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राज्यपाल एवं संविधान सभा |
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Governor and Constituent Assembly | |||||||
Paper Id :
18202 Submission Date :
2023-10-13 Acceptance Date :
2023-10-18 Publication Date :
2023-10-25
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सारांश |
राज्यपाल जहाँ एक ओर राज्यों में देश की गणतंत्रीय व्यवस्था का
प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर वह शासन के संघीय स्वरूप की महत्वपूर्ण कड़ी अथवा सेतु भी
है। वह राज्यों की संसदीय शासन व्यवस्था में राज्य का प्रमुख है, वहीं राज्यों के शासन संचालन के लिये राष्ट्रपति का नुमाइंदा है। वह राज्य
का संवैधानिक प्रमुख एवं संकटकाल में शासन का प्रमुख भी है। अपनी इन्हीं
बहुभूमिकाओं की वजह से राज्यपाल का पद संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति के बाद दूसरा
सबसे महत्वपूर्ण एवं गरिमामय पद है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | While on one hand the Governor is the symbol of the republican system of the country in the states, on the other hand he is also an important link or bridge of the federal form of governance. He is the head of the state in the parliamentary governance system of the states, while he is the representative of the President for the governance of the states. He is the constitutional head of the state and also the head of government in times of crisis. Because of these multiple roles, the post of Governor is constitutionally the second most important and dignified post after the President. | ||||||
मुख्य शब्द | राज्यपाल, संविधान सभा। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Governor, Constituent Assembly. | ||||||
प्रस्तावना | भारत में गवर्नर अथवा राज्यपाल का पद की शुरूआत ईस्ट इंडिया
कम्पनी के शासनकाल में हुई। उस समय बंगाल, मद्रास एवं बाम्बे में कम्पनी की
प्रेसीडेंसिया थी। प्रेसीडेंसी में राजकाज व सैन्य मामलों के संचालन हेतु प्रत्येक
में गवर्नर हुआ करते थे। गवर्नर पद को राजनीतिक स्वरूप 1773
के रेग्यूलेटिग एक्ट से मिला जब बंगाल के गवर्नर को गवर्नर जनरल एवं फोर्ट विलियम
का दर्जा देते हुआ उसे सम्पूर्ण भारत के कम्पनी क्षेत्र का प्रशासक बना दिया गया
तथा मद्रास एवं बाम्बे के गवर्नरों कोे उसके अधीन कर दिया गया। 1833 के इंडियन चार्टर एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल आफ फोर्ट विलियम को सम्पूर्ण भारत
का गर्वनर जनरल बनाते हुये उसे सम्पूर्ण भारत के लिये विधि बनाने यहां के प्रशासन
को निर्देशन, निमत्रंण एवं पर्यवेक्षण का अधिकार दिया गया। |
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अध्ययन का उद्देश्य | भारत में गवर्नर अथवा राज्यपाल का पद की शुरूआत ईस्ट इंडिया
कम्पनी के शासनकाल में उस समय हुई जबबंगाल, मद्रास एवं बाम्बे में कम्पनी की
प्रेसीडेसिया हुआ करती थीं। प्रत्येक प्रेसीडेंसी में राजकाज व सैन्य मामलों के
संचालन हेतु गवर्नर हुआ करते थे।गवर्नर पद को राजनीतिक स्वरूप 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट से प्राप्त हुआ। 1833 के इंडियन
चार्टर एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल आफ फोर्ट विलियम को सम्पूर्ण भारत का गर्वनर जनरल
बनाते हुये उसे सम्पूर्ण भारत के लिये विधि बनाने यहां के प्रशासन को निर्देशन,निमत्रंण एवं पर्यवेक्षण का अधिकार दिया गया। इस प्रकार ‘गवर्नर’ का पद को ब्रिटिश सामंतशाही का प्रतीक होते
हुये भी भारतीय लोकतंत्रात्मक गणतंत्रीय व्यवस्था में बनाये रखा गया। अतः इस
अध्ययन का उद्देश्य यह जानना है कि … 1
वह क्या कारण थे, जिनकी वजह से हमारे संविधान
निर्माताओं ने ब्रिटिश सामंतकालीन गवर्नर के पद को हमारी इस लोकतंत्रात्मक
गणतंत्रीय व्यवस्था में ‘राज्यपाल’ के
रूप में कायम रखा? 2
गवर्नर राज्य की कार्यपालिका का प्रधान होता है। अतः हमारे संविधान
निर्माताओं द्वारा उसके निर्वाचन का उपबंध न करके उसकी राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति
तथा उसके कार्यकाल को राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत तक ही क्यों रखा गया ? इसके पीछे संविधान निर्माताओं की क्या भावना थी ? 3 राज्यपाल की शक्तियाँ निर्धारित करते समय हमारे संविधान निर्माताओं के मध्य किन-किन मुद्दों पर क्या बहसें हुईं तथा वास्तविक रूप से राज्यपाल को शक्तियाँ दिये जाने के पीछे हमारे संविधान निर्माताओं की मंशा क्या थी ? तथा वर्तमान में भारत के विभिन्न राज्यों में कार्यरत महामहिम राज्यपालगण क्या उसी मंशा के अनुरूप कार्य कर रहे हैं अथवा नहीं ? प्रस्तावित अध्ययन का उद्देश्य उपुर्यक्त प्रश्नों के उत्तर खोजकर इन्हें राजनीति विज्ञान के अध्येयताओं एवं विद्यार्थियों के मध्य प्रगट करना है। |
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साहित्यावलोकन | भारत में गवर्नर अथवा राज्यपाल का पद की शुरूआत ईस्ट इंडिया
कम्पनी के शासनकाल में उस समय हुई जब बंगाल, मद्रास एवं बाम्बे में कम्पनी की
प्रेसीडेसिया थीं। प्रत्येक प्रेसीडेंसी में राजकाज व सैन्य मामलों के संचालन
हेतु गवर्नर हुआ करते थे। गवर्नर पद को राजनीतिक स्वरूप 1773
के रेग्यूलेटिग एक्ट से प्राप्त हुआ। 1833 के इंडियन चार्टर
एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल आफ फोर्ट विलियम को सम्पूर्ण भारत का गर्वनर जनरल बनाते
हुये उसे सम्पूर्ण भारत के लिये विधि बनाने, यहां के प्रशासन
को निर्देशन,निमंत्रण एवं पर्यवेक्षण का अधिकार दिया गया। 1909 के मार्ले मिण्टो सुधार के द्वारा भारत में पुनः संघीय व्यवस्था का
बीजोरोपण हुआ, जिसके अंतर्गत गवर्नर जनरल के साथ साथ
प्रांतीय गर्वनरों की विधायी परिषद का विस्तार करते हुये इन प्रांतीय विधायी
परिषदों को भी गवर्नर की सहमति से आंषिक विधि निर्माण का अधिकार मिला।भारत शासन
अधिनियम 1919 के द्वारा भारत में स्पष्ट रूप से संघीय
व्यवस्था को स्वीकार किया गया। इस एक्ट के अंतर्गत न केवल प्रांतीय गवर्नरों की
कार्यपरिषद एवं विधायी परिषद का विस्तार किया गया, बल्कि
विधायी परिषद में निर्वाचित सदस्य संख्या का विस्तार करते हुये हस्तांतरित मामलों
में उन्हें गवर्नर की सहमति से विधि निर्माण का अधिकार मिला। भारत शासन अधिनियम 1935 के अंतर्गत प्रांतीय गवर्नरों को मुख्यमंत्री व उनकी सलाह से अन्य
मंत्रियों की नियुक्ति, पदच्युति, राज्य
विधानमंडल को संबोधन सहित 59 विषयों में विधि निर्माण पर
स्वीकृति देने का अधिकार दिया गया। संविधान निर्माण के समय प्रादेशिक संविधान
तैयार करने के लिये सरदार वल्लभभाई पटैल की अध्यक्षता में जिस 21 सदस्यीय समिति का गठन किया गया था उसने अपने प्रतिवेदन में अनुशंसा की थी
कि प्रत्येक प्रदेश के लिये संवैधानिक प्रमुख के रूप में एक राज्यपाल होगा तथा वह
विधायिका की बैठक को आहूत करने तथा इसे भंग करने के लिये अधिकृत होगा। इसी प्रकार
राज्यपाल के चुनाव के संबंध में 30 मई 1949 को संविधान सभा के सदस्यों के मध्य जमकर बहस हुई। इस संबंध में संविधान
निर्माताओं के समक्ष प्रस्तुत चारों विकल्पों पर तीखी बहस हुई, तीखे प्रतिरोध भी हुये। अंततः डॉ0 अम्बेडकर ने अपना
तर्क देते हुये बहस को इस निष्कर्ष के साथ सीमित किया कि राज्यपाल की नियुक्ति
राष्ट्रपति द्वारा की जाये तथा उसका कार्यकाल 5 वर्ष अथवा
राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत तक ही सीमित रखा जाना चाहिये। इसी प्रकार राज्यपाल के
अधिकार और शक्तियाँ विशेष रूप से आपातकालीन अधिकारों को लेकर भी संविधान निर्माताओं
के मध्य काफी विस्तृत विचार विमर्श हुआ। डॉ0 अम्बेडकर ने
सदस्यों द्वारा उठाये गये प्रश्नों का उत्तर देते हुये कहा था कि इस आपातकालीन
अनुच्छेद का उपयोग राज्यपाल के द्वारा केवल अंतिम उपाय के रूप में प्रयोग किया
जाना चाहिये। उन्होंने अपने मत को आगे व्यक्त करते हुये कहा था कि- ‘‘किसी भी राज्य की विधानसभा को भंग करने से पूर्व राष्ट्रपति द्वारा
संबंधित राज्य के मंत्रीमण्डल को उसकी त्रुटियों के लिये चेतावनी दी जानी चाहिये।
यदि इस चेतावनी का कोई प्रभाव न हो तो उस अवस्था में वह राज्य में नये चुनाव कराने
का आदेश दे सकता है। इन दो उपायों के असफल हो जाने पर ही उसे इस अनुच्छेद का
प्रयोग करना उचित होगा। इस तरह लम्बी बहस के पश्चात ही मसविदे के अनुच्छेद 278 को संविधान सभा द्वारा स्वीकार किया गया। |
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मुख्य पाठ |
1909 के मार्ले मिण्टो सुधार के द्वारा भारत में पुनः संघीय व्यवस्था का बीजोरोपण हुआ जिसके अंतर्गत जनरल के साथ साथ प्रांतीय गर्वनरों की विधायी परिषद का विस्तार करते हुये इन प्रांतीय विधायी परिषदों को भी गवर्नर की सहमति से आंशिक विधि निर्माण का अधिकार मिला। भारत शासन अधिनियम 1919 के द्वारा भारत में स्पष्ट रूप से संघीय व्यवस्था को स्वीकार किया गया। इस एक्ट के अंतर्गत न केवल प्रांतीय गवर्नरों की कार्यपरिषद एवं विधायी परिषद का विस्तार किया गया, बल्कि विधायी परिषद में निर्वाचित सदस्य संख्या का विस्तार करते हुये हस्तांतरित मामलों में उन्हें गवर्नर की सहमति विधि निर्माण का अधिकार मिला। यघपि गवर्नर सार्वजनिक हित में विधि निर्माण रोक सकता था, उस पर वीटो कर सकता था अथवा विधेयक को गर्वनर जनरल की सहमति के लिये आरक्षित कर सकता था। वह हस्तांतरित विषयों का शासन चलाने वाले मंत्रियों को भी उनके पद से हटा सकता था। भारत शासन अधिनियम 1935 द्वारा प्रांतों में वैध शासन प्रणाली समाप्त कर सभी 59 विषयों में राज्यों को विधि निर्माण की शक्ति प्रदान करतें हुये प्रांतीय गर्वनरों के राज्य अधिकारों यथा मुख्यमंत्री व उसकी सलाह से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति, पदच्युति ,राज्य विधानमण्डल को संबोधन, विधेयकों की विधानमण्डल में प्रस्तुति हेतु सहमति व विधानमण्डल द्वारा पास विधयकों पर अपनी अनुमति, निशेधाधिकार अथवा गवर्नर जनरल के लिए आरक्षित करना, अध्यादेश जारी करना, सार्वजनिक हित को दृष्टिगत रखते विधि निर्माण को रोकना आदि अधिकारों का विस्तार किया गया। इस प्रकार भारत शासन अधिनियम 1935 के अंतर्गत गवर्नरों का पद कही से भी लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता स्वतंत्रता के समय गठित संविधान सभा में हमारे संविधान निर्माताओं के समक्ष अनेक विचारणीय मुद्दों में से एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी था कि स्वतंत्र भारत में प्रांतों गर्वनर के पद को रखा जाये अथवा नहीं ? इस संबध में संविधान सभा के सदस्यों के मध्य जमकर बहस हुई, जहां एक ओर कुछ सदस्य गवर्नर जैसे पद को अलोकतांत्रिक मानते हुये इसे समाप्त करने के पक्षधर थे। श्री रोहणी कुमार चौधरी का तर्क था कि ब्रिटिश काल में गर्वनर की नियुक्ति का साम्राज्यवादी हितों की रक्षा था किन्तु स्वतंत्र भारत में केन्द्रीय सरकार के हितों की रक्षा के लिये राज्यपाल पद की कतई आवष्यकता नहीं होगी।वहीं दूसरा वर्ग इसे बनाये रखने का पक्षधर था। आइये हम संविधान सभा के सदस्यों के मध्य हुये इस पद के औचित्य एवं इसे बनाये रखने के तरीकोें पर हुई बहस का अवलोकन करते हैं-30 अप्रेल 1947 को संविधान सभा की बैठक में पारित प्रस्ताव के अनुसार सरदार बल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में प्रादेशिक संविधान तैयार करने के लिये एक 21 सदस्यीय का गठन किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट में राज्यपाल पद के संबध में निम्नानुसार प्रतिवेदन प्रस्तुत किया- 1
प्रस्तावित प्रादेशिक संविधान सिद्धांत रूप में इंग्लैण्ड की संसदीय
प्रणाली पर आधारित होगा। 2
प्रत्येक प्रदेश के लिये संवैधानिक प्रमुख के रूप में एक राज्यपाल
की व्यवस्था होगी तथा वह विधायिका की बैठक आहूत करने तथा इसे भंग करने के लिए
अधिकृत होगा। 3
प्रदेश में चुनाव संबंधी व्यवस्थाओं की देख-रेख, निदेशन एवं नियंत्रण की शक्तियां राज्यपाल में सन्निहित होंगी। इसके साथ
ही समिति ने राज्यपाल को अपने कार्यों तथा दायित्वों का निवर्हन करने के लिए
स्वतंत्रता दिए जाने की भी सिफारिश की थी। 4
राज्यपाल अपने प्रदेश में पनप रही किसी भी गंभीर स्थिति के बारे में
राष्ट्रपति को सूचित करेगा। अमेरिका तथा ग्रेट ब्रिटेन में जहां क्रमश: विधायी संवैधानिक प्रमुखों निर्वाचित गवर्नर एवं उत्तरदायी मंत्री मण्डल की व्यवस्था हैं का विश्लेषण करते हुये भारत में भी राज्यपाल का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर कराये जाने की सिफारिश की, वहीं दूसरी ओर संविधान मसौदा समिति ने इस सिफारिश को अशंतः स्वीकार करते हुये राज्यपाल की नियुक्ति प्रकिया के संबध में दो विकल्प रखे प्रथम मतदान द्वारा राज्यपाल का चुनाव। दूसरा नियुक्ति द्वारा मसौदा समिति की इन सिफारिशों के अनुसार प्रथम विकल्प के तहत उस राज्य के ऐसे सभी लोगों जिन्हें संबधित राज्य की विधानसभा में मतदान करने का अधिकार प्राप्त हो द्वारा किया जायेगा दूसरे विकल्प के अंतर्गत संबधित राज्य की विधानसभा द्वारा सुझाये गये चार नामों के पैनल में से किसी एक व्यक्ति का राष्ट्रपति के द्वारा अपने हस्ताक्षर एवं मुहर युक्त वारंट के रूप में मनोनयन के रूप में था। इन चार नामों के पैनल का चयन राज्य विधानसभा अथवा विधानपरिषद होने की स्थिति में दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से गैर हस्तांतरणीय एकल मतदान पद्वति द्वारा किया जाना था। उपर्युक्त दोनां विकल्पों पर 30 मई 1949 को आयोजित संविधान सभा की बैठक में इसके सदस्यां के मध्य जमकर बहस हुई। कई सदस्यों द्वारा प्रथम विकल्प अर्थात राज्यपाल का चुनाव सीधे वयस्क मताधिकार के आधार पर कराये जाने के विकल्प का समर्थन किया गया। प्रो0 शिब्बनलाल सक्सेना द्वारा इस विकल्प के समर्थन में अपने तर्क देते हुये कहा गया कि ‘‘प्रत्यक्ष चुनाव से राज्य में राज्यपाल पद की गरिमा बढ़ेगी उनका अभिमत था कि यदि हम अपने संविधान को ब्रिटिश संविधान के अनुरूप बनाना चाहते हैं तो हमें हमारे यहां राज्यपाल एवं राष्ट्रपति को वही गरिमा देनी होगी जो इंग्लैड में सम्राट को दी गई है जबकि राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाने पर यह गरिमा राज्यपाल पद की नहीं रहेगी।’’[2] दूसरे विकल्प पर चर्चा करते हुये संविधान निर्माता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ‘‘राज्यपाल को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाने की स्थिति में ऐसे व्यक्ति की किसी प्रदेश में राज्यपाल के रूप में नियुक्ति से इन्कार नहीं किया जा सकता जिसे उस प्रदेश की भाषा तक का ज्ञान न हो।’’[3] उनका तर्क था कि केन्द्र एवं राज्य में दो भिन्न दलों की सरकारें होने की स्थिति में राष्ट्रपति द्वारा स्वविवेक का इस्तेमाल किसी एक पद को मजबूत करने के लिये किया जा सकता हैं। संविधान सभा के एक अन्य सदस्य सैयद मोहम्मद सैदुल्ला भी राज्यपाल के जनता के द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव के पक्षधर थे। राज्य विधानमण्डल द्वारा सुझाये गये चारों नामों के पैनल में से किसी एक नाम के राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन के दूसरे विकल्प के संबध में एच.व्ही.कामथ ने विरोध करते हुये कहा कि ‘‘संबंधित राज्य की विधायिका द्वारा राष्ट्रपति को प्रस्तुत चार नामों के पैनल में से यदि दूसरे, तीसरे एवं चौथे नाम का चयन होता हैं तब राष्ट्रपति द्वारा चयनित व्यक्ति को लेकर विरोध हो सकता हैं परिणामस्वरूप राष्ट्रपति एवं विधायिका के संबधों में खटास आ सकती हैं इससे राष्ट्रपति पद की गरिमा को ठेस पहुँचेगी।’’[4] इस तरह से हम देखते हैं कि राज्यपाल के चयन के उपर्युक्त दोनों
विकल्पों का संविधान सभा के कुछ सदस्यों का विरोध था अतः अधिकांश सदस्यों ने तीसरे
विकल्प राज्यपाल की राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति पर विचार किया। इस विकल्प का
समर्थन करते हुये अल्लादि कृष्णा स्वामी अय्यर ने कहा था कि ‘‘संविधान
सभा ने विभिन्न राज्यों में उत्तरदायी सरकार बनाने की बात इस रूप से स्वीकार की
हैं कि राज्यपाल संबधित राज्य का मात्र संवैधानिक प्रमुख होना चाहिये, जबकि वास्तविक कार्यकारी अधिकार राज्यों के मंत्रिमण्डल में निहित होंगे,
जो संबद्ध प्रदेश के निम्न सदन के प्रति उत्तरादायी होगा। जनता के
द्वारा राज्यपाल के चुनाव की स्थिति में राज्यपाल तथा संबंधित राज्य की विधायिका
के प्रति जवाबदेह मुख्यमंत्री व उसके मंत्रिमण्डल, जो स्वंय
आम चुनाव द्वारा निर्वाचित होते हैं के मध्य टकराव होने की आंषका बनी रहेगी।’’[5] श्री अय्यर साहब ने अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुये कहा कि ‘‘राज्यपाल को यदा कदा अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करना पड़ सकता है। इस
स्थिति में चुनाव की अपेक्षा मनोनयन उसके लिए अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल स्थिति होगी।
राष्ट्रपति द्वारा प्रांतीय मंत्रिमण्डल की सहमति से नियुक्त राज्यपाल पद पर आसीन
व्यक्ति जनता केे द्वारा निर्वाचित व्यक्ति से कही अधिक सावधान व सतर्क रहेगा।’’[6] श्री के0 एम0 मुन्सी ने भी राज्यपाल की राष्ट्रपति के द्वारा
नियुक्ति के विकल्प का समर्थन करते हुये कहा कि ‘‘चुनावों के
माध्यम से राज्यपाल पद के लिये निर्वाचित व्यक्ति अपने आप को दलगत राजनीति से बाहर
नहीं रख सकेगा।’’[7] राजस्थान के पूर्व अध्यक्ष श्री हरिषंकर भामड़ा के अनुसार श्री जवाहर लाल नेहरू का भी उपर्युक्त दृष्टिकोणों के समर्थन में अपना मत था कि ‘‘राज्यपाल पद का चुनाव होने की स्थिति में अल्पसंख्यक वर्ग के नेताओं को अलग रखा जा सकता हैं किन्तु यदि राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति की दशा में इस वर्ग से भी राज्यपाल पदों पर नियुक्त किये जा सकेंगें।’’[8] संविधान सभा के अन्य सदस्य श्री ब्रजेश प्रसाद का सुझाव था कि ‘‘राज्यपाल अपने गृह राज्य से बाहर का होना चाहिये ताकि स्थानीय राजनीति में उसका हस्तक्षेप न रहे।’’[9] इसके विपरीत श्री रोहणी चौधरी का मत था कि ‘‘राज्यपाल संबद्ध राज्य का होना चाहिये ऐसा होने पर वह राज्य के स्थानीय लोगों की समस्याओं की जानकारी रहने पर उनका समाधान करने में समर्थ हो सकेगा।’’[10] उपर्युक्त वाद-विवाद एवं गहन विचार विमर्श के पश्चात संविधान सभा में राज्यपाल को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति के विकल्प पर सहमति बन सकी। हां राज्यपाल संबधित राज्य का होना चाहिये अथवा नहीं? उसी प्रकार उसकी नियुक्ति के संबध में संबधित राज्य के मुख्यमंत्री एवं उसके मंत्रिमण्डल से परामर्श किया जाना चाहिये अथवा नहीं ? संविधान के अनुच्छेदों में इन दोनों प्रावधानों का कोई उपबन्ध नहीं किया गया हैं। हां यह एक स्वस्थ्य परंपरा हैं कि साधारणतः राज्यपाल की नियुक्ति उससे संबंधित राज्य में नहीं की जाती। इसी प्रकार उसकी नियुक्ति में राज्य के मुख्यमंत्री व उसके मंत्रिमण्डल से सलाह की कोई परम्परा एक दो अपवादों को छोड़कर विकसित नहीं हुई है। राज्यपाल का कार्यकाल- संविधान के मसौदे में राज्यपाल की कार्यविधि 4 वर्ष सुझाई गई थी लेकिन संविधान निर्माता डॉ0 अम्बेडकर राज्यपाल का कार्यकाल की निश्चित अवधि निर्धारित किये जाने के पक्ष में नहीं थे, उनका मानना था कि ‘‘राज्यपाल पद धारण करने वाले व्यक्ति को तभी तक अपने पद पर रहना चाहिये, जब तक राष्ट्रपति चाहे अर्थात उसके प्रसाद पर्यंत तक’’[11] उनके मतानुसार राज्यपाल पद को धारित करने वाला व्यक्ति अपनी इच्छानुसार जब तक चाहे तब राष्ट्रपति को लिखित त्यागपत्र देकर अपना पद त्याग सकता हैं। प्रो0 के0टी0 शाह इस मत के विरू़द्ध थे उनका विचार था कि राज्यपाल को राष्ट्रपति की दया पर नही छोडा जाना चाहिये, अर्थात अपने कार्यकाल के दौरान उन्हे अपने पद से नहीं हटाया जाना चाहिये प्रो0 शिब्ब्नलाल सक्सेना का भी अभिमत था कि राज्यपाल पद स्वतंत्रता को अक्षुण रखा जाना चाहिये। अंततः संविधान सभा ने राज्यपाल के कार्यकाल की अवधि 5 वर्ष अथवा राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त तक दोनों बातों का समावेश करते हुये कार्यकाल निर्धारित किया अर्थात 5 वर्ष के पूर्व भी राष्ट्रपति के द्वारा उसे हटाया जा सकता था। वह स्वयं भी अपने कार्यकाल समाप्ति के पूर्व अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति को भेजकर अपना पद त्याग सकता है। राज्यपाल के अधिकार- ‘‘राज्य की समस्त कार्यपालिक
शक्तियां राज्यपाल में निहित होगीं। इस प्रस्ताव पर प्रो. के.टी.शाह के आग्रह पर ‘इन’ के स्थान पर ‘शैल’ शब्द जोड़ा गया।’’[12] इसी प्रकार राज्यपाल के
मुख्यमंत्रियों व अन्य मंत्रियों की नियुक्ति के अधिकार पर बहस हुई। राज्यपाल के
द्वारा नियुक्त मंत्री उसके चाहने तक ही अपने पद बने रहेंगे, पर अपना संशोधन पेश करते हुये डॉ0 अम्बेडकर ने कहा
कि ‘‘मुख्यमंत्री की नियुक्ति स्वंय राज्यपाल के द्वारा की
जायेगी तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति मुख्यमंत्री की सलाह से ही राज्यपाल करेगा
तथा मंत्रीगण गवर्नर के चाहने तक ही अपने पद बने रहेगेें।’’[13] गर्वनर के चाहने तक शब्द पर कई सदस्यों ने विरोध करते हुये कहा कि
मंत्रियों को जब तक नहीं हटाया जाना चाहिये तब तक उन्हें राज्य विधानसभा का बहुमत
प्राप्त हैं डॉ0 अम्बेडकर ने इसका उत्तर देते हुये स्पष्ट
किया कि ‘‘राज्यपाल के चाहने तक से उनका आशय मंत्रियों को
विधानसभा में बहुमत प्राप्त होने तक से ही था।’’[14] राज्यपाल के सभी कार्यपालिक आदेश राज्यपाल के नाम से जारी किये
जायेंगे इस पर प्रो.के.टी.शाह ने अपना मत दिया कि राज्यपाल के स्थान पर संबधित राज्य सरकार
शब्द जोडा जाना चाहिये। अपने इस मत के पीछे उनका तर्क था कि राज्यपाल जो स्वयं
राज्य का अस्थायी प्रमुख है, में इतनी व्यापक शक्तियों को
निहित किया जाना अनुचित होगा। डॉ0 अम्बेडकर इस विरोध का
उत्तर देने खड़े हुये, उनका मत था कि ‘‘ब्रिटिशकाल
कार्यपालिका के सभी कार्य भारत सरकार के नाम से किये जाते थे। जबकि वे निर्णय
गर्वनर जनरल की काउन्सिल में लिये जाते थे।’’[15] पी.एस.देशमुख
ने इस मत का समर्थन करते हुये कहा कि चूंकि राज्य सरकारों का हर आदेश राज्यपाल के
नाम से जारी किया जायेगा अतः ऐसे हर आदेश से राज्यपाल को अवगत कराया जाना चाहिये।
रोहिणी कुमार चौधरी ने भी इसी मत का समर्थन किया कि ‘‘राज्य
प्रशासन से संबधित सभी रचनायें जो राज्यपाल की शक्तियों एवं स्वविवेक पर आधारित
निर्णय से हो, उनके संबध में आवश्यक रूप से राज्यपाल को
अवगत कराया जाना चाहिये।’’[16] राज्यपाल की विधायी शक्तियाँ- संविधान के मसौदे अनुच्छेद 153 में कहा
गया था कि राज्यपाल जैसा चाहे उचित समझें उस समय और स्थान पर सदन की बैठक आहूत कर
सकता है तथा इसे भंग कर सकता है। इस संबध में मुहम्मद ताहिर ने संशोधन पेश करते
हुये कहा कि मूल धारा में इस प्रकार का प्रावधान जोड़ा जाना चाहिये, जिससे राज्यपाल विधायिका को केवल उसी स्थिति में भंग कर सके जब वह
संतुष्ट हो कि राज्य का प्रशासन सर्वथा असफल हो गया हैं तथा समूचा राज्य अस्थिर
एवं डावाडोल की स्थिति में आ गया हैं। मोहम्मद ताहिर ने अपनी बात को आगे बढाते
हुये कहा कि ‘‘मात्र इस तथ्य से कि उसके व मंत्रिमण्डल के
मध्य किन्ही मु़द्दों पर असहमति बन गई है, उसे सदन को भंग
करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिये।’’[17] आपातकालीन शक्तियां- राज्यपाल को प्रदत्त आपातकालीन शक्तियां
विशेष रूप से राज्य में संवैधानिक मशीनरी फेल हो जाने से संबध प्रावधानों पर
संविधान सभा में अच्छी खासी बहस हुई। संविधान के अनुच्छेद 278 में
मसौदा तैयार करते समय यह उपबन्ध किया गया था कि ‘‘किसी राज्य
में संवैधानिक मशीनरी फेल हो जाने पर राज्य में राज्यपाल स्वयं एक पखवाडे के लिये
राज्य का प्रशासन चलाने की शक्तियां का प्रयोग कर सकेगा तथा इसकी सूचना राष्ट्रपति
को कर देगा।’’[18] ‘‘इस
धारा के विरोध में ऐसी मानक व्यवस्था होनी चाहिये जिससे आधार पर राज्य विशेष में
संवैधानिक मशीनरी फेल होने की बात सुनिश्चित की जा सके।’’[19]
आगे डॉ0 अम्बेडकर ने राज्यपाल के आपातकालीन अधिकारों के बारे
में अनुच्छेद 278 के बारे में एक नया संशोधन पेश किया। इस
संशोधन के अनुसार ’’यदि राष्ट्रपति किसी राज्य के राज्यपाल
अथवा शासक अथवा किसी अन्य सूत्र से प्राप्त जानकारी से संतुष्ट हो कि उस राज्य
विशेष में संविधान की व्यवस्थाओं के अनुरूप शासन चलाना असंभव हो गया है, तब वह अपने द्वारा जारी उद्घोषणा के जरिये राज्य विशेष की सरकार की समस्त
कृत्यों का सपांदित करने में तथा राज्यपाल में निहित शक्तियों को वह स्वंय ग्रहण
कर सकता है। वह यह भी घोषित कर सकता हैं कि राज्य की विधायिका द्वारा प्रदत्त
शक्तियां संसद के अधिकार क्षेत्र में आयेंगी।[20] उर्पयुक्त संशोधन के संबध में एच.व्ही.कामत का मत था कि संशोधन
में प्रयुक्त शब्द अथवा अन्य प्रकार से के पीछे बदनीयत एवं धूर्तता झलकती है। अतः
इसे निरस्त किया जाना चाहिये उनका तर्क था कि ‘‘राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत
होने केे कारण उसका विश्वास पात्र व्यक्ति होगा उनका यह भी तर्क था कि यदि
राष्ट्रपति को राज्यपाल की रिपोर्ट बगैर उन्य स्रोत से प्राप्त जानकारी के आधार
पर कार्यवाही करने की छूट दी गई तो इससे प्रादेशिक स्वायत्ता का मूल आधार ही नष्ट
हो जायेगा।’’[21] आगे अपनी बात को स्पष्ट करते हुये कामथ साहब
ने कहा कि ‘‘मैं चाहता हूं कि राष्ट्रपति को इस मामलों में
कार्यवाही तभी करने के लिये अधिकृत किया जाना चाहिये, जब वह
राज्यपाल अथवा उस राज्य का शासक उसे इस प्रकार की स्थिति के बारे में सूचित करे
अन्यथा नहीं, अर्थात राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधानसभा भंग
करने सरकारों को बर्खास्त करने की कार्यवाही के पीछे राज्यपालों से प्राप्त
प्रतिवेदन एक बुनियाद आवश्यकता होनी चाहिये।’’[22] प्रो0 शिब्बनलाल सक्सेना ने भी संशोधन का विरोध करते हुये कहा कि ‘‘हमने राष्ट्रपति द्वारा किसी राज्य के मामले के हस्तक्षेप करने का कम से
कम तब तक कोई औचित्य नहीं है जब तक कि उसे स्वंय के द्वारा मनोनीत राज्यपाल से
रिपोर्ट न मिल जाय।’’[23] लेकिन राज्यों के मामलों में इस
हस्तक्षेप के अधिकार के रूप में स्वयं उसे अपने विवेक से विरत रहना पड़ेगा भले ही
प्रादेशिक मंत्री परिषद उससे असहमत हो। प्रो0 सक्सेना का मत
था कि ‘‘राष्ट्रपति राज्यों के मामलों में अपने इस अधिकार का
दुरूपयोग भी कर सकता है, उदाहरण के बतौर केन्द्रीय गुप्तचर
विभाग से उसे इस आशय की रिपोर्ट प्राप्त होने पर कि किसी राज्य विशेष में कानून
व्यवस्था की स्थिति भंग हो गई है या कोई गंभीर स्थिति निर्मित हो गई है, तब तो उस स्थिति में राष्ट्रपति उस प्रदेश के शासन करने के समस्त अधिकार
अपने हाथ में ले सकता है।’’[24] पी0एस0 देशमुख ने भी संशोधन की आलोचना करते हुये कहा कि
‘‘हमने राष्ट्रपति या संसद में सभी प्रकार के आपातकालीन
अधिकार दिये हैं और गवर्नर महज एक रिपोर्ट देने वाला अधिकारी बन कर रह गया है।[25] उनके मतानुसार प्रथमतः यह संघीय प्रणाली की अवधारणा के विपरीत है।
द्वितीय- इस प्रकार की कार्यवाही से संसद के पास ऐसा अतिरिक्त कार्यभार एवं
दायित्व का बोझ आयेगा जो स्वाभाविक रूप से किसी राज्य की विधायिका के सुपुर्द होंगें। श्री देशमुख ने किसी राज्य विशेष में कानून व्यवस्था अथवा संवैधानिक
मशीनरी फेल होने की स्थिति में संबंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा वहां का शासन एक
पखवाडे के लिये अपने हाथ में लिये जाने का समर्थन करते हुये कहा कि इससे उसे
स्थिति को सुधारने का अपेक्षित अवसर मिल सकेगा, क्योंकि
राष्ट्रपति अथवा संसद की तुलना में उसे राज्य के हालत की बेहतर जानकारी होगी। श्री
नशरूद्दीन अहमद का मत था कि ‘‘इस तरह के प्रावधान से छोटे से
बहानों द्वारा राज्यों के मामलों में केन्द्र को हस्तक्षेप करने की सुविधा मिल
जायेगी।’’[26] श्री अलगूराम शास्त्री का मत था कि इस अनुच्छेद के प्रावधान के संबंध में भारत शासन अधिनियम 1935 के अनुकरण की आवश्यकता नहीं है, उनका मत था कि किसी राज्य में संकटकाल की स्थिति में मौके पर उपस्थित व्यक्ति अर्थात् राज्यपाल पर विश्वास किया जाना चाहिये अन्यथा फिर उसे गर्वनर कहने की अपेक्षा गोबर जार कहना कहीं अधिक उपयुक्त होगा।[27] दूसरी ओर संशोधन के समर्थन में खड़े हुये ठाकुरदास भार्गव उन्होनें अनुच्छेद में अन्य प्रकार से शब्द को बनाये रखने का समर्थन करते हुये तर्क दिया कि उस स्थिति में जब राज्यपाल एवं मंत्री परिषद के मध्य टकराव की स्थिति निर्मित हो जाये तथा राज्य विधानसभा इस आशय का प्रस्ताव पास करती है कि प्रदेश में गिरती हुई कानून व्यवस्था को देखते हुये केन्द्र द्वारा हस्तक्षेप करना आवश्यक हो गया है, इस स्थिति से निपटने के लिये ‘‘अन्य प्रकार से’’ शब्द जोड़ा जाना आवश्यक है।[28] अन्य सदस्य श्री राजबहादुर ने भी डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत संशोधन का समर्थन किया। डॉ0 अम्बेडकर ने सदस्यों द्वारा उठाये गये उपर्युक्त मुद्दों का जबाब देते
हुये कहा कि इस अनुच्छेद का अंतिम उपाय के रूप में ही प्रयोग किया जाना चाहिये,
उन्होनें अपने मत को आगे व्यक्त करते हुये कहा कि ‘‘किसी भी राज्य की विधानसभा को भंग करने से पूर्व राष्ट्रपति द्वारा
संबंधित राज्य के मंत्रिमण्डल को उसकी त्रुटियों के लिये चेतावनी दी जानी चाहिये।
यदि इस चेतावनी का कोई प्रभाव न हो तो उस अवस्था में वह राज्य में नये चुनाव कराने
का आदेश दे सकता है। इन दो उपायों के असफल हो जाने पर ही उसे इस अनुच्छेद का
प्रयोग करना उचित होगा।[29] इस तरह लम्बी बहस के पश्चात ही
मसविदे के अनुच्छेद 278 को संविधान सभा द्वारा स्वीकार किया
गया। |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार हम सकते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान ईस्ट
इंडिया कंपनी द्वारा निर्मित इस पद को न केवल 1909 मारले मिण्टो एक्ट में बनाये
रखा गया बल्कि भारत सरकार अधिनियम 1909 एवं 1935 में भी इस पद को अधिक अधिकारों से संपन्न कर शक्तिशाली बनाया गया। स्वतंत्रता
के पश्चात् इस पद को हमने केवल ब्रिटिश राजनैतिक विरासत के प्रतीक के रूप में
स्वीकार नहीं किया, बल्कि इस पद के प्रत्येक पहलू पर हमारे
संविधान निर्माताओें के मध्य गहन विचार-विमर्श हुआ, विस्तृत
मंत्रणा हुई तथा सार्थक बहस के पश्चात् ही इस पद को संयुक्त राज्य अमेरिका के
गवर्नर की भांति नहीं बल्कि हमारी स्थानीय राजनैतिक परिस्थितियों के अनुसार
परिवर्तित स्वरूप में स्वीकार किया गया। आज राज्यपाल का पद जहां एक ओर राज्यों
गणतंत्रीय व्यवस्था का प्रतीक है वहीं केन्द्र एवं राज्यों के मध्य वह एक
संवैधानिक सेतु है तथा राज्यों को संवैधानिक मशीनरी के फेल होने अथवा संवैधानिक
संकट के समय प्रशासक तथा राष्ट्रपति का संवैधानिक अभिकर्ता है। संवैधानिक रूप से
उसका पद दलगत राजनीति से ऊपर, राज्यों का संवैधानिक प्रमुख
एवं संसदीय शासन प्रणाली का यह पद सशक्त हस्ताक्षर है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1
विधायनी अप्रैल-जून 1993, पृष्ठ 4 मध्यप्रदेश विधानसभा सचिवालय, भोपाल। 2
संविधान सभा की बहसें भाग 02 वैज्ञानिक एवं
तकनीकी शब्दावली आयोग भारत सरकार नईदिल्ली। 3
....... वही। 4
विधायनी अप्रैल-जून 1993, पृष्ठ 4 मध्यप्रदेश विधानसभा सचिवालय, भोपाल। 5
संविधान सभा की बहसें भाग 02 वैज्ञानिक एवं
तकनीकी शब्दावली आयोग भारत सरकार नईदिल्ली। 6
....... वही। 7
....... वही। 8
माननीय हरिशंकर भाभड़ा अप्रैल-जून 1993 पृ0क्ऱ 06 राज्य विधानसभा सचिवालय भोपाल। 9
संविधान सभा की बहसें भाग 02 वैज्ञानिक एवं
तकनीकी शब्दावली आयोग भारत सरकार नईदिल्ली। 10 ....... 27 वही। |