ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- XI February  - 2024
Anthology The Research

भाषा : समाज निर्मिति का महत्त्वपूर्ण आधार

Language: Important Basis of Social Construction
Paper Id :  18621   Submission Date :  2024-02-05   Acceptance Date :  2024-02-16   Publication Date :  2024-02-25
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DOI:10.5281/zenodo.10992460
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सुमिता चट्टोराज
एसोसिएट प्रोफेसर, विभागध्यक्षा
हिन्दी विभाग
महाराजा मनिंद्र चन्द्र कॉलेज
कोलकाता,पश्चिम बंगाल, भारत
सारांश

भाषा वह सेतु है जिस पर खड़े होकर मानव ने पारस्परिक संबंध को बनाए रखा है, मजबूत किया है और एक दूसरे का सुख-दुख साझा किया है। विचार-विनिमय और भाव-विनिमय के द्वारा मानव की अभिव्यक्ति पोख्ता बनी है और इसमें भाषा अनगिनत नये-पुराने साधनों के बीच खड़ी होकर भी एकमात्र साधन के रूप में सहायक बनी है, सफल भी। पुराने दौर में अंग-प्रत्यंगों के प्रयोग द्वारा जो भाव व्यक्त होकर भी संपूर्ण अभिव्यक्ति का माध्यम खोजते रहे वही भाव भाषा को पाकर पूर्ण अभिव्यंजना की ओर अग्रसर हुए तथा नये जमाने में व्हाट्सएप, फेसबुक जैसे लोकप्रिय साधनों के जरिए अपनी अभिव्यक्ति-क्षमता में पूर्णत: सुकून न पाकर पुन: भाषा (यानी जो बोली जाए और सुनी जाए) को चुनते हैं ताकि सामाजिक व्यवहार में कहीं कमी न आ जाए, कहीं सामाजिक कथ्यता सीमित न हो जाए, कहीं सामाजिक बंधन ढीली न पड़ जाए। समाज के निर्माण में भाषा की अभिव्यक्ति-क्षमता असीम है। एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से भावाभिव्यक्ति द्वारा बाँधने में भाषा-शक्ति की भूमिका अनिवार्यत: स्वीकार्य है। समाज के हर कथ्य-रूप के पीछे मूल रूप में भाषा ही विद्यमान है जो प्रयोक्ता के विचार को श्रोता तक पहुँचाकर न सिर्फ विचार-संचार का कार्य करती है वरन एक प्रयोक्ता से एक श्रोता को जोड़कर न जाने कितने असंख्य प्रयोक्ताओं और श्रोताओं को एक दूसरे से जोड़कर उन्हें वैचारिक और भावात्मक आदान-प्रदान का अवसर देती है और तब भाषा सिर्फ भाषा न रहकर समाज गढ़ने की व्यवस्था बन जाती है और संरचनात्मक रूप में मानव-अनुभूति को अभिव्यक्ति का अवसर देती है जिसके फलस्वरूप मानव-हृदय की कोमल भावनाएँ, सहानुभूति, बौद्धिकता, तर्कशीलता, स्नेह इत्यादि जो मानव की सहजात प्रवृत्तियाँ हैं, खुलकर सामने आती हैं और मानव तब अपने भाव-जगत में एक दूसरे से संपर्क स्थापन कर समाज से आबद्ध, प्रतिबद्ध और संबद्ध होता है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Language is the bridge on which humans have maintained, strengthened mutual relationships and shared each other's happiness and sorrow. Through exchange of thoughts and feelings, human expression has become powerful and in this, language has become helpful as the only means, even successful, despite standing among countless new and old means. In the old times, the feelings which were expressed through the use of body parts and kept searching for a medium for complete expression, the same feelings moved towards full expression after finding language and in the new era, they are not completely relaxed in their expression through popular means like WhatsApp, Facebook. After getting this, they again choose the language (i.e. what is spoken and heard) so that there is no decrease in social behavior, social communication is not limited, social bonds do not become loose. The expressive potential of language in building society is limitless. The role of the power of language in binding one human being with another through emotional expression is essentially acceptable. Behind every form of content of the society, there is basically language which not only works for communication of thoughts by conveying the thoughts of the user to the listener but also by connecting one user to another listener and connects countless users and listeners to each other. By connecting them with others, it gives them the opportunity for ideological and emotional exchange and then the language becomes not just a language but becomes a system for building society and in a structural form, it gives an opportunity for expression of human feelings, as a result of which the soft feelings and sympathy of the human heart develop. Intelligence, rationality, affection, etc., which are the innate tendencies of human beings, come out openly and humans then become bound, committed and associated with the society by establishing contact with each other in their emotional world.
मुख्य शब्द विश्वजनीन, स्वगत कथन, काव्यशास्त्र, अभिव्यंजना, साहित्यशास्त्र, स्रोतस्विनी, आदान-प्रदान, भावात्मक, विचारात्मक, व्यक्तित्व-निर्मिति, भाषा-भाषी, मनोविज्ञान, संप्रेषण, ध्वनि-प्रतीक, उच्चरित ध्वनि, प्रांतीय लोक समाज, भाव-बिम्ब, बिम्ब-प्रतीक, परिवर्तनशीलता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Cosmogony, Soliloquy, Poetics, Expression, Literary Science, Sources, Exchange, Emotional, Ideational, Personality-building, Language-speaking, Psychology, Communication, Sound-symbol, Spoken Sound, Provincial Folk Society, Emotion-image, Image-symbol, Variability.
प्रस्तावना

मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते पारस्परिक संप्रेषण के बिना जीवित रह नहीं सकता। उसे हर क्षण एक ऐसा साधन चाहिए जिसके जरिए वह आपस में भाव और विचार विनिमय कर सके। भाषा उसकी इसी आकांक्षा और आवश्यकता की पूर्ती करती है। वैचारिक और भावानात्मक आदान-प्रदान के क्रम में जब मानव अपनी अनुभूतियों और अनुभवों को एक दूसरे के सामने प्रकट करता है तब अनायास ही वह समाज के विभिन्न लोगों के सान्निध्य में आता है और इस तरह भाषा इन्हीं लोगों की सहायता से समाज की निर्मिति में स्पष्ट भूमिका निभाने लगती है। भाषा सिर्फ इनके संप्रेषण का वाहक नहीं बनती वरन् इन्हें भावनाओं के संदर्भ में आबद्ध कर देती है। मानव अपने दैनिक जीवन में नित्य भाषा का प्रयोग करता है क्योंकि वह जानता है कि भाषा ही वह माध्यम है जो उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं, मनोकामनाओं इत्यादि को अभिव्यक्ति प्रदान करती है तथा उसे उसकी परंपराओं और संस्कृति से जोड़ती है, उसे सभी से संबंध बनाने का अवसर देती है। विचार और भाव के जरिए संबंध स्थापन की सौन्दर्यानुभूति वह भाषा के द्वारा ही प्राप्त करता है। तभी तो भाषा का विचार पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष दोनों ही इतने सुन्दर हैं कि मानवीय संबंध को चिरस्थायी बनाने में भाषा का अवदान अतुलनीय है। इसलिए भाषा को विकसित और समृद्धशाली बनाने में मानव को और सक्रिय बनना होगा क्योंकि भाषा ही है जो मानव को मानव से जोड़कर रखने में समर्थ है।

अध्ययन का उद्देश्य

इस शोध आलेख का मूल उद्देश्य है भाषा का सामाजिक महत्त्व स्पष्ट करना और पाठकों को यह बताना कि भाषा सिर्फ भाव और विचार-संप्रेषण का साधन नहीं है वरन् मानव के साथ मानव के सामाजिक संबंध-स्थापन में भाषा की भूमिका अनन्य है। साथ ही यह सिद्ध करना कि भाषा मानव को उसकी परंपरा, देश, संस्कृति से परिचय कराती है और मानव को भावनात्मक स्तर पर बाँधने में अग्रणी भूमिका निभाती है। समाज-निर्माण और सामाजिक संबंध की प्रतिष्ठा में भाषा की प्रयोजनीयता अनिवार्य है। इस आलेख का उद्देश्य यह भी बताना है कि भाषा के बिना मनुष्य का हृदय आलोकमय नहीं हो सकता। भाषा ही है जो किसी एक मानव के हृदय रूपी दीप को प्रज्जवलित कर लाखों हृदय को प्रकाशित कर देती है और एक भाव में अनेक भावनाओं को वरण करती है।

साहित्यावलोकन

इस शोध आलेख में लेखिका ने उद्देश्यपूर्ण अध्ययन अवलोकन पद्धति को अपनाया है क्योंकि इस पद्धति का उपयोग सामूहिक व्यवहार के अध्ययन के लिए किया जाता है। भाषाविज्ञान में तेजपाल चौधरी ने भाषा के अध्ययन को भारतीय मान्यताओं के साथ जोड़ते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि मानव सभ्यता के विकास में भाषा की क्या उत्कृष्ट उपलब्धि रही है। यह भी बताया है कि समाज-निर्माण की शुरूआत होते ही भाषा की सामाजिकता भी शुरू हो जाती है। नागरी लिपि विमर्श में डॉ. अनिता ठक्कर ने भाषा को मनुष्य के विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम बताती हुई देवनागरी लिपि की महत्ता घोषित की है। भाषा-विज्ञान एवं हिन्दी भाषा में राम छबीला त्रिपाठी ने भाषा के अभिलक्षण को स्पष्ट करते हुए यह बताने की कोशिश की है कि भाषा का मूल उद्देश्य है किसी न किसी रूप में वक्ता के भावो-विचारों को दूसरों तक पहुँचाना। भोलानाथ तिवारी ने भाषाविज्ञान में भाषा की परिभाषा देते हुए मानव समाज के लिए भाषा को विचार-विनिमय का अनिवार्य साधन बताया है। उनका कहना है कि सामाजिक प्राणी होने के नाते हर वक्त मनुष्य को भाषा की जरूरत होती है क्योंकि भाषा के जरिए ही वह विचार-विनिमय करता है और इसके बिना वह जी नहीं सकता। डॉ. लक्ष्मीधर दाश ने अपनी लेख भाषा विज्ञान के सामान्य सिद्धांत’ में भाषा की परिभाषा देते हुए भाषा की विशेषताएँ स्पष्ट किया है और इसी क्रम में उन्होंने भाषा को गतिशील बताते हुए समाज के साथ उसके अविच्छिन्न संबंध का उल्लेख किया है। आधुनिक भाषा विज्ञान में राजमणि शर्मा ने व्यक्ति-समाज-सभ्यता के संदर्भ में भाषा की आवश्यकता बताते हुए उसे मानव व्यवहार का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना है। उनका कहना है कि चूँकि मानव सभ्यता मूल रूप से अनुभूति के आदान-प्रदान पर आधारित है इसलिए मानव भाषा के द्वारा ही खाना, बैठना, उठना, पहनना इत्यादि तमाम क्रियाकलापों को संभव बनाता है। अत: उनके अनुसार मानव के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभवों के ग्रहण का एकमात्र साधन है भाषा। आशा सिंह ने भाषा-भाषा की परिभाषा, अर्थ अंग, भेद और प्रकार’ नामक अपनी लेख में भाषा की अवधारणा स्पष्ट करते हुए भाषा की उत्पत्ति, विकास, प्रकार, मौखिक और लिखित भाषा में अंतर, सांकेतिक भाषा, मानक भाषा, संपर्क भाषा का विस्तार से विश्लेषण करते हुए भाषा के अंगों को स्पष्ट किया है साथ ही उन्होंने भाषा और बोली तथा राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अंतर को भी स्पष्ट किया है। साथ ही भाषा और लिपि के भेद को भी उन्होंने रेखांकित किया है।

मुख्य पाठ

अब तक भाषा को विभिन्न भाषाविदों ने विभिन्न तरह से अपने-अपने दृष्टिकोणों से परिभाषित करते हुए भाषा की महत्ता और उपयोगिता घोषित की है। प्राच्य के भाषा वैज्ञानिक हो या पाश्चात्य के भाषा मर्मज्ञ सबों ने एकमत होकर यह तो स्वीकारा है कि भाषा की भूमिका सामाजिक संबंध के निर्माण में अभूतपूर्व और अनिवार्य रही है। वस्तुत: भाषा शताब्दियों से नदी की तरह प्रवाहमान होती हुई हमारी संस्कृति और सभ्यता को धारण कर मानव के साथ मानव के संबंध को मजबूत ही नहीं करती रही वरन् एक समाज से दूसरे समाज को परस्पर आपस में पहचान दिलाते हुए भिन्न-भिन्न परंपराओं और संस्कृतियों को एक दूसरे से मिलाने का काम की। भाषा का विस्तार परिवार, स्थानीय क्षेत्र, प्रान्त, राज्य, देश से होते हुए विश्व के द्वार तक होता रहा जिसके कारण भाषा की लहर ने विश्व-आँगन तक फैलकर मानव को एक दूसरे से बाँधते हुए उसे विश्वजनीन ही नहीं बनाया वरन् उसे विश्व संस्कृति और विश्व सभ्यता से परिचय करवाया। भाषा के विभिन्न रूपों, उसके अर्थों, उसके शब्द-भण्डार, उसका इतिहास, उसका व्याकरण, उसका साहित्य में प्रयोग इत्यादि का मूल लक्ष्य हमेशा यही रहा है कि वह समाज में बोली जाने वाली बोलियों, समाज में प्रचलित परंपराओं, समाज की लोक तथा अन्य संस्कृतियों, समाज में निहित विविध भाषा परिवारों के बीच अंतर्संबध स्थापित कर सके। तेजपाल चौघरी कहते हैं कि भाषा मानव सभ्यता के विकास की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। मानव जाति का सारा ज्ञान भाषा के माध्यम से ही विकसित हुआ है।’’1 इसी के फलस्वरूप भारोपीय भाषा परिवारों नें जहाँ अन्य भाषा परिवारों से अपना सुसंबंध बनाया है वहाँ भारतीय आर्य भाषाओं ने भारतीय द्रविड़ भाषाओं के साथ भी अपना सुसंपर्क कायम किया है भले ही इनमें कितनी ही भाषागत भिन्नताएँ क्यों न हो। इसके कारण एक भाषा भाषी समाज के लोग दूसरे भाषा-भाषी समाज के करीब आते गये और इस तरह भाषा दोनों के बीच सेतु बन पारिवारिक रूप में आपस में संबंध स्थापन करने लगी। विभिन्न भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन-विश्लेषण करने पर यह और स्पष्ट हो जाता है। साथ ही तमाम भाषाओं की भौगोलिक निकटता या दूरी पर विचार करने पर यह भी पता चल जाता है कि कौन सी भाषा भारोपीय परिवार से है और कौन सी भाषा किसी अन्य परिवार से।

भाषा द्वीप नहीं बन सकती, उसे समाज चाहिए, उसे समाज-जन चाहिए। इस संदर्भ में अज्ञेय की कविता 'नदी के द्वीप' का उदाहरण सार्थक प्रतीत होता है जिसमें कवि ने व्यक्ति के व्यक्तित्व की निर्मिति में समाज की भूमिका स्पष्ट करते हुए समाज की प्रगति में व्यक्ति की महत्ता को रेखांकित किया है। इस तरह भाषा भी समाज के बिना और समाज, भाषा के बिना असंपूर्ण है। फर्दिनान्द द सस्यूर ने कितना सटीक कहा है कि भाषा सिर्फ नामकरण की व्यवस्था नहीं है वरन् सामाजिक संबंध के निर्माण की व्यवस्था है। वस्तुत: समाज को बनाने में भाषा का समर्पण अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है। भाषा जहाँ एक ओर व्यक्ति को उसके भाषण, साक्षात्कार-कला, संचालन-कला, स्वगत-कथन, नाटक, तत्क्षण-वक्तव्य, आवृत्ति, गीत इत्यादि के द्वारा संवारती है वहाँ दूसरी ओर भाषा उसी व्यक्ति को सामाजिक सहयोग के लिए तैयार करती है जो राजनीति, समाजनीति, काव्यशास्त्र, अर्थनीति इत्यादि की जटिल से जटिल समस्याओं को भाषा के जरिए ही सुलझाता है और इन विषयों से संबंधित तमाम प्रश्नों का उत्तर भी ढूढ़ निकालता है। भाषा के जरिए ही व्यक्ति प्रतिकूल स्थिति को अपने अनुकूल बनाता है और विश्व से संबंध स्थापित कर विश्व पर विजय हासिल करता है। व्यक्ति चाहे अपने से संबंध बनाए या किसी और व्यक्ति से, भाषा ही है जो व्यक्ति की भावनाओं और विचारों को बाँटने में सहायक होती है। भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति सामाजिकता के निर्वाह की भावना से प्रेरित होता है। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के कथोपकथन के जरिए भी सामाजिक संपर्क स्थापित होता है चाहे वह उद्देश्यपूर्ण हो या निरूद्देश्यपूर्ण, चाहे आदेश देना हो या निर्देश देना, क्रोध सूचित करना हो या खीझ प्रकट करना, असहमति जताना हो या धन्यवाद ज्ञापन इत्यादि हर संदर्भ में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भाषिक व्यवहार करता है जो समाज का ही अंग है यद्यपि इनमें से कई भाव संकेतों से भी व्यक्त किये जा सकते हैं किन्तु तब वह सांकेतिक भाषा कहलाएगी, पूर्ण अभिव्यंजना नहीं। यह सर्वविदित है कि भाषा का सर्वाधिक उपयोग समाज में होता है क्योंकि भाषा की व्यापकता व्यक्ति और समाज के संपर्क से तय होती है। भाषा के जरिए व्यक्ति अपना देश और अपने देश की संस्कृति को समझ सकता है। रामगोपाल शर्मा दिनेश के अनुसार भाषा देश की अस्मिता की पहचान होती है। वह उसकी संस्कृति को जीवित रखती है... वह ऐसी वाग्धारा होती है जिसके रूप तो बदलते रहते हैं किन्तु भाव और अर्थ सतत प्रवाही होते हैं।’’2 भाषा का प्रयोग कभी जनमत की निर्मिति के लिए तो कभी किसी के पक्ष या विपक्ष में विचारधारा बनाने के लिए भी किया जाता है। भाषा का रचनात्मक प्रयोग समाज के लोगों को उद्बुद्ध और प्रेरित करने के लिए भी किया जाता है। इस संदर्भ में भाषा का उद्देश्य मनुष्य में सौन्दर्यबोध जगाना होता है तथा उन्हें सुन्दर भावों के प्रति उद्दीप्त करना है। अपने सृजनात्मक प्रयोग के क्षेत्र में एक भाषा अपनी तमाम संकीर्णताओं को त्यागकर अन्य भाषा और उसके साहित्य से जुड़ जाती है और रचनाओं में आनंद उत्पन्न करने में सहायक होती है। यहाँ आकर भाषा सामाजिक सरोकार रखते हुए भी न तो सूचना देने का काम करती है और न ही किसी सीमा में बँध जाती है वरन् वह सुन्दर अनुभूति की वस्तु बन जाती है। भाषा का यह प्रयोग भाषिक नियमों को लाँघकर भाषाविज्ञान के विषयों का अतिक्रमण कर सिर्फ और सिर्फ साहित्यिक बन जाता है और साहित्यशास्त्र से अपना संबंध स्थापित करते हुए साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय पक्षों को उजागर करता है। इसीतरह जब हम धर्म, दर्शन, राजनीति इत्यादि का सैद्धांतिक विश्लेषण करते हैं तब भाषा हमारी समाज-सापेक्ष विचारधारा को प्रकट करती है जिसका संपर्क समाज से होता है। रामविलास शर्मा के अनुसार व्यक्ति-व्यक्ति का संबंध या व्यक्ति-समाज का संबंध भाषा के बिना अकल्पनीय है।’’3 अत: स्पष्ट है कि भाषा का क्षेत्र अत्यंत ही व्यापक है। जिस प्रकार जल के बिना जीवन संभव नहीं, उसी तरह भाषा के बिना समाज में मनुष्य का रहना संभव नहीं। दण्डी ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा कि सृष्टि के प्रारंभ में यदि भाषा की ज्योति न जलती तो यह चराचर घोर अंधेरे में डूब जाता।

भाषा की निर्मिति समाज के द्वारा समाज में ही होती है और उसका प्रयोग भी समाज में ही होता है। समाज के बिना भाषा की कल्पना की ही नहीं जा सकती। जब से मानव समाज बना है तब से भाषा की प्रवाह बरकरार है । सृष्टि के जन्मलग्न से ही भाषा स्रोतस्विनी की तरह प्रवाहमान है। भाषा की गति के साथ-साथ समाज भी गतिशील बनता जाता है। समाज भाषा को तोड़-मरोड़ सकता है, परिवर्तित कर सकता है किन्तु उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता। भाषा सीखी जाती है समाज में। अनुकरण द्वारा समाज में लोग एक दूसरे से भाषा सीखते हैं। व्यक्ति अपनी माँ से सर्वप्रथम भाषा सीखता है पर वह माँ भी तो समाज का ही हिस्सा है।

भाषा शिक्षा, संस्कार, संस्कृति आदि द्वारा समाज में संपर्क स्थापन करती है तथा मनुष्य को आपस में विचारों और भावों के आदान-प्रदान में सहायता करती है। हर मनुष्य की भाषा अलग होती है और वह दूसरे मनुष्य से उसकी भाषा सीखता है जिससे स्पष्ट है कि मनुष्य की भाषा हमेशा एकरूप नहीं होती पर यह भी सच है कि भाषा की अनेकरूपता ही मनुष्य को एक दूसरे से बाँधकर रखी है। भाषिक रूप अलग-अलग होने के कारण भाषा के प्रति लोगों का आकर्षण भी बना रहता है। तभी तो सामाजिक दृष्टि से भाषा की महत्ता अतुलनीय है क्योंकि भाषा सामाजिक संप्रेषण का माध्यम है। भाषा का उद्भव व्यक्ति से होता है पर उसका विकास समाज में संभव है। भाषा का विस्तार परिवार से होकर विश्व तक होता है। पारस्परिक संबंध स्थापन में चाहे वह संबंध भावनात्मक हो या विचारात्मक, समाज में भाषा मनुष्य को जोड़ने का काम करती है। व्यक्ति जहाँ भाषा के निर्माण में सहायक होता है वहाँ भाषा व्यक्ति के व्यक्तित्व-निर्मिति में साधक बनती है। इस तरह समाज और व्यक्ति के बीच संपर्क स्थापित करने का सबसे बड़ा साधन है भाषा जो मनुष्य-मनुष्य के भेद को मिटाकर मनुष्य को एक दूसरे के करीब लाती है और भावों तथा विचारों के आदान-प्रदान में मदद करती है। डॉ. अनिता ठक्कर के अनुसार भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भलीभाँति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्पष्टतया समझ सकता है।’’4

भाषा के सीमा-विस्तार के साथ-साथ मनुष्य का सामाजिक संपर्क बढ़ता गया है। जब एक भाषा-भाषी किसी दूसरे भाषा-भाषी से वैवाहिक संबंध स्थापित करता है तब वह उस दूसरी भाषा परिवार का भी सदस्य बन जाता है। इस तरह समाज के विभिन्न भाषिक समुदायों में संबंध तय हो जाते हैं जिसमें भाषा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। मेला हो या खेल-कूद, सांस्कृतिक मंच हो या शैक्षिक स्थल या यात्रा-क्षेत्र, विभिन्न अवसरों पर विभिन्न भाषा-भाषी भाषा विनिमय के जरिए विभिन्न भाषाओं का अधिकारी बनता जाता है।

भाषा कभी शिक्षा का माध्यम बनती है तो कभी प्रशासनिक कार्यों का, कभी वाणिज्य-व्यवसाय का जरिया बनती है तो कभी राजनीतिक आवश्यकताओं का, कभी रचनात्मकता का माध्यम बनती है तो कभी शासन, वैज्ञानिक गतिविधियों इत्यादि का। इन सभी संदर्भों में भाषा मनुष्य को पारस्परिक विचार और भाव विनिमय की सुविधा ही प्रदान नहीं करती वरन् उसे विचार-विमर्श के लिए अवसर देती है। भाषा के सामाजिक पक्ष को सस्यूर ने लाँग कहा है और उसके वैयक्तिक पक्ष को पेरॉल। समाज में मनुष्य के सभी कार्य भाषा द्वारा संचालित होते हैं। व्यक्ति और समाज का संबंध भाषा द्वारा ही संभव है।

सामाजिक संप्रेषण तभी संपूर्ण और सफल होता है जब वक्ता जिस अर्थ में कहना चाहता है उसी अर्थ में समझा जाए। भाषा के बिना यह प्रक्रिया संभव नहीं क्योंकि भाषा मानव-संप्रेषण की प्राथमिक पद्धति है। मानव समाज में मनुष्य भाषा को अनुकरण द्वारा सीखता है और उसे शुद्ध भी बनाता जाता है। भाषा हमें सिखाती है कि समाज में मानवीय संबंध तरह-तरह के होते हैं और भाषा प्रयोग भी विभिन्न संबंधों के संदर्भ में अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए बच्चे घर में जिसतरह से बात करते हैं वैसे वे स्कूल में बात नहीं करते। वस्तुत: मनुष्य सामाजिक परिवेश के अनुसार अपनी भाषा बदल देते हैं। शोक के परिवेश की भाषा आनंद के परिवेश से भिन्न होती है क्योंकि भाषा हमें सामाजिक नियमों से परिचित कराती हुई समाज के अनुसार चलना सीखाती है। तभी तो कपिलदेव द्विवेदी कहते हैं कि भाषा का सर्वोत्तम उपयोग व्यक्ति को समाज से समन्वित करने का है। भाषा समाज का समन्वय सूत्र है जिससे समाज समन्वित, संगठित एवं संपृक्त है। भाषा के द्वारा ही व्यक्ति समाज का एक सजीव सदस्य बनता है।’’5

भाषा समाज जीवन को व्यापक बनाती है। यह हमारे सांस्कृतिक ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे ले जाने का केन्द्रीय वाहन है तथा यह दूसरों के मन तक पहुँचने का भी प्राथमिक माध्यम है जिसके द्वारा हम दूसरों के मन को पढ़ सकते हैं। भाषा का प्रयोग उन सारे विषयों के संदर्भ में भी किया जाता है जो समाज मनोविज्ञान से जुड़ा हो। जैसे व्यक्ति की पहचान सामाजिक आदान-प्रदान, सामाजिक विचार इत्यादि। समाज मनोवैज्ञानिकों के लिए तो भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा वह मनोरोगियों की समस्यायों को सुलझाता है। इस संदर्भ में भाषा मनोरोगियों के सुप्त मनोभावों को जगाने और उन्हें प्रकट करने में मदद करती है। अत: स्पष्ट है कि हर तरह का संप्रेषणीय आदान-प्रदान सामाजिक संदर्भ में ही संभव है। मुख्यत: भाषा संप्रेषण की वह व्यवस्था है जिसमें ध्वनि अथवा चिह्न किसी वस्तु, क्रिया और विचार को संप्रेषित करता है। भाषा के उद्भव और विकास के इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि भाषा पहले मौखिक रही और बाद में प्रकाशन व्यवस्था और लिखित माध्यमों के विकास के साथ-साथ विकसित होती गई। भाषा यदि नहीं होती तो समाज में मानव अज्ञान के अंधकार में ही रह जाता। वह न तो अपने पूर्वजों की जीवन पद्धतियों को जान पाता और न ही उनके विचारों को। भाषा ही है जो संप्रेषण द्वारा मानव की तमाम गलतफहमियों को दूर कर सकती है। भाषा मानवता के हृदय में बसी हुई है। मेलिनोस्की के अनुसार भाषा ऐक्य का आवश्यक माध्यम है। यह क्षण के बंधन को बनाने का एक अन्यतम अपरिहार्य यंत्र है जिसके बिना एकीकृत सामाजिक क्रिया असंभव है। वस्तुत: भाषा मानव को संपूर्ण मानव बनाती है। भाषा ही मानव को विवेकशील प्राणी सिद्ध करती है। जैसा कि अरस्तु ने कहा और वही उसे पशुओं में श्रेष्ठ घोषित करती है क्योंकि मानव अपनी तर्कशक्ति को प्रस्तुत कर पाता है जो कि भाषा के बिना संभव नहीं है। भाषा ने ही सभ्यता के विकास को सफल बनाया है। प्राकृतिक रूप में ही भाषा सामाजिक है और इसलिए बिना कहे मनुष्य से जुड़ी हुई है। समाज के विकास के साथ-साथ भाषा का विकास होता जाता है। स्तालिन ने कहा कि समाज के उद्भव और विकास के साथ भाषा का उद्भव और विकास होता है। समाज की मृत्यु होने पर भाषा मर जाती है। समाज के साथ मानव संबंध इतना गहरा है कि उसे सामाजिक परिवेश से अलग करना संभव नहीं जिसमें वह जन्म लेता है, पल्लवित होता है और विकसित होता है और यह सब कुछ भाषा के बिना संपूर्ण नहीं हो सकता। भाषा मानव को मानवेतर प्राणी से सिर्फ अलग पहचान नहीं दिलाती वरन् श्रेष्ठ सिद्ध करती है। अर्थपूर्ण भाषा हमेशा दूसरों के द्वारा समझी जाती है और संपूर्ण समुदाय द्वारा स्वीकार की जाती है। भाषा प्रवाहमयी है इसलिए वह एक मनुष्य से संपर्क स्थापन के पश्चात् दूसरे मनुष्य तक पहुँच जाती है और वहाँ भी संबंध बनाती है। तभी तो भाषा को यादृच्छिक ध्वनि चिह्नों की व्यवस्था बताया गया है जिसके द्वारा मानव एक दूसरे से आपस में संपर्क और सहयोग करता है। राम छबीला त्रिपाठी के अनुसार भाषा में जितने भी ध्वनि-प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है उन सबका उद्देश्य किसी न किसी रूप में वक्ता के भावों-विचारों को दूसरों तक पहुँचाना ही है।’’6

भाषा की पहली शर्त ही है कि कोई व्यक्ति अपने भावों और विचारों का प्रदान करें और कोई दूसरा व्यक्ति उन्हीं भावों और विचारों का उससे आदान करें अर्थात भाषा की सार्थकता और चरितार्थता के लिए न्यूनतम दो व्यक्तियों का होना जरूरी है-- पहला वक्ता और दूसरा श्रोता क्योंकि एक व्यक्ति भावों और विचारों का प्रदाता है तो दूसरा अदाता। भाषा को वक्ता और श्रोता द्वारा पूर्ण अभिव्यंजना तक पहुँचाने में एक अनिवार्य तत्त्व की जरूरत होती है और वह है उच्चरित ध्वनि जिसके बिना भाषा व्यक्त वाणी नहीं बन सकती। अत: स्पष्ट है कि भाषा अपने प्राथमिक स्तर पर ही एक व्यक्ति के भावों और विचारों से दूसरे व्यक्ति को बाँध देती है और इसप्रकार प्रारंभिक स्तर पर ही भाषा वक्ता से होकर  श्रोता तक पहुँचते हुए संप्रेषण के जरिए पहले एक भाषा समूह और फिर एक भाषा समाज की सृष्टि करती है और धीरे-धीरे बहुभाषा-भाषी समाज की ओर अग्रसर होती है। इसतरह भाषा स्थानीय लोक-समाज, प्रान्तीय लोक-समाज, राष्ट्रीय लोक-समाज से यात्रा शुरू कर विश्व लोक-समाज का निर्माण कर मानव-रिश्ते के बंधन की जड़ों को मजबूत करती है। चूँकि भाषा का उद्भव समाज में होता है और वह समाज में पलती और विकसित होती है इसलिए भाषा एक सामाजिक वस्तु है। मनुष्य भाषा को समाज में सीखता है, उसे समाज में बोलता है तथा समाज में सुनता है। संकेतक शब्द और संकेतित वस्तु के बीच एक बुद्धियुक्त भाव होता है जिसे मनुष्य समाज में ही ग्रहण करता है। ऐसा नहीं है कि मनुष्य के पास विचार-विनिमय के अन्य साधन नहीं है। एस. एम. एस, फेसबुक, वॉटसैप इत्यादि अनेक ऐसे लोकप्रिय साधन हैं जिनके द्वारा मनुष्य आसानी से विचार-विनिमय करता है किन्तु फिर भी आज के दिन भी भाषा एक ऐसा साधन है जिसके सामने उक्त साधनों का क्षेत्र सीमित है। भाषा को बोलकर मनुष्य जितना अनुभूति स्तर पर सुकून महसूस करता है उतना लिखकर नहीं क्योंकि पहले अनुभूति स्तर पर ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से जुड़ता है और वह भी भाषा के जरिए। वह भाषा जो बोली जाए और सुनी जाए। तभी तो भाषा सामाजिक संबंधों के केन्द्र में है। भाषा व्यक्ति-व्यक्ति के जरिए समाज को बाँधने का सूत्र है क्योंकि भाषा वक्ता के भाव-बिम्बों से होते हुए ध्वनि तरंगों से गुजरकर श्रोता तक पहुँचती है और ध्वनि उच्चारण के माध्यम से श्रोता के मस्तिष्क में बिम्ब उभारती है जिसके कारण वस्तु-बिम्ब-प्रतीक में एक संबंध स्थापित हो जाता है जो वक्ता और श्रोता के बीच के संबंध को कायम करता है। भाषा मानव-व्यवहार का एक अन्यतम हिस्सा है। यह मानव के जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि जल। इसलिए व्यक्ति को भाषा से और भाषा को व्यक्ति से काटना असंभव है। मनुष्य के सामाजिक जीवन का महत्त्वपूर्ण आधार है भाषा।

जब भोलानाथ तिवारी कहते हैं कि ''भाषा मानव-उच्चारणावयवों से उच्चरित यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीको की वह संरचनात्मक व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज विशेष के लोग आपस में विचार-विनिमय करते हैं...।''7 या ब्लॉक तथा ट्रेगर कहते हैं कि A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a society group cooperates अथवा स्रुत्वाँ कहते है कि A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which members of social group cooperates and interact, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि वक्ता के विचार को श्रोता तक पहुँचाते हुए दोनों के बीच सामाजिक संबंध कायम करना तथा संप्रेषण व्यवस्था के जरिए विचार-विनिमय की प्रक्रिया को जारी रखते हुए वक्ता (अर्थात् व्यक्ति) के उच्चारण अवयवों से नि:सृत ध्वनि समष्टि द्वारा श्रोता (अर्थात् समाज) के साथ सहजात संबंध स्थापित करना भाषा का मुख्य और महत्वपूर्ण कार्य है। भाषा के माध्यम से मनुष्य के साथ समाज का यह संबंध तर्कपूर्ण, स्वाभाविक और नियमित होता है। डॉ. सत्यदेव मिश्र के अनुसार पारस्परिक संप्रेषण के बिना मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी जीवित नहीं रह सकते-- वस्तुत: भाषा मानव संप्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण साधन है...।’’8

निष्कर्ष

भाषा दो आधार समेटी हुई है-- मानसिक और नैतिक। मानसिक आधार यदि भाव और विचार है जिनका प्रयोग वक्ता द्वारा होता है तो भौतिक आधार भाषा में प्रयुक्त ध्वनियाँ हैं जो वक्ता के भावों और विचारों को वहन करती है और श्रोता तक पहुँचाती है। अर्थात् मानसिक पक्ष को भौतिक पक्ष द्वारा भाषा ही है जो विचार व्यक्त करने का माध्यम बन समाज से जुड़ती है। अत: भाषा आद्यांत समाज से संबंधित है। भाषा समाज से अर्जित की हुई वस्तु है क्योंकि भाषा एक सामाजिक संस्था है। अगर हम यह भी कहें कि भाषा का अर्जन परंपरा से हुआ है तो भी परंपरा तो समाज के अंतर्गत निहित है। इसलिए परंपराएँ भी कहीं न कहीं सामाजिक है क्योंकि ऐतिहासिक परंपरा हो या पौराणिक परंपरा इत्यादि सभी समाज से ही उद्भुत हैं। भाषा का उत्थान हो या पतन, उद्भव हो या विकास या परिवर्तन, किसी न किसी बिन्दु पर भाषा समाज से अपना नाता तय करती है। डॉ. कपिलदेव द्विवेदी कहते हैं कि भाषा में वह शक्ति है कि वह सारे संसार को एकसूत्र में बाँध सके।’’9 वस्तुतभाषा की यात्रा घर से होते हुए विश्व-समाज तक तय होती है इसलिए भाषा को विश्व को जोड़ने वाला साधन कहा गया है। भर्तृहरि ने भाषा को विश्व-निबन्धनी कहा है। भाषा में वह सामर्थ्य है कि वह बेजान समाज में जान डाल देती है। मानव अपना हर काम भाषा द्वारा संपन्न करता है। डॉ. लक्ष्मीधर दाश के अनुसार  जब तक मानव समाज रहेगा, उसके साथ उसकी भाषा भी रहेगी10 इसलिए भाषा के बिना सामाजिक जीवन के संबंध के बारे में सोचा नहीं जा सकता। मानव अनुभूति प्रधान प्राणी है और वह अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति किए बिना नहीं रह सकता। उसका अनुभूति पक्ष जितना सबल है उतना ही अभिव्यक्ति पक्ष। वह अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों द्वारा अपने भावों और विचारों को दूसरों के सामने प्रकट करता है। राजमणि शर्मा कहते हैं कि भाषा वह सीखा हुआ व्यवहार है जो समाज में रहकर सीखा एवं किया जाता है। समाज-विहिन भाषा का अस्तित्व संभव नहीं है। भाषा के लिए समाज की इस अनिवार्यता के कारण ही भाषा को सामाजिक व्यवहार कहा जाता है।’’11 भाषा में संपर्क स्थापित करने की अद्भुत शक्ति होती है। भाषा को संपर्क-व्यवस्था कहना उचित प्रतीत होता है। चूँकि समाज परिवर्नशील है इसलिए भाषा भी परिवर्तनशील है। जैसे-जैसे समाज बदलता गया वैसे-वैसे भाषा भी बदलती गई। सामाजिक परिवर्तनों से भाषा कभी भी किसी भी काल में अप्रभावित नहीं रही। इससे स्पष्ट होता है कि भाषा हमेशा समाज से जुड़ी हुई रहती है। आशा सिंह के अनुसार हम व्यवहार में यह देखते हैं कि भाषा का संबंध एक व्यक्ति से लेकर संपूर्ण विश्व सृष्टि तक    है।12 भाषा का संरचनात्मक परिवर्तन समाज के बदलने के साथ-साथ होता गया क्योंकि समाज के विकास और ह्रास का प्रभाव भाषा पर हमेशा पड़ता रहता है। इस प्रकार समाज और भाषा का गहरा रिश्ता न केवल सामाजिक रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार, बोलचाल का विवरण प्रस्तुत करता है वरन् प्रगतिशील या अप्रगतिशील तथा स्वतंत्र या परतंत्र समाज का ब्यौरा भी प्रकाशित करता है। सच्चाई यह है कि भाषा हमें समाज के हर पहलू से परिचय करवाती है। दूसरी और समाज भाषा को पल्लवित और विकसित होने का अवसर देता है। अत: स्पष्ट है कि भाषा सामाजिक संपर्क निर्माण का एक ऐसा सेतु है जो सांस्कृतिक-ऐतिहासिक-सामाजिक मूल्यों की निर्मिति में अपनी विशिष्ट भूमिका निभाता है। समाज के विभिन्न भाषा-भाषियों के सांस्कृतिक विकास से यह प्रमाणित होता है कि भाषा हमेशा समाज को जोड़ने का काम किया है तोड़ने का नहीं।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

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4. संपादक-डॉ. शेख मुखत्यार और डॉ. शेख मोहसीन, नागरी लिपि विमर्श, पराग प्रकाशन, कानपुर, प्रकाशन वर्ष-2016, संस्करण-प्रथम, पृ. 57

5. द्विवेदी डॉ. कपिलदेव, भाषा-विज्ञान एवं भाषा-शास्त्र, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, प्रकाशन वर्ष-1998, संस्करण-पंचम, पृ. 49

6. त्रिपाठी राम छबीला, भाषा विज्ञान एवं हिन्दी भाषा, किताब महल प्रकाशन, पटना, प्रकाशन वर्ष-2013, संस्करण-प्रथम, पृ. 6

7. तिवारी डॉ. भोलानाथ, भाषाविज्ञान, किताब महल प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष-2013, संस्करण- सत्तावनवां, पृ. 4

8. मिश्र डॉ. सत्यदेव, भाषा और समीक्षा के बिन्दु, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष-2006, संस्करण-प्रथम, पृ. 3-5

9. द्विवेदी डॉ. कपिलदेव, भाषा-विज्ञान एवं भाषा-शास्त्र, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, प्रकाशन वर्ष-1998, संस्करण-पंचम, पृ. 43

10. दास डॉ. लक्ष्मीधर, भाषा विज्ञान के सामान्य सिद्धांत शीर्षक आलेख DOC-20240323-WA000

11. शर्मा डॉ. राजमणि, आधुनिक भाषा विज्ञान, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष- 2000, संस्करण-तृतीय, पृ. 27

12. सिंह आशा, भाषा-भाषा की परिभाषा, अर्थ, अंग, भेद और प्रकार शीर्षक आलेख online link- https://my coaching.in/bhasha