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मानव कल्याण हेतु ज्ञानयोग मार्ग की विवेचना |
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Discussion of the Path of Gyan Yoga for Human Welfare | |||||||
Paper Id :
18608 Submission Date :
2024-02-01 Acceptance Date :
2024-02-19 Publication Date :
2024-02-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.11243177 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
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सारांश |
मानव शरीर अपना कल्याण करने के लिए मिला है। प्रत्येक मानव को अपने कल्याण से निराश नहीं होना चाहिए। हमें परमात्मा प्राप्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है। हम सभी साधक हैं, अपने साध्य (परमात्मा) को प्राप्त करने में स्वतन्त्र एवं समर्थ है। किसी आकृति विशेष का नाम मनुष्य नहीं है। मनुष्य वह है जिसमें सत और असत तथा कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक हो। यह विवेक अनादि और भगवत्प्रदत्त है। इस विवेक को महत्व देकर मनुष्य ज्ञान योग साधना अपनाकर अपना कल्याण कर सकता है। ज्ञान योग साधना की सार बात है जानना और मानना। संसार नहीं है ये जानना है तथा परमात्मा हैं ये मानना हैं। है सो सुन्दर है सदा नहिं सो सुन्दर नाहिं। नहिं सो परगट देखिये, हे सो दीखै नाहिं।। - स्वामी
रामसुखदास |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The human body is created for its own welfare. Every human being should not be disappointed with his welfare. We have the birth right to attain God. We are all seekers, free and capable of achieving our goal (God). The name of any particular figure is not human. Man is one who has the discretion between right and wrong and duty and non-duty. This wisdom is eternal and God-given. By giving importance to this discretion, man can do his own welfare by adopting the practice of Gyan Yoga. The essence of Gyan Yoga practice is to know and believe. We have to know that this world does not exist and we have to believe that God exists. | ||||||
मुख्य शब्द | मानव कल्याण, ज्ञानयोग मार्ग, संसार। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Human Welfare, Path of Knowledge, World. | ||||||
प्रस्तावना | मनुष्य मात्र को ‘मैं हूँ’ - इस रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता है। इस सत्ता में अहम (मैं) मिला हुआ होने से ही ‘हूँ’ के रूप में अपनी एक देशीय सत्ता, अनुभव में आती है। यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूप में सर्वदेशीय सत्ता अनुभव में आयेगी। वह सर्वदेशीय सत्ता ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उस सत्ता में अहम् (जड़ता) नहीं है। जब मनुष्य अहम् को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’) को स्वीकार करता है तब वह मुक्त हो जाता है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य मानव कल्याण हेतु ज्ञानयोग मार्ग की विवेचना के विषय में अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | संसार का स्वरूप है - क्रिया और पदार्थ। क्रिया और पदार्थ दोनों ही आदि-अन्त वाले (अनित्य) है। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है। मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है। जो मिली है बिछुड़ जायेगी, उसका उपयोग केवल संसार की सेवा में ही हो सकता है, अपने लिए उसका कोई उपयोग नहीं है। कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी नहीं होती - यह सिद्धान्त है। जो वस्तु अपनी नहीं होती वह अपने लिए भी नहीं होती। अपनी वस्तु वह होती है जिस पर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिए वह वस्तु होती है, जिसको पाने के बाद कुछ भी पाना शेष न रहे। परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई वस्तुओं पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता। हम अपनी इच्छा के अनुसार उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको रख नहीं सकते, उनकी प्राप्ति के बाद भी ‘और मिले और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात् अभाव बना रहता है। इस अभाव की कभी पूर्ति नहीं होती। इसलिए हमें चाहिए कि हम इस सत्य को स्वीकार करें कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु मेरी और मेरे लिए नहीं है। मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुख दुःखदाः। आगामापापिनोऽनित्यास्तांरिन्ततिक्षस्व भारत।। भगवद्गीता - 2/14 मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु को अपनी और अपने लिए न मानने से मनुष्य निर्मम हो जाता है। निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली हुई वस्तुओं का सदुपयोग सुगमता से होने लगता है, कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग नहीं हो सकता। ममता वाले मनुष्य द्वारा प्राप्त वस्तुओं का दुर्पयोग ही होता है। भोग और संग्रह करना ही प्राप्त वस्तुओं का दुर्पयोग है और उनको दूसरों की सेवा में लगाना ही उनका सदुपयोग है। प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से समाज में संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोग से समाज में शान्ति की स्थापना होती है। साधक की ज्ञान मार्ग में उन्नति के लिए निर्मम होना बहुत आवश्यक है, क्योंकि ममता को मिटाये बिना साधक की उन्नति नहीं हो सकती। कुछ लोगों को शंका होती है कि ममता के बिना हमारा शरीर कैसे चलेगा? हम परिवार या समाज की सेवा कैसे करेंगे? परन्तु वास्तव में ममता के कारण शरीर समाज परिवार आदि की सेवा में बाधा ही लगती है। निर्मम मनुष्य का शरीर निर्वाह बहुत बढ़िया रीति से होता है। उसके द्वारा ही परिवार, समाज आदि की वास्तविक सेवा होती है, जिसकी अपने शरीर में ममता है वह परिवार की सेवा नहीं कर सकता, जिसकी अपने परिवार में ममता है वह समाज की सेवा नहीं कर सकता, जिसकी अपने समाज में ममता है वह देश की सेवा नहीं कर सकता, जिसकी अपने देश में ममता है वह दुनियाँ की सेवा नहीं कर सकता। ममता के कारण मनुष्य का भाव संकुचित, एक देशीय हो जाता है। वह सेवा से विमुख होकर स्वार्थ में बध जाता है। इसलिए साधक मात्र में ममता का त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है। जब साधक में ममता का त्याग करने की तीव्र अभिलाषा जाग्रत हो जाती है तब ममता का त्याग करना बड़ा सुगम हो जाता है। कारण जब साधक सच्चे हृदय से संसार से विमुख होकर परमात्मा की ओर चलना चाहता है, तब सम्पूर्ण संसार तथा स्वयं परमात्मा भी उसकी सहायता करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। इसीलिए साधक को कभी भी अपने उद्देश्य की पूर्ति से निराश नहीं होना चाहिए। वह कम से कम आयु में तथा कम से कम सामर्थ्य में अपने उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है। कारण कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही भगवान ने अपनी अहैतुकी कृपा से उसको मानव शरीर दिया है। कबहुँक कर करुना नर देही। देत ईस विन हेतु सनेही।। (मानस, उत्तर0 4413) ममता कामनाओं की जननी है। शरीर में ममता होगी तो शरीर की आवश्यकता हमारी आवश्यकता हो जायेगी अर्थात अन्न, जल, वस्तु, मकान आदि की अनेक कामनायें पैदा हो जायेगी। ममता का त्याग होते ही साधक में कामना त्याग की शक्ति आ जाती है। शरीर और संसार एक ही धातु के बने हुए हैं। शरीर को संसार से अलग नहीं कर सकते। अतः शरीर की ममता का नाश होते ही सांसारिक कामनाओं का भी नाश हो जाता है। साधक के लिए निष्काम होना आवश्यक है। क्योंकि निष्काम हुए बिना साधक अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता। इतना ही नहीं कामना के कारण वह साध्य रूप भगवान को कामना पूर्ति का साधन बना लेता है। कामना मनुष्य को पराधीन बना देती है। अतः पराधीनता को मिटाने के लिए निष्काम होना आवश्यक है। कामना की पूर्ति में तो सब मनुष्य पराधीन हैं पर कामना का त्याग करने में सबके सब मनुष्य स्वाधीन और समर्थ हैं। प्रत्येक मनुष्य स्वाधीनतापूर्वक स्वाधीनता (मुक्ति) की प्राप्ति कर सकता है। परन्तु जब तक मनुष्य के अन्दर कामना रहती है तब तक वह स्वाधीन नहीं हो सकता। पराधीनता का सर्वथा नाश निष्काम होने पर ही सम्भव है। निष्काम होने पर साधक संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है। कामना वाले मनुष्य को बहुतों के अधीन होना पड़ता है, पर जिसको कुछ नहीं चाहिए, उसको किसी के अधीन नहीं होना पड़ता। उसका मूल्य संसार से अधिक हो जाता है। जब साधक निर्मम और निष्काम हो जाता है तब उसकी अहंता मिट जाती है। अहंता मिटते ही उसके लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता। निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधि गच्दतिः भगवद्गीता-2/71 भगवद्गीता के ज्ञान योग की व्याख्या - भगवद्गीता के अध्याय-2 में सांख्य योग के नाम से ज्ञान योग की विस्तृत चर्चा की गयी है, इसमें किसी भी स्थिति में सम रहने की बात कही गयी है, इन्द्रियों के सभी विषय एवं जड़ पदार्थ शीत और उष्ण के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं तथा आने-जाने वाले और अनित्य हैं। संसार की समस्त परिस्थितियाँ आने-जाने वाली, मिलने बिछुड़ने वाली है। मनुष्य यह चाहता है कि सुखदायी परिस्थिति बनी रहे और दुःख दायी परिस्थिति न आये। परन्तु सुखदायी परिस्थिति जाती ही है और दुःखदायी परिस्थिति आती ही है - यह प्रकृति का नियम है साधक को प्रत्येक परिस्थिति प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करनी चाहिए। समदुःख सुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते भगवद्गीता-2/15 सुख दुःख में सम रहने वाले, जिस बुद्धिमान मनुष्य को ये पदार्थ विचलित नहीं करते वह अमर होने में समर्थ हो जाता है। नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। भगवद्गीता-2/16 असत की कोई सत्ता नहीं है और सत का कभी अभाव नहीं है तत्व दर्शी महापुरूषों ने इन दोनों का ही तत्व देखा अर्थात अनुभव किया है। संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान है, जिस प्रकार मनुष्य पुराने कपड़े छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीरों में चला जाता है। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाप जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देती।। भगवद्गीता-2/22 शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्ले दन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। भगतद्गीता-2/23 |
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निष्कर्ष |
शास्त्रों में मानव कल्याण के लिए तीन मार्गों का वर्णन है भगवद्गीता के अठारह अध्यायों में किसी न किसी रूप में इन्हीं तीन मार्गों ज्ञान मार्ग, कर्म का मार्ग एवं भक्ति मार्ग का विस्तृत वर्णन है। श्रीमदभागवत पुराण में इन्हीं तीनों साधनों का वर्णन है। योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया। ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित।। श्रीमदभागवत-11/2016 प्रस्तुत लेख में ज्ञान मार्ग की विस्तृत चर्चा की गयी है। ज्ञान मार्ग द्वारा मनुष्य प्रकृति एवं पुरूष की बात समझकर ईश्वर (तत्व ज्ञान) की प्राप्ति कर अपने मानव जीवन का कल्याण कर सकता है। ज्ञान योग साधना के कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं - 1. जीव परमात्मा का अविभाज्य अंश है और शरीर संसार का अविभाजय अंश है। 2. जीव तथा परमात्मा प्राप्त है और स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर संसार प्रतीति है। ‘प्राप्त’ सत रूप है और ‘प्रतीत’ असत रूप है। असत की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत का अभाव विद्यमान नहीं है। 3. जब मनुष्य में प्रतीत की मुख्यता होती है, तब वह संसारी होता है और जब प्राप्त की मुख्यता होती है तब वह साधक होता है। इसलिए साधक में प्राप्त की मुख्यता होनी चाहिए। मुक्ति की प्राप्ति प्राप्त को ही होती है। 4. जो प्राप्त है वह परा प्रकृति है और जो प्रतीत है वह अपरा प्रकृति है। परा और अपरा दोनों ही प्रकृतियाँ भगवान की होने से भगवत्स्वरूप - ‘सदसच्चाहमर्जन’ भगवदगीता 9/11 परन्तु जीव ने जगत (अपरा) को धारण कर लिया उसको स्वतन्त्र सत्ता देकर अपना मान लिया यही जीव ही मूल है। 5. तत्व सदा ज्यों का त्यों है। उसे तत्काल जान सकते हैं, केवल उधर दृष्टि नहीं है। अपनी आँखों से हम पदार्थों को देखते हैं, प्रकाश को नहीं देखते जबकि सारे पदार्थों से पहले प्रकाश ही होता है, जिसमें हम सभी वस्तुओं को देख पाते हैं। जो ज्योतियों का ज्योति है, सबसे प्रथम जो भासता। अव्यय सनातन दिव्य दीपक, सर्व विश्व प्रकाशता।। 6. वह तत्व सबसे पहले दीखता है उसके अन्तर्गत सबकुछ है। वही सब कारणों को प्रकाशित करता है। ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. स्वामी रामसुखदास - ज्ञान के दीप जले, गीता प्रेस, गोरखपुर, पेज-10 2. भगवद्गीता-2/14 3. मानस, उत्तर0 4413 4. भगवदगीता-2/71 5. भगवदगीता-2/15 6. भगवदगीता-2/16 7. भगवदगीता-2/22 8. भगवदगीता-2/23 9. भगवदगीता-9/11 |