ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- XI February  - 2024
Anthology The Research

शिवलहरी में वर्णित प्रमुख दार्शनिक तत्त्व

Shivalahari mein Varnit Pramukh Darshanik Tattv
Paper Id :  18222   Submission Date :  2024-02-11   Acceptance Date :  2024-02-23   Publication Date :  2024-02-25
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DOI:10.5281/zenodo.11487703
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राजमल मालव
प्रोफेसर
संस्कृत विभाग
राजकीय कन्या कला महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
हरकेश बैरवा
प्रोफेसर
संस्कृत विभाग
राजकीय कन्या कला महाविद्यालय
कोटा, राजस्थान, भारत
सारांश

राजस्थान के शास्त्रकाव्य रचनाओं में आधुनिक युग के कवि एवं विद्वान डॉ. रामदेव साहू द्वारा रचित शिवलहरीमें दार्शनिक सिद्धान्तों की परिधि में शिवस्तुति के रूप में तत्त्वालोचन को मार्ग प्रशस्त किया है। आधुनिक शिक्षार्थी जिनके लिए भारतीय दर्शन का सांगोपांग अध्ययन संभव नहीं है, वे इस लघु ग्रन्थ में वर्णित शास्त्रीय सिद्धान्तों का भी यदि भाववोध कर लेते हैं तो दार्शनिक विचारों का एक प्रबल आधार उन्हें प्राप्त हो सकता है। इस दृष्टि से शिवलहरी दार्शनिक तत्वज्ञान के विषय में अत्यन्त मूल्यवान कृति है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Among the literary works of Rajasthan, 'Shivalhari' written by modern era poet and scholar Dr. Ramdev Sahu has paved the way for philosophical criticism in the form of Shivastuti within the scope of philosophical principles. If modern learners, for whom comprehensive study of Indian philosophy is not possible, can understand the classical principles mentioned in this short book, then they can get a strong foundation of philosophical ideas. From this point of view, Shivlahari is a very valuable work on philosophical philosophy.
मुख्य शब्द लहरी, परात्पर, ब्रह्मतत्त्व, तत्त्वमसि, चराचरभूत,कमलपत्र, अविद्या, मायाशक्ति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Lahari, Paratpar, Brahmatattva, Tattvamasi, Characharbhuta, Lotus leaf, Avidya, Mayashakti.
प्रस्तावना

वैश्विक स्तर पर संस्कृत का प्रचार-प्रसार एवं पुनः संस्कृत को प्राचीन गौरव दिलाने में आधुनिक संस्कृत कवियों का विशेष योगदान रहा है। इस समय संस्कृत साहित्य में नयी विद्याओं में महाकाव्य, उपन्यास, आख्यान, मुक्तकाव्य, लहरीकाव्य, आत्मवृत्त, लघुकथा, गीतिकाव्य, काव्यशास्त्रीय आदि ग्रन्थ लिखे गये। डॉ. रामदेव साहू द्वारा रचितशिवलहरी20वीं शताब्दी का ग्रन्थरत्न है, जिसमें कुल 151 पद्य निब़़द्ध है। शास्त्रीय परम्परा में लहरीनामक कोई साहित्यिक विधा का प्रख्यापन प्राप्त नहीं होता है। अनुभुति के स्तर पर रससिद्ध कवियों ने अपनी सघन संवेदनाओं को जिन रूपों में अभिव्यक्त किया उनमें एक विशिष्ट रूप का नामकरण लहरी कर दिया। लहरी शब्द की व्युत्पत्ति लहरीशब्द से इन्प्रत्यय लगाने पर होती, जिसका अर्थ लहर या तरंग है। लहर आविर्भाव और विश्रान्ति का आधार जलाशय होता है, जिस प्रकार जलाशय में एक लहर उठती है और आगे अनुगामी होकर मनोरम दृश्य उपस्थित कर देती है, उसी प्रकार कवि के हृदय अथवा मनोभूमि के आश्रय में सघन संवेदनाओं के आधार से भावों की लहर प्रादुर्भूत होती हुई आगे बढ़ती हुई उसी मूल भाव को अविच्छिन्न रूप सेे ग्रहण करती है। जब भावनाओं की सघन, सान्द्र और एकीभूत अभिव्यक्ति छन्दोबद्ध होकर नाद सौन्दर्य की सृष्टि करती है तो वहाँ भावनाओं की लहरें गीत्यात्मक लहरी-काव्य के रूप में पर्यवसित होती है।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य शिवलहरी में वर्णित प्रमुख दार्शनिक तत्वों का अध्ययन करना है ।

साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोधपत्र के लिए शिवलहरी पद्य, वेदान्तदर्शन तथा भारतीय दर्शन आदि पुस्तकों का अध्ययन किया गया है

मुख्य पाठ

शिवलहरी में वर्णित प्रमुख दार्शनिक तत्त्वों का उल्लेख किया जा रहा है-

1. शिवतत्त्व

शिव अथवा रुद्र की उपासना प्रायः वैदिक काल से प्रचलित थी। यजुर्वेद में शतरुद्रि अध्याय एवं रुद्राष्टाध्यायीपर्याप्त प्रसिद्ध रहे हैं। तन्त्रशास्त्रों में भी शिव को परात्परकहा गया है। उपासना से सम्बन्धित शिवलहरी के एक पद्य में लिखा है कि हे परमशिव ! आपको ऋग्वेद उक्थ (ओंकार) कहकर पुकारता है, तो यजुर्वेद यज्ञाग्निके रूप में आपका उपासक है, सामवेद आपको क्रतु (कर्म) कहता है तथा उपनिषदों में आपको कंतथा खंदो रूपों में स्वीकार किया गया है। पुराणों में आपको विष्णु माना गया तथा तन्त्रशास्त्रों में जो देवोपासना की विधियां प्रतिपादित है उनमें आपको हकार के द्वारा सम्बोधित किया गया है। छन्दशास्त्र आपको गायत्री के रूप में और शैवादि प्रिय सम्प्रदायवादियों के द्वारा शिवनाम से कहा गया है, इस प्रकार आपकी सत्ता को कौन स्वीकार नहीं करता -

ऋजूंषि त्वामुक्थं परशिव! यजूंष्यग्निरिति च, क्रतुस्सामान्याहुः कमिति खमिदं चोपनिषदः।

पुराणा वै विष्णुर्हमिति च पुनस्तन्त्रविधयः, सुवृत्ता गायत्री शिव इति तु शैवाः प्रियतराः।।[1]

शिवलहरी में शिव को परमतत्त्व माना है, इसी कारण शिव शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। जिसे परमात्मा, परमेश्वर, परमशिव आदि नामों से जाना जाता है। कवि के द्वारा शिव को परमतत्त्व के रूप में स्वीकार करने के पीछे शैव-सम्प्रदाय का प्रभाव परिलक्षित होता है। शैवों के चार सम्प्रदायों में प्रथम शैव-सम्प्रदाय, शैवागम या शैवतन्त्र के माध्यम से पल्लवित हुआ है, इसे पूर्णतः वैदिक प्रमाणित किया गया है। श्रीकण्ठ इत्यादि शैवाचार्यों ने माहेश्वर तन्त्रों की तीन कोटियाँ निर्धारित की थी, उनमें शिव, रुद्र तथा भैरव का निर्देश किया गया था। ये तीन कोटियाँ क्रमशः द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत परक थी। इन तीनों अवधारणाओं को मूलतः वेदान्त में भी अपनाया गया अतः वेदान्त का ब्रह्म तथा शैव सम्प्रदाय का शिव एक ही परमतत्त्व है, यह तथ्य शिवलहरी के वर्णनों से स्पष्ट हो जाता है। संसार के मूल को खोजते हुए दार्शनिकों ने काल, स्वभाव, नियति, प्रकृति, अव्याकृत आदि सूक्ष्म श्रेष्ठ तत्त्वों का प्रतिपादन किया, परन्तु वास्तव में परब्रह्म इनसे भी परे होने के कारण उसे परात्पर कहा है।

2. ब्रह्मतत्त्व

एक मात्र सत्य परब्रह्म है, जो अखण्ड चैतन्य व आनन्द स्वरूप है, वह स्वभाव से अपनी माया के द्वारा समस्त सृष्टि रचना की क्रीड़ा करते हैं, उसी क्रीड़ा के वशीभूत समस्त विश्व को अपने में लीन कर लेता हैं। कैवल्योपनिषद् में निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकार एवं सगुण-साकार ध्येय का प्रतिपादन है। इन तीनों प्रकार से उपास्य तत्त्व को अपनाने पर ही परब्रह्म का पूर्ण स्वरूपसिद्ध होता है।

वेदान्त में निर्गुण, निरवयवी, सर्वनियन्ता, सर्वव्यापी, नित्य, चैतन्य स्वरूप ब्रह्म का दो दृष्टिकोणों से विचार किया गया है, व्यवाहारिक दृष्टि एवं पारमार्थिक दृष्टि-द्विरूपं हि ब्रह्म अवगम्यते नामरूपविकारभेदोपाधिविशिष्टं तद्विपरीतं च सर्वोपाधिविवर्जितम्। व्यवाहारिक दृष्टि से विचारित ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है-तटस्थलक्षणं तु यावल्लक्ष्यकालमनवस्थितत्वे सति तदव्यावर्तकं तदेव यथा गन्धत्वं पृथिवी लक्षणम्। और पारमार्थिक दृष्टि से विचारित ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है-तत्र स्वरूपमेव लक्षणं स्वरूपलक्षणं यतासत्यादिकं ब्रह्म स्वरूपलक्षणम्।व्यवाहारिक दृष्टि या तटस्थ लक्षण से तात्पर्य है- ब्रह्म के उस स्वरूप से जिसमें उसको जगत् का उत्पन्नकर्त्ता, पालक एवं संहारक आदि रूपों में देखा जाता है। यह लक्षण उसके केवल अवस्थागत गुणों का निर्देश करता है, यथा कोई व्यक्ति रंगमंच पर किसी पात्र विशेष के अभिनय करने से कुछ काल तक उसी पात्र विशेष के रूप में सम्बोधित किया जाता है, किन्तु अभिनय अवधि के उपरान्त वह अपने यथार्थ रूप में सम्बोधित किया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म भी अपने यथार्थ रूप में निर्गुण सत्-चित् तथा आनन्दस्वरूप है।

शिवलहरीमें कवि ने यह स्वीकार किया है कि सोपाधिक एवं निरूपाधिक ब्रह्म की सत्ता के रूप में ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों स्वरूप जागतिक प्राणी के लिए महान् आश्चर्य के विषय है, क्योंकि निरूपाधि परब्रह्म की सीमा कहाँ तक है यह नियत नहीं है-

महाँश्चित्रँस्तावत्सगुणमगुणं रूपयुगलम्, पर ब्रह्माख्यन्ते तदनियतसीम्नः पतिकरः।[2]          

यद्यपि सत्व, रजस् एवं तमस् इन तीन गुणों से रहित होने के कारण ब्रह्म को निर्गुण कहा है, किन्तु उसमें अनेक ऐसे गुण है, जिनसे उसका सगुण होना सिद्ध हो जाता है, जैसे ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, तेज, वीर्य, वात्सल्य, करुणा इत्यादि। सगुणब्रह्म की परिकल्पना में कवि पर वैष्णव विचारधारा का प्रभाव परिलक्षित होता है, क्योंकि उसके स्वरूप में जिस ईश्वरतत्त्व की कल्पना है, उसकी चार शक्तियों का सूक्ष्म संकेत किया गया है- अचिन्त्यशक्ति, आधेयशक्ति, सहजशक्ति एवं पदशक्ति। इससे स्पष्ट है कि सगुणब्रह्म निर्गुणब्रह्म का ऐसा शक्तिमय स्वरूप है जो सब प्रकार के कर्तृत्व का अधिष्ठाता है। माया रूप प्रकृति को भौतिक तत्त्व मानकर ब्रह्म के सत्-चिद् एवं आनन्द तीनों अंशों को अविकारी प्रतिपादित किया गया है। ब्रह्म के सत् अंश से भौतिक पदार्थों का जन्म स्वीकार करना तथा चित् अंश से जीवों का आविर्भाव स्वीकार करना वेदान्त के गुणरहस्य की ओर संकेत दिया है।

3. तत्त्वमसि

तत्त्वमसि महावाक्य का अर्थ है- वह ब्रह्म तुम्हीं हो।इस वाक्य में तत् (परब्रह्म शुद्ध चैतन्य) और त्वम् (व्यष्टिरूप अज्ञानोपाधियुक्त चैतन्य) का तात्पर्य भी स्वयं ही विदित है। सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम एवं रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय ब्रह्मही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है और उसी ब्रह्म को तत्त्वमसिकहा गया है।यह महावाक्य साक्षादुपदेश होने के कारण विद्वानों के मध्य बड़ा विख्यात है। अध्यारोप और अपवाद से यह अच्छी तरह स्पष्ट हो जाने पर सम्पूर्ण नामरूपात्मक संसार ब्रह्म ही है और यही सब नाम रूपात्मक जगत् है। आचार्य अपने शिष्य को कहते हैं कि तत् त्वम् असि-तुम वह हो। सामने बैठा हुआ, शरीरधारी, सीमित ज्ञान वाला, इन्द्रिय आदि से युक्त पुरुष (तुम)परोक्ष, सर्वव्यापी, चित्-आनन्द स्वरूप, वह=तत्=ब्रह्म हो। तत् और त्वम् दोनों भावनाओं में चैतन्य तो समान रूप से दोनों ही में है, इनमें कोई भेद या विरोध नहीं है। दोनों के गुणों में परस्पर भेद है। अतएव जब आचार्य कहते है कि तत् त्वम् असि तब उनका का अभिप्राय यही है कि त्वम् का चैतन्य और तत् काचैतन्य एक ही है। अन्य गुण जो दोनों के सम्बन्ध में कहे जाते हैं, वे तुच्छ है। तस्मात् उन भेदक तुच्छ बातों का परित्याग कर एक चैतन्य दूसरे चैतन्य से भिन्न नहीं है, दोनों एक ही है। यह जहद्-अजहत् लक्षणा के द्वारा तत्त्वमसि इस महावाक्य का वाक्यार्थ-बोध हो जाता है। वाक्य तीन सम्बन्धों द्वारा अखण्डैकार्थबोधक होता है।

 तत्त्वमसिइत्यादि महावाक्यों द्वारा जिस जीव का ईश्वर से अभेद प्रतिपादित किया है, वह जीव मुक्तजीव ही है। साधक आचार्य के उपदेश के प्रभाव से तत्त्वमसि इस वाक्य के तत् और त्वम् दोनों के अर्थ को साक्षात् अनुभव कर, ब्रह्म का अखण्ड-बोध प्राप्त कर, जीव अपने को नित्य, शुद्ध, मुक्त, सत्य स्वभाव का अनुभव करने लगता है। इस विषय में शुद्ध एवं मुक्तजीव के मध्य पार्थक्य को कवि ने चिद् अंश का उल्लेख करके स्पष्ट कर दिया है। जीव और ब्रह्म की अभेदता को तीन प्रकार के सम्बन्धों से प्रतिपादन में ब्रह्म ही ज्ञापकता का हेतु है, जिसे त्रितियान्त द्वारा यहाँ निर्दिष्ट किया गया है-विशिष्टैस्साकं तत्त्वमसिकथितैः प्रौढवचनै, स्त्रयो यत्सम्बन्धा अपि निगदिताः ज्ञापकतया।[3]

4. अहं बह्म्रास्मि

अहं ब्रह्मास्मि अनुभव वाक्य है, तत्त्वमसि उपदेश वाक्य है। अनुभव का अर्थ है- ब्रह्म से साक्षात्कार अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ।यहाँ अस्मिशब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। आचार्य के द्वारा उपदेश प्राप्त करके ब्रह्म को विषय बनाकर अहं ब्रह्मास्मिइस स्वरूप की अखण्डाकार आकार वाली उसकी चित्तवृत्ति हो जाती है। उस अखण्डाकार आकार वाली चित्तवृत्ति का एकमात्र लक्ष्य विषय तो अब ब्रह्म ही है। अतएव उसी की ओर लक्ष्य कर वह वृत्ति प्रवृत्त होती है। ब्रह्म के साथ साक्षात्कार होने के पूर्व ही उस वृत्ति को ब्रह्म के घेरे हुए अज्ञान का सामना करना पड़ता है। तब उस वृत्ति के साथ चित्त का प्रतिबिम्ब भी रहता ही है और उसके प्रभाव से अज्ञान का नाश हो जाता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाने से उसी समय वह अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ) कह उठता है।

शिवलहरी के अनुसारआचार्यों ने जीव और ब्रह्म की अभेद स्थिति में अखण्डार्थ के बोध के लिए जीवांश और ब्रह्मांश दोनों की युगपद स्थिति के उद्देश्य से अहं ब्रह्मास्मि इत्यादि दूसरे वाक्यों से भी ब्रह्म का उपदेश किया है। सांसारिक विषयों से अवछिन्न उस नित्य ब्रह्म में चित्त की वृत्तियाँ समाहित करने वाले निरतिशय सत्स्वरूप और परमानन्दमय स्थिति विद्यमान विशुद्ध ब्रह्म के द्वारा ही उस परमतत्त्व का अनुभव किया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि पहले आचार्य अहंब्रह्मास्मि इत्यादि वाक्यों के द्वारा अखण्डार्थ का उद्भूद् कराता है। इसके परिणाम स्वरूप चित्त की वृत्तियाँ अद्वैत भावना में निष्ठ होकर उससे उपहित मन उस परमतत्त्व में एकनिष्ठ हो जाता है, यह एक आनुक्रमिक प्रक्रिया है-

अखण्डार्थोद्बोधे युगपदुभयांशैक्यनियते, अहं ब्रह्मास्मीत्यादिभिरपि पदैः प्रत्युपदिशन्।

चिदो वृत्तिर्नित्येऽद्वयमनवछिन्ने कृतवता, परानन्दे शुद्धं निरतिशयसन्निष्ठमनसा।।[4]

5. आत्मतत्त्व

आत्मादार्शनिकों का विशेष महत्त्वपूर्ण वर्ण्य-विषय है, आचार्य शंकर ने आत्मा को स्वयंसिद्धकहा है। वह कोई बाह्य वस्तु नहीं है, उसका निराकरण असम्भव है, निराकरण तो बाहर से आई वस्तु का ही होता है न कि अपने रूप का।अग्नि से उसकी उष्णता का निराकरण नहीं किया जा सकता है-आत्मा तु प्रमाणादि व्यवहाराश्रयत्वात प्रागेव प्रमाणादि व्यवहारात् सिद्धयति। न च तस्य निराकरणं सम्भवति। आगन्तुक हि वस्तु निराक्रियते, न स्वरूपम्। न हि अग्नेरोष्माग्निना निराक्रियते।

आत्मरूप में आपकी सत्ता को लौकिक प्रमाणों के ज्ञान के माध्यम से कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि आत्मा लोक का विषय नहीं है, अपितु अलौकिक होने के कारण यह स्वयं अपने आप में सिद्ध है। कवि परमशिव के स्वरूप को तर्कों के माध्यम से अधिगम का विषय स्वीकार नहीं करता अपितुउसका अनुभव द्वारा साक्षात्कार ही उचित है। जिस प्रकार से अग्नि की उष्णता का निराकारण नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार आपकी आत्मीयता का निराकरण करना संभव नहीं है-स्वयंसिद्धात्मा ते चिदुपहितशक्त्या व्यवहृतम्

प्रमाणज्ञानैस्तत्कथमपि न सिद्धं निगदितम्।

न वा युक्तैस्तर्कैस्तदनुभवगम्यत्वमुचितम्

न वह्नेरुष्णत्वं परमशिव! निराकुर्वत तया।।[5]

शिवलहरी में आत्मा को लौकिक कर्मों से लिप्त न होने वाला विकार रहित, किन्तु संसारमय वर्णित किया गया है। चूंकि कर्म का उपभोग अदृष्ट की प्राप्ति के लिए किया जाता है तथापि नित्यत्व के रूप में आत्मा की स्थिति में विकार उत्पन्न नहीं करते, किन्तु उसे संस्कारों से आविष्ट अवश्य कर देते हैं। जिस प्रकार कमलपत्र पर उसका स्पर्श न करते हुए भी जलबिंदु विद्यमान रहता है, उसी प्रकार प्राणी शरीरों में विद्यामान आत्मा सांसारिक कर्मों के बीच रहकर भी उनसे लिप्त नहीं होता। उस आत्मा के ज्ञान के अभाव में ही मानव का सम्पूर्ण क्रियाकलाप ज्ञान एवं चिन्तन असफल माना जा सकता है, किन्तु जिस प्राणी को आत्मा का अधिगम हो गया है, वह विफल कैसे रह सकता है-

य आत्मा लोकानां कमलफलकेऽस्पृक्पृषदिव, अलिप्तो कर्मभ्यस्तदभिगमने को न विफलः।[6]

6. जीवतत्त्व

जीवतत्त्व ब्रह्म की मलिन सत्त्वप्रधान अविद्या से उपहित हुआ चैतन्यांश है। समस्त प्रपंच के कारणभूत अज्ञान को समष्टि रूप से एकत्व को सूचित करने वाला एक अज्ञानतथा व्यष्टि रूप से नानात्व को सूचक अनेक अज्ञानकहा जाता है। इन दो भेदों में से समष्टिरूप अज्ञान सत्त्वगुण की प्रधानता से ईश्वर संज्ञा प्राप्त करता है और व्यष्टिरूप अज्ञान मलिन सत्त्वप्रधान्य से जीव संज्ञा का बोधक है। अज्ञान के इस भेदद्वय से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव ईश्वर के समान ब्रह्म का अंश है, कोई अतिरिक्त पृथक् तत्त्व नहीं है। आचार्य शंकर के अनुसार जीवानां स्वरूप वास्तवं ब्रह्मः।

कवि ने शिवलहरी में जीव को संसारी के रूप में मानकर ही विवेचना की है, चूँकि अविद्या के संसर्ग से ही जीव संसारी कहलाता है। जीवब्रह्म को द्वैत एवं अद्वैत के रूपमें प्रख्यापित करना लोक में शास्त्रज्ञ विद्वानांे का कार्य रहा है। लोक में प्राणी शरीर के रूप में जीव की पृथक् प्रतिति होने से समष्टि तथा व्यष्टिरूप में जो विभाजन किया गया है उससे जीव ब्रह्म के द्वैत का व्यपदेश किया जाता है-

न्निगुढो भावैस्स्वैस्त्रिगुणरहितोऽप्यत्र जगति, समष्टिव्यष्टिभ्यां व्यपदिशसि च द्वैतमपरम्।[7]

यही कारण है कि आत्मा के कारण कर्म करने की शक्ति के रूप में जो चैतन्यांश छुपा रहता है, वही जीव में विद्यमान प्राणतत्त्व कहा जाता है। इस दृष्टि से कवि ने प्राण एवं आत्मा में केवल औपाधिक भेद ही स्वीकार किया है तथा कर्मवाद के सिद्धान्त के आधार पर जीव एवं आत्मा के अस्तित्व के पार्थक्य को समझाने की चेष्टा की है। आत्मा को परमशिव का प्रतिबिम्ब या अंश मानते हुए उसे उत्कृष्ट सत्वोपाधि वाला स्वीकार किया है, जबकि जीव को मलिनोसत्वोपाधि वाला, यह तथ्य वेदान्त के अधिक समीप प्रतीत होता है।

7. मायातत्त्व

शिव शक्तात्मक स्वरूप माया है जो सर्गात्मक है अर्थात् सृष्टि-रचना में उसका योगदान रहता है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार शिव अहम्का स्वरूप है तथा जगत् इदम्का स्वरूप। जब मायाशक्ति का क्रियान्वन होता है तो अहम्और इदम्पृथक् पृथक् हो जाते हैं किन्तु वेदान्त में ब्रह्म की शक्ति के रूप में जिस माया की कल्पना की गई है वह सत् व असत् से परे ज्ञानस्वरूप, अस्तित्वमय, अनिर्वचनीय, त्रिगुणात्मक एवं ज्ञानविरोधी स्वभाव वाली है-सदसद्भ्यासनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधी भावरूप यत्किंचिदिति।

सत्व, रजस् एवं तमस्- इन गुणों की उत्पत्ति परमात्मा के संकल्प से उत्पन्न आदिशक्ति या मूलप्रकृति या महामाया से ही मानी है। उसे ही साँख्य में प्रकृति शब्द से सम्बोधित किया गया है। अतः निखिल जगत् प्रपंच के कर्ता के रूप में ब्रह्म केवल कर्तापन की उपाधि से ही युक्त होता है। यथार्थ में वह जगत् कर्तृत्व उस शिवतत्त्व की शक्तिस्वरूपा माया का ही कर्तृत्व है। शिवतत्त्व गुणातीत है जबकि शक्तितत्त्व अथवा माया त्रिगुणमयी है। शिवलहरी में स्पष्ट है कि सांसारिक क्रियाओं से नितान्त भिन्न परमशिव की जो लोकोत्तर क्रियाएं हैं, वे सब गुणातीत है, किन्तु जगत् में उत्पन्न सामान्य प्राणी अगोचर होने के कारण उन्हें किस प्रकार जान सकता है, क्यांेकि मुझ जैसे जागतिक प्राणी के लिए जगत् के कार्य प्रत्येक जागतिक होने के कारण सुनियत है-गुणातीता शम्भो तव गतिरहोऽगोचरतया,कथं मर्त्यैर्ज्ञेया नियतविषयैमर्दृश जनैः।[8]

8. सृष्टितत्त्व

सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी, न आकाश, न मृत्यु थी, न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। शिव, जगत् और जीव ये तीन तत्त्व है। ब्रह्मसूत्र के अनुसारजगत् की उत्पत्ति आदि का कारण ब्रह्म है अर्थात् ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण शिव है। जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि नृत्यकार और नृत्य में कोई फर्क नहीं। जब तक नृत्यकार का नृत्य चलेगा, तभी तक नृत्य का अस्तित्व है, अतः ईश्वर के होने की कल्पना अर्धनारीश्वर के रूप में नटराज की है।

जगत् शिव की तरह शाश्वत तत्त्व नहीं है, किन्तु वह सर्वथा चलायमान एवं मायाशक्ति से प्रभावित होने के कारण असार है। शिवलहरी में जगत् को जीव के सहकारी तत्त्व के रूप में वर्णित किया गया है औरशिव को इस दृश्यमाण सम्पूर्ण चराचरभूत प्राणियों की उत्पत्ति का मूल कारण माना है। जगद्रचनारूपी नैमित्तिक कार्य से बधे होने के कारण जगत् रचना में उनकी प्रवृत्ति होती ही है। इस रूप में आपको उसका निमित्त स्वीकार करना उचित ही है। इसके साथ ही उपादान कारण भी है, क्योंकि आपकी मायारूपा शक्ति से प्रथमतः जगत् से इतर उपादान पदार्थों के अभाव में भी उपादानों की ग्राह्यता संभव हो जाती है। एकमात्र आपके ही निमित्त एवं उपादान होने से जगत् उत्पत्ति में काल की बाधा उपस्थित नहीं होती तथा आपका जो यथार्थ है चिन्मात्रस्वरूप में परिनिष्ठत रहता है।

निमित्तं भूतानां त्वमसि जगतो मूलममर।उपादानं साकं निरवधि यथार्थश्चिति गतः।।[9]

9. मोक्षतत्त्व

मोक्ष को जीवन का परम पुरूषार्थ माना जाता है। मोक्ष अलौकिक सुख और दिव्य शान्ति की विलक्षण अवस्था है। आचार्य शंकर ने मोक्ष का स्वरूप निरूपण इस प्रकार किया है-इदं तु निरवयं स्वयं ज्योतिः स्वभावं यत्र धर्माधर्मः सहकार्येण कालत्रयं च मोपवर्तते यदेतिदयं शरीरत्वं मोक्षाख्यााम्।

कवि के मतानुसार मोक्ष न तो भोगायत्त्व शरीर का विनाश मात्र, न भोगसाधन भूत इन्द्रियों का विनाश मात्र है, न ही भोग विषयीभूत पदार्थो का विनाश मात्र है अपितु इन तीनों प्रकार के बन्धनों से जीव द्वारा अपने आप को पृथक् कर लेना ही मोक्ष है। ऐसी स्थिति में शरीर, इन्द्रिय एवं पदार्थो का विनाश आवश्यक नहीं है, अपितु प्राणीशरीर में विद्यमान अविद्या का आत्यन्तिक लय ही आवश्यक है, क्योंकि उसके परिणामस्वरूप ही मोक्षस्वरूप लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त जीव की अनवरत क्रियाशीलता देखी जाती है। सांख्यशास्त्र में प्रधान को स्मृति का विषय माना गया है, क्योंकि वह ज्ञेय होता है। ऐश्वर्य की प्राप्ति के विषय में उसका करण होना भी प्रतिपादित किया गया है। शिवलहरी में लिखा है कि हे परमशिव! उस प्रधान का संसर्ग मोक्ष के लिए पर्याप्त नहीं है, यही कारण है कि लौकिक प्राणियों में संग्राहक बुद्धि के कारण प्रकरण रूप से जीव के लिए मोक्ष मार्ग का निर्देश किया गया है-प्रधानं ज्ञेयत्वात्स्मरणविषयं सांख्यवचनै-र्विभूतीनां प्राप्तौ करणमपि यत्साधु कथितम्।

न तन्मोक्षायालं परमशिव ! भूतेषु परमा, निचाय्यत्वाद्दिष्टां प्रकरणतया प्राज्ञसरणिः।।[10]

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि शिवलहरी में वर्णित प्रमुख दार्शनिक तत्त्वशिवतत्त्व,तत्त्वमसि, अहं बह्म्रास्मि, ब्रह्मतत्त्व,आत्मतत्त्व, जीवतत्त्व, मायातत्त्व, सृष्टितत्त्व, मोक्षतत्त्व आदिकोजानने के लिए संक्षेप विवेचन सहज सरल भाषा में किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि कवि पर वेदान्त दर्शन का प्रभाव अत्यधिक झलकता है और साथ ही परमशिव के भक्त दिखाई देते हैं। आज मनुष्य भौतिक सुख सुविधाओं व संसाधनों में व्यस्त है, किन्तु कोरोना जैसी महामारी ने मनुष्य के सामने एक प्रश्न चिह्न तो उपस्थित कर दिया है कि इस दृश्यमान जगत् के परे भी एक ऐसी सत्ता है जो सम्पूर्ण सृष्टि व प्रलय का निर्धारण करती है। पाठकों की इस जिज्ञासा का शमन शिवलहरी में शिव के स्वरूप और जगत् की वास्तविकता को कवि ने काव्य रूप में प्रस्तुत कर दर्शन जैसे गहन विषय को सहजता से बोधगम्य बना दिया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. शिवलहरीपद्य 97

2. शिवलहरीपद्य 6

3. शिवलहरीपद्य 37

4. शिवलहरीपद्य 38

5. शिवलहरीपद्य 13

6. शिवलहरीपद्य 4

7. शिवलहरीपद्य 14

8. शिवलहरीपद्य 4

9. शिवलहरी पद्य 8

10. शिवलहरी पद्य 148

11. वेदान्तदर्शन - कृष्णकान्त त्रिपाठी, साहित्य भण्डार, मेरठ 1997

12. भारतीय दर्शन - उमेशमिश्र, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ 1980

13. भारतीय दर्शन - धीरेन्द्र मोहन दत्त/सतीश चन्द चट्टोपाध्याय, पुस्तक भण्डार, पटना 1985