ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- XII March  - 2024
Anthology The Research

संस्कृत साहित्य में पर्यावरण चेतना

Environmental Consciousness in Sanskrit Literature
Paper Id :  18742   Submission Date :  2024-03-14   Acceptance Date :  2024-03-17   Publication Date :  2024-03-22
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DOI:10.5281/zenodo.10853523
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गीताराम शर्मा
(प्रोफेसर)
सहायक निदेशक
कोटा परिक्षेत्र
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश

पर्यावरण एक व्यापक शब्द है। परि और आड़् उपसर्ग वृञ् वरणे धातु से भावार्थ में ल्युट् प्रत्यय के योग से निष्पन्न पर्यावरण शब्द का व्यापक अभिप्राय चराचर जगत को आवृत करने वाली सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों एवं परिस्थितियों का योग है जिनके बिना जीवन का अस्तित्व असंभव है। पर्यावरण प्राणी मात्र के जीवन के स्वभाव, व्यवहार और विकास को समग्रता से प्रभावित करता है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Environment is a broad term. The broad meaning of the word environment, derived from the combination of the suffix lyut in meaning from the root pari and aadh prefix vrinn varne, is the sum of all the natural forces and circumstances covering the living world, without which the existence of life is impossible. The environment as a whole affects the nature, behavior and development of living beings.
मुख्य शब्द संस्कृत, साहित्य, पर्यावरण, चेतना।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Sanskrit, Literature, Environment, Consciousness.
प्रस्तावना

पर्यावरण की व्यापक परिधि में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, ऋतु, पर्वत, नदियाँ, सागर, महासागर, सरोवर, वृक्ष, लता, वनस्पतियाँ, सभी जीव जन्तु, गृह, नक्षत्र आदि समग्र चराचर का जीवन चक्र समाविष्ट होता है। ये सभी पर्यावरणीय तत्व समग्र जीवन चक्र को सृजित, संचालित और प्रभावित करते हैं तथा पर्यावरण इन सभी से स्वयं भी प्रभावित होता है। इस प्रकार पर्यावरण और जीवनचक्र परस्पर पूरक हैं। 

अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य संस्कृत साहित्य में पर्यावरण चेतना का अध्ययन करना है
साहित्यावलोकन

उपनिषदों ने तो पर्यावरण को परम सत्ता का ही रुपान्तरण माना है। उपनिषद् कहती हैं कि परमात्मा ने एकोऽहं बहुस्याम:।"[1] (मैं एक अनेक हो जाऊँ) का संकल्प लेकर पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश और उनसे निर्मित मनुष्य पशु, पक्षी, पृथ्वी, नदी, सागर, पर्वतादि के रुप में स्वयं का ही विस्तार किया। फलत: भारतीय  समाज और संस्कृति में निहित जीवन और पर्यावरण की  परस्परपूरकता और सह अस्तित्व एवं उसकी सुरक्षा के प्रति चिन्ता और चिन्तन की  सशक्त अभिव्यक्ति समग्र संस्कृत साहित्य में हुयी है| लगभग सभी भारतीय दर्शनों का मन्तव्य है कि समग्र आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक जगत पंचकोशीय है। व्यष्टिगत एकल व्यक्तित्व हों या समष्टिगत ब्रह्माण्ड हो,सभी  आनन्दमय, विज्ञान मय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों के योग से निर्मित हैं। इन पंचकोशों का निर्माण पर्यावरण के प्रधान घटक आकाश,वायु,जल, अग्नि और पृथ्वी के स्थूल रुप पंच महाभूत तथा सूक्ष्म रुप पंचतन्मात्रा शब्द, स्पर्श, रस, रुप और गन्ध के विशिष्ट समन्वय से होता है‌। ऋषि इस रहस्य से भलीभाँति परिचित थे कि पर्यावरणीय तत्वों के प्रभावित होने से भौतिक जगत और उसमें पल रहे जीवन का प्रभावित होना स्वाभाविक है। इसलिए ऋग्वेद की प्रथम ऋचा से लेकर अद्यावधि तक के संस्कृत साहित्य में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि आदि सभी पर्यावरणीय घटकों की सुरक्षा की कामना व्यापक लोकमंगल भाव से की गयी है।

मुख्य पाठ

वैदिक ऋचाओं में उपास्य अग्निवायुसूर्यऊषाइन्द्रवरुणआदि देव वस्तुतः हमारी पर्यावरणीय शक्तियां ही हैं। ये देव शक्तियां ही स्वयं द्वारा निर्मित प्राणी मात्र के लिए बिना किसी भेदभाव के जलवायुप्रकाशभोजनऊर्जाआवास आदि अनिवार्य उपभोग सामग्री प्रदान करती हैं ।संस्कृत साहित्य में पेड़पौधेजलजमीनजंगलनदियाँ,के प्रति जन चेतना की अभिव्यक्ति पदे पदे  हुई है। पूरा संस्कृत  वाड्मय वृक्षवन औषधिवन्य तथा अरण्यवासी जन्तुओं में देवत्व दृष्टि का आह्वान करता है। संस्कृत साहित्य इस सत्य का दृढ़ता से समर्थक है कि पर्यावरणीय घटकोंपेड़पौधोंजड़ी बूटियों का बचाना वस्तुत: जीवन का बचाना है तथा उन्हें नष्ट करना या नष्ट होते देखना आत्मघात जैसा ही है। इसी भाव से पूरा वैदिक वाड़्मय तथा उसके अनुसरण पर रचित परवर्ती समग्र  संस्कृत साहित्य  पर्यावरण के प्रति देवत्व भाव से आस्थावान है। विश्वसाहित्य में प्राचीनतम ऋग्वेद की प्रथम ऋचा में ही पर्यावरण के प्रमुख घटक अग्नि की स्तुति की गयी है-

"अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।

होतारं रत्नधातमम्। [2]

ऋग्वेद में सैकड़ों सूक्तों में अग्नि का जीवन के योग क्षेम की दृष्टि से महत्व प्रतिपादित है। अग्नि का मूल स्रोत सूर्य है। सूर्य को चराचर जगत की आत्मा के रुप में पहचान कर वैदिक ऋषियों ने समग्र सृष्टि के सृजन, संरक्षण और संहरण में सूर्य की महनीय भूमिका निरुपित किया है-

सूर्य आत्मा जगतस्थुश्च।[3]

वैदिक साहित्य में  गायत्री मन्त्र द्वारा आराध्य  महान दैवीय सावित्री तेज वस्तुत: सौर ऊर्जा ही है जिससे भू आदि भौतिक लोकों को प्रकाशित करते हुए प्राणी मात्र की बौद्धिक क्षमताओं के विकास की भी कामना की गयी है।  वैदिक ऋचाओं में सभी पर्यावरणीय घटकों की शान्ति की प्रार्थना विश्वनियन्ता से इस प्रकार की गयी है कि हे परमात्मा! हमारे लिए आकाश, अंतरिक्ष, पृथ्वी ,जल, औषधियाँ, वनस्पतियाँ, विश्वेदेव, एवं ब्रह्म सभी शान्ति प्रदाता हों, एवं चारों ओर शान्ति  हो -

" ऊँ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति: पृथिवी शान्तिराप:शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्मशान्ति:।

सर्व शान्ति: शान्तिरेवशान्ति: सा मा शान्तिरेवशान्ति।।[4]

वैदिक ऋषियों ने पर्यावरण पारिस्थितिकी तन्त्र के साथ हमारे रहस्यात्मक सम्बन्धों को जानकर  पर्यावरण को धर्म, संस्कृति और जीवन व्यवहार से जोड़कर अनूठा चिन्तन दिया। आज असंयमित भौतिक उपभोग की वितृष्णा में अन्धे होकर प्रकृति का शोषण कर रहे मनुष्य को आर्ष ऋषियों की प्रकृति के प्रति स्नेहमयी दृष्टि मनुष्य और प्रकृति के साथ अन्त:सम्बन्धों का स्मरण कराती है। ऋषियों ने पृथिवी, आकाश, जल, वायु, वृक्ष, वनस्पति, समुद्र,नद- नदियों के साथ न केवल देवत्व भाव देखा अपितु इनके साथ माता ,पिता, भ्राता, भगिनी आदि पारिवारिक आत्मीय  सम्बन्ध स्थापित किये और स्वत: प्रेरित होकर इन सभी की सुरक्षा को स्वयं के जीवन का हिस्सा बनाने की प्रेरणा दी‌।ऋग्वेद में  धरती को माता और आकाश को पिता माना गया है-

" द्यौऽपित: पृथिवी मातरधुक्।"[5]

 अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में भी यही भाव व्यक्त किया गया है कि यह धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं-

" माता भूमि: पुत्रोंऽहं पृथिव्या:"[6]

धरती के साथ माता पुत्र का यह अति आत्मीय सम्बन्ध पर्यावरण के प्रति ऋषियों के सर्वाधिक राग और पर्यावरणीय चेतना का उत्कृष्ट उदाहरण है। वेदों में  जल के राजा इन्द्र एवं वृत्र के युद्ध का उल्लेख है-

"अहन् वृत्रं वज्रेण महता वधेन।[7]

इन्द्र देव ने घातक दिव्य वज्र से वृत्रासुर का वध  किया और उसके  चंगुल में फंसे जलों को मुक्त किया। इस रुपक के माध्यम से इस विचार की पुष्टि होती है कि प्रकृति एवं पर्यावरण की सुरक्षा ही दैवीय शक्तियों का प्रधान कार्य है। वेदों में पर्जन्य (मेघ) देवता की महत्वपूर्ण भूमिका है । पर्जन्य भूमि को उर्वरा बनाते हैं, वनस्पतियों का पोषण करते हैं एवं उनमें प्राण शक्ति का संचार करते हैं ‌।इस प्रकार वैदिक ऋषि प्राकृतिक उपादान देव, भूमिवनस्पतियों के साथ संवेदनशीलता व्यक्त कर पर्यावरण के प्रति अपनी चेतना पदे पदे सिद्ध करते हैं । वेदों में प्रतिपादित यज्ञ विधान प्रकृति और पर्यावरण चक्र के सन्तुलन का उपाय ही है। प्राकृतिक यज्ञ चक्र का बहुत सरल रुप में व्याख्यान करते हुए कहा गया है कि सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से उत्पन्न होती है, यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्राकृतिक रुप संचालित सम्पूर्ण जीवन चक्र ही यज्ञस्वरुप  है-

अन्नाद्  भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:।

यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव :।।[8]

अनेक वैदिक सूक्तों में जल की अमृत के रुप में महिमा का प्रतिपादित करते हुए शुद्ध जल प्रवाह की कामना की गयी है।यथा-

" अपस्वऽन्तरमृतम्"  अर्थात् जल अमृत है।[9]

न केवल वैदिक साहित्य अपितु सम्पूर्ण पौराणिक और शास्त्रीय साहित्य  पर्यावरण विषयक चिन्तन और उसकी सुरक्षा की चिन्ता से युक्त दिखाई देता है। श्रीमद्भागवत महापुराण  में पूरे ब्रह्माण्ड को विराट पुरुष का स्वरुप बताकर सभी पर्यावरणीय तत्वों को उस विराट पुरुष के अंग उपांगों के रुप में निरुपित करते हुए कहा गया है कि समुद्र विराट पुरुष की कोख हैं, पहाड़ अस्थिपंजर हैं, हवा साँस हैनदियाँ उसकी धमनियां हैं तथा पेड़ उसके शरीर के रोएँ हैं।जीवन, कर्म तथा गुण प्रवाह इस विराट पुरुष की गति हैं-

"कुक्षि समुद्रा गिरयोऽस्थिसंघा,

नद्योऽस्य नाड्योऽथ तनूरुहाणि।महीरुहाविश्वतनोर्नरेन्द्र ।

अनन्तवीर्य: श्वसितं मातरिश्वा, गतिर्वय: कर्म गुणप्रवाह।।[10]

भविष्य पुराण में  तो पुत्रों से भी अधिक दुलार और चिन्ता पेड़ों के लिए करने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि पुत्र होने पर सद् गति हो ही जायेगी, यह तय नहीं है। यदि कपूत जन्मा तो वह न इस लोक में चैन से जीने देगा और न परलोक में सद्गति हो सकेगी लेकिन यदि समझदार व्यक्ति पेड़ लगाकर उन्हें पुत्र भाव से दुलार करे तो वह ऐसे अनन्त पुण्यों का फल भागी हो जाता है जो घर में किसी सपूत के जन्म लेने या, यज्ञ, दान, तप आदि से भी दुर्लभ हैं-

पुत्रैर्बिना शुभगतिर्न भवेन्नराणां,

दुष्पुत्रकैरिति ततोभयलोकनाश:।।

एतत्विचार्य सुधिया परिपाल्य वृक्षान्,

पुत्रा: पुराण विधिना परिपालनीया:।।[11]

सदा स तीर्थो भवति सदा दानं प्रयच्छति।

सदा यज्ञ स यजते यो रोपयति पादपम्।।[12]

पर्यावरण के प्रति मनुष्य के एकात्म का प्रतिपादन समूचे संस्कृत साहित्य की आत्मा है,जिसके अनेक उदाहरण प्रत्येक साहित्यिक कृति में उपलब्ध हैं। यथा-अभिज्ञान शाकुन्तम् नाटक में  उसकी नायिका शकुन्तला की पति गृह की विदाई के समय पेड़ पौधों के साथ उसके पारिवारिक सम्बन्धों का स्मरण कराते हुए ऋषि कण्व विदाई की अनुमति मांगते हैं कि "जो स्वयं जल पीने से पहले वृक्षों को जल पिलाती रही है। मंडनप्रिया होने पर भी स्नेहवश एक पत्ता तक नहीं तोड़ती थी। प्रथम बार पुष्प आने पर उत्सव मनाती थी वही शकुन्तला पतिगृह जा रही है, उसे अनुमति दें -

" पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलन युष्मास्वपीतेषु या।

नादत्ते प्रियमंडनांऽपि भवतां स्नेहेन या पल्लवन।।

आद्ये व: कुसुम प्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सव:,

सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम्।।[13]

न केवल प्राचीन संस्कृत साहित्य अपितु आधुनिक संस्कृत साहित्य पर्यावरण के सौन्दर्य और महिमा के प्रति नतमस्तक होते हुए उसके सुरक्षा के लिए बहुत चिन्तित है‌। यथा- कवि हरेकृष्ण शतपथी की पर्यावरण प्रदूषण से आहत होकर कहते हैं कि- आज संपूर्ण प्रकृति अपनी पवित्रता के लिए संघर्ष कर रही है । जीवनदायिनी नदियों की दुर्दशा आज किसी से छिपी नहीं है। ‌मां के नाम से सम्बोधित की जाने वाली नदियाँ आज इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि मनुष्य के लिए उनके जल का स्पर्श करना भी सुरक्षित नहीं  है‌। नगरों के समीप से गुजरने वाली नदियों का स्वरूप एक गंदे नाले में परिवर्तित हो चुका है। वैज्ञानिक प्रगति एवं औद्योगिकीकरण के परिणाम स्वरूप देवनदी कहीं जाने वाली गंगा जैसी नदी के तट पर अनेकों उद्योगों के जहरीले अपशिष्ट मानवीय जीवन के लिए गहरे संकट का सन्देश दे रहे हैं। कवि इस यथार्थ से बहुत आहत हैं कि देवता भी जिस नदी के तटों पर जलक्रीड़ा के लिए आया करते थे, वही तट  जलाए जाते हुए शवों के कारण दुर्गन्ध से व्याकुल हैं-

नित्यं तन्मणिकर्णिकानिकटतो दन्दह्यमानै: शवै:‌।

तस्या: भड़्गाताराड़्गरशिधुना दुर्गन्धपर्याकुल :।।[14]

निष्कर्ष

आधुनिक संस्कृत साहित्य की चिन्ता यह अधिक है कि वर्तमान का पर्यावरण संकट वुभुक्षितं किं न करोति अर्थात "भूखा क्या पाप नहीं करता " जैसी पारम्परिक धारणा को  भी तोड़ता नजर आ रहा है, क्योंकि कि वर्तमान में पर्यावरण क्षति का महान संकट भूखे पेट वालों के कारण नहीं पूरी तरह से भरे पेट वालों द्वारा हो रहा है| इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण और शोधन की चिन्ता तथा चिन्तन का व्याप संस्कृत साहित्य में बहुत विराट है जिसकी  इस शोध पत्र में सीमित बानगी भर है‌। अपेक्षा है इस दिशा में वृहद शोध हो । जिससे ऋषियों का संकल्प -

"सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्।।[15]

अर्थात् "सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, सभी का कल्याण होकोई भी दु:खभागी नहीं बने।" फलित हो सके।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. छान्दोग्य उपनिषद् 6/2/3

2. ऋग्वेद 01/01/

3. ऋग्वेद-1/115/1

4. यजुर्वेद-36/17

5. ऋग्वेद 6/51/5

6. अथर्ववेद - 12/1/12

7. ऋग्वेद -1/32/5

8.  श्रीमद्भगवद्गीता 3/14

9. ऋग्वेद- 1/23/19

10. श्रीमद्भागवत 2/1/32-33

11. भविष्य पुराण, मध्यम पर्व

12. स्कन्द पुराण

13. अभिज्ञान शाकुन्तम् 4/9 - महाकवि कालिदास

14. भारतायनम् महाकाव्य- 8/44 हरेकृष्णशतपथी

15. वृहदारण्यकोपनिषद्