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ग्रामीण क्षेत्रों
में असंगठित महिला श्रमिकों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति
का विश्लेषण (जनपद गाजियाबाद के सन्दर्भ में) |
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Analysis of the Economic and Social Condition of Unorganized Women Workers in Rural Areas (In the Context of Ghaziabad District) | |||||||
Paper Id :
18298 Submission Date :
2023-11-13 Acceptance Date :
2023-11-23 Publication Date :
2023-11-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10461629 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
शहरीकरण की अन्धी दौड़ के बावजूद असली भारत आज भी मुख्य रूप से गाँवों में बसता है। लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या अभी भी ग्रामीण क्षेत्र में रहती है। ऐसे में जब भारत के विकास की बात की जाती है, तो सहज ही गाँवों के विकास का विचार हमारे मस्तिष्क में आता है। ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक एवं सामाजिक विकास की बात की जाये तो इसमें ग्रामीण महिला श्रमिकों की भूमिका का विशेष महत्व है। उत्तर प्रदेश का जनपद गाजियाबाद एक ऐसा क्षेत्र है जो एक ओर तो नव निर्माण विकास की ओर अग्रसर है तथा दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों के पारम्परिक लघु एवं कुटीर उद्योग हैं वें भी अपनी पहचान बनाये हुए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पुरूष वर्ग के साथ-साथ महिलायें भी आर्थिक रूप से कार्य करने में बहुत सक्रिय भूमिका का निर्वहन करती हैं। सत्य तो यह है कि वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों का अधिकांश पुरूष वर्ग तो शहरी इलाकों में काम के लिये निकल गया है किन्तु अपनी पारिवारिक आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये महिलाओं के कंधों पर बहुत बडा दायित्व आ जाता है कि वें अपने परिवार का घ्यान रखते हुए कुछ ऐसा कार्य करें कि उन्हें आर्थिक रूप से भी कुछ आय प्राप्त हो सके। इस लेख में मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में असंगठित ग्रामीण महिला श्रमिकों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति का विश्लेषण किया जायेगा। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Despite the blind race of urbanization, the real India still lives mainly in villages. About 60 percent of the population still lives in rural areas. In such a situation, when India's development is talked about, the idea of village development naturally comes to our mind. If we talk about economic and social development of rural areas, the role of rural women workers has special importance in it. Ghaziabad district of Uttar Pradesh is an area which on one hand is moving towards new construction development and on the other hand there are traditional small and cottage industries of rural areas which are also making their identity. In rural areas, along with men, women also play a very active role in economic work. The truth is that at present most of the men in rural areas have gone to work in urban areas, but to meet the economic needs of their families, a huge responsibility falls on the shoulders of women to take care of their families. They should do some work so that they can get some income financially also. In this article, the economic and social condition of unorganized rural women workers mainly in rural areas will be analyzed. |
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मुख्य शब्द | असंगठित महिला श्रमिक एवं आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Unorganized Women Workers and Economic and Social Status. | ||||||
प्रस्तावना | शहरीकरण की अन्धी दौड़ के बावजूद असली भारत आज भी
मुख्य रूप से गाँवों में बसता है। लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या अभी भी ग्रामीण
क्षेत्र में रहती है। ऐसे में जब भारत के विकास की बात की जाती है, तो
सहज ही गाँवों के विकास का विचार हमारे मस्तिष्क में आता है। ग्रामीण क्षेत्रों के
आर्थिक एवं सामाजिक विकास की बात की जाये तो इसमें असंगठित महिला श्रमिकों की
भूमिका का विशेष महत्व है।
जनपद गाजियाबाद एक ऐसा क्षेत्र है जो एक ओर तो नव निर्माण विकास की ओर अग्रसर है तथा दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों के पारम्परिक लघु एवं कुटीर उद्योग हैं वें भी अपनी पहचान बनाये हुए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पुरूष वर्ग के साथ-साथ महिलायें भी आर्थिक रूप से कार्य करने में बहुत सक्रिय भूमिका का निर्वहन करती हैं। सच्चाई से देखा जाये तो वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों का अधिकांश पुरूष वर्ग तो शहरी इलाकों में काम के लिये निकल गया है किन्तु अपनी पारिवारिक आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये महिलाओं के कंधों पर बहुत बड़ा दायित्व आ जाता है कि वें अपने परिवार का घ्यान रखते हुए कुछ ऐसा कार्य करें कि उन्हें आर्थिक रूप से भी कुछ आय प्राप्त हो सके तथा उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हो सके। उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुये "ग्रामीण क्षेत्रों में असंगठित महिला श्रमिकों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति का विश्लेषण (जनपद गाजियाबाद के सन्दर्भ में)" विषय चुना गया है। विश्लेषण के समय यह ज्ञात करने का प्रयास किया जायेगा कि ग्रामीण क्षेत्र में महिला श्रमिकों के संदर्भ में कार्यरत प्रमुख केन्द्रीय व राज्य योजनाओं ने अपने निर्धारित लक्ष्य के सापेक्ष किस अनुपात में लक्ष्यों को प्राप्त किया है साथ ही अगर वह निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रही तो उन्हें प्राप्त करने के लिये आवश्यक सुझाव क्या हो सकते है? ग्रामीण कामगार महिलाओं की मूलभूत समस्याओं से मुक्ति दिला पाने में राजकीय योजनायें किस हद तक सफल रही हैं ? |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में असंगठित ग्रामीण महिला श्रमिकों की
आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति का विश्लेषण किया जाना है। |
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साहित्यावलोकन | प्राचीन समय से ही महिलाएं भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक मजबूत आधार स्तम्भ रही हैं किन्तु विडम्बना यह है कि महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को सदैव से ही अनदेखा किया गया है। महिलाओं की स्थिति के सन्दर्भ में तो स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ”औरतों की स्थिति में सुधार लाये बिना दुनिया का कल्याण सम्भव नहीं है। एक पंख से चिड़िया उड़ान नहीं भर सकती।“ अतः इस लेख में में भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के विभिन्न विद्वानों एवं संस्थाओं ने जो अपने विचार प्रकट किये हैं, उनका पुनर्वालोकन किया गया है। सुश्री सुमित्रा महाजन जो कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय में महिला और बाल विकास विभाग से सम्बद्ध राज्यमंत्री रह चुकी हैं, ने कहा है, ‘‘हमारे ग्रामीण जीवन की अनेक गतिविधियां ऐसी हैं जिनमें औरतें, विशेषकर देसी ज्ञान की रक्षा एवं उसके संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान करती हैं। हम जानते हैं कि परम्परागत दवाईयॉं, लघु-स्तर पर खद्यान्न सुरक्षा, बीज संरक्षण, ऊर्जा प्रबन्ध और यहाँ तक कि उद्यमशीलता कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनका संचालन महिलाएं सफलता से करती आ रही हैं। उमेश चन्द अग्रवाल के विचारानुसार, ‘‘पिछले कुछ वर्षों में यूं तो देश के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विकास सम्बन्धी सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने विशेष भूमिका का निर्वहन किया है परन्तु जिस अनुपात में उन्हें अपनी उपस्थिति इन क्षेत्रों में दर्ज करानी चाहिए थी, उतनी अनेक कारणों से सम्भव नहीं हो सकी। इसके लिए आवश्यक है कि महिला समानता और सशक्तिकरण की योजनाएं कागजों तक सीमित रखने की बजाय धरातल पर उतारी जाएं और इस आन्दोलन को सरकारी प्रश्रय से बढ़ाकर जनता के बीच लाया जाए।’’ डॉ0 लक्ष्मी रानी कुलश्रेष्ठ ने अपने लेख में स्पष्ट किया है कि, ‘‘वर्तमान में ग्रामीण परिवारों में सबसे अधिक श्रम महिला को करना होता है, परन्तु उसका श्रम पूर्णतः अवैतनिक होता है तथा सुबह से देर रात तक घर और खेती के कार्य में जूझती महिला के श्रम का अधिकांश फल पुरुष वर्ग ही भोगता है। पति को परमेश्वर मानने तथा पति पर आश्रित रहने की प्रथा ने महिलाओं की आत्म चेतना को आच्छादित कर रखा है। शिक्षा के द्वारा तथा व्यावसायिक स्वतन्त्रता से ही इस कुप्रथा का अन्त सम्भव है। आवश्यकता इस बात की है कि महिलाओं के श्रम का उचित मूल्यांकन हो ताकि उनके श्रम का सही प्रतिफल उन्हें मिल सके।’’ |
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परिकल्पना | प्रस्तावित शोध अध्ययन की प्रमुख परिकल्पनायें निम्नलिखित हैः- 1. राजकीय योजनायें ग्रामीण क्षेत्र की असंगठित महिला श्रमिकोें के विकास में अहम भूमिका निभा रही है लेकिन निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने में अभी तक असफल रही है। 2. राजकीय योजनाओं द्वारा ग्रामीण क्षेत्र की असंगठित महिला श्रमिकों के विकास में वृद्धि करने के लिये और अधिक सुझाव सरकार को दिये जाने की आवश्यकता है। 3. राजकीय योजनाओं की सफलता के लिये असंगठित महिला श्रमिकों के अपेक्षित सहयोग एवं उनमें शिक्षा के प्रसार की आवश्यकता है। 4. कुप्रबन्ध एवं भ्रष्टाचार राजकीय ग्राम विकास योजनाओं की सफलता में बाधक सिद्ध हो रही है। |
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विश्लेषण | असंगठित श्रम क्षेत्र से आशय भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र अपनी विशेष भूमिका रखता है। व्यवसाय एवं रोजगार की प्रकृति के सन्दर्भ में विभिन्न उद्योगों ने असंगठित क्षेत्र में अहम योगदान किया है। पशुपालन, हस्तशिल्प, बीड़ी उद्योग, पापड़ उद्योग आदि ऐसे ही असंगठित क्षेत्र के उदाहरण हैं जो रोजगार का सृजन करने में व्यापक स्तर पर सफल हुए है। मुख्य रूप से श्रम को दो प्रमुख धाराओं में विभाजित किया जा सकता है, संगठित श्रम और असंगठित श्रम। जनपद गाजियाबाद में जहाँ एक ओर, संगठित श्रमिक औद्योगिक क्षेत्रों और क्षेत्र के विभिन्न सरकारी और निजी कार्यालयों में काम करते हुए पाए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर, असंगठित श्रमिक ज्यादातर कृषि क्षेत्रों, निर्माण कार्य, कुटीर एवं लघु उद्योग, ईंट भट्टा, घरों में काम करने वाले होते हैं। यदि हम असंगठित श्रम की बात करें तो यह ग्रामीण क्षेत्रों की कार्यशक्ति का एक बड़ा हिस्सा है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वे व्यक्ति जो शारीरिक और मानसिक रूप से अपने नियोक्ताओं के लिए कठिन परिश्रम करने में लगे हुए हैं, लेकिन अपने संघ या संगठन की अनुपस्थिति के कारण उनके सामने अपनी माँगें रखने या उनसे मोलभाव करने की स्थिति में नहीं हैं। असंगठित श्रमिक कहा जाता है। उदाहरण के लिए कृषि श्रमिक, निर्माण श्रमिक, घरेलू नौकर, इत्यादि असंगठित श्रमिकों की श्रेणी में आते हैं। असंगठित महिला श्रमिकों से आशय महिला श्रमिकों से अभिप्राय उन महिलाओं से होता है जो कि कुछ ऐसा कार्य कर रही हों जिससे कि उन्हें कुछ धन की प्राप्ति हो सके फिर वे महिलायें चाहें घर पर रहकर ही कुछ आर्थिक कार्य कर रही हों अथवा किसी कारखाने, खेत, उद्योग में जाकर कार्य करती हों। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि महिलायें भले ही अपने परिवार के लिये कुछ न कुछ काम करती हों लेकिन इससे उनके पारिवारिक दायित्वों में कुछ कमी नही आ जाती तथा वे सभी दायित्व उन्हें पूर्व की भांति निर्वहन करने पडते हैं। जिसके कारण उन्हें दोहरी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना पडता है। यहाँ असंगठित महिला श्रमिकों से अभिप्राय उन महिला श्रमिकों से है जिनका कि किसी ऐसा संगठन नहीं होता जो कि उनके अधिकारों के लिये आवाज उठा सके। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो असंगठित महिला श्रमिक व्यक्तिगत स्तर की होती हैं तथा कोई भी सरकारी अथवा गैर-सरकारी संगठन सामान्यतः उन महिला श्रमिकों की समस्याओं पर ध्यान नहीं देता तथा अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं कार्य-स्थल पर उत्पन्न समस्याओं का सामना करना उनकी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा होता है। अब प्रश्न यहां उठता है कि जब असंगठित महिला श्रमिक अपनी आर्थिक उन्नति के लिये सभी प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक प्रयास करती हैं तो क्या वास्तव में उनके इस श्रम के सामाजिक मूंल्याकन को सकारात्मक सराहना मिलती है अथवा इस प्रक्रिया को उनकी दैनिक सामान्य कार्य की श्रेणी में ले लिया जाता है? ग्रामीण क्षेत्र की असंगठित महिला श्रमिकों की आर्थिक दशा ग्रामीण क्षेत्रों की असंगठित महिला श्रमिकों की आर्थिक दशा के विषय में विचार किया जाये तो पता चलता है कि जितना अधिक वें श्रम करती हैं उस अनुपात में उनकी आर्थिक स्थिति इतनी सुदृढ नहीं हो पाती इसका मुख्य कारण शायद यही है कि उन पर अपने पारिवारिक दायित्वों को पूर्ण करने का इतना अधिक दबाव होता है कि वे बचत की विषय में सोच भी नहीं सकती तथा जो कमाती हैं वो अपने परिवार की वर्तमान आवश्कताओं को पूरा करने में ही लगा देती हैं। ग्रामीण क्षेत्र की असंगठित महिला श्रमिकों की सामाजिक दशा ग्रामीण क्षेत्रों की असंगठित महिला श्रमिकों की सामाजिक स्थिति का आकलन किया जाये तो पता चलता है कि इस प्रकार की महिलाओं का एक अलग ही सामाजिक ढांचा होता है जहां उन्हें अपने ही प्रकार के कामगार समाज की मध्य रहना है जहां उनके कामगार होने से उनके सामाजिक स्तर पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पडता तथा यदि सामान्य मध्यम एवं उच्च वर्गीय समाज की बात की जाये तो उनके मध्य जब ये कामगार महिलायें जाती है तों उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं होता उन्हें उस समाज में एक निम्न स्तरीय कर्मचारी से अधिक महत्व नहीं दिया जाता। महिला श्रमिकों के उत्थान के लिये किये गये सरकारी प्रयास स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश भर में ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान के लिये सरकार द्वारा समुचित दिशा प्रदान किये जाने हेतु अनेक योजनाओं को समय-समय पर संचालित किया गया है। अकेले केंद्र सरकार द्वारा संचालित इन विभिन्न योजनाओं की संख्या कम से कम 150 के आस-पास है। कुछ प्रमुख ग्रामीण कार्यक्रमों में 2 अक्टूबर, 1952 को महात्मा गांधी के जन्म दिवस से प्रारम्भ की गई ’सामुदायिक विकास योजना’ गाँव के विकास के लिये सर्वप्रथम कड़ी थी। इसके उपरान्त द्वितीय योजना काल में सभी ग्रामों को 5000 ’राष्ट्रीय विस्तार खंड़’ के माध्यम से ग्राम विकास कार्यक्रम अपनाने हेतु चयन कर लिया गया। ’सामुदायिक विकास योजनाओं’ को आशातीत सफलता नहीं मिलने के कारण 1970 में ’समग्र ग्रामीण विकास’ की ओर योजना तथा विकास विभाग का ध्यान गया। पाँचवी योजना में जब देखा गया कि गरीबी रेखा पर रहने वालों का कोई विकास नही हो सका तो ’न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम’ 1974-75 सामने आया। छठी योजना में इसके स्वरूप को और विस्तार देने हेतु ’समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम’ (आईआरडीपी) लागू किया गया। इसके साथ-साथ 20 सूत्रीय कार्यक्रम व ’जीवनधारा’ (एम डब्ल्यू एस) के तहत अनेक छोटे ग्रामीण विकास कार्यक्रम अपनाये गये। सातवीं योजना में एक विशेश कार्यक्रम ’इन्दिरा आवास योजना’ (आईएवाई) व ’ग्रामीण युवा स्वरोजगार प्रशिक्षण कार्यक्रम’ (ट्राइसेम) अपनाया गया। आठवीं योजना काल में 73 वे संविधान संशोधन के द्वारा ’पंचायत राज’की स्थापना, ’रोजगार गारंटी योजना’ (ईएएस), वर्ष में ’100 दिवस कार्य योजना’, ’राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम’ व ’गंगा कल्याण योजना’ (जीकेवाई) सामने आई। धीरे-धीरे गलतियों में सुधार होता चला गया एवं योजनाओं में स्थायित्व आने से क्रियान्वयन में भी सुधार दिखने लगा। नौवीं योजना में अनेक ग्रामीण विकास योजनाओं में समन्वय किया गया जैसे ’स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना’ (एसजीएसवाई) में पूर्व से संचालित छः प्रमुख योजनाओं को एकीकृत कर दिया गया। इसी प्रकार ’सम्पूर्ण ग्राम समृद्धि योजना’ एवं ’रोजगार आश्वासन योजना’ को समाहित कर ’सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना’ (एसजीआरवाई) चालू की गई। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका को प्रोत्साहित करने के लिए केन्द्रीय एवं राज्य सरकारें महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रही हैं। इन सरकारों द्वारा संचालित योजनाओं का महिलाओं के शिक्षितिकरण, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में काफी योगदान रहा है। वर्तमान में केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा संचालित विभिन्न योजनाएँ निम्न प्रकार हैं- (1) ग्रामीण बेरोजगारी एवं गरीबी निवारक कार्यक्रम, (2) स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, (3) जवाहर ग्राम स्मृद्धि योजना, (4) राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम, (5) कस्तूरबा गांधी शिक्षा योजना, (6) प्रधानमंत्री रोजगार योजना, (7) बालिका समृद्धि योजना, (8) इन्दिरा महिला योजना, (9) जयप्रकाश नारायण रोजगार गारन्टी योजना, (10) शिक्षा सहयोग योजना, (11) स्वर्णिम योजना, (12) किशोरी शक्ति योजना, (13) सर्वशिक्षा अभियान, (14) महिला स्वयंसिद्ध योजना, (15) हस्तशिल्पियों के लिए क्रेडिट कार्ड योजना, (16) बीस सूत्रीय कार्यक्रम, (17) इन्दिरा आवास योजना। |
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निष्कर्ष |
यद्यपि केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए निरन्तर प्रयास किये जा रहे हैं तथापि उनके परिणाम अपेक्षा के अनुरूप प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं। इसका मुख्य कारण इन योजनाओं का ईमानदारी के साथ लागू न किया जाना एवं ग्रामीण महिलाओं का अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होना है। जिस अनुपात में विकास के लक्ष्य निर्धारित किये गये और धनराशि खर्च की गई उस अनुपात में गाँवों एवं ग्रामीणों की दशा में सुधार नही हुआ। इसके लिये यों तो अनेक कारण उत्तरदायी है विशेष रूप से इन योजनाओं का आवश्यकतानुसार निर्धारण, निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने मे अक्षमता, योजना निर्माण और क्रियान्वयन के मध्य विसंगतियों का होना, योजनाओं की क्रियान्वयन मशीनरी की अक्षमता, भ्रष्टाचार तथा कुप्रबन्धन जैसी अनेक कठिनाइयों के सन्दर्भ में विवेचानात्मक अध्ययन की आवश्यकता है। यहां ये बात कुछ हद तक सही है कि यदि कुछ असंगठित महिला श्रमिकों अन्य कहीं श्रम न करके स्वयं अपना कोई कार्य करती हैं तथा कुछ आर्थिक रूप से अन्यों से कुछ सुदृढ हो जाती हैं तो न केवल उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो जाती है वरन् उनकी सामाजिक स्थिति में भी कुछ सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है। |
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भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव | ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महिला श्रमिकों की भूमिका को सशक्त बनाने के उद्देश्य से निम्नलिखित सुझाव प्रस्तावित हैं- 1. भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय ग्राामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करती हैं किन्तु जिस सक्रियता से वे अपने इस उत्तरदायित्व का निर्वहन करती हैं उतनी सक्रिय वे अपने अधिकारों को प्राप्त करने के प्रति नहीं हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएँ अपने अधिकारों को प्राप्त करने की इच्छाशक्ति को विकसित करें तथा इसके लिए प्रयत्नशील भी हों। 2. वर्तमान समय में ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की शिक्षा के प्रति उदासीनता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है, जिसके परिणाम भविष्य में सुखद नहीं हो सकते। अतः महिला-शिक्षा के सन्दर्भ में वर्तमान परिदृष्यि को ध्यान में रखते हुए महिलाओं में शिक्षा का प्रसार अत्यन्त आवश्यक है। यहॉं शिक्षा से अभिप्रायः उन सब तकनीकी एवं शैक्षिक योग्यताओं से है जिनके सहयोग से ग्रामीण महिलाएँ अपनी कार्यक्षमता में वृद्धि करके अपने आपको बदलते परिवेश के अनुसार ढाल सकें और नये-नये क्षेत्रों में अपनी कार्यक्षमता का विकास कर सकें। 3. भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक परिस्थितियों में सुधार की अत्यन्त आवश्यकता है। वर्तमान समय में महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है, अतः आवश्यकता इस बात की है कि महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण को सकारात्मक रूप प्रदान किया जाये। 4. ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी अधिकांश महिलाएँ आर्थिक रूप से पूर्णतः पुरुषों पर निर्भर हैं। उनके द्वारा आर्थिक रूप से कार्य करने पर भी उनको व्यक्तिगत आर्थिक सुदृढ़ता प्राप्त नहीं है, अतः पुरुषों के इस दृष्टिकोण में भी परिवर्तन की नितान्त आवश्यता है। महिलाओं को सम्पत्ति, नकदी एवं अन्य रूपों से सुदृढ़ किया जाना आवश्यक है ताकि वे आर्थिक सुरक्षा प्राप्त कर सकें। 5. भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश कार्यशील महिलाएं अप्रशिक्षित हैं जिसके कारण उनके द्वारा किये गए कार्यों की गुणवत्ता कम होती है, अतः विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण-कार्यक्रमों को ग्रामीण क्षेत्रों में समय-समय पर संचालित किया जाना चाहिए ताकि अकुशल महिलाएं दक्षता प्राप्त कर सकें तथा अपने कार्यों को पूर्ण कुशलता के साथ सम्पन्न कर सकें। 6. ग्रामीण महिला उद्यमियों के लिए बैंकों द्वारा आसान शर्तों पर पर्याप्त मात्रा में उदारता पूर्वक ऋण प्रदान किये जाने चाहिए ताकि अधिकाधिक ग्रामीण महिलाएँ अपने निजी उद्योग-धन्धें स्थापित कर सकें। 7. सरकार को चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार के उद्योग-धन्धे स्वयं भी स्थापित करे जिनमें ग्रामीण महिलाएं आकर कार्य कर सकें और उन्हें कुछ आर्थिक लाभ भी प्राप्त हो। 8. सरकार द्वारा महिलाओं के लिए जो योजनाएँ एवं कार्यक्रम तैयार किये जाते हैं उन्हें पूर्ण ईमानदारी के साथ लागू किया जाना चाहिए ताकि उनका पूर्ण लाभ महिलाओं को प्राप्त हो सके। इस कार्य में लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। आशा की जाती है कि यदि उपरोक्त सुझावों पर गम्भीरता पूर्वक ध्यान दिया गया तो न केवल जनपद गाजियाबाद अपितु सम्पूर्ण भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी एक मील का पत्थर सिद्ध होगी तथा भारतीय आर्थिक परिदृश्य में सूर्य की एक नई किरण का उदय होगा। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | पुस्तकें
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अंत टिप्पणी | 1. सम्पादकीय; मंजिल अभी दूर; योजना; अगस्त 2001; पृ0 2. 2. सुश्री सुमित्रा महाजन; दर्शन, लक्ष्य और उपलब्धियॉं; योजना; अगस्त 2011; पृ0 4,5. 3. उमेश चन्द्र अग्रवाल; भारत में महिला समानता और सशक्तिकरण के प्रयास; योजना; मार्च 2001; पृ0 34. 4. डॉ0 लक्ष्मी रानी कुलश्रेष्ठ; पंचायती राज और महिलाएँ; कुरुक्षेत्र; मई 2001; पृ0 15. |