ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- XII March  - 2024
Anthology The Research

घरेलू हिंसा: एक समाज वैज्ञानिक विवेचन

Domestic Violence: A Social Scientific Analysis
Paper Id :  18758   Submission Date :  2024-03-07   Acceptance Date :  2024-03-19   Publication Date :  2024-03-25
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DOI:10.5281/zenodo.10942222
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अनुभा श्रीवास्तव
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान
हेमवती नंदन बहुगुणा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
नैनी, प्रयागराज,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश

मानव ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है मानवता मानव जीवन का धर्म है प्रत्येक मानव मात्र के साथ-साथ मानवता का बर्ताव होना चाहिए। वह किसी भी जाति लिंगधर्मसंप्रदाय या वर्ग का हो सभी को सम्मानपूर्वक जीवित रहने का नैतिक अधिकार है । सभी मानव समान अस्तित्व और अधिकार के साथ स्वतंत्र रूप से पैदा होते हैं किंतु हमारा इतिहास गवाह है कि पुरुष के हर कार्य क्षेत्र में सहभागी महिला का स्थान पुरुष की तुलना में काफी नीचे रहा है। महिलाशब्द जो समाज के आधे हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है उसकी कल्पना से रहित कोई समाज नहीं हो सकता महिला समाज की निर्मात्री है और सृष्टि व सभ्यता का शुभारंभ है किंतु महिलाओं के अधिकारों के साथ होने वाली ज्यादती समय के साथ और सशक्त होती जा रही है। आजादी के 75 वर्षों के बाद भी महिलाओं की सामाजिकआर्थिक, राजनीतिक स्थिति आज भी चिंन्तनीय है। आज भी देश की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलाएं सामाजिक मान्यताओं  और रूढ़ियों के कारण कहीं ना कहीं असुरक्षित है और यह सुरक्षा तब और अधिक चिंता का कारण बन जाती है जब वह अपने ही घर की चार दिवारी में स्वयं को सुरक्षित महसूस नहीं करती । महिलाओं के प्रति बढ़ती घरेलू हिंसा जो अलग-अलग रूप में सामने आती है आज एक गंभीर समस्या है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Man is the best creation of God, humanity is the religion of human life, every human being should be treated with humanity. Be it any caste, gender, religion, sect or class, everyone has the moral right to live with dignity. All human beings are born with independent existence and rights, but our history is witness to the fact that in every field of work of men, the position of women has been much lower than that of men. There can be no society without the imagination of the word 'woman' which represents half of the society. Woman is the creator of society and is the beginning of creation and civilization, but the atrocities against women's rights are becoming more powerful with time. Even after 75 years of independence, the social, economic and political status of women is still a matter of concern. Even today, women, representing half of the country's population, are insecure to some extent due to social beliefs and stereotypes and this security becomes a cause of greater concern when they do not feel safe within the four walls of their own home. The increasing domestic violence against women which comes in different forms is a serious problem today.
मुख्य शब्द जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता महिला उत्पीड़न, पुरुष मानसिकता, कन्या भ्रूण हत्या, महिला सशक्तिकरण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Caste Discrimination, Untouchability, Women Oppression, Male Mentality, Female Foeticide, Women Empowerment.
प्रस्तावना

मानव जाति का सृजनहार व पालनहार महिला ही है। मानव प्रगति और विकास की जिस अवस्था में आज हम पहुँचे हैं उसमें महिलाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि विज्ञान, धर्म, साहित्य, कला व मानवता को चरमोत्कर्ष तक पहुंचाने में महिलाएं कभी पीछे नहीं रही हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में विकास के किसी भी क्षेत्र या व्यवसाय के विभिन्न पुरुष प्रधान क्षेत्रो में महिलाएं अपना वर्चस्व साबित कर चुकी हैं। महात्मा गांधी ने कहा था - स्त्री पुरुष की संगिनी है जिसकी बौद्धिक क्षमताएं पुरुष की बौद्धिक क्षमताओं से किसी भी तरह कम नहीं है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय संविधान निर्माताओ द्वारा उददेशिका में एक ऐसे समाज की परिकल्पना की गई थी जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, प्रतिष्ठा और अवसर की क्षमता पर आधारित हो। भारतीय संविधान भारत के प्रत्येक व्यक्ति को समान न्याय, समता एवं प्रतिष्ठा बिना किसी भेदभाव के प्रदान करता है। भारतीय संविधान में कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल वंश, जातिलिंग व जन्म स्थान आदि के आधार पर विभेद नहीं करेगा किंतु आज जब हम भारतीय सामाजिक अवस्था के संदर्भ में मानवाधिकारों की चर्चा करते हैं तो यहां की समाज व्यवस्था मे लिंग तथा जातिगत भेदभाव, छुआछूत तथा अस्पृश्यता की भावना साकार हो जाती है। वास्तविकता यह है कि महिलाओ को वह सम्मान प्राप्त नहीं हो पाया जो होना चाहिए था उन्हें निजी स्वार्थ के लिए परेशान किया जाता रहा है और उनके अस्तित्व का दुरुपयोग किया जाता रहा।

अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोध पत्र घरेलू हिंसा तथा महिला उत्पीड़न के समाजशास्त्र पर केंद्रित है यह लेख द्वितीय स्रोतों से संकलित तथ्यों पर आधारित वर्णनात्मक प्रस्तुति के रूप में है जिसका उद्देश्य विषय के बारे में यथार्थ तथ्यों को संकलित करके उन्हें एक विवरण के रूप में प्रस्तुत करना है।
साहित्यावलोकन

विभिन्न किताबों, पत्र पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों का अवलोकन किया गया जैसे:- ओ पी राय ‘‘घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण‘‘ विधि ओरिएंट लॉ पब्लिकेशन नई दिल्ली 2008. डॉक्टर धर्मवीर महाजन- ‘‘भारतीय समाज मुद्दे एवं समस्याएं‘‘ विवेक प्रकाशन दिल्ली। डॉ मृदुला शुक्ला- ‘‘स्त्रियों का घटना अनुपात‘‘ रोशनी पब्लिकेशन कानपुर। डॉ राम अहूजा- ‘‘द वायलेंस अगेंस्ट वूमेन‘‘ रावत पब्लिकेशन जयपुर 1998। रामचंद्र पाठक सामाजिक समस्याएं ।

विश्लेषण

महिलाओं के प्रति हिंसा या उत्पीड़न कोई आज की घटना नहीं है वरन प्राचीन भारत में भी महिलाओं के प्रति किए गए अपमान व उत्पीड़न के अनेक दृष्टांत मिलते हैं जैसे - महाभारत काल में दुर्योधन द्वारा भरी सभा में द्रोपदी का चीरहरण किया जाना। समय या काल कोई भी हो महिलाओं के प्रति समाज का दृष्टिकोण पुरुष मानसिकता से ही प्रेरित व पल्लवित रहा है। कभी लोकाचार, मर्यादा सामाजिक रूढ़ियों, रीति रिवाज, परंपराओं अंधविश्वासों के बंधन में जकड़ कर , तो कभी सतीत्व के नाम पर उन्हें जलाया गया। कारण कुछ भी हो प्रत्येक दशा में महिलाओं को शोषण, उत्पीड़न और अपमान का सामना करना पड़ता है।

महिलाओं के साथ होने वाले इन तमाम अत्याचारों में एक बड़ी समस्या आज घरेलू हिंसा के रूप में देखी जा सकती है यद्यपि घरेलू हिंसा परिवार के किसी भी सदस्य के साथ हो सकती है परंतु घरेलू हिंसा का संबंध मुख्यत महिलाओं से संदर्भित है। घरेलू हिंसा का तात्पर्य घर तथा परिवार में महिलाओं के विरुद्ध किया जाने वाला उत्पीड़न है यह संबंधों में भय व अन्य प्रकार की प्रताड़नाओं द्वारा अपना दबदबा बनाए रखने का एक गलत प्रयास है। प्रताड़ित करने वाला व्यक्ति धमकियों द्वारा मानसिक, मारपीट द्वारा शारीरिक यातनाएं देता है। मैरी हटटन ने  घरेलू हिंसा को उस व्यवहार प्रतिमान के रूप में वर्णित किया है जिसमें एक अंतरंग भागीदार शारीरिक हिंसाउत्पीड़नधमकी पृथक्करण और अन्य भागीदार को नियंत्रित करने और परिवर्तित करने के लिए भावनात्मकयौन या आर्थिक दुरुपयोग का प्रयोग करता है।‘‘[1] न्याय मूर्ति डॉक्टर पी वेणुगोपाल ने ‘‘भावनात्मक एवं लैंगिक दुर्व्यवहार को घरेलू हिंसा का प्रमुख प्रकार बताया है।‘‘[2] भारत में पत्नी को पति द्वारा पीटे जाने की घटनाओं में निरंतर वृद्धि देखी जा सकती है और यह घटनाएं केवल निम्न आय वर्ग वाले परिवारों तक ही सीमित नहीं है बल्कि शिक्षित व संभ्रांत वर्ग में भी अब ऐसी घटनाएं आम होती जा रही है। डॉ राम आहूजा[3] ने भारतवर्ष में पत्नी को पीटने के संबंध में 60 स्त्रियों से संकलित आंकड़ों का विश्लेषण कर तथ्यों को प्रस्तुत किया है जिसमें पारिवारिक क्षेत्र में महिलाओं के प्रति हिंसा के तमाम कारण और उद्देश्य देखे जा सकते हैं जैसे दहेज के लिए दी गई यातनाएं, महिला पर अपना अधिकार स्थापित करना, तनावपूर्ण पारिवारिक परिस्थितिया, पुरुष मानसिकता या व्यक्तित्व संबंधी विकृतियां आदि इन तमाम कारणोवश महिलाएं उत्पीड़न व अत्याचार की शिकार हो रही है। एक तरफ शिक्षा के प्रसार व बदलते परिवेश में उनको अपने अधिकारों के प्रति सचेत किया है किंतु वहीं दूसरी तरफ उतनी ही तेजी से महिलाओं के प्रति उत्पीड़न का ग्राफ भी बढ़ रहा है। एक तरफ जहां महिला सशक्तिकरण की बात की जा रही है वहीं घर की चारदीवारी में महिला स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रही है। पति के द्वारा किए गए गाली गलौज व मारपीट हिंसा को बर्दाश्त करना वह अपनी नियति मानती है । 21वीं सदी में आधुनिकता का ढिंढोरा पीटने वाले कई परिवारों में महिलाएं घुटन भरी सांसों में जी रही हैं।

घरेलू हिंसा का एक अन्य महत्वपूर्ण क्रूरतम रूप कन्या भ्रूण हत्या के रूप में देखा जा सकता है जिसने महिलाओं के जन्म पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के अनुसार ‘‘भारत को अपनी 1.03 अरब की जनसंख्या में से 3.2 करोड़ गायब हुई औरतों का हिसाब देना है।‘‘4 भारत में पिछले दो दशक में 18 लाख बच्चियों की मृत्यु का कारण घरेलू हिंसा (उनकी मां के साथ हुई हिंसा) को बताया गया इन सब के मूल में हिंदुओं की मान्यता दिखाई देती है कि पुत्र जन्म वंशावली को आगे बढ़ाता है, वृद्धावस्था में सेवा करता है ,पिण्डदान करके मोक्ष देता है ऐसी मान्यताओं ने लड़कियों के जन्म के प्रति एक नकारात्मक भाव पैदा कर रखा है जिसके परिणाम स्वरुप न केवल भ्रूण हत्या जैसे अपराध बढे हैं बल्कि जन्म से 5 वर्ष के भीतर बालिका मृत्यु का ग्राफ भी बड़ा है जिसका मूल कारण बालिकाओं के स्वास्थ्य और पोषण पर परिवार द्वारा कम खर्च, बालिकाओं को तुच्छ नजर से देखना , उन्हें परिवार पर बोझ समझना है। लिंगानुपात की दृष्टि से महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में निरंतर घटती जा रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएं हैं।

घरेलू हिंसा का एक कारण दहेज भी है देश में हजारों स्त्रियों को प्रतिवर्ष दहेज की आग में जलाया जाता है। समाचार पत्रों में आए दिन दहेज की लालसा में पति या ससुराल पक्ष के द्वारा महिलाओं को दी जाने वाली यातनाओ की खबर छपती रहती है। दहेज का अर्थ वधू पक्ष की ओर से वर पक्ष को दिया गया उपहार है यदपि आजकल कानूनन दहेज लेना और देना दोनों अपराध है किंतु फिर भी दहेज उन्मूलन हेतु बनाए गए कानून भी इस पर लगाम लगा पाने में सक्षम नहीं है।

बुकर पुरस्कार प्राप्त अरुंधति राय ने अपनी पुस्तक दी गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स में बताया है कि दक्षिण व पूर्वी भारत में जब पति शराब पीकर आता है तो उसका पहला क्रोध पत्नी व बच्चों पर उतरता है।  ऐसे पर्याप्त साहित्य है जो यह बताते है कि  पुरुष वर्ग ने स्त्रियों के साथ हमेशा शोषण का व्यवहार किया है सबसे दिलचस्प बात यह है कि ऐसा व्यवहार पढ़ी-लिखी और वेतन पाने वाली महिलाओ के साथ भी देखा गया है। पुरुष की क्रूरता ,उत्पीड़न और यातना का शिकार हुई महिलाओं के अनेक दृष्टांत विभिन्न समाजों में देखे जा सकते हैं। निःसंदेह मद्यपान या नशा भी घरेलू हिंसा का कारण है क्योकि जब व्यक्ति नशे में होता है तो अत्यंत ही उत्तेजित और असंतुलित मानसिक अवस्था में होता है उसके अंदर विवेकशीलता या तर्कशीलता नहीं होती सही और गलत का भान ना होने और मस्तिष्क के अनियंत्रित होने के परिणामस्वरूप  वह अपने द्वारा किए गए किसी भी कार्य के नतीजे के विषय में सोच नहीं पता है।

डॉ राम अहूजा ने ‘‘मद्यपान को स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा में सहायक कारक तो माना है परंतु प्रमुख कारक नहीं।‘‘[5] उनका यह मानना है कि घरेलू हिंसा के प्रमुख कारण में परिवार की रूढ़िवादी पालन व्यवस्था जिम्मेदार है जहां पर बचपन से ही लड़के और लड़कियों के पालन पोषण में भेद किया जाता है। लड़कों के स्वास्थ्य, शिक्षा पर जितना ध्यान दिया जाता है लड़कियों के प्रति नहीं। इसी के साथ-साथ लड़कों को  कुछ भी करने की छूट प्रदान की जाती है तथा लड़कियों को सब कुछ बर्दाश्त करने के लिए प्रेरित किया जाता है उसे शुरू से यह बताया जाता है कि तुम लड़की हो तुम्हें सदैव मर्यादा  और शीलता का ध्यान रखना है तुम्हें ऊंची आवाज में बात नहीं करनी ,तुम्हें बहुत तेज नहीं हंसना, तुम्हें अपनी मर्जी से कुछ भी कपड़े नहीं पहनने आदि। तुम्हें  शिष्टाचार के सारे नियमों का पालन करना है क्योंकि तुम्हें दूसरों के घर जाना है। यदि तुम्हारे ऊपर कोई हाथ भी उठाए तो उसे चुपचाप बर्दाश्त कर लो क्योंकि सहनशीलता स्त्री का प्रमुख गुण है। चुपचाप रहकर के सब कुछ सह लेने की यह शिक्षा ही उन बेड़ियों  की तरह से होती है जो परिवार द्वारा बचपन से ही उनके पैरों में डाल दी जाती है उसका सामाजीकरण  ही इस तरह होता है कि वह प्रत्येक मामले में स्वयं को ही गलत समझती रहती है।

आज के आधुनिक परिवेश में स्त्री शिक्षा और जागरूकता ने इस परंपरागत सोच को कहीं ना कहीं चुनौती देना प्रारंभ कर दिया है। आज शिक्षित और आत्मनिर्भर महिलाए अपने अधिकारों के प्रति सजग और पहले से कहीं अधिक जागरूक है तथा कहीं ना कहीं अपनी बच्ची को एक सबल और सफल भविष्य देना चाहती है। समाज में आने वाली इस जागरूकता ने महिला की स्वतंत्रता को तो बढाया ही है कहीं ना कहीं उसे ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा किया है कि वह पुरुषों के अहम को चुनौती दे रही है। महिला  और पुरुष दोनो के बढते अहम ने घरेलू तनाव और विवाद के कारण स्वरूप घरेलू हिंसा को बढाया है।

हमारा सामाजिक ताना-बाना और महिलाओं के समाजीकरण की उपरोक्त पद्धति के कारण महिलाएं घरेलू हिंसा पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाती। समाज क्या कहेगा, लोग तरह-तरह की बातें बनाएंगेअगर उसके पति ने उसे घर से निकाल दिया तो फिर वह कहां जाएगी, बच्चे उसके बिना कैसे रहेंगेघर की प्रतिष्ठा खत्म हो जाएगीसमाज में उसका आत्म सम्मान नहीं रह जाएगा, लोग उसमें ही कमियां निकालेंगे, पुलिस क्या उसकी मदद करेगी ऐसे तमाम अंतर्द्वंद से गुजरती हुई वह महिला अपने पति के उत्पीड़न और यातना को सह लेना ही सही समझती है। क्या यह सच नहीं कि इस के लिए हमारे संस्कार ही जिम्मेदार है जिसने उसे आत्मसम्मान छोड़कर सिर्फ सहने की ही शिक्षा दी जाए फिर चाहे वह घर की झूठी प्रतिष्ठा हो या पति को परमेश्वर मानने जैसी मान्यताएं। हमने उसे यह नहीं सिखाया कि जब पति पहला चांटा मारे तो उसी समय उसका विरोध करो। इस संबंध में आर्थिक रूप से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर महिलाओं की स्थिति कुछ बेहतर कहीं जा सकती है किंतु फिर भी कामकाजी महिलाओं को भी कदम कदम पर इस बात का ध्यान रखना होता है कि उनके व्यवहार से उनके पति के अहम को ठेस ना पहुंचे । कमोवेश ऐसी महिलाओं के पास आर्थिक सुरक्षा तो होती है लेकिन सामाजिक सुरक्षा नहीं। ऐसी महिलाओं के संबंध में पति के उत्पीड़न का दूसरा तरीका  होता है वह उसकी उपस्थिति को नकारता  है ताकि उसमें हीनता और अक्षमता का भाव उत्पन्न हो । 

निष्कर्ष

वास्तविकता यह है कि भारतीय समाज में महिलाओं के साथ घर में हो रही हिंसा को हिंसा के रूप में कभी स्वीकार ही नहीं किया गया। दरअसल महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न को अपराध माना जाए या नहीं और यदि अपराध माना जाए तो उसकी सीमा का निर्धारण कैसे होगा इस दिशा में स्वयं महिलाओं की स्थिति  भी बहुत भ्रमपूर्ण है। पिटी हुई महिला की सहायता करने पड़ोसी से लेकर पुलिस तक इसलिए नहीं आते क्योंकि यह पति-पत्नी का निजी मामला होता है। कई बार महिला स्वयं अपने पति का बचाव वा तरफदारी करती है। इस दिशा में 1983 में पहल की गई थी जब भारतीय दंड संहिता में 498 (ए) के रूप में नया अनुच्छेद जोड़ा गया और घरेलू हिंसा को विशेष अपराध के दायरे में लाया गया। यह अनुच्छेद 498 (ए) किसी विवाहित महिला पर पति या उसके परिवार द्वारा की जाने वाली ज्यादतियो पर रोक लगाने से संबंधित है लेकिन यह कानून भी महिलाओं पर होने वाले उत्पीड़न को रोकने में सफल नहीं हो पाया। इस संबंध में महिलाओं का उत्पीड़न रोकने के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 जो 26 अक्टूबर 2006 से लागू हुआ देश का पहला ऐसा कानून है जो महिलाओं को घर के अंदर सुरक्षा व उसे घर में रहने का अधिकार प्रदान करता है। संविधान में महिलाओं के अधिकारों के लिए व्यापक व्यवस्था है। महिलाओं एवं बालिकाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए 1992 में एक राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई है। यद्यपि महिला आयोग के द्वारा महिलाओं के साथ होने वाले तमाम प्रकार के अत्याचार और उत्पीड़न के विरुद्ध कार्य किया जा रहा है किंतु फिर भी इसमें कोई  दो राय नहीं है कि इन अयोगी तक एक आम महिला की पहुँच नहीं है। राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष श्रीमती तारा भंडारी ने कहा सभी महिलाओं को अधिकारों के प्रति सजग व जागरूक रहकर जरूरतमंद महिला तक आयोग को पहुंचने में पूरी मदद करें और हम होंगे कामयाब जैसे नारी से प्रेरणा लेकर इस क्षेत्र में कार्य करें6 घरेलू हिंसा को रोकने के लिए कई ठोस कदमों को उठाए जाने की जरूरत है जो निम्न होता है -

1. महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जाए उनके संबंध में बनाए गए तमाम कानून तथा संवैधानिक प्रावधानों की उन्हें समुचित जानकारी दी जाए इसके लिए विद्यालय स्तर से ही हमें बालिकाओ के अंदर आत्मरक्षा ,आत्मसम्मान, स्वालंबन और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा देनी होगी।

2. आम जनता में पुलिस की भूमिका और कार्य व्यवहार को अच्छा करना होगा ताकि पीड़ित महिला के मन में यह विश्वास पैदा हो कि उसके विरुद्ध होने वाले दुराचार हिंसा और अत्याचार करने वालों पर पुलिस की तरफ से उचित कार्रवाई होगी।

3. महिलाओं के लिए बना कोई भी कानून तब तक कारगर नहीं होगा जब तक कि वह स्वयं आगे आकर अपनी शिकायत की रिपोर्ट थाने में दर्ज करने से ही होगी।

4. प्रथम पाठशाला के रूप में स्थापित परिवार व्यवस्था किसी भी बुराई अत्याचार, अनाचार की आरंभिक अवस्था होती है जहां पर किसी बालक और बालक के व्यक्तित्व का निर्माण होता है इसलिए यही से प्रत्येक माता-पिता को अपनी संतान को संवेदनात्मक गुण उत्पन्न करना होगा ।

5. सरकार द्वारा महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन और सशक्तिकरण हेतु अनेक शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम अनेक रोजगार परख योजनाएं, आत्मनिर्भरता के लिए कौशल विकास आदि अनेक कार्यक्रम और योजनाएं संचालित किया जा रहे हैं किंतु अभी भी इस दिशा में इस बात की आवश्यकता है कि महिलाओं को योजना और कार्यक्रमों से ज्यादा से ज्यादा जोड़ा जाए और उनकी अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित करते हुए उनके अंदर ‘‘कर्म संस्कृत‘‘ को जागृत किया जाए।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1.  ओ .पी. राय ,घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण विधि, ओरिएंट लॉ पब्लिकेशन ,नई दिल्ली 2008

2. P- Venu Gopal Different forms of violence and Harassment against women in India Journal of criminology Volume 29 Jan& July 2001

3. Dr- Ram Ahuja] The Violence against women Rawat publication] Jaipur 1998

4. योजना मार्च 2009

5. Dr- Ram Ahuja] The Violence against women Rawat publication] Jaipur 1998

6. महिलाओं की दशा व सुधार के उपाय: अरविंद विद्रोही