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वर्तमान भारत में शिक्षा का पुनरूत्थानः एक अध्ययन |
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Revival of Education in Present India: A Study | |||||||
Paper Id :
18147 Submission Date :
2023-09-11 Acceptance Date :
2023-09-19 Publication Date :
2023-09-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10203699 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
एक समय था जब दुनिया में, विश्वगुरू भारत की ‘शिक्षा’ का परचम सम्पूर्ण विश्व में फहराता था। यहाँ की गुरूकुल शिक्षा प्रणाली ने
दुनिया को कई विद्वान मनीषी, कलाकार, योद्धा साहित्यकार और वैज्ञानिक प्रदान किए है। कालान्तर में शिक्षा पर
पश्चिमी प्रभाव और भारतीयता से भटकाव ने शिक्षा की गुणवत्ता को कम किया है। आधुनिक भारत में शिक्षा के पुनरूत्थान हेतु इसके विभिन्न आयामों में भारतीयतानुरूप परिवर्तन अपेक्षित है। पाठ्यक्रम, अध्यापन शैक्षिक प्रबन्धन, प्रशासन और मूल्यांकन शिक्षा के इन सभी पक्षों में बदलाव आवश्यक है। पाठ्यक्रम में जहाँ भारतीय मूल्यपरक विषयवस्तुओं का समावेष किया जाना चाहिए वहीं अध्यापन प्रभावशाली बन सके ऐसे प्रयास जरूरी है। इस हेतु नवीनतम तकनीकों के उपयोग के साथ शिक्षण को केवल औपचारिक नहीं बनाकर प्रायोगिक तथा व्यावहारिक बनाया जाना आवश्यक है। शैक्षिक प्रशासन और प्रबन्धन शिक्षाविदों के हाथों में होने से भी आधुनिक भारत में शिक्षा को सुदृढ़ता प्रदान की जा सकती है। विद्यार्थियों का समग्र एवं सतत् मूल्यांकन, निष्पक्ष मूल्यांकन तथा विषयानुरूप मूल्यांकन भी शिक्षा को मजबुती प्रदान कर सकता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आधुनिक भारत की शिक्षा हमारी जड़ों से जुड़ी हुई हो और आधुनिकता का समावेष भी उसमें होना आवश्यक है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | There was a time in the world, We are called Vishwa Guru. Thirsty for knowledge on the land of India, Come to acquire knowledge. Our literature was rich, Was expert in science and art. Indian education discussions, Was visible all over the world. Education was connected to the roots, She was a nurturer of values. There was opposition to those things, Who was an exploiter of humanity. But gradually we Forgot myself. Macaulay's sweet pill, Put us to sleep. Western standards in education, We accepted. We went away from our loved ones, And gave love only to strangers. For this reason the level of education, Kept falling down. In the hands of Western thoughts, Our country has been deceived. Come let's think again, ‘Uplift’ education. By staying connected to the roots, Call for daily innovation. Vishwaguru used to hoist the flag of India's 'education' all over the world. The Gurukul education system here has provided many scholars, thinkers, artists, warriors, litterateurs and scientists to the world. Over time, western influence on education and deviation from Indianness has reduced the quality of education. For the revival of education in modern India, Indian-appropriate changes are required in its various dimensions. Changes are necessary in all these aspects of curriculum, teaching, educational management, administration and evaluation. While Indian values should be included in the curriculum, efforts are necessary to make teaching effective. For this, it is necessary to make teaching practical rather than merely formal with the use of latest technologies. Education in modern India can also be strengthened by having educational administration and management in the hands of educationists. Holistic and continuous assessment of students, fair assessment and subject-wise assessment can also strengthen education. Overall, it can be said that the education of modern India should be connected to our roots and modernity should also be included in it. Gymal Vatke Rs. thirst for knowledge learning Western thinking upliftment Gurukul education revival wise indian |
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मुख्य शब्द | ज्ञान पिपासु, ज्ञानार्जन, पश्चिमी सोच, उत्थान, गुरूकुल, शिक्षा, पुनरूत्थान, मनीषी, भारतीयतानुरूप। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Thirsty for Knowledge, Learning, Upliftment of Western Thinking, Gurukul, Education, Revival, Aspirant, As per Indian Tradition. | ||||||
प्रस्तावना | शिक्षा संस्कृति की
धात्री है, क्योंकि शिक्षा के माध्यम से ही संस्कृति के अणु राष्ट्रीय जीवन में
प्रवेष करते है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक व्यापारिक संस्था थी, अतः
प्रारम्भ में उसने शिक्षा या संस्कृति के प्रसार की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।
किन्तु जब वह एक विस्तृत भू-भाग पर शासन करने लगी, तब
इसका ध्यान शिक्षा की ओर गया। 1813 ई. में जब कम्पनी के चार्टर का
नवीनीकरण किया गया तब इंग्लैण्ड की सरकार ने दो महत्वपूर्ण निर्णय लिये। प्रथम तो
यह कि मिशनरी भारत में जाकर धर्म प्रचार कर सकते है तथा दूसरा यह कि प्रतिवर्ष एक
लाख रूपया ब्रिटिश भारत के लोगों की शिक्षा के लिए निश्चित किया जाए। इस प्रकार
पहली बार कम्पनी ने शिक्षा के प्रति अपना दायित्व स्वीकार किया। 1823 ई.
में गर्वनर जनरल लार्ड एमहर्स्ट ने इस विषय पर सुझाव देने के लिए एक समिति नियुक्त
की। शिक्षा समिति में मदभेद उत्पन्न हो गए। 1835 ई.
में लार्ड विलियम बैंटिक ने लार्ड मेकाले को इस शिक्षा समिति का अध्यक्ष नियुक्त
किया, जिसने
फरवरी 1835 ई.
में भारतीय शिक्षा प्रणाली पर अपना एक ऐतिहासिक लेख प्रकाशित किया, जिसमें
पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया गया। मैकाले ने कहा कि भारत में पाश्चात्य
शिक्षा का प्रसार होना चाहिए, क्योंकि ’’हमें
एक ऐसा वर्ग तैयार करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो
हमारे और शासितों के बीच वार्तालाप का माध्यम बन सके, जो
रक्त और रंग से तो भारतीय हो लेकिन बुद्धि और विचारों से भारतीय न हो।’’ बैंटिक, मेकाले
के विचारों से सहमत था। अतः 7 मार्च 1835 को
बैंटिक ने अपनी कौंसिल में प्रस्ताव पारित कर आदेश प्रसारित किया कि भारत में
अंग्रेजी भाषा का प्रसार किया जाएगा। बैंटिक के इस निर्णय से भारत में अग्रेजी
शिक्षा का प्रसार प्रारम्भ हो गया। 1835 ई. में कलकत्ता में मेडिकल कॉलेज की
नींव रखी गई। तत्पश्चात ब्रिटिश अधिकारियों और ईसाई
मिशनरीज के प्रयत्नों से भारत में पाश्चात्य शिक्षा का विकास हुआ। पाश्चात्य-शिक्षा
प्राप्त लोगों ने प्राचीन भारतीय आदर्शों को नष्ट कर दिया, जिसमें
भारतीय सामाजिक जीवन के मूल्य ही नष्ट हो गए।’’[1] स्वतन्त्रता
के पश्चात भी हम राजनीतिक रूप से भले स्वतन्त्र हो गए किन्तु शिक्षा पर पाश्चात्य
प्रभाव की पकड़ से स्वतन्त्र नहीं हो सके। महात्मा गाँधी के शब्दों में - ’’हम
राजनीतिक दृष्टि से तो स्वतन्त्र हो गये, परन्तु
पश्चिम के सूक्ष्म प्रभाव से मुक्त नही हुए है।’’[2] वर्तमान
शिक्षा व्यवस्था से व्यथित होकर पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि ‘‘वह
शिक्षा, शिक्षा
नहीं है जो संवेदन शून्य तथा निष्क्रिय बना दे। वह क्या है - मैं नहीं जानता।
कदाचित कोल्हू है जो शिक्षित के दिमाग और हृदय को पेर कर रसशून्य, संवेदन
शून्य और खाली बना दे। ऐसी शिक्षा नीति से हमें उबरना होगा’’[3] शिक्षा
की स्वायतत्ता से ही हम ऐसी शिक्षा नीति से उबर सकते है। वर्तमान शिक्षा को स्वामी
विवेकानन्द ने नकारात्मक बताया ‘‘जहाँ छात्रों में अपनी संस्कृति के
बारे में सीखने को कुछ नहीं मिलता, जहाँ उनमें जीवन के वास्तविक मूल्यों
का पाठ नहीं पढ़ाया जाता और जहाँ विद्यार्थियों में श्रृद्धा का अभाव पनपता है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध पत्र का उदे्श्य वर्तमान समय में पश्चिम से ओतप्रोत भारतीय शिक्षा
व्यवस्था की कमियों का अध्ययन कर उसे भारतीयतानुरूप बनाते हुए उसका पुनरूत्थान
करने हेतु सुझाव प्राप्त करना है।
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साहित्यावलोकन | शोध पत्र को लिखने के लिए विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अध्ययन किया गया। जिनका उल्लेख शोध पत्र में है। |
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मुख्य पाठ |
भारतीयता से दूर अंग्रेजी बंधन में बंधी शिक्षा की आलोचना करते हुए विवेकानन्द ने कहा था ’’ऐसा प्रशिक्षण जो नकारात्मक पद्धति पर आधारित हो मृत्यु से भी बुरा है। बच्चा स्कूल ले जाया जाता है और पहली बात सीखता है कि उसका पिता मूर्ख है, दूसरी बात सीखता है कि उसका बाबा पागल है, तीसरी कि उसके सभी शिक्षक पाखण्ड़ी है, चौथी कि सभी पवित्र स्थल झूठे है। 16 वर्ष का होते-होते वह छात्र निषेधों का एक समूह, अस्थिहीन और जीवन हीन बन जाता है। यही कारण है कि... यह शिक्षा एक मौलिक व्यक्ति पैदा नहीं कर सकी है। प्रत्येक व्यक्ति जिसमें मौलिकता है, इस देश में नही बल्कि कहीं और पढ़ाया गया है अथवा फिर उसे अन्ध विश्वासों से मुक्त होने के लिए अपने देश के पुरातन शिक्षालयों में जाना पड़ा है।’’[5] ‘‘स्वामी विवेकानन्द ने गुरूकुल पद्धति की शिक्षा को उपयोगी माना जहाँ छात्र शिक्षक के निकटतम सम्पर्क में रह सकें और उनमें पवित्रता, ज्ञान लिप्सा, धैर्य, विनम्रता, विश्वास तथा आदर की भावना पनप सके। शिक्षा में धार्मिक शिक्षा का समर्थन किया जिससे धर्म - सहिष्णुता उत्पन्न हो सके। उन्होंने आधुनिक ज्ञान के लिए अंग्रेजी के अध्ययन का समर्थन किया।’’ जब हम ‘वर्तमान भारत में शिक्षा‘ पर विचार करते है तो एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है, जो हमारी संस्कृति से जुडी हो, साथ ही नवीनतम् तकनीकों एवं तथ्यों से सम्बन्धित हो। इसके लिए हमें वर्तमान समय में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में आमूलचुल बदलाव की आवश्यकता महसूस होती है। शिक्षा के सभी स्तरों प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च तथा व्यावसायिक शिक्षा में बदलाव अपेक्षित हैैै। साथ ही शिक्षा के विभिन्न पक्षों जैसे पाठ्यक्रम, शिक्षण, प्रबन्धन एवं प्रशासन, प्रशिक्षण, मूल्यांकन, नियंत्रण प्रणाली में अपेक्षित सुधार की आवश्यकता है। प्राथमिक स्तर की शिक्षा में बस्तों के बोझ के तले दबते बचपन को बचाने की महत्ती आवश्यकता है। विद्यार्थी अक्षर ज्ञान सीखें, संस्कारित हों, उसकी सोच व समझ विकसित हो सकें ऐसे पाठ्यक्रम का समावेष प्राथमिक स्तर की शिक्षा में होना चाहिए। उसे मातृ भाषा और हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी का भी ज्ञान करवाया जाना चाहिए, किन्तु सभी कुछ उसकी क्षमताओं के अनुसार, न कि पश्चिमी नकल के अनुसार। क्योंकि एक बीज में तमाम संभावनाएँ होती है, वृक्ष बनने की किन्तु जब तक वह बीज है, उसके साथ बीज जैसा ही व्यवहार होना चाहिए, अन्यथा वह गल जाएगा। प्राथमिक स्तर के बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा और विज्ञान आओ करके सीखेें जैसे तरीको से शिक्षण करवाया जाए तो शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि हो सकती है। गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- बच्चों के लिए प्रकृति सबसे उत्तम पुस्तक एवं श्रेष्ठ शिक्षक है। सत्यम, शिवम, सुन्दरम एवं आनन्द की शिक्षा प्रकृति के सामीप्य एवं मैत्री से सरलता से सीखी जा सकती है। वे चाहते थे कि व्यक्ति और समाज में अन्तरंग सम्बन्ध एवं संलग्नता हो और विश्व में समरसता हो। उनकी दृष्टि में शिक्षा की गुरूकुल प्रथा ही सर्वोत्तम है।’’ टैगोर की मान्यता थी कि एक विद्यालय को प्रयोगशाला होना है, जहां प्रयास एवं प्रयोग करके जीवन को जीने का सर्वोत्तम तरीके का परीक्षण और प्रशिक्षण हो शिक्षा उपयोगी एवं उ६ेश्यनिष्ठ तभी हो सकती है जब यह जीवन को समग्रता में स्वीकारे। उनके शब्दों में ’’हम बच्चों के मस्तिष्क में सूचनाएँ उंडेल रहे हैं और जीवन मूल्यों, अनुभव एवं आध्यात्म की अवहेलना करते है।’’ रविन्द्र नाथ - टैगोर बच्चों पर थोपे गए अनुशासन की अपेक्षा अन्तःप्रेरित अनुशासन की समर्थक थे। क्योंकि थोपागया अनुशासन बच्चों की कोमल भावनाओं एवं कल्पनाओं को आधात पहुँचाता है।’’[7] माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर सैद्धान्तिक शिक्षा के साथ-साथ विद्यार्थी को कौषल विकास का शिक्षण करवाया जाना वर्तमान भारत में उचित कहा जा सकता है, जिससे विद्यार्थी शिक्षा के साथ-साथ स्वरोजगार की ओर प्रवृत हो सके। उच्च शिक्षा में विद्यार्थी को विषय चयन की छूट का होना जरूरी है। वर्तमान में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में विषय विशेष में सीमित स्थानों पर ही प्रवेश दिया जाता है, इस कारण कई विद्यार्थियों को मनचाहे विषय आवंटित नहीं होते। महर्षि अरविन्द ने अपनी पुस्तक । System of National Education Page 3 पर विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि -‘‘प्रत्येक बालक की शिक्षा में उसकी प्रकृति में जो कुछ सर्वोत्तम, सर्वाधिक शक्तिशाली, सर्वाधिक अंतरंग और जीवनपूर्ण है, अभिव्यक्त होना चाहिए। उनके अनुसार सच्ची शिक्षा अन्तःकरण की विविध शक्तियों - स्मृति (मेमोरी), निर्णय (जजमेंट), कल्पना (इमेजिनेशन), बोध (परसेप्शन), विवेक (रीजनिंग) एवं रचनात्मक शक्ति (क्रिएटिव पावर) आदि को पूर्ण ही नहीं करती अपितु उन्हे प्रशिक्षित भी करती है, जिससे बालक नवीन सामग्री मन में ला सके और उसमें जो सामग्री विद्यमान है, उसे कुशलता पूर्वक प्रयोग कर सके।’’[8] विद्यार्थियों का कक्षा में जाना और शिक्षकों द्वारा नियमित शिक्षण कार्य करवाया जाना भी वर्तमान भारत में शिक्षा के समक्ष एक महत्वपूर्ण चुनौती है। अधिकांश विद्यार्थी छात्रवृति या छात्र राजनीति के लिए महाविद्यालयों अथवा विश्वविद्यालयों में प्रवेष लेते है। वे कक्षाओं में जाते ही नहीं। ऐसे में शिक्षण का कार्य उस रूप में नहीं हो पाता जैसा होना चाहिए। शौध कार्य भी मौलिक, व्यवहारिक और समाज की समस्याओं के प्रासंगिक होना आवश्यक है। व्यावसायिक शिक्षा चाहे वह चिकित्सा से सम्बन्धित हो, चाहे अभियान्त्रिकी से, चाहे शिक्षक प्रशिक्षण से उसका उचित मापदण्डानुसार प्रशिक्षण आवश्यक है। प्रत्येक प्रशिक्षण के लिए नियामक संगठन बने हुए है, जिनके निरक्षण के समय मापदण्डानुसार व्यवस्थाएँ कर दी जाती है, किन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है। प्रभावी प्रशिक्षण के लिए जरूरी है कि प्रशिक्षु स्वयं प्रशिक्षण प्राप्त करे किन्तु कई प्रशिक्षण संस्थानों में विद्यार्थी सिर्फ प्रवेश लेते है और परीक्षा देते है। बाकी सब कुछ Manage कर लिया जाता है। वर्तमान भारत की व्यावसायिक शिक्षा में इस Manage वाली प्रवृति से मुक्ति प्राप्त करना आवश्यक है। वर्तमान भारत में किसी भी स्तर की शिक्षा हो उसका पाठ्यक्रम व्यवहारिक, स्तरानुसार और भारतीयता से ओत-प्रोत होना जरूरी है। हम केवल पश्चिम की नकल कर अपने पाठ्यक्रम का निर्धारण नहीं करे। जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर राजनीति विज्ञान विषय में एक प्रश्न पत्र है-‘प्रतिनिधि राजनीतिक चिन्तक।‘ इस प्रश्न पत्र के पाठ्यक्रम की पाँचों इकाईयों मेंगाँधीजी को छोड़कर सभी पश्चिमी राजनीतिक चिन्तकों के विचारों का अध्ययन शामिल किया गया है।ऐसा लगता है मानो राजनीतिक चिन्तन का प्रतिनिधित्व तो मात्र पश्चिम के राजनीतिक चिन्तक ही करते है, भारतीय नहीं। वर्तमान भारत में ऐसे पाठ्यक्रमों में बदलाव आवश्यक है। मनु, कौटिल्य, शुक्र, स्वामी दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, राजाराममोहन राय, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, पण्डित दीनदयाल उपाध्याय आदि कई भारतीय राजनीतिक चिन्तक है जो विश्व में प्रतिनिधि राजनीतिक चिन्तक कहे जा सकते है, उनके विचारों को भी शामिल किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम में राजनीतिक विचारधाराओं के अनुसार बार-बार अनावश्यक बदलाव भी नहीं होना चाहिए। ‘शिक्षण‘ को प्रभावी बनाने के लिए परम्परागत शिक्षण पद्धतियों के साथ-साथ नवीन तकनीकों का उपयोग किया जाना अपेक्षित है। शिक्षा में नवाचार का भी प्रयोग होना चाहिए। वर्तमान भारत में शिक्षा का प्रबंध और प्रशासन केवल प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में नहीं हो अपितु स्वयं शिक्षाविद् शिक्षा प्रबंध और प्रशासन में भागीदार बनने चाहिए। इसके लिए भारतीय शिक्षा सेवा का गठन किया जाना और स्वतंत्र शिक्षा नियामक आयोग का गठन किया जाना चाहिए। वर्तमान भारत कि शिक्षा में मूल्यांकन को भी सटीक, निष्पक्ष और नकल रहित बनाया जाना जरूरी है। वर्तमान समय में हिन्दी भाषा जैसे विषय जिसमें कि भाषा, शैली एवं त्रुटिरहित लेखन के मूल्यांकन का अपना महत्व है, का मूल्यांकन भी वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के द्वारा किया जाने लगा है, जिसे ठीक नहीं कहा जा सकता। इस हेतु अतिलघुतरात्मक, लघुतरात्मक एवं निबन्धात्मक प्रश्नों के द्वारा मूल्यांकन किया जाना अपेक्षित है। नकल पर नकैल कसना भी वर्तमान भारत में मूल्यांकन के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती है। परीक्षकों द्वारा निष्पक्ष मूल्यांकन किया जाए इस हेतु ईमानदार एवं निष्पक्ष परीक्षको की नियुक्ति तथा परीक्षकों के नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था आवश्यक है। वर्तमान भारत में शिक्षा के अन्तर्गत खेलकूद की गतिविधियों का प्रभावी आयोजन और पुस्तकालय के प्रभावी उपयोग का होना आवश्यक है। इसलिए शिक्षण संस्थाओं में खेलमैदान, शारीरिक शिक्षक एवं पुस्तकालयध्यक्ष का होना जरूरी है। वर्तमान भारत में शिक्षण प्रभावी हो इस हेतु शिक्षको को शिक्षण कार्य से इत्तर अन्य कार्य नहीं करवाए जाने चाहिए तथा विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालयों में अशैक्षणिक कर्मचारियों और अधिकारियों की भर्त्ती की जानी चाहिए। वर्तमान भारत की शिक्षा स्वायत्त एवं जवाबदेह होनी चाहिए। काका कालेलकर ने शिक्षा की आत्मकथा में कहा हैः- ’’मैं सत्ता की दासी नहीं हूँं। कानून की किंकरी नही हूँ। विज्ञान की सखी नहीं हूँ। अर्थशास्त्र की बांदी नहीं हुँ। मैं तो धर्म का पुनरागमन हूँ। मानव शास्त्र और समाज शास्त्र मेरे दो चरण है। कला और कारीगरी मेरे हाथ है। विज्ञान मेरा मस्तिष्क है, धर्म मेरा हृदय है। निरीक्षण और तर्क मेरी आँखे है। इतिहास मेरे कान है, स्वातर्न्त्र्य मेरे श्वास हैं। उत्साह और उद्योग मेरे फेफड़े है। धैर्य मेरा व्रत है। श्रद्धा मेरा चेतन्य है। ऐसी मैं जगदम्बा हूँ जगद्धात्री हूँ। मेरा उपासक कभी किसी का मोहताज नहीं रहेगा। उसकी सभी कामनाएँ मेरी कृपा से तृप्त होंगी।’’[9] उनके अनुसार शिक्षा को बन्धन, नियन्त्रण दासता स्वीकार नहीं। शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिए, जैसी प्राचीनकाल में थी। किन्तु इसके लिए आवश्यक हैः- नागरिकों में नैतिक भाव का विकास, मूल्यों की पुनर्स्थापना, उच्च चरित्र का निर्माण, शिक्षकों में कर्त्तव्यबोध का जागरण, राजनीतिक हस्तक्षेप की समाप्ति, और स्वतन्त्र शिक्षा नियामक आयोग की स्थापना, जो प्रशासनिक अधिकारियों की अफसरशाही से मुक्त हो और जिसका शिक्षाविदों द्वारा संचालन हो। शिक्षा की स्वायत्तता सुनिश्चित हो जाने पर जवाबदेही स्वतः निर्धारित हो जाऐगी, क्योंकि इस स्थिति में अच्छे-बुरे परिणाम के लिए शिक्षण संस्थाएँ एवं शिक्षक स्वयं जवाबदेह होंगे किसी और पर जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती है। आज देश में ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिसके अन्तर्गत ‘‘उच्च शिक्षा में स्वतन्त्र चिन्तन, मुक्त सोच, नवीनतम ज्ञान से परिचित कराया जा सके तथा शोध कार्यो के लिए प्रेरित किया जा सके।’’[10] शिक्षा की स्वायत्तता का यह अर्थ कदापि नहीं लिया जा सकता कि शासन शिक्षा की तरफ से पूरी तरह आंखे मूंद ले और शिक्षा को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाए। शासन अपनी जवाबदेही से पूरी तरह बच नहीं सकता। यदि समाज में विषमता है, कोई वर्ग शिक्षा से वंचित है तो सरकार का ही दायित्व है कि वह ऐसी व्यवस्था करें जिससे सभी वर्गो को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध हो सकें और वे बिना किसी भेदभाव के अपना सर्वांगिण विकास कर सके। डॉ. भीमराव अम्बेडकर के अनुसार ‘‘शिक्षा भोजन के समान है, जिसकी आवश्यकता जीवन पर्यन्त रहती है। उनका अभिमत था कि इस सन्दर्भ में उत्तरदायित्व शासन को लेना चाहिए। शिक्षा जगत में शैक्षिक विषमता के विषय पर बाबा साहब का मत था कि शैक्षिक विषमता के मूल में सही अर्थो में सामाजिक व आर्थिक विषमता है। इसके लिए आवास अथवा छात्रावास, अभ्यास गृह, संस्कार केन्द्र, छात्रवृत्ति, आर्थिक सहायता आदि की केन्द्र व राज्य स्तर पर योजना बनकर उचित व प्रेरणादायी सामाजिक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता हैं।’’[11] शिक्षा में स्वायत्तता की अभीष्टता स्वयं सिद्ध हैं। ज्ञान सृजन,संग्रहण और प्रसार का बंधन मुक्त होना ही मूलतया स्वतन्त्रता की स्थिति और उसकी निरन्तरता की शर्त है। स्वायत्त ज्ञान विकास का भी हेतु है। ज्ञान के सतत् सृजन तथा आदान - प्रदान से ही समाज आगे बढ़ता है।’’[12] |
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निष्कर्ष |
कुल मिलाकर निष्कर्ष
तौर पर कहा जा सकता है कि वर्तमान भारत में शिक्षा के पुनरूत्थान हेतु इसके
विभिन्न आयामों में भारतीयतानुरूप परिवर्तन अपेक्षित है। पाठ्यक्रम,
अध्यापन शैक्षिक शिक्षा प्रबन्धन, प्रशासन
और मूल्यांकन के इन सभी पक्षों में बदलाव आवश्यक है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. भारतीय संस्कृति पर पाश्वात्य
प्रभाव, भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति, डॉ. कालूराम शर्मा, डॉ. प्रकाश व्यास, पंचशील प्रकाशन, जयपुर,
पृ. 416-419 2. मेरे सपनो का भारत, गांधाीजी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर अहमदाबाद,
पृ. 203 3. बदलते परिवेष में राष्ट्रीय
शिक्षा की परिकल्पना, बजरंग प्रसाद मजेजी, राजस्थान बोर्ड शिक्षण पत्रिका, अप्रेल
15 से सितम्बर 15 पृ. 45
4. आधुनिक भारतीय सामजिक एवं
राजनीतिक चिन्तन, रिसर्च पब्लिकेशन इन सोशल साइन्सेज,
जयपुर, 1974-75, पृ. 109 अवस्थी एवं अवस्थी 5. Vivekananda on India and Her Problems, P48 6. भारतीय राजनीतिक विचारक,
डॉ, आनन्द प्रकाश अवस्थी, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, प्रकाशन आगरा, पृ.
203 7. गुरूदेव टैगोर का शिक्षा दर्शन,
पी. डी. सिंह, राजस्थान बोर्ड शिक्षण पत्रिका, अप्रेल
2007 से सितम्बर 2010 पृष्ठ - 43
8. System of National
Education ए महर्षि अरविन्द पृष्ठ 3 9. कैसी हो स्वतन्त्र भारत की
शिक्षा व्यवस्था, साक्षात्कार, दीनानाथबत्रा,
शैक्षिक मंथन (मासिक) 1 अगस्त 2011
पृ. 21 10. सर्वागिण विकास हो शिक्षा का
लक्ष्य, सन्तोष पाण्डेय, शैक्षिक
मंथन (मासिक) 1 नवम्बर 2016, पृष्ठ
05 11. बाबासाहब का शैक्षिक चिन्तन,
प्रो. मधुर मोहन, रंगा, शैक्षिक मंथन (मासिक) 1 नवम्बर 2015, पृ 20 12. द हिन्दु 28 सितम्बर 2014 |