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'जंगल गाथा' कहानी में आदिवासी जीवन-दर्शन |
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Tribal Life Philosophy in the Story Jungle Gatha | |||||||
Paper Id :
18330 Submission Date :
2023-12-13 Acceptance Date :
2023-12-20 Publication Date :
2023-12-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10448491 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
‘जंगल गाथा‘ कहानी आदिवासी जीवन स्थिति के यथार्थ को धरातल पर अंकित कर ऐसे ज्वलंत प्रश्न समक्ष ला रही है। जिनसे उनकी अस्मिता और अस्तित्व बचा रह सके तथा वास्तविक पहचान मिल सके। इसी कारण यह कहानी आदिवासी जीवन की जीती-जागती, बोलती-बतियाती कालजयी कृति बन पायी है। फिर इस कहानी में कहानीकार ने जिन विचारों, अवधारणाओं और मूल्यों को पकड़ा है वे सामाजिकता और सांस्कृतिक चेतना को बल देते हैं। इतना ही नहीं समाज को निरंतर दिशा देने के आग्रही बने। अस्तु यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि नमिता सिंह की ‘जंगल गाथा‘ कहानी में अतीत या वर्तमान ही नहीं, भविष्य का अंधकार से उबरता उजास भी है और मानवीय संवेदनाओं को छू सकने का सामर्थ्य भी। इस तरह वृह्त्त समाज की तथा आदिवासी जीवन संस्कृति की विशिष्टताओं को अपने गहन संवेदनात्मक संसार में सहेजे हुए है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The story ‘Jungle Gatha’ is bringing such burning questions to the fore by portraying the reality of the tribal life situation. So that their identity and existence can be preserved and they can get real identity. That is why this story has become a living, talking classic of tribal life. Then the ideas, concepts and values that the storyteller has captured in this story. They emphasize sociality and cultural consciousness. Not only this, he was persistent in giving continuous direction to the society. Therefore, it would not be an exaggeration to say that in Namita Singh's story 'Jungle Gatha' there is not only the past or the present, but also the light of the future emerging from darkness and also the ability to touch human sensibilities. In this way, the specialties of the larger society and the tribal life culture have been preserved in their deeply emotional world. |
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मुख्य शब्द | आदिवासी, जीवन, संस्कृति, दर्शन और स्वावलंबन। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Tribal, Life, Culture, Philosophy and Self-Reliance. | ||||||
प्रस्तावना | कहानी मानव समाज के सम्यक एवं संयमित जीवन की महत्वपूर्ण विधा है, जो निरंतर मानव समाज के बदलते जीवन मूल्यों की विवेचना करती है, या कहें नवीन जीवन मूल्यों के साथ नये भावबोधों की अभिव्यक्ति है। यही नहीं कहानी जीवन के जमीनी अस्तित्व और अस्मिता का यथार्थ चित्रण है और सामाजिक जीवन के वास्तविक संबंधों का विवेक भाव। इसी के आधार पर जीवन के आंतरिक एवं बाह्य मूल्यों पर सफलता पाने का साधन एवं मूल मंत्र प्राप्त हो पाता है। कहा भी जाता है कि ‘सफलता मनुष्य के पसीने का मूल मंत्र है‘ यह कहानी के माध्यम से ही संभव है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. आदिवासी समाज को स्वावलंबी बनाना। 2. नई संकल्पना शक्ति के साथ सामाजिक विकास करना। 3. अपनी अस्मिता, अस्तित्व एवं व्यक्तित्व को समग्रता के साथ पहचानने के लिए समर्थ बनाना। 4. आदिवासी समाज को मुख्यधारा से जोड़ना। 5. नूतन मूल्यों के साथ जीवन जीने की प्रेरणा देना। 6. संस्कृति के संरक्षण के लिए चेतनाशील बनाना। |
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साहित्यावलोकन | 1. चंदेला, डॉ. लक्ष्मीकांत 2023 की 'भाषा: विचार और व्यक्तित्व' पुस्तक में विचारों के विरासत को सहेजना का सहज उपागम है। 2. सिंह, डॉ. अंशुमान 2021 अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य का सामाजिक उत्थान पर प्रभाव' में शिल्प, संवेदना और नये मूल्यों के साथ आदिवासियों को साहित्य और समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का सार्थक प्रयास है। 3. श्रीवास्तव, डॉ. चम्पा 2000 ने अपनी पुस्तक में आदिवासी समाज की अस्मिता, अस्तित्व तथा व्यक्तित्व को पहचान कराकर जीवन जीने के लिए ऊर्जावान बनाती है। 4. वीरवाल, डॉ. पंकज 2016 की पुस्तक आदिवासी समाज की कला संस्कृृति और प्राचीन परंपराओं से परिपूर्ण है। 5. भण्डारी, डॉ. साधना चन्द्रकांत 2015 में बदलते जीवन मूल्यों का पहचान कराकर जीवन में आने वाली कठिनाईयों के प्रति समाज को अवगत कराते हैं। 6. सिन्हा, डॉ. शोभा 2010 अपनी पुस्तक 'समकालीन हिंदी कविता में सामान्य जन' में आदिवासी समाज के व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाकर समाज एवं देश हित के लिए सामर्थ्य बनाती है। 7. गुप्ता, डॉ. ओमप्रकाश 1999 की पुस्तक 'आधुनिक साहित्य: चिंतन के विविध आयाम' में जीवन दर्शन के औदात्य को अभिव्यंजित किया गया है। 8. पालीवाल, कृष्णदत्त 2018 ने अपनी पुस्तक 'दलित साहित्य विमर्श' में ठोस प्रयत्नों के द्वारा जीवनानुभवों को अभिव्यक्त करते हैं। |
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मुख्य पाठ |
समकालीन कहानीकार नमिता सिंह की ‘जंगल गाथा‘ कहानी आदिवासी जीवन के वास्ते लोकजीवन की कहानी है। उन्होंने लोकजीवन के आनंद और उत्साह को लक्ष्य बनाकर आदिवासी जीवन यथार्थ को अभिव्यक्त करती है। इसलिए हम कह पाते हैं कि यह कहानी आदिवासी जीवन की कसौटी है और बन पायी जीवन जीने का प्रमाणिक दस्तावेज। यही नहीं परिवेशगत परिस्थितियों के साथ जीवन की गहराई, विस्तार और मानवीय संवेदनाओं को केन्द्र में रखकर वास्तविकता को अभिव्यक्त करती है अर्थात् मानवीय मूल्यों और भावबोधों को आत्मसात कर भविष्य के लिए जीवन संघर्ष के साधनों को खोजने का मार्ग भी प्रशस्त करती है। इन्हीं मूल्यों की सार्थकता के कारण ‘जंगल गाथा‘ कहानी अत्यंत प्रासंगिक और प्रेरक बनी। इसलिए कि यह कहानी आदिवासी जीवन के शाश्वत गंध को अहसास कराती है तथा जीवन चिरंतन के विशेष प्रवाह को गति देकर सशक्त और कालजयी बनी। इतना ही नहीं आदिवासी जीवन और जगत के प्रति गंभीरता से सोचने के लिए विवश भी करती है। दरअसल यह कहानी तथाकथित सभ्य समाज की बर्बरता रवैया से मुक्त कराने का वीणा उठाई है और समाज को विकास तथा सुविधाओं की मुख्यधारा से जोड़ने को तत्पर भी है। इस क्षमताबल को रेखांकित करती कहानी के कुछ अंश देखिए- ‘‘दूर क्षितिज पर अंकित धुंधलाये पहाड़ों की तलहटों में फैले जंगल को भले ही टोला बस्तियों के लोग सदियों से अपना कहते हैं लेकिन जंगल वास्तव में अब इंगलिसिया कोठी के अस्तित्व का एक जरुरी हिस्सा है। कोठी के भीतर की धड़कन है। वहाँ के बड़े साहब बहादुर की जिन्दगी से अटूट रूप से जुड़ गया है यह जंगल।‘‘[1] जंगल गाथा कहानी आदिवासियों के जीवन में कल्याणकारी मार्ग को खोजती है तथा उनके जीवन में सफलता पाने के साधन भी है। इस कारण उनकी कहानी का केन्द्रीय भाव आदिवासी जीवन रहा। जहां उनकी अस्मिता और अस्तित्व दोनों का समावेश है। इतना ही नहीं आदिम युग की भाँति जीवन जीने वाला आदिवासी समाज को अपनी संस्कृृति, संस्कार सत्ताओं व संसाधनों को स्वतंत्र रूप से पाने के लिए प्रेरित करती है और कराती है निरंतर संघर्ष। परंतु औपनिवेशिक सत्ताएँ मजबूत होने के कारण उनकी स्वायत्ता और अस्मिता को हासिल कर पाना बहुत ही कठिन है। इसके लिए आदिवासी समाज व्यापक पैमाने में विरोध दर्ज कराता है। ‘जंगल गाथा‘ कहानी का नायक गुनिया के शब्दों को देखिए- ‘‘कोई बुरी आत्मा टोले के उपर छा गयी है। अबकी फिर पूजा होगी। होम धूप दिया जायेगा। सुअर के गोश्त का प्रसाद चढे़गा। मंद बटेगी। पूरा टोला इकठ्ठा होगा। टोले के गुनिया, स्याने सब आयेंगे। मुकादम भी बैठेगा। अलाय...बलाय दूर हो...लोहे की कीलों में मंत्र पढ़ा जायेगा और कीलों से बस्ती बांध दी जायेगी।‘‘[2] अतीत के आलोक में वर्तमान की समस्याओं का समाधान करने के लिए ‘जंगल गाथा‘ कहानी आदिवासी जीवन की चेतना का विकास है और प्रतिरोध दर्ज कराने का परिणाम भी। ऐसा प्रेरणापूरित परिणाम आदिवासी समाज के वंचितों और उपेक्षितों को मुंह खोलने एवं अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का उचित मार्ग है। आदिवासी समाज के व्यथित जीवन की दर-परत-दर पोल खोलती कहानीकार नमिता सिंह ने समाज पर पड़ने वाले बुरे असर को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने की सार्थक अभिव्यक्ति है। कहानी के कुछ अंश को देखिए- ‘‘पूस की ठंडी रात उसके शरीर को सन्न करती जा रही थी। अपने नीचे से फटा हुआ गद्दा निकालकर उसने घोड़ी पर डाल दिया और खाट की आधी रस्सी काटकर गद्दे को घोड़ी से कस दिया। खुद वह पुरानी रजाई को लपेटकर ढीली खाट पर पड़ गया। काफी देर तक जागता हुआ वह अपने गुन्डे पन पर विचार करता रहा और जब भूख उसकी अंतड़ियों को कुरेदने लगी और रात की ठंड उसकी हड्डियों में घुस गई तो एकाएक सारी बात उसके दिमाग में स्पष्ट हो गई।‘‘[3] नमिता सिंह की कहानी में वैचारिक ऊर्जा का ताप आदिवासी जीवन के रिश्तों को आवेग प्रधान बनाती है। यही नहीं आदिवासी जीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं को खोजकर उस सत्य को अभिव्यक्ति करती हैं जहां उनकी संस्कृृति, संस्कार, रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन आदि सम्पूर्ण लोकजीवन का सनातनी परिचायक है। इतना ही नहीं उनकी कहानी युगीन जटिल विषमताओं और विभीषिकाओं को झेलकर भिन्न प्रकार का अस्वाद कराती है और बदलती है- आदिवासी सहृदय के हृदय की संवेदना को। यही नहीं कहानीकार नमिता सिंह अपनी कहानी जंगल गाथा में आदिवासी जीवन को नये भावों, नये मूल्यों के साथ साक्षात्कार करती हैं और दर्ज कराती हैं- आदिवासी समाज में फैली अमानवीय वृत्तियों को समाप्त करने का प्रतिरोधात्मक संघर्ष। वे अपनी कहानी में आदिवासी जीवन संघर्ष को परिस्थिति जन्य बनाकर समय के साथ जीवन जीने को प्रेरित करती है। उन्होंने आदिवासी जीवन के प्रति आत्मविश्वास और संदेह के कारकों को उनकी मानसिकता के अनुरूप बनाकर सहज रूप में परिलक्षित किया है। इसके कारण पुराने जीवन मूल्य नये मूल्य बनकर समाज को नये मूल्यों का अनुसरण कराते हैं। इसलिए आदिवासी जीवन मूल्य अब वे नहीं रहे जो आज हैं। उन्होंने अपनी कहानी में आदिवासी जीवन मूल्यों को अत्यंत मजबूत, परिपक्व और शाश्वत रूप में दिया हैं। साहित्यकार ठीक ही लिखते है- ‘‘सामाजिक मूल्य वे तथ्य हैं, जिनका हमारे लिए एक विशेष अर्थ जिन्हें हम अपने जीवन के लिए महत्वपूर्ण समझते हैं।‘‘[4] इसी प्रकार नमिता सिंह अपनी कहानी जंगल गाथा में लिखती हैं- ‘‘मशीनों की धरड़-धरड़ का शोर यहां की जिन्दगी की धड़कन बन जाती है और इस शोर में मांदर की थाप और चुटकियों की लय समा जाती हमेशा के लिये।‘‘[5] कहानीकार आदिवासियों के जीवन में नयी उमंग के साथ नयी चेतना विकसित करती है और विश्वास दिलाती हैं कि तमाम विरोधी स्थितियों में भी आदिवासी समाज अपनी अस्मिता और अस्तित्व को पा सकेगा। इसलिए उनकी कहानी आदिवासी जीवन का आदर्श बनी और बन पायी उनके जीवन का पर्याय। इतना ही नहीं वे आदिवासी जीवन के रिश्तों को टटोलती हैं तथा जीवन की विषमताओं और जटिलतों के प्रति सजग व सावधान भी करती है। तभी तो आदिवासी समाज चुनौतीपूर्ण रिश्तों को अनुकूल बनाकर जीवन साध को पूरी करता है। वें लिखतीं हैं- ‘‘धरती माई की छाती पर बीज बिखेरते हैं। माई जितना मर्जी होगी, वापस दे देगी लेकिन इसके लिए धरती माई की छाती नहीं रौंदेंगे। हल चलाकर माई की देह नहीं दुखायेंगे। पूरी जुताई पिराई के साथ ढंग से खेती होती तो लाखों रुपये साल के मिलते।‘‘[6] दरअसल उनकी कहानी आदिवासियों के विसंगतिपूर्ण जीवन की यथार्थ एवं दुर्दांत मनोदशा की अभिव्यक्ति है यथा-आदिवासियों की बेरुखी जीवन, सभ्यता, संस्कृृति और संस्कार को संरक्षित करती हुई आदिवासी जीवन को नया अर्थ प्रदान कराती है- समय सापेक्ष के अर्थ में। साहित्याध्येता की वाणी निश्चित ही आदिवासी समाज को नयी ऊर्जा का संचार भरती है- ‘‘जो दर्शन उससे आजादी चाहता है, वह बुद्धि, जीवन और खुद आदमी से भी आजादी चाहता है।‘‘[7] ऐसा ही कुछ नमिता सिंह की कहानी के कुछ अंशों में भी दिखाई देता है। देखिए-‘‘तलिया टोले का स्याना बिलना बताता है कि भगवान ने पिरलय के बाद जब धरती बनाई गई तभी से एक जोड़ा टोली का मरद औरत को बनाया। जब से ही टोली के मरद औरत इस धरती को और धरती मैया की छाती पर छाये जंगल को भी संभाले हुए है।‘‘[8] आदिवासियों के जीवन की जीवन्तता से भरी यह कहानी उनके जीवन मूल्यों को दुनिया के उच्च मानक पटल पर रखती है जहाँ पाठक और श्रोता सोचने के लिए विवश है। सच, यह भी है कि दुनिया का सबसे प्राचीन आदिवासी समाज की अपनी अलग संस्कृति, संस्कार, परंपरा, रहन-सहन बिल्कुल अलग रहा है। परंतु यह कहानी वर्तमान समय में आदिवासी समाज को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सजग है अर्थात् उन्हें समोन्नत समाज की भांति जीवन जीने के लिए जंगल गाथा कहानी हर तरह से प्रयासरत है। जीवन के हर मोर्चों पर तत्पर है। संदियों से शोषित व वंचित समाज को उनके जीवन व्यवस्था पर अतीत से मुक्ति का बोध करातीं हैं। वे अपनी कहानी ‘जंगल गाथा‘ में आदिवासी समाज की उन परिस्थितियों का भी अभिव्यक्त करती हैं, जो वर्तमान समय में भी आदिवासीयों में विस्थापन की प्रक्रिया उनके जीवन की मूल समस्या बन हुई है और इस प्रक्रिया से एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे छूट रही है तो दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा भी खतरे में दिखाई देती है। कहानीकार उनकी अस्मिता और अस्तित्व को बचाने के लिए निरंतर संघर्षरत हैं। वे लिखती भी हैं- ‘‘घने जंगल में बन्जारिन माई रहती है। दौड़ती है... खेलती है... उसके रहते कोई डर नहीं होता जंगल में। बस्ती का हर आदमी जो जंगल में गुजरता है पहले एक पत्थर चढ़ाता है माई को। वह रक्षा करती है सबकी। जानवरों से... किसी भी स्थिति में।‘‘[9] उनकी कहानी कहानी का उद्देश्य अत्यंत गहन एवं गंभीर है। वे आदिवासी जीवन की विभिन्न परतों को गहराई से समझ कर समाज की मुख्यधारा एवं विकास से जोड़ना मुख्य उद्देश्य हैं। इतना ही नहीं सामान्य समाज के मुकाबले हर तरह के जीवन जीना एवं विकास करने का एक बेहतर मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। नमिता सिंह की सशक्त अभिव्यक्ति हैं- ‘‘कौन देवता रिसा गया है? क्या भूल-चूक हो गई? पिछली साल धान की कटाई के समय खूब धूम-धाम से टोले वालों ने नया पर्व मनाया था। सब देवी देवताओं को होम-धूप दी थी। जंगल के बाघ-भालू सभी को हिस्सा चढ़ाया गया था। प्रार्थना के स्वर मांदर की थाप से साथ जंगल के कोने-कोने में फैल गये थे।‘‘[10] कहने का आशय आदिवासियों का जीवन सम्पूर्ण संसार में सबसे अलग व प्राचीन है जो आज भी जीवन्तता से भरा हुआ है। इस संबंध में स्वयं लिखती हैं- ‘‘रात में सेहा पक्षी शै...शै...शै...शै चीखता हुआ उड़़ रहा था टीले के चारों ओर परिक्रमा कर रहा था। घोर अपशकुन। कुछ तो अनर्थ होना ही था।‘‘[11] कहानीकार सदियों से आदिवासीयों का विसंगतिपूर्ण और विडम्बनापूर्ण जीवन स्थिति की क्रूर व कठोर न्याय व्यवस्था-दुरावस्था की पोल खोलती है और पूरी उर्जा के साथ आदिवासीयों के जीवन को जन आंदोलन के लिए आग्रही बनाती है। जनवादी कथाकार आदिवासी जीवन धड़कन को उकेरतीं हुईं लिखतीं है- ‘‘जंगल वास्तव में इंगलिसिया कोठी के अस्तित्व का एक जरुरी हिस्सा है। कोठी के भीतर की धड़़कन है। वहाँ के बड़े साहब बहादुर की जिन्दगी से अटूट रूप से जुड़़ गया है यह जंगल।‘‘[12] आदिवासी जीवन के बुनियादी सवालों को लक्षित कर वर्तमान व्यवस्था के विरोध में अभिव्यक्ति देती समकालीन कथाकार नमिता सिंह ने आदिवासी जीवन की दुरावस्था को संजिन्दगी के साथ प्रस्तुत करती हैं- ‘‘ये जंगल शाश्वत है जो काटता रहता है। और नये जंगल उगते फैलते जाते हैं, साहब बहादुर के भीतर उनकी जिन्दगियों में।‘‘[13] इस तरह केवल साहित्यकार शब्द रचना ही नहीं करती बल्कि आदिवासी जीवन के सनातनी मुददों को स्वीकार कर दलीलें देतीं हैं तथा प्रतिरोध का भाव पैदा करती हुई अनुभव की पूंजी को वास्तविक जीवन की धारणाओं से जोड़ती है। देखिए- ‘‘जंगल नष्ट होगा तो टोला भी खत्म हो जायेगा।‘‘[14] कहानीकार अपनी कहानी में वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के प्रति विरोध दर्ज कराती है। बस यही बजह है कि कहानीकार ने आदिवासी जीवन के प्रति तथाकथित सभ्य और सुसंस्कृत समाज की परिकल्पना को अपने लेखन का हिस्सा बनायीं। |
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निष्कर्ष |
अंततः ‘जंगल गाथा‘ कहानी आदिवासी
जीवन का वह अंतःसाक्ष्य है, जो उनके आदिम जीवन के महत शक्तियों को, उनके सांस्कृतिक मूल्यों और परंपराओं को नये भाव बोध के साथ
अभिव्यक्त करती है। कहानीकार इतनी तटस्थ होकर आदिम दर्शन की चिरन्तरता को रूपायित
करते हैं। इसलिए जंगल गाथा भोले भाले आदिवासी की जीवन गाथा बन सकी है। यह कहानी
गाथा से महागाथा की कालजयी यात्रा है जिससे आदिवासी जीवन दर्शन का प्रमाणिक
दस्तावेज बनी। इतना ही नहीं इस कहानी में आदिवासियों का समग्र जीवन पूर्णता से
प्रतिबिंबित हुआ है। दरअसल इस कहानी का आदिवासी वर्तमान को भी उसी रूप् में जीना
चाहते हैं जो उनका अतीत था। अतैव कहानीकार नमिता सिंह अपनी कहानी जंगल गाथा में
आदिवासी जीवन दर्शन के पूरे मनोयोग से चित्रित करती है। अभिव्यक्ति का यह प्रयास
आदिवासियों को मुख्यधारा पर लाएगा। प्रयास यह भी है कि उनकी पहचान मिले, अपनी अस्मिता के साथ जीवन जी सके। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0- 10-11, प्रथम संस्करण: 1992 2. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0-13, प्रथम संस्करण: 1992 3. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0- 10-11, प्रथम संस्करण: 1992 4. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0-13, प्रथम संस्करण: 1992 5. डॉ. लक्ष्मीकांत चंदेल भाषा: विचार और व्यक्तित्व, परिकल्पना के -37, अजीत विहार, दिल्ली-110084, प्रथम संस्करण: 2023 6. डॉ. अंशुमान: हिंदी साहित्य का सामाजिक उत्थान पर प्रभाव, सोशल रिसर्च फाउण्डेशन 128/170, एच ब्लॉक, किदवई नगर, कानपुर-11 संस्करण: 2021 7. डॉ. साधना चन्द्रकांत भण्डारी: स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में बदलते जीवन मूल्य, जगत भारती प्रकाशन सी-3, 77 विश्व बैंक कालोनी एडीए, नैनी, इलाहाबा-211008, प्रथम संस्करण: 2015 8. डॉ. पंकज वीरवाल: शिवानी के कथा साहित्य में संवेदना और शिल्प, सुभद्रा पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स डी-48, गली नं. 3, दयालपुर, करावल नगर रोड, दिल्ली-110094, प्रथम संस्करण: 2016 9. डॉ. शोभा सिन्हा: समकालीन हिंदी कविता में सामान्यजन, प्रज्ञा प्रकाशन 24, जगदीशपुरम, लखनऊ मार्ग, निकट त्रिपुला चौराहा, रायबरेली-229316 उ.प्र., प्रथम संस्करण: 2010 10. डॉ. ओमप्रकाश गुप्ता: आधुनिक साहित्य: चिंतन के विविध आयाम, पार्श्व प्रकाशन निशा पोल, झवेरी बाड़ रिलीफ रोड, अहमदाबाद-380001, प्रथम संस्करण:1999 |
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अंत टिप्पणी | 1. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0-11, प्रथम संस्करण: 1992 2. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2 पृ0-13, प्रथम संस्करण: 1992 3. सत्येन्द्र शरत्, हिमांशु जोशी: भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन 4855-55/24, अंसारी रोड, दरियागंज नयी दिल्ली-110002, पृ0-48, प्रथम संस्करण: 2005 4. डॉ. साधना चन्द्रकांत भंडारी: स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में बदलते जीवन मूल्य, जगत भारती प्रकाशन सी-3, 77 विश्व बैंक कालोनी एडीए, नैनी, इलाहाबाद-211008, पृ0-240, प्रथम संस्करण: 2015 5. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0-11, प्रथम संस्करण: 1992 6. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली-2, पृ0-13, प्रथम संस्करण: 1992 7. हरिवंश सिलाकारी: उत्तर संवाद, रामकृष्ण प्रकाशन सावित्री सदन, तिलक चौक विदिशा म.प्र.- 464001, पृ0- 21, अंक मार्च 1994 8. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0-13, प्रथम संस्करण: 1992 9. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0- 01, प्रथम संस्करण: 1992 10. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0-01, प्रथम संस्करण: 1992 11. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली- 2, पृ0-01, प्रथम संस्करण: 1992 12. नमिता सिंह: जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली-2, पृ0- 10-11, प्रथम संस्करण: 1992 |