ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- XI February  - 2024
Anthology The Research
सामाजिक चैतन्य के प्रकाशक हैं उत्सव
Utsav is the Publisher of Social Consciousness
Paper Id :  18743   Submission Date :  2024-02-10   Acceptance Date :  2024-02-15   Publication Date :  2024-02-17
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DOI:10.5281/zenodo.10863040
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गीताराम शर्मा
(प्रोफेसर) विभागाध्यक्ष
संस्कृत
राजकीय कन्या महाविद्यालय
धौलपुर,राजस्थान, भारत
सारांश

श्रेयस्कामी  समाज के योग क्षेम की सामर्थ्य  उसके उदात्त  मूल्यों आदर्शों एवं श्रेष्ठ परंपराओं में अंतर्निहित होती है| इन्हीं श्रेष्ठ मानकों की आधारशिला पर सभ्य व्यक्तित्व और भव्य समाज का प्रासाद प्रतिष्ठित होता है| इस दृष्टि से भारतीय समाज में उत्सव, व्रत, पर्व एवं त्योहार सांस्कृतिक एवं सामाजिक चैतन्य के प्रकाशक हैंभारतीय समाज में उत्सव यज्ञों के विविध रुपों से विकसित हुए उत्सव का अर्थ ही 'सव' अर्थात यज्ञ का उत्कृष्ट रुप है भारतीय मान्यता के अनुसार समाज का संगठन ही पुरुष यज्ञ के रुप में हुआ।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The strength of Yoga Kshem of Shreyskami society lies in its noble values, ideals and best traditions. The palace of a civilized personality and a grand society is established on the foundation stone of these best standards. From this point of view, celebrations, fasts and festivals in the Indian society are the luminaries of cultural and social consciousness. In the Indian society, festivals have evolved from various forms of Yagyas. The meaning of the festival is 'Sav' i.e. the best form of Yagya, according to the Indian belief. The organization itself took place in the form of Purusha Yagya.
मुख्य शब्द समाज, चैतन्य, प्रकाशक, उत्सव।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Society, Consciousness, Publisher, Festival.
प्रस्तावना

ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में वर्णित सहस्रशीर्षा, सहस्राक्ष, सहस्रपाद आदि विशेषणों से विभूषित विराट पुरुष वस्तुत: विराट समाज ही है। इन  उत्सव, पर्व, त्योहार और व्रतादि आयोजन के केन्द्र में समाज की भावनाओं, विश्वासों, विचारों एवं व्यवहारों का प्रकृति अनुमोदित वैज्ञानिक वितान है ,जो मनुष्य की सीमित व्यष्टि सत्ता को विराट ब्रह्माण्ड से जोड़ने का कार्य करता है| उत्सव पर्व त्योहार - "यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे,"[1] की दार्शनिक अवधारणा की प्रायोगिक परिणिति हैउत्सव, पर्व, त्योहार आदि शब्दों में शाब्दिक संरचनात्मक भेद अवश्य है किन्तु इनका सामूहिक ध्येय एक ही है कि व्यक्तिगत उन्नति और उल्लास के माध्यम से सामाजिकता और सामूहिक चेतना का प्रकटीकरण हो | इस प्रकार निर्मल व्यक्तित्व निर्माण द्वारा  सभ्य समाज और भव्य राष्ट्र के निर्माण की प्रेरणा इन आयोजनों के मूल में है यही अभिप्राय इन शब्दों के अर्थों से भी प्रकट होता है | यथा- 'उत्सव' शब्द उत् उपसर्ग पूर्वक 'सू' धातु से 'अप्' प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है | 'सू' धातु के उत्पन्न करनाजन्म देनाप्रेरित करनाउत्तेजित करना और परिशोधन करना इत्यादि अनेक अर्थ हैं| तदनुसार उत्सव का अभिप्राय ऐसे  क्रियाकलापों से है जिनसे आमोद, प्रमोद, हर्ष, सुख, प्रसन्नता, आनन्द संप्राप्ति, उन्नतिआदि उत्पन्न होते हैं, जिनसे मानवीय समाज का कल्याण होता हैइस प्रक्रिया से व्यक्तित्व  परिशोधन द्वारा समाज के परिशोधन का कार्य स्वाभाविक रूप से होता रहता है | इसी तरह 'पर्व' शब्द 'पर्व्' धातु से 'अच्'  प्रत्यय के योग से बनता है जिसका अर्थ है- पूर्ण भरा हुआ, जुड़ा हुआगांठ युक्त, इत्यादि | उदाहरणत: भारतीय विचार में  स्त्री और पुरुष दोनों अकेले रहते हुए अपूर्ण हैं| विवाह संस्कार के बाद दोनों मिलकर पूर्ण हो जाते हैं इस प्रकार विवाह उत्सव उनको पूर्ण करने का कार्य करता है

अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य सामाजिक चैतन्य के प्रकाशक उत्सवों का अध्ययन करना है|
साहित्यावलोकन

जीवन को सुख-दु:ख आदि की द्वैतमूलक गाँठों से  मुक्त कर जीवन यात्रा को सरल, सरस और सम्पन्न बनाने का कार्य पर्व  ही तो करते हैं | पर्व शब्द का सम्बन्ध पृ धातु से भी है 'जो - व्यस्त होना, सक्रिय होना, सोंपना, रक्षा करना, जीवित रखना, प्रकाशित करना, पार ले जाना, संकल्प को पूरा करना, इत्यादि अर्थों में प्रयुक्त होती है | इस अर्थ में  जीवन के ये  सभी प्रयोजन ये सामाजिक पर्व पूरा करते हैं | पर्वों  के द्वारा समाज में हर्ष, उन्नति, तृप्ति, सामर्थ्य विकास और यश: सृष्टि की कामना वैदिक काल से की जाती रही है| पर्व वह इस ध्येय को पूरा करने के माध्यम बनते आए हैं | ऐसा ही एक शब्द 'व्रत' है जो 'वृ' धातु से अतच्  प्रत्यय के योग से निष्पन्न  होता है, जिसका अर्थ है- चयन, स्वीकृति, प्रार्थना, समर्पण, सेवा इत्यादि| गत्यर्थक व्रज् धातु से भी व्रत शब्द निष्पन्नप होता है जो -अपने प्रिय के समीप जाना, परमात्मा से सानिध्य, स्व- स्वरूप प्राप्ति, भक्ति साधना, प्रतिज्ञा, संकल्प, इत्यादि प्रयोजनों की पूर्ति का प्रेरक बनता है | तदनुसार श्रेष्ठ कार्यों का संकल्प और अशुभ कार्यों का प्रतिरोध करना भी व्रत की मूल भावना है| 'त्योहार' शब्द - तिथि वार के योग से बना योगिक शब्द है, जो अपभ्रंश होकर त्योहार  हो गया| भारतीय संस्कृति और समाज में उत्सव, पर्व आयोजन में शुभ तिथि और वार का योग होता ही है इसलिए इनका त्योहार होना सार्थक है | भारतीय संस्कृति में उत्सव मनाने की परम्परा आदिम काल से अनवरत चली आ रही है| अथर्ववेद के अनुसार - "हमारी  मातृभूमि जिस जन समुदाय को धारण करती है, वह विविध भाषा -भाषी, आचार विचार एवं व्यवहारों का अनुयायी है, किन्तु भारतवर्ष की अन्तर्रात्मा उसकी एकता है| एकता का आधार हमारी आध्यात्मिकता है|[2] "सर्वं खलु इदं ब्रह्म"[3] अर्थात् सब में ब्रह्म की अनुभूति भारतीय समाज को  बाहरी विविधताओं के साथ भी हर स्थिति में एकता के सूत्र से बाँधे रखती है | उत्सव, पर्व त्योहार ऐसे ही तत्व हैं जो सचमुच हमारी संस्कृति की अंतर्निहित शुभेषणा, समरसता की भावना को पोषित करते हैं| ये पर्व मात्र धार्मिक कर्मकाण्ड भर नहीं हैं अपितु राष्ट्र को एकता के सूत्र में दृढ़ता से बांधे रखते हैं |

मुख्य पाठ

प्रकृति पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तन्त्र के साथ मानवीय जीवन के अन्तः संबंधों के अन्वेषक हैं ये पर्व और त्योहार | इनका भारत की प्राचीनतम गौरवमयी उपलब्धियों, परम्पराओं एवं पूर्वजों की सुविज्ञता  से गहरा सम्बन्ध है | सचमुच ये पर्व, उत्सव त्योहार अपने पूर्वजों के पुरुषार्थ के प्रकाशक हैं | इन उत्सवों के मूल में भारत की याज्ञिकसंस्कृति  के तत्व हैं जो ऋषियों  की विशुद्ध वैज्ञानिक खोज हैं| प्रायः सभी उत्सवों के साथ अग्नि का सम्बन्ध है, जो यह संकेत देता है कि यह पर्व यज्ञों की परम्परा के विकास तत्व  ही हैं |भारत में धर्मजाति, पन्थसंप्रदाय भौगोलिक प्रदेश चाहे जो हों किन्तु उत्सव, पर्व त्यौहारों  की मूल भावना एक जैसी ही है | इन पर्वउत्सव त्योहारों के आधारभूत वे सभी मूल सांस्कृतिक तत्व हैं जो समाज की उन्नति और जिजीविषा के लिए आवश्यक हैं| जैसे -श्रावणी पर्वऋषि पंचमी, वैदिक धर्म परम्परा के प्रतीक हैं| देवोत्थान, देव शयनी एकादशीअनंत चतुर्दशीशिवरात्रि, दुर्गाष्टमी आदि पर्व पौराणिक आख्यानों से जुड़कर वैष्णवी आस्था के प्रकाशक हैंपर्यूषण पर्व, श्रुति पंचमी आदि जैन सदाचार से पोषित हैं| बुद्ध पूर्णिमा का व्यक्तित्व की पूर्णता से गहरा सम्बन्ध हैइसी तरह वर्ष प्रतिपदा संवत्सरी उत्सव है जो भारतीयों की काल गणना के प्रति सजगता और वैज्ञानिक बुद्धि की परिचायक हैवीर पूजा परक उत्सवों में रामनवमीविजयादशमी, महावीर जयन्तीकृष्ण जन्माष्टमी, बुद्धपूर्णिमातेजादशमी इत्यादि को लोक उत्सवों की प्रतिष्ठा प्राप्त है | शैक्षिक उत्सवों में व्यास पूर्णिमा, गणेश चतुर्थी इत्यादि उत्सव प्रमुख हैं| अक्षय तृतीयामकर संक्रान्ति, आषाणी पूर्णिमाहोलीलोहड़ी इत्यादि लोकोत्सव कृषि सभ्यता से सीधे जुड़े हुए हैं |स्त्री जीवन की गरिमा महिमा से जुड़े हुए उत्सवों में करवा चौथ, वट सावित्री व्रतरक्षाबन्धन, भैया दूजगणगौरनाग पंचमीहरियालीतीज, हरितालिकातीज, अष्ट सौभाग्यवती व्रत इत्यादि सैकड़ों पर्व जुड़े हुए हैं| इनके अतिरिक्त देश के विभिन्न अंचलों में अनेक लोक पर्व त्योहार आदि संस्कारवाही  आयोजन होते हैं | विश्वभर में यह मान्यता है कि भारत उत्सवों  का देश हैसचमुच उत्सव, त्योहारपर्व भारत की प्राणवायु हैं| महाकवि  कालिदास ने ठीक ही कहा है -"उत्सवप्रिया: खलु मनुष्या:|"[4] |संस्कृति और समाज को नित्य नयी ऊर्जा देने के उपकरण इन सभी उत्सवों की एक  वृहद् श्रृंखला है, जिनमें से कुछ का संक्षिप्त परिचय और प्रयोजन दृष्टव्य  है |

इन उत्सवों का प्रारम्भ वर्ष प्रतिपदा से मानें तो यह संवत्सर का प्रथम उत्सव है | चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि को संपाद्यमान यह उत्सव मधुश्रवा प्रतिपदा के नाम से भी जानी जाती हैऋग्वेद के पुरुष सूक्त में -" वसन्तोस्यासीदाज्यम्.......|"[5] इत्यादि मंत्रों में वसन्त को सृष्टि रूपी विराट् यज्ञ का आज्य अर्थात् घी बताया गया है श्रीमद् भगवतगीता में- " ऋतूनाम्  कुसुमाकर :....|"[6] कहकर श्रीकृष्ण ने स्वयं को ऋतुओं में वसन्त कह कर वसन्त के ऋतुराजत्व रुप को स्थापित किया है | वसन्त ऋतु में शुक्ल पक्ष से नववर्ष का प्रारम्भ हमारे ऋषियों की प्रकाश कामना एवं वैज्ञानिक कालगणना विषयक विद्वता का बोधक है| वसन्त के अवसर पर न केवल प्रकृति में अपितु संपूर्ण लोकजीवन में नव उमंग ,नव तरंग व्याप्त रहती है| ऐसे उत्सवी परिवेश में प्रारम्भ किया गया नव वर्ष सुख समृद्धि और शान्ति का वाहक बनता है| इस अवसर पर शक्ति साधना के रूप में चैत्र मास में ही शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को रामनवमी पर्व होता हैराम भारतीय समाज में मनुष्य मात्र के कर्तव्य और अकर्तव्य के मानक हैं | "रामादिवद् प्रवर्तितव्यम् न तु रावणादिवत्....|[7] कहकर भारतीय साहित्य में राम के अनुसार करणीय को मनुष्य मात्र के कर्तव्य तथा राम के  अकरणीय को मनुष्य मात्र के अकर्तव्य के रूप में स्थापित करता रहा हैमहर्षि वाल्मीकि ने रामायण में "रामो विग्रहवान् धर्म : ....|"[8] कहकर राम के जीवन आदर्शों को मन मन्दिर में प्रतिष्ठित करने का आव्हान किया हैमहात्मा गांधी के रामराज्य की संकल्पना में सर्वभूत हित कामना से युक्त समता  और ममता युक्त सर्वोदयी राज्य की भावना छिपी है जिसके लिए गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं-

"दैहिक दैविक भौतिक तापा राम राज्य काहू नहिं व्यापा|

बयरु न करु काहू सन कोई राम प्रताप विषमता खोई ||[9]

 जिस  राज्य के नायक ऐसे जननायक पुरुषोत्तम राम हों जो राज्याभिषेक की शपथ में ही यह प्रतिज्ञा कर लेते हैं कि-  "राजा के रूप में मेरे लिए प्रजा रंजन ही परम साध्य होगा, भले ही एतदार्थ मुझे निजी जीवन की आकांक्षाएं, अपेक्षाएं, सुविधाएं, स्नेह,सम्बन्ध त्यागना पड़ें मैं त्याग दूंगायह त्याग प्राण प्रिया सीता का भी हो तो भी मैं बिना किसी व्यथा के कर दूंगा -

स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि|

आराधनाय  लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा|[10]

वचनबद्धता किसी भी पालक का प्रथम कर्तव्य है जिसको राम महा संकट में भी निभाते हैंइसीलिए तो राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त को लिखना पड़ा कि-

"राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है|

कोई कवि  बन जाए  सहज संभाव्य है ||[11]

ऐसे राष्ट्र नायक का प्राकट्य पर्व राष्ट्र जीवन में प्रेरणा अवश्यमेव भरता है|

वैशाख मास में  शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया त्यौहार मनाया जाता है| वैदिक काल से ही यह युगादि तिथि मानी जाती रही है जो किसानों के लिए कृषि सत्र के शुभारम्भ का दिन भी हैपंजाब में यह उत्सव वैशाखी के रुप में मनाया जाता है जिसमें आमोद प्रमोद पूर्वक वीर गाथाओं के गायन की परंपरा हैइस त्योहार का सम्बन्ध शस्त्र और शास्त्र की समन्वित शक्ति से आतताइयों के नियामक भगवान परशुराम की जयन्ति से भी हैअक्षय तृतीया प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण का दिन है| ज्येष्ठ मास में गंगा दशहरा आता है| इस पर्व के विषय में मान्यता है जीव मात्र के कल्याण के लिए गंगा का धरती पर इसी दिन अवतरण हुआ था| गंगा को भारत में दैवीय भाव से पूजा जाता हैगंगा न केवल अपनी पवित्र जल धारा से भारत भूमि को शस्य श्यामला बनाती है अपितु देश के तीर्थ स्थलों को जोड़कर भारत की भौगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता को भी सुदृढ़ करती हैप्रत्येक भारतवासी मुक्ति कामना के लिए मुक्ति दायिनी गंगा की कृपा की याचना करता है| आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा महोत्सव मनाया जाता है यह पर्व महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास के प्राकट्य से जुड़ा हुआ है| सभी विद्याओं के सर्वोत्कृष्ट स्रोत तथा शतसाहस्री संहिता के नाम से ख्यात महाभारत नामक ग्रन्थ एवं अनेक पुराणों के सृष्टा एवं एक वेद का चतुर्धा विस्तार करने के कारण वेदव्यास की उपाधि से विभूषित वेदव्यास को गुरुत्व का आदर्श मानकर गुरुपूर्णिमा पर्व पूरे भारत में मनाया जाता हैयह पर्व संदेश देता है कि इहलौकिक अभ्युदय और पारलौकिक नि:श्रेयस के लिए गुरु का कोई विकल्प नहीं हो सकताउत्कर्ष कामी समाज में ज्ञान की पवित्रता और गुरु के प्रति श्रद्धा, समर्पण, कृतज्ञता, विश्वास परमावश्यक है| गुरु पूर्णिमा सामाजिक संस्कारों के प्रति जागरूकता पैदा करने एवं भारतीय समाज में अपनी महनीय गुरु परम्परा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की प्रेरणा देता है| श्रावण माह में  पूर्णमासी के दिन  रक्षाबन्धन पर्व मनाया जाता हैइस पर्व से देवासुर संग्राम की एक पौराणिक कथा जुड़ी है| असुरों से पराजित देवराज इन्द्र ने विजय कामना से स्वस्तिवाचन पूर्वक रक्षाबन्धन कराया थाइसी तरह बलि के बन्धन में आबद्ध विष्णु को मुक्त कराने के लिए लक्ष्मी ने बलि के रक्षा बंधन किया थाइसी तरह की अनेक लोक कथाएँ  इस पर्व से जुड़ी हैं| प्राचीन काल में इस दिन श्रावणी उपागम होता था और ऋषि पूजन, सूर्य पूजन तथा यज्ञोपवीत पूजन कर नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता थायह पर्व स्वाध्याय पर्व के रुप में भी मनाया जाता हैभाई की पवित्र दृष्टि, नारी रक्षापाप प्रायश्चित हेतु संकल्पस्वाध्याय तथा राष्ट्र रक्षा के भाव से यह पर्व पूरे भारत में मनाया जाता हैवर्तमान में इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप में भी मनाया जाता है जो भारत की महान धरोहर संस्कृत भाषा के प्रति जनमानस को जोड़ने की प्रेरणा देता हैभाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी को 'कृष्ण जन्माष्टमी पर्व' आयोजित होता है| श्रीकृष्ण भारतीय समाज  में लोक रंजक के रूप में नित्य महारास करते हैं| यह  कृष्ण  चरित्र का सम्मोहन ही है कि हर मां अपने बच्चे में कान्हा की छवि की आकांक्षा करती हैकृष्ण लीलाएं समग्र भारत को जोड़ती हैं| लोकधुन और लोक भाषाओं में भी कृष्ण चरित्र का गायन होता हैयह उत्सव केवल हिन्दू धर्म के लीला पुरुष का जन्मोत्सव भर नहीं है अपितु विश्व नायक के अवतरण की स्मृतियों का सम्मान भी है| कृष्णोपदेश के रुप में प्रख्यात श्रीमद्भगवद्गीता व्यक्ति मात्र की निराशा, अवसाद और किंकर्तव्यविमूढ़ता का उन्मूलन करने की सामर्थ्य के कारण वैश्विक ग्रन्थ के रूप में जानी जाती हैपराधीनता के समय कृष्ण चरित्र भारतीयों के लिए जीवनी शक्ति का स्रोत रहा| गांधी का चरखा कृष्ण का सुदर्शन चक्र समझा जाता था| कृष्णा जन्माष्टमी पर्व जीवन को भव्यता की ओर प्रेरित करता हैभाद्रपद में ही शुक्ल पक्ष में चतुर्थी के दिन गणेश चतुर्थी का पर्व धूमधाम से मनाया जाता हैआजकल यह पर्व अनन्त चतुर्दशी तक उत्साह पूर्वक चलता हैइस पर्व का गण राज्यों की गणतंत्र व्यवस्था से गहरा सम्बन्ध रहा हैगणेश विद्या और बुद्धि के दाता माने जाते हैंअभिप्राय स्पष्ट है कि जिनके पास विद्या और बुद्धि का वैभव है, उनका प्रथम पूज्य और विघ्नविनाशक होना स्वाभाविक ही है| गणपति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व मानवीय जीवन में सहिष्णुता, सत्यान्वेषण, बौद्धिक प्रखरता और दृढ़ता जैसे महान गुणों का आह्वान करता हैजो व्यक्ति तथा गणराज्य की दीप्ति के लिए आवश्यक हैगणपति वन्दन का प्रचलन वैदिक काल से ही है ऋग्वेद में गणपति की स्तुति करते हुए उन्हें गण, व्रात तथा गृत्सपति कहा गया है -

"नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च नमो नमो |

व्रातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्च नमो नमो ||[12]

स्वतंत्रता आंदोलन के समय महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक ने जनमानस में राष्ट्रीय भाव संचार करने एवं संगठित शक्ति का स्वतंत्रता के लिए उपयोग करने के लिए गणेश उत्सव का आयोजन आरंभ किया  जो अब पूरे भारत में वृहद रूप ले चुका है भाद्रपद शुक्ल पक्ष में ही चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी का पर्व मनाया जाता हैभारत में आकाश और समुद्र को अनंत का पर्याय माने जाने की परंपरा है|प्राचीन काल में भारत के समुद्री व्यापारी समुद्र को अनंत के रूप में पूजा करते थे इस तरह यह पर्व प्राचीन भारत में भारत की अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रगति का भी सूचक है आश्विन शुक्ल पक्ष में शारदीय नवरात्र पर्व बहुत उल्लास के साथ संपन्न होता है| वर्ष में तीन बार आयोजित दुर्गा पूजन की परंपरा में शारदीय नवरात्र विशिष्ट हैं | यह पर्व आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक और नारी सशक्तिकरण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैधार्मिक परम्पराओं में संपूर्ण जगत देवीमय हैजगत का उद्भव,पालन और संहार कर्त्री देवी है| इस दृष्टि से शारदीय नवरात्र समाज में प्रकृति पूजा द्वारा शक्ति स्फुरण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त पर्व होता है| बदलते मौसम में दिनचर्या परिवर्तन से साधना का बाहरी रूप पुष्ट होता है, इससे नए आत्मविश्वास की सृष्टि होती है देवी के महाकालीमहालक्ष्मी  और महासरस्वती रूप के आराधन द्वारा साधक अपने आन्तरिक कामक्रोधादि शत्रुओं के शमन  और समाज के बाहरी शत्रुओं के विनाश के लिए शक्ति का संभरण करता है इस शक्ति संभरण साधना में महिषासुर, रक्तबीज, शुंभ, निशुंभचण्ड, मुण्ड, कुम्भ, निकुम्भ आदि दुर्दान्त असुरों का वध करने वाली सर्वेश्वरी मां दुर्गा पूर्ण आशीर्वाद देती है वस्तुतः नवरात्र पर्व नारी चेतना और शक्ति का पर्व है | इस पर्व में राजस्थान और अन्य अंचलों में लोक  देवियों की उपासना भी देवी के रूप में की जाती है| नवरात्रि की साधना से विजय की आकांक्षा पूरी होगी इस आस्था के साथ अगले ही दिन विजयादशमी पर्व मनाया जाता है शक्ति संरक्षण और अर्जन की भावना के साथ यह विचार भी जुड़ा हुआ है कि आसुरी शक्तियों के शमन के लिए दैवीय शक्तियों का संगठित होना परमावश्यक है| इस प्रकार यह पर्व "संघे शक्ति कलियुगे" विचार का प्रायोगिक रूप है आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि के दिन क्षात्र धर्म की प्रतिष्ठा का प्रतीक विजयादशमी पर्व होता है | इस पर्व का अध्यात्मिक संदेश यह भी है कि मानव शरीर रूपी धर्म क्षेत्र में दैवीय और आसुरी वृत्तियों का युद्ध अनादि काल से चल रहा है|  देवों की विजय के लिए साधक भाव से प्रयत्न शील प्रत्येक व्यक्ति क्षत्रिय है | आसुरी शक्तियां  चाहे जितनी भी दुर्दांत हों, क्षत्रियत्व की शक्ति से उनकी हार निश्चित है |

" देवों की विजय दानवों की हारों का होता युद्ध रहा |

संघर्ष सदा उर अन्तर में परिणाम नित्य विरुद्ध रहा ||[13]

इस प्रकार यह पर्व  -"सत्यमेव जयते"[14] के औपनिषधीय विचार के साथ भारतीयों की निष्ठा को व्यक्त करता है| इस दिन रावण के पुतले जलाने का संदेश स्पष्ट है कि आसुरी वृत्तियों को जलाने से ही राम की विजय अर्थात् आत्मानन्द की प्राप्ति होगी | कार्तिक शुक्ल पक्ष में पञ्च दिवसीय दीपावली पर्व होता है |दीपावली से पूर्व धन्वन्तरि त्रयोदशी आरोग्य लाभ के लिए प्रेरित करती है नरक चतुर्दशी रूप चौदस उत्सव के मूल में असुन्दर को जीतकर सुन्दर के निर्माण की भावना है | अमावस्या को दीपावली होती है जिसका का सम्बन्ध गहरे सांस्कृतिक समन्वय से है इस उत्सव से वैदिक, पौराणिक श्रमणबौद्ध और लोक जीवन की अनेक परम्पराएं जुड़ी हैं | दीपावली भौतिक अभ्युदय और आध्यात्मिक प्रगति की सूचक है वेदों में - "असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतम् गमय |"[15] आदि मन्त्रों में"असत से सत की ओर अंधकार से प्रकाश की ओर ,तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले जाने की कामना की गयी है | परमात्मा से सुख सौभाग्य श्रेयस् के लिए उपायभूत प्रकाश मांगा गया है | यह त्यौहार हमारे जातीय जीवन की प्रमुख विशेषता ज्योतिर्मय  जीवन की आकांक्षा को  प्रकट करता है | कार्तिक अमावस्या  को चन्द्र ज्योति का नितांत अभाव होता है | ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस समय तुला राशि का सूर्य नीचस्थ होता है |ज्योति: आकांक्षी मन गहरी अमा रात्रि में प्रकाश के तृतीय स्रोत अग्नि का आश्रय लेता है | इस तरह दीपावली ज्योति पर्व का प्रतीक हैदीपावली जलते हुए दीपों के माध्यम से सामाजिक समता का संदेश लेकर आती है कि जैसे दीपक, तैलादि सिक्त वर्तिका और लौ स्वरुपत: भिन्न भिन्न हैं लेकिन सब में से प्रकट प्रकाश एक ही है ,उसी तरह हम सब जीव रुपी दीप नाम, रुपादि से भिन्न भिन्न होने पर भी एक ही परमात्म ज्योति से प्रकाशित हैं दीपावली यह भी आध्यात्मिक संदेश देती है कि प्राणी मात्र का शरीर दीप है, वासना घी तथा वृत्ति बत्ती है किन्तु चेतन ज्योति के बिना ये सब व्यर्थ हैं और इनमें समाहित चेतन ज्योति ही सबको एक साथ ज्योतित करती है |इसलिए प्राणी मात्र को चाहिए कि वह जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र ,भाषा, पन्थ के अलगाव से मुक्त रहकर मनुष्य मात्र में एकता देखे तो समाज के राग द्वेष स्वत: मिट जाएंगे |जीवन चमक उठेगा और पूरा समाज नए प्रकाश से कृत कृत्य हो जाएगा स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि -"दीपावली लक्ष्मी के उपार्जन और उपभोग  में प्रकाश अर्थात नैतिक शुचिता सिखाती है |" समाज की प्रज्ञा शक्ति से उसकी कर्म शक्ति का योग हो और समाज में श्री तथा लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हो यह दीपावली उत्सव का सामाजिक उद्देश्य है | श्री का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व से है और लक्ष्मी का समाज के अभ्युदय से | जब समाज श्री संपन्न होगा तभी तो समाज को लक्ष्मी उपलब्ध होगी दीपावली पर्व के अगले दिन गोवर्धन पूजा होती है पुराणों के अनुसार प्राचीन काल में इस अवसर पर इन्द मख का आयोजन होता था | समाज में यह जन विश्वास था इन्द्र वर्षा के देवता हैं | अतः कृर्षि कर्म की सफलता के लिए उनका पूजन आवश्यक है| विष्णु पुराण और श्रीमद् भागवत आदि पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने इन्द्र पूजन की परम्परा को बदलकर गिरिराज गोवर्धन की पूजा करायी,[16] तब से प्रारम्भ हुयी इस पर्व की परम्परा में गौ, गिरि और गोवर्धन की पूजा का प्रचलन प्रारंभ हुआ | गौ और गिरि के संबंध में वैदिक संहिताओं में अनेक सूक्त रचे गये हैं| यह पर्व वर्तमान में संकटग्रस्त गोवर्धन की ओर अपनी प्रकाशमय दृष्टि डालने का आव्हान करता है | गोवर्धन पूजा के अगले दिन भाई दौज का पर्व होता है, जो नारी के भगनी रूप की प्रतिष्ठा का पर्व है| इस प्रकार पञ्च पर्वा दीपोत्सव अग्नि के समान तेजस्वी और तपस्वी होने का आव्हान करता है | यह आवाहन तभी फलित होगा जो व्यक्ति ज्योति दीप बनकर समाज को दीप्त करे | इस प्रकार दीपोत्सव हमारी सांस्कृतिक चेतना का महनीय उत्सव बन गया है | फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी को शिवरात्रि पर्व होता है| शिव लोक कल्याण के देवता हैंजिन्हें आज की भाषा में समाजवाद का प्रवर्तक माना जा सकता है | उनके वृषभारुढ़  होने का संकेत यह है कि भारतीय समाज का शिव वृषभ पर निर्भर है | शिव को कालिदास ने जलवायु, अग्नि, आकाशसूर्यचंद्र और यजमान के रूप में अष्टमूर्ति शिव[17] शिव कहकर पर्यावरण और पारिस्थितिकी तन्त्र सुरक्षा को शिवपूजन का रहस्य होने के संकेत दिये हैं | भारत में सभी ज्योतिर्लिंगों की स्थापना का रहस्य भी इन्हीं पर्यावरणीय तत्वों से सम्बद्ध है| सभी ज्योतिर्लिंग इन्ही में से किसी आधार पर स्थापित हैंशिव सभी प्रतिकूलताओं में भी जीवनकला के प्रेरक हैंउनके अर्धनारीश्वर स्वरूप का दाम्पत्य पोषण में महत्वपूर्ण योगदान हैफाल्गुन की पूर्णिमा को सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक होली पर्व होता है | होली जलाने की प्रथा वैदिक काल के अग्निहोत्र का ही परिवर्तित रूप है |[18] कालान्तर में हिरण्यकश्यपु एवं भक्त प्रहलाद की स्मृति से जुड़ी हुयी होली हमें सत्य के लिए निर्भीक होने का संदेश देती है| होली की अग्नि में बालियां सेकने का निहितार्थ है  कि विवेकपूर्ण उपयोग से विनाश के साधन भी सृजन के लिए उपयोगी हो सकते हैं | होली के दूसरे दिन धूलेटी या धूलण्डी का पर्व अथर्वेद के "माता भूमि: पुत्रोऽहं  पृथिव्या :........|"[19] के संकल्प का स्मरण कराता है| मातृभूमि की धूल से सामाजिक बन्धनों  को दृढ़ बनाने की प्रक्रिया प्राचीन भारत में धूलेष्टी यज्ञ कही जाती थी| मातृभूमि की रज वन्दना के अनेक प्रसंग भारतीय साहित्य में उपलब्ध हैं| विशेषत: राजस्थान रज पूजन के लिए विशिष्ट पहचान रखता हैइस प्रकार भारतीय समाज में वैदिक ऋषियों और मनीषियों ने जो संस्कृति हमें प्रदान की वह जीवन के आनन्दमय पक्ष को बहुत महत्व देती है| इन उत्सव, पर्व, त्योहार, व्रतों से जनसमुदाय बाहरी विभेदों  को भूलकर यह प्रमाणित करता है कि भारत मात्र भौगोलिक इकाई नहीं है उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम की सीमाएं कोई विशेष अर्थ नहीं रखतीं| भारत की मूल पहचान सांस्कृतिक है| उत्सव, पर्व, व्रत और त्योहार उसकी सांस्कृतिक एकता के उत्स हैं|

निष्कर्ष

भारत त्योहारों का देश है प्रतिदिन कोई न कोई व्रत, पर्व, त्योहार संभावित है न केवल हिन्दुओं के त्योहार अपितु मुसलमानों के ईद, बारावफात, ईसाइयों के क्रिसमिस आदि विभिन्न मतपन्थ धर्मों के सभी त्योहारों की मूल प्रेरणा भी सांस्कृतिक है | अस्तु

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. वृहदारण्यकोपनिषद्

2. अथर्वेद - पृथिवी सूक्त

3. छान्दोग्य उपनिषद- 3/14/9

4. अभिज्ञान शाकुन्तलम् - पंचम अंक - महाकवि कालिदास

5. ऋग्वेद पुरुष सूक्त (10/90/14)

6. श्रीमद्भगवद्गीता - 9/35

7. काव्य प्रकाश, प्रथम उल्लास - आचार्य मम्मट

8. वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड

9.  रामचरितमानस - उत्तरकाण्ड -तुलसीदास

10. उत्तररामचरितम् 1/ 12भवभूति

11. साकेत - मैथिलीशरण गुप्त

12. शुक्ल यजुर्वेद -16/25

13.  कामायनी - श्रद्धा सर्ग  - जयशंकर प्रसाद

14. मुण्डकोपनिषद्

15. वृहदारण्यकोपनिषद् 1/3/ 28

16. विष्णु पुराण 5/10/36-37 , श्रीमद्भागवत पुराण 10/24

17. अभिज्ञान शाकुन्तलम्  01/01/ - महाकवि कालिदास

18. भारतीय लोक दर्शन, पृ.सं103- डॉ बद्री प्रसाद पंचोली

19. अथर्ववेद- पृथिवी सूक्त 12/1/7