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दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण |
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Scientific View of Religious Rites of Tribal Tribes of Southern Rajasthan | |||||||
Paper Id :
18606 Submission Date :
2024-02-11 Acceptance Date :
2024-02-20 Publication Date :
2024-02-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10890145 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
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सारांश |
प्रस्तुत शोध कार्य का
मुख्य उद्देश्य दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों का
वैज्ञानिक दृष्टिकोण ज्ञात करना है। प्रस्तुत शोध कार्य में दक्षिणी राजस्थान के
आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अवलोकन किया
जायेगा। प्रस्तुत शोध कार्य में न्यादर्श के रूप में दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी
जनजातियों का चयन किया गया है। दत्त संकलन हेतु आदिवासी जनजातियों के अभिमत लिए
जायेंगे व प्राप्त परिणामों के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण की पुष्टि विषय
विशेषज्ञों से की जायेगी। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The main objective of the presented research work is to find out the scientific viewpoint of the religious rituals of the tribal tribes of Southern Rajasthan. In the presented research work, the scientific approach of religious rituals of the tribal tribes of Southern Rajasthan will be observed. In the presented research work, tribal tribes of Southern Rajasthan have been selected as samples. For data collection, opinions of tribals will be taken and based on the results obtained, the scientific viewpoint will be confirmed by subject experts. | ||||||
मुख्य शब्द | आदिवासी जनजाति, धार्मिक संस्कार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | There are Tribal Tribes, Religious Rituals, Scientific Outlook. | ||||||
प्रस्तावना | जब हम बात शिक्षा की करते हैं तो अप्रत्यक्ष रूप से हम बात संस्कारो की ही करते है। भारतीय सभ्यता व संस्कृति में तो जन्म से लेकर मृत्यु तक हम संस्कारो का ही निर्वहन करते है, व सम्पूर्ण जीवन 16 संस्कारों पर ही आधारित होता है, लेकिन वर्तमान समय में हमने हमारे संस्कारों को कही पीछे छोड़ दिया है, लेकिन आदिवासी जनजातियों ने अभी भी अपने जीवन में उन्हें अपना रखा है व उसके अनुसार ही जीवन निर्वाह कर रहे हैं जैसे आंगन में तुलसी का पौधा लगाना, कर्ण छेदन, गौमूत्र का सेवन, सावन मास में व्रत करना, कटोरदान (रोटी खाने का बर्तन) रात मे खाली नही रखना, बालों में फूल व पक्षियों के पंख लगाना इत्यादि। कोविड जैसी महामारी में भी वह अपना सामान्य जीवन जी पा रहे थे, जबकि हम मास्क, 2 गज की दूरी का पालन कर रहे थे तो भी जनहानि व मानसिक तनाव से हम ज्यादा ग्रसित रहे इसी बात ने एक बार पुनः हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या हमारे पूर्वजों ने जो संस्कार आधारित जीवन पद्धति या जीवन जीने की कला बताई वह महज धार्मिक क्रिया-कलाप है या उसमें कोई ओर बात भी छिपी है? और अगर है तो क्या? इसी जिज्ञासा ने शोधार्थी के मन में यह प्रश्न उजागर किया कि क्या आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों का कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण हैं? और अगर है तो उसको वर्तमान में हमारे जीवन में अपनाये जाने की अत्यधिक आवश्यकता है, व हम संस्कारों को संस्कारों के रूप में ही नहीं वरन् उपयोगिता के आधार पर ग्रहण करें, क्योंकि हमारे पूर्वजों ने इसे नाम धार्मिक संस्कार दिया पर उनकी सोच बहुत वैज्ञानिक व तथ्यों के पुष्टिकरण की थी उदाहरण रात की बासी रोटी में विटामिन-बी 12 होता है, तुलसी का पौधा 24 घंटे ऑक्सीजन देता है, कर्ण छेदन एक्यूप्रेशर का कार्य करता है, गौमूत्र सेवन कैंसर जैसे रोगों से बचाता है। इसी बात को ध्यान में रखकर शोधार्थी के मन में इस विषय को चयन करने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई व इस विषय का चयन किया गया । शोध की आवश्यकता व महत्व - सम्बन्धित साहित्य का तत्परता से अध्ययन करने के पश्चात् शोधार्थी कुछ विशिष्ट निष्कर्षों पर पहुँची कि आदिवासी जनजातियों के शिक्षा, भूमि, रहन-सहन, सरकारी योजनाओं, महिला शिक्षा, ऐतिहासिक क्षैत्र, लोक साहित्य, व्यावसायिक कौशल, अपराध क्षेत्र आदि पर तो भारत और विदेशों में अध्ययन किया गया है, परन्तु आदिवासियों के धार्मिक संस्कारों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर कोई भी कार्य अभी तक नहीं हुआ है। इस हेतु कोई मानकीकृत उपकरण भी अभी तक नहीं बना है। अतः इस और अध्ययन की आवश्यकता का अनुभव करते हुए शोधार्थी ने प्रस्तुत विषय का चयन किया व इसमें दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी जनजातियों का चयन किया क्योंकि इस न्यादर्श को लेकर अभी तक कोई भी कार्य इस क्षेत्र में नहीं हुआ है। अतः अध्ययन की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण क्षैत्र माना जा रहा है। अतः ऐसे महत्वपूर्ण एवं उपयोगी क्षैत्र पर वांछनीय शोध कार्य अपरिहार्य बन जाता है। समस्या कथन – “दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण” “Scientific view of religious rites of tribal tribes of Southern Rajasthan” शोध प्रश्न - 1. क्या दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कार सिर्फ संस्कार ही है? 2. क्या दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों और वैज्ञानिक पहलुओं में सीधा सम्बन्ध है? 3. क्या शहरीकरण व आधुनिकता के कारण धार्मिक संस्कारों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है? 4. क्या वर्तमान पीढ़ी धार्मिक संस्कारों की वैज्ञानिकता को जानने के बाद इन्हे स्वीकार करेगी? |
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों में प्रचलित धार्मिक
संस्कारों का अध्ययन करना। 2. दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों में प्रचलित धार्मिक
संस्कारों में छिपे वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अध्ययन करना। 3. दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों में प्रचलित धार्मिक
संस्कारों में छिपे वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पुष्टिकरण करना। 4. दक्षिणी राजस्थान के
आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों के औषधीय महत्व का अध्ययन करना। 5. दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों
के भविष्य की अस्तित्वता का अध्ययन करना। 6. सरकार द्वारा आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों के संरक्षण हेतु किए जा रहे प्रयासों का मूल्यांकन करना। 7. सरकार को सुझाव उपलब्ध करवाना। |
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साहित्यावलोकन | भारत में किये गये शोध कार्य- सपना मावतवाल (2018) ने जनजाति छात्राओं के सशक्तिकरण पर अध्ययन किया परिणाम में पाया कि वह सशक्तिकरण से अनभिज्ञ है। राजेश डामोर (2016) दक्षिणी राजस्थान के जनजाति क्षैत्र में अपराध पर शोध किया, मुख्य अपराध मौताणा, बहु विवाह, नाता प्रथा, अवैध मद्यपान पाया। पारगी गौतमलाल (2012) जनजातियों की प्रमुख समस्या व निवारण पर शोध किया व पाया कि उचित ज्ञान न होने से वह समस्याग्रस्त है। प्रधान (2011) ने अपने शोध कार्य आदिवासी लोगो की शिक्षा पर शोध किया व परिणाम इस रूप में प्राप्त हुए कि शिक्षा से वंचित होने के कारण जनजातियाँ अपने संस्कारों को सहेज कर रखने में अक्षम है। सुकाई (2010) ने अपने शोध में आदिवासियों के भोगोलिक क्षैत्र का वर्णन करते हुए कहा कि सुदूर दूर निवास करते है व सरकारी योजनाओं से वंचित है। ठाकुर और जगलाल (2008) ने हिमाचल प्रदेश के चम्बा गाँव को अध्ययन का क्षैत्र चुना, परिणाम में पाया कि प्रारम्भ में इनमें शिक्षा का स्तर निम्न था, लेकिन अब उसमें सुधार है तथा और सुधार की आवश्यकता है। सिंह व सिंह (2008) उत्तरप्रदेश के बहराईच क्षेत्र का अध्ययन कर पाया कि साक्षरता की दर कम होने की वजह से यहाँ पर भूखमरी व गरीबी अधिक है। नारायण लाल बरण्डा (2006) आदिवासी खिलाड़ियो पर शोध, करूपयीयन (2000) तमिलनाडू आदिवासी भूमि में हस्तानान्तरण पर शोध अध्ययन किया। शंकरलाल खराड़ी (2005) ऐतिहासिक क्षैत्र में वागड, गणेशलाल निनामा (2004) वागड क्षैत्र में लोकसाहित्य, बॉस (1986) केरल आदिवासियों के विकास पर अध्ययन किया। विदेशो में किये गये शोध कार्य- लोहमान ए.सी. (1998) अफ्रीकीय जनजाति क्षैत्र पर अध्ययन किया। जोसफ पॉल (1995) ने अमेरिकी जनजातिय क्षेत्र में अध्ययन किया ओथिस्वी (1992) ने एशियाई जनजातियों पर तुलनात्मक अध्ययन किया। |
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मुख्य पाठ |
शोध में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या - आदिवासी जनजाति - आदिवासी जनजाति समूह के लिए भारतीय संविधान में भी उल्लेख किया गया है। भारतीय समाज में जनजाति से आशय वन्य जाति, आदिवासी, वनवासी, आदिमजाति, गिरिजन आदि से है। ये जनजाति ऐसे लोगों का समुदाय है जो आज भी जंगलों में निवास करते हैं। धार्मिक संस्कार - जो धारण करने योग्य है वह धर्म है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण - क्रमबद्ध, व्यवस्थित वर्णन साथ ही जिसके परिणामों की सार्थकता को ज्ञात किया जा सके।
अनुसन्धान विधि – इस शोध अध्ययन में सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया जायेगा।
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न्यादर्ष |
किसी भी शोध कार्य की सफलता का आधार न्यादर्श होता है। अतः शोधार्थी ने समस्या पर विचार करते हुए न्यादर्श का चयन किया, जिससे वह वास्तविक जनसंख्या का प्रतिनिधित्व कर सके, इसे निम्नानुसार स्पष्ट किया गया है - दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों (भील, मीणा, गड़िया लौहार, कथोड़ी, गरासिया, डामोर) का रेन्डम सेम्पलिंग के आधार पर चयन किया जायेगा। |
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प्रयुक्त उपकरण | प्रस्तुत शोध में स्वनिर्मित उपकरण का प्रयोग किया जायेगा - 1. आदिवासी जनजातियों हेतु अभिमतावली 2. विषय विशेषज्ञों से साक्षात्कार |
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अध्ययन में प्रयुक्त सांख्यिकी |
प्रस्तुत शोध कार्य हेतु दत्तों का विश्लेषण करने के लिए प्रतिशत मान सांख्यिकीय प्रविधि का प्रयोग किया जाएगा। |
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निष्कर्ष |
किसी भी अध्ययन का औचित्य उसके परिणामों की विस्तृत क्षेत्र में सार्थकता एवं उपयुक्तता के आधार पर निश्चित किया जाता है, इस समस्या का औचित्य भी यह जानना है कि दक्षिणी राजस्थान की जनजातियों के धार्मिक संस्कारों का पता लगाना साथ ही यह पता लगाना कि इन जनजातियों के धार्मिक संस्कार केवल मात्र धार्मिक संस्कार ही है या उनमें कोई वैज्ञानिकता भी है। शोध के पश्चात् धार्मिक संस्कारों में अगर वैज्ञानिकता का रूप है तो उन्हें केवल धार्मिक संस्कारों के रूप में नही वरन् वैज्ञानिकता के आधार पर नई पीढ़ी तक पहुँचाना है, जिससे की वह लाभान्वित हो सकें। दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों के धार्मिक संस्कारों के लिए भावी योजनाएँ - दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों में जन्म, विवाह एवं मृत्यु सम्बन्धी अनेक धार्मिक संस्कार होते है। अगर इन धार्मिक संस्कारों में वैज्ञानिकता का रूप छिपा हुआ है तो भावी पीढ़ी उन्हें सिर्फ धार्मिक संस्कारों के रूप में ही नहीं वरन् उपयोगिता के आधार पर स्वीकार करेगी, न केवल राष्ट्रीय वरन् अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर भी जब धार्मिक संस्कारों को वैज्ञानिकता के साथ स्वीकार किया जायेगा तो यह राष्ट्र के लिए गौरव की बात होगी एवं विश्व भी इसे स्वीकार करेगा व इस बात की पुष्टि होगी की भारत विश्व गुरू था है व रहेगा। व हमारे धार्मिक संस्कार जो कहीं लुप्त हो रहे है वह भी पुनः जीवित हो जायेंगे साथ ही आदिवासियो के उत्थान के लिए भी योजनाएँ बनेगी। |
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अध्ययन की सीमा | शोध का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक एवं विस्तृत होता है। अतः समस्या के क्षैत्र को नियन्त्रित करके इसके प्रभावशाली एवं सार्थक अध्ययन हेतु निम्न रूप से परिसीमन किया है - क्षेत्रवार परिसीमन - यह शोध कार्य केवल दक्षिणी राजस्थान तक ही सीमित है। जनजातिवार - यह शोधकार्य दक्षिणी राजस्थान में स्थित जनजातियों (भील, मीणा, गड़िया लौहार, कथोड़ी, गरासिया, डामोर) तक ही सीमित है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. सैलिक, जे., एंड बिग, ए. (2007).इंडिजन पीपल्स एंड क्लाइमेट चेंज. टिंडल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च वर्किंग पेपर 108. 2. ब्राउन, एल. (2004).कल्चरल डाइवर्सिटी एंड बायोडायवर्सिटी फॉर सस्टेनेबल डेवेलपमेंट अम्बिओ, 33(1/2), 52-56. 3. नाभन, जी. पी. (2003).कल्चर्स ऑफ़ हैबिटेटरू ऑन नेचर, कल्चर, एंड स्टोरी काउंटरपॉइंट प्रेस. 5. मिहेसुआह, डी. ए. (2003).इंडिजन अमेरिकन वुमेनरू डीकोलोनाइजेशन, एम्पावरमेंट, एक्टिविज़म यूनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का प्रेस. 4. सिम्प्सन, एल. आर. (2001).एंटीकोलोनियल स्ट्रेटेजीज़ फॉर द रिकवरी एंड मेंटेनेंस ऑफ़ इंडिजन नॉलेज अमेरिकन इंडियन क्वार्टरली, 25(2), 187-213. 6. बैटिस्ट, एम. (2000).रिक्लेमिंग इंडिजन वॉयस एंड विज़न. यूबीसी प्रेस. 7. स्मिथ, एल. टी. (1999).डिकोलोनाइजिंग मेथोडोलॉजीजरू रिसर्च एंड इंडिजन पीपल्स.’ जेड बुक्स. 8. टर्नर, एन. जे. (1998).“ए माइंड ऑफ हर ऑन”रू द एवोल्यूशन ऑफ प्लांट नॉलेज एमंग द शुस्वाप पीपल इन डी. एम. एटकिन (संपा.), प्लांट्स इन इंडिजन मेडिसिन एंड डाइटरू बायोबहेविओरल एप्रोचेस (पृ. 93-112). बर्घाहन बुक्स. 9. विवेइरोस दे कैस्ट्रो, ई. (1998).कॉस्मोलॉजिकल डेक्सिस एंड अमेरिंडियन पर्स्पेक्टिविस्म जर्नल ऑफ़ द रॉयल एंथ्रोपोलॉजिकल इंस्टीट्यूट, 4(3), 469-488. 10. स्वान्सन, जी. इ. (1996).द डिसपासेस्डरू एन एनैटॉमी ऑफ़ एग्जाइल. आइलैंड प्रेस. 11. काजेट, जी. (1994).लुक टू द माउंटेनरू एन एकोलॉजी ऑफ इंडिजन एजुकेशन किवाकी प्रेस. 12. गाऊ, पी. (1991).ऑफ़ मिक्स्ड ब्लडरू किनशिप एंड हिस्ट्री इन पेरुवियन एमेजोनिया ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी प्रेस. 13. कीसिंग, आर . एम. (1982).क्वाइओ रिलिजनरू द लिविंग एंड द डेड इन ए सोलोमन आइलैंड सोसाइटी कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस. 14. देलोरिया, वी. जूनियर (1969).कस्टर डाइड फॉर योर सिन्सरू एन इंडियन मैनिफेस्टो यूनिवर्सिटी ऑफ़ ओक्लाहोमा प्रेस. 15. हैलोवेल, ए. आई. (1960).ओजिबवा ऑनटोलॉजी, बिहेवियर, एंड वर्ल्ड व्यू.’ इन एस. डायमंड (संपा.), कल्चर इन हिस्ट्रीरू एसेस इन हनर ऑफ पॉल राडिन (पृ. 19-52). कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस. |