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आषाढ़ का एक दिन : भावना में एक भावना का वरण |
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A Day of Ashadh: Selection of A Feeling in A Feeling | |||||||
Paper Id :
18623 Submission Date :
2024-02-11 Acceptance Date :
2024-02-19 Publication Date :
2024-02-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10992093 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक कालिदास और मल्लिका के प्रेम पर आधारित कथा है जिसकी शुरुआत आषाढ़ के एक दिन से होती है। नायिका मल्लिका भावनाओं की मूसलाधार में भींगने वाली गाँव की सहज, सरल लड़की है जो कालिदास (नायक) से निस्वार्थ और निश्छल प्रेम करती है। कालिदास भी मल्लिका को अपना एकमात्र प्रेरणा शक्ति मानता है। कालिदास और मल्लिका दोनों एक दूसरे की भावनाओं का वरण करते हैं। भले ही एक तरफ विलोम, अंबिका और प्रियंगुमंजरी और दूसरी तरफ कालिदास की महत्त्वाकांक्षा इन दोनों को एक दूसरे से अलग कर देते हैं पर इनका प्रेम समय की प्रतिकूलताओं का अतिक्रमण कर शरीरी संबंध से परे जाकर एक ऐसे भाव-जगत में अशरीरी भावधारा में बंध जाता है जहाँ न विलोम है न अंबिका, न ही प्रियंगुमंजरी, न राजसत्ता का आकर्षण, न महत्त्वाकांक्षा की होड़, न ही वर्तमान का खिंचतान वरन है सिर्फ अतीत की वह भूमि, वह ग्राम्यप्रदेश, वही ऋतुसंहार और मेघदूत की पंक्तियाँ तथा दोनों का भावनाओं से जुड़ना। कालिदास और मल्लिका की भावनाएँ इतनी प्रगाढ़ होती है कि समय के शक्तिशाली होने पर भी ये समय से आगे निकल जाती हैं। पीछे रह जाता है वर्तमान, वर्तमान समाज के कुछ विपरीतगामी लोग और वर्तमान द्वारा निर्मित बेड़ियाँ किन्तु भावनाओं में भींगने वाले कालिदास और मल्लिका इन सबसे दूर सिर्फ भावनाओं में डूब जाते हैं। अज्ञेय की कविता ‘हरी घास पर क्षण भर’ याद आती हैं जिसमें अज्ञेय लिखते हैं— क्षण भर लय हो -मैं भी, तुम भी और न सिमटे सोच कि हम ने अपने से भी बड़ा किसी भी अपर को क्यों माना क्षण भर अनायास हम याद करें तिरती नाव नदी में धूल भरे पथ पर आसाढ़ की भभक, झील में साथ तैरना |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The play ‘Ashadh Ka Ek Din’ is a story based on the love of Kalidas and Mallika, which begins with a day in Ashadh. The heroine Mallika is an innocent, simple village girl drenched in torrents of emotions who loves Kalidas (the hero) selflessly and unconditionally. Kalidas also considers Mallika as his only driving force. Both Kalidas and Mallika describe each other's feelings. Even though Vilom, Ambika and Priyangumanjari on one side and Kalidas's ambition on the other side separate them from each other, their love transcends the adversities of time and goes beyond the physical relationship and becomes bound to a bodiless stream of emotions in a world of emotions. Yes, where there is neither Vilom nor Ambika, nor Priyangumanjari, nor the attraction of royal power, nor the competition of ambitions, nor the pull of the present, but there is only that land of the past, that rural area, the same Ritusanhar and the lines of Meghdoot and the emotional connection of both. The feelings of Kalidas and Mallika are so intense that they transcend time even when time is powerful. The present is left behind, some contrary people of the present society and the shackles created by the present, but Kalidas and Mallika, who are drenched in emotions, stay away from all this and get immersed in emotions only. | ||||||
मुख्य शब्द | परंपरा, प्रज्ञा, मिलनभूमि, भावना, विरह गाथा, अंतर्द्वन्द्व, अंतर्विश्लेषण, सृजनशीलता, रूप-सुधा, सौन्दर्यानुभूति, आत्मिक प्रेम, पृष्ठभूमि, घात-प्रतिघात, स्वभूमि, आत्मिक अनुभूति, आत्मशुद्धि, मांसल, नियति, रूमानियत, मूल-संवेदना, क्षणभर, काव्य-प्रेरणा, प्रसिद्धि, मानव-संबंध, पारंपरिकता, आधुनिकता। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Tradition, Wisdom, Meeting Place, Emotion, Story of Separation, Conflict, Introspection, Creativity, Beauty, Beauty, Spiritual Love, Background, Ambush, Homeland, Spiritual Experience, Self-purification, Flesh, Destiny, Romanticism, Basic Feeling, Momentary, Poetic Inspiration, fame, Human Relations, Traditionalism, Modernity. | ||||||
प्रस्तावना | ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक की कथावस्तु कालिदास और उसकी
प्रेमिका मल्लिका को केन्द्र में रखकर निर्मित की गई है। ‘मेरे लिए वह संबंध और सब संबंधों से बड़ा है’ कहने
वाली मल्लिका ने कालिदास को बहुत चाहते हुए भी अपने आप को कालिदास और उनकी
महत्त्वाकांक्षा के बीच आने न दिया। राजकवि बनने का मोह कालिदास को अतीत का प्रेम
भुला देता है पर उदासीन नहीं बना पाता। तभी तो कालिदास, मल्लिका
की भावनाओं का मूल्य देने के लिए वापस लौटता है और मल्लिका के वर्तमान से टकराकर
चूर-चूर होता है और अपने को समय के सामने असहाय, असफल और
निरर्थक पाता है किन्तु फिर भी उसका प्रेम टूटता नहीं वरन् प्रगाढ़ होता है।
कालिदास और मल्लिका दोनों एक दूसरे से भावनात्मक धरातल पर प्रेम करते हैं। वस्तुत: इस नाटक में नाटककार मोहन राकेश ने
आधुनिक नर-नारी के प्रेम-संबंध की समस्या को मल्लिका और कालिदास के माध्यम से
उठाया है। डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार ‘‘हिन्दी में निस्संदेह यह प्रथम नाटक है जो एकदम भारतीय आभा, भारतीय परिवेश, भारतीय संस्कार लेकर उभरा है
तथा फिर भी एकदम आधुनिक है...।’’1 कालिदास भावुक हृदय के कवि हैं और
मल्लिका भी निश्छल प्रेम को लेकर चलने वाली गाँव की सरल लड़की है, भावुक प्रेमिका है। वह भावना में जीती है और प्रतिदान की भावना नहीं
रखती। वह कालिदास की प्रगति में बाधक नहीं बनती, वरन्
प्रेरणा बनती है । वस्तुत: भावनाओं में जीने वाले कालिदास और
मल्लिका विषम परिस्थितियों से हार जाते है पर उनका प्रेम हार नहीं मानता। तभी तो ‘आषाढ़स्य प्रथमे दिवसे’ से शुरु होने
वाला यह नाटक बरसात की ऋतु में ही खत्म होता है यानी भावनाओं के वरण से शुरू होकर
यह नाटक भावनाओं के क्षत-विक्षत होने पर समाप्त होता है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध आलेख लेखन का मूल
उद्देश्य है ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक के मुख्य पात्र-मल्लिका और कालिदास के भावनात्मक संबंध को सभी संबंधों से
ऊपर जाकर प्रतिष्ठित करना और यह बताना कि भावनाओं पर आश्रित उनका यह संबंध शरीरी न
होकर बहुत कुछ अशरीरी और आत्मिक है। तभी तो दोनों एक साथ जीवन बिताने के सुख से
वंचित होकर भूमानंद की प्राप्ति कर ही लेते हैं। जो उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।
पाठकों को यह बताना भी उद्देश्य है कि भावनाओं में भावनाओं का वरण कर ये दोनों
पात्र प्लेटोनिक प्रेम की प्रतिष्ठा हिन्दी नाट्यलोक में करते हैं जो मोहन राकेश
की विलक्षणता है। राकेश ने अपने इस नाटक में व्यक्ति-व्यक्ति के संबंध को सर्वोपरि
स्थान देने के साथ-साथ समाज के प्रलोभनों, राज-ऐश्वर्य से मोह जैसे विपरीतताओं के बीच प्रेम को नष्ट होने न दिया। अध्ययन
का उद्देश्य यह भी है कि मल्लिका के त्याग, आत्मदान, निश्छल प्रेम के माध्यम से इन नैतिक मूल्यों को
समाज के सामने पुन: प्रस्तुत करना और कालिदास का राज-एश्वर्य से मोहभंग के जरिए यह
बताना कि प्रेम कालिदास के लिए पहले प्रेरणा शक्ति रही और अंत में वही प्रेम पाथेय
बन उसे ऊर्जा प्रदान करता है। |
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साहित्यावलोकन | इस शोध आलेख में सहभागी
अवलोकन पद्धति और विश्लेषणात्मक पद्धति का सहारा लिया गया है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में मोहन राकेश ने ऐतिहासिकता, काल बोध, बिम्बों इत्यादि के जरिए इतिहास की कथा अंकित
करने की बजाय मुख्य चरित्र—मल्लिका और कालिदास को केंद्र में रखकर वर्तमान समाज
की कई समस्याओं को उजागर करने की कोशिश की है खासकर स्त्री-पुरुष के संबंधों को
लेकर जो समस्याएँ नये समाज में उभरी है उन्हें नाट्यकार ने चिन्हित किया है।
माँ-बेटी का संबंध, नायक-नायिका का संबंध, रचनाकार का सत्ता से संबंध, नायिका का खलनायक से संबंध इत्यादि कई विषयों को इसमें लेखक ने सामने सिर्फ
रखा ही नहीं, इन पर कई सवाल भी उठाया है और सर्वोपरि मल्लिका
और कालिदास के भावनात्मक संबंध को अपनी नाट्य विद्या का सार्थक निर्वाह करते हुए
लेखक ने नाटक को एक नया मोड़ दिया है। इनकी भावनाओं को जिस गहराई के साथ लेखक ने
व्यक्त किया है वह हिन्दी नाट्य जगत में मौलिक है और इससे रचनाधार्मिकता के प्रति
उनका समर्पण भाव स्पष्ट होता है। मोहन राकेश ने इसमें मुख्य चरित्रों के माध्यम से
जीवन के ऐसे अनेक प्रश्नों को उठाया है जो आज भी प्रासंगिक हैं। ‘मोहन राकेश और उनके नाटक’ में गिरिश रस्तोगी ने नाटक और रंगमंच, नाटककार और रंगमंच, नाटककार और निर्देशक इत्यादि कई मुद्दों को
उठाते हुए राकेश की रचना-दृष्टि, नाट्य-भाषा, व्यक्तित्व, नाट्य-यात्रा इत्यादि को स्पष्ट किया है और इसी संदर्भ में उन्होंने ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक का विवेचन भी किया है। ‘हिन्दी साहित्य
का इतिहास’में विजयेन्द्र स्नातक ने मोहन राकेश को
ऐतिहासिकता, आधुनिकता रोमांटिक भावुकता के संदर्भ में प्रसाद
की परंपरा का घोषित करते हुए उन्हें मानव के द्वन्द्व, संघर्ष और तनाव को व्यक्त करने वाला नाटककार बताया है। ‘हिन्दी नाटक का आत्मसंघर्ष’ में गिरीश रस्तोगी ने मोहन राकेश के विभिन्न नाटकों का विवेचन करते हुए ‘आषाढ़ का एक दिन’ को हिन्दी नाटक की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कहा है। साथ ही उन्होंने इसमें
मल्लिका और कालिदास का चरित्रांकन करने के प्रसंग में मल्लिका को गाँव की
सीधी-सादी, भावुक, प्रेममयी, समर्पण भावना से युक्त बताया है और कालिदास के
रचनात्मक व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए उसे महत्त्वाकांक्षी, स्वार्थी बताया है। वस्तुत: इन दोनों चरित्रों के माध्यम से
गिरीश रस्तोगी ने इस नाटक को आधुनिक मानव की विवशता, उसके अंतर्द्वन्द्व और जटिलता का नाटक कहा है, व्यवस्था द्वारा सृजनशील रचनाकार के कुचलने का नाटक बताया है, रचनाकार और उसकी प्रेमिका के अन्तर्द्वन्द्व और टूटन का
नाटक कहा है। ‘कृति मूल्यांकन आषाढ़ का एक दिन’ में संपादक आशीष त्रिपाठी ने अपने संपादकीय में ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक को भारतीय यथार्थवादी नाट्य परंपरा के जीवन्त और सार्थक तत्त्वों का एक
रचनात्मक यौगिक कहा है। साथ ही इसे हिन्दी का महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय नाटक कहा
है। इस संपादित ग्रंथ में नेमिचंद्र जैन ने ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक को हिन्दी का पहला यथार्थवादी नाटक बताया
है जिसमें बाह्य और आंतरिक यथार्थ की समन्विति भी है और अन्तर्द्वन्द्व को
संवेदनशीलता के साथ देखने का प्रयास भी। इस ग्रंथ में जयदेव तनेजा का मानना है कि
यह नाटक युगीन भावबोध को कई स्तरों पर छूता है और नए संदर्भों को उभारता है। इसी
ग्रंथ में ‘भारतीय मध्यवर्ग का आख्यान’ शीर्षक लेख में जावेद अख्तर खां ने ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक को दो भावुक हृदयों की ट्रैजिक कथा कहा है। इसमें इन्होंने महानगरीय और
ग्रामीण संस्कृति के द्वन्द्व को भी दिखाया है और मध्यवर्गीय परिवार के
बनते-बिगड़ते स्त्री-पुरुष संबंध को भी दर्शाया है, उनके भटकन, टूटन, अलगाव, अकेलेपन, विवशता को दिखाया है, उनकी कल्पना का यथार्थ से द्वन्द्व भी दिखाया है
और उनकी भावना का भावना से टकराव भी, जुड़ाव भी। दुष्यंत कुमार ने इस ग्रंथ में ‘अनुभूति की प्रखरता’ शीर्षक लेख में इस नाटक की सबसे बड़ी उपलब्धि
इसकी विषयवस्तु को माना है। ‘आधुनिक नाटक का
मसीहा : मोहन राकेश’ में डॉ. गोविन्द चातक ने मल्लिका और कालिदास के
माध्यम से आधुनिक मनुष्य के घुटन को दर्शाया है। ‘द्रष्टव्य-अपने नाटकों के दायरे में मोहन राकेश’ में तिलकराज शर्मा ने ऐतिहासिकता के संदर्भ में कालिदास के चरित्र का विवेचन
किया है। ‘मोहन राकेश का नाट्य साहित्य’ में डॉ. पुष्पा बंसल ने ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक को भारतीय संस्कृति के धरातल पर उभरनेवाला
एक आधुनिक नाटक कहा है। ‘हिन्दी साहित्य में अमूल्य योगदान के सदैव याद
रहेंगे मोहन राकेश’ लेख में प्रभासाक्षी टीम ने ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक को हिन्दी का पहला आधुनिक नाटक कहा है। पंकज प्रसून ने अपने ‘मोहन राकेश एक सफल नाटककार’ लेख में कालिदास और मल्लिका के अन्तर्द्वन्द्व के जरिए आधुनिक मनुष्य के मन के
जटिल परतों को सामने रखा है। |
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मुख्य पाठ |
परंपरा के अवशेष और लेखक की वैयक्तिक प्रज्ञा की मिलनभूमि पर खड़ा ‘आषाढ़ का एक दिन’ कालिदास और मल्लिका के सामान्य प्रेम की कथा न होकर अथवा यों कहें कि इनके असफल प्रेम की विरह गाथा न होकर चरित्रों के अंतर्द्वन्द्वों को वहन करता यह नाटक चरित्रों का अन्तर्विश्लेषण के उपरान्त उन्हें आत्मिक उपलब्धियों से जोड़ जिस सोपान तक पहुँचता है उसी के परिणामस्वरूप यह कालजयी सृष्टि बन हिन्दी-नाट्य-साहित्येतिहास के पन्नों में दुर्लभ सृजनशीलता का परिचय देते हुए अपना नाम दर्ज कराता है। गिरीश रस्तोगी के अनुसार “ ‘आषाढ़ का एक दिन’ मोहन राकेश का पहला और सर्वोत्तम नाटक ही नहीं आज के हिन्दी नाटक की पहली महत्त्वपूर्ण उपल्बधि भी है।”2 यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि इस नाटक में सिर्फ कालिदास को ही सामाजिक, राजनीतिक और निजी आभ्यन्तरीन अंर्तद्वन्दो से गुजरना पड़ा है वरन् मल्लिका को भी सामाजिक-पारिवारिक अंर्तद्वन्दो से ही नहीं, अपने आप से भी बारंबार लड़ना पड़ा है, जूझना पड़ा है। तभी तो कालिदास और मल्लिका दोनों ही अपने-अपने मानसिक स्तर पर एक दूसरे से सिर्फ प्रेम ही नहीं करते, एक दूसरे को मांसल-धरातल पर प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए भी समय की प्रवाह में साथ-साथ बहते हुए और समय द्वारा पछाड़ दिये जाने पर जीवन के अंर्तद्वन्दो को भोगते-भोगते मांसल प्रेम को भोगने की इच्छा त्यागकर परस्पर अपने आत्मिक रूप-सुधा का पान कर तृप्त होना चाहते हैं तथा बाह्य सौन्द्रर्य की ऊमस में न भींगकर आत्मिक सौन्दर्यानुभूति की रसधार में स्नान होना चाहते हैं। गोविन्द चातक के शब्दों में “आषाढ़ का एक दिन में मेघ को केन्द्र में रखकर भावना का नीड़ बुना गया है।”3 ‘आषाढ़ का एक दिन’ एक ओर जहाँ कालिदास और मल्लिका के तन-मन में अकस्मात प्रेम का विद्युत कौंध देता है, वहीं दूसरी ओर आषाढ़ का यही एक दिन प्रेम की प्रगाढ़ता में आबद्ध कर इन्हें प्रेम की आत्मिक उदात्तता के उन्मुक्त नीले आसमान तक पहुँचाता है और सारे बन्धनों से मुक्त कर देता है। भले ही मोहन राकेश ने इस नाट्य कृति में कालिदास और मल्लिका के बहाने सृजनात्मक शक्तियों के अन्तर्द्वन्द्वों को प्रस्तुत किया है किन्तु यह भी सत्य है कि आत्मिक प्रेम के जो आयाम इस नाटक में उद्घाटित किये गये हैं, वे कालिदास और मल्लिका की आत्मा से उद्वेलित हुये हैं इसलिए उनके रिश्ते बाहर से ओढ़े हुए नहीं लगते वरन् ऐसा लगता है मानो कथा की पृष्ठभूमि में हिमालय रूपी शिव अर्थात् कालिदास के वक्षस्थल पर तपस्विनी दुर्गा अर्थात् मल्लिका चिर विराजमान हो अथवा मानो कालिदास की पीड़ा यक्ष की पीड़ा बन गई हो और आषाढ़ की पहली वर्षा की तरह प्रथम प्रेम में भींगती और फिर भागती हुई माँ अंबिका के पास पहुँच सरलता से ‘भावनाओं में भावनाओं को’ वरण करने की बात कहने वाली मल्लिका यथार्थ के घात-प्रतिघातों से मानो विरह विमर्दिता यक्षिणी बन गई हो। इस तरह यह कृति ऐतिहासिक होते हुए भी इतिहास के समय में बंध न पाई वरन् अपने समय में इस कृति ने इतिहास का विस्तार कर दिया और युग से युग को न तोड़कर कई युगों को एक साथ जोड़ आज की मल्लिका को कल के कालिदास से प्रेम डोर में बांध दिया और इसतरह स्त्री-पुरुष के युग-युग के शाश्वत प्रेम बंधन को टूटने से बचा लिया। तिलकराज शर्मा के शब्दों में ‘‘इस विषय पर विवाद हो सकता है कि यह नाटक इतिहास और कालिदास के संबंध में प्रचलित किंवदंतियों से कितना और कहाँ तक प्रभावित या अप्रभावित है।’’4 गिरीश रस्तोगी के अनुसार “प्रत्यक्ष रूप में यह नाटक ऐतिहासिक है लेकिन यह ऐतिहासिक कहने भर को है। असलियत में पूरा नाटक आधुनिक ही नहीं, पूरा यथार्थवादी भी है क्योंकि प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों से इसका रूप सर्वथा भिन्न है।”5 इसमें नाट्यकार ने कालिदास और मल्लिका के मानसिक दूरी को खत्म कर न केवल उन्हें उनकी आत्माओं से जोड़ा, वरन् जुड़े हुए युगों को एक कालजयी क्षण में बदल दिया और अपनी स्वभूमि से उखड़ने वाले एक कलाकार को समस्त द्वन्द्वों से मुक्त कर पुन: उसे उसकी स्वभूमि में स्थापित कर दिया। नयी भूमि से निकालकर नाट्यकार ने इस कलाकार को जो पुरानी मिट्टी दी उस पर उसका सामाजिक बसेरा तो नहीं बन पाया किन्तु लेखक ने उसे आत्मशुद्धि, आत्मिक अनुभूति और आत्मिक प्रेम की उपलब्धि से जरूर भर दिया और यही आत्म-निवेदन, आत्म त्याग और आत्म-प्रेम की उपलब्धि उसे मांसल स्पर्श से ऊपर ले जाकर अनंत, शाश्वत् आत्ममिलन का भूमानंदी स्पर्श देती है और इस स्तर पर पहुँचकर वह महानायक बन जाता है, वह आत्म-त्यागी सन्यासी बन जाता है जहाँ पाने और न पाने में कोई भेद रह नहीं जाता, जहाँ प्रेम धूप की तरह जलकर छोड़ जाता है सिर्फ शुद्ध-सुगन्धित सुरभि तथा जहाँ मन सूरज की तरह तपकर भी रख जाता है अपना कोमल-अमिट भाव। इस प्रकार यह अपूर्व नाट्य सृष्टि समय के गति के साथ चलते-चलते भी एक मोड़ पर जाकर उस गति को भी पीछे छोड़ देती है और तब यह कृति मल्लिका और कालिदास के प्रेम की नियति नहीं रह जाती वरन् यथार्थ के विरुद्ध उनकी रूमानियत का संधर्ष और काल-प्रवाह के विरूद्ध उनकी इच्छा का द्वन्द बन जाती है। लोक-व्यवहार से असम्पृक्त होकर भावनाओं को भावनाओं में वरण करते हुए सब संबंधों से अपने आत्मिक संबंध को बड़ा मानने वाली दो आत्माएँ एक दूसरे से मिल जाती हैं और इस बिन्दु पर आकर कथा इसतरह बाँक लेती है कि मल्लिका न किसी की पत्नी रहती है, न किसी की बेटी और न ही किसी की माँ। कालिदास भी न किसी का पति रहता है और न ही कहीं का शासक। तभी तो समय की मार से ध्वस्त होते हुए भी वर्षों बाद कालिदास से आत्मिक मिलन के क्षण में मन ही मन मल्लिका कहने लगती है ‘‘यह (बालिका) मेरे अभाव की संतान है। जो भाव तुम थे, वह दूसरा नहीं हो सका... मैंने अपने भाव के कोष्ठ को रिक्त नहीं होने दिया।’’6 यहाँ यह स्पष्ट है कि मोहन राकेश ने मल्लिका की बालिका को सिर्फ कालिदास के अभाव और विलोम की उपस्थिति का परिणाम नहीं बताया है वरन् मल्लिका की भावना-विहिनता और प्रेमविहिन क्षणों की फसल बताया है जो इस नाट्य-कथा का विलक्षण और विशिष्ट बिन्दु है। दुष्यंत कुमार के अनुसार “नाटक की मूल संवेदना भावना और यथार्थ के प्रश्न से जुड़ी है। एक शाश्वत प्रश्न के रूप में लगता है कि चाहे भावना कितनी भी स्थायी और महान हो पर यथार्थ से टकराकर वह हमेशा क्षत-विक्षत हुई है। वह चाहे मरी नहीं पर यथार्थ ने उसे जीवित भी नहीं छोड़ा।”7 कालिदास और मल्लिका के बीच का स्थान की दूरी समय की दूरी में परिणत होने पर भी मन की दूरी में परिणत न हो पायी। तभी तो मल्लिका के जीवन में चाहे विलोम का प्रवेश हो अथवा कालिदास की जिन्दगी में प्रियंगुमंजरी का आगमन, मल्लिका और कालिदास को कोई अलग न कर पाया। उनका प्रेम प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होता गया और यह तब और स्पष्ट होता है जब प्रियंगुमंजरी की आशंका सच साबित होती है जब वह कहती है कि ‘... उनका बढ़ा हुआ चरण पीछे न हट जाए।’ भले ही क्षणभर का समय मल्लिका और कालिदास को मिलने नहीं दिया किन्तु मल्लिका व्यापारियों से कहकर कालिदास के ग्रंथ मंगवाकर अपने पास रखी और उसके ग्रंथ लेखन के लिए कोरे कागज सी उन पर अपने आँसुओं को बरसाकर एक अलिखित महाकाव्य की रचना कर डाली और कालिदास भी अपने अंतर्द्वन्दों के भीतर मल्लिका को अपने मन के निभृत में बिठाये रखा जो उसकी काव्य-प्रेरणा बनकर उसके मन में बसी रही। यद्यपि कालिदास और मल्लिका के प्रणय का क्षण समय के आगे निकल जाने पर लौट कर नहीं आता और इसीलिए नाटक के अंत में मल्लिका कह ही देती है ‘वही आषाढ़ का दिन है... वही मैं हूँ... किन्तु।’ यद्यपि मल्लिका की बच्ची उसका वर्तमान बन अतीत द्वारा समय-चक्र को उलटे घुमाने के प्रयास को पीछे की ओर घुमाये जाने से रोक देती है और अवसर पाकर विलोम भी कालिदास को कटाक्ष कर देता है कि ‘‘समय निर्दय नहीं है... उसने औरों को भी अवसर दिया है...।’’8 फिर भी मल्लिका और कालिदास का एक दूसरे को नि:स्वार्थ चाहना, इनके प्रेम को अपराजेय बना देता है और तब उसके आगे हार जाता है शासन का लोभ, कलाकार की प्रसिद्धि और मिथ्या अहंकार, खलनायक की ईर्ष्या और छल के सहारे किसी दूसरे की प्रेमिका को प्राप्त करने की वासना, मिथ्या सामाजिक मर्यादा, किसी माँ की बेटी की भावनाओं के विरुद्ध निषेधात्मक क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ और यहाँ तक कि किसी प्रेमिका की अ-भाव की फसल। जीत जाती है कालिदास और मल्लिका की भावनाएँ, उनकी अनुभूति और कभी रिक्त न होने वाला उनका प्रेम। इच्छा और समय के द्वन्द तथा रुमानियत और यथार्थ की टकराहट का अतिक्रमण कर जाते हैं दोनों। मानव-संबंध तथा मानव पक्ष को एक नया अर्थ देते हैं दोनों और तब स्रष्टा और सृष्टि के प्रिय मानव-मानवी का संघर्षशील-अशान्त मानस शांत होता है, आत्मिक प्रेम का आस्वादन कर तृप्त होता है। इस प्रकार नाट्यकार ने युग-युग के मानव-संबंधों को तमाम संघर्षों और अंतर्द्वन्दों से मुक्त कर शताब्दियों के मानव-मानवी को कोमल भावनाओं से जोड़ दिया है जो उनकी आस्था भी है, अनास्था भी, उनका प्रेम भी है, उनका अप्रेम भी, उनकी नजदीकियाँ भी है, उनकी दूरी भी, उनका द्वन्द्व भी है, उनकी द्वन्द्वहीनता भी, उनका यथार्थबोध भी है, उनकी रुमानियत भी, उनकी ऐतिहासिकता और पारंपरिकता भी है, उनकी आधुनिकता भी, उनकी संपृक्ति भी है, उनकी निर्लिप्ति भी, उनकी पीड़ा भी है, उनका आनंद भी। तभी तो मल्लिका की वितृष्णा, टूटन और पीड़ा के पीछे एक संतोष भी रहा जो उसके इस कथन से ‘‘तुम रचना करते रहे और मैं समझती रही कि मैं सार्थक हूँ...’’9 स्पष्ट होता है और कालिदास की आत्मग्लानि और हताशा के पीछे सृजन का आनंद भी रहा जो सामने उभरकर आता है जब वह कहता है ‘‘मुझे वर्षों पहले यहाँ लौट आना चाहिए था ताकि यहाँ वर्षा में भींग-भींगकर लिखता-वह सब जो मैं अब तक नहीं लिख पाया और जो आषाढ़ के मेघों की तरह वर्षों से मेरे अन्दर घुमड़ रहा है।’’10 वस्तुत: अपनी वास्तविक भूमि की खोज और अपनी वास्तविक भूमि से जुड़ने की ललक कालिदास को बार-बार उद्वेलित करती है जो उसकी प्रेमिका मल्लिका से मिलने की आकांक्षा बन प्रकट होती है और तभी तो मल्लिका वर्तमान में जीकर भी अतीत-प्रेम की ओर बार-बार जाने के लिए व्याकुल होती है। इन दोनों की यही व्याकुलता, उद्वीग्नता और उद्वेलन ही उनकी अनुभूति भी है, उनकी अभिव्यक्ति भी, उनका संतोष भी है, उनका असंतोष भी, उनके प्रेम की वैयक्तिकता भी है, उनके प्रेम का विस्तार भी, उनका बन्धन भी है और उनकी मुक्ति भी, उनका द्वन्द्व भी है, संघर्ष भी। विजयेन्द्र स्नातक के शब्दों में “राकेश का प्रधान कार्य यह है कि उन्होंने आधुनिक संवेदना और आधुनिक मानव के द्वन्द्व, संघर्ष और तनाव को नाट्यानुभूति की प्रामाणिकता से व्यक्त किया है।”11 मोहन राकेश ने अपने नाटकों में स्त्री-पुरुष संबंधों का प्रयोग और परीक्षण व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता को केंद्र में रखकर किया है जिसका जीता जागता उदाहरण कालिदास और मल्लिका दोनों हैं। आशीष त्रिपाठी अपने सम्पादकीय विश्लेषण में कहते हैं कि “उन्होंने स्त्री-पुरुष संबंधों की बारीकियों को भी व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के विशेष परिप्रेक्ष्य में ही उभरा है। उनके नाटकों के मूल में जो द्वन्द्व है उसका केन्द्रीय सरोकार व्यक्ति है।”12 नाटक में ऐसे अनेक अंश हैं जहाँ कालिदास संकीर्ण, क्षुद्र, स्वार्थी नजर आते हैं किन्तु नाट्यांत में कालिदास का भावना में भावना का वरण करने वाली सीधी-सादी गाँव की लड़की-मल्लिका के पास वर्षों बाद लौटना और उसके पास क्षणभर रुकना और उससे संवाद करने के पश्चात पुन: शून्यता लिए आहत भावनाओं के साथ लौटना कालिदास को उसकी हर क्षुद्रता और संकीर्णता से बाहर निकाल देता है और उसे भावनाओं की उच्चता पर ले जाता है, जिन भावनाओं के लिए मल्लिका हमेशा मरती रही, पिसती रही पर विजयी भी होती रही। पंकज प्रसून के अनुसार ‘‘ ‘आषाढ़ का एक दिन’ में सफलता और प्रेम में एक को चुनने के द्वन्द्व से जूझते कालिदास के चरित्र के जरिए मोहन राकेश रचनाकार और आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को सामने रखते हैं। वहीं प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देनेवाली इस नाटक की नायिका के रूप में हिन्दी साहित्य को एक अविस्मरणीय पात्र दिया है।’’13 |
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निष्कर्ष |
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा
सकता है कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में मल्लिका और कालिदास का प्रेम इतना बृहत और उदात्त है, उनकी एक-एक भावना इतनी गहरी और मजबूत है कि वे काल की सीमा
को पर कर कालजयी बन गई। आपस में इनका रोमांस नहीं वरन भावनाओं से प्रेम है और
इनमें प्रेम की भावनाएँ हैं। और ये सब इस नाटक का महिमामंडन करते हैं। मल्लिका और
कालिदास के विपरीत खड़े विलोम, प्रियंगुमंजरी, अंबिका सभी प्रतिकूल परिवेश को रचकर इनके प्रेम को गहन से
गहनतर बना देते हैं। तभी तो कालिदास रचनाकार के रूप में इतनी ख्याति, राज-ऐश्वर्य, राजकन्या पाकर भी अन्तत: राजपरिवेश में रह नहीं पाता, राजसत्ता से जुड़कर जी नहीं पाता और अपने अतीत की
प्रेयसी-मल्लिका के पास प्रेमी-हृदय लिए लौट आता है। यह बात अलग है कि समय ने
कालिदास की छोड़ी गई भूमि विलोम को दिया, उसे अवसर दिया और विलोम ने उस समय को जिया और बच्ची के रूप में मल्लिका के
सामने एक और वर्तमान आया परन्तु यह वर्तमान अभाव का अंकुरन है, अतीत के भाव की फसल नहीं। मल्लिका कभी भी अपने भाव के कोष्ठ
को रिक्त नहीं होने दिया पर उसे अ-भाव की पीड़ा सताती रही। दूसरी तरफ अंत में
कालिदास लौटता है और एक बार फिर से सब कुछ अथ से आरंभ करना चाहता है पर उसकी इस
इच्छा का समय से द्वन्द्व समय को ही शक्तिशाली बना देता है तथा मल्लिका और कालिदास
दोनों को समय के चरम बिन्दु पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ मल्लिका का वर्तमान और
कालिदास और मल्लिका का अतीत दोनों एक दूसरे से टकराते हैं और कालिदास समय से हारकर
प्रेम को पाथेय बना बाह्य और आंतरिक यथार्थ के अंतर्द्वन्द्व को झेलता हुआ मल्लिका
के द्वार से प्रस्थान करने को बाध्य होता है। मल्लिका के पैर भी बाहर की ओर बढ़ने
लगते हैं पर वर्तमान उसे बढ़ने नहीं देता और मल्लिका वर्तमान से जकड़ जाती है।
गोविन्द चातक के अनुसार ‘‘दोनों के चरित्र इतिहास की मिट्टी से गढ़े
होने पर भी वर्तमान की घुटन में सांस लेते हैं।’’14 समय ने मल्लिका और कालिदास दोनों को तोड़ा है पर उनके प्रेम
को, उनकी भावनाओं को तोड़ नहीं पाया, वरन् उनकी चेतना और प्रवृत्ति को व्यापक बना दिया, उनकी भावनाओं को औदात्य से भर दिया। कालिदास की
महत्त्वाकांक्षा और आक्रोश मल्लिका के आत्मदान के समक्ष नत हो जाते हैं। इसलिए
कालिदास का राजसत्ता से जुड़ने का मोहभंग और मल्लिका को पुनर्ग्रहण की इच्छा नाटक
को सार्थक बना देती है। मोहन राकेश ने जिस गहराई और एकाग्रता के साथ मल्लिका और
कालिदास की भावनाओं को अभिव्यक्त किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। “निस्संदेह, हिन्दी नाटक के
परिप्रेक्ष्य में और भाववस्तु और रूपबंध दोनो स्तर पर ‘आषाढ़ का एक दिन’ ऐसा पर्याप्त सघन, तीव्र और भावोद्दीप्त लेखन प्रस्तुत करता है जैसा
हिन्दी नाटक में बहुत कम ही हुआ है।”15 प्रभासाक्षी टीम का कथन है कि ‘‘उन्होंने ‘आषाढ़ का एक दिन’ के रूप में हिन्दी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा।’’16 |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. बंसल डॉ. पुष्पा, मोहन राकेश का नाट्य साहित्य, सूर्य प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-1976, पृ. 23 2. रस्तोगी गिरीश, हिन्दी नाटक का आत्मसंघर्ष, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष-2002, संस्करण-प्रथम, पृ.132 3. चातक गोविन्द, कृति मूल्यांकन आषाढ़ का एक दिन (लेख का शीर्षक- भाषिक और संवादीय संरचना), राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2019, संस्करण-प्रथम, पृ. 172 4. शर्मा तिलकराज, द्रष्टव्य-अपने नाटकों के दायरे में मोहन राकेश, आर्य बुक डिपो प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2009, संस्करण-दूसरा, पृ. 30-37 5. रस्तोगी गिरीश, मोहन राकेश और उनके नाटक, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष-2008, संस्करण-चतुर्थ, पृ.46 6. राकेश मोहन, ‘आषाढ़ का एक दिन’, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2014, पृ. 93 7. कुमार दुष्यंत, कृति मूल्यांकन आषाढ़ का एक दिन (लेख का शीर्षक- अनुभूति की प्रखरता), राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2019, संस्करण-प्रथम, पृ. 56 8. राकेश मोहन, ‘आषाढ़ का एक दिन’, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2014, पृ. 108 9. वही, पृ. 92 10. वही, पृ. 103 11. स्नातक विजयेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, साहित्य अकादमी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-1996, संस्करण-प्रथम, पृ. 390 12. त्रिपाठी आशीष, कृति मूल्यांकन आषाढ़ का एक दिन, संपादकीय विश्लेषण, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2019, संस्करण-प्रथम, पृ. 9 13. प्रसून पंकज, लेख का शीर्षक- मोहन राकेश एक सफल नाटककार, जनवरी-2021, mediaswaraj.com 14. चातक डॉ. गोविन्द, आधुनिक नाटक का मसीहा : मोहन राकेश, इंद्रप्रस्त प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-1975, पृ. 54 15. लेख का शीर्षक- आषाढ़ का एक दिन, https://bharatdiscovery.org/ india/ index.php 16. प्रभासाक्षी टीम, लेख का शीर्षक- हिन्दी साहित्य में अमूल्य योगदान के लिए सदैव याद रहेंगे, मोहन राकेश, जनवरी-2022, https://www.prabhasakshi.com |