|
|||||||
वैश्वीकरण के
दौर में राजकमल चौधरी के साहित्य की प्रासंगिकता: एक अध्ययन |
|||||||
Relevance of Rajkamal Chaudharys literature in the era of globalization: A study | |||||||
Paper Id :
18364 Submission Date :
2023-11-09 Acceptance Date :
2023-11-13 Publication Date :
2023-11-18
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10533664 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/researchtimes.php#8
|
|||||||
| |||||||
सारांश |
राजकमल चौधरी
वैश्विक चिंतन से जुड़े रचनाकार हैं। इसलिए उनकी रचना में वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय
स्तर के चितन और लेखन का वैश्विक स्तर पर उन्नयन देखने को मिलता है। समकालीन लेखन
को वैश्वीकरण की चेतना ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। उनके साहित्य में सामयिक
यथार्थ चित्रित हुआ है। उन्होंने कविता के अतिरिक्त साहित्य के अन्य विधाओं में भी
अपना लेखन किया है। उनके साहित्य के केन्द्र में यथार्थ के जिस रूप ने आकार ग्रहण
किया है, उसे आसानी से पहचाना जा सकता है। उसमें भविष्य की आहट सुनाई देती है। आधुनिकता
और उत्तर-आधुनिकता की संक्रमण-बेला का उनका साहित्य अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में
सफल रहा है। उत्तर-आधुनिक युग में उनका साहित्य और भी प्रासंगिक हो गया है। |
||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Rajkamal Chaudhary is a writer associated with global thinking. Therefore, in his work one can see the elevation of personal and national level thinking and writing to the global level. Contemporary writing has been most influenced by the consciousness of globalization. Contemporary reality has been depicted in his literature. Apart from poetry, he has also written in other genres of literature. The form of reality that has taken shape at the center of his literature can be easily identified. The sound of the future is heard in it. His literature of the transition period of modernity and post-modernity has been successful in creating its own unique identity. His literature has become even more relevant in the post-modern era. | ||||||
मुख्य शब्द | अंतर्वस्तु, अंतर्विरोध, अधीनस्थ, अन्विति, अपरिहार्यता, अभिजनी, अराजकतावादी, आधुनिकता, आविष्ट, उत्तर-आधुनिकता, एकांतिक, एकान्विति, प्रतिपादन, प्रतिफलित, प्रतिबद्धता, प्रतिसंसार, मुखौटाधर्मिता, मूल्यहीनताग्रस्त, व्यर्थताबोध, यथार्थवादी चेतना, वर्चस्ववादी प्रवृत्ति, विन्यस्त, विपर्यय, वैश्वीकरण, संदर्भहीन, साम्राज्यवाद। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Content, Contradiction, Subordinate, Contradiction, Inevitability, Elite, Anarchist, Modernity, Possessed, Post-Modernity, Isolated, Isolated, Rendition, Result, Commitment, Anti-World, Disguisedness, Worthlessness, Sense Of Futility, Realistic Consciousness, Hegemonic Tendency, Configured, Anomalous, Globalization, Decontextualization, Imperialism. | ||||||
प्रस्तावना | राजकमल चौधरी का साहित्य जितना वैयक्तिक एवं स्थानीय है, उतना ही वैश्विक एवं बहुआयामी भी है। उनके साहित्य की भूमिका अपने समय तक ही सीमित नहीं रही है। वह वैश्वीकरण के वर्तमान दौर की चुनौतियों से टक्कर लेने में मानव जाति की सहायता कर रहा है। ऐसी स्थिति में उनके साहित्य की प्रासंगिकता पर विचार किया जाना चाहिए। वर्तमान दौर में राजकमल चौधरी के साहित्य के महत्व को देखते हुए प्रस्तुत शोधालेख की प्रस्तावना की गई है। |
||||||
अध्ययन का उद्देश्य | जीवंत परंपरा
भविष्य की विरासत होती है। वर्चस्व और प्रतिरोध के वर्तमान दौर में राजकमल चौधरी
का साहित्य प्रभुवर्ग एवं प्रभुत्वशाली शक्तियों के प्रतिरोध में खड़ा है। उनका
साहित्य वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में एक बार फिर हम सबका ध्यान आकृष्ट कर रहा है।
यह राजकमल चौधरी की शक्ति है, जिसका परीक्षण और मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
इसके लिए उसकी प्रासंगिकता पर विचार किया जाना चाहिए। राजकमल चौधरी के साहित्य की
प्रासंगिकता को सामने लाने के उद्देश्य से ही यह अध्ययन किया गया है। |
||||||
साहित्यावलोकन | संदर्भित शोधालेख के लेखन क्रम में राजकमल चौधरी रचनावली, खण्ड: 1 से 7 (सं. डॉ. देवशंकर नवीन, 2015), राजकमल चौधरी की रचना-दृष्टि (डॉ. देवशंकर नवीन, 2023), राजकमल चौधरी: जीवन और सृजन (डॉ. देवशंकर नवीन, 2012), भारतीय प्राणधारा का स्वाभाविक विकास: हिन्दी कविता (प्रो. राजमणि शर्मा, 2006), समकालीन काव्य-यात्रा (नन्दकिशोर नवल, 2004), कविता का संघर्ष (कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, 2016), समसामयिकता और आधुनिक हिंदी कविता (डॉ. रघुवंश, 1993), रचना प्रक्रिया से जूझते हुए (लीलाधर जगूड़ी, 2015), आलोचना के परिसर (गोपेश्वर सिंह, 2012), भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा (मैनेजर पाण्डेय, 2013), आलोचना और विचारधारा (नामवर सिंह, 2014), लम्बी कविताएँ: वैचारिक सरोकार (डॉ. बलदेव वंशी, 2009), नये प्रतिमान पुराने निकष (लक्ष्मीकांत वर्मा, 1996), कविता: पहचान का संकट (नन्दकिशोर नवल, 2012) तथा अन्य कृतियों के साथ विभिन्न पत्रिकाएँ एवं इंटरनेट आदि का सिंहावलोकन किया गया है। इन कृतियों में राजकमल चौधरी के कृतित्व एवं इससे संबंधित वैचारिक पक्ष पर प्रकाश डाला गया है। परन्तु प्रस्तावित विषय पर इस रूप में कोई अद्यतन शोधकार्य नहीं हुआ है, अतः यह विषय शोधालेख हेतु सर्वथा समीचीन है। |
||||||
सामग्री और क्रियाविधि | प्रस्तुत
शोधालेख के लिए राजकमल चौधरी से संबंधित कृतियों का उपजीव्य ग्रंथ के रूप में
उपयोग किया जाएगा, जबकि उनकी रचनाओं से संबंधित अन्य आलोचनात्मक सामग्रियों का उपयोग उपस्कर
ग्रंथ के रूप में किया जाएगा। इन सबके अतिरिक्त संदर्भ-ग्रंथ के रूप में
समाचार-पत्र, रचनाओं, समीक्षाओं, आलेखों, शोधालेखों आदि का उपयोग किया जाएगा। शोधालेख को तैयार करने में हिन्दी साहित्य
कोश, समाज विज्ञान विश्वकोश और हिन्दी के अभिव्यक्ति कोश (हिन्दी थिसारस) से भी
सहायता ली जा सकती है। अन्य सहायक सामग्रियों के लिए गूगल-पुस्तक या सूचनातंत्र के
वेबलिंक का उपयोग किया जाएगा। |
||||||
विश्लेषण | राजकमल चौधरी वैचारिक संघर्ष एवं समृद्धि के कवि हैं, इसलिए उनकी कविता धारदार और बेधक है। उन्होंने आधुनिक युग और आधुनिकता के संकट को रेखांकित किया, अंतर्विरोधों को झेला, साहित्य, कला, संस्कृति तथा कविता के लिए जोखिम उठाया। यह सबकुछ व्यक्ति, मनुष्य जाति और समाज के लिए किया गया। नीत्शे का कथन है कि साहस तो केवल उसमें होता है जो संकट को पहचानता है और भय को जानता है। राजकमल चौधरी समय के साथ ही आनेवाले समय के संकट और भय को जानते पहचानते थे। सत्य को साहसपूर्वक कहना और उस अभिव्यक्ति के कारण उत्पन्न खतरे का ईमानदारी, सच्चाई और साहस के साथ सामना करना उनके जीवन जीवनबोध और मूल्यबोध का परिचायक है। उससे पहले मुक्तिबोध का तत्संबंधी विमर्श लेखन के माध्यम से सामने आ चुका था। आधुनिक भाव-बोध के अंतर्विरोधों का खुलासा करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है, ‘‘ऐसी सभ्यता में जो आधुनिक भाव-बोध है, वह है अनास्था और दुःख-भावना का, ग्लानि का और विरक्ति का, अगतिकता का। महान् लोगों ने समाज में, समाज के साथ बड़े-बड़े प्रयोग किये, और असफल हो गये, इसलिए अगतिकता मनुष्य का मूलभूत भाग्य है- उसे बदला नहीं जा सकता। यह है मनोभूमि आधुनिक भावबोध की।‘‘[1] राजकमल चौधरी कोरे बुद्धिजीवी नहीं हैं। उन्होंने स्वयं को परिवर्तन की मुहिम से जोड़कर देखा था। विभिन्न आंदोलनों से उनका संबंध रहा है। ग्राम्शी ने जिसे आवयविक बुद्धिजीवी कहा है राजकमल उस कसौटी पर खरा उतरते हैं। डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने इस संदर्भ में लिखा है, ‘‘ग्राम्शी के अनुसार, समाज में बुद्धिजीवी दो प्रकार के होते हैं, पेशेवर और आवयविक। प्रायः ज्ञान की एकांत साधना करनेवाले पेशेवर बुद्धिजीवी होते हैं, लेकिन जो किसी वर्ग, समुदाय और समाज की जिन्दगी की वास्तविकताओं और आकांक्षाओं की व्याख्या करते हुए उस वर्ग, समुदाय और समाज को इतिहास में अपनी स्थिति समझने और उसे बदलने के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं, वे आवयविक बुद्धिजीवी होते हैं।’’[2] राजकमल की साहित्यिक और सामाजिक प्रतिबद्धता अलग-अलग नहीं है। इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘‘मैं साहित्य को वास्तविक जीवन से अलग और ऊँचा मानता हूँ। साहित्य मेरी अभिव्यक्ति का सबसे मूल्यवान माध्यम है, लेकिन मैं अपने साहित्य में ही नहीं, अपने पारिवारिक राशन कार्ड में, वोट देने के अपने अधिकार में, अपने मुहल्ले, अपने शहर, अपने देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समस्याओं में और इसके अलावा वियतनाम के युद्ध में और अमेरिका की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक डिक्टेटरी की स्थितियों, और तज्जन्य चिंताओं में भी अभिव्यक्त होता हूँ क्योंकि, मैं अपने समाज-जीवन से टूटा नहीं हूँ। टूट जाना- जंगल में गए बगैर या श्मशान में गए बगैर सम्भव नहीं है। और मेरा काव्य-जीवन निश्चय मेरे समाज-जीवन (और उससे प्रतिफलित आन्तिरिक जीवन) का ही प्रतिबिम्ब और शाब्दिक प्रतिरूप है।‘‘[3] पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्य को आत्मविहीन और अकेला बनाकर छोड़ देती है। वह अनन्त और असीमित भौतिक सुख की चाह में भटकता रहता है, मरता रहता है, नष्ट होता रहता है। यह बात केवल उत्तर-आधुनिकता के संदर्भ में ही सत्य नहीं है, बल्कि आधुनिकता के संदर्भ में भी सत्य प्रतीत होती है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव का मत द्रष्टव्य है, ‘‘आधुनिकता प्रगति और विकास का संकेत नहीं करती- वह गूँगा बनाकर छोड़ती है। आभास यह कि आनेवाले दिनों में हम पश्चिम की संस्कृति से आविष्ट होंगे। एक योरोपीय अतीत वर्तमान को अलग-अलग कैटेगरी में देख सकता है- पर एक भारतीय के लिए यह श्रेणी भेद नहीं है। यह ‘शाश्वत वर्तमान‘ का बोध है। यहाँ भी पूरी संस्कृति के प्रति सहज लगाव नहीं है, बल्कि तनावपूर्ण दूरी है।‘‘[4] राजकमल चौधरी समय के प्रति अत्यंत सजग रहने वाले कवि हैं। 1960 के बाद जिस नयी परिस्थिति का सामना करना पड़ा उसकी गहरी छाया उनके साहित्य में देखने को मिलती है। हिन्दी कविता के क्षेत्र में नयी कविता के बाद की कविता इसी परिस्थिति की उपज है। नयी कविता के बाद की परिस्थिति का आंकलन करते हुए प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नन्दकिशोर नवल ने लिखा है, ‘‘1960 के बाद हिन्दी कविता का परिदृश्य एक बार फिर बदलता है। नयी कविता अन्ततः मूल्यवादी कविता थी। उसमें आधुनिक कालीन मूल्यगत संकट का बोध तो था, लेकिन साथ-साथ मूल्यों की स्थापना का प्रयास भी था। ‘तीसरा सप्तक‘ के प्रकाशन के साथ-साथ नयी कविता जैसे अपने उत्कर्ष पर पहुँचकर अपना तेज खो देता है। उसकी भाषा, बिम्ब, छन्द-लय और संवेदना पुरानी पड़ने लगती है।‘‘[5] 1960 के आसपास से साहित्यिक परिदृश्य के साथ ही सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य भी बदलने लगा था। नेहरू-युग के प्रति मोहभंग, 1967 में उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में कांग्रेस की हार, के बीच अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में वियतनाम-अमेरिका के बीच युद्ध का घटित होना, रूस और चीन के बीच मतभेद का उभरना परिदृश्य परिवर्तनकारी घटनाएँ थीं। उक्त घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए नवलजी ने लिखा है, ‘‘उस समय तक भारतीय समाज और राजनीति में भी परिवर्तन के चिह्न प्रकट होने लगे थे। 1962 में चीनी आक्रमण के बाद नेहरू-युग से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसकी परिणति 1967 के आम चुनाव में हुई, जबकि उत्तर भारत के आठ-नौ राज्यों में कांग्रेस का शासन समाप्त हो गया और मिली-जुली सरकारों का एक नया दौर वजूद में आया। इन सरकारों से भी मोहभंग होते देर न लगी। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भी भयानक तनाव का वातावरण था। वियतनाम में अमेरिकी सेना से वियतनामी जनता अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रही थी और इधर चीन और सोवियत संघ का संबंध में दरार पड़ रही थी। भारत में पश्चिम बंगाल में 1967 के बाद नक्सलवाद का उदय हो चुका था, जिसकी प्रेरणा माओवाद से आई थी। इस परिवेश ने हिन्दी कविता पर भी असर डाला और उसमें भी तोड़-फोड़ शुरू हो गई।’’[6] अकविता आंदोलन का आरंभ इसी परिवेश में हुआ। यह काव्यांदोलन पहले के काव्यांदोलनों से प्रकृति में भिन्न थी। मूल्यहीनता के दौर की इस कविताधारा में निषेध, आक्रोश और आक्रामकता की प्रवृत्तियों का आधिक्य था। भाषिक संस्कार की दृष्टि से भी यह पूर्ववर्ती धारा का प्रतिवाद रचती है। इस काव्यधारा पर सहानुभूतिपूर्वक एवं सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यकता बनी हुई है। अब इस पर पुनर्विचार शुरू हो गया है। अकविता आंदोलन की चर्चा करते हुए उदय प्रकाश ने लिखा है, ‘‘अकविता ने जो उन्मुक्त उच्छृंखलता अर्जित की वह कविता के इतिहास में बेजोड़ है। संकेत मिलता है कि अकविता की यह ‘एब्सर्डिटी’ और निरर्थकता साठ के आस-पास पैदा हुए मोहभंग के परिणाम स्वरूप व्यक्ति के व्यर्थताबोध के साथ गहराई तक जुड़ी है। पूँजीवादी समाज व्यवस्था के अनिवार्य परिणाम ‘रेइफिकेशन’ से ग्रस्त इन कवियों के सम्मुख अपने अस्तित्व और अस्मिता की खोज का प्रश्न सबसे बड़ा था।... उन्होंने सत्ता के लोकतांत्रिक नकाब और झूठ को अपने आँखों के सामने नंगा होते देखा। जिन मूल्यों और आदर्शों की अर्से से दुहाई दी जा रही थी, वे अपने समूचे खोखलेपन के साथ विघटित हो रहे थे। नेहरू का जादू टूट चुका था।’’[7] अकविता के कवियों की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि उनके सामने उपस्थित विकट समस्या का समाधान ढूँढ़ने के लिए जिस प्रकार की सहनशीलता और स्थिरता की जरूरत थी, उसका उनमें अभाव था। इस संदर्भ में उदय प्रकाश का कथन सत्य प्रतीत होता है कि जनता के संघर्षों और अनुभवों के साथ अकवियों की साझेदारी कभी नहीं थी क्योंकि वे निजी, एकांतिक और विशिष्टता के ‘शेल’ में बंद थे। अकविता भी अंततः कविता ही है। इस कथन के परीक्षण के लिये यह देखना जरूरी है कि किस तरह अकविता से जुड़े कवियों ने अपने को कविता के दायित्व से जोड़ने का प्रयास किया और सार्थक रचना को जन्म दिया। इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए उदय प्रकाश ने लिखा है, ‘‘कविता की रचना प्रक्रिया एक सचेत प्रक्रिया है। इसमें प्रेरणा से लेकर अनुभव, स्मृति, कल्पना, स्वप्न, विवेक और श्रम के अनेक स्तर समाहित हैं। मुक्तिबोध और धूमिल ने इस गंभीर प्रक्रिया की पड़ताल की थी। धूमिल ने कविता के लिए समूचे आदमी को उसकी खुराक बन जाने की बात कही थी। कविता न तो कौतुक है, न खेल, न कारीगरी। यह एक गंभीर और जिम्मेदार मानवीय गतिविधि है, सक्रियता है और इस सक्रियता की सार्थकता समाज में व्यापक जन समुदाय की सक्रियता से जुड़ने में ही है।’’[8] अकविता के प्रतिनिधि कवियों में राजकमल चौधरी का नाम निर्विवाद रूप से लिया जाता है। धूमिल और सौमित्र मोहन भी इसके दायरे में आते हैं। इस प्रसंग में यह ध्यातव्य है कि धूमिल और राजकमल चौधरी ने कैसे अकविता से जुड़ी अपनी रचनाधर्मिता संबंधी सीमा का अतिक्रमण किया। इस प्रसंग पर विचार करते हुए उदय प्रकाश ने ठीक कहा है, ‘‘परवर्ती दिनों में राजकमल चौधरी ने भी अनुभव किया था कि ‘अब हमें जनता के अनुभवों से जुड़ना चाहिए।’ धूमिल भी अकविता की जकड़ से छूट गये थे लीलाधर जगुड़ी के साथ। सौमित्र मोहन इस व्यामोह से छुटकारा नहीं पा सके, न उन्होंने प्रयास ही किया।’’[9] उदय प्रकाश की तरह ही आलोचक हुकुमचन्द राजपाल की भी मान्यता है, ‘‘समकालीन कविता ‘अकविता’ तथा ‘विचार कविता’ सरीखे काव्यांदोलनों से बहुत आगे बढ़ चुकी है। इस प्रकार की कविता के रचयिता स्वयं को किसी एक वाद या चेतना, बोध या दृष्टि तक सीमित नहीं रख पाते। इस प्रकार समकालीन कविता का कथ्य एवं धरातल विस्तृत एवं व्यापक है। इस धरातल की कविता के आयाम बहुपक्षीय हैं।’’[10] इस संदर्भ में हुकुमचंद राजपाल ने व्यापक आयाम वाले जिन कवियों का नाम बड़े अधिकार के साथ लिया है, उनमें मुक्तिबोध, राजकमल चौधरी और धूमिल प्रमुख हैं। उक्त तीनों कवियों में राजकमल चौधरी का नाम सबसे विवादास्पद माना जाता है, उनके साथ भेद-भाव बरता जाता है। उन्हें अकविता आंदोलन से जोड़कर सीमित करने का प्रयास किया जाता है। इसे उचित नहीं माना जा सकता है। हुकुमचंद राजपाल ने समकालीन कवियों के तीन महत्वपूर्ण पड़ावों में से राजकमल चौधरी को एक मानते हुए स्पष्ट रूप से लिखा है, ‘‘हालाँकि मुक्तिबोध का लेखन प्रयोगवादी काव्यधारा से काफी पहले का रहा हैै, पर समकालीनबोध की पहचान का श्रेय इसी कवि को है- उसे भले ही समीक्षक इतिहासकार प्रयोगवाद, नयी कविता तक सीमित माने, सही अर्थों में मुक्तिबोध ने इस कविता को एक दिशा प्रदान की।... इस काव्यधारा का राजकमल चौधरी दूसरा उल्लेखनीय कवि हैं। इसे ‘अकविता’ का कवि घोषित कर समकालीनता बोध की अपेक्षा देह और रजनीति तक सीमित करते हैं। मुक्तिबोध की भाँति इस कवि ने कविता को नयी भूमि प्रदान की- यह कवि इस काव्यधारा का दूसरा पड़ाव है और धूमिल को हमने तीसरा पड़ाव स्वीकार किया है। कारण, इस कवि को मुक्तिबोध और चौधरी से काफी आगे बढ़ना है- ये प्रयोगधर्मी समकालीन कवि होते हुए दृढ़ संकल्प कवि हैं। इनकी रचनाएँ सोद्देश्य हैं, मूल्यों के प्रतिपादन का अपना आधार है इन कवियों का।‘‘[11] समकालीन कवि की दृष्टि से राजकमल चौधरी को परिभाषित करना हो तो यह देखा जाना चाहिए कि किस तरह उनके साहित्य में सामयिक यथार्थ चित्रित हुआ है। उन्होंने कविता के अतिरिक्त साहित्य के अन्य विधाओं में भी अपना लेखन किया है। उनके साहित्य के केन्द्र में यथार्थ के जिस रूप ने आकार ग्रहण किया है, उसे आसानी से पहचाना जा सकता है। वह भौगोलिक सीमा से असंबद्ध होकर भी वैश्विक सीमा का स्पर्श करता है। उसमें भविष्य की आहट सुनाई देती है। आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता की संक्रमण-बेला का यह साहित्यकार अपनी पहचान बनाने में सफल रहा है। आज उनके साहित्य को नये संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। यह काम आलोचना के दायरे को बढ़ाये बिना संभव नहीं है। इस संदर्भ में आलोचक गोपेश्वर सिंह का कथन द्रष्टव्य है, ‘‘तेजी से बदलते समय में जो साहित्य लिखा जा रहा है उसके अर्थ और मूल्य की खोज आलोचना के किसी पुराने परिसर तक सीमित रहकर नहीं किया जा सकता। किसी रचना में रचनाकार के मूल आशय की खोज और उसके परे जाकर उसकी समीक्षा के जरिए एक नयी रचना को उपलब्ध करना आलोचना का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। इस क्रम में रचना के सामाजिक अर्थ एवं साहित्य-सौंदर्य का जो झिलमिला-सा पर्दा है उसको थोड़ा सरकाकर, ओट में चुपचाप खड़ा जो सच एवं कला है, उसे मुखरता देने के लिए आलोचना के नये और भिन्न परिसर की दरकार होती है। यह सुखद है कि इस दृष्टि से हिन्दी आलोचना के नये परिसर उद्घाटित हो रहे हैं।‘‘[12] कविता के ताकत को
समझने का मूल्य कवियों को चुकाना पड़ता है। आधुनिक युग के कवियों में निराला, मुक्तिबोध,
राजकमल चौधरी और धूमिल ने
इसके मूल्य चुकाये हैं। यदि कविता सच्ची है तो वह समय को ईमानदारी से लिखेगी।
राजकमल की कविता और जीवन के बीच पाये जानेवाला तादात्म्य इसका साक्ष्य प्रस्तुत
करता है। उनकी कविता का अनुभूति पक्ष अत्यंत सबल है। वह एक साथ ही जीवन दृष्टि और
विश्व-दृष्टि का परिचायक है। उनके काव्य में वैयक्तिक अनुभूति वैश्विक अनुभूति में
परिणत हो जाता है। वे व्यक्तिनिष्ठ होकर भी वस्तुनिष्ठ कविता के कवि हैं। यह उनकी
संवेदना के विस्तार का परिणाम है। यहाँ कुछ भी गोपनीय नहीं है। सबकुछ सामने है,
अप्रत्यक्ष कुछ भी नहीं
है। इसी अर्थ में राजकमल चौधरी को नंगापन का कवि माना जा सकता है। मुखौटाधर्मिता
से उन्हें सख्त नफरत है। नंगा व्यक्ति कुछ छिपा नहीं सकता है। इसलिए उनकी रचनाओं
का अंग हैं- नंगी कविताएँ। मीठा बोलना भी सत्य की अभिव्यक्ति के मार्ग में बाधा उत्पन्न
करता है। सभ्यता के पीछे छिपी हुई असभ्यता को सामने लाना कई बार युग की अपेक्षा के
अनुरूप होता है। राजकमल चौधरी ऐसे ही युग के महत्वाकांक्षी कवि हैं, जिन्होंने
कटु और नंगी सच्चाई को अपने साहित्य के माध्यम से सामने लाने का सफल और सार्थक
प्रयास किया है। अपने समय को रचने वाला कवि शाश्वत प्रश्नों के साथ ही रोजमर्रा की
जिंदगी तक को अपनी कविता में शामिल करके उन्हें रचनात्मक बना डालता है। कविता की
भूमिका के संबंध में अशोक वाजपेयी का कथन है, ‘‘जीने में भौतिक के अलावा बहुतेरी
नैतिक और आंतरिक झंझटे भी होती हैं- कविता शायद इन झंझटों को समझने और किसी हद तक
अपने और उनके प्रति चौकन्ना रहने और किसी तरह का संतुलन पा सकने में मदद कर सकती
है। कठिनाई के सामने हम बिलकुल निरूपाय और लाचार नहीं हैं और कितना भी कठिन क्यों
न हो, हर
समय को किसी हद तक स्वायत्त किया जा सकता है यह भरोसा कविता हमें दिला सकती है।
बेहद ठंड और अँधेरे वक्त में वह हमें लौ की तरह कुछ रौशनी और थोड़ी-सी आँच दे सकती
है।‘‘[13] सातवें दशक के ठंडे और अँधेरे समय में राजकमल चौधरी की कविता लौ और आँच देती है। विडंबना की बात यह है कि कई बार उनकी कविता पर प्रतिकूल टिप्पणी की गई है और उसे नकारने का प्रयास किया गया है, जबकि सच्चाई ठीक विपरीत है। उनकी कविता वर्चस्व के खिलाफ जिस तरह के प्रतिरोध की रचना करती है वह अत्यंत वास्तविक और मुखर है। वह खामोशी की संस्कृति के खिलाफ एक प्रतिसंसार रचती है। अपने समय की त्रासद स्थिति का आकलन करते हुए कवि समीक्षक लीलाधर जगूड़ी ने लिखा है, ‘‘अपने समय को अपना समय न समझकर, किसी आनेवाले समय को अपना समझने के इंतजार में हम इस सदी को पार कर रहे हैं। लगता है कि सिद्धांतों ने, तर्कों ने और विचारों ने लगभग हमारा साथ छोड़ दिया है। लगता है कि हमने पूँजी की ताकत को ही सबसे बड़ी नैतिक शक्ति मान लिया है।’’[14] लीलाधर जगूड़ी के कथन में राजकमल चौधरी के समय की सच्चाई प्रकट हुई है। अपने समय की रचना धर्मिता की जिस भाषिक विशेषता की उन्होंने चर्चा की है वही राजकमल चौधरी की भाषिक विशेषता है। जगूड़ी ने लिखा है, ‘‘लम्बी कविता उस समय मुक्तिबोध, राजकमल चौधरी और धूमिल भी लिख रहे थे। लेकिन मेरी कविता का विषय वह युवा मन था जो आजादी के बाद की स्थितियों से टूट चुका था और अपने को कहीं भी मिसफिट पाता था। जैसे कवि का काम सिर्फ मुखौटे नोचना हो। एक चुनौति भाषा और बिम्बों की थी। प्रयुक्त भाषा और बिम्बों को मैं लगभग त्याग चुका था। एक-एक वाक्य मुझे नये ढंग से गढ़ना पड़ा।‘‘[15] उस समय की काव्यभाषा में शास्त्रीयता और शिष्टता की उम्मीद करना बेमानी है। नैतिकता का स्थान अनैतिकता ने ले लिया था और सार्थकता का स्थान निरर्थकता ने। जगूड़ी ने ठीक कहा है, ‘‘जो रोटी के लिए भटक रहा होता है, उसकी भाषा में शास्त्रीयता और विनम्रता ढूँढ़ना उसे जबरदस्ती नैतिकता के डंडे से पीटने के बराबर है।’’[16] आजादी के बाद की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक सच्चाई ने राजकमल चौधरी को विचलित कर रखा था। उनके प्रसंग में यह कहा जा सकता है कि वे इन क्षेत्रों से संबंधित सच्चाइयों को ठीक-ठीक समझ चुके थे और उन्हें अपने साहित्य में व्यक्त करने में सक्षम थे। भारतीय समाज में बहुत कुछ ऐसा है जो असुविधाजनक है। इन असुविधाजनक तत्वों को शमित किये बिना भारतीय समाज का नवनिर्माण करना संभव नहीं है। स्वतंत्र भारत में नव-निर्माण की गति इतनी धीमी है कि समस्याओं का समाधान ढूँढ़ना ही अपने आप में एक बड़ी समस्या है। अपने समय पर पैनी नजर रखने वाले राजकमल चौधरी ने उसके अंतर्विरोधों और विपर्ययों को पूरी जटिलता और वास्तविकता के साथ अंकित किया। उनका साहित्य जीवन-संघर्षों से उपजा साहित्य है। आधुनिक युग पूँजी का युग रहा है। पूँजीवादी व्यवस्था की अपनी समस्याएँ रही हैं। इन्हें उजागर करते हुए राजकमल चौधरी ने अपने उपन्यास के पात्र रंजीत के माध्यम से कहा है, ‘‘आपको मालूम नहीं है। मुझे भी मालूम नहीं है। किसी को मालूम नहीं है। क्योंकि लुटेरों ने लूट का तरीका बदल लिया है। वे हमारी दौलत या ताकत या इज्जत या ईमान लूटते नहीं हैं- बस खरीद लेते हैं। वे हमारे दुश्मन नहीं बनते, दोस्त बनते हैं। वे लुटेरे डाकू नहीं बनते, समाज-सेवक बनते हैं, कला-प्रेमी बनते हैं, साहित्य-पोषक, समाज-सुधारक, राजनीतिज्ञ, प्रकाशक, संपादक, फिल्म-निर्माता, थियेटरों के मालिक, पुस्तकालयों और मंदिरों और होटलों-क्लबों-बार हाउसों के मालिक बनते हैं। और वे हमें खरीदते हैं। रूपए देकर, मीठी-मीठी बातें देकर, ऊँची तनख्वाहों की नौकरी देकर, अपनी गाड़ी और अपने बँगले देकर वे हमें खरीदते हैं। और हम बिक जाते हैं।’’[17] राजकमल चौधरी ने आधुनिक भारतीय समाज की जिस अवांछित सामाजिक संरचना का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है, वह स्वातंत्र्योत्तर भारत की वास्तविकता है। उन्होंने विचारधारा के नाम पर किसी सिद्धांत विशेष के प्रति अपना दुराग्रह प्रकट नहीं किया है। जनहित ही उनका सर्वोपरि रचनात्मक लक्ष्य रहा। उनके साहित्य में जिस मूल्यहीन सामाजिक स्थिति का वर्णन किया गया है उससे उन्हें दिन-रात गुजरना पड़ा था। पूँजी की प्रभुता भारत के साथ ही विश्व से जुड़ी परिघटना है, इसलिए राजकमल ने इसके विश्वव्यापी प्रभाव को अपने साहित्य में अत्यंत महत्व के साथ रचा। भारत के संदर्भ में आधुनिकता से जुड़ी वास्तविक समस्याओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध आलोचक शंभुनाथ ने लिखा है, ‘‘तीसरी दुनिया के समाजों में आधुनिकता की परियोजना अपूर्ण रह गई। इसके बावजूद, आधुनिकता ने भिन्न जातियों और समाजों के लिए रूपांतरण में काफी सकारात्मक भूमिका निभाई है। इसे सिर्फ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि यह अपूर्ण रह गई या यह एक सार्वभौमता है। आधुनिकता एक सार्वभौम मामला, यूरोपीय विकासों से प्रभावित मामला होने के बावजूद, स्थानीय खोज भी है। भारतीय नवजागरण का लंबा संघर्ष केवल आधुनिकता के लिए नहीं, जातीय आत्मपहचान के लिए भी था। यह संघर्ष एक अन-औपनिवेशिक आधुनिकता के लिए था।’’[18] भारतीय समाज आज भी सामंती और पूँजीवाद के नकारात्मक तत्वों से जूझ रहा है। परिस्थितियों के तरफ इशारा करते हुए डॉ. देवशंकर नवीन ने लिखा है, ‘‘राजकमल चौधरी ने कोई आधी सदी पूर्व महसूस किया था और आज वे और भी घनीभूत होकर हमारे जीवन-प्रक्रिया और सामाजिक व्यवस्था को खोखला बना रही हैं।’’[19] राजकमल चौधरी को इसकी खरी परख थी। अपने साहित्य में उन्होंने इनका खुलकर वर्णन किया है। उनमें रोग को छिपाने की आदत नहीं थी। सत्य कितना भी कटु और नंगा क्यों न हो, राजकमल चौधरी के साहित्य में सबके लिए स्थान है। यह उनके साहित्य की कमजोरी न होकर उसकी ताकत है। इस सत्य का परीक्षण करना जरूरी है। उत्तर-आधुनिक युग में उनका साहित्य और भी प्रासंगिक हो गया है। राजकमल चौधरी का साहित्य अपनी परंपरा से जितना विछिन्न लगता है, उतना है नहीं। परंपरागत रूढ़ियों से अलग वह जरूर हो गया है। वे स्वस्थ परंपरा का रचनात्मक उपयोग करना जानते थे। उन्होंने ऐसा किया भी है। किसी भी साहित्य का देश-काल से क्या और कैसा संबंध होता है? इसे स्पष्ट करते हुए आलोचक अजय तिवारी ने लिखा है, ‘‘निरंतरता और परिवर्तन का यह मायालोक ही विकास कहलाता है; संस्कृति के क्षेत्र में हम उसे परंपरा कहते हैं। यदि पूरी तरह अलगाव है तो वह विकास न होगा, यदि पूरी तरह समरूपता है तो वह परंपरा न बनेगा। इसीलिए दर्शन, विज्ञान या सामाजिक विज्ञान में, जहाँ अगली खोज पुरानी धारणा को खारिज करती है, वहीं साहित्य-कला-संस्कृति में वह अलगाव के साथ जुड़ाव भी व्यक्त करती है। देश-काल की धारणा हमें इस परंपरा को पहचानने और विकास की दिशा समझने में मदद करती है।’’[20] राजकमल चौधरी ने स्वयं को मध्यकालीन कवि कबीर और आधुनिक युगीन कवि निराला से जोड़कर देखा है। इससे साहित्य के देश-काल संबंधी उनके सकारात्मक दृष्टिकोण का पता चलता है। आदमी जब भीड़ में बदल जाता है तो उसके सोचने की शक्ति खत्म हो जाती है। उसकी आवश्यकता और प्राथमिकता बदल जाती है। गंभीर चिंतन से पीछा छूट जाता है। हम आसानी की ओर चल पड़ते हैं। तब हमें छोटी-छोटी बातें और सुविधाएँ याद रह जाती हैं, बड़ी बाते और बड़े लक्ष्यों को भुला दिया जाता है। राजकमल चौधरी को आदमी के भीड़ में बदल जाने का दुख है। निराला के समय में स्वतंत्रता-प्राप्ति का बड़ा लक्ष्य था। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सामूहिक चेतना के स्तर पर भारत लक्ष्यविहिन हो गया। इस परिवर्तित स्थिति का खुलासा करते हुए उन्हाने लिखा है: रात काटने के लिए चाहिए कहीं भी पड़ाव राजकमल चौधरी का समय विपर्यस्तता का समय था। इस विपर्यस्तता का कारण विदेशी नहीं स्वदेशी शासक था; उसकी नीतियाँ थी। जनता ऐसी सत्ता की कल्पना नहीं की थी। सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र की नाकामी ने राजनीति को विफल कर दिया। इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? साहित्य से जुड़े रचनाकारों को गहरी पीड़ा का अनुभव हुआ। कबीर को याद करते हुए राजकमल चौधरी ने जिस दासता की बात कही है वह किसी एक क्षेत्र से संबंधित न होकर व्यापक और बहुआयामी है। कबीर की तरह श्रमजीवी वर्ग श्रम तो करता है लेकिन समाज के सामने कबीर की तरह कोई सवाल नहीं कर पाता है, क्योंकि उसकी चेतना अवसन्न है। इसी अवसन्नता का खामियाजा उसे भोगना पड़ता है। कवि ने इस वर्ग की चेतना को झकझोरते हुए लिखा है: ’’-कि चालकों! वाहको! तुम कौन हो...और क्यों? ’’-कि लाते-पहुँचाते, लादते-उतारते, ढोनेवालों तुम हो कौन और बूझो-मैं क्यों पूछ रहा हूँ? मैं कबीरदास नहीं, दासों का कवि-दास-कवि हूँ;’’[22] भावी समय के दायित्व को भावी कवियों पर सौंपकर राजकमल चौधरी दायित्व-मुक्त हो जाते हैं। इस मुक्ति के बावजूद वे मुक्त नहीं हो पाते हैं। उनका साहित्य आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाये हुए है। इस रूप में वह अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा है। ‘मुक्ति-प्रसंग’ जैसी कविता में मानव-मुक्ति का जो स्वप्न देखा गया है, वह आज भी प्रासंगिक है। राजकमल चौधरी की कविता को आजादी के बाद की विपर्यस्त जीवन-स्थितियों की उपज मानते हुए प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र ने लिखा है, ‘‘राजकमल चौधरी- उन सबको पीछे छोड़ते हुए कविता की ऐसी पगडंडी चुनते हैं, जिसके तहत जीवन का भोगा हुआ सारा विद्रूप कविता में उफन कर आ जाता है। वेश्याएँ, तरह-तरह की यौन व्याधियाँ, फूत्कार, संवेगी प्रतिक्रियाएँ- जीवन का, जिए हुए जीवन का वीभत्स रूप सामने रखती हैं जिनमें कवि का मानवीय संवेदना घुट कर रह जाती है- विद्रूप प्रत्यक्ष होता है। ‘कंकावती’, ‘मुक्ति-प्रसंग’ राजकमल चौधरी की ऐसी ही कृतियाँ हैं। ‘मुक्ति-प्रसंग’ में कवि की मानवीय संवेदना के साक्ष्य भी हैं परन्तु विकृति के दलदल में धँसे हुए। यह साठोत्तर परिदृश्य का विपर्यय ही है जिसके तहत भूखी पीढ़ी, श्मशानी पीढ़ी जैसी पीढ़ियाँ कविता के मंच पर फैशन की तरह आती और विलीन हो जाती हैं।’’[23] शिवकुमार मिश्र ने राजकमल चौधरी की कविता की शक्ति और सीमा का आकलन किया है। इसी प्रकार डॉ. नन्दकिशोर नवल ने भी उनकी कविता का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, ‘‘राजकमल अमरीकी बीट कविता और बँगला की भूखी पीढ़ी की कविता से प्रभावित थे, जिनकी स्वतंत्रता की धारणा बहुत कुछ अराजकतावादी थी। स्वाभावतः वे हिन्दी में ‘अकविता’ का जो आंदोलन चला था, उसके समगोत्री कवि थे। उनमें मूल्यहीनता को मूल्य मानने की प्रवृति तो है ही, अश्लीलता भी है। लेकिन इसमें दो मत नहीं कि राजकमल ने ‘मुक्ति-प्रसंग’ शीर्षक से जो लंबी कविता लिखी, वह इतनी सशक्त है कि कानों में सायरन की चीख की तरह बजती है। इसमें कवि ने अपने को केन्द्र में रखकर संपूर्ण समकालीन विश्व की परिक्रमा की है और इस तरह जैसे बिजली की कौंध में उसके विसंगतिपूर्ण और अमानवीय यथार्थ को अनावृत कर दिखला दिया है।’’[24] राजकमल चौधरी के साहित्य का सारोकार व्यक्ति, राष्ट्र एवं विश्व तीनों से है। उसे पगडंडी कहना उचित नहीं है। समकालीन साहित्य के आरंभ कर ही नहीं उसके विस्तार की भी पूरी संभावना उसमें निहित है। राजकमल चौधरी का साहित्य आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के संधि-स्थल पर अवस्थित है। अपनी अवस्थिति और उपस्थिति के कारण वह आज अधिक विचारणीय और प्रासंगिक बन गया है। इसमें सभ्यता-मीमांसा के साथ ही राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक मीमांसा की व्यापक पृष्ठभूमि देखी जा सकती है। यहाँ ज्ञान-मीमांसा के तत्व भी मौजूद हैं। यह एक साथ ही स्थानीय और वैश्विक गतिविधियों पर केन्द्रित प्रतीत होता है। राजकमल चौधरी की दूरदर्शिता दर्शनीय है। पूँजी के परिवर्तित रूप ने नये विश्व को जन्म दिया, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने आर्थिक साम्राज्यवाद एवं अमेरिका के वर्चस्व का अनुभव कर लिया था। विज्ञान और मार्क्स की उपयोगिता और सीमा ने उनके विचार एवं चिंतन के विकास में सहायता की। उपन्यास के माध्यम से उठाए गए प्रश्न आधुनिकता के साथ ही उत्तर-आधुनिकता से भी संपृक्त हैं। इसमें मानवजाति की निराशाजनक स्थिति दृष्टिगोचर होती है। यहाँ शॉपेनहावर और नीत्शे की चेतना पूरी सक्रिय नजर आती है। उत्तर-पूँजीवाद के कारण दुनिया के पैमाने पर जिस प्रकार की निराशाजनक परिस्थिति पैदा होने वाली थी, उसका संकेत राजकमल चौधरी के साहित्य में मौजूद है। उन्होंने लिखा है, ‘‘जिसने गन-पाउडर का आविष्कार किया, उसकी बात न भी की जाए, तो हमें आइंस्टीन से ही क्या मिला? थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी से क्या मिला? हमें एटमी अस्त्रों की भयानकता मिली है, मृत्यु का आतंक मिला है; हिरोशिमा-नागासाकी के ध्वंसाशेष मिले हैं। और, मार्क्स-एंगेल्स से ही क्या मिला? रोटी मिली है, लेकिन यह रोटी कितनी महँगी है? हम आदमी नहीं रह गए हैं, स्टील और लोहे के मशीन बन गए हैं। हमने अपनी स्वतंत्रता बेच दी है, अपनी नैतिक चिंताएँ बेच दी हैं, अपना अस्तित्व बेच दिया है। तो फिर, आइंस्टीन और मार्क्स नहीं, बर्नार्ड शॉ या बर्टेªन्ड रशेल भी नहीं, तो क्या? तो किससे आशा की जाए?’’[25] आशा और निराशा का भयंकर द्वन्द्व समकालीन परिदृश्य का सबसे बड़ा सच है। एक ओर धन का अंबार और विलासिता है। दूसरी ओर अमानवीय स्थिति का सच है। उपभोक्तावादी संस्कृति का जहर सर्वत्र फैल गया है। भोग ही प्रधान तत्व बन गया है। मानव-मुक्ति के प्रश्न को गौण बना दिया गया है। यह सब एक बड़ी साजिश का परिणाम है। मानव-जाति अपने विकास की वास्तविक दिशा से भटक गया है। चारों ओर निराशा का गहन अंधकार छाया हुआ है। ऐसे में यदि कुछ आशा की जा सकती है तो साहित्य से ही की जा सकती है, जो प्रतिरोध रचने के साथ ही मानव-जाति का मार्गदर्शन कर सकता है। राजकमल चौधरी ने अपने साहित्य के माध्यम से यह प्रश्न उठाया है, ‘‘किससे आशा की जाए? उनसे, जो हंगरी को अपनी फौजी बूटों के तले कुचल देते हैं? उनसे जो साउथ अफ्रीका में वर्ण-भेद के अमानवीय आधार पर आदमी को कुत्तों की जिंदगी बसर करने को मजबूर करते हैं? उनसे, जो हमारी कला और संगीत और साहित्य और संस्कृति की सारी अभिव्यक्तियों को नष्ट करके हम पर सिनेमा के बड़े-बड़े पोस्टरों में खड़ी, नंगी लड़कियों की कतारें लाद देते हैं?’’[26] उत्तर-आधुनिक परिस्थिति में लोकप्रिय संस्कृति के आक्रमण को झेलना भारी पड़ रहा है। कला-संस्कृति की जिस चिंता से राजकमल ग्रस्त थे, आज का मानव उससे त्रस्त है। यह सांस्कृतिक आक्रमण हमसे हमारी सारी स्मृति छीन लेना चाहता है। हमें अफीम के नशे में डूबो देना चाहता है। इस नशा और जहर के विषय में राजकमल चौधरी ने लिखा है, ‘‘हम सभी अफीम के मरीज हैं। क्योंकि, अफीम सिर्फ वही नहीं रह गया है, जो तुम चोर बाजार से खरीदकर खाती हो। अपने को दबाने के लिए, अपने को बेचने के लिए, अपने को मारने के लिए तरह-तरह की अफीम हैं।’’[27] यहाँ अफीम आधुनिक सभ्यता-संस्कृति का प्रतीकात्मक पर्याय बन गया है। उत्तर-आधुनिक युग में यह प्रतीकात्मक प्रयोग अत्यंत सार्थक और प्रासंगिक प्रतीत होता है। उक्त कथन को स्पष्ट करते हुए उपन्यासकार ने आगे लिखा है, ‘’साहित्य और कला और संगीत और नृत्य और संस्कृति की बारीकियाँ और खूबियों से भरी किताबें और कृतियाँ, कविताएँ और मूर्तियाँ, नाच और थियेटर, गाने और तराने अफीम हैं। बड़े-बड़े पुस्तकालय और म्यूजियम और घास के लंबे मैदान और पार्क और विश्वविद्यालय और शेयर मार्केट और सरकारी दफ्तर सारे के सारे अफीम हैं।’’[28] उक्त वर्णन से आधुनिक से अधिक उत्तर-आधुनिक परिदृश्य के चित्र उभरकर सामने आते हैं। इसे राजकमल चौधरी की दूरदर्शिता प्रकट होती है, उनकी भविष्यद्रष्टा की छवि उजागर होती है। यही उनका असली रूप है। उनके इस रूप को ढँकने, छिपाने और विकृत करने की चेष्टा की गई है। वे पूँजीवादी और रूढ़िवादी मस्तिष्क के षड्यंत्र के शिकार हुए हैं। उनके साहित्य के बाहरी आवरण को ही अंतर्वस्तु समझ लिया गया है। यह सब जाने-अनजाने में घटित होता रहा है। अब इस घटाटोप से बाहर निकलने और निकालने का समय आ गया है। नीत्शे की तरह ही राजकमल चौधरी के साहित्य और समाज संबंधी उनकी समझ के ठीक-ठीक मूल्यांकन करने का समय आ गया है। उनकी साहित्यिक-सामाजिक दृष्टि की सही समझ से ही उनके साहित्य की प्रासंगिकता पर सही ढंग से विचार करना संभव होगा। समकालीन मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या पर विचार करते हुए राजकमल चौधरी ने जो मत प्रकट किया है, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। मानव-जाति के सामने केवल सुख पाने की ही समस्या नहीं है, शांति को अर्जित करने की भी समस्या है। इस समस्या का संबंध वर्तमान सभ्यता और संस्कृति से है। यह केवल भौतिक और आर्थिक समस्या नहीं है, वास्तविक अर्थ में सांस्कृतिक समस्या है। महात्मा गाँधी ने इस समस्या पर विचार किया है, राजकमल ने भी इस पर विचार किया है। उन्होंने अपने औपन्यासिक पात्र के माध्यम से इस पर अपना मत प्रकट किया है, ‘‘तुम इतनी बच्ची नहीं हो कि मैं तुम्हें इस दुनिया के लोगों के बारे में समझाऊँ! तुम इतनी बूढ़ी भी नहीं हो कि मैं तुम्हें धर्म और पुण्य और स्वर्ग और ईश्वर का आकर्षण दूँ? मैं सिर्फ तुम्हें शांति का आश्वासन दे सकता हूँ। पूरबी, हम ऐसे वक्त में जी रहे हैं, जहाँ रोटी से भी बड़ा सवाल शांति का है। सवाल ऐसी छत का है, जिसके नीचे सोकर हमें नींद आ सके। मैं और कुछ न दूँ, यह छत तुम्हें दूँगा। तुम चलोगी?’’[29] राजकमल चौधरी ने अपनी साहित्यिक कृति के माध्यम से वक्त की नब्ज पर हाथ रखकर उसकी धड़कन को जानने-पहचानने की सफल कोशिश की है। समकालीन शोषण की स्थिति के वास्तविक चरित्र को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘‘तुम और मैं और हम सभी अफीम के नशे में बेहोश हैं। हमें पता नहीं चल रहा है कि वक्त हमें किन चक्कियों में पीस रहा है। हमें पता नहीं चल रहा है, और हम अपना खून उगल रहे हैं, और अपने इर्द-गिर्द के लोगों का खून पी रहे हैं।’’[30] आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता संबंधी प्रवृत्तियों से जो लोग परिचित हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि भारतीय संदर्भ में इन पदों के सापेक्षिक अर्थ विकसित देशों से अलग हैं। तीसरी दुनिया के देशों के साथ भारत के संदर्भ में इनके अलग-अलग अर्थ हैं। भारत में एक साथ ही विभिन्न युगों के संक्रमण की स्थिति देखने को मिलती है। यहाँ आधुनिकता की परियोजना ठीक से सभी जगह सम्यक् रूप से पूरी ही नहीं हो सकी तो संपूर्ण देश में उत्तर-आधुनिकता की स्थिति भी देखने को नहीं मिल सकती है। यही कारण है कि राजकमल चौधरी ने अपने साहित्य में गाँवों, शहरों और महानगरों को अलग को अलग-अलग दृष्टियों से देखने की कोशिश की है। इनसे संबंधित उनके यथार्थवादी चित्र भिन्न-भिन्न हैं। उनके साहित्य के संदर्भ में यही औचित्यपूर्ण भी है। भारतीय संदर्भ की वास्तविकता से परिचित विद्वानों ने आधुनिकता के अगले चरण को अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है। डॉ. तारकनाथ बाली ने लिखा है, ‘‘पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी में उत्तर-आधुनिकता की विस्तुत चर्चा हो रही है। वस्तुतः यह सोच आरम्भ तो विदेशों में हुई, मगर व्यापक महत्व के कारण उसके स्वरूप की समीक्षा हिन्दी में किया जाना भी स्वाभाविक था। इसके स्वरूप पर विचार करने से पहले भूमिका के रूप में कुछ महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करना अनिवार्य प्रतीत होता है। पहली बात तो यह कि पश्चिम में इस सोच के लिए ‘पोस्ट माडर्निज्म’ नाम दिया गया है जिसका हिन्दी पर्याय ‘आधुनिकोत्तरता’ होना चाहिए, ‘उत्तर-आधुनिकता’ नहीं, क्योंकि ‘पोस्ट’ का तात्पर्य है कि मार्डिनिज्म (आधुनिकता) का युग समाप्त हो गया है और उसके स्थान पर नयी विचारधारा पोस्ट मोडर्निज्म ने ले ली है। ...मैं उत्तर-आधुनिकता को मूलतः आधुनिकता के गम्भीर पुनरीक्षण के रूप में देखता हूँ जिसमें मानव को केन्द्र में रखकर दु्रतगति से बढ़ती आधुनिकता को नये यन्त्र, टेक्नोलॉजी, जनविचार के दृश्य-श्रव्य माध्यमों का तेजी से विकास-विस्तार आदि के प्रभावों पर विचार किया गया है।’’[31] भारतीय संदर्भ में सामाजिक विकास का सत्य क्या है? आलोचक अजय तिवारी ने लिखा है, ‘‘उत्तर-आधुनिकता पर बहस हम तब कर रहे हैं जब पश्चिम में वह समाप्त हो चुकी है। फ्रेडरिक जेमेसन ने उत्तर-आधुनिकता को ‘वृद्ध पूँजीवाद का सांस्कृतिक तर्क’ कहा था। यह परिभाषा लगभग सर्वमान्य हो चुकी है।वृद्ध पूँजीवाद का आर्थिक तंत्र भूमंडलीकरण है इसलिए हम कह सकते हैं कि बाजारवादी भूमंडलीकरण और उत्तर-आधुनिकता एक-दूसरे के सहचर हैं।’’[32] भारतीय संदर्भ में आजादी और आधुनिकता के अर्थ-विपयर्य को स्पष्ट करेते हुए आशीष त्रिपाठी का कथन है, ‘‘आजाद भारत के नव निर्माण के प्रयोगों में ‘नव गति, नव लय, ताल-छन्द-नव’ रचने के नाम पर ‘पुरातनता’ और ‘अभिजनी पूँजीवादोन्मुख आधुनिकता’ को विन्यस्त करने की कोशिशें जारी थीं। लोकतंत्र को जीवन्त सामाजिक प्रक्रियाओं से स्थायी रूप से अलगाने या जोड़ने के भिन्न विचार रखने वाली शक्तियाँ अपने तरीकों से कार्य कर रही थीं। राष्ट्रीय आंदोलन के जनवादी उभार को ठिकाने लगाने के लिए शासक वर्ग जनता को ‘समाजवाद’ और ‘लोकतंत्र’ के नारों में उलझाने और भरमाने की नीति पर काम कर रहा था। ‘लोकतंत्र’ की प्रकट ‘सहभागिता’ में ‘संवाद’ करने का हक सबको हासिल हुआ। बावजूद इसके ‘कुछ’ ‘सब’ की ओर से बोल रहे थे। यह संवाद का आभास था।’’[33] वर्तमान भारत वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था से बुरी तरह आक्रांत है। वैश्विक पूँजीवाद के विकास-क्रम को देखते हुए इसे समझा जा सकता है क्योंकि यह बाजार और पूँजी के वैश्विकरण का युग है। राजकमल चौधरी ने अपनी रचनाओं में बहुत स्पष्टता से इसका चित्रण किया है। आधुनिक युग के उत्तर-आधुनिक युग में बदलने की प्रक्रिया को सौदागरी पूँजीवाद, औद्योगिक पूँजीवाद और महाजनी पूँजीवाद की विकास-प्रक्रिया के माध्यम से समझा जा सकता है। उत्तर-आधुनिक परिस्थिति का अपना सौन्दर्यशास्त्र है। इस परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए आलोचक अजय तिवारी का कथन है, ‘‘उत्पादकता का संबंध अब रोजगार से टूट गया है। मानव-निर्मित प्रौद्योगिकी ने मानव-श्रम को विस्थापित कर दिया है। इसलिए उत्पादकता में वृद्धि का अर्थ है मुनाफे का बढ़ना और रोजगार का घटना। श्रम के इस विस्थापन और अवमूल्यन से श्रमिक आंदोलन कमजोर हुए हैं, मालिकों का जुझारूपन (आक्रामकता) बढ़ा है, वर्ग की अवधारणा संदिग्ध हुई है, पुराने मजदूर टेक्नोक्रैट बने हैं। दूसरी तरफ, प्रौद्योगिकी मालिकों का साधन बन गयी है। इसलिए वर्गीय शोषण और उत्पीड़न तेज हुआ है, विषमता बढ़ी है। एक साथ मुनाफा और बेरोजगारी बढ़ानेवाली प्रौद्योगिकी अगले संकट की पृष्ठभूमि बनाती है क्योंकि सेवा क्षेत्र और मध्यवर्ग का विस्तार करके केवल उसी पर निर्भर बाजार विशाल जनता का दरिद्रीकरण दूर नहीं कर पाता, इसलिए संकट को स्थायी रूप से टाल नहीं सकता।’’[34] इतिहास साक्षी है कि यूरोप में औद्योगिक क्रांति के पूर्व चर्च और राजसत्ता का गठबंधन था जबकि औद्योगिक क्रांति के बाद राष्ट्र और राजसत्ता के बीच गठबंधन हो गया। उत्तर-औद्योगिक युग में इसका स्थान बाजार और राजसत्ता ने ले लिया है। इस तरह के गठबंधनों ने दुनिया की परिस्थिति को बदल दिया है। राजकमल चौधरी ने अपने साहित्य में इस तरह के गठबंधनों की ओर संकेत किया है। उन्होंने लोकतंत्र के नाम पर जनता को ठगे जाने का विरोध किया है। एक तरफ अमीर देशों और अमीरों की अमीरी है और दूसरी तरफ गरीब देशों और गरीबों की गरीबी है। नयी विश्व-व्यवस्था में नये प्रकार की अस्मिताओं के संघर्ष भी उभर आये हैं। जाति, लिंग, धर्म और नस्ल के पुराने झगड़े नये स्वरूप में सामने आ रहे हैं। इन सबके बीज रूप राजकमल चौधरी के साहित्य में मौजूद हैं। |
||||||
निष्कर्ष |
राजकमल चौधरी के साहित्य को
वैश्विक संदर्भ से जोड़कर देखे बिना उसका सम्यक् मूल्यांकन करना संभव नहीं है।
आधुनिक युग का आरंभ औद्योगिक क्रांति तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्रांति के
फलस्वरूप हुआ। इसके साथ ही आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था का भी विकास हुआ। पूँजीवादी
व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य शहरीकरण और आर्थिक ढाँचा को विस्तार देना था। इसके
परिणाम स्वरूप मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग एवं निम्नमध्यवर्गीय श्रमिक वर्ग का
विकास हुआ। पूँजीवादी व्यवस्था का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि इसने भारत जैसे देश
के गाँवों और गरीबों का शोषण किया तथा महानगरों एवं प्रभुवर्ग को समृद्ध किया। इस
व्यवस्था का वैश्विक चरित्र भी यही रहा, लेकिन यूरोप और अमेरिका की अपेक्षा तीसरी दुनिया के देश कम विकसित और कम
आधुनिक बने रहे। कोढ़ में खाज की तरह तीसरी दुनिया के देशों को यूरोप एवं अमेरिका
में विकसित होनेवाली उत्तर-आधुनिकतावाद और वैश्वीकरण की चुनौतियों का सामना करना
पड़ रहा है। उत्तर-आधुनिकतावाद एवं वैश्वीकरण की प्रस्तुत चुनौतियों का सामना करने
में राजकमल चौधरी का साहित्य आज भी सकारात्मक एवं रचनात्मक भूमिका निभाने में
सक्षम प्रतीत होता है। |
||||||
भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव | वैश्वीकरण की समकालीन परिस्थितियों को समझने एवं उसकी चुनौतियों का सामना करने में राजकमल चौधरी का साहित्य हमारी सहायता कर सकता है। राजकमल के साहित्य को वैश्विक संदर्भ से जोड़कर देखे बिना उसका सम्यक् मूल्यांकन करना संभव नहीं है। उनके संपूर्ण साहित्य का समकालीन वैश्विक संदर्भ में एक बार फिर से नये एवं उत्तर-आधुनिक दृष्टिकोण से गंभीर अध्ययन करने की आवश्यकता है। | ||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. मुक्तिबोध रचनावली: सं. नेमिचन्द्र जैन, खंड-5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण: 2011, पृ.सं.-177, 2. भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा: डॉ. मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण: 2013, पृ.सं.-124, 3. राजकमल चौधरी रचनावली: खण्ड-7: सं. देवशंकर
नवीन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण: 2015, पृ.सं.-160-161, 4. प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य: परमानन्द श्रीवास्तव, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण: 2012, पृ.सं.-09, 5. कविता: पहचान का संकट: नन्दकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, तीसरा संस्करण: 2012, पृ.सं.-50, 6. वही, पृ.सं.-50, 7. ईश्वर की आँख: उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण: 2017, पृ.सं.-250, 8. वही, पृ.सं.-251-252, 9. वही, पृ.सं.-252, 10. समकालीन बोध और धूमिल का काव्य: डॉ. हुकुमचंद राजपाल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण: 2012, पृ.सं.-29, 11. वही, पृ.सं.-35, 12. आलोचना के परिसर: गोपेश्वर सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण: 2012, (आलोचना के परिसर के बारे
में ....का अंश) 13. कविता का गल्प: अशोक वाजपेयी, राधाकृष्ण
प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण: 1996, पृ.सं.-116-117 14. रचना प्रक्रिया से जूझते हुए: लीलाधर जगूड़ी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण: 2015, पृ.सं.-15-16, 15. वही, पृ.सं.-20, 16. वही, पृ.सं.-19, 17. राजकमल चौधरी रचनावली: खण्ड-5: सं. देवशंकर
नवीन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण: 2015, पृ.सं.-236 18. संस्कृति की उत्तरकथा: शंभुनाथ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण: 2000, पृ.सं.-143, 19. राजकमल चौधरी की रचना-दृष्टि: देवशंकर नवीन, सेतु प्रकाशन, नोएडा (उत्तर प्रदेश), प्रथम संस्करण: 2023, पृ.सं.-209, 20. पक्षधर: सं. विनोद तिवारी, जनवरी-जून 2020, पृ.सं.-85, 21. राजकमल चौधरी रचनावली: खण्ड-2: सं. देवशंकर
नवीन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण: 2015, पृ.सं.-72, 22. वही, पृ.सं.-229, 23. हिन्दी साहित्य: संक्षिप्त इतिवृत्त: शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण: 2018, पृ.सं.-103-104, 24. कविता: पहचान का संकट: डॉ. नन्दकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, तीसरा संस्करण: 2012, पृ.सं.-51-52, 25. राजकमल चौधरी रचनावली: खण्ड-5: सं. देवशंकर
नवीन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण: 2015, पृ.सं.-214, 26. वही, पृ.सं.-214, 27. वही, पृ.सं.-187, 28. वही, पृ.सं.-187, 29. वही, पृ.सं.-187, 30. वही, पृ.सं.-187, 31. पाश्चात्य काव्यशास्त्र: डॉ. तारकनाथ बाली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण: 2020, पृ.सं.-299, 32. रचना समय: सं. बृजनारायण शर्मा, अनिल जनविजय, अतिथि संपादक: हरि भटनागर, जनवरी 2013, पृ.सं.-171, 33. आलोचना और विचारधारा: नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण: 2014, पृ.सं.-(VIII) 34. रचना समय: सं. बृजनारायण शर्मा, अनिल जनविजय, अतिथि संपादक: हरि भटनागर, जनवरी 2013, पृ.सं.-175, |