|
|||||||
राईल की दृष्टी से आत्मज्ञान की समस्या |
|||||||
The Problem of Enlightenment from Ryles Point of View | |||||||
Paper Id :
18632 Submission Date :
2023-12-07 Acceptance Date :
2023-12-12 Publication Date :
2023-12-18
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10907463 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/remarking.php#8
|
|||||||
| |||||||
सारांश |
'मै कौन हूँ?' इस प्रश्न के समाधान हेतू दर्शन में अनेक उत्तम दिए गए है। परम्परागत दर्शन
में 'मै' को आत्मा मानकर उसकी व्याख्या की गयी है। पश्चिम दर्शन में 'मै' को अंतरनिरीक्षण का विष्य माना गया है। 'मै' के बोध से ही आत्मतादात्म्य (Self Identity) होता है। अर्थात मैं अथवा आत्मतादात्म्य का बोध
अंतरनिरीक्षण से ही होता है ऐसा परम्परागत मत है। भारतीय दर्शन में भी 'मै' से आत्मा के अस्तित्त्व को सिद्ध करने का प्रयास
किया गया है। आत्मा अपरिवर्तनशील है और उसका सार चेतना है। अर्थात 'मै' चेतन आत्मा का ही निर्देश करता है।
गिलबर्ट राईल के विचारों को
व्यक्त करते हुए इस लेख में यह दर्शाने का प्रयास किया गया है की, 'मै' किसी रहस्यमसय सत्ता का निर्देशक शब्द नही है। |
||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | 'Who am I?' for this query numbers of possible answers be given by philosophers. In traditional philosophy 'I' is considered as a self whereas I is considered as a matter of introspection in western philosophy. Self identity directly refers to I, i.e to say self identity can be known as 'I' through introspection. Indian philosophy also tries to prove the existence of self throught 'I'. Self is eternal its essence is consciousness that is to say I refer to conscious self. According to Gilber Ryle's view experess in this article that 'I' does not referes to an entitiy that exist. that is to say 'I' is a pseudo entity. |
||||||
मुख्य शब्द | 'मै', आत्मा, चेतना, अंतरनिरीक्षण, आत्मतादात्म्य, स्मृती। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | 'I', Soul, Consciouness, Introspection, Self Identity, Memory. | ||||||
प्रस्तावना | क्या आत्मा का अस्तित्त्व
है? नास्तिकों का मानना है की, आत्मा का अस्तित्व नही है, तो आस्तिकों का
मानना है कि आत्मा का अस्तित्व है। यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि, संख्य दर्शन नास्तिक होकर भी आत्मा का अस्तित्व स्वीकार
करता है उसी तरह यह जान लेना अवश्यक है कि आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करने के
बावजूद आत्मा के स्वरूप के विषय में मतभेद है। शंकराचार्य के अनुसार चेतना आत्मा
का सार (Essence) है, तो सांख्य व न्याय दर्शन में चेतना आत्मा का सार तत्त्व न
होकर आकस्मिक गुण है।
आत्मा की चर्चा कालबाह्य
नही है। आये दिन हम सधूसंतों कों आत्मा पर प्रवचन देते हुये सुनते है। वे एक तो
आत्मा को उपमा द्वारा समझाते है कि, आत्मा शरीर की वैसी ही संचालक है जैसे जहाँज का कप्तान या कार चालक। शरीर एक
भौतिक ढाँचा है। वह अपने आप क्रियाशील नही हो सकता। बल्कि शरीर में कैद आत्मा के
कारण हलचल करता है। उसी तरह शरीर को नश्वर माना जाता है तो आत्मा को अमर माना जाता
है। लेकिन आत्मा को अमर मानकर भी उसका पुनर्जन्म भी माना जाता है। यह विसंगत है।
शरीर मरता है तो पुनर्जन्म उसका होना चाहिए और अमर आत्मा मरती ही नही तो उसका
पुनर्जन्म असम्भव होगा। यदी कहे की आत्मा एक शरीर त्यागकर दुसरा शरीर धारण करती है
वही उसका पुनर्जन्म है तो यह भी विसंगत है। दुसरा शरीर धारण करने को पुनर्जन्म
लेना नही कह सकते। बल्कि मरकर जीवित हो उठने को ही जन्म लेना कहा जा सकता है। लेकिन
आत्मा तो मरती ही नही। मरता तो शरीर हे। और मरने के बाद वह उसी रूप में जी नही
उठता। |
||||||
अध्ययन का उद्देश्य | परम्परागत दर्शन में 'मै' सम्बधी प्रश्नों के निवारण हेतू जो समाधान किये
गये है उनकी मर्यादाओं को स्पष्ट कर गिलबर्ट राईल के दृष्टी से इस समस्या को हल
करके मै की रहस्यात्मकता से कैसे मुक्त हो सकते है यह दर्शाना इस अध्ययन का उद्देश
है। |
||||||
साहित्यावलोकन | प्रश्न उपस्थित होता है की, यदी आत्मा है तो उसका ज्ञान कैसे होता है? ज्ञानेंद्रियोंसे, जडजगत का ज्ञान होता है तो आत्मा का ज्ञान कैसे होता है। उत्तर है की
अंतरनिरीक्षण व चेतना के द्वारा। पहले अंतरनिरीक्षण की परीक्षा करे। 1879 में जब
ज्ञानमीमांसीय प्रश्नो का दार्शनिक समाधान देने के बजाय वैज्ञानिक अध्ययन करने का
आरम्भ हुआ तब मनोविज्ञान की विषयवस्तू (Subject Matter) और पद्धती क्या हो इसपर चर्चा हुयी।[1] संरचनावादी मनोविज्ञान (Strutucal
Pschylogical) के प्रवर्तक विल्ह्येम वून्ट ने कहां की, सब विज्ञानो से भिन्न मनोविज्ञान की अपनी विशिष्ट विषयवस्तू
है और वह चेतना (Consciousness) है और अध्ययन
पद्धती है अंतरनिरीक्षण (Introspectiion) जैसे
भौतिकशास्त्र में विश्व की संरचना का अध्ययन किया जाता है वैसेही मनोविज्ञान में
चेतना की संरचना का अध्ययन किया जाता है। भौतिक विश्व जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन व न्यूट्रॉन से बना है वैसे ही चेतना के अविश्लेष्य
घटक संवेदना (Sensation), प्रतिमा (Image) व अनुभूती (Feelings) है। ज्ञान, भावना व इच्छा ये तीन घटक एक, दो या तीनों मिलकर रहते है। इन घटकों का अध्ययन
प्रयोगशाला में होता है। जो अंर्तनिरीक्षणद्वारा किया जाता है। कोई भी व्यक्ती
अंतरनिरीक्षण करने में सक्षम नही होता बल्कि अंतरनिरीक्षण करने का प्रशिक्षण लेना
पडता है। क्योंकि साधारण व्यक्ती मनोवैज्ञानिक शब्दावली का प्रयोग करने में भूल कर
सकते है। जैसे वह हिनता ग्रंथी से पिडीत है लेकिन कहता है की वह उबा हुआ है। अत:
मनोवैज्ञानिक शब्दावली को सिखने के लिये प्रशिक्षण लेना पडता है ताकि वह संवेदन, प्रतिमा व अनुभूती शब्दों का ठीक ठीक प्रयोग कर सके। दुसरे मनोवैज्ञानिक जो
प्रकारर्यवादी (Functionalist) कहे जाते है।
संरचनावादी दृष्टीकोन को जडवादी दृष्टीकोन कहते है। क्योंकी मन स्थिर नही होता
बल्कि सतत क्रियाशील होता है। अत: मनोविज्ञान की विषयवस्तू मन की क्रियाओं का
अध्ययन करना है। और इसके अध्ययन की पद्धती अंतरनिरीक्षण व बाह्य निरीक्षण दोनो हो
सकती है। बाद के मनोवैज्ञानिकोनें संरचनावाद और प्रकार्यवाद दोनो का खंडन कर
व्यवहार को मनोविज्ञान की विषयवस्तू और बाह्य निरीक्षण को अध्ययन पद्धती बनाया। इस
सम्प्रदाय को व्यवहारवाद कहाँ जाता है। गेस्टॉल्ट मनोविज्ञान ने अध्ययन के
दृष्टीकोन को बदला और कहाँ की कोई भी मनोक्रिया एकसमग्रता होती है। जो अपने अंशो
के जोड से अधिक कुछ होती है। (More than the some total of its parts) यह गणितीय दृष्टिकोन को छोडकर रासायनिक दृष्टिकोन अपनाना
था। अंतरनिरीक्षण के बाबत कुछ
मनोवैज्ञानिको का दृष्टिकोन यह था की, मन सबके पास होता है। अत: सभी अपने भितर झांककर अपने मन का निरीक्षण कर सकते
है। लेकिन राईल ने कहाँ की, सब मनोदशाओं का अंतरनिरीक्षण नही हो सकता। क्रोध, दहशत और उत्तेजना जैसी मनोदशाओं का अंतरनिरीक्षण असम्भव है।
इन मनोदशाओं के घट जाने के बाद इनकी स्मृति बची रह जाती है, और स्मृति अंतरनिरीक्षण नही होती। उसी तरह स्मृति कोई
क्रिया नही है। हम यह नही कहते की मैने दस
मिनट स्मरण किया, पाच मिनट के लिय रूका और फिर से स्मरण करना शुरू
किया। आत्मतादात्म्य (Self Identity) के लिये स्मृति का सहारा लिया जाता है।[2] आत्मतादात्म्य कें सम्बध में भी
स्मृती संबंधी दो मत है? एक मत के अनुसार, स्मृति आत्मतादात्म्य की रचना (Constitute) करती है। तो दुसरे मत के आधार पर स्मृती आत्मतादात्म्य की
खोज (Discover) करती है। दोनो ही मत गलत
है। आत्मा की जीवनी कई वर्षों में रहती है। पाच वर्ष, पचास वर्ष या सौ वर्ष इतने वर्षो में बहुत अनुभव होते है।
कुछ ही अनुभव स्मरण में रहते है। बाकी भूला दिये जाते है। या इक्का-दुक्का विस्मृत
अनुभव का स्मरण रहता है। तो हम कैसे मान ले कि स्मृति आत्मतादाम्य की रचना करती
है। दुसरी ओर स्मृती जिस अनुभव का स्मरण करती है वह इक्का-दुक्का या अनुभव का एक
छोटा समूह होता है। संपूर्ण जिये हुये अनुभव का स्मरण नही। अत: आत्मा का
अस्तित्त्व नही है।[3] चेतना की चर्चा करे तो
चेतना को जडतत्त्व की तरह उसका विरोधी तत्व मान लिया जाता है। किन्तु हम शरीर और
चेतना को पृथक नही कर सकते। चेतना कोई द्रव्य नही है जिसे स्वयं सांख्य दर्शन और
न्यायदर्शन कबूल करते है। चेतना का सिधा सा अर्थ है बोध होना। और बोध क्षण दो क्षण
के लिये हो जाते है। चेतना को स्वत: प्रकाशित भी
कहाँ जाता है। इस अर्थ में जब हमें चेतना होती है तब हमें उसका अनुभव भी होता है।
यह इक्का-दुक्का चेतना के बाबत सही है। लेकिन द्रव्यरूपी चेतना स्वीकार करने पर
हमें यह भी स्वीकार करना पडेगा की, हम सदा स्वत: प्रकाशित अनुभव लेते है। जो अनुभव के विपरीत है। उसी तरह द्रव्य
रूपी स्वत: प्रकाशित चेतना को स्वीकार करे तो अंतरनिरीक्षण और स्मृति का
अस्तित्त्व नकारना पडेगा। विल्यम जेम्स ने अपने निबंध 'Does
Conscinousness Exist?' में कहाँ है की, चेतना को भौतिक वस्तू का छायात्मक प्रतिरूप मानना एक मिथक
है। चेतना एक क्षणिक बोध का नाम है, न की मानसिक द्रव्य का। अत: अतरनिरीक्षण व चेतना मन का ज्ञान प्राप्त करने के
दो विशिष्ट मार्ग नही है। एक बात यहाँ जान लेना आवश्यक है की, भारतीय दर्शन में आत्मा व मन को दो भिन्न सत्ताये माना जाता
है। चाहे वे षड्दर्शन हो या चार्वाक, बौद्ध या जैन दर्शन ही क्यों न हो। 'मै कौन हूँ?'[4] यह प्रश्न उठाकर आत्मावादी जो
रहस्यवादी ही है, श्रोता को अपने अंदर झांकने की सलाह देते है की, वे 'मै' रूपी आत्मा को जानेंगे। प्रथम पुरूष एकवचनी 'मैं' इस अर्थ में आत्मा का सूचक है वह सदैव अपने आप
को निर्देश करता है। मेरा शरीर और मन निरंतर परिवर्तनशील है। अर्थात शरीर और मन
पाचवे साल, बीसवें साल या साठ सालों तक वैसे नही रहते बल्कि
परिवर्तनशील होते है। मन और शरीर के इस परिवर्तन के मध्य आत्मा अपरिवर्तनशील होती
है तो मैं नामक एकचवचनी प्रथम पुरूष सर्वनाम से निर्देशित होती है। दुसरे शब्दों
में मैं या आत्मा अपरिवर्तनशील सत्ता को कहते है। 'मै' इस अर्थ में भी अपरिवर्तनशील है कि मै उसे अपने लिये ही किसी भी काल व स्थान
में प्रयोग कर सकता हूँ। जबकी अन्य पुरूष सर्वनाम यथा 'तुम' और 'वह' मै, मोहन, सोहन, राकेश इत्यादी को निर्देशित करने के लिए प्रयोग कर सकता हूँ। इसलिए यह प्रश्न
की 'मैं कौन हूँ?', 'तूम कौन हो?' इस तरह 'मै' अकाट्य रूप से आत्मा का निर्देशक सर्वनाम है। अद्वैत वेदन्त के प्रवर्तक
शंकराचार्य ने उपरोक्त तर्क का सहारा लिया है। उनके अनुसार 'मै' हर काल व स्थान में एकही व्यक्ती को व्यक्त करता
है। व्यक्ती से भी अधिक वह व्यक्ती की आत्मा को निर्देशित करता है। आत्मा का सार
चेतना है। अत: 'मै' सर्वनाम चेतन आत्मा का ही निर्देश करता है। आत्मा या चेतना कैसे स्वयंभू है न
की व्यक्त निर्देशक है। हम कहते है की, 'मेरा शरीर मोटा है', 'मेरा मन पवित्र है', 'मेरा अंत:करण साफा है', 'मेरी एकही आँख है', 'मै दु:खी हूँ' इत्यादी इन अभिव्यक्तियों में 'मेरा' या 'मै' शरीर, मन, अंत:करण, शरीर का एक अंग, मनोदशा से द्वैत (Dualism) रखता है। अर्थात 'मै' शरीर, मन, मनोदशा से भिन्न है। शंकराचार्य कहते है की, यदी कोई कहे की हम 'मेरी चेतना' कहकर 'मै' और 'चेतना' में भी द्वैत बता सकते है तो इस पर शंकराचार्य
का यह उत्तर है की, 'मेरी चेतना' में कोई द्वैत नही है। क्योंकि यह 'काशी की नगरी' की तरह अद्वैत है। शंकराचार्य के तर्क में सबसे बडा
दोष है की वे भूल जाते है की, एकवचनी प्रथम
पुरूष सर्वनाम 'मै' नाम की जगह प्रयोग किया जाता है और नाम में कोई रहस्य नही है। 'मोहन कौन है?' की जगह मोहन यदी 'मै कौन हूँ?' कहे तो सारा रहस्य ढह जाता है। परिभाषा भी है की, सर्वनाम नाम की जगह प्रयोग किये जाते है।
रसेल ने मै के संदर्भ में
कहाँ की, तथाकथित अंतरनिरीक्षण करके 'मै' का अनुभव नही लिया जाता। 'मैं' तार्किक दृष्टि से अनिवार्य नहीं है। (''I' is not emperically verifiable
nor is logically necessary)[6] अर्थात 'मै' अनुभव का विषय तो नही है बल्कि केवल सुविधा के
लिए प्रयोग में लाया गया शब्द है। अन्यथा यदि समाज यह ठाण ले की सब अपने बाबत
विशेष नाम, मोहन, सोहन का प्रयोग करें, 'मै' का नही तो 'मै' से जूडा रहस्यवाद हवा में उड जायेगा। 'मै सेाचता हूँ' कि जगह मोहन सोचता है का प्रयोग प्रचलित करे और
रहस्यवाद से छुटकारा पाये। |
||||||
निष्कर्ष |
20 वी शताब्दी में उभरे
भाषा दर्शन की केंद्रवर्ती धारणा यह थी की, दार्शनिक समस्याएं रोजमर्रा की भाषा के दूरउपयाग से उत्पन्न होती है। मानस
दर्शन में तथा तत्वमीमांसा में आत्मा के स्वरूप पर चर्चा की गयी है। जब वक्ती
स्वयं के बारे में बोलता है तो 'मै' की
चर्चा करता है। 'मै कौन हूँ?' इस
प्रश्न का उत्तर 'मै' चेतना या आत्मा
हूँ यह कहकर दिया जाता है। भाषा दर्शन इस समस्या को 'मै'
की जगह विशेषनाम का प्रयोग कर के हल कर देता है तथा 'मै' की रहस्यात्मकता नष्ट हो जाती है। |
||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. Robert
Woodworth - Contemporary Schools of Psychology, Pg. 32 |