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आदिवासियों
की पारंपरिक जीवन शैली व जीवित रखते आदिवासी |
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Tribals Keeping the Traditional Lifestyle and Survival of Tribals | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Paper Id :
18095 Submission Date :
2023-09-12 Acceptance Date :
2023-09-19 Publication Date :
2023-09-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10046459 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
आदिवासी
से सभ्य नागरिक बनने के प्रमाण सर्वप्रथम सिन्धु घाटी सभ्यता से मिले है। अनादि काल
से भारत का इतिहास एक स्वर्णिम अध्याय रहा है। प्रागैतिहासिक-कालीन राजस्थान में सरस्वती
और दृष्द्धती के किनारे में सिन्धु सभ्यता से बहुत समय पूर्व मानव जीवन हिलोरे मार
रहा था। पाषाण युग में सिन्धु सभ्यता के समकक्ष यहाँ भी सभ्यता और संस्कृति का विकास
हुआ है। सिन्धु सभ्यता के केन्द्रो की खुदाई का इतिहास बताता
है कि लगभग एक शताब्दी पूर्व तक वैदिक सभ्यता को ही भारत की प्राचीनतम सभ्यता माना
जाता रहा। भारत का इतिहास मानव सभ्यता के प्राचीन पाषाण युग से ही प्रारम्भ हो जाता
है। लेकिन देश की विकसित सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास सिन्धुघाटी की सभ्यता (इसे
हड़प्पा सभ्यता भी कहते है) से ही प्रारम्भ होता है। यह सभ्यता वैदिक सभ्यता से भी प्राचीन
है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The first evidence of tribals becoming civilized citizens is found in the Indus Valley Civilization. The history of India has been a golden chapter since time immemorial. Long before the Indus Valley Civilization, human life was thriving on the banks of Saraswati and Drishdati rivers in prehistoric Rajasthan. In the Stone Age, civilization and culture developed here on par with the Indus Valley Civilization. The history of excavation of the centers of Indus Valley civilization shows that till about a century ago, Vedic civilization was considered to be the oldest civilization of India. The history of India begins from the ancient Stone Age of human civilization. But the history of the developed civilization and culture of the country begins with the Indus Valley Civilization (also called Harappan Civilization). This civilization is older than the Vedic civilization. |
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मुख्य शब्द | आदिवासी, संस्कृति, गुणधर्म, उपयोगितावाद। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Tribal, Culture, Quality, Utilitarianism. | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रस्तावना | यह सिद्ध हो चुका है कि सिन्धु घाटी सभ्यता यहाँ के मूल निवासियों और जनजातियों की विकसित शहरी सभ्यता थी। लेकिन भारत में जन-जातियों को आदिवासी कहा जाता है। किसी भी समाज का अतीत महत्वपूर्ण होता है। भारत में अनेको संस्कृतियों के मुकाबले आदिवासी संस्कृति की अपनी विशिष्ट पहचान है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | आदिवासी संस्कृति के
अनेको पृष्ठों में मनुष्य के उत्थान और पतन की कहानियाँ छिपी हुई है। आदिवासी
समुदाय के जन्मजात गुणों में सरलता, सहजता,
सामुदायिकता, अपरिगृह, निष्छलता, बन्धुता, सच्चाई,
सामुदायिकता, ईमानदारी, परिश्रमशीलता, समानता व प्रकृति से घनिष्ठता
की भावना विद्यमान है। आदिवासी समाज में जीने के बाद उनकी भव्यता, दिव्यता व जीवतंता का एहसास होता है। आदिवासी समाज का दृष्टिकोण
उपयोगितावादी तथा जीओ और जीने दो की विचारधारा का समर्थक है। |
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साहित्यावलोकन | आदिवासी समाज प्राचीन काल से अस्तित्व था। आदिवासी समाज के पृष्ठों को पलटने पर हमें उनकी अनेकों पारंपारिक जीवन शैली की जानकारी प्राप्त होती है 1. लेखक केदार प्रसाद की कृत्ति आदिवासी समाज, साहित्य और राजनीति में बताया है कि आदिवासी पारम्परिक समाज नें साहित्य का भी सृजन किया गया। उस समय की ’’कुटुम्ब’’ व्यवस्था आज भी प्रचलित है। 2. लेखक अभिषेक कुमार यादव ने अपने आलेख ’’आदिवासी जीवन संघर्ष और परिवर्तन की चुनौतियों (आलेख) में बताया कि मानव समुदायों की संस्कृति प्रकृति से निकट का संबंधं बनाकर विकसित होती है।’’ 3. लेखिका डॉ. रजना मित्रा ने बुन्देलखण्ड: सांस्कृतिक वैभव में बुन्देलखण्ड आदिवासी समाज का वर्गीकरण व उनकी संस्कृति के दर्शन करवाये हैं। 4. लेखक हरिराम मीणा ने आदिवासी संस्कृति - वर्तमान चुनौतियां का उपलब्ध मोर्चा ने लिखा कि मत देने की नयी बात पर भी आदिवासी समाज में गीतों का सृजन हुआ। ’’वोट देवा चालेंगा जोड़ा सु जूती खोलेंगा।’’ 5. लेखक जनार्दन गोंड अपने लेख ’’आदिवासियों के प्रकृति पर्व सरहुल का साहित्य’’ में बताते है कि इसी त्यौहार से आदिवासियों का नया वर्ष प्रारंभ होता है। 6. नागार्जुन अपनी कविता ’’बंसत की आगवानी’’ में लिखते है कि रंग बिरंगी खेली-अधखिली किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये नजरियाँ यह कविता सरहुल के त्यौहार के समय आदिवासी गाते थे। 7. सुदर्शन सोंलकी लिखित ’’पर्यावरण के संरक्षक हैं आदिवासी’’ लेख में लिखा है कि वन संरक्षण की प्रबल प्रवृति के कारण आदिवासी वन व वन्य जीवने से उतना ही लेते है। जिससे कि उनका जीवन सुलभता से चल सकें। |
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मुख्य पाठ |
’’देश की आजादी के इतिहास की बात होती हैं तो कुछ लोगों की
चर्चा बहुत होती है, कुछ लोगों की आवश्यकता से अधिक होती है,
लेकिन आजादी में जंगलों में रहने वाले हमारे आदिवासियों का योगदान
अप्रतीक था। वे जंगलों में रहते थे बिरसा मुंडा का नाम तो शायद हमारे कानों में
पड़ता है लेकिन शायद कोई आदिवासी जिला ऐसा नहीं होगा जहां 1857 से लेकर अब आजादी आने तक आदिवासियों ने जंग ना की हो, बलिदान न दिया हो।
आजादी क्या होती है, उन्होंने अपने बलिदान से बता दिया था।’’
(प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी, 15 अगस्त 2017) आदिवासी समाज की परिभाषा उस समुदाय से की जाती है, जो पहाड़ी व
जंगल क्षेत्र की है। जिसकी अपनी संस्कृति, धर्म, भाषा, और नृजातीय पहचान होती हैं। मानव शास्त्री
आदिवासी की व्याख्या एक ऐसे सामाजिक समूह से करते है. जिसका एक निश्चित क्षेत्र
में निवास पाया जाता है। इस सामाजिक समूह की पहचान अन्तर्वैवाहिक होती है और
जिसमें कोई विशिष्टीकरण नहीं होता। इन सभी समूहों पर आदिवासी मुखियाओं का राज चलता
है। ये मुखिया लगभग वंशानुगत होते हैं। आदिवासी समूह भाषा और बोली द्वारा एक दूसरे
से जुड़े रहते है। ये समूह सामाजिक रूप से जातियों से लगभग भिन्न होते है। इनकी अपनी पारंपारिक
जीवन शैली, परम्पराये, विश्वास और रीति रिवाज होते
हैं। आदिवासी (हिंदी: ’’मूल निवासी’’) आधिकारिक नाम (भारत में) अनुसूचित जनजाति, विभिन्न जातीय समूहों में से कोई भी जिसे
मूल निवासी माना जाता है उसे भारतीय उपमहाद्वीप में शब्द रूप में अदिवासी कहा जाता है।[1] भारत की जनसंख्या का 8.6% (10 करोड़ जो कि 2011 की जनगणना के अनुसार है) आदिवासी है। महात्मा गाँधीजी ने आदिवासियों को
गिरिजन (क्योंकि अधिकतर आदिवासी लोग जंगल और पहाड़ो पर रहने वाले लोग है जो जंगल
जमीन के सच्चे रखवाले है।) कह कर पुकारा है। महात्मा गांधीजी ऐतिहासिक श्रोत के
अनुसार मानते थे कि आदिवासी भारत के वनवासी है।[2] जनजाति को ही हम आदिवासी भी कहकर पुकारते हैं। आदिवासी को ही हम वनवासी से जोड़कर देखते है। लगभग 400 पीढ़ियों पूर्व तक वन में हम सभी मानव रहते थे। लेकिन नदियों
के किनारे सभ्यताओं का विकास हुआ। सभ्यता के विकास के साथ ही कृषि की खोज हुयी।
अधिक भोजन की आवश्यकता ने मानव को समूहों में रहने के लिये प्रेरित किया था। भोजन
घर व आश्रय की आवश्यकता ने गॉव, कस्बे और अंत में नगर के
निर्माण का पथ बनाया। विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है कि मानव ने जो भी
अभूतपूर्व प्रगति की है वह प्रगति कई पीढ़ियों के दौरान हुई है। यदि मूलनिवासी होने की धारणा पर विचार करें तो धरती के सभी मनुष्य अफ्रीकन या
दक्षिण भारतीय है। कहा जाता है कि लगभग 35 हजार वर्ष पूर्व मानव अफ्रीका या दक्षिण
भारत से निकलकर मध्य एशिया और यूरोप में जाकर बसा था। यूरोप से होता हुआ मनुष्य
चीन, पुनः भारत के पूर्वोत्तर हिस्सो में दाखिल होते हुये
पुन दक्षिण भारत पहुँच गया और फिर अफ्रीका। वेदों में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो आर्यो, दासों,
दस्युओं में नस्लीय भेद की तरफ इशारा करता है। आदिवासी भारतीय
उपमहाद्वीप में विषम जन जातीय समूहों को प्रदर्शित करता है। यह शब्द 1930 के दशक के आस-पास आदिवासी लोगों को एक स्वदेशी पहचान देने
के लिये निर्मित किया गया एक संस्कृत शब्द है। बांग्लादेश में चकमा, नेपाल में भूमिपुत्र, खास और श्रीलंका के वेड्डा
लगभग आदिवासी ही है। भारत के संविधान में आदिवासी शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। इसके बजाय
अनुसूचित जाति व जनजाति का प्रयोग किया गया है।[3] भारत देश ने संयुक्त राष्ट्र (1957)
के स्वदेशी और जनजातीय लोगों पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन कन्वेंशन 107
की पुष्टि की और अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन 169 पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था। इनमें से अधिकांश समूह भारत में
संवैधानिक प्रावधानों में अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल है। 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजाति देश की कुल जनसंख्या
का 8.6 प्रतिशत है। देश की अनुसूचित जनजाति की आबादी 1961
में 6.9 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 8.6 प्रतिशत हो गयी है। भारत में तेलंगाना,
आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात,झारखण्ड, मध्यप्रदेश
ओडिशा, राजस्थान, में आदिवासी समाज
विशेषतया रूप से प्रमुख है। पश्चिमी बंगाल, पूर्वोतर भारत,
मिजोरम भारत के अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में आदिवासी है। भारत के मूल निवासियों में से आदिवासियों का एक होने का दावा किया जाता है।
सिन्धु सभ्यता के पतन के बाद बने कई आदिवासी समुदाय प्राचीन शिकारी, सिन्धु
घाटी सभ्यता, इंडो आर्यन ऑस्ट्रोएशियाटिक और तिब्बती से
विभिन्न पूर्वजो का आश्रय देते है जनजातीय भाषाओं को सात भाषाई समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है, अर्थात
अंडमानी, ऑस्ट्रो-एशियाटिक, दृविड़,
इंडो-आर्यन, निहाली, चीन
तिब्बती और क्रा दाई। पूर्व, मध्य, पश्चिम और दक्षिण भारत के आदिवासी
राजनीतिक रूप से ’’आदिवासी’’ का उपयोग
करते है। जबकि उत्तर पूर्व भारत के आदिवासी ’’आदिवासी”
या अनुसूचित जनजाति का उपयोग करते हैं। ये लोग अपने लिये ’’आदिवासी’’शब्द का उपयोग नहीं करते।[4] आदिवासी भारतीय उपमहाद्वीप की जनजातियों के लिये सामूहिक शब्द है। जिन्हें
द्रविड़ और इंडो-आर्यन से पहले भारत के स्वदेशी लोग होने का दावा किया जाता है। यह
भारतीय उपमहाद्वीप के मूलनिवासी माने जाने वाले विभिन्न जातीय समूहों में से किसी
को भी संदर्भित करता है। आदिवासी शब्द आधुनिक संस्कृत शब्द है जिसे विशेष रूप से 1930 के दशक
में आदिवासियों को पहचान देने के लिये गढ़ा गया था। उस समय यह तथ्य प्रस्तुत किया
गया था कि भारत-यूरोपीय और द्रविड़ भाषी लोग स्वदेशी नहीं है। आदिवासी शब्द का प्रयोग ठक्कर बापा ने. 1930 के दशक में जंगल के निवासियों को
संदर्भित करने के लिये किया था। 1936 में यह शब्द पास्कल
द्वारा तैयार अंग्रेजी शब्दकोश में शामिल किया गया था। इसी शब्द को 2011 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश मार्कडेय काटजू द्वारा
मान्यता दी गयी थी। चंदा समिति ने सन् 1960 में अनुसूचित जातियों के अंतर्गत किसी भी जाति को शामिल
करने के लिये 5 मानक निर्धारित किये है- 1. भौगोलिक पिछड़ापन 2. विशिष्ट संस्कृति 3. पिछड़ापन 4. संकुचित स्वभाव 5. आदिम जाति के लक्षण आदिवासी समाज की विशेषतायें:- 1. इनका एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है। 2. सामान्यतया आदिवासी जंगलों में व पहाड़ों में रहते हैं। 3. दूसरे समूहों की तुलना में ये पृथक या अर्थ पृथक क्षेत्र में
निवास करते है। 4. इनकी अपनी संस्कृति, जनरीतियाँ ब्रह्म
विज्ञान और विश्वास व्यवस्था होती है। 5. आर्थिक दृष्टि से ये सभी आत्म निर्भर होते हैं। ये
जीविकोपार्जन करते हैं एवं बाजार के लिये कोई अतिरिक्त उत्पादन नहीं करते है।
आदिवासी समूहों की तकनीकी आदिम होती है। इनकी अर्थव्यवस्था मुद्रा पर निर्भर नहीं
करती। ये वस्तु के बदले वस्तु प्रणाली पर काम करते है। 6. अधिकतम आदिम आदिवासी समाज वर्तमान की समस्याओं पर अपना ध्यान
केंद्रित रखते है। आदिवासी अपने भविष्य के बारे में नहीं सोचते है। 7. आदिवासी समाज की अपनी स्वयं की भाषा होती है। तथा उनकी भाषा
की कोई लिपि नहीं होती है। 8. आदिवासी समाज की स्वयं की राजनीतिक व्यवस्था होती है। यह
व्यवस्था राज्यहीन या राज्य दोनों की होती हैं। आदिवासी समाज में कोई राजा नही
होता था। उनके समाज की समस्त व्यवस्था परिवार व नातेदारी सम्बन्धों से चलती थी। समय
के साथ राज्य व्यवस्था आयी जिसमें चुनाव के माध्यम से राजा या मुखिया मनोनित होने
लगा था। वर्तमान में यह स्थिति बदल गयी है। वे अपनी स्वायतता को छोड़ स्थानीय
प्रशासन का अंग बन गये है। 9. आदिवासी समाज को सरल समाज कहते है। क्योंकि इस समाज में कठोर
सामाजिक स्तरीकरण नहीं होता। 10. आदिवासी समाज का धर्म होता है। इनका देवी-देवताओं पर
विश्वास होता है। अपने देवी देवताओं की पूजा करना इनकी दिनचर्या में शामिल है।
आदिवासी समाज का विश्वास प्रकृतिवाद में भी होता है। ये पेड़ पौधे नदी नाले सूर्य
चंद्र जंगल की पूजा करते है। 1. अनुसूचित जनजातियों की विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखते
हुये भारत के संविधान ने सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने और उन्हें
संभावित शोषण से बचाने के लिये विशेष उपाय प्रदान किये है। मौलिक अधिकार उनके
समग्र विकास को सुनिश्चित करते हैं। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत राज्य को एक
अनुकुल वातावरण बनाने के लिये प्रेरित करते हैं। जिसका उसके नागरिक आनंद उठा सकें। संविधान ने अपनी पांचवी और छठी अनुसूची में उन क्षेत्रों के लिये विशेष
प्रावधान भी रखे है। जिनमें अनुसूचित जनजाति की आबादी अधिक है।[5]
भारत में 461 जनजातियां है, जिसमें
से 424 जनजातियां भारत देश के सात क्षेत्रों में बटी हुई है। उत्तरी क्षेत्र:- जम्मू- कश्मीर, उत्तराखंड,
हिमाचल प्रदेश जातिया:- लैपचा, भूटिया,
थारू, बुक्सा, जॉनसारी,
खाम्पटी, कनोटा उत्तरप्रदेश - तराई जिलों में थारू, बोक्सा, भूटिया, राजी, जौनसारी पूर्वी उत्तर प्रदेश में ग्यारह जिलों में गोंड, धुरिया, ओझा, पठारी, राजगोड. तथा देवरिया बलिया वाराणसी. सोनभट्ट
में खरवार व ललितपुर में सहरिया, सोनभद्र में बैगा, पनिका, पहाड़िया, पंखा, अगरिया, पतरी, चेरो भूइया बिहार- असुर अगरिया, बैगा, बनजारा, बैठुडी, बेदिया,
खरवार, भूमिज, संथाल आदि पूर्वोतर क्षेत्र:- नागा, मिजो, गारो, खासी
जंयतिया, आदि, न्याशी अंगानी, भूटिया, कुकी रेगमा, बोडो और
देवरी पूर्वी क्षेत्र:- उड़ीसा:- मुण्डा- संथाल, हो, जुआंग, खोड़, भूमिज, खरिया झारखण्ड:- मुण्डा, उराँव,
भूमिज, संथाल, बिरहोर,
हो संथाल भारत की सबसे बड़ी जनजाति है। संथाली भाषा को संविधान में मान्यता
प्राप्त है। पश्चिमी बंगाल:- मुण्डा, हो. भूमिज, उरॉव, संथाल
कोड़ा मध्यप्रदेश:- गोंड, कोल, परधान, बैगा,
मारिया, धनवार, धनुहार,
धुलिया, पहाड़ी, कोरवा,
बिरहोर, हल्वा, कवंर,
अबूझमाडिया पश्चिमी भारत:- गुजरात (राजस्थान में विशेषकर उदयपुर संभाग में भील, मीना,
गरासिया व सिरोही की आबुरोड व पिण्डवाड़ा में भील नायक, गरासिया, गोंड, धाणका, भीलाला बारेला दक्षिण भारत में केरल - कोटा, बगादा, टोडा कुरुबा, कादर, चैचु,
पुलियान, नायक, चेटी द्विपीय क्षेत्र:- अंडमान-निकोबार - जाखा, आन्गे,
सेन्टलिस, सेम्पियन (शोम्पेन) आदिवासी पहचान और संस्कृति:- (आदिवासी समाज का योगदान) भारत की जनसंख्या को एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है। पुरातन लेखों में
आदिवासियों को अत्विका और वनवासी भी कहा गया है। संविधान में आदिवासियों के लिये
अनुसूचित जनजाति पद का उपयोग किया गया है। भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में
संथाल, गोंड, मुंडा, खड़िया,
हो, बोड़ो, भील, खांसी सहरिया, गरसिया, मीणा
उरांव, बिरहोर है।[6] ’’आदिवासी मुख्य रूप से भारतीय राज्यों उड़ीसा, मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश,
बिहार, झारखण्ड, पश्चिम
बंगाल के अल्पसंख्यक है। जबकि भारतीय पूर्वोत्तर राज्यों में यह बहुसंख्यक है। जैसे-
मिजोरम । भारत सरकार ने इन्हें भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में अनुसूचित
जनजातीयों के रूप में मान्यता दी है।’[7] आदिवासियों को अपनी माटी से जुड़े रहना अत्याधिक पसंद है। नदियों-झरनों व जंगल
की गोद में रहना उनको पसंद है। पेड़ों से प्रेम करना उनका संस्कार है। पहाड़ों में
हवाओं के साथ घुली भाईचारे और बंधुता मरी उनकी मौलिक सोच है। तभी तो आकाश में
बादलों को चीरकर उड़ते चीलों को देखकर आदिवासी अपनी खेती की तैयारी प्रारंभ कर देते
हैं। आदिवासियों का यह मानना है कि आकाश में चीलों का उड़ना उनके कुल देवताओं द्वारा
अच्छी बारिश का संकेत है। माटी के टीलों और चट्टानों में उनके आखिरी पूर्वजों का वास मानते है। उस टीले
पर चढ़कर आकाश की ओर गर्दन उठाये गिरगिट को देखना भी आदिवासी बारिश का इशारा मानते
हैं। समस्त जीवन काल में कुदरत के साथ रहने वाले, जीव जंतुओं की गतिविधियों से मौसम का आगमन
मानने वाले दुनिया के तमाम मुल्कों में मूल वांशिदों का समाज, वह समाज जिस समान का लोकाचार और दैनिक जीवन व्यवहार कुदरत के विभिन्न
अवयवों के साथ है। ये अवयव - जल, जमीन और जंगल है। जल, जमीन और जंगल के साथ भावुकता भरे रिश्तों में हंसता खेलता और
इठलाता आदि समाज अपने आप में मस्त मौला रहने वाला समाज है। ’’आदिवासियों का अपना धर्म है। ये प्रकृति पूजक है। और जंगल,
पहाड़ नदियों एवं सूर्य की आराधना करते हैं। समूचे पारिस्थितिकी को साथ लेकर जीना आदिवासी संस्कृति का मूलभूत गुण है।[8] प्रकृति के बीच रहकर प्रकृति के साथ पारस्परिकता का जीवन आदिवासी समाज का
मूल्यबोध है। इसी सकारात्मक जीवन शैली के कारण यह समाज जीवित है। ’’वन्य जातियाँ से हमारा तात्पर्य ऐसे सामाजिक समूहों से होता
है जो एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहते हुये समान संस्कृति का अनुशील करते
हैं। अर्थात् जिनकी भाषा धर्म-रीति-रिवाज आदि, विशिष्टता
लिये हुये परस्पर सामान्य है।’’[9] कुदरत से कम से कम लेना और पुनः वापस कुछ देना उनकी यही परंपरा है। इसीलिये
आदिवासी समाज का तात्पर्य ही परंपरा - जिसका ताना-बाना पुश्तों और पीढ़ियो से है, उस इतिहास
से है जहां शैल चित्रों पर कुछ भाव - भंगिमा को चित्रित करता इंसान दिखता है। साथ
ही साथ गुफाओं में कलाकारी करते उन आदि-मानवों के वंशज जो कृषि की नयी तकनीक लेकर
तरक्की करने की जिद रखते है। इन सबके बाद भी आधुनिकता की धार में, उसी मझदार में उन आदिवासियों की वन्य
संस्कृति है और उससे जुड़ा लोकज्ञान आज भी जिंदा है गंगा यमुना-ब्रह्मपुत्र और इन नदियों की लगभग डेढ दर्जन सहायक नदियों के दोनों
किनारों की मुलायम माटी पर बसी भारत की लगभग 60% आबादी का लोक व्यवहार पौराणिक कथाओं का
अनुगामी है। इस लाल और काली माटी वाले समाज की रोजमर्रा की जीवन यात्रा के भी पारंपरिक
अनुमान व रिवाज है। आदिवासी संस्कृति में ’’आदिवासी-धर्म’’ की संकल्पना है। उनका
धर्म यानी प्रकृति पूजा। प्रकृति की पूजा ही धर्म है। और इसी धर्म के सम्मान में
दुनिया भर के पर्यावरण को बचाने का कार्य किया है। समस्त आदिवासी समाज के लिये
जीव-जंतु सम्मानित है। यद्यपि वे सभी शिकार प्रेमी होते हैं। इनकी अधिकतम आबादी
मांसाहारी है। लेकिन जीवों के प्रति उनकी संवेदनशीलता सराहनीय है। ’’मानव-समुदायों की संस्कृति प्रकृति से निकट का संबंध बनाकर
विकसित होती है। वे अधिक सौंदर्यबोधी आनन्ददायक व कल्याणकारी होती है और जो
संस्कृति प्रकृति से दूर हटती जाती है वे शास्त्रीय व्याकरणीय औपचारिक, प्रतिमान आधारित, सजावटी तथा नीरस बनती चली जाती है।[10] सभ्यता और भौतिक विकास के अनुसार संस्कृत्ति अपना स्वरूप ग्रहण करती है। भौतिक
विकास के अन्तर्गत संस्कृति मानव निर्मित होती है। यह सच है कि मनुष्य का जीवन
अंतत् प्रकृति पर निर्भर होता है। अतः प्रकृति और संस्कृति में जुड़ाव होना
अनिवार्य होता है। झारखण्ड के सघन वन्य इलाकों में आदिवासी जीव जंतुओं को पूजते हैं। कई
आदिवासियों के कुल गौत्र का नाम जीव-जंतुओं के नाम से रखा जाता है। पशु-गोत्र, पक्षी-गोत्र,
जलचर गोत्र, रेंगने वाले जंतु गोत्र और वनस्पति गोत्र के रूप में गोत्र विभक्त है। यदि कच्छप गोत्र है तो ऐसे आदिवासी कछुए की पूजा करते है। आदिवासियों में
तिर्की गोत्र छोटे छोटे चूहे को पूजते हैं। तिग्गा गौत्र वाले बंदरों को मानते
हैं। खलखो गोत्र वाले यहाँ विशेषतया एक मछली की पूजा करते हैं। लकडा गोत्र वाले
आदिवासी बाघ को अपना गोत्र चिन्ह मानते है। केरकेट्टा गोत्र वाले आदिवासी भी एक
विशेष प्रकार की मछली की पूजा करते आये है। केरकेट्टा गोत्र के आदिवासी उस मछली
को नहीं मारते जिसकी वे पूजा करते हैं। जल जंगल और जमीन को अपनी परंपराओ में भगवान का दर्जा देने वाले आदिवासी बिना
किसी आंडबर के समस्त जंगलों और स्वयं के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये निरंतर
प्रयासरत है। जीव जंतु के साथ- साथ आदिवासी समाज विभिन्न प्रजाति के पेड़-पौधों से
लेकर फूलों और फलों से लेकर पहाड़ों को पूजने का रिवाज भी निभाते हैं। पुरानी
परम्पराओं को सम्मान देते हुये इन्हें साल का वृक्ष बचाना है तो किसी को सेमल बचाने
की चिंता सताती है क्योंकि साल के वृक्ष को साक्षी मानकर विवाह सम्पन्न करते हैं
और यदि विवाह विच्छेद करना है तो साल के पत्तों को दो खंडो में खंडित करने का
रिवाज है। आदिवासी समाज को करमा का वृक्ष हर हाल से बचाकर रखना है क्योंकि करमा
पर्व मनाने के लिये करमा वृक्ष का होना आवश्यक है। करमा का वृक्ष धार्मिक आस्थाओं
का प्रतिनिधि वृक्ष है। पर्व पुरातन सभ्यता में छाल और पतों से तन ढंकने वाली
अवस्था से आगे बढ़कर जब कपड़े पहनने की शुरुआत हुयी तो सेमल की आवश्यकता पड़ी। आदिवासी संस्कृति और जीवन व्यवहार में उन्हीं वृक्षों को साथ रखा गया जिनसे
किसी तरह की धार्मिक मान्यता जुड़ी हुयी थी। जो वृक्ष आर्थिक वजहों से लाभदायी थे
और जिनका औषधि बनाने में उपयोग होता था, उनको भी आदिवासियों ने सहेज कर रखा था। पेड-जीव-जंतु-पंछी या जलीय जीव आदिवासी जीवन के नियामक है। ये बाते आदिवासियों
द्वारा बनायी गयी चित्रकलाओं में, उनके लोकगीतों ने और कहावतों में झलकती है। ’’आदिवासी संस्कृति में गीत, लोकोक्तियाँ,
कहावतों तथा कहानियों जिनमें लोक कथायें, अनुश्रुतियां
तथा मिथक शामिल हैं। यह आदिवासियों के हर क्षेत्र में मिलते हैं।[11] आदिवासी समाज अपने खेतों से पैदा किये चावल पीसकर उसका घोल बनाते है। पीली
मिट्टी गेरू, और अन्य कुदरती रंगो से समाज के मिथकों, तमाम किंवदंतियों और दंत कथाओ को सजाकर पेश करते गोंड आदिवासी समाज के
द्वारा यथार्थपूर्ण दृश्य प्रस्तुती को विश्व की श्रेष्ठ लोक कलाओ का उदाहरण माना
जाता है। लेकिन यह एक सर्वोतम सच है कि इन तमाम प्रसंगों में कहीं भी कुदरत को
हानि नहीं पहुँचायी जाती है। ’’भारतीय दर्शन शास्त्र, भाषा, एवं रीति रिवाज में आदिवासियों के योगदान के फैलाव और महत्व को अक्सर
इतिहासकार और समाज शास्त्रियों द्वारा कम करके आंका और भुला दिया जाता है।’’[12] आदिवासियों की वर्तमान सोच उनके लोकज्ञान का परिणाम है। आदिवासी समाज का यह
ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी मुंहजुबानी सौंपा जा रहा है। यानी न नो तो स्थापित आश्रम है न
कोई ग्रंथ है और न किसी कुल की परंपरा है। ज्ञान की इसी परंपरा के साथ-साथ लोक जीवन के अपने अलग राग है। आदिवासी समाज के
रंग और रूपक है जो जीवंत है। आदिवासी समाज के रोज के मुहावरे है जो जीने की राह
दिखाते हैं। कदम दर कदम की लोकोक्तिया है, जो संघर्षो में उनके साथ हमसफर की तरह
शामिल है। समस्त आदिवासी लोकज्ञान का सरोकार कलाओं तक, जीवन व्यवहार तक या धार्मिक अनुष्ठानों तक
सीमित नहीं है बल्कि उनका ज्ञान सेहत दुरुस्त रखने से लेकर जान-प्राण बचाने तक
विस्तृत है। इस आदिवासी समाज ने जड़ी-बूटियां लेकर आते उनके वैद्य है, कहीं खास बूटियों-छाल और पत्तों से साँप द्वारा काटे जाने का इलाज करने
वाले वैद्य है। चूर चूर चकनाचूर हो चुकी हड्डियों को जोड़ते हुये लोग भी इसी समाज में रहते
हैं। ऐसे वैद्य भारत के हर आदिवासी गाँव में है। विष वैद्य भी भारत भर में है।
लेकिन दक्षिण भारत में ऐसे वैद्य खासतौर से विष हरने का काम करते नजर आते हैं।
ओडिशा राज्य में ऐसे कई वैद्यों का घर है और विष हरना उनकी परम्परा है। हड़जोडवा
लोगों की दर्जनों बस्तियाँ ओडिशा राज्य में निवास करती है। आदिवासी समाज के समस्त प्रकार के वैद्यों और जानकारों की सबसे बड़ी विशेषता यह
है कि इनका काम-कारोबार पीढ़ीगत है। आदिवासी भारत में वैसी धाय (दाई) होती है जिनका काम बच्चे पैदा करवाना होता
है। विज्ञान के क्षेत्र की सबसे बड़ी जटिलता को भी अपने परंपरागत ज्ञान से सहजता से
करने वाली इन धायों के पास जड़ी बूटियो का ज्ञान है जो दर्दरहित प्रसव करवाती है। दंडकारण्य की सभी धायों के पास कई ऐसी जडी-बूटियों का ज्ञान है, जिनका
उपयोग गर्भनिरोधक के रूप में किया जा सकता है। आदिवासी धायों के पास ऐसी जड़ी बूटी होती है कि उसे यदि कोई महिला कमर पर बाँध
रखी तो गर्भधारण नहीं कर सकती। जैसे हिंदू समाज ने मंत्र की रचना की थी तो
आदिवासियों के पास अपना तंत्रविज्ञान था। आज हिंदू धर्म में मंत्र और तंत्र की मौजूदगी
हिंदूओं व आदिवासियों के परस्पर सम्मिलन से संभव हो सकी थी। आर्युवेद के आचार्य धंवंतरि के अनुसार "आयुर्वेद को समझना है तो जंगलों में जाकर
आदिवासियों से उस विज्ञान को समझना और सीखना होगा।’’[13] आज भी आवश्यकता आदिवासियों को सिखाने की नहीं है बल्कि हमें सीखने की है। उनकी
उन विधियों को समझना होगा जिन विधियों को सावधानी से अपनाकर आदिवासियों के सभी
गांवों में खुशियां है, तसल्ली है. निश्चिंतता के मोहक और प्रेरक वैविध्य हैं। खाद्य और कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, जिन क्षेत्रों में आदिवासियों का निवास है
वहां वनों के कटने की दर बहुत कम है। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो दशकों में
प्रकाशित लगभग 300 से अधिक अध्ययनों की समीक्षा के आधार पर
लैटिन अमेरिका में स्वदेषी आदिवासी/जनजातीय और
कैरेबियाई लोगों का वनों के सर्वश्रेष्ठ संरक्षक होने का पहली बार पता चला। आदिवासी
खेती भी अधिकार समझकर नहीं करते व उस पृथ्वी माता का भी धन्यवाद ज्ञापित करते है
कि उसने उन्हें कुछ उगाने का अवसर दिया है। खेती-किसानी से लेकर जीवन की हर जरूरत में जलस्रोतों जंगलों व पहाड़ों पर
निर्भर आदिवासी किसी भी सूरत में जलस्रोतो-जंगलों व पहाड़ों के उस प्रवाह को
प्रभावित नहीं करते है जिसके कारण आज पहाड़ जिंदा है, नदियों में नाद है, निनाद
है और जंगलों में जिंदगी बचाने वाली न जाने कितनी जड़ी बूटियाँ है। माना जाता है कि महुआ कुदरत का अनमोल तोहफा है। भोजन से लेकर दवाई ईंधन और
परंपराओं में इसका प्रयोग होता है। महुआ के फूलों को इस धरती का अमृत और महुआ के
पेड़ को कल्पवृक्ष माना जाता है। आदिवासी इस वृक्ष के लिये अपनी जान तक दे सकता है।
यदि साल वृक्ष के पत्तों से आदिवासी दाम्पत्य संबधं तोड़ा जाता है तो उन्हीं पत्तों के
जरिये बिरसा मुंडा ने क्रांति और संग्राम का बिगुल फूंका था। कई दूर के इलाकों में साल के फूल और पत्ते भेजकर आदिवासी अस्मिता को बचाने का
अपना संकल्प दोहराया था। वर्तमान काल की सबसे भयानक सच्चाई नष्ट होते जंगल है। इन
जंगलों को नष्ट होते हुये देखता आदिवासी समाज महुआ वृक्ष को उतना ही शुद्ध और
पवित्र मानता है जितना हमारे लिये हमारा पीपल माननीय और वंदनीय है। महुआ का पौधा
आदिवासी समाज को भोजन देता है। महुआ के फूलों से आदिवासी लोग लड्डू से लेकर शराब तक
बनाते है। आदिवासी समाज में जन्म से लेकर मरने तक व मरने के बाद भी महुआ से बनी शराब का
तर्पण किया जाता रहा है। महुआ के फूलों का अपना एक वैद्य उपयोग है। मौसम की अधिकतम
जानकारी रखने वाले आदिवासी भोजन की पौष्टिकता को भी अपनी धार्मिक मान्यताओं से
जोड़ते है। उस भोजन को भी अपनी आस्थाओं के साथ संयोजित कर लेते है। महुआ के बिना आदिवासी समाज की जिंदगी चल नहीं सकती है। यह समाज महुआ से चोप
(गौंद) निकालते है। इस गोंद का प्रयोग घर में अन्न का नुकसान करने वाले चूहों को
पकड़ने के लिये किया जाता है झारखण्ड के पटमदा प्रखंड के निवासी महुआ की लकड़ी में आग लगाकर उसका कोयला
तैयार करते है। चूंकि महुआ की लकड़ी के कोयले में ताप अधिक होता है, इसलिये
लोहा इस आग में जल्दी गलता है। महुआ के कोयले में किसान अपने लोहे के औजार हंसिया,
कुदाली आदि बनाते है। झारखण्ड के असुर आदिवासी कई सदियों से लोहा
गलाने का पारंपरिक कारोबार कर रहे हैं। प्रख्यात नृविज्ञानी वेरियर एल्विन ने इन असुरों को आधुनिक भारत का ’’लौह
शिल्पकार’’ कहा था। यदि आज भी हम समझ लें तो महुआ की उपयोगिता
हमारे काम आ सकती है। महुमा के फल के गुदे (पल्प) का उपयोग पौष्टिक सब्जी बनाने ने
किया जा सकता है। इसके बीज की गिरि से निकलने वाला तेल खाद्य तेल और प्रसाधन के
रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इसके पत्तों से दोना पत्तल बनाया जा सकता है। लोकज्ञान का सीधा सा अर्थ कुदरत का साथ है। जब हम प्रकृति के अनुकूल जीवनशैली
बना लेते है और उस प्रकृति पर ही भरोसा करते है तो जीवन सुसंगत प्रवाहित होता है।
आदिवासी समाज अधिकारों की बजाय कर्तव्यों पर बल देता है। इसलिये उनका लोकज्ञान आज
भी जीवित है। बिरसा मुंडा के समय के लोकज्ञान का राजपथ है परंपरा और परंपरा की सबसे अच्छी
मिशाल गुजरात कच्छ जिले की नमक भूमि वाले रण इलाके के मूल बाशिंदे मालधारी लोग
कुदरत की बनायी और बिछाई गयी बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में मजे से रहते हैं।
गुजरात रण के ये पशुपालक होते है। मवेशियों की परवरिश से कमाकर अपना जीवन यापन
करते है। कच्छ क्षेत्र की बन्नी भैंस बीस-बीस लीटर दूध देती है। ये मालधारी आदिवासी भी
अपने मवेशियों की गतिविधियों को देखकर आगामी मौसम की जानकारी ले लेते हैं। जब इन लोगो का कुत्ता आकाश की ओर बार-बार देखने लगता है तो ये मानते है कि
बारिश होना तय है। उसी प्रकार बारिश के मौसम में, भैंस या गाय कान हिलाते हुये बाहर आने को
व्याकुल हो तो इसका मतलब भी बारिश होना होता है। कच्छ रण के मालधारी आदिवासी
काकरेज गाय पालते है। जब भी इनकी गाय सूर्य की ओर देखती हैं तो यह समाज बारिश की
आस रखने लगता है। कच्छ रण में बिना अकाल ही जल की किल्लत रहती है लेकिन बारिश पर निर्भर रहने
वाले मालधारी अपने और मवेशियों के लिये ’’विरदा’’ पद्धति से जल
को एकत्र करते हैं। यह एक परम्परागत जल संरक्षण पद्धति है। इस विधि में झीलनुमा
जगह का चयन करते है, जहाँ पानी का बहाव हो। फिर ऐसी जगहों पर
उथले कुएं बनाये जाते हैं और उनमें बारिश के मीठे जल की एक एक बूँद एकत्रित की
जाती है। यहाँ का भूजल खारा होता है लेकिन बारिश का मीठा पानी एकत्र किया जाता है।
खारे पानी के ऊपर मीठे पानी का समायोजन अलग किस्म का नमूना है। ओडिशा के आदिवासियों के लिये माटी पूजनीय है। उनके लिये माटी में बीज डालना
किसी यश से कम नहीं है। धान दलहन की लगभग 500 प्रजातियों के बीज ये लोग बचाते आ रहे
हैं। ओडिशा के एक दर्जन से अधिक आदिवासी समुदायों के बीच बीजों का संग्रह का रिवाज
सदियों से है। कालजीरा, गोठिआ, हल्दीचूडी
उमूरिचुडी, माछाकांता, भूदेई और
दोदिकाबुरी जैसी धान की प्रजातियों को ओडिया भुला चुका है। लेकिन कोरापुट के आदिवासी समुदायों में इन अलभ्य प्रजातियों की खेती हो रही
है। यद्यपि इन दुर्लभ प्रजातियों की खरीद सरकारी मंडियों में नहीं होती है। इसलिये
मात्र अपने उपभोग के लिये आदिवासी इनको पैदा करते हैं। धान की प्रजातियों को किस
जमीन पर उगाना है, यह इन आदिवासियो को मुँह जुबानी याद रहता है। गोबर की खाद के
भरोसे खेती करने वाला आदिवासी समाज रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं करता। दुर्लभ
प्रजाति के धान की खेती से पूर्व मौसम की नब्ज अर्थात हवाओं की दिशा को देखते हैं।
बादलों की सघनता, उसके रंग और उसकी गति का अंदाजा लगाते हैं क्योंकि आदिवासियों के लिये खेती विज्ञान नहीं, उनकी संस्कृति है। बादलों की रंगत पहचानने में आदिवासी अत्यंत निपुण होते है। आकाष का रंग और
तैरते या डेरा जमाकर पसरे बादलों के बीच का रंग देखकर अंतर करना उनका खूब आता है।
कालाहांडी (ओडिशा) के खेतों में धान रोपने की तैयारी कोंड - कुटिया आदिवासी तब
शुरू करते है जब शाम के समय पूरब दिशा में पहाड़ के समान बादल उमड़ने लगे। लेकिन
उत्तर दिशा में बादल घिरना उनके लिये इस बात का संकेत है कि अगले 72 घंटे में
बारिश होने वाली है। झारखंड में असुर, संथाल, बंजारा, विरहोर, चेरो गोंड,
हो, खोंड, मुंडा,
भूमिज उरांव, लोहरा, करमाली,
माई पहरिया आदि बतीस से अधिक आदिवासी समूह है। झारखंड के पलामू जिले के इलाको में गर्मी के मौसम में चाँदनी रात में मुख्यतया
आपाढ़ पूर्णिमा की रात जब हवा नहीं बहती तो असुर आदिवासी अपना टीला छोड़कर परदेस
जाकर कमाई करने का मन बना लेते है क्योंकि उस साल अकाल निश्चित हो जाता है। आज तक पलामू के आदिवासियों का पलायन समाज विज्ञानियों के लिये एक पहेली है।
झारखंड के गुमला जिले में यदि बारिश के मौसम में सूरज डूबने से पहले यदि पश्चिम
दिशा में लालिमा सामान्य से ज्यादा गहरा जाये तो बारिश का संकेत माना जाता है। ओडिशा के कोरापुत में आदिवासी इस बात को स्वीकार करते हैं कि सफेद रंग का बादल
खेत भर बरसात करता है, लाल रंग का बादल तालाब भर बरसता है। पीले रंग का बादल कटोरी
भर बरसता है। सोनभदृ के पनिका समाज का मानना है कि धुंअरी रंग का बादल जरूर बरसता
है। और यह बादल खेत-नदी नाले सबकुछ लबालबा भर देता है। मालवा-निमाड माटी के भील इस
बात को मानते है कि शुक्रवार का उठा बादल यदि शनिवार तक छाया रहे तो लोगों को
रविवार बाहर निकलने का कार्यक्रम स्थगित कर देना चाहिये। क्योंकि ऐसे में खूब
बारिश होती है। ओडिशा के सुंदरगढ़ के उरांव आदिवासी इस परम्परा को मानते है कि बीच अगस्त के
बारिश का पानी पीना बेहद लाभदायक होता है। यदि छोटे बच्चों के पेट में कीड़े हो तो
यह पानी पिलाने पर कीड़े मर जाते है। उरांव आदिवासियों के अनुसार गंगाजल अत्यंत
पवित्र होता है। ओडिशा के क्योंझर के लोधा आदिवासियों का मानना है कि सोमन रंग के बादल आकाश
में सजे रहते हैं बरसते नहीं है। तूरिमा भादिवासियों का मानना है कि पीले या गेरूआ
रंग के बादल भी नहीं बरसते है। यहीं बादल थोडा सा लाल रंग ले ले तो खेतों में इतनी
बरसात होती है कि पिंडलियां डूब जाती है। तूरिमा आदिवासियों के अनुसार जनवरी में
यदि आकाश -लाल पीला हो जाये तो बारिश नहीं होती बल्कि ओले बरसने की आंशका होती
हैं। आदिवासी समाज इस मौसमी तथ्य को भी सहज स्वीकार करता है कि मई या जून की जिस
तिथि पुरवईया बहती है तो जुलाई या अगस्त में उसी तिथि को बारिश होना सुनिश्चित है। ’’आदिवासी पारम्परिक मेलों में इकट्ठे होते हैं,” उनमें अविवाहित युवक युवतियों की संख्या काफी होती है मेले के उत्सव उंमग,
नाच-गान व मौज मस्ती में वे उल्लास के साथ भाग लेते है। इस दौरान
जान-पहचान व दोस्ती होती है। विपरीत लिंगाकर्षण से उत्पन्न स्वाभाविक प्रीति भी
पनपती है। जो युगल शादी करने का मानस बना लेते है वे मेला स्थल से भागकर ऊँची
पहाड़ियों पर चढ़ जाते हैं। और वहीं से अपने एक हो जाने का एलान करते है।’’ संबंधित युवक-युवतियों के परिवार व संबंधियों में बुजुर्ग लोगों को यह पता
चलता है तो वे गोत्र आदि व पृष्ठ भूमि की कोई वैमनस्यता की बाधा न होने पर विवाह
की स्वीकृति दे देते हैं। और वहीं सगाई की रस्म निभा दी जाती है। किसी कारणवश शादी
न हो पाये तो दोनों भागकर अपना घर बसा लेते है। दोनों की स्थित्तियों में मेला
स्थल से भाग जाने की वजह से इस परम्परा को ’’भगोरिया” नाम दिया
जाता है।[14] छतीसगढ के आदिवासी बहुल इलाके में (बस्तर) अनूठा दशहरा मनाया जाता है। बस्तर
दशहरे की शुरूआत श्रावण (सावन) के महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से होती
है। इस दिन रथ बनाने के लिये जंगल से पहली लकड़ी लाई जाती है। इस रस्म को पाट
जात्रा कहा जाता है। यह त्यौहार दशहरा के बाद तक चलता है। यह दशहरा मुरिया दरबार के साथ समाप्त होता है। इस रस्म में बस्तर के महाराज
दरबार लगाकर जनता की समस्यायें सुनते हैं। बस्तर का यह त्यौहार सबसे ज्यादा दिनों
तक मनाया जाने वाला त्यौहार है। दक्षिण बस्तर में एक अनोखी परंपरा है जिसमें परिजन मरने के बाद उसका स्मारक
बनाया जाता है। इस परंपरा को मृतक स्तंभ के नाम से जाना जाता है। दक्षिण बस्तर में
मारिया और मुरिया जनजाति में मृतक स्तंभ बनाये रखने व बनाने की प्रथा प्रचलित है।
स्थानीय भाग में इसे ’’गुडी” कहा जाता है। प्राचीन समय में
जनजातियों में पूर्वजों को जहां दफनाया जाता था वहां 6 से 7
फीट ऊंचा एक चौड़ा तथा नुकीला पत्थर रख दिया जाता था। पत्थर दूर
पहाड़ी से लाये जाते थे तथा लोग इस कार्य में मदद करते थे। छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के माडिया जाति में परंपरा घोटुल को मनाया जाता है।
घोटुल में आने वाले लड़के-लड़कियों को अपना जीवन साथी चुनने की छूट होती है।
घोटुल को सामाजिक स्वीकृति भी मिली हुई है। घोटुल गांव के किनारे बनी एक
मिट्टी की झोपड़ी होती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मण्डप होता है। |
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निष्कर्ष |
मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास का एक लम्बा दौर है। इस लम्बे इतिहास काल
में मानवीय संबंधो में सामुदायिक मूल्य आधारित सामाजिक व्यवस्था वाला समाज हमारे
सामने अस्तित्व ने आया। इस समाज ने आदिवासी समाज को विकसित और समृद्ध किया है।
आदिवासी संस्कृति की पहचान तब से है जब से अनादि काल का प्रारंभ है। इनको ’’दूसरी दुनिया’’
की संज्ञा दी जाती है। आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष को बराबर का दर्जा मिला
हुआ था और दोनों को निर्णय नीति में समान सहभागिता प्राप्त थी। आदिवासी समाज की प्रथायें प्राचीन है और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग प्रथायें रही
है। समस्त आदिवासी शिकार करने में निपुण होते है। आदिवासी समाज में खान-पान, रहन सहन, से लेकर जीवन जीने के तरीके
बहुत अलग है। आदिवासी संस्कृति में जीवन को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। आदिवासी
जीवन से जुड़े नियमों को आसानी से स्वीकार कर लेते है। समस्त आदिवासी समाज में
अपनेपन की संस्कृति देखी जाती है। आदिवासी समाज में प्रकृति प्रेम आदिम सौंदर्य,
नृत्यगीत, कलात्मकता, उत्सव-पर्व मेले धार्मिक आस्थाएं, सामाजिक संस्कार,
मिथक, गणचिंह, कथा-कहावत, पहेली मुहावरे खेल-कूद
मनोरंजन की अन्य क्रियायें भद्र संस्कृति की तरह फुरसत के क्षणों को भरने वाली
चीजें न होकर संपूर्ण जीवन यथा मनोविज्ञान,
आचरण, सिद्धांत एवं परंपरा
सृजनात्मकता, मूल्य-व्यवस्था से सम्बंध
रखने वाली क्रियाशील प्रयोजन धर्मी सहज एवं आत्मीय अभिव्यक्तियाँ है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. लेखक - एनसाइक्लोपीडिया के संपादक आखरी अपडेट, अप्रैल 13, 2023 लेख इतिहास |