ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- XII January  - 2024
Innovation The Research Concept

उत्तर भारतीय रागों में सापेक्षता

Relativity in North Indian Ragas
Paper Id :  18432   Submission Date :  2024-01-05   Acceptance Date :  2024-01-08   Publication Date :  2024-01-10
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DOI:10.5281/zenodo.10479614
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गौतम तिवारी
सहायक प्रवक्ता
कला संकाय विभाग
दयालबाग़ शिक्षण संस्थान,
आगरा,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश

भारतीय शास्त्रीय संगीत में "राग" की अवधारणा अपने आप में विशेष है। रागों का अध्ययन करने के लिए उन्हें स्वतंत्र रूप से या निरपेक्ष रूप से समझना तो आवश्यक होता ही है परन्तु गहराई से समझने के लिए उन्हें अन्य रागों से तुलना करके भी अध्ययन किया जाता है। राग के सूक्ष्म अध्ययन के लिए उसे अन्य रागों से तुलना कर के अध्ययन करना शास्त्रीय संगीत के अध्ययन या शिक्षण का विशिष्ट पक्ष है। इस अध्ययन के लिए सापेक्षता का नियम विशेष रूप से कार्य करता है। रागों में लगने वाले स्वरों का चलन, स्वरों का अल्पत्व-बहुत्व, स्वरों के अलंकरण (गमक, आन्दोलन आदि), स्वरों के तीव्र-तीव्रतम रूप तथा रागों की गति आदि तत्वों का अध्ययन और शिक्षण अन्य रागों से तुलना के आधार पर करने से सरल और सुगम हो जाता है। अध्ययन का स्तर बढ़ने के साथ ही सापेक्षता का नियम अधिक कारगर होता है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The concept of "Raga" in Indian classical music is special in itself. To study ragas, it is necessary to understand them independently or in absolute terms, but to understand them in depth, they are also studied by comparing them with other ragas. To study a raga in detail by comparing it with other ragas is a special aspect of studying or teaching classical music. The law of relativity works specifically for this study. The study and teaching of the elements like movement of notes in Ragas, minority-majority of notes, ornamentation of notes (Gamak, Aandolan etc.), intensity-fastest form of notes and speed of Ragas etc. is easier than doing it on the basis of comparison with other Ragas. And it becomes easier. As the level of study increases, the law of relativity becomes more effective.
मुख्य शब्द सापेक्षता, समरूप राग, अल्पत्व-बहुत्व, स्वर के विभिन्न रूप, राग की गति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Relativity, Similar Raga, Minority-Multipleness, Different Forms of Swara, Speed of Raga.
प्रस्तावना

समस्त भारत में भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो पद्धतियाँ लोकप्रिय हैं- उत्तर भारतीय संगीत पद्धति तथा दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति उत्तर भारतीय संगीत पद्धति को बोलचाल की भाषा में हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति भी कहा जाता है। उसी प्रकार दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति को कर्णाटक संगीत पद्धति भी कहते हैं। दोनों ही पद्धतियों में रागों का एक विशाल भंडार मिलता है। इन रागों के गायन, स्वर प्रयोग, रचनाओं आदि तत्वों के आधार पर ही दोनों पद्धतियों में तुलना की जा सकती है। अपने उद्भव काल से ही भारतीय शास्त्रीय संगीत अनेक परिवर्तनों के साथ विकसित होता रहा। परिवर्तनों के आधार पर देखा जाये तो दोनों पद्धतियों में से उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत जितना परिवर्तन और विकास हुआ उतना दक्षिण भारतीय संगीत में नहीं हुआ। उत्तर भारतीय पद्धति में अनेक ऐसे तत्व मिलते हैं जो कर्णाटक पद्धति में नहीं पाए जाते। उदाहरण के लिए - कर्णाटक संगीत में किसी एक स्वरावली से एक ही राग का निर्माण होता है जबकि हिन्दुस्तानी शैली में एक स्वरावली से एक से अधिक रागों का निर्माण मिलता है। एक उदहारण से यह कथन और भी स्पष्ट हो जायेगा। सा रे ग प ध, इस स्वरावली या ग्राम द्वारा कर्नाटिक शैली में राग मोहनम गया जाता है वहीं दूसरी ओर हिन्दुस्तानी शैली में इस स्वरावली से राग भूपाली, राग देशकार, राग जैत कल्याण, राग शुद्ध कल्याण (एक विशेष प्रकार)एक प्रकार जाता है और  , इस प्रकार अनेक राग पाए जाते हैं। ग्राम एक होते हुए भी चलन भेद के आधार पर इन रागों में पर्याप्त अंतर पाया जाता है जो कि किसी शिक्षक द्वारा मौखिक विधि से ही सीखा जा सकता है। गायन में किस स्वर को अधिक महत्त्व देना है और किस स्वर को कम, स्वरों का क्रम किस प्रकार रखना है, राग को पूर्वांग में अधिक गाना है या उत्तरांग में तथा रागों को गाने की गति आदि तत्व विशेष महत्त्व के होते हैं। इन्हीं तत्वों के आधार पर रागों का शिक्षण प्रदान किया जाता है तथा अभ्यास के समय भी इन्हीं तत्वों को साधने का प्रयास किया जाता है। इन तत्वों में एक अति महत्वपूर्ण तत्व पाया जाता है जिसे हम सापेक्षता कह सकते हैं।

अध्ययन का उद्देश्य

रागों में सापेक्षता के नियम को समझना और उसकी सहायता से अध्ययन एवं शिक्षण को सरल और सुगम बनाना।

साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकोंशोधपत्रों और वेबसाइट स्रोतों का अध्ययन किया गया है

मुख्य पाठ

प्रस्तुत अध्ययन में उत्तर भारतीय रागों में सापेक्ष के तत्व का अध्ययन करने का प्रयास किया गया है। सापेक्ष का अर्थ है कि जब किसी तत्व को उसके आसपास के या उससे जुड़े हुए तत्वों की तुलना में या अपेक्षा में देखा जाये या अध्ययन किया जाये। राग में लगने वाले स्वरों में समझने के लिए सापेक्षता का तत्व ही विशेष काम करता है। किसी राग में लगने वाला कोई स्वर उसी राग में लगने वाले स्वरों से प्रमाण में कितना भिन्न है, कोई विशेष स्वर किसी अन्य राग की अपेक्षा किस प्रमाण में प्रयुक्त होगा, एक ही स्वरावली (ग्राम) से उत्पन्न रागों में स्वरों का प्रमाण किस प्रकार भिन्न होगा, रागों में निहित गति के अंतर्गत किसी स्वर को अन्य रागों की अपेक्षा किस प्रमाण में प्रयोग किया जायेगा, ये तत्व ही हमें "रागों में सापेक्षता" के अध्ययन के लिए पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं। प्रस्तुत अध्ययन को इन्हीं बिदुओं के आधार पर वर्णन करने का प्रयास किया गया है।

समरूप रागों के स्वरों में सापेक्षता - अध्ययन के पहले अनुच्छेद में भी इस विषय में चर्चा की गई है कि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में अनेक राग ऐसे होते हैं जिनके स्वर समान होते हैं। कतिपय राग ऐसे भी हैं जिनके आरोह-अवरोह पूर्णतः समान होते हैं। ऐसे रागों के स्वरुप को ग्रहण करने के लिए इनके स्वरों के लगाव को गहनता से समझना होता है और उसके लिए सापेक्षता का नियम कार्य करता है। किन्हीं दो समान स्वर वाले रागों में कोई विशेष स्वर दोनों रागों में किस प्रकार लगेगा, किन स्वरों के साथ लगेगा और किस प्रमाण में लगेगा यह जानना सापेक्षता के मध्यम से ही संभव होता है। उदाहरण के लिए राग देशकार को समझने से पूर्व राग भूपाली जान लेना अत्यधिक उपयोगी होता है। भूपाली का आश्रय राग कल्याण होने के कारण ऋषभ और गंधार स्वर की प्रबलता होती है और उनका प्रयोग बाहुल्य होता है। जबकि देशकार का ऋषभ अत्यंत दुर्लभ होता है। भूपाली के प्रबल ऋषभ को आत्मसात करके देशकार के ऋषभ को समझना सरल हो जाता है। इसी प्रकार भूपाली का चलन मुख्यतः सप्तक के पूर्वांग में रहता है और देशकार के स्वरुप को बनाये रखने के लिए उसका चलन मुख्यतः सप्तक के उत्तरांग में रखना होता है। देशकार का धैवत भूपाली की अपेक्षा अधिक प्रबल होता है।

एक और उदाहरण राग मारवा और पूरिया का यहाँ ग्रहण करना उपयुक्त होगा। दोनों ही रागों के आरोह-अवरोह सा रे ग मे ध नि सा, सा नि ध मे ग रे सा, इस प्रकार होते हैं. राग मारवा में ऋषभ और धैवत स्वर प्रबल हैं वहीं राग पूरिया में गंधार और निषाद स्वरों की प्रबलता है। राग पूरिया में मन्द्र सप्तक की प्रधानता है वहीं राग मारवा में मध्य सप्तक प्रधान है। राग पूरिया की गति विलंबित है वहीं मारवा की गति पूरिया की अपेक्षा कम विलंबित है।

स्वरों के आन्दोलन को लेकर भी इसी प्रकार की शिक्षा राग प्रशिक्षण में प्रदान की जाति है। राग भैरव का ऋषभ और धैवत आन्दोलन युक्त प्रयुक्त होता है जबकि राग रामकली जोकि भैरव थाट से ही उत्पन्न माना गया है उसमें भी ऋषभ और धैवत का आन्दोलन है परन्तु यह आन्दोलन राग भैरव के ऋषभ और धैवत के आंदोलनों जैसा गंभीर नहीं है। इसी प्रकार राग दरबारी कान्हड़ा में आंदोलित गंधार का प्रयोग होता है और यह गंधार भी समान रूप से लगने वाले कोमल गंधार से अधिक कोमल होता है। कान्हड़ा के अन्य प्रकारों में भी गंधार कोमल है और आन्दोलन युक्त है परन्तु उसका आन्दोलन दरबारी कान्हड़ा जैसा गंभीर नहीं है और न ही गंधार अति कोमल है।

उपरोक्त रागों के उदाहरण से यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि रागों के परस्पर सभी अंतर दोनों रागों को गहनता से सीखने के तत्पश्चात उनकी तुलना कर के सरलता से समझा जा सकता है। दोनों रागों के सभी अंतर एक दूसरे की अपेक्षा में अध्ययन कर के ग्रहण करना विषय को सरल कर देता है।

राग के स्वरों में परस्पर सापेक्षता - किसी राग में किसी स्वर का लगाव दूसरे स्वर की अपेक्षा किस प्रमाण में होगा यह तत्व किसी राग को पूर्ण रूप से जानने के लिए आवश्यक है। इसी तत्व को शास्त्रों में अल्पत्व-बहुत्व कहा गया है। किसी राग में सभी स्वर समान प्रमाण में नहीं प्रयुक्त होते, किसी स्वर का बहुत्व होता है अर्थात वह बार-बार प्रयुक्त होता है और किसी स्वर का अल्पत्व होता है अर्थात वह बार-बार प्रयुक्त नहीं होता, उसका प्रयोग कम करना होता है। उदाहरण स्वरुप अत्यंत लोकप्रिय राग भैरव के स्वरों का अवलोकन करें तो उसमे ऋषभ का प्रयोग गंधार स्वर की अपेक्षा बहुत्व में है। इसी प्रकार उत्तरांग के स्वरों में निषाद की अपेक्षा धैवत स्वर का प्रयोग अधिक होगा। राग भीमपलासी में ऋषभ की अपेक्षा गंधार स्वर बहुत्व में प्रयुक्त होता है। एक अन्य उदाहरण में राग मियाँ की तोड़ी में पंचम अत्यंत अल्प प्रमाण में प्रयुक्त होता है, क्वचित पंचम लगाकर फिर उसका लंघन कर दिया जाता है। पंचम का बहुलता से प्रयोग राग को भ्रष्ट कर देगा।

रागों में प्रयुक्त स्वरों में कई स्वर ऐसे होते हैं जिन पर विश्राम किया जा सकता है, जिन्हें संगीत की भाषा में न्यास के स्वर कहते हैं। उदाहरण के लिए राग बागेश्री में न ही ऋषभ पर और न ही गंधार पर विश्राम किया जा सकता है परन्तु मध्यम विश्राम के लिए उपयुक्त रहता है जिससे कि बागेश्री के स्वरुप को कोई हानि नहीं होती। इसी प्रकार राग यमन में ऋषभ स्वर पर, गंधार स्वर पर तथा पंचम स्वर पर तो विश्राम कर सकते हैं परन्तु तीव्र मध्यम स्वर पर न्यास करना राग के स्वरुप को भ्रष्ट कर देगा।

राग के अध्ययन के अंतर्गत इस तत्व को समझने के लिए भी सापेक्षता का नियम ही कार्य करता है। राग में लगने वाले स्वरों में किस स्वर को दूसरे स्वर की अपेक्षा अल्प प्रमाण में लगाना है और किसको अधिक तथा किस स्वर पर न्यास करना है और किस पर नहीं, यह सब परस्पर तुलना से या सापेक्षता से ही समझा जा सकता है। राग शिक्षण-प्रशिक्षण में यह तत्व विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है।

स्वर विशेष का भिन्न-भिन्न रागों में प्रयोग - उत्तर भारतीय रागों की एक विलक्षणता यह भी है एक ही स्वर अलग-अलग रागों में अपनी अलग-अलग तीव्रता में प्रयुक्त किया जाता है। राग भैरव और राग तोड़ी, दोनों ही रागों में कोमल ऋषभ का प्रयोग किया जाता है परन्तु राग भैरव का ऋषभ राग तोड़ी के ऋषभ से नितांत भिन्न है। राग तोड़ी का ऋषभ राग भैरव के ऋषभ की अपेक्षा अधिक कोमल होता है। राग देशकार का धैवत राग भूपाली के धैवत की अपेक्षा क्वचित ऊँचा होता है। राग चंद्र्कौंस का निषाद सामान्य शुद्ध निषाद से क्वचित तीव्र प्रयुक्त होता है। राग दरबारी कान्हड़ा का अति कोमल गंधार एक अत्यंत लोकप्रिय उदाहरण है। राग दरबारी कान्हड़ा में लगने वाला कोमल गंधार सामान्य रूप से यथा राग बागेश्री, राग भीमपलासी आदि में लगने वाले कोमल गंधार से कम तीव्र अर्थात और अधिक कोमल होता है।

राग भीमपलासी और राग बागेश्री अरोहात्मक प्रयोग में लगने वाला कोमल निषाद अवरोहात्मक कोमल निषाद से अधिक तीव्र होता है। मौखिक विधि या वाचिक विधि से शिक्षण-प्रशिक्षण होने के कारण यह प्रयोग स्वतः ही आत्मसात हो जाते हैं।

राग शिक्षण में स्वरों का उपरोक्त विशिष्ट लगाव सापेक्षता के कारण ही स्पष्ट रूप से सीखा और सिखाया जा सकता है। कोमल गंधार युक्त राग भीमपलासी या बागेश्री सीखने के बाद अति कोमल गंधार युक्त राग दरबारी सीखना क्वचित सरल हो जाता है। संभवतः यही कारण है कि दरबारी राग के शिक्षण से पहले इन रागों का शिक्षण संगीत शिक्षण की परंपरा में अनिवार्य माना जाता है।

रागों की गति - रागों के जन्म के साथ ही उनकी एक प्राकृतिक गति भी निर्धारित होती है। शास्त्रों में इस विषय में अनेक प्रमाण मिलते हैं कि किस राग की गति कैसी होनी चाहिए।

राग मल्हार (मियाँ मल्हार) का परिचय देते हुए पंडित ओंकार नाथ ठाकुर का कथन है "मन्द्र मध्य की विलंबित आलापचारी में यह राग गंभीर प्रकृति धारण करता है..................................................सामान्य रूप से यह मध्यम प्रकृति का राग है"

राग बसंत का विवरण देते समय अपनी पुस्तकसंगीतांजलि में उन्होंने लिखा है "इसकी प्रकृति कहीं चंचल, कहीं गंभीर यों मिश्र रहती है"

पंडित ओंकार नाथ जी के ये दोनों कथन राग की गति का ही बोध कराते हैं।

समान स्वरों से युक्त रागों में यह तत्व अध्ययन के लिए और भी विशेष माना जाता है। उदाहरण के लिए राग भैरव की गति विलंबित और गंभीर मानी जाती है जबकि उन्हीं स्वरों से युक्त राग रामकली जो चलन में भी अधिकांशतः भैरव के समान है उसकी गति भैरव की अपेक्षा चंचल मानी जाती है। रामकली के स्वरों के प्रयोग में भैरव सदृश गंभीरता नहीं होती। इसी प्रकार समान स्वर वाले राग दरबारी कान्हड़ा और राग अड़ाना की गति में भी भेद है। दरबारी की गति अति गंभीर और विलंबित है जबकि अड़ाना की गति अपेक्षाकृत चंचल। रागों की गति का प्रभाव इतना अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है कि अनेक विद्वानों का ये भी कथन है कि गंभीर रागों में अति द्रुत तानों का प्रयोग उसके गंभीर स्वरुप को हानि पहुँचाता है।

निष्कर्ष

रागों के गति सम्बन्धी तत्वों का अध्ययन बिना सापेक्षता के नियम का अवलंब लिए संभव नहीं है। किस एक राग की गति, चाहे विलंबित हो या द्रुत अथवा चंचल हो या मंद, को ग्रहण करने के बाद ही किसी अन्य गति युक्त राग को ग्रहण कर पाना संभव हो सकता है। राग दरबारी को सीखने के बाद राग अड़ाना का शिक्षण सुलभ हो जाता है।

रागों के अध्ययन में सापेक्षता का तत्व राग शिक्षण को सरल और सुलभ बनाने में विशिष्ट सहयोगी है। शिक्षण का स्तर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। सरल रागों के बाद जटिल औत फिर जटिलतम रागों की शिक्षा का क्रम आता है। सरल रागों के स्वरुप के अध्ययन में हम स्वरों का लगाव, उनके प्रमाण का, अल्पत्व-बहुत्व का, अन्य रागों की अपेक्षा में लगने वाला प्रमाण का और स्वरों के तीव्रतर रूपों का और रागों के स्वर प्रयोग की गतियों का अध्ययन करते हैं। प्राथमिक स्तर के रागों के अध्ययन के आधार पर ही उच्चतर स्तर के रागों का शिक्षण-प्रशिक्षण किया जाता है और इस प्रक्रिया में सापेक्षता का तत्व अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

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