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‘फणीश्वरनाथ रेणु’ के उपन्यासों में निहित
लोक-संस्कृति |
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Folk Culture Contained in the Novels of Phanishwarnath Renu | |||||||
Paper Id :
18799 Submission Date :
2024-03-04 Acceptance Date :
2024-03-13 Publication Date :
2024-03-20
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10972197 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
‘फणीश्वरनाथ रेणु’ के उपन्यासों में ग्रामीण या विशेष अंचल की अनेक समस्याओं, चरित्र, लोगों के परस्पर
संबंध, प्रकृति के दृश्य तथा उनसे मनुष्यों का स्वरूप
उद्घाटित होता है तथा ग्रामीण जीवन की यथार्थता रहती है | भारत एक कृषिप्रधान देश है | इसलिए उपन्यासों का ध्यान गाँवों की ओर जाना स्वाभाविक है | रेणु के उपन्यासों में नवीन कथाविन्यास ही नहीं सारे
औपन्यासिक तत्वों में बदलाव आया है | पात्र योजना में पात्रों की बहू संख्या, नायकत्व की अवहेलना, यथार्थ की धरती को मिट्टी से गढ़े जीवनपात्र, समूह पात्र, परिकल्पना, अंचल, परिवेश का नायकत्व, संवादों से गुंथी, लोकछबिया, भाषा में काव्यात्मकता, लोकतत्व व्याप्ति, दृष्टिविन्यास में आधुनिकता आदि ऐसे सन्दर्भ हैं जो इन उपन्यासों की अपनी अलग
एक पहचान बनाते हैं | रेणु के उपन्यासों में आए ‘अंचल’ के जटिल जीवन
चित्र को अंकित करने के लिए लेखक कहीं मोटी रेखाएं खींचता है, कहीं पतली, अवकाशों को भरने
के लिए दो-चार बिंदु अपनी तूलिका से झाड़ देता है | अनेक पर्वों, उत्सवों, परम्पराओं, विश्वासों, व्यथा के अवसरों, गीतों, संघर्षों, प्रकृति के रंगों, पुराने-नए जीवन मूल्यों, जातियों आदि से
लिपटा हुआ अंचल का जीवन अभिव्यक्ति के लिए नए माध्यमों की उपेक्षा करता हैं | |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the novels of 'Phanishwarnath Renu', many problems of rural or special areas, characters, mutual relations of people, scenes of nature and the nature of human beings are revealed through them and the reality of rural life remains. India is an agricultural country. Therefore, it is natural for the attention of novels to shift towards villages. In Renu's novels, there has been a change not only in the new storyline but also in all the novelistic elements. In the character scheme, large number of characters, disregard for heroism, life characters carved out of the soil of reality, group characters, imagination, locality, heroism of the environment, interwoven with dialogues, folklore, poeticism in language, prevalence of folk elements, modernity in outlook, etc. There are references which create their own identity for these novels. To depict the complex life picture of 'Anchal' in Renu's novels, the author draws thick lines at some places, thin lines at other places and adds a few dots with his paintbrush to fill the gaps. The life of the region, wrapped with many festivals, celebrations, traditions, beliefs, occasions of sorrow, songs, struggles, colors of nature, old and new life values, castes etc., ignores new mediums for expression. | ||||||
मुख्य शब्द | लोक-संस्कृति, लोकगीत, लोकनृत्य, लोकभाषा, पर्व-त्योहार, रीती-रिवाज, अन्धविश्वाश, जादू-टोना, भूत-प्रेत आदि | | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Folk Culture, Folk Songs, Folk Dances, Folk Language, Festivals, Customs, Superstitions, Witchcraft, Ghosts etc. | ||||||
प्रस्तावना | लोक-संस्कृति लोक मानव द्वारा अपनाये गये समस्त विश्वास, अभ्यास और रीति-रिवाज हैं| इसकी पृष्ठभूमि में जीवन के समस्त भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक क्रिया-कलाप सन्निहित होते हैं| किसी भी लोक मानव-समाज की लोक-संस्कृति एक अर्जित अखण्ड धर्म है| लोक मानव का प्रत्येक कार्य प्रातः जागने से रात्री में सोने तक और सोने से जागने तक, किन्हीं विशिष्ट लोकविश्वासों रीतिरिवाज अथवा परम्पराओं द्वारा सम्पादित होता है | सोते समय पलंग का सिरहाना पश्चिम दिशा को शुभ तथा पूर्व दिशा को अशुभ माना जाता है | कहीं जाते समय शुभ दिन, तिथि व दिशा का विचार मानते हैं | अचानक छींक का भी विशेष विचार माना जाता है | रात को पेड़ सोते हैं | सोते समय किसी को जगाना ठीक नहीं होता | भोजन बनाते समय मुँह में मक्खी का घुस जाना अतिथि-आगमन की सूचना देता है | कुत्ते या बिल्ली का घरों में रोना भी अशुभ है | दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया की अन्विति संस्कार रहित होकर नहीं होती | जन्म, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह, मरण आदि के अपने पृथक-पृथक संस्कार और तत्सम्बन्धित रीतिरिवाज हैं | विभिन्न देवी देवताओं, भूत-प्रेतों, पेड़-पौधों, पशुपक्षियों में पूज्य भाव का विश्वास आदि लोक मानव द्वारा अपनाये गये संस्कृति के विविध रूप हैं | |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोध आलेख का मूल
उद्देश्य है कि ‘फणीश्वरनाथ रेणु’ के उपन्यासों में निहित लोक-संस्कृति को जानना | साथ ही इनके उपन्यासों में आए लोकजीवन, लोकभाषा, लोकगीत, लोक नृत्य, पर्व त्योहार, रीती-रिवाज, अशिक्षा, अन्धविश्वास, जादू-टोना, जातीयता, अनैतिकता और बदलते जीवन मूल्य को देखा जा सकता
है | आधुनिक भावबोधों को गहराना रेणु के उपन्यासों का
प्रमुख उद्देश्य रहा है | साथ ही साठ के दशक में चित्रित ग्रामीण लोकजीवन
के संदर्भों को प्रकट भी इसके उपन्यासों का उद्देश्य रहा है | नारी स्वतन्त्रता, शिक्षा प्रसार, अंधविश्वास, सफाई, स्वास्थ्य सुधार, ग्राम पंचायतों द्वारा अन्यायों का निवारण कराना साथ ही ग्रामीण समाज और
संस्कृति आदि प्रकीर्ण आयाम का अध्ययन करानाभी रेणु के उपन्यासों का मूल उद्देश्य
है | |
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साहित्यावलोकन | लोक साहित्य संस्कृति का एक भाग है, उसका एक अंश है| यदि लोक संस्कृति की उपमा
किसी विशाल वट-वृक्ष से दी जाय तो लोक-साहित्य को उसकी एक शाखा मात्र समझना चाहिए|
यदि लोक संस्कृति शरीर है, तो लोक साहित्य उसका एक अवयव है |
लोक संस्कृति का क्षेत्र विस्तार अत्यंत व्यापक है | लोक संस्कृति की व्यापकता जन-जीवन के समस्त व्यापारों में उपलब्ध होती
है | प्रस्तुत शोध आलेख में ‘फणीश्वरनाथ
रेणु’ के दो उपन्यासों का वर्णन किया गया है | ‘मैला आँचल’और ‘परती परिकथा’ इन दोनों
उपन्यासों में ही लोक-संस्कृति का सुंदर चित्रण हुई है | इसके
अंतर्गत लोककथा, लोकगीत, लोकभाषा, लोक नृत्य, पर्व-त्यौहार,
धार्मिक रुढीता, अंधविश्वास, रीती-रिवाज आदि का उल्लेख किया गया है | साथ
ही इस शोध आलेख में डॉ. शांतिस्वरूप गुप्त द्वारा कृत ‘हिंदी
उपन्यास महाकाव्य के स्वरूप’ से महत्वपूर्ण उद्धरण को
लिया गया है | तथा ‘गुरजीत कौर’
द्वारा लिखित शोध आलेख (अपनी माटी पत्रिका जून 2022 ई.) से
महत्वपूर्ण बिन्दु को दर्शाया गया है | |
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मुख्य पाठ |
रेणु के ‘मैला आँचल’ उपन्यास में पराधीन भारत की छवि पूर्णिया जिला के सन्दर्भ में स्पष्ट हुई है | रेणु ने कस्बे, मुहल्ले, गाँव, अंचल को परिवेश बनाकर वहाँ के लोगों की रहन-सहन, जीवन पद्धति, भाषा, धर्म, संस्कृति का सूक्ष्म एवं जीता जागता चित्रण किया है | मेरीगंज गाँव में राजपूत, यादव और कायस्थ, ब्राह्मण जातियों के लोग रहते हैं | जात-पाँत के आधार पर इस गाँव का विभाजन हुआ है | किसान, जमींदार, महंत आदि की अनेक समस्यायें हैं | भारत के ग्रामजीवन के कमजोर राजनीति दल और नेता परस्पर लड़ते हैं, जिसका कारण द्वेष है | ग्राम नेता के रूप में कांग्रेसी बलदेव, सोशालिस्ट, कालीचरण और कम्युनिस्ट प्रशांत गाँव के फलक पर उपस्थित होते हैं | इसमें ग्रामीण और नगरी जीवन का विरोधाभास सुंदर ढंग से दिखाया है | रेणु ने यहाँ के जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाया है | इस उपन्यास में रेणु ने अंचल विशेष की जिन्दगी उसके सामाजिक जीवन में व्याप्त वैशिष्टय को प्रस्तुत करते हुए अशिक्षा, अंधविश्वास, जादू-टोना, जातीयता, अनैतिकता और बदलते जीवन मुल्यों को प्रस्तुत किया है | पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज भारतीय ग्रामीण संस्कृति में पर्वों, त्योहारों का अपना विशेष स्थान है| रेणु के ‘मैला आँचल’ उपन्यास में त्योहारों का व्यापक महत्व दिखाया गया है | लोग त्योहारों के दिन नए वस्त्र धारण करते उत्कृष्ट भोजन पकवाते बनाते हैं | घर बाहर चारों ओर ख़ुशी का वातावरण छाया रहता है | इन त्योहारों के मूल में एक आध्यात्मिक शक्ति का प्रसार होता है और वे अपने लिए अपने आराध्य से उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं | इस उपन्यास में सिखा पर्व, सतुआनी, जाट-जठिन आदि का वर्णन वहां की लोकसंस्कृति को उजागर करता है | सिखा पर्व का वर्णन करते हुए रेणु ने लिखा है इसे ‘मछमरी’ कहते हैं | सुबह शिकार पर निकलेंगे दोपहर को सत्तू खाएँगे | इस दिन सामूहिक रूप से मछली का शिकार करते हैं | इस दिन घरों में चूल्हा नहीं जलाया जाता | बारहों मास चुल्हा जलाने के लिए आवश्यक है कि वर्ष के प्रथम दिन भूमि दहा किया जाए पिछली रात पकाई हुई चींजे ही खाई जाती है | इन दिन जमींदार लोग नया खाता खोलते हैं | फागुन में होली का पर्व बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है | फागुन की बावरी हवा मतवाला क्र देती है और ग्रामवासी भेदभाव भूलकर एक दूसरे को रंग से सरोबर कर देते हैं | होली के उत्सव उस अंचल के लोग इतने मस्त होकर मनाते हैं कि किसी भी व्यक्ति से होली खेले बिना नहीं मानते | डॉ. प्रशांत के पास भी लोग होली खेलने आये पर डॉक्टर बेचारे के पास न अबीर है न रंग की पिचकारी| “यह एकतरफा होली कैसी ? लीजिए डॉक्टर बाबू अबीर लीजिए ये त्यौहार ही तो सांस्कृतिक एकता और निष्ठा के प्रतीक हैं |”[1] भाग्यवाद, अंधविश्वास, भूत-प्रेत, आदि की धारणा गाँव में रूढ़ है | ग्रामीण जीवन में व्याप्त धार्मिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों का पर्याप्त वर्णन रेणु के मैला आँचल उपन्यास में मिलता है | मलेरिया और कालाजार से ग्रस्त इस इलाके के लोग इतने अन्धविश्वासी हैं कि गाँव में अस्पताल का खुलना, मलेरिया सेंटर का खुलना ऐसे ग्राम कल्याणकारी कार्यों को भी विपत्ति सूचक मानते हैं | इस उपन्यास में अन्य अंधविश्वासों का भी उल्लेख है | कोठी के भूत है जंगल में बगुले की तरह उजली प्रेतनी | मार्टिन के कोठी में उसकी पत्नी मेरी का भूत है और गाँव का कोई भी व्यक्ति उसके पास जाने का साहस नहीं करता एक बार ‘ततमा’ टोली का नंदलाल ईट लाने जाता है और जैसे ही ईट छूता है वैसे ही पीछे के जंगल से एक चुरैल निकल आती है और नंदलाल को सांप के कोड़े से पीटना शुरू करता है और वह वही ढेर हो जाता है | डाइन के प्रभाव से डॉक्टर के घर में ढाई हाथ का घोड़ा करैत निकला था | डाइन का मन्त्र भी तो ढाई अक्षर का होता है | इसी प्रकार लोगों का यह विशवास है कि जिन नाम का पीर कभी-कभी मन मोहने वाला रूप धर कर कुमारी और बेवा लड़कियों को भरमाता है जिस पर बिगड़े बरबाद कर दे, जिस पर ढरे उसे निहार कर दे | कमला को डॉक्टर जींद ही लगता है पढ़े-लिखे तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद भी सोचने लगते हैं “डॉक्टर जबसे उसके परिवार में घुला-मिला है रोज अलाए-बलाए होती रहती है कमला ठीक कहती है डॉक्टर जींद है |”[2] रेणु के ‘मैला आँचल’ उपन्यास में लोकगीत प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुए हैं | लेखक वहाँ की मिट्टी से प्यार करते हैं | ग्रामीण जनों के नीरस जीवन कों सरस बनाने में लोकगीतों, लोकनृत्यों के रूप में वहां के सांस्कृतिक जीवन का विशद वर्णन किया है | भिन्न जातियों के परस्पर वैमनस्य अंधविश्वास रुढियों, गरीबी, झगड़ों ने वहां के जीवन को धूल और कीचड़ भरा बना दिया है तो दूसरी ओर वहाँ के नैसर्गिक भोलेपन, संस्कृति, लोकगीत और लोकनृत्य उसे चन्दन की सुगन्धित प्रदान करते हैं | डॉ. शांतिस्वरूप गुप लिखते हैं, “लोकगीत उनका मनोरंजन तो करते ही हैं साथ ही दैनिक समस्याओं के विषय में सीधे-सीधे देहातियों की भावनाओं को व्यक्त करते हैं |”[3] लोकगीत प्रत्येक समाज में पाए जाते हैं | विशेष रूप से यह ग्रामीण अंचल समाज में सांस्कृतिक तत्व हैं | परम्परा के रूप से गाए जाने वाले गीत जिनके रचयिताओं का कोई उल्लेख नहीं है कभी-कभी उनके गायकों के व्यक्तित्व के साथ घुलमिलकर एक हो जाते हैं | रेणु ने इस लोकगीतों को खेत-खलिहानों से उड़ाकर अपने उपन्यासों के अमर पृष्ठों के साथ जोड़ दिया है | ‘मैला आँचल’ उपन्यास में होली का रंग सबसे अधिक गाढ़ा है | होली में मस्ती का वर्णन करते हुए फगुआ और जोगीड़ा के गीत रेणु के उपन्यास में आये हैं | जैसे- “नैना मिलानी करी ले रे सैंया नयना मिलानी करी ले | अब की बेर हम नैहर रहवो जो दिल चाहे सो करी ले ||”[4] मैला आँचल में मेरीगंज में वर्षा न होने पर इंद्र को रिझाने के लिए महिलाएं जाट जट्टीन का खेल खेलती है और गाती है – “सुनरी हमर जटीनियाँ हो बाबू जी, पातरी बाँस के छोकिनियाँ हो बाबू जी | चाँदनी रात के इजोरिया हो बाबूजी नन्ही-नन्ही दंतवा पातल ठोखा छटके जैसन बिजलियाँ ||”[5] वर्षा प्रारम्भ होने पर सोनाई यादव अपनी झोपड़ी में बारहमासा की तान छोर देता है – एही प्रीति कारन सेत बांधलिया, उदेस सिया राम है | सावन हे सखी सबद सुहावना, रिमझिम बरसत मेघ है | रेणु के ‘परती-परिकथा’ उपन्यास में परानपुर के सामाजिक जीवन के यथार्थ स्थिति का वर्णन मिलता है | परानपुर की प्रतिष्ठा सारे जिले में है, इसे सबसे उन्नत गाँव समझा जाता है | इस इलाके का सबसे उन्नत गाँव है परानपुर | किन्तु जिस तरह बाँस बढ़ते-बढ़ते अंत में झुक जाता है उसी तरह गाँव भी झुका है | यहाँ के लोग दस वर्ष के लड़के से भी बात करते समय अपना पाकेट एक बार टटोल लेते हैं | फारबिसगंज में दुकानदार अपनी बिखरी हुई चीजों को समेटना शुरू कर देता है हाकिम हुक्काम भी यहाँ के लोगों से बाते करते समय इस बात का ख्याल रखते हैं कि सिर्फ एक ही गाँव में तीन अधिकारियों की आँख में धूल झोंकी गई | ट्रेन के चेकर जानते हैं कि परानपुर के लोग टिकट लेकर नहीं चलते, चार्ज करने वालों को रोड़े और पत्थर से भाड़ा चुकाते हैं | परानपुर गाँव में सामाजिकता और सामूहिकता दिन प्रतिदिन टूट रही है | पटना से लौटा हुआ जितेन्द्र यही अनुभव करता है | गाँव समाज में मनुष्य का मनुष्य के साथ कुलशील सम्पर्क अब नहीं रहा एक आदमी के लिए उसके गाँव का दूसरा आदमी अज्ञात कुलशील छोड़कर और कुछ नहीं | कहाँ है आज का उपयागी उत्सव, अनुष्ठान जहां आदमी एक दूसरे से मुक्त होकर प्राण मिला सके ? मनुष्य के साथ मनुष्य के प्राणों का योग सूत्र नहीं है | बदलते जीवन मूल्यों, शहरी प्रभाव गाँव के जीवन की संस्कृति पर निरंतर प्रभाव डाल रहे हैं | प्रसिद्ध आलोचक शिवदान सिंह चौहान के अनुसार “कुदरत को आईना दिखाते हुए प्रेमचंद ने बीसवीं सदी की पूर्वाध के व्यापक जनसमूह को ‘गोदान’का पात्र और विषय बनाया था | उसी प्रकार ‘परती परिकथा’ में बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के व्यापक जन समूह को पात्र और विषय बनाया है |” लोकगीत, कथाओं, लोककथाओं, लोकप्रथाओं तथा लोकभाषा का प्रयोग ‘परती परिकथा’ उपन्यास को पूर्णिया जिले के परानपुर गाँव की संस्कृति का चित्र बना देता है | रेणु के ‘परती-परिकथा’ उपन्यास में ग्रामीण लोक-संस्कृति का वर्णन मिलता है | इस उपन्यास में ताजमनी का श्यामा संकीर्तन करना अपने आप में अपूर्व है | सुरीले कण्ठ की ध्वनि सबके होश खो देती है | श्यामा- चकेवा पर्व का वर्णन वहां की लोक संस्कृति का अभिन्न अंग है | मिट्टी का श्यामा-चकेवा का खेल वर्ष भर में एक बार होता है और तीन रात चलता है | गाँव भर की स्त्रियाँ श्यामा-चकेवा बना कर ढोल बजाकर गीत गाती है | पृथक-पृथक टाल अपना एक-एक अंगुआ चुनती है | श्यामा- चकेवा पर्व के बारे में रेणु ने लिखा है पूर्णिया से दो रात पहले श्यामा चराई शुरू होती है | घर-घर से लडकियां डालियाँ लेकर आती हैं जिसमें चावल,फल,फूल,पान,सुपारी के साथ पंक्षियों के पुतले, लम्बी पूंछवाली खंजन पर सिंदूरी रंग का टीकावाला पंक्षी लालमुनियां, विनय वृन्दावन जहां श्यामा का चकेवा की जोड़ी चरेगी | धान, दही, दूध और मिट्टी के ढ़ेले खिलाकर लडकियां विदा करेगी श्यामा चकेवा को | जहां का पंक्षी तहाँ उड़ जा अगले साल फिर से आना | चुगला की चोटी में आग लगाकर लडकियाँ ताली बजायेंगी और तारे करनवाँरे चुगला रोए परानपुर की बेटियाँ रे तारे करानवाँ रे चुगला जाट-जट्टान खेल वर्षा के आगमन के लिए गाँव की लड़कियों द्वारा खेला जाता है और सामायिक अभिनव द्वारा गाँव के बड़े-बड़े लोगों के नाम बिगाड़ कर गालियाँ सुनाई जाती है जिसे कोई भी बुरा नहीं मानता | साथ ही यहाँ के लोगों को विदेशिया नाच और सावित्री नाच लोकप्रिय है | उसके साथ ग्रामीण लोग रामायण, महाभारत, रघुवंश, मेघदूत कुमारसम्भव आदि का भी ज्ञान रखते हैं | परती-परिकथा के परानपुर गाँव में भी अंधविश्वास और जादू-टोना-टोटकाओं को अभिव्यक्ति मिली है | परती ही तो परमादेव की आसनी है | परमादेव की सवारी को भक्ति से पूजते हैं | निरसू भगत दही खा रहा है लोग कहते हैं बाबा खा रहे हैं | कामरेड मकबूल काकी भाभी तक परमादेव से संतान मांगने पहुँच जाती है | यही नहीं वे लोग विशवास से कहते हैं “हंसी ठीठोली भला देवता कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं |”| परमा बात को प्रसन्न करने के लिए एक ही घण्टे में तीन जोड़ी कबूतर की बली डी गई और भगतिया लोगों ने गोचर छोड़कर ओरहना गाना शुरू किया | निरसू भगत अचानक किलकिलाकर भागा ई-ई-ई-लै-लै | सभी हाथ जोड़कर उसके पास भागे | निरसू भगत जैसे भोले-भाले ग्रामीणों की आस्था, विश्वास को ठगते हैं | बाँध निर्माण के पहले बलि देना, मंतराई हुई मिट्टी को दुश्मन के यहाँ डाल देना आदि अंधविश्वास आज भी मौजूद है | दंता राकस के बेटे दुअर को खीर चढ़ाने की प्रथा आज भी कायम है | लोगों का विश्वास है कि आँचल में अच्छत गिरे तो समझो किस्मत खराब और फल गिरे तो समझो मनोकामना पूर्ण हो गई | एक महीना झांड़-फूंक करवाया तब कहीं जाकर उसे सपना आना बंद हुआ आदि वर्णन अंधविश्वास को ही अभिव्यक्त करते हैं | ‘मैला आँचल’ उपन्यास में आए लोकगीत की तरह ही रेणु जी ने ‘परती-परिकथा’ उपन्यास में भी लोकगीतों का वर्णन किया है | इस सम्बन्ध में डॉ. कृष्णानन्द पियूष लिखते हैं कि “परती-परिकथा का आधार लोकगीत की कर्मभूमि है | फलतः इसमें पूर्णिया जिले में गाए जाने वाले गीतों का सुन्दर संकलन हुआ है |”[6] लोकगीतों को आधार मानकर अपने उपन्यास में कई गीतों को गाया है | ‘परती परिकथा’ में कई प्रकार तथा कई स्थाओं के गीत आये हैं | जैसे- “कोसका महारानी क्रोध से पागल हो गई आँ आँरे .....ए....ए | रेशमी पटोर मैया फाड़ी फेंकऊली -ई -ई | सोना के गहनवाँ मैया गाँव में बटा उली -ई-ई | आँ आँरे -ए ए, -उ -पा के जे सोरह मन के चूक- उ-उर | रगड़ी कैलास धू-उ-र-जी-ई-ई |”[7] कथाकार इस गीत को मद्दिम आवाज में जोड़ता है | रूपों के सोलह मन के चूरे? बालूचर के बालू पर जाकर देखिए | उस सूर का धूर आज भी बिश्वरा चिकमिक करता है | कोसका मैया बेतहाशा भागी जा रही है | रास्ते की नदियों को, धाराओं को, छोटे-बड़े नदी-नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बनुल,झरबेर, खैर, पनियाला आदि कुकाठों से घाटबाट कंद करती छीनमताही भागी जा रही है आँ आँ रे...ए | “थर-थर काँपे धरती मैया, रोये जी आकास घाट नु सेझे, बात न सूझे, सूझ न अप्पन हाथ .... नयना से ठरे झर-झर लोर |”[8] रेणु ने लोकगीतों की पंक्तियों का उपयोग कहीं वातावरण सृष्टि के लिए तो कहीं पात्रों के मनोभाओं को व्यक्त करने के लिए किया है | गीत कथाओं का आयोजन लेखक की लोकसंस्कृति को उजागर करने में सहायक बन पड़ा है | |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘फणीश्वरनाथ रेणु’ के उपन्यासों में अनेक लोक विश्वास तथा मान्यताएं हैं जिसके अनुसार ही लोक
मानव आचरण करता है | दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया की अन्विति
संस्कार रहित होकर नहीं होती | जन्म,मुंडन,यज्ञोपवीत, विवाह, मरण आदि के अपने
पृथक-पृथक संस्कार और तत्सम्बन्धित रीतिरिवाज हैं | विभिन्न देवी देवताओं, भूत-प्रेतों, पेड़-पौधों, पशुपक्षियों में पूज्य भाव का विश्वास आदि लोक
मानव द्वारा अपनाए गए संस्कृति के विविध रूप हैं | ये सभी विशेष कर ग्रामीण अंचलों में मानव जीवन के पल-पल और पग-पग पर अपनाए
जाते हैं | उसकी संस्कृति ही सभ्यता है | इस प्रकार हम देखते हैं कि लोक संस्कृति की एक व्यापक
पृष्ठभूमि होती है जिसके विविध परिदृश्यों में उसके रूपों का विस्तार रेणु जी ने
अपने उपन्यासों में दिखाया है | लेखिका ‘गुरजीत कौर’ कहती हैं कि “फणीश्वरनाथ रेणु का कथा-साहित्य भारत की
संस्कृतिक चेतना का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब है |”[9] |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. रेणु फणीश्वरनाथ, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 54वाँ संस्करण- 2016 ई. पृष्ठ सं.38 2. वही, पृष्ठ सं.-218 3. गुप्त डॉ0 शांतिस्वरूप, हिंदी उपन्यास महाकाव्य के स्वर, पृष्ठ सं.-88 4. रेणु फणीश्वरनाथ, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 54वाँ संस्करण- 2016 ई. पृष्ठ सं.-192 5. वही, पृष्ठ सं. 192 6. डॉ. कृष्णानन्द पियूष,चिंतन अनुचिंतन,पृष्ठ सं.- 210 7. रेणु फणीश्वरनाथ, परती परिकथा, जैन बुक एजेंसी, नई दिल्ली, संस्करण- 2010 ई. पृष्ठ सं.-67 8. वही, पृष्ठ सं.- 93 9. गुरजीत कौर, शोध आलेख, अपनी माटी (त्रैमासिक ई-पत्रिका ) issn नम्बर- 2322-0724 जून- 2022 |