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वर्तमान का राजनैतिक परिदृश्य
और मन्नू भण्डारी का उपन्यास महाभोज |
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Current Political Scenario and Mannu Bhandari Novel Mahabhoj | |||||||
Paper Id :
18070 Submission Date :
2023-09-09 Acceptance Date :
2023-09-15 Publication Date :
2023-09-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.8410188 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
प्रस्तुत शोधपत्र ‘वर्तमान का राजनैतिक परिदृश्य और मन्नू भण्डारी का उपन्यास महाभोज’ में प्रसिद्ध महिला कथाकार मन्नू भण्डारी द्वारा अस्सी के दशक में लिखे गए प्रसिद्ध राजनीतिक उपन्यास ‘महाभोज’ की तुलना वर्तमान के राजनीतिक परिदृश्य से की गई है। सत्तर के दशक में राजनैतिक नैतिकता का पतन जिस स्तर पर हो चुका था, आज कमोवेश हालात उससे भी बदतर हैं। भारत देश में ‘गणतंत्र शासन’ मात्र सुनाई देता है, दिखाई नहीं देता। ‘सरोहा’ गाँव में किस तरह एक दलित युवक बिसू (बिसेसर) की हत्या के बाद सत्तापक्ष एवं विपक्ष ने चुनाव के मौके पर उस घटना को भुनाते हैं, यही इस उपन्यास का मुख्य प्रतिपाद्य है। इस उपन्यास में ‘बिसू’ और उसका साथी ‘बिन्दा’ आम जनता के वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। आज किस तरह से राजनेता और उनकी पार्टियां आम आदमी को एक मोहरे की तरह इस्तेमाल करती हैं, यही दिखाना उपन्यासकार मन्नू भण्डारी का अभीष्ट रहा है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the present research paper 'Current Political scenario and novel Mahabhoj of Mannu Bhandari', the famous political novel 'Mahabhoj' written by famous female storyteller Mannu Bhandari in the eighties has been compared with the current political scenario. The level at which political morality had declined in the seventies, today the situation is more or less worse than that. In the country of India, 'Republican rule' is only heard, not visible. How after the murder of a Dalit youth Bisu (Bissesar) in 'Saroha' village, the ruling party and the opposition capitalize on that incident on the occasion of elections, this is the main theme of this novel. In this novel, ‘Bisu’ and his companion ‘Binda’ represent the common people. Novelist Mannu Bhandari's aim has been to show how today politicians and their parties use the common man as a pawn. | ||||||
मुख्य शब्द | आम जनता, राजनीतिक, लोकतंत्र, विद्रूपता, संवेदनहीनता, अपराध, सांप्रदायिक दंगा आदि। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | General Public, Political, Democracy, Vulgarity, Insensitivity, Crime, Communal Riot etc. | ||||||
प्रस्तावना | हमारे देश की राजनीति यहाँ के समाज पर हमेशा से ही अपना आधिपत्य जमाए रखी है।
सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनीतिक पार्टियाँ किसी भी हद तक गिर सकती हैं। हमारा
हिंदी-कथा साहित्य इन्हीं राजनीतिज्ञों की क्रूरता से भरा पड़ा है। यह विकृति समाज
और लोकतंत्र में आज भी जारी है। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ था। इस
स्वतंत्रता के लिए देश की बहुसंख्यक जनता ने कठोर संघर्ष किया था। उन्होंने अपने
जातीय एवं सांप्रदायिक भेदभाव को भुलाकर एकजुटता का परिचय दिया था। बड़े उत्साह और
मनोयोग के साथ भारत का संविधान निर्मित हुआ जो 26 जनवरी 1950 को पूरे देश में लागू
किया गया। इस संविधान के अंतर्गत भारतीयसंसदीय प्रणाली के तहत गणतंत्र के रूप में
प्रतिष्ठित हुआ था। देश में आम चुनाव के साथ राज्य की विधानसभाओं के भी चुनाव होते
हैं जिसके तहत प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्रियों का निर्वाचन होता है। भारत
के संविधान के तहत राज्यों में ग्राम पंचायतों की व्यवस्था कायम हुई। इसी के साथ
आम जनमानस में खुशहाली की उम्मीदें जगती हैं क्योंकि उन्हें अपने द्वारा चुने गए
प्रतिनिधियों से बहुत ही अधिक अपेक्षाएं थी। किंतु ये अपेक्षाएं जनता के लिए प्रवंचना मात्र ही सिद्ध होती हैं जबकि
वास्तविकता के धरातल पर कुछ और ही होता है। देश में चारों तरफ पूंजीवाद ने अपना
पैर फैला लिया। यह सब सरकार की मिश्रित अर्थव्यवस्था की आड़ में होता है। देश की
जनता बदहाल होने लगती है। उन्होंने जो सपना संजोया था वह चकनाचूर हो जाता है और
स्वतंत्रता से उनका मोहभंग हो जाता है। शासन-सत्ता समाज के एक बहुत बड़े
समुदाय से कटकर अत्यंत सीमित वर्ग के हाथों की कठपुतली हो गई जो सांप्रदायिक दंगे, मॉब
लिन्चिंग, हत्या, आगजनी आदि के द्वारा
समाज को तोड़ने का कार्य करने लगे। सत्ता के लिए हत्याएं होना आम बात हो गई। इन्ही
घटनाओं को भुना कर राजनीतिक पार्टियां और उसके नेता भोली-भाली जनता को अपने
वाग्जाल में फंसा कर सत्ता प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन दूसरी तरफ बाबा साहब डॉ० भीमराव अंबेडकर के विचारों से प्रभावित होकर
निम्न व दलित वर्गों में एक नयी चेतना जाग्रत होती है, जिसके कारण
वे अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का खुलकर प्रतिकार करने लगे। यह बात उच्च और
शासक वर्गों को असहनीय हो गई। गाँव-गाँव में जाति व संप्रदाय के नाम पर हत्याएं
होना आम बात हो गई। चारों तरफ डर का माहौल बनने लगा। इसी का प्रतिबिंब हमें मन्नू
भण्डारी के ‘महाभोज’ में दिखाई पड़ता
है। इस उपन्यास से यह प्रमाणित होता है कि मन्नू भंडारी जी राजनीति की गंभीर जानकारी रखती
थीं, क्योंकि जैसी किस्सागोई उन्होंने अपने उपन्यास में की
है या जिस तरह के राजनीतिक दांव-पेंचों से महाभोज भरा पड़ा है और कथानक की कसावट व
रोमांच को जिस तरह से अंत तक सुरक्षित रख पाई हैं, वैसा वही
व्यक्ति कर पाता है जिसको राजनीति और षडयंत्रों की गहरी समझ और सूझ-बूझ हो।
इन्हीं तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत शोधपत्र ‘वर्तमान का राजनैतिक परिदृश्य
और मन्नू भण्डारी का उपन्यास महाभोज’ में
महाभोज के कथानक की तुलना वर्तमान के राजनैतिक परिदृश्य से की गई है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोधपत्र के मूल
उद्देश्य निम्न प्रकार हैं- 1. देश की राजनीतिक कार्य-प्रणाली
और उसके दोगले व्यवहार से जनता एवं समाज को अवगत कराना ताकि जनता ऐसे राजनीतिक
छल-छद्म से सावधान रहे। 2. वर्तमान में राजनेता और
राजनीतिक चेतना दोनों के स्वरूपों को समाज एवं जनता तक पहुँचाना जो चुनावी भाषणों
के बल पर जनता को ठगने का प्रयास करते हैं। 3. किसी भी घटना के बाद उसकी
निष्पक्ष जांच को प्रभावित करने वाले कारकों को सामने लाना जिससे ऐसे अनावश्यक
कारकों से मुक्ति प्राप्त की जा सके एवं घटना की जांच निष्पक्ष रूप से हो सके। 4. जनता को ऐसे राजनेताओं से सतर्क
करना जो किसी भी हत्या/साम्प्रदायिक हत्या या भयानक दुर्घटना को राजनीतिक रंग देकर
एवं जनता को गुमराह करके सत्ता हथिया लेते हैं। |
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साहित्यावलोकन | मन्नू भंडारी ने अपने
बहुचर्चित उपन्यास ‘महाभोज’ में भारतीय राजनीति की ऐसी विद्रूपता को रेखांकित किया है जो दिन-प्रतिदिन
भयंकर होती जा रही है। ‘महाभोज’ का प्रकाशन सन् 1979 में होता है। यह वही समय था जब देश में 1975 के आपातकाल के बाद कॉंग्रेस की हार होती है और सत्ता जनता
पार्टी के हाथों में चली जाती है। अपने प्रकाशन के साथ ही यह उपन्यास राजनीतिक
निर्दयता और भ्रष्टाचार को लोगों के समक्ष बेलाग-लपेट उजागर करने के कारण आलोचकों
और साहित्य प्रेमियों द्वारा बहुत सराहा गया। डॉ० बच्चन सिंह ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखते हैं कि- “मन्नू भण्डारी का महाभोज एक राजनीतिक उपन्यास है। राजनीतिक उपन्यास लिखना
मुश्किल काम है। मन्नू ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए आज के राजनीतिक मुखौटों
को प्याज की परतों की तरह उधेड़ दिया है।”[1] यह एक घटना प्रधान उपन्यास
है। इसके कथानक का केंद्र ‘सरोहा’ गांव है जो शहर से बमुश्किल 20 मील दूर है।
यहां जो भी घटना घटित होती है उसकी प्रतिध्वनि शहर में भी सुनाई पड़ती है। सरोहा
गांव के दलित युवक ‘बिसू’ की हत्या के बाद राजनीतिक पार्टियां जो मूल्यहीनता, संवेदनहीनता और अनैतिकता का व्यवहार करती हैं उससे मन
क्षुब्ध हो उठता है। प्रसिद्ध आलोचक गोपाल राय अपनी कृति ‘हिन्दी उपन्यास का इतिहास’ में लिखते हैं कि- “महाभोज समकालीन राजनीतिक परिवेश से सम्बद्ध
उपन्यास है जिसमें राजनीति में प्रविष्ट मूल्यहीनता, शैतानियत और नैतिक सड़ांध का अत्यंत यथार्थ और सजीव चित्र प्रस्तुत किया गया
है।”[2] वे आगे लिखते हैं कि- “आठवें दशक में सत्ता का हस्तांतरण तो एक राजनीतिक दल से
दूसरे राजनीतिक दल को जरूर हुआ, पर
मूल्य-भ्रष्टता और सड़ांध में कोई फर्क नहीं पड़ा। इसका कारण यह था कि जिन राजनीतिक
दलों के बीच सत्ता का हथफेर हुआ, वे सभी भ्रष्ट
मूल्यों के शिकार थे।”[3] ‘महाभोज’ के प्रकाशन के लगभग 45 वर्ष बाद भी हालात ज्यों के त्यों हैं। इस
उपन्यास के प्रमुख पात्र ‘दा साहब’ हैं जो कि वर्तमान में प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं एवं गांधीवादी विचारधारा से
प्रभावित व्यक्ति लगते हैं। ऐसा लगता है कि सादा जीवन-उच्च विचार ही उनका सिद्धांत
है तथा वे अहिंसा एवं कर्म की प्रधानता मानते हैं। सत्य ही उनकी समस्त बातों की
आधारशिला है। ‘दा साहब’ गांधीवाद के प्रबल समर्थक लगते हैं। पर ऐसा नहीं है। वे शेर की खाल में छुपे
हुए भेड़िये सिद्ध होते हैं। महाभोज के इस कथित और छद्म गांधीवादी पात्र का विचार
देखिए- “पद के प्रलोभन से इतने अविवेकी मत बनो।
कर्मचारियों को इस तरह के आदेश देना उनके अधिकार में हस्तक्षेप करना है। मुझसे यह
सब होगा नहीं, भाई! मैं तो चाहता हूं, सबको अपने अधिकार सौंप कर अपने अधिकारों को शून्य में बदल
दूं।”[4] किंतु ‘गांधीवाद’ तो ‘दा साहब’ का मुखौटा मात्र
है। इस मुखौटे के पीछे उनका चेहरा अत्यंत घृणित, संवेदनहीन और खूंखार है जो अपने राजनीतिक लाभ के लिए बेगुनाहों की हत्या और
आगजनी आदि करवाने में तनिक भी पीछे नहीं रहता। दूसरी तरफ ‘सत्य’ से उनका दूर-दूर
तक कोई वास्ता नहीं था। वे अपना कार्य सिद्ध करने के लिए झूठ बोलने को कोई बुराई
नहीं समझते। उनका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को कभी-कभी परिस्थिति के दबाव में
झूठ बोलना ही पड़ता है। किन्तु गांधी जी यह कभी भी सहन ही नहीं कर सकते थे कि कोई
व्यक्ति या राजनीतिक पार्टी अपने निहित स्वार्थों के लिए जनता से झूठ बोलकर उनका
इस तरह शोषण और हत्या करे। अधिकांश भारतीय राजनीतिज्ञ
जिस विचारधारा से अधिक प्रभावित हैं उसमें समाजवाद प्रमुख है। जर्मन दार्शनिक
कार्ल मार्क्स समाजवादी विचारधारा के प्रतिपादक हैं। इसे मार्क्सवाद और साम्यवाद
भी कहा जाता है। मार्क्सवाद केवल दो वर्ग ही मानता है- शोषक वर्ग एवं शोषित वर्ग।
शोषक वर्ग में पूंजीपति, जमींदार आदि आते हैं, जो हमेशा से ही अन्य वर्गों का शोषण करते चले आ रहे हैं। इस
उपन्यास में भी ये सामाजिक विभाजन और वर्ग-संघर्ष साफ तौर से देखा जा सकता है।
महाभोज उपन्यास में जो मार्क्सवादी विचारधारा देखने को मिलती है वह मात्र कहने के
लिए ही है, व्यावहारिक रूप में नहीं। महाभोज के नेताओं का
ये कथित समाजवाद जनता के लिए छलावा ही सिद्ध होता है। इसी झूठ का सहारा लेकर ‘दा साहब’ सत्ता सुख भोग
रहे हैं जबकि उनसे पहले ‘सुकुल बाबू’ सत्ता सुख भोग चुके थे। चुनाव प्रचार की रैली में ‘सुकुल बाबू’ सत्ता हथियाने के उद्देश्य से गाँव वालों से कहते हैं कि- “खड़ा हुआ हूं आप लोगों के हक की लड़ाई लड़ने के
लिए, बिसू की मौत का हिसाब पूछने के लिए। बात केवल
बिसू की मौत की नहीं है…यह आप सब लोगों के जिंदा रहने का सवाल है…अपने पूरे हक के साथ जिंदा रहने का। यह मौत कुछ हरिजनों की
या एक बिसू की नहीं…आपके जिंदा रहने के हक़ की मौत है। आपका यह हक़
जरा से स्वार्थ के लिए गांव के धनी किसानों के हाथ बेच दिया गया है…और यही हक़ मुझे आपको वापस दिलवाना है। जुलुम ने आप लोगों के
हौसले तोड़ दिए हैं इसलिए मैं लडूंगा आपकी यह लड़ाई। आखिरी दम तक लडूंगा।”[5] अस्सी के दशक में भले ही
सत्ता एक हाथ से दूसरे हाथ में चली गई थी पर मूल्यभ्रष्टता, संवेदनहीनता और सड़ांध में कोई फर्क नहीं पड़ा। इसका कारण
यह था कि तत्कालीन भारत की सभी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट एवं अनैतिक थीं।
तत्कालीन शासन में समाजवादी शासन की स्थापना के दिखावे के बावजूद पूंजीवादी और
सामंतवादी व्यवस्था ही राजनीति पर हावी रही। प्रजातंत्र एक प्रकार का मज़ाक बनकर रह
गया था। राजनीति में धन, बाहुबल, गुंडागर्दी और छल-प्रपंच का बोलबाला हो गया। मन्नू भंडारी जी ने एक तरफ दा
साहब, शुकुल जी, पांडेय जी, अप्पा साहब, राव आदि पात्रों के माध्यम से तरह-तरह के मुखौटे लगाए हुए और सत्ता की लड़ाई
लड़ने वाले राजनीति-कर्मियों का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिज्ञों की
वास्तविकता और उनके गलत मंसूबों का उद्घाटन किया है तो दूसरी तरफ बिंदा, बिसू, हीरा, त्रिलोचन सिंह रावत, एस०पी० सक्सेना आदि पात्रों का भी सृजन किया हैं जो इस व्यवस्था में पिसने को
मजबूर आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते हैं। तत्कालीन राजनीति के इस घिनौने चेहरे को
बेनकाब करने में मन्नू भंडारी जी को अद्भुत सफलता मिली है। महाभोज के प्रकाशन के इतने
साल बाद भी ऐसा लगता है कि इस उपन्यास की दुनिया हमारे आसपास की ही दुनिया है। सच
ही है कि अच्छा साहित्य कभी भी अपनी प्रासंगिकता नहीं खोता। महाभोज आज भी उतना ही
प्रासंगिक है जितना कल था, क्योंकि हम वर्तमान समय में भी उसी व्यवस्था का
अनुभव हर रोज करते हैं। इस विशुद्ध राजनीतिक उपन्यास में चित्रित दा साहब और सुकुल
बाबू आज के नेताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे पात्र हैं जो आज की राजनीति में
जगह-जगह देखने को मिल जाते हैं। वर्तमान राजनीतिक परिवेश में गुंडागर्दी और
छल-छद्म का तांडव-नर्तन महाभोज से भी कहीं अधिक है। हमारे देश की राजनीति पूरी तरह
से अपराधोन्मुख हो चुकी है। आजकल के राजनेता नित्य नए-नए हथकंडे अपनाकर अपना तथा
अपने निकटतम लोगों को लाभ पहुंचाते रहते हैं। इसके एवज में उन्हें चाहे कुछ भी
करना पड़ जाए। इस संदर्भ में प्रसिद्ध महिला कथाकार ‘निरुपमा सेवती’ अपने उपन्यास ‘दहकन के पार’ में लिखती हैं कि- “राजनीति का काम गुंडागर्दी का बन गया है। अब
देखो ना, वह हमारे इलाके का लीडर बीच में तो मंत्री पद पर
भी रहा था। इतना पैसा कंपनियों से खाकर अंदर भर लिया है और अब अपने परिवार को
बंगलो-कारों में बैठा दिया है जिंदगी भर के लिए। सुख-चैन दिए बिना ही वह गरीबों का
लीडर बन गया है।”[6] वर्तमान समय में खून बहाना, पानी बहाने से भी सस्ता और आसान हो गया है। रक्तपात, हत्या आदि काम इतने आसान हो गए हैं कि अब आम आदमी अपने हक
के लिए बोलने और लड़ने से भी घबराता है। वह किसी से दुश्मनी मोल लेने की अपेक्षा
दबकर चुप रहना और सब कुछ सह जाना अधिक पसंद करता है। एक सामान्य सा व्यक्ति किसी
भी छोटे-मोटे नेता या उनके चेलों-गुर्गों से हमेशा बच कर रहने में ही अपनी भलाई
समझता है। वह जानता है कि यह लोग कभी किसी के सगे नहीं होते हैं। भारतीय राजनीति
में आजकल यह सब आम बात हो गई है। भारतीय लोकतंत्र आजकल इन्हीं गुंडों की गिरफ्त
में है। छल छद्म, अमानवीयता, क्रूरता, चापलूसी, धोखा, घोटाला, हत्याएं, सांप्रदायिक दंगे, अनाचार आदि चीजें आजकल भारतीय राजनीति के अनिवार्य अंग हो गए हैं। विख्यात कथाकार ‘मिथिलेश्वर’ ने संभवत इसी कारण अपने उपन्यास ‘सुरंग में सुबह’ में लिखते हैं कि- “संसार में जो कुछ भी है वह भारतीय लोकतंत्र में निहित है, और भारतीय लोकतंत्र में जो नहीं है वह संसार में कहीं नहीं
है।”[7] वैसे तो राजनीतिक विद्रूपता
के चित्रण से हिंदी का कथा साहित्य भरा पड़ा है, किंतु महाभोज में मन्नू जी ने इसे एक नया आयाम प्रदान किया है। इस उपन्यास के
बारे में महाभोजकार ने स्वयं स्वीकार किया है कि- “अपने व्यक्तिगत दुख-दर्द, अंतर्द्वंद या
आंतरिक ‘नाटक’ को देखना बहुत महत्त्वपूर्ण, सुखद और
आश्वस्तिदायक तो मुझे भी लगता है, मगर जब घर में
आग लगी हो तो सिर्फ अपने अंतर्जगत में बने रहना या उसी का प्रकाशन करना क्या खुद
ही अप्रासंगिक, हास्यास्पद और किसी हद तक अश्लील नहीं लगने लगता? संभवतः इस उपन्यास की रचना के पीछे यही प्रश्न रहा हो। इसे
मैं अपने व्यक्तित्व और नियति को निर्धारित करने वाले परिवेश के प्रति विरोध के
रूप में ही देखती हूं। बाकी प्रत्याशाएँ और आरोप तो आपके अपने हैं।”[8] वर्तमान युग में चुनाव एक
आवश्यक राजनीतिक प्रक्रिया है। सभी राजनैतिक दल अपना सारा धन-बल चुनाव प्रचार में
लगा देते हैं। रैली निकालना चुनाव-प्रचार का एक अभिन्न अंग बन गया है। महाभोज में
भूतपूर्व मुख्यमंत्री ‘सुकुल बाबू’ भी पूरे दल-बल के साथ चुनाव प्रचार के लिए अपनी रैली निकालते हैं। ‘मशाल’ पत्र के अनुसार
इस रैली में एक लाख से ऊपर आदमी जुटे थे। इस रैली में हजारों लोग बिसू की मौत और
हरिजनों पर होने वाले अत्याचारों के विरोध में सैकड़ों पोस्टर लिए हुए थे। रैली का
यह दृश्य वर्तमान समय में निकलने वाली रैलियों और उस में प्रयोग होने वाले दिखावटी
पोस्टर की ही तरह था। आजकल भी राजनीतिक रैलियों का बोलबाला है। सभी दल इन रैलियों
को सफल बनाने में बेशुमार दौलत खर्च करते हैं। लोगों को दूर-दूर से पैसे दे-देकर
भेड़ बकरियों की तरह बसों-ट्रकों में भर-भर कर रैलियों की भीड़ बढ़ाने के लिए लाया
जाता है। उनके खाने-नाश्ते की व्यवस्था भी की जाती है। इसके लिए पार्टी ना जाने
कितना पैसा पानी की तरह बहा देती है। रैलियों का आयोजन सफल बनाने के लिए अनगिनत
लोगों की भीड़ जुटाना पार्टियों की प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता है। डॉ शशि जैकब के अनुसार- “राजनैतिक स्तर पर नैतिकता का किस प्रकार ह्रास हो चला है, लेखिका मन्नू भण्डारी के उपन्यास में स्पष्ट रूप से प्रस्तुत
हुआ है।”[9] आजकल राजनेताओं द्वारा
गुंडे पालना आम बात हो गयी है। ये गुंडे नेताओं के इशारे पर हत्याएं या
सांप्रदायिक दंगे करवाने में सिद्ध होते हैं। ये हमेशा आपराधिक गतिविधियों में
लिप्त रहते हैं एवं इनके सिर पर इन्ही माननीयों का वरदहस्त होता है। अतः इन्हें
पुलिस या प्रशासन से कोई डर नहीं रहता। ‘महाभोज’ उपन्यास में ‘जोरावर’ नामक पात्र इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो
कि वर्तमान मुख्यमंत्री ‘दा साहब’ का चहेता है। इसी जोरावर ने हरिजनों की बस्ती में आग लगाकर नौ लोगों की जान ले
ली थी। इसकी जांच अभी हो भी ना पाई थी कि इसी हरिजन बस्ती के एक युवक बिसू की
हत्या हो जाती है। गांव के सभी लोग दबी जबान से जोरावर को ही हत्यारा बताते हैं।
चूंकि वह ‘दा साहब’ का खास आदमी है और अपने गांव का जमींदार भी है, तो पुलिस सब कुछ जानते हुए भी जोरावर को नहीं पकड़ती। अंत में ‘दा साहब’ अपने खास आदमी
जोरावर को बचाने के लिए बिसू के खास मित्र बिंदा को ही हत्यारा सिद्ध करके पुलिस
द्वारा पकड़ने का आदेश देते हैं।
डॉ रामचन्द्र तिवारी जी
अपनी पुस्तक ‘हिन्दी का गद्य साहित्य’ में लिखते हैं कि- “महाभोज एक राजनीतिक उपन्यास माना गया है। इसका परिवेश वैयक्तिक या पारिवारिक न
होकर सामाजिक है। ‘बिसेसर’ नामक एक पिछड़ी जाति के युवक की हत्या हो जाती है। इस हत्या का राजनीतिक लाभ
पदासीन मुख्यमंत्री ‘दा साहब’ और पदच्युत मुख्यमंत्री ‘सुकुल बाबू’ दोनों उठाना चाहते हैं। हत्या दा साहब के समर्थक और सहयोगी
जमींदार ‘जोरावर’ ने करायी है। इसलिए वे इस मामले को ठंडा करना चाहते है। इसके विपरीत सुकुल
बाबू इसे उभाड़कर जनता की सहानुभूति प्राप्त करना चाहते हैं। दोनों अपनी-अपनी गोट
फिट करने में लगे हैं। सामान्य जनता के प्रति सच्ची सहानुभूति किसी में भी नहीं
है। लेखिका ने वर्तमान व्यवस्था की खामियों को खुलकर उजागर किया है। ‘उपन्यास’ में ग्रामीण
परिवेश के चित्रण और वहाँ घटित होती हुई परिवर्तन की प्रक्रियाओं के विश्लेषण में
खामी हो सकती है किन्तु व्यवस्था पोषक राजनीति और उसके चलते होने वाले सामाजिक
उत्पीड़न को बेनकाब करने में लेखिका ने साहस का परिचय दिया है।”[10] |
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मुख्य पाठ |
यह घटना आज के आदर्श और
कल्याणकारी राज्य की संकल्पना के ठीक विपरीत है। ऐसी घटनाएं आजकल राजनीति के नाम
पर आम आदमी के साथ भी प्रायः देखी जाती हैं जो कि यह दर्शाती है कि वर्तमान समय
में नेता जंगली पशुओं के समान संवेदनहीन और पत्थर दिल हो गया है। आज भी हम चारों
तरफ इस घटना की पुनरावृत्ति देखते हैं। यह देखकर हम लोग अपनी आंखें बंद कर लेते
हैं। दो दिन तक इस घटना की दुहाई देंगे फिर तीसरे दिन हम भूल जाते हैं कि ऐसी कोई
घटना भी हुई थी। कुछ दिनों बाद चुनाव में फिर ऐसे ही किसी व्यक्ति को अपना मत देकर
विजयी बनाकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। हम यह कदापि नहीं सोचते हैं
कि इस बार किसी साफ-सुथरे आचरण वाले, अच्छे और ईमानदार व्यक्ति को मतदान करें जिससे फिर कभी इस घटना की पुनरावृत्ति
ना हो। ऐसी स्थिति में प्रसिद्ध कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ
बरबस ही याद हो आती हैं- इस दुनिया में
आदमी की जान से बड़ा
हम लोग हमेशा जाति और धर्म
के आधार पर मतदान करते हैं। यही कारण है कि आजकल संसद और सभी राज्य की विधानसभाएं
ऐसे लोगों से भरी पड़ी हैं। आज के सुशिक्षित युवाओं को राजनीति में कोई रुचि नहीं
है। इसीलिए हम इस त्रासदी को भोगने के लिए अभिशप्त हैं। |
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निष्कर्ष |
इस तरह के आपराधिक
दुष्चक्र में किसी को फंसना ना पड़े, इसके
लिए पढ़े-लिखे युवाओं को राजनीति में सक्रिय भूमिका निभानी पड़ेगी और चुनाव लड़कर
संसद और विधानसभाओं में जाना पड़ेगा। देश में स्वच्छ और स्वस्थ राजनीति की
संकल्पना तभी संभव हो सकेगी। हम एक कल्याणकारी राज्य के नागरिक हैं, जहां पर राज्य समस्त नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक उन्नति में
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। राज्य सभी नागरिकों को अवसर की समानता, स्वतंत्रता, धन-संपत्ति के समान वितरण तथा ऐसे
लोगों की, जो कि अपने न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं
ना कर पाते हों, उनकी सहायता करता है। देश और दुनिया की
राजनीति को अपराध से मुक्त करने के लिए हम सभी नागरिकों को ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने ही होंगे। युवाओं
को सामने आना ही होगा। साहित्य इसका बहुत अच्छा माध्यम है। कभी जवाहरलालनेहरू जी
के संसद की सीढ़ियाँ चढ़ते समय लड़खड़ा जाने पर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने उनकी बांह पकड़कर सम्भालते हुए
कहा भी था कि ‘जब-जब राजनीति लड़खड़ाती है, तब-तब साहित्य ही उसको सहारा देता है।’ कहने
का तात्पर्य यह कि भारत देश एक लोकतान्त्रिक गणतंत्र है और यह शासन की जिम्मेदारी
होती है कि वह गरीब जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए ही अपने सारे फैसले ले
तथा अपनी प्राथमिकताएं तय करे। तभी एक कल्याणकारी राज्य का सपना साकार हो पाएगा। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. मन्नू भण्डारी, महाभोज, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, नौवा संस्करण 2018 2. डॉ० बच्चन सिंह, आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, राजकमल
प्रकाशन नई दिल्ली, 2021 संस्करण 3. गोपाल राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन,
सातवाँ संस्करण 2019 4. डॉ रामचन्द्र तिवारी, हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय
प्रकाशन वाराणसी 5. निरुपमा सेवती, दहकन के पार, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली 6. मिथिलेश्वर, सुरंग में सुबह, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,
नई दिल्ली 7. डॉ शशि जैकब, महिला उपन्यासकारों की रचनाओं में वैचारिकता 8. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,
देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता(कविता), कविता कोश |
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अंत टिप्पणी | 1. डॉ० बच्चन सिंह, आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 2021 संस्करण, पृष्ठ संख्या 355 2. गोपाल राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, सातवाँ संस्करण 2019, पृष्ठ संख्या 341 3. वही 4. मन्नूभण्डारी, महाभोज, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, नौवा संस्करण 2018,पृष्ठ संख्या- 21 5. वही, पृष्ठ संख्या- 33 6. निरुपमासेवती, दहकन के पार, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली 7. मिथिलेश्वर, सुरंग में सुबह, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली 8. मन्नूभण्डारी, महाभोज, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, नौवा संस्करण 2018 की भूमिका से 9. डॉ शशि जैकब, महिला उपन्यासकारों की रचनाओं में वैचारिकता 10. डॉ रामचन्द्र तिवारी, हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, नौवां संस्करण 2014, पृष्ठ संख्या 263 11. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता(कविता), कविता कोष |