ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- XII March  - 2024
Anthology The Research

मनुस्मृति की सार्वभौमिकता

Universality of Manusmriti
Paper Id :  18752   Submission Date :  2024-03-14   Acceptance Date :  2024-03-17   Publication Date :  2024-03-22
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DOI:10.5281/zenodo.10848701
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रमेश चन्द वर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर
संस्कृत
राजकीय महाविद्यालय, गंगापुर सिटी,
राजस्थान,भारत
सारांश

‘‘मनुर्भव जनया दैव्यम् जनम्’’[01] यह आर्षवाक्य मनु और जन पद को पर्याय के रूप में प्रस्तुत करता है। इनमें  मनुपद के मूल में मनस्प्रकृति है, जो सकारान्त तत्सम शब्द है, जिससे नुप्रत्यय जुड़कर मनुपद बना है। मानव का उत्स भी मनुहै, जिसमें मनु प्रकृति और अण् प्रत्यय लगा हुआ है। पुनः मन, मनु, मानव इन तीनों पदों का सम्बन्ध जनसे है। जन के शब्दार्थ-जनतो और प्रजा दोनो है - प्रजा स्यात् सन्ततौ जने।[02]

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद “Manurbhav Janaya Daivyam Janam” [01] This Arshavakya presents the terms Manu and Jana as synonyms. In these, the root of the word ‘Manu’ is ‘Manas’ Prakriti, which is a similar word, to which the suffix ‘Nu’ has been added and the word ‘Manu’ has been formed. The origin of human beings is also ‘Manu’, which has Manu nature and Ana suffix. Again, these three terms Man, Manu, Manav are related to ‘people’. Meaning of 'Jana' is both 'Janato' and 'Praja' - 'Praja Syat Santatau Jaane'. [02]
मुख्य शब्द मनुस्मृति, सार्वभौमिकता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Manusmriti, Universality.
प्रस्तावना

कहना यह है कि मनु का सम्बन्ध जन से है। जन संस्कृति-जनता की संस्कृति जो कि मानव विमर्श है, सभी एक ही है। यही मनु की सृष्टि मानव का शास्त्र, जन की संस्कृति ही ‘‘मनुस्मृति’’ है। इस लेख का विषय इसी मनुस्मृतिकी सार्वभौमिकता और सार्वलौकिकता का अभिव्यक्तिकरण है। बिना किसी पूर्वाग्रह के, ‘‘मनुस्मृति’’ में प्राप्त वेदको प्रकाशित करना है।

अध्ययन का उद्देश्य

मनुस्मृति मनु नामक सारस्वत की रचना है जिसका संपादन समय रहते भृगु ऋषि ने किया अन्यथा यह आज तक तो लुप्त हो जाती मनुस्मृति का निर्माण तो श्रुति परंपरा में जब से मानव ने जन्म लिया तब से हो गया था मानव के विकास के साथ ही मनु के विचार भी विकसित होते गए और जिस प्रकार मानव विकास के क्रम में मानव आकृति में परिवर्तन हुए इस प्रकार मनु की रचना में भी परिवर्तन होते रहे जैसे मानव की आकृति तो बदलती गई लेकिन आत्म तत्व वही रहा वैसे ही मनु में आज तक तो मनु के शब्द तो बदलते रहे अर्थ वही रहा सर तत्व वही रहा इसलिए मनुस्मृति के मूल अर्थ सार्वभौमिक रहे सर्वकालिक रहे इस कथन के सिद्धि के लिए मनुस्मृति एवं मनु का क्रमिक अध्ययन किया जाना आवश्यक है।

साहित्यावलोकन

मनुस्मृति के विभिन्न संस्करण धर्मशास्त्र का इतिहास पीवी कहानी विलियम जॉन्स का मनुस्मृति का अनुवाद विनोबा भावी की पुस्तक मनु शासनम पैट्रिक ओलिव ऑयल का 2005 में प्रकाशित मनोज कोड ऑफ़ लॉ इत्यादि पुस्तकों को पढ़कर यह पत्र तैयार किया गया है।

मुख्य पाठ

साम्य मानव! मनुस्मृतिमनु नामक सारस्वत की रचना है, जिसका सम्पादन समय रहते भृगु ऋषि ने किया, अन्यथा वह अब तक तो लुप्त प्राय हो जाती। जनुस्मृति का निमार्ण तो श्रुतिपरम्परा में जब से मानव ने जन्म लिया, तब से ही प्रारम्भ हो गया था। मानव के विकास के साथ ही मनु के विचार भी विकसित होते गये, और जिस प्रकार मानव विकास के क्रम में मानव आकृति में परिवर्तन हुऐ, उसी प्रकार मनु की रचना में भी परिवर्धन और परिवर्तन होते रहे, जैसे मानव की आकृति तो बदलती गयी लेकिन आत्मतत्व वही रहा, वैसे ही मनु के शब्द तो बदलते रहे, अर्थ वही रहा, सार तत्व वही रहा। इसलिए मनुस्मृतिके मूल अर्थ सार्वभौमिक रहे, सार्वकालिक रहे। इस कथन की सिद्दयर्थ मनुस्मृति एवं मनु का क्रमिक अध्ययन इस प्रकार है-

1. मनु पद के प्राप्त साहित्यिक सन्दर्भ

2. मनुपद के प्राप्त ऐतिहासिक सन्दर्भ

3. सनातन परम्परा में मनुके 14 अवतार

4. विकीपिडिया के अनुसार मनु

5. मनुस्मृति के टीकाकार। अनुवादक

6. वर्तमान में प्राप्त मनुस्मृति के अध्याय। श्लोक संख्या

7. मनुस्मृति में प्राप्त पद विवेचन

8. मनुस्मृति की समालोचना

1. ‘मनुपद के प्राप्त साहित्यिक सन्दर्भ-

i. ‘‘मनुर्वै यद् किंचिद् अवदत् तद् भैषजम्’’[03] - तैत्तीरीय संहिता

ii. अविशेषेण पुत्रां, दायो भवति धर्मतः।

मिथनुनानाम् विसर्गादौ, मनुः स्वायंभुवो अब्रवीत्’’[04] - यास्क

iii. बालि वध के समय बालि ने रामयण में दो श्लोक मनुस्मृति के उद्धृत किये है। 8.3168.318[05]

iv. पुराणं मानवोधर्मः, वेदाः सांगाः चिकित्सकम्।

आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्त्यानि हेतुभिः।।[06] - महाभारत, अनुशासन पर्व

v. वेदार्थोपनिबद्धत्वाद्, प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम्।

मन्वर्थविपरीता तु, या स्मृतिः सा न शास्ते।।

तावत्-शाषास्त्राणि शोभन्ते, तर्क व्याकरणनि च।

धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा, मनुः यावन् न दृष्यते।।[07] - बृहस्पति स्मृति

vi. अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते, वित्तं विद्या यशो बलम्।।[08] - अभिधम्मपद

2. ‘मनुपद के प्राप्त ऐतिहासिक सन्दर्भ-

i. 5710 का शिलालेख वलभी (धारसेन) मनुधर्म का उल्लेख[09]

ii. चम्पादीप का शिलालेख - मनु का एक पद्य उदधृत[10]

iii. फिलिपीन द्वीपसमूह के लोकसभा भवन के सामने मनु की मूर्ति

iv. हिन्दू कोड बिल एवं भारतीय संविधान का मूल आधार

vi. बाली, स्याम, जावा, वर्मा आदि देशों के संविधान का मूल आधार

3. सनातन परम्परा में प्राप्त मनु के चौदह अवतार

मनुस्मृति में - 7 तथा महाभारत में 8 मनुओं के नाम गिनाये है, इनसे आगे चलकर ‘श्वेतवराह कल्पमें 14 मनु[11] एवं मन्वन्तर माने गये है, जिनको सभी धर्मशास्त्री स्वीकार करते है-

i. स्वायंभुव मनु

ii. स्वरोचिष मनु

iii. औत्तमी मनु

iv. तामस मनु

v. रैवत मनु

vi. चाक्षुष मनु

vii. वैवस्वत मनु/ श्राद्धदेव मनु

viii. सावर्णि मनु

ix. दक्ष सावर्णि मनु

x. ब्रहम सावर्णि मनु

xi. धर्म सावर्णि मनु

xii. रूद्र सावर्णि मनु

xiii. दैव सावर्णि मनु/ रौच्य सावर्णि मनु

xiv. ऐन्द्र सावर्णि मनु/ भौत मनु

4. वीकीपिडिया के अनुसार मनु

1. मेसोपोटामिया -

i. द ग्रेट मनु

ii. A Chaldean God of fat

2. हिन्दूइज्म

i. मनु

ii. H.indu Progenitor of Man-Kind

3. श्राद्धदेव मनु

4. The Current Manu

5 . मनुस्मृति के टीकाकार/अनुवादक/लेख-

i. भारूचि-

ii. मेधातिथि- मनुभाष्य

iii. गोविन्द राज-

iv. कुल्लूक भट्ट - मन्वर्थ मुक्तावली

v. विलियम जोंस - प्रथम अनुवाद - 1974 में

vi. कलकत्ता - प्रथम प्रकाशन - 1831 में 2694 कुल श्लोक

vii. गंगानाथ झा - 1920 में सम्पादन - मोती लाल बनासीदास[12]

viii. विनोवा भाव मनु शासनम्’ - 1965 में - 445 पद्य[13]

ix. राजवीर/सुरेन्द्र कुमार - विशुद्ध मनुस्मृति - 1981 में[14]

x. पं. रामश्वर भट्ट - मनुस्मृति - 2007 में - 2665 श्लोक

xi. पी.वी. काणे - धर्मशास्त्र का इतिहास 1975 में - पुणे से[15]

xii. लिगंट रोबर्ट - 1973 में ‘‘दा क्लासीकल लॉ ऑफ इण्डिया’’[16]

xiv. अज्ञात - ‘‘दा धर्मशास्त्राीक् डिबेट ऑन विडो बर्निंग’’

xv. पोट्रिक आलिवेल - 2005 में ‘‘मनूज् कोड ऑफ लॉ’’[17]

6. वर्तमान में प्राप्त मनुस्मृति के अध्याय/ श्लोक संख्या

क्रं.सं.

अध्याय

श्लोक संख्या

चयनित श्लोक

1

प्रथम

119

25

2

द्वितीय

249

59

3

तृतीय

286

48

4

चतुर्थ

260

40

5

पंचम

169

16

6

षष्ठ

97

10

7

सप्तम

226

10

8

अष्ठम

420

30

9

नवम

336

22

10

दशम

131

13

11

एकादशम

265

22

12

द्वादशम

126

25

कुल  = 12

2684

320

7. मनुस्मृति में प्राप्त पदविवेचन-

वर्तमान में प्राप्त मनुस्मृति में 12 अध्याय और 2684 श्लोक है। प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में प्रथम श्लोक से लेकर 69 श्लोक तक स्वायंभुव मनु द्वारा अनुभवित श्लोक है, जबकि उनके बाद पूरी की पूरी मनुस्मृति ‘‘भृगु ऋषि’’ द्वारा प्रोक्त है। इसीलिए प्रत्येक अध्याय के अन्त में भृगु प्रोक्त मानव धर्मशास्त्रपुष्पिका का प्रयोग हुआ है, इससे यह सिद्ध है कि वर्तमान में प्राप्त मनुस्मृति के सम्पादक भृगु ऋषिगण-भार्गव है। फिर भी भार्गवों की यह विशेषता रही है कि उन्होने अपने सम्पादन में पुनः पुनः मनु एवं मनु से सम्बन्धित पदों का स्मरण किया है, जो इस प्रकार है-

क्रं.सं.

पद

आवृत्ति

1

मनु

29 बार

2

मानव

25 बार

3

मनुष्य

02 बार

4

मानुष

05 बार

5

मनवः

01 बार

8. मनुस्मृति की समालोचना-

सत्याग्रहपत्रिका 2016 में प्रकाशित लेख में मनीषा यादव की टीप मनुस्मृतिकी समालोचना के लिए सम - सामयिक लगती है। हमें मनु के प्रति गुस्सा है, जायज है। हमें भावावेष में, सामाजिक, राजनीतिक, सन्देश देने के लिए, उसके नाम से चलने वाली पुस्तक को एक बार चन्दन की चिता पर रखकर जला भी डाला, चलो वह भी ठीक है लेकिन यह क्या? कि हम कुत्सित दुष्प्रचार का घिनौना तेल डालकर, जब-तब उसे जलाते रहे है। उस किताब पर जूती रखकर कहें कि हम नारीवादी है, और सभ्य है। किसने रोका है। खराब बातों को निकाल बाहर कीजिये। चाहो तो अच्छी बातों को रख लीजिये। उन्हें जीवन में भी उतारियें। उसे और बेहतर बनाइयें। चाहे जैसी भी हो, अपनी धरोहरों औरअतीत की गलती से निपटने के लिए हम रिकंसीलियेशनसत्यशोधन और सत्याग्रह का सहारा लेना भी सीखें।

हम विज्ञान की पीढ़ी है। ये किताबें जलाने जैसे मध्य-युगीन तरीके हमें शोभा नहीं देते। अतीत में पुस्तकालयों के ही दहन का काम नालन्दा, अलेक्जण्ड्रिया और अलहाकम से लेकर कुस्तुनतुनिया तक में कुछ सिरफिरें लोगों ने किया था। हम ऐसा क्यों करें। दहन हुआ, जो हुआ, अब हम थोड़ा रहन-सहन, शोधन, उन्नयन और प्रबोधन भी सीख लें।


मित्र उपनिषद्!

हजारों वर्षो के चिन्तन में जहाँ कुछ अनुपम व्यवहार और चिन्तन होगें, वहाँ कुछ विसंगतियाँ भी होगी। स्थान, काल, परिस्थिति और व्यक्तिगत वृत्तियों के हिसाब से कुछ विवादों का भी समावेष निष्चित हुआ ही होगा, लेकिन भावी पीढ़ीयों का काम यह है कि वे उदारतापूर्वक बड़ी लकीर खीचें। जो अच्छा है, ग्रहण करें, बाकी को पूरी सतर्कता और विनम्रता से एक किनारें रख दें। पूरी की मनुस्मृति में लगभग 100 श्लोक ऐसे है जो निर्विवाद है, उन्हे तो मानव जीवन में उतारें। वे तो सार्वभौमिक है, सार्वकालिक है।

निष्कर्ष

निस्कर्ष रूप में यही कहना है कि ऋग्वेद के संवनन् ऋषि18 की सह अस्तित्व की भावना, महाभारत के रचनाकार वेदव्यास की श्रेष्ठ धर्म के रूप में मनुष्यत्व[19] की स्थापना और धर्म धुरन्धराचार्यो के आत्मानुकूल आचरण के उपदेश[20] का यह त्रिक सह अस्तित्व, मनुष्यत्व और आत्मानुकूल आचरण का सारमनुस्मृति में निहित है।[21] हमें उदारमना होकर इसकी सार्वभौमिकता और सार्वलौकितता भी स्वीकार करना चाहिऐ। अखिल विश्व तक दैवी वाग् के माध्यम से हमारी नैतिक परम्परा को, हमारे जीवन मूल्यों को प्रचारित किया जाना चाहिऐ। हम आर्य मानव सार्वभौमिक है, सार्वकालिक है, यह कोई नवीन घटना। वार्ता नहीं है। - मा - नव। इति शम्।[22]

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. ऋग्वेद - 10.53.6 अनुल्वणं वनुत जोगुवामयों,

मनुर्भव, जनया देव्यं जनम्।।

2. अमर कोष - अमर राम मिश्र

3. तैत्तीरीय संहिता - 2.2.10.2 व ताण्ड्य ब्राहम्ण - 23.16.7

4. निरूक्त - (यास्क) - 3.4

5. रामायण - अरण्यकाण्ड - 8.316, 318

6. महाभारत - अनुषासन  पर्व - अध्याय 12

7. बृहस्पति स्मृति - संस्कार खण्ड - 13, 14

8. अभिधम्म पद - बौद्धत्रिपिठ में से एक - 2.156

9. बलभी का षिलालेख - 5710

10. चम्पा षिला लेख - मनु का एक पद्य उद्धृत

11. श्वेतवराहकल्प -

12. मोती लाल बनारसी दास - 1920- सम्पादक - गंगानाथ झा

13. विनोवा भावे - 1965 में परम धाम प्रकाषन - पेज - 80

14. रामेष्वर भट्ट आगरा 2007’ आर्ष सहित्य प्रचार ट्रस्ट हरियाणा

15. पी. बी. काणे - धर्मषास्त्र का इतिहास - 4 खाण्ड, 1975 में

16. लिगंट रोबर्ट - 1973 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयार्क

17. पोट्रिक अलिवेल - 2010 में जनरल आफ दा अमेरिकन ओरिएन्टल सोसाइटी

18. संगच्छध्वम् संवदध्वम्, सं वो मंनासि जायताम्। - ऋग्वेद - 10.191

देवभागं यथा पूर्वे, संजनानां उपासते।।

19. ‘‘नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किन्चिद्0’’ - महाभारत - शान्ति पर्व

20. आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् - सुभाषिवली -

21. एतद्वोऽयम् भृगुः शास्त्रं, श्रावयिष्यति अषेषतः।

एतद्हि मत्तो अभिजगे, सर्वमेषोखिलंमुनिः।। - मनुस्मृति - 1.49

22. मेधा तिथि कल्लू राज गोविंद भट्ट विलियम जॉन्स गंगानाथ झा विनोबा भावे रमाशंकर भट्ट लिंगत और पोट्रिक ओलिव ऑयल द्वारा लिखित एवं संपादित व्याख्या एवं समीक्षा के आधार पर उनके संदर्भ उदित कर आलेख में यथास्थान रखे गए हैं।