P: ISSN No. 2231-0045 RNI No.  UPBIL/2012/55438 VOL.- XII , ISSUE- III February  - 2024
E: ISSN No. 2349-9435 Periodic Research

‘रणेन्द्र’ के उपन्यासों में प्रतिबिम्बित आदिवासी जन-जीवन

Tribal life Reflected in the Novels of Ranendra
Paper Id :  18571   Submission Date :  2024-02-11   Acceptance Date :  2024-02-22   Publication Date :  2024-02-25
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DOI:10.5281/zenodo.10853022
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बिजय रजक
शोधार्थी
हिंदी विभाग
वर्द्धमान विश्वविद्यालय
पश्चिम बंगाल,भारत
सारांश

आदिवासी विमर्श सदियों से शोषित पीड़ित उस जनजाति का साहित्यिक विद्रोह है जो लेखनी के माध्य से अपना हक पाने की कोशिश करता है और इसके लिए संघर्ष भी करता है | हजारों सालों के बीत जाने के बावजूद आज भी आदिवासी जंगलों, कंदराओं में रहकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं | इनकी दुःख दुर्दशा के प्रति किसी का ध्यान नहीं गया है | ठीक उल्टे इन्हें तिरस्कार और हास्यस्पद की नजरों से देखा गया है | आधुनिक भारत के निर्माण में और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए इनका कम योगदान नहीं रहा है | बिरसा मुंडा, उमेद बसवा, सिधु-कानू आदि ऐसे बहुत से वीर आदिवासी थे जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए अपना बलिदान दिया है | परन्तु आज आदिवासी शब्द के उच्चारण से ही हमारे सम्मुख खड़ा हो जाता है प्रत्येक सदी से छला सताया, नंगा किया और सोची समझी साजिश के तहत वन जंगलों में जबरन भगाया जाता रहा एक असंगठित मनुष्य | वह मनुष्य जो अपनी स्वतंत्र परंपरा सहित सहस्त्र सालों से गाँव देहातों में दूर घने जंगलों में रहनेवाला है |

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Tribal discourse is the literary rebellion of the oppressed tribe that has been exploited for centuries, which tries to get its rights through the medium of writing. And also struggles for it. Despite the passage of thousands of years, even today the tribals are living in forests and caves and making their living. No one has paid attention to their plight. On the contrary, they have been viewed with contempt and ridicule. They have contributed no less in building modern India and protecting their motherland. Birsa Munda, Umed Basava, Sidhu-Kanu etc. were many such brave tribals who sacrificed their lives for their motherland. But today, with the very pronunciation of the word Adivasi, there stands in front of us an unorganized human being who has been deceived, tortured, stripped naked and forcibly driven into the forests under a well-planned conspiracy for every century. The man who has been living in remote villages and dense forests for thousands of years with his independent tradition.
मुख्य शब्द आदिवासी, जनजाति, संस्कृति, अंधविश्वास, भूसंचालन, घने जंगल, वन्य प्राणी, संरक्षण, औद्योगिकीकरण, भूमण्डलीकरण, भूमिहीन आदि |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Tribal, Tribe, Culture, Superstition, Land Movement, Dense Forests, Wild Animals, Conservation, Industrialization, Globalization, Landless etc.
प्रस्तावना

भारत में लगभग तीन करोड़ से अधिक आदिवासी हैं जिनमें से पंचानवें  प्रतिशत गाँव में रहते हैं और ज्यादा तर खेतिहर मजदूर निम्न जातिदार किसान हैं | भारत के सबसे ज्यादा शोषित वर्ग के तौर पर खेतिहर मजदूरों की गिनती होती है पर आदिवासी मजदूरों के हालात सबसे गए गुजरे हैं | उसका शोषण कागज पर लिखकर और कई बार बिना लिखे किया जा रहा है ऐसे में इस समुदाय का अलगाव, उसका पिछड़ापन बढ़ेगा ही | इन बुनियादी सवालों को देखे, सुने, सुलझाए बिना कोई विकास बेमानी है |

आदिवासी साहित्य और आदिवासी समाज आज की दुनिया से कोसो मिल दूरी पर खड़ा है | आदिवासी समाज पूरी तरह से अपनी संस्कृति और संस्कारों में लिप्त है | ग्लैमर और चकाचौंध दुनिया, रोशनी की नाम नहीं जानता | वह बस इतना ही जानता है कि अपने जंगल महल को बचाने के लिए कौन सा दीपक जलाए कि पूरा जंगल महल सदैव के लिए रौशन हो जाए | आदिवासी समाज आज भी गाँव में ही बसता है, खेती और मजदूरी करता है और अपना जीवन व्यतीत करता है | आदिवासी साहित्य शेष साहित्य से उसी प्रकार भिन्न है जैसे समाज से स्वयं आदिवासी समाज | इसीलिए इनका सुझाव इसे अपने मानको से न परखे |

आदिवासी सभी प्रांत, सभी विषयों से संपन्न हैं  जैसे पानी, खनिज, वन संपदा, उर्वर भूमि आदि | फिर भी सरकार की गैरजिम्मेदारी के कारण आदिवासी गरीबी में जीते हैं| आदिवासियों को कुचलकर जंगल की संपदा को लुटने की प्रथा गोरों से ही आ रही है | सरकार की ओर से लाई गई नीतियों के कारण आदिवासी लूटमार के शिकार बनते जा रहे हैं | भूसंचालन, वन्य प्राणी संरक्षण, एक्साइज आदि को छोड़कर बाकी पेशेवरों को अपनाना पड़ा | सन 1991ई.  से आए हुए आर्थिक सुधार के कारण ‘वर्ल्ड बैंक’ की ओर दिये गये प्रोजेक्ट्स के कारण जंगली संपदा को लूटना पड़ रहा है |

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोध आलेख का मूल उद्देश्य है कि रणेन्द्र के उपन्यासों में अभिव्यक्त आदिवासी समाज के दुःख,दर्द को जानना | तथा नई सदी के परिप्रेक्ष्य में नये साहित्यिक मानदण्डों के अनुसार आदिवासी जन-जीवन विधा का मूल्यांकन करना | रणेन्द्र के उपन्यासों में आदिवासी जन जीवन का अंतरवस्तु का अध्ययन करना | नया साहित्य, नई प्रवृत्तियाँ और रणेन्द्र के उपन्यासों का मूल्यांकन करना | नई सदी की विषय स्थितियों में बदलते जनजीवन, आदिवासी जीवन की वास्तविकता को रणेन्द्र के उपन्यासों में निहित विचार तत्वों के माध्यम से प्रकट करना | वर्तमान समाज में आदिवासियों के साथ विकास के नाम पर होता विनाश, आधा अधूरापन, नैतिक-अनैतिक, आदि में होते परिवर्तन की यथार्थ प्रक्रिया समझना |

साहित्यावलोकन

वर्तमान हिंदी उपन्यास का रूप एक परिपूर्ण विधा का है | वह आज के मानव में निहित आंतरिक भावनाओं को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम बना है | जनसाधारण की रोजमर्रा की जिन्दगी, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, हार-जीत को वास्तविकता के साथ प्रगट करने का उत्तरदायित्व उसने बखूबी से निभाया हुआ दिखाई देता है | प्रस्तुत शोध आलेख में रणेन्द्रद्वारा लिखित दो उपन्यासों का जिक्र किया गया है | ‘ग्लोबल गाँव के देवताउपन्यास में अतीत के पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखा गया है और वर्तमान समय में आदिवासियों के सामने आने वाली धाराओं का उदय और उनकी जटिलताओं को सांकेतिक रूप में प्रकट करता है | और वर्तमान समय में आदिवासियों के सामने आने वाली विविध प्रकारकी विसंगतियों को अभिव्यक्त किया गया है| ‘गायब होता देशउपन्यास में रणेन्द्र ने विस्थापन की पीड़ा को चित्रित किया है | शोध आलेख में मीणाजी द्वारा सम्पादिक पुस्तक रमेशचन्द्र आदिवासी दस्तक: विचार परम्परा और साहित्यसे कुछ महत्वपूर्ण उद्धरण को दर्शाया गया है | साथ ही आखर हिंदी पत्रिका-मार्च2022ई. (त्रैमासिक प्रकाशित- आनलाइन पत्रिका) से उद्धरण को लिया गया है |

मुख्य पाठ

लेखक रणेंद्र का उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में झारखण्ड के आदिवासियों के जीवन का यथार्थ है बल्कि पूरे भारतीय मूल निवासियों की संघर्षगाथा है | विश्वव्यापी पूंजीवाद के बढ़ते कदम ने समग्र भारत के आदिवासियों की सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराओं को नष्ट किया है | विकास के नाम पर वनवासी संस्कृति खत्म की जा रही है | राजमार्गों का निर्माण, रेल या औद्योगिकीकरण आवासीय योजना के नाम पर आदिवासियों की जमीन कम दाम पर खरीदकर भूमिहीन किया जा रहा है |

रणेन्द्र ने अपने उपन्यासों के माध्यम से आदिवासियों के समुदाय का आत्सम्मान अस्तित्व तथा अस्तित्व की रक्षा और निरंतर संघर्ष और जूझते रहने की हृदयद्रावक कहानी को प्रस्तुत किया है | आज हम कहते हैं कि विश्व एक गाँव बन गया है, लेकिन अपनों से हम उतना ही दूर गए हैं| भूमण्डलीकरण के नाम पर शोषण का नया तरीका पूंजीवादियों ने ढूंढ निकाला है | उसे उपन्यासकार प्रकाशित करते हैं | भूमण्डलीकरण आदिवासियों के समक्ष ऐसा खतरनाक राक्षस के रूप में आ गया है जो उनका जीवन बरबाद ही कर देता है | आदिवासियों की आर्थिक स्थिति का एक दृश्य लेखक ने उजागर किया है कि- “एक तो एतवा के बाल-बच्चों से भरे घर में खाने की जद्दोजहद | अधिकाँश बच्चों- बड़ों को महुआ का लट्ठा जैसे – तैसे पानी के साथ निकलते देखना .....| एतवा ने बताया कि धान रोपनी के बाद साधारण गृहस्थों के यहाँ खर्ची की कमी हो जाती है | गाँव में दस-बीस परिवार ही हैं जिनकी कोठली में सालों भर का अनाज रहता है, बाकी को मेहनत मजूरी, जंगल के कंद – महुआ, साग-गेठी पर ही गुजारा करना पड़ता है | हाट के दिनों में  काठी बेच कर दो दिन के लिए चावल का जुगाड़, फिर चार दिन वही गेंठी-कंदा-साग महुआ |”[1] आगे लेखक आदिवासी समाज की अनुष्ठान की चर्चा करते समय आदिवासी समाज की गरीबी का यहाँ उल्लेख किया है | “हम और छोटू दिन भर पेट भरने के जुगाड़ में घूमते रहते | तभी मालूम हुआ कि बगल टोले के ठाकुर जी के यहाँ रात में जट-जटिन का अनुष्ठान है | काका ने बताया था कि शिव -पार्वती ही जट-जटिन कहलाती है | घर की औरतें दो गोल में बंट कर घर के आंगन में जट-जटिन का गीत गाती, झूमर नाचती हैं | यह बरखा-बुनी को बुलाने वाला अनुष्ठान है |”[2]

जंगली क्षेत्रों में शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं हो सका है | शहरी क्षेत्रों में सरकारी तथा निजी संस्थानों या स्कूल बढ़े हैं , परन्तु शिक्षा की सही नीती न होने से आदिवासी आबादी को वे उतना आकर्षित नहीं कर पायी है | ‘गायब होता देश’ उपन्यास के मिसिर मास्टर हों या फिर ग्लोबल गाँव के देवता उपन्यास की मिंज मैडम हों , इन्हें आदिवासी छात्र पढ़ने के योग्य समझ नहीं आते | उनका आदिवासियों के प्रति दृष्टिकोण निराशाजनक है | ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास की प्रिंसिपल ‘मिंज’ मैडम तो आदिवासी समाज की बच्चियों की शिक्षा के लिए पीटीजी गर्ल्स रेजिडेंशियल स्कूल में उनके प्रवेश के लिए कोई भी प्रयास नहीं करती | अपितु कथावाचक शिक्षक पात्र, लालचन असुर की इस सन्दर्भ में शिकायत पर बच्चियों को ढूंढ कर लाने और टेस्ट द्वारा देने की बात करती है | मेस-व्यवस्था में सुधार के प्रश्न पर उनका गैर-जिम्मेदार और हेय दृष्टिकोण उभरकर सामने आ जाता, है कि-“इन मकई के घट्टा खाने वालों को यहाँ भात-दाल मिल जाता है, वही बहुत है | आप अपने हिसाब से क्यों सोचते हैं ? कौन इन्हें अपने घरों  में खीर-पुड़ी भेटाता है कि आप मेस-व्यवस्था में सुधार के लिए मरे जा रहे हैं |”[3]

रणेन्द्र के उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता में असुर समाज सदियों से अपने सामान्य रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों के साथ जीवन जी रहा है | उपन्यास के आरम्भ में ही असुर युवक का घायल होने का कारण उनका अंधविश्वास है कि –“धान को आदमी के खून से सानकर बिचड़ा डालने से धान की फसल बहुत अच्छी होती है | इसलिए धान की फसल के सीजन में मुड़ी कटवा लोग तेज़ कटार लिए अवसर की तलास में रहते हैं | ऐसा ही मुडीकटवा का शिकार लालचन असुर होता है | ये मुडीकटवा साल में इस क्रिया को नया अंजाम देते हैं | परन्तु जब देवी के स्थान से नगाड़े की आवाज आती है तब उन्हें भक्त की बलि देनी पड़ती है तभी जाकर नगाड़ों की आवाज का बजना बंद होता है | बली देने और सीर काटने की घटना के चलते इस गाँव का नाम ही ‘कटिया’ पड़ जाता है | अब बली प्रथा नहीं है परन्तु उसके विकल्प के रूप में बलि चढाने वाले की कानी ऊँगली में चीरा लगा दिया जाता है | ये प्रकृति जीवी असुर अपने अंधविश्वासों के साथ सदियों से जीते आ रहे हैं | अकाल-दुकाल, प्राकृतिक-प्रकोप, रोग-बीमारियों को सहते हुए भी ज़िंदा रहे हैं | वेद पुरानों में देवताओं से संघर्ष करके भी अपना अस्तित्व रख सके हैं परन्तु दुनिया के ग्लोबल गाँव के तब्दील हो जाने से इनकी अस्मिता संकट में पड़ गयी है |”[4]

आदिवासी महिलायों की दैनिक कार्य की स्थिति का ‘ग्लोबल गाँव के देवता नामक उपन्यास में यथार्थ चित्रण हुआ है | उसी की सच्चाई का उल्लेख करते हुए यहाँ पर लेखक लिखते हैं कि “मुँह अँधेरे जब भुरुकुआ आकाश में टिमटिमाता रहता, सूरज के जगने में अभी देर होती, ढेंकी जाकर अपना गीत शुरू कर देती | दिन में रसोई के लिए धान कूटने का यही समय होता | उसके बाद साफ-सफाई के बड़े बर्तन लेकर वे पहारी के ढ़लान पर एकाध मील नीचे झरना की ओर बढ़ जाती | सूर्योदय के साथ-साथ साफ़-सफाई से चमकते बर्तनों में पानी भर लौटती दिखती | उनके सूरज देव सिंगबोंगा से ही होड़ा-होड़ी चलती कि कौन पहले दुआर पर पहुंचता है | उसके बाद जलावन का इन्तजाम | घर के गाय गोरुओं को चारा, फिर रसोई में भात रांघने का कार्य-व्यापार | उनसे निपटने के बाद बच्चों को आकुल और मर्दों को काम पर भेजने की तैयारी | जब-जब घर से निकल जाते तब अपने नहाने-धोने फींचने की चिंता | उनसे उबरने के बाद ही बारह-एक बजे तक अन्न का दाना नसीब होता | लेकिन अभी भी फुर्सत नहीं | खेतो में कई काम इनके ही भरोसे रहते या यों कहिए कि अधिकाँश काम इनके ही भरोसें रहते | मर्दों के जिम्में जोताई-कोड़ाई-हेंगाना-पाटा देना | मन हुआ तो बिचड़ा ढ़ों  देना और रोपाई-कटाई में मदद करना | लेकिन खेती में तो छोटे-बड़े दर्जनों तरह के काम और सबके सब औरतों के ही जिम्में, जिन्हें हँसते-गाते-खिलखिलाते निभाती रहतीं | लालचन  भाई की गोमकाइन, हमारी भौजी, रुमझुम की और ऐसी सारी असुर आदिवासी जब पसीने में उब-डूब करती भी हँसती-खिलखिलाती तो साथ में सरना माई और धरती माई भी हँसने लगतीं | खैर ! सरना माई और धरती माई भी तो औरतें ही ठहरीं |”[5]

आदिवासी समाज की लोकनृत्य का प्राकृतिक चित्रण करते हुए लेखक लिखते हैं  कि-“यह झूमर नाच भी क्या था ? अर्द्धवृत्ताकार में झुककर कुछ कदम आगे बढ़ना फिर सर उठाकर पीछे हटना | मानो हरे-भरे धान की खेत में हवा बह रही हो और फसल हवा के संग झूमकर झुक रही हो, उठ रही हो | मानो बांस का जंगल, तेज़ हवा के साथ लचक-लचक कर किलोल कर रहा हों | मानो नदियों की लहरें धीमी लय में गिर-उठ रही हों | आकाश में पंक्षी, समूह में उड़ान भरते घोंसले को वापस जा रहे हों | प्रकृति खुद अपने आदिम रूप में पूरे ब्रह्माण्ड के दिव्य नाच के साथ एकाकार हो रही थी | चाँद डूबने लगा था | रात ओस में डूब, भींगे कम्बल की तरह वजनी हो रही थी | सब झूम रहे थे |”[6] यह प्रकृति पूजक समाज रहा है | इसी कारण से इसके सदस्यों में चट्टान की तरह दृढ़ता, नदी की तरह तरलता और हवा की गति की तरह एकता दीखता है | यह भेद भाव से रहित एक तरह से समतावादी समाज है |

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में हम देखते हैं कि रणेन्द्र के उपन्यासों ने अपने समय के यथार्थ से आँखे नहीं चुराई बल्कि खुली आँखों से यथार्थ को देखा, उसे भोगा और जो अनुभव किया और जो विसंगत दिखाई दिया, उसका स्पष्ट रूप से विरोध भी किया | यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इस दशक में रणेन्द्र के उपन्यास वर्तमान सामाजिक जीवन की सच्चाई को पाठकों के सामने प्रस्तुत करने में सक्षम रहे हैं | रणेंद्र के उपन्यासों में आदिवासियों की व्यथा, दुःख का चित्रण हुआ है | ‘ग्लोबल गाँव के देवताउपन्यास के द्वारा विकास के नाम पर आदिवासियों का विस्थापन हो रहा है | रणेंद्र के अनुसार व्यवस्था भारत के मूल आदिवासियों के जलजमीन और जंगल से बेदखल कर रही है | लेखक के अनुसार आदिवासियों की मूल संस्कृति, लोकसंस्कृति से लुप्त हो रहा है | उनकी भाषा, उत्सव, त्यौहार समाप्त हो रहे हैं | जबकि आदिवासी अपनी मूल संस्कृतिभाषाउत्सव तथा त्यौहार बनाए रखना चाहते हैं | आदिवासी हमेशा से ही प्रकृति संवर्धन चाहते हैं | भूमण्डलीकरण, यांत्रिकीकरण, उद्योग आदि के द्वारा उनका शोषण हो रहा है | आदिवासियों को इस शोषण का एहसास हो रहा है, वे शिक्षित हो रहे हैं, संगठित हो रहे हैं | प्राध्यापिका डॉ. सी एन होम्बली जी आखर हिंदी पत्रिकामें लिखती हैं कि आदिवासी उपन्यास आदिवासियों की दुर्लभ आर्थिक स्थिति, अंधविश्वास, शोषण पीड़ा, मजबूरी, अन्याय-अत्याचार आदि पहलुओं का अत्यंत बारीकी के साथ चित्रण किया है |”[7]

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. रणेन्द्र, गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स -इण्डिया, संस्करण-2014 ई. पृष्ठ सं-02

2. वही, पृष्ठ सं-69

3. रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञान पीठ, नई दिल्ली, संस्करण-2014 ई. पृष्ठ सं- 20

4. मीणा, रमेशचन्द्र आदिवासी दस्तक: विचार परम्परा और साहित्य, अलख प्रकाशन, जयपुर, संस्करण-2013ई. पृष्ठ सं-101

5. रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञान पीठ, नई दिल्ली, संस्करण-2014 ई. पृष्ठ सं-22

6. वही, पृष्ठ सं-78

7. डॉ. सी एन होम्बली, शोध आलेख(21वीं सदी के हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जन-जीवन), आखर हिंदी पत्रिका, प्रकाशन वर्ष- मार्च 2022 ई.