयत्न किया। उन्हीं की आख्या सं0 41 से ज्ञात होता है कि इस कार्य के लिए उन्होंने दीवान भ्रमर पट्टनायक को 2000 मुगल टंक (चांदी के सिक्के) दिए थे। उन्होंने तीन महीने तक प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं मिली।[9]

कोणार्क के समीप स्थित गांवों से धार्मिक केन्द्रों तथा निजी संग्रहों में ताड़ पत्र पर लिखी हुई कुछ पोथियां प्राप्त हुई हैं, जिनमें से चार कोणार्क मन्दिर के सम्बन्ध में हैं-

1.   पद्मकेशर देडल का वास्तु

2.   त्रिकाल महात्म्य अर्चना विधि

3.   वय चकड़ा/वय चकड

4.   पद्मकेशर देडल कर्मांगी

इन चार पोथियों द्वारा ही कोणार्क मन्दिर के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

कोणार्क का सूर्य मन्दिर उड़ीसा में विकसित नागर शैली का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।[10] इसका निर्माण 865 फीट लम्बे और 540 फीट चौड़े विशाल प्रांगण में किया गया था। प्रांगण के चारों तरफ लगभग 11 फीट उंची और 4 फीट चौड़ी दीवाल थी। इसमें प्रवेश के लिए पूरब, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में द्वार बनाए गए थे, मुख्य द्वार पूरब की ओर था। मुख्य मन्दिर के दो भाग, गर्भगृह तथा जगमोहन एक साथ और सामने की ओर हटकर नाट मण्डप का निर्माण किया गया था। नाट मण्डप के पश्चिम की सीढ़ियों से उतरकर दर्शक सात घोड़ों के रथ के आकार में बने मुख्य मन्दिर के प्रवेश द्वार पर पहुंच जाता है। यहीं एक भव्य अरुण स्तम्भ स्थापित था, जो बाद में पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में स्थानान्तरित कर दिया गया। मुख्य मन्दिर में लम्बी सीढ़ियों पर चढ़कर प्रवेश किया जाता है। सीढ़ियों की पार्श्ववर्ती दीवालों पर सात घोड़ों की आकृतियां (एक तरफ तीन और दूसरी तरफ चार) इस प्रकार बनाई गई हैं कि जैसे सूर्य के विशाल रथ को खीचने में उन्हें बड़ा श्रम करना पड़ रहा हो। सूर्य के सप्ताश्वरथ की वैदिक अवधारणा को सर्वप्रथम गुप्तकाल में मूर्त रूप दिया गया किन्तु सम्पूर्ण सूर्य मन्दिर को रथ के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय उड़ीसा के शिल्पी को ही है, जिसने कोणार्क में सूर्य के रथ देउल (मन्दिर) का निर्माण किया। मुख्य मन्दिर के सामने का भाग अर्थात जगमोहन 100 फीट वर्ग का है। गर्भगृह का शिखर ध्वस्त हो गया है, जिसकी मूल उंचाई लगभग 225 फीट रही होगी। वयचकड नामक प्राप्त बही के अनुसार इस मन्दिर के निर्माण के लिए देश के कोने-कोने से कई सहस्त्र शिल्पियों को आमंत्रित किया गया था तथा सम्पूर्ण शिल्पीय कार्य के अधिष्ठाता के रूप् में सदाशिव सामंतराय महापात्र नामक प्रसिद्ध स्थापित को सूत्रधार नियुक्त किया गया था। उसी ने इस मन्दिर के गर्भगृह में स्थापित महाभास्कर (सूर्य) प्रतिमा का निर्माण किया था।[11] सातवीं शती में चीनी यात्री युवानच्वांग कोणार्क आया था। उसने इस नगर का नाम चेलितालो लिखते हुए उसका घेरा 20 ली बताया है। उस समय यह नगर एक राजमार्ग पर स्थित था और समुद्र यात्रा पर जाने वाले पथिकों या व्यापारियों का विश्राम स्थल भी था। मन्दिर का शिखर बहुत उंचा था और उसमें अनेक मूर्तियां प्रतिष्ठित थी।[12]

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि उड़ीसा स्थित कोणार्क का सूर्य मन्दिर उत्तर भारत के नागर शैली के मन्दिरों में सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं भव्य है। इस मन्दिर के सम्बन्ध में डॉ उदय नारायण राय जी का यह कथन बिल्कुल सत्य है कि- ’’इस मन्दिर के निर्माता नरसिंहदेव ने उड़ीसा के पुरी जिले में सूर्य की रश्मियों की दृष्टि से सबसे उपयुक्त भौगोलिक स्थल कोणार्क को इस रथ मन्दिर के निर्माण का स्थल चुना था। यह मन्दिर अपनी स्थापत्य कला के साथ-साथ भव्यतम् मूर्तिकला के लिए भी जगत प्रसिद्ध है।’’[13]

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. उदय नारायण राय- भारतीय कला, पृ0 236
2. श्रीनारायण चतुर्वेदी-सूर्योपासना और ग्वालियर का विवस्वान मन्दिर,पृ0 35
3. ब्रम्हपुराण- अध्याय, 7/28
4. उमियाशंकर व्यास- भारत में सूर्य पूजा और सूर्य मन्दिर, ;कल्याण सूर्यांक,वर्ष 53, सं0 1द्ध
5. आर.सी. हाजरा- स्टडीज इन द उपपुराणाज, पृ0 106
6. श्रीनारायण चतुर्वेदी- उपर्युक्त, पृ0 35
7. उपर्युक्त, पृ0 35
8. एलाइस बोनर- न्यू लाइट ऑन द सन् टेम्पल ऑफ कोणार्क, पृ0
9. उपर्युक्त
10. श्रीनारायण चतुर्वेदी- उपर्युक्त, पृ0 44
11. उदय नारायण राय- उपर्युक्त, पृ0 237
12. विजयेन्द्र कुमार माथुर- ऐतिहासिक स्थानावली, पृ0 233
13. उदय नारायण राय- उपर्युक्त, पृ0 236