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बिरसा मुंडा: एक मसीहा का उलगुलान, जिसने अंग्रेजी हुकूमत को अंदर से झकझोर दिया |
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Birsa Munda: The Rebellion of a Messiah, Who Shook the British Government From Within | |||||||
Paper Id :
18177 Submission Date :
2023-09-13 Acceptance Date :
2023-09-21 Publication Date :
2023-09-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10081779 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/shinkhlala.php#8
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सारांश |
जब-जब छोटानागपुर क्षेत्र में किसी बाहरी तत्वों का जुल्म और शोषण
बढ़ा है, इस माटी ने अनेक वीरों को योद्धा के रूप में सामने खड़ा कर दिया
है। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की नजर जब यहां के संसाधनों पर पड़ी तो
उन्होंने 1676 ई0 में इस प्रदेश के राजमहल में एक छोटी एजेंसी स्थापित कर ली। धीरे-धीरे पूरा प्रदेश अंग्रेज, जमींदार, साहूकार एवं महाजनों के शोषण से कराहने लगा। ऐसे समय में बिरसा
मुंडा ने अपनी वीरता से न केवल अंग्रेजों के दांत खट्टे किये बल्कि एक मसीहा के
रूप में समाज में स्थापित भी हुए। इस बीच 1894 ई0 में भयंकर आकाल और महामारी फैली। इस समय बिरसा मुंडा ने अपने
लोगों की बहुत सेवा की। उनकी सेवा एवं जनजागरण से लोग काफी प्रभावित हुए और देखते
ही देखते बिरसा ने 1895 ई0 तक 6000 समर्पित मुंडाओं का एक सशक्त दल तैयार कर लिया। पुलिस तक उससे
आंतकित रहने लगी। फादर हॉफमैन के मुंडारी भाषा जानने के कारण उन्हें कुछ नये
बिरसाइतों को फोड़ लेने और उनसे कुछ महत्वपूर्ण जानकारी हासिल करने में कामयाबी मिली, जिसे उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ साझा कर दिया। बिरसा ने कहा-घुट-घुटकर मरने से बेहतर है-उलगुलान यानी विद्रोह। 7 जनवरी 1900 ई0 को विद्रोहियों ने खूंटी थाना में हमला कर दिया और एक सिपाही की
निर्मम हत्या कर दी। थाना के एक हिस्से को भी जला दिया गया। मामले को शांत करने के
लिए आयुक्त फोर्ब्स और उपायुक्त स्ट्रीटफील्ड ने रांची के डोरंडा में तैनात 150 सैनिकों को लेकर खूंटी की ओर रवाना हो गये। अंतत: जुल्म, शोषण एवं अत्याचार के खिलाफ लड़ते-लड़ते सैकड़ों लोग शहीद हो गये। ईनाम के लालच में जीराकेल गांव के
सात व्यक्तियों ने बिरसा मुंडा के गुप्त स्थान के बारे में अंग्रेजों को बता दिया।
अंतत: 9 जून 1900 ई0 की सुबह खून की उल्टी के साथ अभियुक्त बिरसा ने जेल में अंतिम
सांस ली। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उन्होंने
विद्रोह करने की ठानी थी। उन्होंने शोषकों, ठेकेदारों और अंग्रेजों को मार भगाने का जो आह्वान किया, उसने अंग्रेजी हुकूमत को अंदर से झकझोर दिया। जन भावना भड़कने के
डर से आनन-फानन में अंग्रेजों ने उनके शव को रांची के कोकर स्थित
डिस्टिलरी पुल के पास दफना दिया। वर्तमान में बिरसा मुंडा के सपनों की धरती पर लोग
विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। औद्योगिकीकरण के नाम पर सैकड़ों एकड़ भूमि आदिवासियों
एवं मूलवासियों से छीने जा रहे हैं। जन, जल, जंगल और जमीन की रक्षा बेमानी हो गई है। सामाजिक परम्पराएं, सांस्कृतिक धरोहर को दरकिनार कर विकास की जो रेखा खींची जा रही
है, उससे यहां के आदिवासियों एवं मूलवासियों को सबसे बड़ी हानि हो
रही है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Whenever oppression and exploitation by outside elements has increased in Chhotanagpur area, this soil has produced many brave men as warriors. When the British East India Company noticed the resources here, they established a small agency in the royal palace of this region in 1676 AD. Gradually the entire state started groaning due to the exploitation of the British, landlords, moneylenders and moneylenders. At such a time, Birsa Munda not only angered the British with his bravery but also established himself in the society as a messiah. Meanwhile, in 1894, a severe famine and epidemic spread. During this time Birsa Munda served his people a lot. People were greatly impressed by his service and public awareness and within no time Birsa prepared a strong group of 6000 dedicated Mundas by 1895 AD. Even the police became afraid of him. Due to Father Hoffman's knowledge of Mundari language, he was successful in opening some new caves and getting some important information from them, which he shared with the British Government. Birsa said – Ulgulan i.e. rebellion is better than dying by suffocation. On January 7, 1900, rebels attacked Khunti police station and brutally murdered a constable. A part of the police station was also burnt. To calm the matter, Commissioner Forbes and Deputy Commissioner Streatfeild left for Khunti with 150 soldiers posted in Doranda, Ranchi. Ultimately, hundreds of people were martyred while fighting against oppression, exploitation and atrocities. In the greed of reward, seven people of Jirakel village told the British about the secret place of Birsa Munda. Ultimately, on the morning of 9 June 1900, accused Birsa breathed his last in jail after vomiting blood. Seeing the plight of his caste and the threat to his social, cultural and religious identity, he decided to revolt. His call to kill the exploiters, contractors and the British shook the British government from within. Fearing that public sentiment would be aroused, the British hurriedly buried his body near the Distillery Bridge in Kokar, Ranchi. At present, people in the land of Birsa Munda's dreams are facing the brunt of displacement. Hundreds of acres of land are being snatched away from tribals and indigenous people in the name of industrialization. Protection of people, water, forests and land has become meaningless. The line of development that is being drawn ignoring social traditions and cultural heritage is causing the biggest loss to the tribals and indigenous people here. | ||||||
मुख्य शब्द | बिरसा मुंडा, मसीहा, उलगुलान, अंग्रेजी हुकूमत। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Birsa Munda: The rebellion of a messiah, who shook the British government from within. | ||||||
प्रस्तावना | महावीरों की धरती झारखंड। वायु पुराण में इसे मुरंड और विष्णु पुराण में मुंड
कहा गया जबकि महाभारत के दिग्विजय-पर्व में इसे पुंडरिक देश के रूप में पुकारा
गया। मध्य काल में यह खुखरा के नाम से जाना गया तो 1765-1834
ई0 तक इसे
छोटानागपुर कहा गया। इसके अतिरिक्त इसे कुक्कुटलाड,
कलिंद, कीकट, मगध, ब्रह्म, पौंड्र, पौंड्रिक, आर्कखंड, कर्कखंड, नागपुर, कोकराह, चुटिया नागपुर एवं हीरानागपुर के नाम से भी जाना गया। भले
इस प्रदेश को कई नामों से जाना गया हो लेकिन इस प्रदेश में वर्षों से निवसित
जनजातियों पर महाजन, साहूकार, जमींदार, जागीरदार और
ब्रिटिश अधिकारियों के नाम पर शोषण एक जैसा हुआ। जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी
द्वारा इस प्रदेश को अधीन कर उपनिवेश बनाया जाने लगा तो सर्वप्रथम यहां के
जनजातियों ने ही इसका कड़ा विरोध किया। इतिहास साक्षी है जब-जब इस क्षेत्र में किसी
बाहरी तत्वों का जुल्म और शोषण बढ़ा,
इस माटी ने अनेक वीरों को योद्धा के रूप में सामने खड़ा कर दिया। रमना आहड़ी, करिया पुजहर,
चेंगरू संवरिया, सूरजा पहाड़िया, पाचगे डोंबो,
गोवर्धन दिक्पति, रानी सर्वेक्षी, भूषण सिंह चेरो,
लखीदास, दसाई मानकी, रूदून, कुंटा, बुद्धु भगत,
सिंगराय, सूर्या, गंगा नारायण,
तिलका मांझी, सिद्धो-कान्हू, चांद-भैरव, फूलो-झानों, बिरसा मुंडा,
गया मुंडा, जतरा भगत, पांडेय गणपत राय,
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह,
नीलांबर-पितांबर, नादिर अली एवं
जयमंगल पांडेय इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। इन वीर सपूतों की जितनी भी प्रशंसा की
जाये कम है। इनके जैसे योद्धाओं पर इस माटी को गर्व है। यह सर्वविदित है कि देशभर
में सबसे पहले और सबसे ज्यादा अंग्रेजों से लोहा लेने वालों में यहां के वीरों का
नाम आता है लेकिन यह इस प्रदेश का दुर्भाग्य है कि अब भी इन वीरों के नाम और काम
से देश-दुनिया के लोग अपरिचित हैं। प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न यह प्रदेश आरंभ
से ही बाहरियों के आकर्षण का केंद्र रहा है। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की
नजर जब यहां के संसाधनों पर पड़ी तो उन्होंने 1676
ई0 में इस प्रदेश
के राजमहल में एक छोटी एजेंसी स्थापित की। इस एजेंसी के माध्यम से अंग्रेज अपने
खजाने को सिक्कों में ढालने के लिए मुगल टकसाल में भेजा करते थे। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य बिरसा मुंडा का अंग्रेजी
हुकूमत के उन्मुल्लन में किये गए योगदान का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत शोधपत्र के लिए राम कुमार तिवारी (2010) रचित झारखंड की रूपरेखा, डब्ल्यू0 एम0 थैक्सटॉन (1996) की 'दि बाबरनामा : मेमोरिज ऑफ़ बाबर', शैलेंद्र महतो (2021) की 'झारखंड में विद्रोह का इतिहास (1767-1914)' एवं हुसैन मुजफ्फर (2023) लिखित 'झारखंड के मुसलमान', झारखंड झरोखा आदि लेखों का अध्ययन किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
इस मसीहा का जन्म 15 नवम्बर 1875 ई0 में तमाड़ थाना अंतर्गत चलकद गांव में हुआ हालांकि उनका गांव उलिहातु है। दरअसल, चलकद गांव बिरसा के पिता सुगना मुंडा का मामा घर था। वहीं, बिरसा की मां करमी आयुबहातु गांव की थी। 1886 ई0 में जब वह चाईबासा स्थित जी0ई0एल0 चर्च (गोस्नर एवंजिलकल लुथार) स्कूल में अध्ययनरत थे, तब मुंडाओं की भूमि लूट रही थी और उनके अधिकारों का हनन हो रहा था। बिरसा यह सब देखकर मन ही मन विचलित हो रहे थे। 1886-87 ई0 में जब मुंडा सरदारों ने भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इसे बलपूर्वक दबा दिया गया और ईसाई मिशनरियों द्वारा आंदोलन की निंदा भी की गई। इसके बाद 1890 ई0 में बिरसा एवं उनके पिता चाईबासा से वापस आ गए। उनके परिवार ने जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी। यहां से वह नए सफर पर निकल पड़े और अंग्रेजों, साहूकारों, जमींदारों एव महाजनों के प्रति लोगों को जागरूक करना शुरू कर दिया। इस बीच 1893-94 ई0 में अंग्रेजी हुकूमत ने विभिन्न गांव की सभी बंजर भूमि और जंगलों को सुरक्षित वन घोषित कर भारतीय वन अधिनियम, 1878 की धारा-7 को लागू कर दिया। सिंहभूम, रांची, पलामू और मानभूम (वर्तमान में धनबाद और पुरुलिया जिला) में भी वन बंदोबस्त कार्यक्रम लागू कर दिया गया, जिससे इन क्षेत्रों के रैयतों के सारे अधिकार छिन गये। इससे भी बिरसा को क्रोध आया और वे विद्रोह की बात सोचने लगे। इस बीच 1894 ई0 में भयंकर आकाल और महामारी फैली। ऐसे समय में बिरसा ने अपने लोगों की बहुत सेवा की। उनकी सेवा एवं जनजागरण से लोग काफी प्रभावित हुए और देखते ही देखते बिरसा ने 1895 ई0 तक 6000 समर्पित मुंडाओं का एक दल तैयार कर लिया। इनके बीच उन्होंने अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज का नारा दिया अर्थात हमारे देश में हमारा शासन। रांची जिला गजेटियर 1970 में स्पष्ट लिखा है-1895 ई0 में मुंडाओं का क्षेत्र एक बार पुन: उबलने लगा जब इस क्षेत्र को चालकद गांव का 20 वर्षीय युवा बिरसा मुंडा के रूप में प्राप्त हुआ। बिरसा मुंडा का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों के राजनैतिक प्रभुत्व को समाप्त करना, सभी बाहरी एवं विदेशी तत्वों को बाहर निकालना एवं स्वतंत्र मुंडा राज्य की स्थापना करना था। उनके इस कार्य में उनके प्रथम बड़े भक्त गया मुंडा ने उनका भरपूर सहयोग किया। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए बिरसा ने गुरिल्ला युद्ध की नीति अपनाई क्योंकि आमने-सामने की लड़ाई में अंग्रेज उनसे काफी शक्तिशाली थे। बावजूद उसके बिरसा का आंतक सिर चढ़कर बोल रहा था। पुलिस तक उससे आंतकित रहने लगी इसलिए 22 अगस्त 1895 ई0 को अंग्रेजी हुकूमत ने बिरसा मुंडा को दंड प्रक्रिया संहिता 353 और 505 के तहत गिरफ्तार करने संबंधी आदेश निर्गत कर दिया। इसके अगले दिन 23 अगस्त 1895 ई0 को घात लगाकर बिरसा को चालकद गांव से रात में गिरफ्तार कर लिया गया। उसके ऊपर लगे मुकदमे को चलाने का स्थान रांची से बदलकर खूंटी कर दिया गया। अंतत: बिरसा को राजद्रोह के लिए लोगों को उकसाने के आरोप में 50 रुपये जुर्माना एवं दो वर्ष सश्रम कारावास की सजा मिली। अंतत: 30 नवंबर 1897 ई0 के दिन बिरसा को रांची जेल से रिहा कर दिया गया। रिहा होने के बाद 24 दिसंबर 1899 ई0 को बिरसा ने पुन: आंदोलन की शुरूआत की। इसके बाद यह आंदोलन सिंहभूम जिले के चक्रधरपुर थाने समेत रांची जिले के खूंटी, कर्रा, तोरपा, तमाड़ और बसिया थाना क्षेत्रों में पहुंच गई हालांकि विद्रोह का मुख्य केन्द्र बिंदू खूंटी थाना क्षेत्र बना रहा। इधर, फादर हॉफमैन के मुंडारी भाषा जानने के कारण उन्हें कुछ नये बिरसाइतों को फोड़ लेने और उनसे कुछ महत्वपूर्ण जानकारी हासिल करने में कामयाबी मिली, जिसे उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ साझा कर दिया। अब, प्रशासन बिरसा को पकड़ने के लिए चहुंओर छापेमारी करने लगी लेकिन बिरसा उनके हाथ नहीं लगा। इस बीच बिरसा ने कहा-घुट-घुटकर मरने से बेहतर है-उलगुलान यानी विद्रोह। इस क्रम में उलगुलान के फलस्वरूप 8 हत्यायें, 32 हमलों के मामले और 89 आगजनी की घटनायें हुई। 5 जनवरी 1900 ई0 को मुंडा क्षेत्र में सार्वजनिक विद्रोह हुआ। 6 जनवरी को गया मुंडा और उसके साथियों ने एटकेडीह गांव में दो सिपाहियों को टुकड़ों में काटकर मार डाला। 7 जनवरी 1900 ई0 को विद्रोहियों ने खूंटी थाना में हमला कर दिया और एक सिपाही की निर्मम हत्या कर दी। थाना के एक हिस्से को भी जला दिया गया। वहीं, कुछ स्थानीय बनियों के फूस के घरों को भी आग लगा दिया गया। इस घटना ने ब्रिटिश सरकार को अंदर से झकझोर दिया। इसके बाद मामले को शांत करने के लिए आयुक्त फोर्ब्स और उपायुक्त स्ट्रीटफील्ड ने रांची के डोरंडा में तैनात 150 सैनिकों को लेकर खूंटी की ओर रवाना हो गये। इस क्रम में 9 जनवरी 1900 ई0 को डोंबारी पहाड़ी से कुछ दूर सैंको से करीब तीन मील उत्तर में सईल रैकब पहाड़ी पर विद्रोहियों की सभा हो रही थी, तभी पुलिस दल ने सभा को घेर लिया और विद्रोहियों को आत्मसमर्पण करने को कहा। बात नहीं बनी और बिरसा मुंडा के दूसरे सबसे बड़े भक्त नरसिंह मुंडा सामने आकर अंग्रेजों को चुनौती देने लगे। फिर क्या था अंग्रेज सिपाहियों ने गोलियां बरसानी शुरू कर दी। आखिर कब तक सभा में शामिल लोग तीर, धनुष, भाला, टांगी, गुलेलों से अंग्रेजी हथियारों का सामना करते। अंतत: जुल्म, शोषण एवं अत्याचार के खिलाफ लड़ते-लड़ते सैकड़ों लोग शहीद हो गये। |
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विश्लेषण | 12 अगस्त 1765 ई0 में सम्राट शाह आलम द्वितीय ने महज 26 लाख रुपये सालाना लगान पर बिहार,
बंगाल और उड़िसा की दीवानी ईस्ट
इंडिया कंपनी को दे दी। उस समय यह प्रदेश बिहार सूबा में शामिल था। दीवानी प्राप्त
करते ही इस प्रदेश में अधिकारिक दमन शुरू हो गया। यहां के स्थानीय शोषित होने लगे।
रही सही कसर जमींदारों, साहूकारों एवं महाजनों ने पूरा कर दिया। पूरा प्रदेश अंग्रेज,
जमींदार,
साहूकार एवं महाजनों के शोषण
से कराहने लगा। ऐसे समय में बिरसा मुंडा एक मसीहा के रूप में सामने आये और अपनी
इच्छा शक्ति का प्रदर्शन कर लोगों को इन बाहरियों के शोषण से बचाने का भरसक प्रयास
किया। बिरसा मुंडा ने अपनी वीरता से न केवल अंग्रेजों के दांत खट्टे किये बल्कि एक
मसीहा के रूप में समाज में स्थापित भी हुए। यही कारण है कि झारखंड,
बिहार,
ओड़िसा,
छत्तीसगढ़ एवं पश्चिम बंगाल
समेत देश के विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों में बिरसा मुंडा को ईश्वर की तरह पूजा जाता
है। |
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निष्कर्ष |
स्टेट्समैन
अखबार के 25 जनवरी, 1900 ई0 के अंक में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस लड़ाई में औरतें-बच्चे समेत कुल 400
से अधिक लोग मारे गए। जो पकड़े
गये, उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। अंग्रेज यह लड़ाई जीत तो गये लेकिन
बिरसा मुंडा उनके हाथ नहीं आए। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए 500
रुपये ईनाम की घोषणा की। उस
समय यह एक बहुत बड़ी रकम थी। ईनाम के लालच में जीराकेल गांव के सात व्यक्तियों ने
बिरसा मुंडा के गुप्त स्थान के बारे में अंग्रेजों को बता दिया और धोखे से उन्हें 3
फरवरी 1900
ई0
को गिरफ्तार कर लिया गया और
खूंटी से रांची की ओर पैदल ही ले जाया गया। रांची पहुंचने पर उन्हें रांची स्थित
जेल में डाल दिया गया। 1 जून 1900 ई0 को डिप्टी कमिश्नर ने ऐलान करते हुए कहा कि बिरसा मुंडा को हैजा हो गया है और
उनके जीवित रहने की संभावना नहीं है। अंतत: 9 जून 1900 ई0 की सुबह खून की उल्टी के साथ अभियुक्त
बिरसा ने जेल में अंतिम सांस ली। कहा जाता है कि उन्हें जेल में धीमा जहर दिया जा
रहा था। कारण जो भी हो लेकिन बिरसा मुंडा पर चुआर विद्रोह (1765-1805
ई0),
तमाड़ विद्रोह (1782-1832
ई0),
कोल विद्रोह (1831-32
ई0)
एवं संथाल विद्रोह (1855-57
ई0)
का व्यापक प्रभाव पड़ा था।
उन्होंने इस आंदोलन से जुड़े वीर योद्धाओं के अदम्य साहस की कहानियां अपने समाज एवं
पूर्वजों से सुन रखी थी। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे
में देख उन्होंने विद्रोह करने की ठानी थी। उन्होंने शोषकों,
ठेकेदारों और अंग्रेजों को मार
भगाने का जो आह्वान किया, उसने अंग्रेजी हुकूमत को अंदर से झकझोर दिया। जन भावना भड़कने के डर से
आनन-फानन में अंग्रेजों ने उनके शव को रांची के कोकर स्थित डिस्टिलरी पुल के पास
दफना दिया। वर्तमान में इसी स्थान पर बिरसा मुंडा की समाधि है। यहां उनकी एक आदमकद
प्रतिमा भी लगाई गई है। वर्तमान में बिरसा मुंडा के सपनों की धरती पर लोग विस्थापन
का दंश झेल रहे हैं। औद्योगिकीकरण के नाम पर सैकड़ों एकड़ भूमि आदिवासियों एवं
मूलवासियों से छीने जा रहे हैं। जन, जल, जंगल और जमीन की रक्षा बेमानी हो गई है।
सामाजिक परम्पराएं, सांस्कृतिक धरोहर को दरकिनार कर विकास की जो रेखा खींची जा रही है,
उससे यहां के आदिवासियों एवं
मूलवासियों को सबसे बड़ी हानि हो रही है। आरंभ में इंडियन फोरेस्ट एक्ट,
1882 ने आदिवासियों को उनके जंगल से
बेदखल किया तो वर्तमान में स्मार्ट सिटी, आधुनिकीकरण एवं औद्योगिक विकास के नाम पर
इनके हक-अधिकार छीने जा रहे हैं। बिरसा के उलगुलान का बिरसा की मृत्यु के बाद
क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ था। रैयतों के हित में कानून बनने लगे थे। छोटानागपुर
टेनेंसी एक्ट 1908 इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। बिरसा मुंडा ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी
समाज की दशा एवं दिशा बदलकर जिस सामाजिक एवं राजनीतिक युग का सूत्रपात किया था
वर्तमान में उसे भूला दिया गया है। झारखंड गठन को 23 वर्ष समाप्त होने को हैं बावजूद अब तक
स्थानीय एवं नियोजन नीति का नहीं बनना शर्मनाक है। उनके नाम से राजधानी में बिरसा
मुंडा जैविक उद्यान, बिरसा मुंडा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, बिरसा मुंडा बस टर्मिनल आदि की महज
स्थापना करने से बिरसा के सपने को साकार नहीं किया जा सकता। इसके लिए सर्वप्रथम
आदिवासियों एवं मूलवासियों के हित में ठोस स्थानीय एवं नियोजन नीति बनाया जाना
आवश्यक है। इससे बाहरी हस्तक्षेप रूकेगा और स्थानीय के लिए नियुक्ति के दरवाजे
खुलेंगे। उनके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक जीवन में विकासात्मक परिवर्तन संभव हो सकेगा। वर्षों
से पीड़ित आदिवासियों एवं मूलवासियों के सपने साकार हो सकेंगे। यह खुशी की बात है कि जेल चौक स्थित बिरसा
मुंडा केंद्रीय कारागार को बिरसा मुंडा के नाम पर संग्रहालय बनाया गया है,
जहां बिरसा मुंडा सहित राज्य
के तमाम आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन दर्शन होंगे। विशेषकर बिरसा मुंडा
के जेल में बिताए पल को डॉक्यूमेंट्री, ऑडियो-वीडियो विजुअल समेत दुर्लभ तस्वीर
के माध्यम से प्रसारित करने की योजना है। नि: संदेह यह एक अच्छी पहल है। इससे यहां
के वीर योद्धाओं के बारे में जानने-समझने का भरपूर अवसर मिलेगा। युवा पीढ़ी अपने
पूर्वजों की वीर गाथा को जानकर-समझकर भविष्य के लिए तैयार हो सकेंगे लेकिन सरकार
को यह भी ध्यान में रखना होगा कि चाहे वह जितना भी विकास कर ले यदि यहां के
आदिवासियों एवं मूलवासियों को उनका अधिकार प्राप्त नहीं होगा,
सारे विकास अधूरे रहेंगे। उनके
जल, जंगल एवं
जमीन की रक्षा नहीं होगी, संपूर्ण विकास असंभव है। सरकार के सभी विभागों, कार्यालयों, आयोग, समितियों समेत प्रशासन के सभी क्षेत्रों
में स्थानीय आदिवासियों एवं मूलवासियों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।
जनप्रतिनिधियों के रूप में भी बाहरियों के प्रवेश पर ठोस नीति बनाकर रोक लगानी
होगी। यदि सरकार ऐसा करने में सफल होती है, तो नि:संदेह बिरसा मुंडा के सपनों को
साकार किया जा सकेगा और यह भगवान बिरसा मुंडा को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। |
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