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अज्ञेय के काव्य
में व्यक्ति और समाज |
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Individual and Society in Agyeyas Poetry | |||||||
Paper Id :
18624 Submission Date :
2024-02-11 Acceptance Date :
2024-02-22 Publication Date :
2024-02-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.11083234 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
तारसप्तक के संपादक, प्रयोगशील कवि अज्ञेय ने अपनी कविताओं में व्यक्ति और समाज के रिश्ते को व्याख्यायित करने के संदर्भ में नयी भाषा और नये उपमानों के प्रयोग की अनिवार्यता महसूस की। तभी तो प्रयोग द्वारा कवि ने कभी समाज और व्यक्ति के संबंध की जटिलता तो कभी उसकी सरलता को पहचानने और फिर उसे अभिव्यक्त करने में सफलता हासिल की है। प्रयोगवाद के स्वरूप की प्रतिष्ठा के परिप्रेक्ष्य में कवि ने समाज और व्यक्ति के क्षणवादी और अहंवादी वैशिष्ट्य को कायम रखते हुए भी उसके द्वारा की जाने वाली सामाजिक प्रगति को अस्वीकार नहीं किया है वरन् उन्होंने व्यक्ति द्वारा समाज की प्रगति के लक्षणों को अनिवार्य रूप में चिह्नित कर उनका कार्यान्वयन जरूरी बताया है। साथ ही कवि ने वैयक्तिक चेतना और प्रयोगशील प्रवृत्ति से व्यक्ति को परिचालित होने की बात कही है। व्यक्ति के साथ समाज और समाज के साथ व्यक्ति को जोड़ने के लिए अज्ञेय अस्तित्ववाद जैसे दार्शनिक सिद्धांत का सहारा लेते हुए अपनी कविताओं को परंपरा और आधुनिकता के बीच सेतु बनाकर एक नई रचना प्रक्रिया के भीतर से व्यक्ति और समाज के बनते-बिगड़ते रिश्ते को देखते हैं और अपने काव्य में बौद्धिकता का समावेश कर नये समय के साथ जन्म लेते नये समाज और नये मानव की विशेषता को स्पष्ट करते हैं तथा व्यक्ति और समाज के नये रागात्मक संबंध को जोड़कर नए सत्य को प्रेषित करते हैं। इसतरह अज्ञेय नव मानव की विडंबनाओं, सार्थकता-निरर्थकता, जड़ता, कुंठा, आशा, अनास्था, पराजयबोध, संभावनाएँ इत्यादि अनेक पक्षों को जो कि गंभीर रूप में उनके द्वन्द्वों से जुड़े हुए हैं, सफलता के साथ रेखांकित करते हैं। कवि ने नये समाज के बदलते परिवेश में उद्भुत नवीन परिस्थितियों के संदर्भ में व्यक्ति को आंकने का प्रयत्न किया है। सांस्कृतिक विघटन हो या आर्थिक शोषण, भिन्न राजनीतिक गतिविधियाँ हो या नैतिक मूल्यों की गिरावट, हर स्थिति में कवि ने नए मानव का मूल्यांकन किया है और व्यक्ति और समाज संबंधी नयी अवधारणा लोगों के सामने रखा है। पंक्ति रूपी समाज के उत्थान के लिए दीप रूपी व्यक्ति की आत्माहुति और त्याग कवि को सदैव प्रिय रहा है। तभी तो अज्ञेय ने अपनी कविताओं में रूप और वस्तु दोनों स्तरों पर व्यक्ति और समाज संबंधी आधुनिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The experimental poet Agyeya, editor of Tarasaptak, felt the necessity of using new language and new metaphors in his poems to explain the relationship between individual and society. That is why through experimentation the poet has succeeded in identifying the complexity and sometimes the simplicity of the relationship between society and the individual and then expressing it. In view of the prestige of the form of experimentalism, the poet, while maintaining the momentary and egoistic characteristics of the individual, has not rejected the social progress made by him, rather he has identified the characteristics of the progress of the society as essential for the individual and implemented them. Said necessary. At the same time, the poet has said that a person should be guided by personal consciousness and experimental nature. Taking the help of philosophical theory like agnostic existentialism to connect the individual with the society and the individual with the society, he makes his poems a bridge between tradition and modernity and looks at the changing and deteriorating relationship between the individual and the society from within a new creative process. And by incorporating intellectualism in his poetry, he clarifies the specialty of the new society and new human being born with the new times and transmits the new truth by adding a new emotional relationship between the individual and the society. In this way, Agyeya successfully underlines the ironies of the new man, significance-meaninglessness, inertia, frustration, hope, disbelief, sense of defeat, possibilities etc. and many other aspects which are seriously related to his conflicts. The poet has tried to assess the individual in the context of the new circumstances arising in the changing environment of the new society. Be it cultural disintegration or economic exploitation, different political activities or decline of moral values, in every situation the poet has evaluated the new human being and has put before the people a new concept related to individual and society. The poet has always loved the self-sacrifice and contribution of a person in the form of a lamp for the upliftment of the society in the form of a row. That is why in his poems, Agyeya has presented the modern view of individual and society at both the level of form and object. | ||||||
मुख्य शब्द | क्षणवाद, अस्तित्ववाद, अहंवाद, समष्टि, मानवप्रेमी, चुनौतियों, जाँच-पड़ताल, आकाशधर्मी, उन्मुक्तता, स्वच्छंद, रूढ़ियाँ, जर्जर परंपरा, अन्तेश्चेतन, अनुभूति-सत्यता, प्रतीक, बिम्ब, दार्शनिकता, वाक्-जाल, सृजनशीलता, अभिमूल्यों, कुण्ठारहित, वैयक्तिकता, परिवृत्ति, ममेतर, प्रतिमान, छायावाद, गतिशील सौन्दर्य, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Transientism, existentialism, egoism, holism, humanism, challenges, inquiry, celestial, liberation, freedom, stereotypes, dilapidated tradition, subconscious, perceptual truth, symbols, images, philosophy, discourse, creativity, values, frustrationless, personality , Inversion, Mametar, Paradigm, Shadowism, Dynamic Beauty, Sociology, Psychology. | ||||||
प्रस्तावना | अज्ञेय ने
अपनी कविताओं में संवेदनशीलता के साथ व्यक्ति के व्यक्तित्व की परिपूर्णता को समाज
की समाजपरकता में बनाए रखने का प्रयत्न किया है। ‘नदी के द्वीप’
कविता इसका ज्वलंत उदाहरण है
जिसमें कवि ने व्यक्ति और समाज के बीच व्यक्ति के जोड़नेवाले व्यक्तित्व को बढ़ावा
दिया है। ‘यह दीप अकेला’ कविता में कवि ने स्पष्ट किया है कि व्यक्ति कितना ही सृजनशील और प्रभावशाली
क्यों न हो, समाज के मंगल के लिए, समाज के विकास के लिए उसका समर्पण अत्यंत जरूरी एवं महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति
और समाज की परिकल्पना और अवधारणा स्पष्ट करते हुए कवि ने स्वीकारा है कि जहाँ जीवन
अपनी परिपूर्णता में होता है वहाँ व्यक्ति और समाज में कोई भेद रह नहीं जाता। कवि
का यह जीवनबोध उनकी रचनादृष्टि का मुख्य तत्त्व है। उनकी कविताओं में व्यक्ति और
समाज के कई वृत्त एक दूसरे को स्पर्श करते हैं, काटते भी हैं। उनका काव्यात्मक चिन्तन और
सृजन इसी की पुष्टि करता है। अज्ञेय व्यक्ति और समाज का संबंध परस्पर निर्भर करने
का संबंध मानते हैं। उन्होंने यह माना है कि समाज के विकास के लिए व्यक्ति का और
व्यक्ति के विकास के लिए समाज का महत्त्व अनिवार्य है। उनका यह भी मानना है कि
व्यक्ति द्वारा सृजित मूल्यों को स्वीकृत करने के संदर्भ में समाज और व्यक्ति के
बीच विरोध भी होता है, निर्विरोध भी। ‘मैं वहाँ हूँ’ कविता का व्यक्ति सेतु बनकर समाज के हर तबके की व्यथा-कथा-आस्था बन उनसे अपने
को जोड़ता है तो ‘मैंने देखा एक बूँद’ का बूँद रूपि व्यक्ति समाज रूपी सागर की झाग से उत्पन्न होकर भी क्षणभर में
रंगे जाने वाले अपने सृजनशील व्यक्तित्व का अहसास सभी को दिलाना चाहता है,
‘हरि घास पर क्षणभर’
का व्यक्ति समाज के नियंत्रण
की उपेक्षा कर सीमाहीन मुक्ति का आस्वादन करना चाहता है तो ‘टेर रहा सागर’
का व्यक्ति अपने व्यक्तित्व
में ही जो अर्थ पा लेता है वो अर्थ सागर रूपी समाज में प्राप्त नहीं कर पाता।
अज्ञेय ने अपनी कविताओं में बारबार यह स्पष्ट किया है कि व्यक्ति समाज से बाहर
नहीं है वरन् वह समाज का हिस्सा है। वह बहुत कुछ समाज से ग्रहण करता है और साथ-साथ
वह समाज को बहुत कुछ देता भी है। कवि के अनुसार समाज के प्रति व्यक्ति का
दायित्वशील होना भी जरूरी है। व्यक्ति और समाज का संबंध और संघर्ष निरंतर चलता रहा
है और इस संघर्ष में व्यक्ति टूटता भी है, बनता भी। बदलते सामाजिक स्वरूप और बदलती
सामाजिक मान्यताओं के संदर्भ में अज्ञेय व्यक्ति और समाज के रिश्ते को नये रूप में
स्पष्ट करते हैं। अज्ञेय का नया व्यक्ति नये समाज से आपस में बारबार टकराता है
किन्तु यह भी सच है कि यह नया व्यक्ति इस नये समाज का अनिवार्य अंग है। समाज से
कटकर उसकी अस्मिता बन ही नहीं सकती और न ही समाज बन सकता है। व्यक्ति ही है जो
अपने प्रयोगशील दृष्टिकोण के जरिए समाज को बदल सकता है। अपनी विवेक-बुद्धि और
वैज्ञानिक दृष्टि द्वारा ही व्यक्ति समाज को विकलांग बनने से रोक सकता है। अज्ञेय
ने अपनी कविताओं में समाज और व्यक्ति के इसी नये रिश्ते को अंकित किया है।
उन्होंने अपने काव्य में यह बताने की कोशिश की है कि व्यक्ति को नकारकर जहाँ समाज
आगे बढ़ नहीं सकता वहाँ समाज के प्रति समर्पित हुए बिना व्यक्ति अपने व्यक्तित्व
की रक्षा कर नहीं सकता। |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस आलेख का मूल उद्देश्य है अज्ञेय की
कविताओं के माध्यम से व्यक्ति और समाज के बदलते रिश्ते को पाठकों के सामने लाना।
साथ ही व्यक्ति और समाज संबंधी अज्ञेय के समाजशास्त्रीय विचारधारा को स्पष्ट करना।
यह भी बताना उद्देश्य है कि आधुनिक समाज के संदर्भ में अज्ञेय की कविताएँ कितनी
प्रासंगिक हैं क्योंकि नये समाज में आयी मान्यताओं में बदलाव के साथ नये मानव ने
जब-जब सामंजस्य बिठा नहीं पाया तब-तब समाज के साथ उसका संघर्ष और विरोध तेजी से
बढ़ा। इसी प्रक्रिया में कभी वह टूटा तो कभी अपने को रचा लेकिन त्रासदी यह कि कभी
वह समाज या सामाजिक मान्यताओं से पूरी तरह निकल नहीं पाया चाहे वह उसे मान पाया हो
या नहीं। नये समाज के नये मानव की अनास्था, टूटन,
विसंगति इत्यादि बारंबार अज्ञेय की कविताओं के विषय बने हैं
जिनमें व्यक्ति का असंतोष स्पष्ट है। मानव-विज्ञान और समाज-विज्ञान के गहन अध्ययन
की फसल है उनकी सारी कविताएँ जो समाज और व्यक्ति के बदलते रिश्ते को अत्यंत बारीकी से
व्यक्ति के मन की परत-दर-परत में पैठकर तथा समाज की हर तबके को स्पर्श कर
अभिव्यक्त करने में सफल हुई हैं। नये समय में उभरते नये मानव की स्थिति को अज्ञेय
की कविताओं में खोजना इस आलेख का अन्यतम उद्देश्य रहा है। |
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साहित्यावलोकन | इस शोध आलेख में अवलोकन पद्धति का
सहारा लेते हुए सामूहिक अध्ययन को सहज बनाने की कोशिश की गई है। ‘अज्ञेय
की कविता : परंपरा और प्रयोग’ में
रमेश ऋषिकल्प ने अज्ञेय की कविताओं को साहित्य के धरातल पर परखने का प्रयास किया
है। साथ ही अज्ञेय द्वारा स्थापित काव्य के मूल्यों को स्पष्ट करते हुए ऋषिकल्प जी
ने अज्ञेय की वैचारिक सोच और आधुनिकता बोध के निकष पर व्यक्ति और समाज संबंधी उनकी
मान्यताओं को विश्लेषित किया है। अज्ञेय को परंपरा और प्रयोग के कवि बताते हुए
लेखक ने नये प्रतिमानों के आधार पर अज्ञेय की काव्य-चेतना को समझा है और कवि के
काव्य में तलाश की गई नयी जमीन को खोजा है। ‘अज्ञेय : एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन’ में
डॉ. ज्वालाप्रसाद खेतान ने अज्ञेय की कविताओं के संदर्भ में कवि के सिद्धांतों का
मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। ‘अज्ञेय : प्रकृति-काव्य, काव्य-प्रकृति’ में संजय
कुमार ने अज्ञेय के प्रकृति संबंधी दृष्टि को स्पष्ट किया है। साथ ही लेखक ने
अज्ञेय की कविताओं में उनकी संवेदना के विकास को समग्रता में दिखाया है। ‘अज्ञेय और आधुनिक रचना समस्या’ में रामस्वरूप चतुर्वेदी
ने अज्ञेय के काव्य-संसार के विविध पहलुओं का विवेचन करते हुए उनकी कविताओं की
संभावनाओं और उनके व्यक्तित्व के नये आयामों को स्पष्ट किया है। ‘अज्ञेय के काव्य की काव्यगत
विशेषताएँ’ शीर्षक लेख में अज्ञेय की कविता ‘यह दीप अकेला’ कविता का उदाहरण देते हुए
व्यष्टि का समष्टि के प्रति समर्पणशीलता की बात कही गई है। अज्ञेय के समाज दर्शन
को स्पष्ट करते हुए दीप के अकेले जलते रहने अर्थात् व्यक्ति का निजी पीड़ा से दुखी
होने परन्तु दीप का पंक्तिबद्ध होकर रात्रि के सघन अंधकार से संघर्ष करने अर्थात्
सामाजिक विडंबनाओं और विसंगतियों के खिलाफ व्यक्ति का समष्टिबद्ध होकर लड़ने की
बात कही गई है। ‘सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का साहित्यिक परिचय’ लेख में डॉ. चरण ने अज्ञेय
की काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उनकी कविताओं में वर्णित ‘मैं’, ‘हम’ का ही दूसरा रूप है। डॉ. चरण ने अज्ञेय के व्यष्टि तत्त्व में ही उनके
समष्टि तत्त्व का सन्धान पाया है। उनके अनुसार अज्ञेय का काव्य व्यष्टि और समष्टि
में भेद नहीं करता। उनकी उपलब्धि है कि अज्ञेय का व्यक्ति अपने व्यक्तित्व,
अपनी शक्ति, अपना सामर्थ्य सब कुछ समाज
को समर्पित करता है। अज्ञेय का व्यक्ति चूँकि समष्टि का प्रतीक है इसलिए वह समाज
की व्यथा-कथा कहता है। इसतरह डॉ. चरण ने अज्ञेय के व्यक्ति और समाज के गहरे रिश्ते
को बखूबी के साथ उजागर किया है। उनके अनुसार कवि की वैयक्तिक भावना समाज के लोगों
की भावनाओं का चित्रण करती है। प्रमाण के तौर पर डॉ. चरण ने कवि की दो कविताओं का
जिक्र किया है। पहला है ‘यह दीप अकेला’ और दूसरा है ‘नदी के द्वीप’। अज्ञेय के काव्य के वैशिष्टयों का उल्लेख करते हुए डॉ. चरण ने
प्रगतिशील विचारधारा के संदर्भ में अज्ञेय के ‘व्यक्तिवादी’ और ‘समाजवादी’ दोनों स्वरूपों को
उद्घाटित किया है। साथ ही उन्होंने अज्ञेय के आधुनकताबोध और प्रगतिवादी स्वर को भी
उजागर किया है। |
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मुख्य पाठ |
क्षणवादी, अहंवादी, अस्तित्ववादी इत्यादि कहे जाने
वाले अज्ञेय के साहित्य को यदि परखा जाए तो वे इन तमाम बहसों और विवादों से ऊपर
सिर्फ और सिर्फ एक साहित्यकार दिखाई देते हैं जिन्होंने अपने काव्य व्यक्तित्व के
जरिए मानव को समाज से जोड़ने की बात कही है। समाज और मानव के बंधन और रिश्ते को
अज्ञेय ने तमाम प्रश्नों और चुनौतियों को सामने रखते हुए एक उचित परिणति तक
पहुँचाने की कोशिश की है। तभी तो उनका काव्य-बोध नदी का द्वीप बनकर भी कभी हारिल
बन आकाशधर्मी उन्मुक्तता को खोजता है तो कभी अकेला दीप बन असंख्य दीपों को प्रज्ज्वलित
कर खुद को तृप्त पाता है तो कभी खुले विरान में एकान्त होते हुए समष्टि के लिए
समर्पित होता है। रमेश ऋषिकल्प के अनुसार ‘‘अज्ञेय की
कविता में व्यक्ति और समाज के संबंध को आधुनिक संदर्भ में समझने की कोशिश की गई
है। ... अज्ञेय समाज से काटकर व्यक्ति की स्थिति नहीं मानते बल्कि समाज के साथ
उसका एक अनिवार्य संबंध मानते हैं।’’1 हिन्दी आलोचना में अज्ञेय के काव्यगत विचारों को लेकर परस्पर गंभीर मतभेद रहे
हैं और इस वजह से उनका काव्य-व्यक्तित्व रोशनदार होने की जगह धुँधलाया ही अधिक है।
लेकिन मुझे हमेशा यह लगा कि इन मतभेदों, विवादों और बहसों से बहुत ऊपर हैं अज्ञेय।
साहित्य के धरातल पर वे सिर्फ और सिर्फ शैक्षिक मनस्क, समाजप्रेमी
और मानवप्रेमी अधिक प्रतीत होते हैं। अज्ञेय को लेकर हुए विवादों के बीच से जो
रास्ता निकलता है वहाँ से और कुछ नहीं सिर्फ अज्ञेय का साहित्य ही साफ-साफ दिखता
है। अज्ञेय के काव्य में उनके द्वारा मानव-संबंध का स्थापन और उसे कुछ हद तक समझने
का मेरा प्रयास शुरूआती हो सकता है या उससे कोई एकमत नहीं भी हो सकता है परन्तु
उनकी रचनाओं में मैंने जो चुनौतियाँ देखी और उसके भावबोध ने मुझे जिसतरह से समृद्ध
बनाया, वही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है और उसी परिप्रेक्ष्य
में ही आज मैं उनकी कविताओं में व्यक्त मानव और समाज के बीच के संबंध को स्पष्ट
करना चाहूँगी और मानव तथा समाज के संदर्भ में संबंधों के महत्त्व को दर्शाते हुए
उनके काव्य-सौंदर्य और काव्य-बोध को उचित परिणति तक पहुँचाने की कोशिश करूँगी। अज्ञेय के काव्य में मानव-संबंध का बदलता स्वरूप कई प्रश्नों, समस्याओं
और चुनौतियों को सामने रखता है और अज्ञेय अपने वैचारिक धरातल पर खड़े होकर उन
प्रश्नों का जवाब देते हैं। वस्तुत: अज्ञेय की संवेदना के विकास
को समग्रता में देखना चाहिए, समग्रता में ही उसकी जाँच-पड़ताल होनी चाहिए। तभी हम अज्ञेय
के काव्य में आकाशधर्मी उन्मुक्तता को खोज सकते हैं और मानव-समाज के साथ उनकी
आत्मीयता को देख सकते हैं। अज्ञेय ने एक ऐसे आधुनिक मानव संबंध की कल्पना की है जिसे आधुनिक विज्ञान के
विकास ने परिवेश से संघर्ष करते हुए अपने से जोड़ा और मनुष्य को अपेक्षाकृत
स्वाधीन बनाया जिसके कारण वह अपने विकसित व्यक्तित्व की भावना के साथ चिंतन के
स्वच्छंद क्षेत्र में गया जहाँ न तो सामाजिक रूढ़ियाँ थी और न उसका दवाब। वहाँ उसे
नये मानव-संबंध की स्थापना की प्रेरणा मिली और वह खुद को और संपूर्ण समाज को
सामाजिक रूढ़ियों और जर्जर परंपराओं के बंधनों से मुक्त करने के लिए सन्नद्ध हो
गया। संजय कुमार के अनुसार ‘‘अज्ञेय ने आरंभ से ही व्यक्ति और समाज के बीच क्या
संबंध हो इस समस्या पर विचार किया है। वे व्यक्ति और समाज के बीच ऐसा संबंध चाहते हैं
जिससे मानव के व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास सर्वाधिक संभव हो सके’’2 अज्ञेय ने रीति-युग की कमजोरी के सीधे
जड़ पर प्रहार किया और उसके राग-संबंध को प्राणहीन बताया और रीतिकाल की रुग्न
परंपरा का विरोध किया और मानव संबंध को एक नई दिशा दी। अज्ञेय के काव्य में
खेत-खलिहान जैसे देहाती प्रकृति का अनुभव छायावादी काव्य-परंपरा का ही अगला चरण
है। कवि ने अपने अनुभूति- प्रत्यक्ष और अन्तश्चेतन-संकेतित को सामने लाया है।
अनुभूति-सत्यता का आग्रह और अनुभूति व्यापकता के कारण कवि मानव संबंध को एक नया आयाम
देता है। नये विज्ञान के विकास के कारण यह दुनिया भी सिमटकर छोटी हो गई है जिसके
फलस्वरूप राष्ट्र, प्रदेश एक दूसरे के निकट आ गये हैं और इनके बीच मानव संबंधों
का एक नया तंत्र भी विकसित हो चला है जो टूटने वाला नहीं वरन् एक दूसरे से जुड़ा
हुआ है। साझेदारी का यह रिश्ता और घना हो चला है— ‘‘क्षण भर लय हो-मैं भी, तुम भी और न सिमटें सोच कि हमने अपने से भी बड़ा किसी भी अपर को क्यों माना।’’3 अनुभूति की व्यापकता की मांग अज्ञेय के काव्य को सार्थक बनाती है। मानव
व्यक्तित्व की निर्मिति, समाज से पृथक रहकर असंभव है। ऐसा अज्ञेय ने बारबार कहा है, ‘नदी के द्वीप’ कविता
इसका साक्ष्य वहन करती है। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के विकास के कारण मानव मुख्यत: शहरों और महानगरों में सिमट
गया है, इसका साक्ष्य भी अज्ञेय की कविताएँ छोड़ जाती हैं, चाहे वह ‘हरि घास पर क्षण भर’ कविता
हो या ‘कलगी बाजरे की’। अज्ञेय ‘अपना गान’ शीर्षक अपनी आरंभिक कविता (1931) में
लिखते हैं— ‘‘कुसुम का रस परिपूरित हृदय
मधुप का लोलुपतामय स्पर्श इसी में कांटों का काठिन्य, इसी में स्फुट कलियों का हर्ष इसी में बिखरा स्वर्ण पराग, इसी में सुरभित मंदबतास उर्मिमाला का पागल नृत्य, ओस की बूंदों का उल्लास विरहिणी चकवी की क्रन्दना, परमृता-भाषित कोयल तान इसी में अवहेला की टीस इसी में प्रिय का प्रिय आह्वान’’4 यहाँ अज्ञेय प्रेम, मिलन विरह, जीवन का उल्लास और मानव जीवन
के कठिन पक्षों का उल्लेख प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से करते हैं। उनके
पूर्ववर्ती काव्य में अनुभूति की सघनता है तो उत्तरवर्ती काव्य में दार्शनिकता और
विचारों का फैलाव मिलता है। उनकी कविताएँ भाव और विचार के तनाव बिन्दु पर खड़ी
हैं। उनकी कविताओं में यदि अनुभूति का गाढ़ापन है तो दार्शनिक वाक्-जाल का आकर्षण
भी। 1949 तक आते-आते जब ‘हरि घास पर क्षण भर’ काव्य
संग्रह प्रकाशित होता है तब से अज्ञेय अपने दार्शनिक बोध के साथ ज्यादा उभरते हैं। ‘हम अपने अस्त्र चुन सकते है : अपना /
शत्रु नहीं वह हमें / चुनाया मिलता है’- मानव-संबंध का यह एक और
पहलू है जो हमें अज्ञेय में दिखता है। अज्ञेय के लिए फूल का खिलना नये जीवन का प्रतीक है— लोहे और कंकरीट के जाल के बीच पत्तियाँ रंग बदल रही हैं एक दु:साहसी हेमन्ती फूल खिला हुआ है। प्रेमिक-प्रेमिका के संबंध को अज्ञेय नये ढंग से संबोधित करते हैं और इसी
संदर्भ में प्रेमिका के सौंदर्य के वर्णन के लिए उन्हें नीहार न्हाई हुई, टटकी कली
चम्पे की वगैरह पुराने उपमान संतुष्ट नहीं कर पाते इसलिए वे एक नया उपमान खोजकर
लाते हैं— ‘कलगी बाजरे की’। तभी तो वे कहते हैं-- ‘‘मगर क्या तुम नहीं पहचान
पाओगी? तुम्हारे रूप के तुम हो, निकट हो इसी जादू के।’’5 अज्ञेय ने व्यक्ति को सृजन-स्रष्टा और विशिष्ट मानते हुए भी समाज की उन्नति और
विकास के लिए समाज और व्यक्ति के परस्पर निर्भरता के संबंध को स्वीकार किया है।
रामस्वरूप चतुर्वेदी के शब्दों में ‘‘इकाई जितनी कुणठारहित होगी
और समाज साँचों से जितना मुक्त होगा व्यक्तित्व उतना ही अधिक संघटित होगा।
व्यक्तित्व के इस रूप का अख्यायन पूर्व अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता ‘यह दीप अकेला’ में
हुआ है जहाँ व्यक्तित्व पंक्ति के लिए स्वत: अर्पित
है।’’6 अज्ञेय के काव्य में जहाँ एक तरफ यह दिखाया गया है कि
व्यक्ति और समाज के बीच विरोध हुआ तब कई बार व्यक्ति टूटा है पर
दूसरी तरफ यह भी दिखाया गया है कि समाज ने व्यक्ति की सृजनशीलता, उसके द्वारा प्रस्तुत मूल्यों और अवधारणाओं को माना भी है और अज्ञेय के
अनुसार ये चुनौतियाँ व्यक्ति के सामने बारंबार आती रहेंगी। समाज व्यक्ति द्वारा
प्रस्तुत अभिमूल्यों को हमेशा स्वीकार नहीं करता। इसके लिए व्यक्ति को लंबे समय तक
विरोध का सामना भी करना पड़ सकता है। समय के प्रति व्यक्ति का दायित्व अनिवार्य होता है जिसका पालन किये बिना न तो
वह अपना विकास कर सकता है न ही वह समाज का हिस्सा बन सकता है। अज्ञेय के अनुसार
समाज में प्रत्येक व्यक्ति का एक निश्चित धर्म होता है और जितना ही समाज अविकसित
होता है, उतनी ही वह धर्म, रूढ़ और अनिवार्य। इस
कथन से स्पष्ट है कि अज्ञेय समाज से जोड़कर व्यक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करते
हैं न कि काटकर। अज्ञेय के अनुसार समाज में स्वच्छंद रहकर भी व्यक्ति नियमित समाज
को बदल सकता है, उसे चाहे तो गति दे सकता है। एक तरफ जहाँ
समाज के प्रति उसका दायित्व होना चाहिए वहाँ दूसरी तरफ उसकी यह भी चाह होती है कि
समाज उसकी वैयक्तिकता, विचारधारा, भावनाओं
को समझे, उन्हें स्वीकृति दें जिससे कि वह उस सामाजिक
परिवृत्ति का खुद को अंग महसूस कर सके। वस्तुत: वह व्यक्ति और समाज के
रिश्ते को बारबार जानने की कोशिश करता है। व्यक्ति और समाज का संबंध कभी
संघर्षपूर्ण रहा तो कभी द्वन्द्वात्मक तो कभी प्राकृतिक और इसी बदलते परिप्रेक्ष्य
में इन दोनों ने एक दूसरे को बदलते हुए अस्तित्व के साथ ग्रहण किया है। किरन
तिवारी के शब्दों में ‘‘अज्ञेय के काव्य में व्यष्टि, समाष्टि तथा उनके मध्य संबंधों को लेकर
आधुनिक विचारों की अभिव्यक्ति हुई है। वे व्यक्ति और समाज की अवधारणाओं तथा उनके
मध्य संबंधों की गहरी समझ रखते हैं।’’7 अज्ञेय सवाल उठाते हैं कि ‘क्या कोई अकेला स्वाधीन हो सकता है?’ क्योंकि अज्ञेय का विश्वास
है कि कोई व्यक्ति अपनी पूरी संभावनाओं को उसी सामाजिक परिवृत्ति में पा सकता है
जिसमें कोई दूसरा व्यक्ति अपनी संभावनाओं को प्राप्त करता है। उनका मानना है कि
व्यक्ति की स्वतंत्रता का बोध उसकी सामाजिकता का ही बोध है, और रचनाकार
की स्वतंत्रता का सत्य समाज का सत्य है क्योंकि सृजन समाज-सत्य है, सत्य-शिव-सौंदर्य के शोध का सत्य है और सत्य के शोध की स्वाधीनता भी मन का
सत्य नहीं, ममेतर का सत्य है। अज्ञेय सत्य-शिव-सुन्दर को एक
दूसरे से जोड़कर देखते हैं, इन्हें अलग नहीं मानते क्योंकि
ये तीनों ही समाज-सत्य है। व्यक्ति को स्वाधीन होने का अधिकार है और वह स्वाधीनता
के प्रति दायित्व बोध को स्वीकार करता है। वस्तुत: व्यक्ति ग्रहणशील होता है
जो समाज से अपने व्यक्तित्व को गढ़ने का उपादान ग्रहण करता है और रचनाकार की कृति
का आधार भी समाज ही होता है और कोई भी व्यक्ति उस समाज में स्वाधीन होता है जो
समाज स्वाधीन हो। व्यक्ति के सभी प्रतिमानों का स्रोत समाज ही है। अज्ञेय के
अनुसार मानव समाज में व्यक्ति के लिए जीवन भी सत्य है और मृत्यु भी सत्य है— क्रमश: मृत्यु: मृत्यु भी सत्य ही है उसे हम छोड़ नहीं सकते हाँ शिवता, सुन्दरता हम उसे दे सकते हैं अभी किन्तु जीवन अन्तहीन तपस्या जिस से हम मुँह मोड़ नहीं सकते यह संबंध (या विपर्यास?) शाश्वव् है क्योंकि इसे हम चाहे जिस अर्थ में ले सकते हैं। डॉ. ज्वालाप्रसाद खेतान के अनुसार ‘‘अज्ञेय की रचनाओं में
मृत्यु का प्रश्न तथा उसके प्रति जिज्ञासा का स्वर बार-बार उभरता है।’’8 इसी परिप्रेक्ष्य में
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का मृत्यु-दर्शन लक्ष्णीय है। रवीन्द्रनाथ कहते हैं— आछे दुख्ख आछे मृत्यु जीवन दहन लागे तबुओ शांति तबु आनंद तबु अनंत जागे अज्ञेय महसूस करते हैं कि व्यक्ति की आस्था भंग हो गई है और समाज में उसके
सामने अनास्था का संकट खड़ा हो गया है। अज्ञेय को व्यक्ति और समाज के संबंध के
संदर्भ में आस्था के उस अंधविश्वासी रूप में विश्वास नहीं जहाँ द्रोण के प्रति
अपनी गुरु भक्ति दिखाते हुए एकलव्य अपना उंगली काटकर दे देता है (‘इतिहास की हवा’ शीर्षक
कविता)- एकलव्य एक है और आज आस्था भी उसमें क्या जाने कहीं कम हो क्या जाने वह अंगूठा भी दे, न दे।9 ‘पक गई खेती’ शीर्षक
कविता में अज्ञेय देश के बँटवारे पर लिखते हैं— बैर की परनालियों से हँस हँस के हमने सीचीं जो राजनीति की रेती उसमें आज बह रही खून की नदियाँ है कल ही जिसमें खाक मिट्टी कहके हमने थूका था घृणा की आज उसमें पक गई खेती है फसले काटने को अगली सदियाँ हैं।10 अज्ञेय के काव्य में आस्था के स्वर को व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण माना
गया है जिसमें निषेधात्मक मूल्यों को त्यागने और गुणात्मक मूल्यों को जगाने की बात
है। वस्तुत: अज्ञेय अपने काव्य में भारतीय परंपरा के आस्थावादी स्वर
को जानते हैं । तभी तो वे दूसरे मनुष्य और मानव समाज में विश्वास नहीं खोते और
मनुष्य के आपसी संबंधों में आस्था रखते हैं— जिन्होंने जीवन में आस्था नहीं खोयी जिनके घर उन पहलों ने नष्ट किये महासागर में डुबोये पर जिन्होंने अपनी जिजिविषा घृणा के परनाले में नहीं डुबोयी उनकी डोंगियां फिर इन तरंगों पर तिरेंगी अज्ञेय की एक बहुत बड़ी विशेषता है कि उनकी आस्था के स्वरूप का विज्ञान
से कोई विरोध नहीं है। कला हो या विज्ञान दोनों ही मानव की प्रगति, मानव के
मंगल को लक्ष्य मानकर चलता है। अज्ञेय का संबंध परंपरा और प्रगति दोनों से है तभी तो वे प्रयोगशील हैं।
उन्होंने समाज से अपना नाता जोड़ मूल्यहीन मनुष्य की गरिमा को प्रतिष्ठित किया है
और लोप होते व्यक्ति सत्ता को समाज के बीच रखकर साहित्य में प्रतिष्ठित किया है।
निराला के ‘मैं’ शैली को उन्होंने विस्तार दिया है। ‘मैं वहाँ हूँ’कविता इसका प्रमाण है। उनका ‘मैं’ सर्वव्यापक,
संपूर्णता की खोज में निमग्न है। अज्ञेय लिखते हैं-- मैंने देखा एक बूँद सहसा उछली सागर के झाग से रँगी गयी क्षण-भर ढलते सूरज की आग से।11 अज्ञेय पलभर के लिए भी ‘मैं’ को खोना नहीं चाहते पर उनका मैं
व्यक्तिबद्ध मैं नहीं, समाजबद्ध मैं है। उनका मैं बौद्धिक
स्वतंत्रता चाहता है पर व्यक्तिबद्धता नहीं। आधुनिक जीवन में मनुष्य अकेले हैं। इसी बात को वे ‘यह दीप अकेला’ कविता
में स्पष्ट करते हैं पर वह स्नेह से भरा हुआ है, रिक्त नहीं
तभी तो समाज के लोगों के प्रति उसके मन में प्रेम का उद्रेक होता है। दीप अकेला की
निजता सुरक्षित रखते हुए भी अज्ञेय ने मानवीय गरिमा और सामाजिक गरिमा के संदर्भ
में प्रेम को मूल्यों का स्रोत बताते हुए स्पष्ट किया है। हिन्दीकुंज डॉट कॉम में
लिखा गया है कि ‘‘अज्ञेय ने रोमानी भावुकता
का परित्याग कर प्रेम की अभिव्यक्ति अपेक्षाकृत गहरे और मनोवैज्ञानिक धरातल पर
किन्तु आवेशहीन शैली में की है।’’12 छायावादी
कवि महसूस करते हैं जबकि अज्ञेय देखते हैं, भोगते हैं और उसे
कहते भी हैं। उन्होंने ‘देखा और दिखा’ दोनों
को व्यक्ति और समाज के रिश्ते के संदर्भ में महत्त्व प्रदान किया है। मानव-समाज
में व्यक्ति के क्षण भर के प्रेम के सौंन्दर्य की कथा भी उन्होंने काव्य में लिखी
है। छायावादी काव्य में कवि का ‘मैं’ सामने
आ जाता है पर अज्ञेय का ‘मैं’ समाज
के भीतर से स्पष्ट होता है। उसमें समाज छिपता नहीं है उजागर होता है। ‘कतकी पुनो’ कविता
इसका उदाहरण है। वे इसमें गतिशील सौंदर्य की बात करते हैं ठीक प्रसाद की ‘उठ उठ री लघु लघु लोल लहर’ कविता
की तरह जिसमें लहर चंचल है एवं गतिशील और तरल सौंदर्य से युक्त है। वस्तुत: अज्ञेय के काव्य में व्यक्ति
और समाज को यदि समझना है तो उसे आधुनिक जीवन दृष्टि के संदर्भ में समझने की जरूरत
है। दृष्टि और परिप्रेक्ष्य इन दो आधारों पर इसे देखना चाहिए। यह भी जानना चाहिए
कि क्या यह रिश्ता सिर्फ रूप में है या मूल्यों और प्रतिमानों में भी। ‘कलगी बाजरे की’ कविता इसका जीवंत उदाहरण
है। जो प्रचलित और प्रचारित विचारधाराएँ थी उनका विरोध करते हुए अज्ञेय ने व्यक्ति
और समाज के संबंध को एक आधुनिक दृष्टि से खोजा है। जैसे-जैसे आधुनिक युग में समाज
का स्वरूप, उसकी मान्यताएँ बदलती गईं वैसे-वैसे व्यक्ति के साथ
उनका संबंध भी बदलता गया। इसलिए अज्ञेय के काव्य ने भी इस बदलते संबंध को देखा।
डॉ. चरण के अनुसार ‘‘अज्ञेय के साहित्य में
मुख्य रूप से वैयक्तिक भावना का चित्रण है परन्तु उनकी व्यक्तिगत भावना सामाजिकता
का चित्रण करती है। वह अपने काव्य के माध्यम से व्यष्टि को समष्टि से जोड़ते हैं।
वस्तुत: उनकी कविताओं में वर्णित ‘मैं’
‘हम’ का द्योतक है। यह दीप अकेला तथा नदी के द्वीप दोनों
कविताएँ इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं।’’13 व्यक्ति आज बौद्धिक रूप में जितना स्वाधीन बनना चाहता है उतना ही पराधीन होता
जा रहा है इसलिए समाज और व्यक्ति के संबंध आपस में टकरा रहे हैं। इसलिए अज्ञेय के
अनुसार समाज का व्यक्ति के प्रति और व्यक्ति का समाज के प्रति दायित्व का होना
जरूरी है। उनका मानना है कि समाज के भीतर हर क्षेत्र के व्यक्ति को वैज्ञानिक और
प्रयोगशील दृष्टि से पड़ताल करनी चाहिए तभी समाज बदल सकता है, समाज की
रूढ़ीवादी दृष्टि बदल सकती है अन्यथा समाज विकलांग हो जाएगा। व्यक्ति और समाज के
प्रगाढ़ संबंध का आकलन करने के संदर्भ में अज्ञेय पाते हैं कि व्यक्ति सिर्फ निरा
पुतला या सिर्फ निरा जीव नहीं है, वह व्यक्ति है, बुद्धि-विवेक-सम्पन्न व्यक्ति और अज्ञेय की यह अवधारणा समाजशास्त्र और मनोविज्ञान
की अधुनातन विचारों पर आधारित है क्योंकि अज्ञेय व्यक्ति और समाज के संबंध को
बताते हुए वस्तुत: एक ओर समाज के क्रम-विकास
के इतिहास को स्पष्ट करते हैं तो दूसरी ओर मानव के विकास की रेखा खींचते हैं।
अज्ञेय मानते हैं कि सामाजिक इतिहास, मानव जीवन से संबद्ध है। मानव की विचारधारा,
भावबोध, विचार-भंगिमाएँ, प्रेरणाएँ, संभावनाएँ इत्यादि जो भी व्यंजित होती
हैं वे समाज से उद्भुत हैं, निर्मित हैं। समाज-दर्शन कोई एकल
विचारधारा से निर्मित नहीं होता वरन् मानव-समूह की कई विचारधाराओं का निचोड़ होता
है जो व्यक्ति की भावनाओं और अन्तर्प्रेरणाओं से रचा जाता है। अज्ञेय के अनुसार
व्यक्ति ही सामाजिक परिस्थितियों से टकराता है और अनुभव की ताप से नये जीवन
मूल्यों की शोध करता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व जिस अनुभव की आंच से निर्मित होता
है वह समाज का ही संचित अनुभव होता है। अज्ञेय लिखते हैं-- यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय 14 इसलिए अज्ञेय दोनों के अनुभव को महत्त्वपूर्ण घोषित करते हैं। व्यक्ति माध्यम
है समाज के अनुभव को जानने का। अज्ञेय लिखते हैं— चेहरे असंख्य आँखे असंख्य जिनमें सबमें दर्द भरा है पर जिनको मैं पहले नहीं देख पाया था वही अपरिचित दो आँखे ही चिर माध्यम हैं। अज्ञेय व्यक्ति से शुरू होकर समाज में जाते हैं। उन्होंने व्यक्ति और समाज के
रिश्ते को प्रयोगशील मानसिकता से समझने की कोशिश की है। डॉ. प्रज्ञा पाठक के
अनुसार ‘‘व्यक्ति की गढ़न में अज्ञेय समाज की भूमिका को नकार नहीं
रहे हैं। ‘दीप अकेला’ कविता में वह अस्तित्व के साथ ही समाज
द्वारा स्वीकृत होने के आग्रही हैं...।’’15 अज्ञेय
के समाज में व्यक्ति की मानसिकता बदली, विचार बदले, व्यक्ति और समाज का द्वन्द्व भी बढ़ा। व्यक्ति और समाज के तनाव, उसके बदलते हुए रूप को अज्ञेय ने सामने लाने की कोशिश की। उनके समाज का
प्रयोगशील व्यक्ति समाज के जीर्ण-शीर्ण ढाँचे से टकराता है, वह
समाज के रूप में बदलाव लाना चाहता है, समाज का नया ढांचा
खोजता है, उसके विकास की दिशाएँ विमोचित करता है। कुलदीप
कुमार के शब्दों में ‘‘ऐसा लगता है कि अज्ञेय को
अपने सभी रचनात्मक प्रयासों के साथ-साथ रिश्तों में भी हमेशा अपूर्णता का एहसास
होता था और दोनों अर्थों में एक वे विद्रोही थे-- एक क्रांतिकारी जो औपनिवेशिक
शासन के खिलाफ खड़ा हुआ और एक विद्रोही जिसने सामाजिक मानदंडों को तोड़ा।’’16 अज्ञेय का मानव मध्ययुगीन विचारधारा से युक्त नहीं वरन् आधुनिक है इसलिए वह
रूढ़ीवादी मान्यताओं को स्वीकार नहीं करता वरन् प्रयोगशील विचारधारा और वैज्ञानिक
दृष्टिकोण के साथ समाज में परिवर्तन लाना चाहता है। तभी तो अज्ञेय कहते हैं— समूह का अनुभव जिसकी मेहरावें हैं और जन-जीवन की अजस्र प्रवाहमयी नदी जिसके नीचे से बहती है मुड़ती, बलखाती, नए मार्ग फोड़ती, नए करारे तोड़ती चिर परिवर्तनशीला, सागर की ओर जाती जाती, जाती....... मैं वहाँ हूँ—दूर दूर
दूर। |
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निष्कर्ष |
अत: स्पष्ट है कि अज्ञेय ने अपनी कविताओं में व्यक्ति और समाज के संबंध को
लेकर नयी अवधारणा प्रस्तुत की है जिसमें पारस्परिकता का अंकन है। व्यक्ति और समाज
के बीच अपनी रचनाशीलता को सेतु बनाकर अज्ञेय ने व्यक्ति और समाज के नये रिश्ते का
आयोजन किया है। उनके अनुसार व्यक्ति के वैचारिक तत्त्व ने व्यक्ति को बौद्धिक
बनाया है जिसके फलस्वरूप वह समाज की हर मान्यता तो मान नहीं सकता किन्तु अपनी
सृजनशीलता को समाज के हित के लिए विसर्जित करने को तैयार है। यहाँ पर कवि के
व्यक्ति की स्वचेतना और निर्वैयक्तिकता के बीच संघर्ष स्पष्टत: दृष्टिगोचर होता
है।
अज्ञेय के व्यक्ति का आधुनिकताबोध,
परंपरा से टकराता है, उसका वर्तमान अतीत से
टकराता है किन्तु इनके बीच वह सामंजस्य भी खोजता है जिसमें कवि का सौंदर्यबोध छिपा
है। व्यक्ति के अतित और वर्तमान का संपृक्त अनुभव अज्ञेय की कविताओं को नया आयाम
देता है। अज्ञेय का व्यक्ति समाज में रहकर अपने व्यक्तित्व और अस्मिता की तलाश
करता है। कवि ने बार-बार व्यक्ति के व्यक्तित्व और सामाजिक परिवेश की परस्पर
पूरकता की बात कही है। उनके अनुसार व्यक्ति समाज में अपने सर्जनात्मक व्यक्तित्व
को सुरक्षित और विकसित रख सकता है और समाज के प्रति अपने अहं का समर्पण करके ही
समाज के प्रति दायित्वशील बन सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अज्ञेय की
कविताएँ व्यक्ति और समाज के बदलते रिश्ते की पड़ताल करते हुए पुरानी भावभूमि से
निकलकर नयी भावभूमि तक पहुँचती है जहाँ व्यक्ति और समाज का अंतर्द्वन्द्व भी जारी
रहता है और एक नया संबंध भी निर्मित होता है। कवि ने स्पष्ट किया है कि समाज के
बदलने के साथ-साथ सामाजिक संबंध भी बदलते हैं और ऐसे में प्रयोगशील व्यक्ति और
समाज का रिश्ता भी नया मोड़ लेता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. ऋषिकल्प रमेश, अज्ञेय की
कविता : परंपरा और प्रयोग, वाणी प्रकाशन, नई
दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2008, संस्करण-प्रथम,
पृ. 174 2. कुमार संजय, अज्ञेय : प्रकृति-काव्य
काव्य-प्रकृति, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-1995, पृ. 46 3. पाण्डेय डॉ. चंद्रकला
(संपादक), आधुनिक हिन्दी कविता, आनंद प्रकाशन,
कोलकाता, प्रकाशन वर्ष-2004, पृ. 116 4. कविता कोश, http://kavitakosh.org>-अज्ञेय, 2012 5. अज्ञेय, चुनी हुई
कविताएँ, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली,
प्रकाशन वर्ष-2010, पृ.19 6. चतुर्वेदी रामस्वरूप, अज्ञेय और
आधुनिक रचना की समस्या, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2006, संस्करण-पाँचवा, पृ. 21 7. तिवारी किरन, शोध आलेख-
अज्ञेय का काव्य : विचार एवं दृष्टि, पृ. 130, http://irgu.unigoa.ac.in>drs,
2016 8. खेतान डॉ. ज्वालाप्रसाद, अज्ञेय : एक
मनोवैज्ञानिक अध्ययन, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, प्रकाशन वर्ष-1990, पृ.
130 9. अज्ञेय, चुनी हुई
कविताएँ, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली,
प्रकाशन वर्ष-2010, पृ.63 10.शरणार्थी:अज्ञेय(हिन्दी कविता),https://hindi-kavita.com/hindisharan-arthiagyeya.php 11. अज्ञेय, चुनी हुई
कविताएँ, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली,
प्रकाशन वर्ष-2010, पृ.82 12. लेख का शीर्षक-अज्ञेय के
काव्य की काव्यगत विशेषताएँ, https://www.hidikunj.com, जून, 2021 13.डॉ. चरण, लेख का
शीर्षक-सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय का साहित्यिक परिचय,https://www.dccp.co.in/blog/2020/11/ 14. पाण्डेय डॉ. चंद्रकला
(संपादक), आधुनिक हिन्दी कविता, आनंद प्रकाशन,
कोलकाता, प्रकाशन वर्ष-2004, पृ. 98 15. पाठक डॉ. प्रज्ञा, शोध आलेख
का शीर्षक- अज्ञेय के काव्य में अस्तित्व बोध और सामाजिक चेतना, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ साईनटिफिक एंड इनोवेटिव रिसर्च स्टडिज, ISSN
: 2347-7660, फरवरी-2018
16. कुमार कुलदीप, लेख का
शीर्षक- अज्ञेय : आन्तरिक जीवन जीने वाले लेखक और प्रेमी, https://m.thewire.in/article/books/agyeya-inner-life
biography-akshaya-mukul, सितंबर-2022 |