ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- X November  - 2023
Innovation The Research Concept

झालावाड़ कि कला व संस्कृति का संक्षिप्त ऐतिहासिक महत्व

Brief Historical Importance of Art and Culture of Jhalawar
Paper Id :  18333   Submission Date :  2023-11-07   Acceptance Date :  2023-11-15   Publication Date :  2023-11-20
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DOI:10.5281/zenodo.10441129
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नवनीत स्वरूप
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
माँ भारती पीजी कॉलेज,
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश

राजस्थान विरासतों की ऐसी अनुपम भूमि है जहां विरासतें मूक नहीं बल्कि वाचाल है और जीवंत है। वह केवल इतिहास का अख्यान नहीं करती बल्कि स्वयं में अपने गौरव की आख्याता के है। यहां के दुर्ग, नगर, प्रसाद, मंदिर, अंकन, मूर्तियाँ तथा परम्पराएँ अपने आप में अद्विय है। जिनका सुदीर्घ इतिहास है।

झालावाड़ की धरती अपने आप में प्राक्एतिहासिक काल से महाभारत व बौद्ध युग तक के सांस्कृतिक इतिहास को समेटे हुऐ है। गंगधार की पुरातात्विक सभ्यता तथा पापनाशिनी चन्द्रभागा के तट पर अवस्थित चन्द्रावती नगरी का अद्भुद शिल्प 7वीं से 8वीं सदी का हैं। यहां का शिल्प सम्पूर्ण उत्तर भारत के स्थापत्य शिल्प के वैभव में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। झालावाड़ की धरती अपने आप में प्राक्एतिहासिक काल से महाभारत व बौद्ध युग तक के सांस्कृतिक इतिहास को समेटे हुऐ है। गंगधार की पुरातात्विक सभ्यता तथा पापनाशिनी चन्द्रभागा के तट पर अवस्थित चन्द्रावती नगरी का अद्भुद शिल्प 7वीं से 8वीं सदी का हैं। यहां का शिल्प सम्पूर्ण उत्तर भारत के स्थापत्य शिल्प के वैभव में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

झालावाड़ के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला गागरोन जलदुर्ग विश्व धरोहर के रूप में भारत के वैभव को ख्याति दिला रहा है। गागरोन महान संत पीपाजी का स्थान है जो संत कबीर के मित्र थे। झालावाड़ के निकट स्थित कोलवी की गुफाएँ बौद्ध स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Rajasthan is such a unique land of heritage where the heritage is not silent but is eloquent and alive. She not only narrates history but also narrates her own pride. The forts, cities, offerings, temples, markings, statues and traditions here are unique in themselves. Which has a long history.
The land of Jhalawar contains within itself the cultural history from prehistoric times to Mahabharata and Buddhist era. The archaeological civilization of Gangdhar and the amazing sculpture of Chandravati city situated on the banks of Papanashini Chandrabhaga are from 7th to 8th century. The craft here holds an important place in the splendor of the architectural craft of entire North India.The land of Jhalawar contains within itself the cultural history from prehistoric times to Mahabharata and Buddhist era. The archaeological civilization of Gangdhar and the amazing sculpture of Chandravati city situated on the banks of Papanashini Chandrabhaga are from 7th to 8th century. The craft here holds an important place in the splendor of the architectural craft of entire North India.
Gagron Water Fort, which holds an important place in the history of Jhalawar, is bringing glory to India as a world heritage. Gagron is the place of great saint Pipaji who was the friend of Saint Kabir. Kolvi caves located near Jhalawar are a unique example of Buddhist architecture.
मुख्य शब्द स्थापत्य, गंगधार, कोलवी, विश्वविश्रुत, सानिध्य, वाचाल।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Architecture, Gangdhar, Kolvi, Vishwavishruta, Sanidhya, Volatile.
प्रस्तावना

झालरापाटन नगरी सेठ साहूकारों व महान प्राचीन मंदिरों के कारण मंदिर शैली के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यहां भारत की प्रसिद्ध भवानी नाट्यशाला बनी जिसकी यशकीर्ति महान नृत्यकार पं. उदयशंकर और उनके अनुज प्रसिद्ध सितारवादक पं. रविशंकर के कारण विश्वविश्रुत हो गयी । पं. उदयशंकर व पं. रविशंकर का परिवार झाला राजपरिवार के संक्षरण व सानिध्य में झालावाड़ में रहा।

झालावाड़ राज्य के शिल्पी व महान कूटनीतिज्ञ झाला जालिम सिंह थें जिन्होंने कोटा के साम्राज्य को बचाया व झालावाड़ राज्य की नींव रखी। यहां की महान चित्रांकन परम्परा व भव्य सूर्य मंदिर व जैन मंदिर के चित्रांकन व स्थापत्य के इतिहास में अनुपम उल्लेख स्थापित किये है।

प्रस्तुत शोधपत्र में झालावाड़ के कला संस्कृति के विभिन्न पक्षों नगरों, मंदिरों, अन्य ऐतिहासिक महत्व के स्थलों व लोक संस्कृति के विभिन्न पहलु पर सांस्कृतिक इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा। इस इतिहास में गंगधार, कोलवी की गुफाएं, रटलाई का तंत्र पीठ, युनेस्को विश्व धरोहर जलदुर्ग गागरोन, नागेश्वर पार्श्वनाथ तथा अन्य छोटे छोटे ऐतिहासिक स्थलों का विस्तार से उल्लेख किया जाऐगा।

झालावाड़ की सांस्कृतिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में प्राचीन मालवा, खीची राजवंश, तथा झाला राजवंश का अमूूल्य योगदान रहा है जिसका भी वर्णन प्रस्तुत शोधपत्र में किया जाएगा। 

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम राजस्थान के झालावाड़ जिले के ऐतिहासिक महत्व के तथ्यों को प्रकास में लाना है तथा झालावाड जिले के व्यापाक सांस्कृतिक व ऐतिहासिक शोध में शोध की सम्भावनाओं की और शोधकर्ताओं का ध्यान आकृष्ट करना है।

साहित्यावलोकन

जे. फरग्यूसन ने अपनी पुस्तक आर्कलाॅजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में झालावाड़ के नगर झालारा पाटन के व्यपारिक समृद्धता के विषय में वर्णन किया उन्होने यहां की चन्द्रवती नगरी के बारे में कहा है की मेरे द्वारा देखे गये उत्तर भारत मंदिरों में चन्द्रावती के शिव मंदिर अधिक सुन्दरता लिए हुए है।’’

राजेन्द्र यादव द्वारा मालपुरा की पांच बौद्ध गुफाओं को खोजा गया जिसका वर्णन उनके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट एएसआई की 2006 में प्रकाशित हुइ्र्र में किया गया।

मुख्य पाठ

भारत के प्राचीन क्षत्रियों के इतिहास में झाला राजपूतों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इतिहासकार जगदीशसिंह गहलोत के अनुसार झालाओं का शासकिय रूप में प्रथम नामोल्लेख प्राचीन सिंध के पारकर नगर के निकट मूलतः कीर्तिगढ़ के शासकों के रूप में मिलता है। वहां प्रथम नरेश व्योमेश देव मकवाणा था। बाद में उसका पुत्र केसरदेव मकवाणा, सिंध के हमीर सुमेरा के विरूद्ध मारा गया। केसरदेव का पुत्र हरपालदेव कीर्तिगढ़ से चलकर गुजरात के शासक करणदेव बघेला (1286ई. से 1300ई.) के पास आया। करणदेव ने उसे पाटड़ी की जागीर प्रदान की।

पाटड़ी के हरपालदेव के तीन पुत्र थे। सोढ़देव, मागदेव तथा शेखराज ये तीनों एक दिन अपनी हवेली में नीचे चारण पुत्र के साथ खेल रहे थे इस बाल खेल को हरपाल तथा उसकी पत्नी विश्ववंती झरोखे से देख रही थी, कि अचानक एक मदमस्त पागल हाथी बालकों की और आक्रमण के लिए दौड़ जाता है तब ही वीर माता विश्ववंती का हाथ अचानक बड़ा रूप धारण कर हाथ के झाले से तीनों पुत्रों को झाला देकर उस पागल हाथी से बचा लेती है तथा चारण पुत्र को टप्पर देकर दूर कर उस भी बचा लेती है। इस कथानक से यह बात स्पष्ट होती है की इसी कारण हरपालदेव के वंशज झालाकहलाए तथा टप्पर द्वारा बचाए जाने के कारण टप्परिया चारण कहलाए। गौरीशंकर हीरानन्द ओझा के निबंध संग्रह में इन्हें चन्द्रवंशी बताया गया है। हरपाल के बाद उसका जेष्ठ पुत्र झाला सोढ़देव पाटड़ी की गददी पर आसीन हुआ इसके बाद इसका वंशज जैतसिंह हुआ जो कालातंर में पाटड़ी से कुआ चला आया इसी क्रम में आगे वंशज राजधर हुआ जिसने कठियावाड़ के समीप हलवद को अपनी राजधानी बनाया। राजधर के तीन पुत्र झाला अज्जा, झाला सज्जा तथा झाला राणु हुए। झाला अज्जा ने मेवाड़ के महाराणा को खानवा की लड़ाई में (1527ई.) राणा के छत्र धारण कर राणा की आन बान शान की रक्षा की तथा दूसरे पुत्र झाला सज्जा ने गुजरात के बहादुरशाह के मेवाड़ आक्रमण के समय वीरगति प्राप्त की तथा झाला राणु के वंशजोें ने भी प्रताप की सेना में वीरगति प्राप्त की। इस प्रकार मेवाड़ की बलिदानी सेवा के कारण इन्हें मेवा के महाराजाओं द्वारा राजरणा का सम्मान प्राप्त हुआ। राणु का प्रपौत्र चन्द्रसिंह हुआ जिसके 12 पुत्र थे जिनमें जेष्ठ पृथ्वीराज था, इसका पुत्र आसकरण था, जिसके दो अन्य भाई सुल्तान व राजदेव थे। राजदेव के बाद की पीढ़ी हलवद को त्यागकर ईडर व अजमेर क्षेत्र मे आ गये यहां उनका सिसोदिया राजपूत ठाकुर की पुत्री से विवाह सम्पन्न हुआ, जिससे झाला माधोसिंह और एक पुत्री का जन्म हुआ। झाला माधोसिंह महत्वकांक्षी था अतः वह 1669 में बून्दी राज्य की सेवा से होता हुआ कोटा राज्य की सेवा में हाड़ा शासक रामसिंह के पास आ गया यहां रामसिंह को उसने अपनी सेवा व प्रतिभा से प्रभावित किया। अगले महाराव भीमसिंह जी हाडा (1707-1720) ने उसे नान्ता की जागीर प्रदान की। अपनी योग्यता व पराक्रम से वह कोटा राज्य का प्रमुख अधिकारी बन गया उसे कोटा राज्य के दुर्गों का रक्षाभार सौंपा गया जिससे उसका प्रभाव कोटा राज्य में निरन्तर बढ़ता गया। उसने अपनी बहन का विवाह कोटा राज्य के राजकुमार अर्जुनसिंह से कर दिया। जिससे झालाओं तथा कोटा राज्य के सम्बन्धों में और मजबूती आ गई।

झाला माधोसिंह की मृत्यु(1740) के बाद उसका पुत्र झाला मदन सिंह एवं उसके बाद उसके पुत्र झाला हिम्मत सिंह कोटा राज्य के फौजदार बने। 1758 में हिम्मत सिंह की निःसन्तान मृत्यु हो जाने पर उसके छोटे भाई से प्राप्त दत्तक पुत्र झाला जालिमसिंह कोटा राज्य की सेवा में आए जिन्होंने झालावाड़ राज्य की ऐतिहासिक नींव डाली।

ब्रिटिश सरकार ने महाराव से परामर्श करके कोटा राज्य से 17 परगनों को अलग करके  8 अप्रैल, 1838 में झाला जालिमसिंह के वंशजो  के नाम से नवीन झालावाड़ राज्य की स्थापना की। 

झालावाड़ राज्य का जनजीवन एवं परम्पराएं

प्रस्तुत शोध प्रस्ताव में झालावाड राज्य के ऐतिहसिक जनजीवन तथा यहां की परम्पराओं, तीज त्यौहार, मेले, रहन-सहन, आभूषण, नृत्य-संगीत, बोली-भाषा आदी पर व्यापक स्तर पर कार्य किया जाएगा। जिससे रियासत के पारम्परिक सांस्कृतिक पक्षों को वर्तमान पीढी के समक्ष प्रकाशित किया जा सके। विशेष रूप में झालावाड़ की माच परम्परा जिसे अन्य स्थानों पर नाट्य कला कहा जाता है।

झालावाड़ के पुरातात्विक क्षेत्रगंगधार

झालावाड़ मुख्यालय से 125 दूर चौमहला स्टेशन से 4 किमी. कि दूरी पर कालीसिंध के तट पर अवस्थित गंगधार भारत की पुरातात्विक विशिष्टता को धारण किए हुए एक स्थल है, आज भी यह गंगधार तत्कालीन समय के प्राचीन महत्व का साक्ष्य हमें प्रस्तुत कर रहा है जिस कारण यह अपनी ख्याति को चिरस्थायी बनाये हुए है। यह मालवा की उपराजधानी के रूप में देशभर में प्रसिद्ध रहा है।

ग्ंगधार का प्राचीन नाम गर्गराट नगर के नाम से प्राचीन अनुश्रुतियों से प्राप्त होता है। जो इस क्षैत्र को गर्गऋषि के नाम से जोड़ता है जिनका आश्रम गर्गरा नदी के तट पर अवस्थित था। गर्गरा नदी का सम्बन्ध वर्तमान छोटी कालीसिंध से ही माना जाता है। गर्गराट या गगराट नाम आधुनिक समय 18वीं सदी तक चलता रहा जिसका उल्लेख हमें मराठा शासकों द्वारा गंगधार के अधिकारियों से होने वाले पत्राचार से भी होता है। जिसमें उन्होने गंगधार को गगराड नाम से ही सम्बोधित किया है। गर्गरा नदी तट पर अवस्थित टीलों पर पुरातात्विक उत्खनन से ताम्रपााषाणिक संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए है। यहां से काले चित्रित धूसर मृदभाण्ड प्राप्त होते है। यहां से प्राप्त अन्य सामग्री में मृदभाण्ड, तश्तरिया, तथा थालियां आदि है। यहां से जोरवे प्रकार के मृदभाण्ड प्राप्त हुए है। यहां से पकाई गई मिट्टी का एक मानव मस्तक प्राप्त हुआ है। मुस्कान युक्त मृणमूर्ति भी प्राप्त हुई।

17वीं शताब्दी में गुजरात के हलवद के झाला हरिदास जहांगीर की सेवा में आगरा आए तथा इनके पश्चात इनका छोटा भाई नरहरिदास भी इनकी सेवा में आ गये इनकी सेवा से प्रसन्न होकर 1619 ई. में जहांगीर ने इन्हे चौमहला परगने का राज्य प्रदान किया। जिसमें गंगधार, डग, आवर तथा पचपहाड़ क्षेत्र सम्मिलित थे। नरहरिदास ने चौमहला परगने के प्राचीन गंगधार को अपनी राजधानी बनाया तथा 1629 में नगर की सुरक्षा की दृष्टि से एक किले का निर्माण करवाया जिसमें अपनी कुलदेवी विश्ववन्ति देवी का मंदिर निर्माण करवाया। इस किले का भी प्राकृतिकवातावरण का पर्यटन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। इसी क्रम में चोमहला परगने के शासक बख्तावर सिंह हुए जिनके मुगल शासक औरंगजेब के साथ विवाद हुऐ जिस कारण उसके परगने के गंगधार व आवर को छोडकर समस्त राज्य मुगल बादशाह द्वारा छिन लिए गए।

1773 ई. में मोखसिंह के समय गंगधार मराठों के अधीन आ गया। 1807 में यशवंतराव होल्कर के हाथ से होता हुआ गंगधार कोटा के दीवान झाला जालिम सिंह के हाथ में चला गया यशवंत सिंह ने गंगधार दीवाना झाला जालिम सिंह को इजारे पर दे दिया। यहां झाला जालिम सिंह ने अपने कुशल सेनानी मेहराब खां को वसूली के लिए लगाया गया। 

कोलवी

राजस्थान का कण - कण वीरता का धनी रहा है यहां का कोई ऐसा भूभाग नही होगा जो राजपूताने के रण बांकुरों के युद्ध कौशल का जानकार न हो इसके साथ ही जहां रक्षा व सुरक्षा हेतु राजस्थान की धरा ने कहीं युद्धो को देखा वही झालावाड की धरा से शांति व करूणा अहिंसा का संदेश देने के साक्ष्य भी इसी राजस्थान की प्राचीन धरा से प्राप्त होते है जिसमें महत्वपूर्ण नाम कोलवी की बौद्ध गुफाओं की श्रृखंला का आता है। झालावाड़ की डग तहसील की पहाड़ियों पर गुफाऐं देखी जा सकती है ये संख्या में 90 है जो बलुआ पत्थर के पहाड़ियों को काट कर बनाई गई थी ये ई.पू. तीसरी शताब्दी का शानदार बौद्ध स्थापत्य नमूना है। यह राजस्थान में प्राप्त एक मात्र बौद्ध स्थापत्य का उदाहरण है।

1853 में इन गुफाओं की खोज डॉ. इम्पे के द्वारा की गई थी जिस पर 1864 कनिघंम ने रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। कोलवी की ये गुफाऐं चौमहला स्टेशन से लगभग 35 किमी दूर है।

हाथिगौड़

कोलवी की गुफाओं से 5 कि मी की दूरी पर हाथिगौड गांव में इस प्रकार की 8 गुफाओं इन प्राप्त गुुफाओं की विशेष बात यह है की यहां से प्राप्त गुफाओं एक सभागार का आभाष होता है जिसमें 15- 20 लोगों की सभा हो सकती है। इसका साइज लम्बाई 12.5 मी. तथा चौडाई 6.25 मी है। इस चबूतरे के सामने एक चबतरे पर स्तूप उकेरा गया है।

गुनई

हाथिगौड के पास ही गुनई गांव है जहां से भी 9 बौद्ध गुफाऐं प्राप्त हुई है। यहां से दूसरी गुफा से महात्मा बुद्ध की सुन्दर प्रतिमा प्राप्त हुई है।

बिनायगा

बिनायगा गांव की पहाडी पर 21 गुफाऐं प्राप्त हुई है। यहां से दो बड़े एक छोटा स्तूप मिला है। इसमें बड़े स्तूप में अनेक छोटी महात्मा बुद्ध की मूर्तियां मिली है।

कोलीवी गुफाओं का उल्लेख फर्ग्युसन ने भी अपनी पुस्तक 'The cave tample of india' में किया है। प्रस्तुत शोध के विषय में झालावाड जिले के इन पुरातात्विक महत्व के क्षेत्रों पर जो जानकारी प्राप्त है उन पर और अधिक विस्तार से वर्णन प्रस्तुत करना है। क्योंकि यदि यहां से हमें बौद्ध स्तूप प्राप्त हो रहे है तो इनका सम्बन्ध निश्चित रूप से विक्रमशिला तथ सांची के स्तूपों से रहा होगा, इन गुफाओं के लिए किन राजवंशों ने सहयोग प्रदान किया? इस प्रकार के तथ्य इसके व्यापक अध्ययन से प्रस्तुत किये जा सकते है। 



चन्द्रवती नगरी

झालावाड़ से 8 किमी की दूरी पर स्थित झालरापाटन है जिसकी जातक नगरी चन्द्रावती है। जो चन्द्रभगा नदी के तट पर बसी है। जिसका सांस्कृतिक महत्व अमूल्य है यहां की स्थापत्य कला, शिल्पकला व वैभव प्राचीन भारत की सांस्कृतिक कला व वैभव की ऐसी धरोहर है की इसकी प्रशंसा कनिघम, गैरिक, टॉड़ तथा भण्डारकर महोदय ने भी की है। फर्ग्युसन के शब्दों में मेरे द्वारा देखे गये उत्तर भारत मंदिरों में चन्द्रावती के शिव मंदिर अधिक सुन्दरता लिए हुए है।’’ यहां बहने वाली सरिता चन्द्रभागा का महत्व जन समूह के लिए गंगा से कमतर नहीं है। आज भी इसकी पवित्रता गंगा नदी के समान स्नान करने के महत्व के बराबर बनी हुई है।

ऐसी जन श्रुति है कि मालवा नरेश चन्द्रसेन परमार यहां भगवान शिव की भक्ति में लीन हो गये माना जाता है की भगवान शिव की कृपा से ही यहां चन्द्रभगा नदी प्रकट हुई है। इस क्षेत्र पर परमार शासकों का अधिकार रहा जिन्होंने चन्द्रावती को संवारने का कार्य किया। जिस प्रस्तुत शोध पत्र द्वारा व्यापक रूप से उल्लेखित किया जाएगा। कालान्तर में आलाउद्दीन खिलजी के द्वारा इस प्रदेश पर अधिकार कर लिया गया और यहां के कला व शिल्प को भग्न कर दिया गया। 1853 में झाला जालिम सिंह ने इस पुनः सवारने व बसाने का कार्य किया। इस नगरी से प्राप्त शैव, शाक्त और वैष्णव मतादि की प्राचीन कलात्मक मूर्तिया प्राचीन भारतीय शिल्प का अनूपम ज्ञान प्रस्तुत करती है।  

भवानी नाट्यशाला:

देशी विदेशी नाटकों की प्रस्तुति देने के लिए विख्यात भवानी नाट्यशाला समस्त उत्तर भारत में अपने ढ़ंग की विशिष्टता के लिए विख्यात थी। यह गढ़ पैलेस के पीछे अवस्थित है। इसके रूप को सवांरने वाले ठाकुर उमराव सिंह थे जो भवानीसिंह जी के शासनकाल में एक मुख्य अधिकारी थे। उमराव सिंह ने यूरोप की यात्रा की थी वहां से प्रेरणा प्राप्त कर उन्होने झालावाड में एक नाट्य मंच बनाने का खाका पाषाण पट्टीका पर कोयले से तैयार किया और इसी के अनुरूप 1921 में महाराजा भवानीसिंह ने इसे साकार रूप प्रदान किया।

नाटकों की परम्परा झालावाड़ में 1904 से ही प्रारम्भ हो चुकी थी जिसके अन्तर्गत यहां मालवीय नाट्य मण्डली का निर्माण झालावाड़ में हो चुका था। दिल्ली में आयोजित 1911 का दरबार में महाराजा भवानीसिंह जी की नजर नाट्य कलाकार मिर्जा नजीर बेग पर पड़ी वह इससे इतने प्रभावित हुए कि इसे अपने साथ झालावाड़ ले आये तभी से नाटको का विकास और अधिक रूप से हुआ।

1620 में भवानी नाट्यशाला का निर्माण शुरू हुआ जिसका निर्माण ओपेरा शैली में हुआ तथा इसमें 16 जुलाई, 1921 में प्रथम नाटक का मंचन मिर्जा नजीरबेग के निर्देशन में किया गया जो कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम पर आधारित था। जिसके सभी पात्र पुरूष थे। इतना ही नहीं यहां प्रसिद्ध साहित्यकार शेक्सपियर द्वारा रचित ‘‘हेलमेट’’ नाटक का भी यहां अंग्रेजी भाषा में मंचन किया गया। 1950 में 'देश की आवाज' यहां खेला गया अन्तिम नाटक था। 

निष्कर्ष

प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से शोधार्थी हाडौति के प्राचीन नगरी झालावाड जिले के प्राचीन वैभव के साथ साथ यहां की कला व संस्कृति के विभिन्न आयामों के इतिहास को जनमानस से समक्ष उजागर करने का प्रयास किया गया है तथा जहां भी प्राचीन वैभव की अज्ञानता के अभाव में जिले के प्राचीन स्मारक व लोक कलाएं अपना अस्तित्व खो रही है, प्रस्तुत शोधपत्र के माध्यम से जागरूक कर उन्हें संरक्षित व विकसित किया जा सके जिससे पर्यटन क्षेत्र का भी विकास हो सकेगा। इस शोध का प्रमुख लक्ष्य वर्तमान पीढ़ी को झालावाड़ की प्राचीन कला व संस्कृति व वैभव से अवगत करना ही होगा। 

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. मथुरालाल शर्मा का कोटा राज्य का इतिहास

2. जनरल ऑफ मध्यप्रदेश इतिहास परिषद् भाग 4

3. एस.आर. खान का गंगधार का इतिहासशोधलेख

4. Indian rchaeology 2006-07- A review पृ.स. 91

5. राजस्थान राज्य का पुरातात्विक व संग्रहालय विभाग के राजेन्द्र यादव की मालपुरा में पांच गुफाओं की खोज 2006

6. ए. कनिंघम आर्कलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडियाभाग 2 1862-65

7. जे.फर्ग्युसन ‘‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन ईस्टर्न आर्किटेक्चर‘‘ खण्ड 1

8. डॉ. अरविन्द सक्सेना का कोटा, बून्दी राज्य का इतिहास

9. घनश्यामलाल माथुर हाडौति चिन्तन‘‘ कोटा 1985