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महाभारत में सन्दर्भित नाट्यशास्त्रीय तत्व |
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Theatrical Elements Referred to in Mahabharata | |||||||
Paper Id :
18184 Submission Date :
2023-10-13 Acceptance Date :
2023-10-19 Publication Date :
2023-10-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10251119 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
वेदों में
सकल ज्ञान विज्ञान के तत्व सन्दर्भित हैं। नाट्यशास्त्रीय तत्वों का सर्वप्रथम
संकेतिक संज्ञान भी वैदिक साहित्य के आख्यानों, यज्ञानुष्ठानों एवं देवाराधनों के
सन्दर्भों में अनुस्यूत है। "वेदो अखिलो धर्म मूलम" से यह तथ्य सिद्ध
है। महाभारतर महाकाव्य के अंतर्गत यदि हम नाट्यशास्त्रीय तत्वों के सन्दर्भों की
गवेषणा करें, तो निश्चयेन नाट्यशास्त्रीय तत्वों के बहुविध निदर्शन उपलब्ध होते हैं।
प्रस्तुत शोध लेख में नाट्यशास्त्रीय- तत्वों की महाभारत के अन्तर्गत समुपलब्धता
का समाकलन कर निश्चय किया गया है। जो नाट्यशास्त्र के तात्विक विकास में सहयोगी
है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The elements of gross knowledge science are referred to in the Vedas. The first symbolic cognizance of theatrical elements is also traced in the context of Vedic literature's narratives, yagya rituals and Devradhanas. This fact is proved from “Vedo Akhilo Dharma Moolam”. If we investigate the references to theatrical elements within the epic Mahabharata, then certainly multiple examples of dramatic elements are available. In the presented research article, a decision has been taken by integrating the theatrical elements available in the Mahabharata. Which is helpful in the fundamental development of drama science. | ||||||
मुख्य शब्द | महाभारत, नाट्यशास्त्रीय, नटनर्तन, समास, ग्रंथिक, जवनिका, इन्द्रमह, संगीत, पुत्तलिका-नृत्य, छायानाट्य। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Mahabharata, Natyashastra, Natanartan, Samas, Granthik, Javanika, Indramah, Sangeet, Puttalika-dance, Chhayanatya. | ||||||
प्रस्तावना | ध्यानार्थ तथ्य है कि नाट्यशास्त्रीय तत्वों का मूल उत्स वैदिक साहित्य के अन्तर्गत यज्ञादि अनुष्ठानों वर्णनों में नाटकों की अनुरूपता में प्रथमतः रचनात्मक परिवेश प्रस्तुत किया हैं साथ ही इतिहास पुरुषों की कथाओं के संचय के लिए आधार प्रदान करते हुए रामायण में उसकी मूलकता लव-कुश द्वारा अयोध्या में आकर राम-कथा गायन प्रसङ्ग में मिलती है।[1] किन्तु जो ग्रन्थ प्राचीन भारतीय नाट्य के उद्भव और विकास के इतिवृत्त की अनेक टूटी कड़ियों को अनुबद्ध करने वाले उपजीव्य काव्य पर विचार करे तो ज्ञात होता है कि यह आचार्य भरत पूर्व की रंग परम्परा पर प्रकाश डालते हुए नाट्य-शास्त्र की पीठिका प्रस्तुत करता हुआ सिद्ध होता है। वस्तुतः रंगमंच के निम्नलिखित प्रस्थान महाभारत के आलोक में प्रकाशित होते हैं- प्रेक्षागृह, नटनर्तन, समास, ग्रंथिक, जवनिका, इन्द्रमह और यज्ञ के अवसर पर नाट्य प्रयोग अभिनय, संगीत, पुत्तलिका-नृत्य, छायानाट्य का भूलोक का अवतरण आदि। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधलेख के माध्यम
से अन्वेषिका ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आचार्य भरतमुनि से पूर्व भारती
विद्या (विशेषकर महाभारत) में नाट्यशास्त्र के तत्वों की सान्दर्भिक स्थिति सिद्ध
होती है। इसी उद्देश्य की प्राप्ति विषयक अनेक सन्दर्भ महाभारत से ग्रहण कर लक्ष्य
की पूर्णता हेतु यत्न किया गया है। यही इस शोध लेख के अध्ययन का उद्देश्य है। |
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साहित्यावलोकन | ज्ञातव्य है कि एतद् विषयक
गवेषणा के लिए जहाँ एक ओर आचार्य भरतमुनि रचित "नाट्यशास्त्रम्" एक
सर्वमान्य मानक ग्रन्थ है वहीं दूसरी ओर आचार्य धनन्जय कृत "दशरूपक" ग्रन्थ भी नाट्यशास्त्रीय
विधानों सहित व रूपकों के संज्ञान हेतु अद्वितीयता प्राप्त है रंगमंचीयता, संवादव्यवस्था,
पात्र प्रयोग रस एवं पात्रों की भाषा सम्बन्धी संज्ञान के लिए अनेकशः विधानों की उपस्थापना
संस्कृत के अनेक ग्रन्थों में की गयी है। नाट्यशास्त्रीय तत्वों की उत्पति एवं
विकास के अनुसन्धान हेतु वैदिक साहित्य की मन्त्र संहितायें, ब्राहमण ग्रन्थ आदि के अतिरिक्त महर्षि वेदव्यास रचित
"महाभारत" भी गहत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसे आधार बनाकर शोधलेख का विवेच्य
सुनिश्चित हुआ है। |
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मुख्य पाठ |
प्रेक्षासागर का उल्लेख महाभारत अनेकत्र आता है। कौरव-पाण्डव राजकुमारों के धनुर्वेद के प्रदर्शन के लिए धृतराष्ट्र ने एक विशाल प्रेक्षागार बनवाया था। यह प्रेक्षागार मूलतः नाट्यगृह भले ही न रहा हो परन्तु यह नाट्यपरक गतिविधियों से असम्बद्ध कदापि न था। अस्त्र विद्या के प्रदर्शन के अतिरिक्त उसका उपयोग नाट्य-प्रदर्शन के लिए भी होता था। राजकुमारों का प्रदर्शन आरम्भ होने से पूर्व इस प्रेक्षागार के रंगमंच पर नटों और नर्तकों की उपस्थिति उनका गायन-वादन आदि के होने का महाभारतकार ने स्पष्ट उल्लेख किया है। प्रेक्षागार के निर्माण के दूसरे महत्वपूर्ण उल्लेख द्रौपदी तथा दमयन्ती के स्वयंवर के प्रसंग में आते हैं। दमयन्ती के स्वयंवर के लिए निर्मित प्रेक्षास्थली को रंग तथा महारंग कहा गया है तथा उसकी उपमा पर्वत की गुफा से दी गई है।[2] भारत को भी शैल गुहाकार प्रेक्षागार अभीष्ट है।[3] द्रौपदी के स्वयंवर के अवसर पर कई दिनों तक ‘समाज’ आयोजित हुआ था। ‘समाज’ उस समय की रंगमंच से अनुषक्त गतिविधियों को संगठित करने वाली महत्वपूर्ण संस्था थी। इसी समाज के क्रोड से सामाजिक जन्मा जो आगे चलकर समस्त रसचिंतन और काव्यकला का केन्द्र बना। द्रौपदी के स्वयंवर में समाज में एकत्र होने के लिए समाज वाद बनाया गया थ। जो रंगभूमि पर था। जिसके चारों ओर भवन थे। यह समाज कई दिनों तक चला जिसमें नट नर्तकों के साथ सूत-मागध तथा वैतालिक आदि भी सम्मिलित थे। दमयन्ती के स्वयंवर में भी नट, वैवाहिक नर्तक आदि जुटे थे। जिस प्रकार धृतराष्ट्र ने धनुर्वेद के प्रदर्शन के लिए प्रेक्षागृह बनवाया था उसी प्रकार विराट ने मल्ल विद्या के प्रदर्शन के लिए विशाल प्रेक्षास्थल बनवा रखा था। इसके भीतर के स्थल को भी रंग तथा महारंग कहा गया है। विराट के इस प्रेक्षागार में केवल पुरुष मल्लों का द्वन्द्व ही नहीं मल्ल का शार्दुल, महिष, सिंह आदि से भी द्वन्द्व आयोजित कराया जाता था। छद्मवेषधारी भीम को ऐसे बर्बर द्वन्द्वों में कई बार सम्मिलित होना पड़ा था।[4] इस प्रेक्षागार के अतिरिक्त विराट ने राजकुमारियों के लिए एक नर्तनशाला भी बनवाई थी जिसे नर्तनागार भी कहा गया है।[5] यहाँ पर दिन में राजपुत्रियाँ नृत्य सीखती थी तथा रात्रि में यह सूनी पड़ती थी। यह नर्तनशाला कालिदास, हर्ष, शार्ङ्ग आदि द्वारा उल्लिखित राजप्रसाद की संगीत शाला से सम्बन्ध रखती है। वस्तुतः इसका उपयेाग नृत्य के अतिरिक्त चुने हुए लोगों के समक्ष नाट्य-प्रदर्शन के लिए भी होता है। अतः इसे अभिजात रंगशाला इंटीमेंट थियेटर कहा जा सकता है। स्वयंवर मल्लयुद्ध तथा अस्त्रविद्या के प्रदर्शन के प्रयोजन से निर्मित प्रेक्षागार जो आनुषंगिक रूप से नाट्य के लिए भी उपकारक थे। ग्रीक एम्फी थियेटरों से सादृश्य रखते थे। बैठने की व्यवस्था इनमें वृत्ताकार जैसी होती थी तथा प्रदर्शन स्थल (रंग) प्रेक्षागृह के केन्द्र में रहता था। नाट्यशास्त्र इस प्रकार के प्रेक्षागार की सम्पुष्टि भी संस्तुति नहीं करता। साथ ही ये प्रेक्षागार आकार में भी ग्रीक रंगशालाओं के समान विशाल प्रतीत होते हैं जिनमें सहस्रों प्रेक्षक एक साथ बैठ सकते हैं जबकि भरत मनुष्यों के लिए जिस (विकृष्ट मध्य) प्रेक्षागृह को उत्तम बताते है उसमें 400 से अधिक प्रेक्षक नहीं बैठ सकते हैं पर भरत की दृष्टि से अपेक्षाकृत बहुत बड़ी रंगशाला का प्रावधान भी है भले ही वे इस नाट्य प्रदर्शन के लिए अप्रशस्त मानते हों। नाट्यशास्त्र में नाट्य मण्डप के नाप के लिए निर्दिष्ट हस्तदण्ड समाश्रय (2.9) के अनुसार केवल हस्त से नाप लेने पर 9 भेद बनते हैं तथा उतना ही नापदण्ड (चार हस्त, एक दण्ड - नशा: 2.16) से लेने पर 9 प्रकार और हो जाते है जो पहले 9 प्रकारों से प्रत्येकशः आकार में चार-चार गुने अधिक बड़े होते हैं। अभिनव ने न केवल दण्ड से नाप ग्रहण की परम्परा का समर्थन किया है बल्कि 9 प्रकार के आकार में बहुत बड़े प्रेक्षागारों की प्राचीन काल में होने की संभावना की ओर इंगित किया है। इस प्रकार ज्येष्ठ नाट्य मण्डप का नाप 108×108 हस्त के स्थान पर 108×108 दण्ड लेने पर जो रंगशाला बनेगी उसमें सहस्रों व्यक्तियों के बैठने का अवकाश हो सकेगा। इस प्रकार की रंगशाला नागार्जुनी कोण्डा के उत्खनन में प्राप्त भी हुई है। प्रेक्षागृहों में प्रदर्शनस्थली मध्य में थी।[6] उद्घोषक को घोषणा करने के लिए इसी स्थान पर जाना पड़ता था तथा नट् नर्तन भी यहाँ उपस्थित होते थे। मानसार में वर्णित रंगशाला को ‘मध्यरंग’ कहा गया है। क्योंकि उसमें रंगमंच बीच में होता था। महाभारत से नाट्य के उद्भव तथा स्वर्ग से उसके अवतरण के आख्यान का भी प्रकारान्तर से समर्थन मिलता है। जो नाट्शास्त्र में निरूपित है इन्द्र अर्जुन से कहते हैं - ‘‘नृत्यं गीत च कौन्तेय चित्रसेनादवारनुहि तदसयस्व कौन्तेय नृलोके यत्त विद्यते।’’[7] महाभारत में सूत जाति के विविध व्यवसाय ग्रहण ने पुण्य तथा उद्भुत उद्यमशीलता को उसके कई विशेषणों द्वारा विशद् वर्णन किया है - ‘‘स्थपतिर्बुद्धिसम्पन्नो वास्तुविद्याविशारदः इत्यब्रवीत् सूत्रधारः सूतः पौराणिकस्तथा।[8] सूत का यह उल्लेख जनमेजय के सर्पयज्ञ के प्रसंग में आया है जब यज्ञायतन बनाया जा रहा था। यज्ञ वेदिका बनाने वाला सूत की सूत्रधारा पौराणिक और स्थपति कहलाने लगा थ। नीलकण्ड ने उचित ही टीका में सूत को ‘शिल्पग्रामवेत्ता’ कहा है। सूत अपने समय को ललित और शिल्पकलाओं का प्रवर्तक बन गया था। महाभारत में नाट्य से संबद्ध अन्य उल्लेख पुत्तलिका (दारुयोषा) तथा छायानाट्य के है।[9] दूसरा उल्लेख संदिग्ध है। सूत्र से संचालित पुतली का उल्लेख दो बार हुआ था। ज्ञातव्य है कि नाट्यशास्त्र तथा संस्कृत नाटक में प्रयुक्त पारिभषिक शब्दावली को महाभारत कालीन समाज गढ़ रहा था तथा नाट्यशास्त्रीय प्रतिक्रियाओं को अपने बीच विकसित कर रहा था। उदाहरणार्थ - पुरोहित आदि महाभारत काल में राजा की प्रशस्ति के लिए ‘नारी’ का पाठ करते थे। जिसका ग्रहण नाट्यशास्त्र तथा संस्कृत नाटक ने कर लिया। |
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निष्कर्ष |
इसी प्रकार सौष्ठव नाट्यशास्त्र के अभिनय दर्शन का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है, जो नृत्य के संदर्भ में महाभारत में भी विन्यस्त है।[10] महाभारत के सम्यक् परिशीलन से नाट्यशास्त्रीय तत्वों का उन्मूलन अपने में बहुविस्तार पूर्ण विवेचन होगा। किन्तु अभीष्ट तथ्य के लिए इतना ही कहा जा सकता है कि महाभारत का काल भारतीय रंगमंच के व्यवस्थापन और समृद्धि के लिए सर्वथा अनुकूल और उर्वर था तथा नाट्यशास्त्र और उसके बाद की रंगपम्परा को उससे जोड़कर देखना आवश्यक है।[11] जिसको आधार बनाकर परवर्ती आचार्य परम्परा ने निश्चयेन नाट्यशास्त्री तत्वों का विधान प्रस्तुत किया है ऐसा कहा जाना अत्युक्तिपूर्ण नहीं है। सर्वथा युक्ति संगत है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण - गीता प्रेस गोरखपुर, 1980, प्रथम खण्ड, बालकाण्ड चतुर्थ सर्ग 2. महाभारत-आदिपर्व, अध्याय 133, गीता प्रेस गोरखपुर, 1960 3. तदेव आदिपर्व - अध्याय 184 4. तदेव श्लोक 16-26 5. तदेव विराटपर्व, अध्याय 13 6. भारतीय नाट्यशास्त्र की परम्परा एवं विश्व रंगमंच, पृ0 46-53, प्रो0 बल्लभ त्रिपाठी, दिल्ली-19988 7. महाभारत आदिपर्व, 51/15 8. तदेव, भीष्मपर्व, 116/4 9. तदेव, शल्यपर्व, 11/52 10. तदेव, उद्योगपर्व, 32/12/33/1 11. तदेव, द्रोणपर्व, 23/38 |