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कोटा चित्रशैली का रूप-विन्यास |
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Kota Style Layout | |||||||
Paper Id :
18087 Submission Date :
2023-09-14 Acceptance Date :
2023-09-19 Publication Date :
2023-09-25
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सारांश |
कोटा शैली में शिकार
के दृश्यों की अधिकता दृष्टव्य है । पृष्ठभूमि में सघन वन में विचरण करते शेर,चीता, हाथी, हिरण और
सूअर का अंकन प्रमुखता से हुआ है। सघन वनों में झांकते शिकार के बुर्ज वास्तु अंकन
के अल्पता की महत्ता को और बढ़ा देते हैं। शिकारी दृश्यों का चित्रण कोटा शैली की
अपनी एक अलग विशेषता है, राज्य की एकमात्र शैली है जिसमें
नारियों को शिकार करते हुए दर्शाया गया है। 'मुकुंदगढ़ का
शिकार' चित्र इसका उदाहरण है- जो अनोखा व रुचिपूर्ण है।
इसमें राजा रानी व दासियां भी दिखाई गई है। यह चित्र गति, व्यंजना व प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। बंदूक की धमक व गोली लगे शेर
की दहाड़ ने हिरणों के झुंड को दहला दिया है। भय से स्तब्ध वे खड़े रह गए हैं और
फटे फटे से विस्फरित नेत्रों से देखते वह ठगे से
मोन, मौत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह लक्षण कोटा शैली
में निर्मित हिरण में खूब पाए गए हैं जो इस शैली की निजी विशेषता है। कोटा के
कलाकार ने नारी एवं पुरुष आकृतियों को अत्यधिक सवांरने का यत्न किया है नारी आकृति
के चित्रण में गोल मुख, उन्नत ललाट, कटाक्षपूर्ण नेत्र, छोटी-छोटी लहराती हुई
कानों तक लटकती लट, पतली कमर, भारी
उरोज, लम्बी भुजाएं एवं अंग प्रत्यंग में सौंदर्य को
प्रदर्शित किया गया है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | There is an abundance of hunting scenes in the Kota style. In the background, lion, leopard, elephant, deer and boar roaming in the dense forest are prominently depicted. The bastions of the hunter peeping in the dense forests further increase the importance of the scarcity of architectural markings. The depiction of hunting scenes is a distinctive feature of the Kota style, the only style in the state to depict women hunting. The painting 'Hunting of Mukundgarh' is an example of this - which is unique and interesting. The king, queen and maids have also been shown in this. This picture is full of speed, euphemism and natural beauty. The threat of gun and the roar of a lion on being shot has terrified the herd of deer. Stunned by fear, they stand still and look on with tearful eyes, and await death in mockery. These features have been found in plenty in Kota style deer which is a special feature of this style. The artist of Kota has tried to beautify the male and female figures to the utmost, beauty is displayed. | ||||||
मुख्य शब्द | संतुलित, अजस्रधारा, विशिष्टता, विषयानुकूल, सौंदर्यात्मक, संप्रेषणीय, प्रतीकात्मक, भावात्मक। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Balanced, Ajasradhara, Uniqueness, Subject-appropriate, Aesthetic, Communicative, Symbolic, Emotional | ||||||
प्रस्तावना | आनंद
कुमार स्वामी ने सर्वप्रथम 1916 ई. में अपने ग्रंथ 'राजपूत
पेंटिंग' में राजस्थान की चित्रकला के स्वरूप को उजागर किया
। राजस्थान में आधुनिक चित्रकला को प्रारंभ करने का श्रेय कुंदन लाल मिस्त्री को
दिया जाता है । राजस्थान की चित्रकला में अजंता व मुगल शैली का सम्मिश्रण पाया
जाता है। राजस्थानी चित्रकला को राजपूत चित्र शैली भी कहा जाता है राजस्थानी
चित्रकला में चटकीले भड़कीले रंगों का प्रयोग किया गया है। इसमें विशेषतया पीले
तथा नीले रंग का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है। राजस्थानी चित्रकला शैली का प्रारंभ
15वीं से 16वीं शताब्दी के मध्य माना
जाता है। कोटा चित्र शैली में मुगल शैली का
संबंध से होते हुए भी कोटा में स्त्रियों के चित्र प्रतिमा के समान दिखाई देते हैं
जो या तो शीशे के सामने अपना मुंह देख रही है या वृक्ष की डाली को पकड़े हुए हैं
सर के बाल काफी ऊंचाई से आरंभ होते हैं तथा अस्वाभाविक रूप से लंबे लगते हैं ललाट काफी चौड़ा, आंखें बड़ी-बड़ी खंजनानुकृति अथवा
बादामानुकृति में, नाक छोटी, ठुड्डी
गोल, वक्षस्थल काफी ऊंचा और कमर अत्यधिक पतली दिखाई गई है।
होंठ पूरे फैले हुए तथा आभूषण भी बहुलता से दिखाए गए हैं। पुरुष आकृति में वृषभ
कंधे, भारी एवं गठीला शरीर, दीप्तियुक्त
चेहरा, मोटे नेत्र, मुख पर भारी भरी
दाढ़ी और मूँछे, तीखी नाक, पगड़ियाँ,
अंगरखे, तलवार, कटार आदि
हथियारों से युक्त वेशभूषा तथा नारी सुलभ वेशभूषा में राजस्थानी झलक कोटा शैली की
निजी विशेषता है।
कोटा वल्लभ संप्रदाय की पुष्टि मार्ग
शाखा का केंद्र भी रहा है अतः कुछ चित्रों में कोटा के शासको को श्रीनाथजी की पूजा
करते दिखाया गया है मथुराधीश जी के मंदिर में श्रीनाथजी की प्रतिमा में पीछे लगने
वाले कपड़ों पर भी सुंदर चित्र बनाए गए हैं। जिन्हें पिछवाई चित्र कहा जाता है।
कोटा शैली के चित्रों में स्त्रियों के चित्र विशेष आकर्षण बनाए गए हैं, उनके अंग प्रत्यङ्गो का चित्रण रीतिकाल के काव्य के आधार पर हुआ है। इन
चित्रों में गहरे नीले और हरे रंगों का प्रयोग अधिक हुआ है और चित्र के किनारे लाल
काले सुनहरे रंगों से बनाए गए हैं। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से कोटा चित्र शैली के रूप विन्यास को जिसमें नारी से लेकर प्रकृति, पशु - पक्षी संस्कृति, सभ्यता, शौर्य की गाथाओं को सभी के सम्मुख रखने का एक उद्देश्य है। यहां के लघु चित्र हो या भित्ति चित्र सभी में कथावस्तु के अनुरूप स्थान की रिक्तता आकृति की जमावट, रूप व रंग की प्रतीकात्मक, भावात्मक, कलात्मक व उपयोगात्मक अभिव्यक्ति आदि में एक विशाल दृष्टिकोण होता है। |
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साहित्यावलोकन | राजस्थान
की कला समय के साथ, इतिहास के प्रभावों को आत्मसात करती हुई बदलती चली गई
और अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त करने में समर्थ हुई। प्रत्येक युग ने यहॉं की
कला को विशिष्ट शैली और रूप प्रदान किया। कोटा शैली का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित
करने का श्रेय राजा रामसिंह को है,जिन्होंने कला को संरक्षण
देकर नवीन पथ प्रदर्शित किया। उनके समय के अनेक चित्र उपलब्ध है, जिन पर बूंदी शैली का प्रभाव होते हुए भी कोटा शैली की प्रमुखता है।
कोटा चित्र शैली की कलाकृतियों का
व्यापक अध्ययन कर उनके संदर्भ में वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक एवं तार्किक अध्ययन गहन
चिंतन एवं अनंत संबंधित सामग्री का अन्वेषण-निरीक्षण-परीक्षण-उपयोगी तथा तथ्यों का
संकलन-संकलित तथ्यों का वर्गीकरण विश्लेषण अतिरिक्त सर्वेक्षण एवं तुलनात्मक
पद्धति अथवा उनके आधार पर निष्कर्षों एवं सिद्धांतों की तर्कसंगत स्थापना की
सहायता द्वारा शोध पत्र को प्रकाशित हेतु तैयार किया। |
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मुख्य पाठ |
संतुलित रंगों से लिपटकर रेखाओं की गतिमयता जिस दृश्यमान भाव सौंदर्य को जन्म
देती है उसे चित्र अथवा आलेख नाम से अभिहित किया जाता है। जिस
प्रकार साहित्य अपने समय का दर्पण कहलाता है और समय विशेष की संस्कृति को
प्रतिनिधित्व करता है, उसी प्रकार चित्रकला के माध्यम से
चित्रकार अपने समय के दृश्यमान भाव जगत को कैनवास पर उतारकर विभिन्न शैलियों के
द्वारा तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक
परिस्थितियों का आंकलन प्रस्तुत करता है। राजस्थानी चित्रकला का जन्म राजस्थान के ही प्रांत में हुआ। अन्य भारतीय
शैलियों से प्रभावित होती हुई वह स्वतंत्ररूप से राजस्थान के वीर प्रदेश में
पल्लवित हुई। राजस्थानी शैली के विकास में राजस्थान के प्राचीन इतिहास और भौगोलिक
रचना का प्रमुख हाथ रहा है। वीर राजपूतों की वीर-भूमि के कण-कण में उनके शौर्य की
गाथाएं, सभ्यता और संस्कृति के पदचिन्ह, चित्रकला,
स्थापत्य आदि के रूप में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। वास्तविकता तो
यह है कि अपने प्राकृतिक निर्माण और मोहक वातावरण के कारण कला की उद्भावना के लिए
राजस्थानी धरती अत्यधिक उपयुक्त रही। राजस्थानी चित्रकला का उद्भव और विकास कई अन्य शैलियों की भांति ना तो एक
स्थान में हुआ और ना ही कुछ कलाकारों द्वारा। राजस्थान के जितने भी प्राचीन नगर,राजधानियां
तथा धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठान है, वहां चित्रकला
पनपी और विकसित हुई है। धार्मिक प्रतिष्ठानों के अतिरिक्त दरबारी कवियों, चित्रकारों, संगीतज्ञों, शिल्पाचार्य
आदि के योग से राजस्थानी चित्रकला की अजस्रधारा अनेक रियासती शैलियों को
परिप्लावित करती हुई 17-18 वीं
शती में अपने चरमोत्कर्ष पर जा पहुंची, जिससे इसका समन्वित
स्वरूप सामने आया। इसके विराट परिवेश में शाखाएं और उप शाखाएं समाविष्ट हो गयीं। राजस्थान की कला समय के साथ, इतिहास के प्रभावों को
आत्मसात करती हुई बदलती चली गई और अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त करने में समर्थ
हुई। प्रत्येक युग ने यहॉं की कला को विशिष्ट शैली और रूप प्रदान किया। कोटा शैली
का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करने का श्रेय राजा रामसिंह को है,जिन्होंने कला को संरक्षण देकर नवीन पथ प्रदर्शित किया। उनके समय के अनेक
चित्र उपलब्ध है, जिन पर बूंदी शैली का प्रभाव होते हुए भी
कोटा शैली की प्रमुखता है। प्राकृतिक दृष्टि से संपन्न कोटा नगरी साहित्यकारों एवं कलाकारों को निरंतर
आकर्षित तथा प्रेरित करती रही है इसकी संस्कृति ने अतीत में चित्रकारों को
भावात्मक संस्कार ही प्रदान नहीं किए अपितु विषय वैविध्य युक्त विस्तृत धरातल भी
प्रदान किया जिसके फलस्वरूप अनेक कलापूर्ण चित्र कृतियां सृजित की। कोटा
नगर संस्कृति एवं कला का एक मुख्य केंद्र रहा है यहां के शासकों ने प्रचलित परंपरा
मान्यताओं धर्म एवं व्यक्तिगत रूचियों के आधार पर चित्रकला को बढ़ावा एवं संरक्षण
प्रदान किया। कोटा के शासक कला में अत्याधिक रुचि रखते थे, उनका कला
प्रेम केवल गुणात्मक ही नहीं वरन कला के विशिष्ट गुणों से वेष्टित भी रहा है। इन्हीं गुणों के कारण आगे जाकर बूंदी शैली से हटकर कोटा शैली
का निजस्व उभर पाया। यद्यपि माधव सिंह के समय में कोटा शैली में बूंदी के ही तत्व
अधिक थे परंतु धीरे-धीरे स्थानीय तत्वों के समावेश से उसमें कुछ अछूते तत्व दिखाई
देने लगे एवं राजा रामसिंह के समय की कुछ ऐसी छवियाँ मिली जिन्हें कोटा शैली के
अछूते चित्र कहा जा सकता है। कोटा शैली के कलाकारों ने विशेष रूप से आखेट, राग माला, बारहमासा, रसिकप्रिया,
त्यौहार, उत्सव, संगीत,
मधुमालती, नायक नायक, प्रकृति
चित्रण, गज युद्ध, दरबारी, सवारी, श्रृंगार एवं सामान्य जनजीवन आदि विषयों को
कलात्मक रूप में चित्रित किया है। अभिव्यक्ति के काल्पनिक क्षेत्र में गहरे प्रवेश करके भी कोटा की चित्र शैली
का कलाकार
चित्र निर्माण के प्रयोजन- सूत्रों, जीवन्त
घटनाओं, ऐतिहासिक तथ्यों को नहीं भुला पाया है। कोटा महल के
शिकार के चित्रों में बड़ी बारीकी से काम किया गया है। हाथी वह सूअर की खाल की
सिकुड़न को रेखाओं से टेक्सचर द्वारा बड़ी खूबी से दर्शाया गया है। वस्तु पर
निरूपण की यह पटुता बूंदी के शिकार के पशुओं में नहीं मिलती। हाथी का सर, सूंड, कान आदि की ड्राइंग गढ़ने में कोटा शैली की
विशेषता साफ झलकती है। हाथी का यह रूप ना तो अजंता में बन पाया और ना ही मुग़ल व
राजस्थान की किसी अन्य शैली में। लंदन के हावर्ड होग्किन के संग्रह में कोटा शैली
के इन्हीं लक्षणों वाला हाथियों की लड़ाई का एक चित्र है। जो ऐसा लगता है कि कोटा
के गढ़ का व होग्किन वाला चित्र एक ही हाथ का बनाया हुआ है। इनमें हाथी एक समान है
केवल मानवीय कृतियों में ही थोड़ी सी भिन्नता है। 18 वीं सदी
के आरंभ के चित्रों की शैली इसमें झलकती है। हो सकता है होग्किन के शिकार के दृश्य
की ड्राइंग पहले हो रही हो क्योंकि उसके चेहरे कम वर्गाकार है और आंखें भी सामान्य
हैं । 1700 ई. के आसपास के कोटा शैली के कई रेखा चित्र मिले
हैं जो अथक शक्ति व सृजनात्मकता के परिचायक हैं कोटा शैली में शिकार के दृश्यों की अधिकता दृष्टव्य है । पृष्ठभूमि में सघन वन
में विचरण करते शेर,चीता, हाथी, हिरण
और सुअर का अंकन प्रमुखता से हुआ है। सघन वनों में झांकते शिकार के बुर्ज वास्तु
अंकन के अल्पता की महत्ता को और बढ़ा देते हैं। शिकारी दृश्यों का चित्रण कोटा
शैली की अपनी एक अलग विशेषता है, राज्य की एकमात्र शैली है
जिसमें नारियों को शिकार करते हुए दर्शाया गया है। 'मुकुंदगढ़
का शिकार' चित्र इसका उदाहरण है- जो अनोखा व रुचिपूर्ण है।
इसमें राजा रानी व दासियां भी दिखाई गई है। यह चित्र गति, व्यंजना
व प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। बंदूक की धमक व गोली लगे शेर की दहाड़ ने हिरणों
के झुंड को दहला दिया है। भय से स्तब्ध वे खड़े रह गए हैं और फटे फटे से विस्फरित
नेत्रों से देखते वह ठगे से मौन, मौत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह लक्षण कोटा शैली में निर्मित हिरण में
खूब पाए गए हैं जो इस शैली की निजी विशेषता है। कोटा के कलाकार ने नारी एवं पुरुष
आकृतियों को अत्यधिक सवांरने का यत्न किया है नारी आकृति के चित्रण में गोल मुख,
उन्नत ललाट, कटाक्षपूर्ण नेत्र, छोटी-छोटी लहराती हुई कानों तक लटकती लट, पतली कमर,
भारी उरोज, लम्बी भुजाएं एवं अंग प्रत्यंग में
सौंदर्य को प्रदर्शित किया गया है। राजा- रानियों के चेहरे बहुत ही बारीकी से बनाए गए हैं। आंखों के भीतरी रेखाओं
को शाह कलम से आंकना और बाहरी को लाल रेखाओं से मांडना। माना जाता है कि आरंभ में
यथार्थ निरूपण के लिए यह तरीका अपनाया गया था जो बाद में एक परंपरा सी बन गई ।
पुरुष आकृतियां कम ऊंची तथा कुछ भारी लगती हैं गमुच्छे तथा छोटी दाढ़ी कुछ बीच में
से काढी हुई है। स्थानीय शासकों की पहचान उनके नाक-नक्श, पगड़ी,
आभूषण तथा वेशभूषा में होती हैं। वहीं प्रकृति के निरूपण की भी एक
अन्य विधि दिखाई देती है। नए सृजन के प्रति सजगता दिखाई देती है, इसमें अभिव्यक्ति परखता की नई संभावनाएं उजागर हो आई है और प्रकृति का एक
अछूता और बर्बर रूप संवर उठा है। कोटा गहन जंगल से घिरा होने के कारण यहां के
चित्रों में प्राकृतिक परिवेश की छटा दर्शनीय भी है शेर चीता हिरण नीलगाय सुअर आदि
पशुओं से भरे जंगल एवं जानवरों का शिकार करते हैं सामान्य तथा राजाओं का चित्रण
कोटा शैली की अनोखी विशेषता है। आखेट दृश्य में धरा के जंगल शिकार बुर्ज एवं
शिकारगाह का अंकन स्थानीय वातावरण के साथ अंकित किया गया है। समस्त चित्रों में
विशेष प्रकार का वातावरण है ऊंची गोल चट्टानें, छोटी झाड़ियां
तथा विशाल वृक्ष, मान सरोवर, हलकारे
लगाते सैकड़ों सेवक, हाथी, घोड़े,
जंगली पशु तथा उनके आक्रोश एवं तीव्र गति सभी को कोटा के लघु तथा
भित्ति चित्रों में समायोजित किया गया है। कोटा शैली में धार्मिक विषयों के मूल
स्रोत रामायण एवं महाभारत का भी प्रमुखता से अंकन किया गया है। यदि कोटा के आसपास
के जंगलों को देखें और इन शिकार के चित्रों को देखें तो ऐसा लगता है जैसे कलाकार
ने गहराई से प्रकृति का निरीक्षण किया है। सूखी टहनियों को जालनुमा बर्बर रूप
सरासर निरीक्षण का प्रमाण है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, घायल व मरते शेर, चीते व सुअर, ठगे से हिरण, नीरव प्रकृति व चारित्रिक विशेषताओं से
युक्त मानवाकृतियां- यह सब कलाकार के प्रकृति के गहरे अध्ययन मनन को प्रमाणित करते
हैं। धार्मिक आयोजनों और प्रसंगों पर भी अपनी कूंची चलाने से कोटा के कलाकार वंचित
नहीं रहे हैं। भावों की गहनता और विशिष्टता, विषयानुकूल अंकन तथा चयन की सुघडता,सौंदर्य
एवं लावण्य परियोजना तथा कला के विभिन्न अंगों जैसे सादृश्य, वर्णिका भंग, रूपभेद, प्रमाण
आदि के परिप्रेक्ष्य में कोटा शैली राजस्थान की अन्य शैलियों में अपना एक अलग
विशिष्ट तथा स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। नारी के सर्पाकार केश विन्यास पर श्याम
रंग की तीखी वेणी आंखों पर काजल रूपी काली रेखाएं स्वयं आकृतियों के रूप में उभरती
दिखाई देती है इनमें प्रत्येक अभिप्राय एवं प्रतीकों के रूप में चित्रण की कार्य
कुशलता दिखाई देती है जो दर्शक को अपने आप में दर्पण की भांति तन्मयता से भुला
देने की ओर प्रेरित करती है। यही नहीं इन चित्रों की महत्वपूर्ण विशेषताएं दर्शक
के मनोभावों के अनुरूप सौंदर्यात्मक अनुभूति देने तक में यह चित्र पूर्ण सक्षम रहे
हैं। आरंभ के छवि चित्र (portrait) वह रागमाला चित्रों में
कोटा शैली की यह विशेषता पहचानी जा सकती है। कोटा के चहरों में विभिन्न रूपों की
विशेषता है। नया- नया रूप जब- जब उभरने लगता है । ऐसा लगता है कि कलाकार
संप्रेषणीय औपचारिकता की प्राप्ति के लिए परीक्षण कर रहा है-भाषा की पकड़ के लिए
नये- नये रूप खोज रहा है और पुराने को दोहरा नहीं रहा है। यहां के लघु चित्र हो या
भित्ति चित्र सभी में कथावस्तु के अनुरूप स्थान की रिक्तता आकृति की जमावट,
रूप व रंग की प्रतीकात्मक ,भावात्मक, कलात्मक व उपयोगात्मक अभिव्यक्ति आदि में एक विशाल दृष्टिकोण होता है।
चित्र फलक में सूनापन दिखाना हो या विस्तृत जंगल में भरा पन सभी के लिए छोटी से
छोटी आकृति को भी कलाकार ने बखूबी महत्व देते हुए चित्रित किया है। चित्र योजना का
उचित संयोजन, चित्र फलक पर आकृतियों, रेखाओं,
वर्णों एवं तान का उचित विवरण करते हुए
चित्र संतुलन के सौंदर्य को प्रकट किया गया है। रंग संगति में कोटा शैली के
चित्रों में हरा, लाल एवं सुनहरे रंगों का प्रयोग अधिक हुआ
है। हरे रंग की पृष्ठभूमि में गुलाबी- भूरे रंग का समन्वय कोटा शैली की नितांत
नवीन संविधा को अभिव्यक्त करती है। संतुलन एवं दृष्टिभार को इस चित्र शैली में कुछ
मूलभूत तत्व एवं सिद्धांतों के आधार पर प्रयुक्त किया है। शिखर युक्त भव्य श्वेत
वास्तु, शिल्प में गुमटियां, झरोखे
कंगूरे युक्त दीवार जाली, पालता नियुक्त द्वार सहज स्थानीय
वस्तु शिल्प का आभास कराते हैं जो इस शैली की मौलिक विशेषता है। कोटा चित्रशैली के चित्रों में हाशिये लाल रंग से पतली पट्टी के रूप में चित्रित है, जिसके दोनों तरफ काली पतली रेखा निर्मित है। इनमें प्रत्येक अभिप्राय एवं प्रतीकों के रूप में चित्रण की कार्य कुशलता दिखाई देती है जो दर्शक को अपने आप में दर्पण की भांति तन्मयता से भुला देने की ओर प्रेरित करती है यही नहीं इन चित्रों की महत्वपूर्ण विशेषताएं दर्शक के मनोभावों के अनुरूप सौंदर्यात्मक अनुभूति देने तक में यह चित्र पूर्ण सक्षम रहे हैं। यहां के लघु चित्र हो या भित्ति चित्र सभी में कथावस्तु के अनुरूप स्थान की रिक्तता आकृति की जमावट, रूप व रंग की प्रतीकात्मक, भावात्मक, कलात्मक व उपयोगात्मक अभिव्यक्ति आदि में एक विशाल दृष्टिकोण होता है। चित्र फलक में सूनापन दिखाना हो या विस्तृत जंगल में भरा पन सभी के लिए छोटी से छोटी आकृति को भी कलाकार ने बखूबी महत्व देते हुए चित्रित किया है चित्र योजना का उचित संयोजन, चित्र फलक पर आकृतियों, रेखाओं, वर्णों एवं तान का उचित विवरण करते हुए चित्र संतुलन के सौंदर्य को प्रकट किया गया है।
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निष्कर्ष |
कोटा चित्रशैली के
चित्रों में हाशिये लाल रंग से पतली पट्टी के रूप में चित्रित है,
जिसके दोनों तरफ काली पतली रेखा निर्मित है। इनमें प्रत्येक अभिप्राय
एवं प्रतीकों के रूप में चित्रण की कार्य कुशलता दिखाई देती है जो दर्शक को अपने
आप में दर्पण की भांति तन्मयता से भुला देने की ओर प्रेरित करती है यही नहीं इन
चित्रों की महत्वपूर्ण विशेषताएं दर्शक के मनोभावों के अनुरूप सौंदर्यात्मक
अनुभूति देने तक में यह चित्र पूर्ण सक्षम रहे हैं I |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डॉ प्रेमचंद्र गोस्वामी -
राजस्थान की लघु चित्र शैलियां |