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हिन्दी-तेलुगु आलोचना : विश्लेषणात्मक अध्ययन |
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Hindi-Telugu Criticism: Analytical Study | |||||||
Paper Id :
18613 Submission Date :
2024-02-06 Acceptance Date :
2024-02-21 Publication Date :
2024-02-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.11499219 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
हिंदी साहित्य की अनेक गद्य विधाओं में आलोचना एक स्वतंत्र, समृद्ध और सशक्त विधा है। साहित्यिक क्षेत्र में आलोचना का तात्पर्य किसी रचना की समीक्षा, उसकी विवेचना एवं मूल्यांकन आदि से है। डॉ० गणपतिचंद्र गुप्त के अनुसार - “किसी भी साहित्यिक रचना के विवेचन, विश्लेषण गुण दोष, दिग्दर्शन या मूल्यांकन को अथवा साहित्य के संबंध में किसी सामान्य विचार, सिद्धांत या नियम के प्रतिपादन को या उसकी ऐतिहासिक, सामाजिक या मनोवैज्ञानिक व्याख्या को ‘आलोचना’, ‘समालोचना’ या समीक्षा के अंतर्गत स्थान दिया जाता है।[1] हिंदी आलोचना का प्रारंभ भारतेंदु युग में हुआ। हिंदी प्रदीप(1877-1910) ही एक ऐसा पत्र था, जो अपेक्षाकृत गंभीर आलोचनाएं प्रकाशित करता था। इस युग में पुस्तक समीक्षा के रूप में पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनाएं प्रकाशित होती थीं। इस युग में तीन प्रकार की आलोचनाओं का अस्तित्व भी स्वीकार किया जाता जा सकता था – (1). रीतिकालीन लक्षणग्रंथों की परंपरा में लिखित सैद्धांतिक आलोचना, (2). ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली-गद्य में लिखी गयी टीकाओं के रूप में प्रचलित आलोचना, (3). इतिहास ग्रंथों में कवि-परिचय के रूप में लिखी गयी आलोचना। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Criticism is an independent, rich and powerful genre among many prose genres of Hindi literature. In the literary field, criticism means review of a work, its discussion and evaluation etc. According to Dr. Ganpati Chandra Gupta - “'Criticism' is the analysis, merits, demerits, reference or evaluation of any literary composition or the presentation of any general idea, principle or rule in relation to literature or its historical, social or psychological interpretation. [1] Hindi criticism started in Bharatendu era. Hindi Pradeep (1877-1910) was the only newspaper which published relatively serious criticisms. In this era, criticisms were published in newspapers and magazines in the form of book reviews. In this era, the existence of three types of criticism could also be accepted – (1). Theoretical criticism written in the tradition of ritualistic treatises, (2). Popular criticism in the form of commentaries written in Braj language and Khariboli-prose, (3). Criticism written in the form of poetic introduction in history texts. | ||||||
मुख्य शब्द | हिन्दी-तेलुगु, आलोचना, विधा, गद्य। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Hindi-Telugu, Criticism, Genre, Prose. | ||||||
प्रस्तावना | प्रथम वर्ग के अंतर्गत पिंगल, अलंकार, रस, नाटक तथा संपूर्ण काव्यशास्त्र - इन सभी विषयों पर लक्षणग्रंथों की रचना की गयी। उदाहरणस्वरूप ज्वालास्वरूप-कृत ‘रुद्रपिंगल’(1869), उमरावसिंह-कृत ‘छंदमहोदधि’(1878), जगन्नाथप्रसाद ‘भानु’ कृत ‘छंद:प्रभाकर’(1894), और जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ कृत ‘घानाक्षरी-नियम-रत्नाकर’(1897) इस युग में रचित उल्लेखनीय पिंगलग्रंथ हैं। इसी प्रकार लछिराम-कृत ‘रावणेशवर कल्पतरु’(1892), बिहारीलाल-कृत ‘अलंकारादर्श’(1897), तथा मुरारिदान कविराज-कृत ‘जसवंत-जसो-भूषण’(1897) आलोच्य युग के महत्वपूर्ण अलंकार ग्रंथ है। रस-ग्रंथों में कृष्णलाल-कृत ‘रससिंधुविलास’(1883), साहबप्रसादसिंह-कृत ‘रसरहस्य’(1887), और प्रतापनारायण सिंह कृत ‘रसकुसुमकार’(1894) उल्लेखनीय है। नाट्यशास्त्र संबंधी सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति भारतेंदु का ‘नाटक’(1883) है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें प्राचीन नाट्यशास्त्र की जानकारी के साथ ही युग-प्रवृति का ध्यान रख कर प्राचीन जटिल शास्त्रीय नियमों से छूट लेने की आवश्यकता पर भी बल दिया गया है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का
उद्देश्य हिन्दी-तेलुगु आलोचना का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | ब्रजभाषा-गद्य में लिखी जाने वाली टीकाओं की परंपरा को सरदार कवि ने जीवित रखा था तथा उनके द्वारा रचित ‘कविप्रिया’, ‘रसिकप्रिया’ और ‘बिहारी-सतसई’ की टीकाएं लोकप्रिय हुई। वहीं लल्लूलाल जी द्वारा ‘बिहारी-सतसई’ पर लिखी गई टीका ‘लालचंद्रिका’(1819) का संशोधन करके पुनः सन् 1864 में ग्रियर्सन ने प्रकाशित कराया। इस युग में दो इतिहास ग्रंथ भी लिखे गये – शिवसिंह सेंगर-कृत ‘शिवसिंह सरोज’(1878) और जार्ज ग्रियर्सन कृत ‘द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नार्दर्न हिंदुस्तान’(1889)। वस्तुतः भारतेंदु-युग में आधुनिक आलोचना का रूप यदि कहीं बीज रूप में सुरक्षित है, तो वह पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित पुस्तक समीक्षाओं में ही है। इस क्रम में सबसे पहला उल्लेखनीय नाम बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ का है। उन्होंने श्रीनिवासदास-कृत ‘संयोगितास्वयंवर’ और गदाधर सिंह-कृत ‘बंगविजेता’ के अनुवादों की विस्तृत आलोचना ‘आनंदकादंबिनी में की थी। इसके बाद बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। भट्ट जी की ‘नीलदेवी’, ‘परीक्षागुरु’, ‘संयोगितास्वयंवर’ और ‘एकांतवासी योगी’ संबंधी आलोचनाएं तत्कालीन समीक्षा साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। द्विवेदी-युग में हिंदी-आलोचना का गंभीर एवं तात्विक रूप तो नहीं निखरा, किंतु उनकी कई महत्वपूर्ण पद्धतियां अवश्य विकसित हुई। सामान्यतः इस युग में हिंदी-आलोचना के पांच रूप लक्षित किये जा सकते हैं - शास्त्रीय आलोचना अर्थात् लक्षणग्रन्थों की परंपरा में काव्यांग-विवेचन, तुलनात्मक मूल्यांकन एवं निर्णय, अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक आलोचना, परिचयात्मक आलोचना तथा व्याख्यात्मक आलोचना। संस्कृत-आचार्यों की पद्धति पर लक्षणग्रंथ प्रस्तुत करने की परंपरा रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्ति थी। द्विवेदी युग में भी इस परंपरा में जगन्नाथप्रसाद ‘भानु’ ने ‘काव्यप्रभाकर’(1910) तथा ‘छंदसारावली’ (1917) और लाला भगवानदीन ने ‘अलंकार-मंजूषा’(1916) की रचना की। |
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मुख्य पाठ |
तुलनात्मक मूल्यांकन द्विवेदी
युगीन समीक्षा की प्रमुख प्रवृत्ति कही जा सकती है। तुलनात्मक आलोचना का आरंभ 1907 ई० में पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी और सादी की तुलना द्वारा किया। 1910 ई० में मिश्रबंधुओं का ‘हिंदी-नवरत्न’ प्रकाशित हुआ। लाला भगवानदीन और कृष्णबिहारी मिश्र ने देव और बिहारी की विशद
तुलना करते हुए एक को दूसरे से बड़ा सिद्ध करने का प्रयत्न किया। अन्वेषण और अनुसंधानपरक
आलोचना का विकास ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’(1897) के प्रकाशन से हुआ। ‘मिश्रबंधु-विनोद’(1913) में भी शोधपरक दृष्टि को महत्व दिया गया था। मिश्रबंधुओं के अतिरिक्त
शोधपरक आलोचना के उन्नायकों में श्यामसुंदरदास, राधाकृष्णदास, जगन्नाथदास रत्नाकर
और सुधाकर द्विवेदी उल्लेखनीय है। 1902 ई० में
चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’
ने जयपुर से ‘समालोचक’ पत्र
निकाला था। यह गंभीर आलोचना का पत्र था।
परिचयात्मक आलोचना का आरंभ भारतेंदु-युग में ही हो गया था। द्विवेदी युग में ‘सरस्वती’ के माध्यम से इस समीक्षा-पद्धति में स्थिरता और गंभीरता आयी तथा समीक्षा का आदर्श स्थिर हुआ। परिचयात्मक आलोचनाएं आलोच्य कृति के सामान्य परिचय, उसकी प्रशंसा या निंदा, आलोच्य विषय या कृति के संबंध में स्वतंत्र लेख, कृति विशेष को किसी परंपरा या ऐतिहासिक संदर्भ में रखने की प्रवृत्ति तथा आलोच्य विषय के प्रति भावात्मक लगाव व्यक्त करते हुए प्रभावाभिव्यंजन के रूप में लिखी गयी। ‘सरस्वती’ में प्रकाशित परिचयात्मक आलोचनाएं प्राय: महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा ही लिखी गयी हैं। महावीरप्रसाद द्विवेदी ने समालोचक का कर्तव्य निर्धारित करते हुए कहा था “किसी पुस्तक या प्रबंध में क्या लिखा गया है, किस ढंग से लिखा गया है, वह विषय उपयोगी है या नहीं, उससे किसी का मनोरंजन हो सकता है या नहीं, उससे किसी को लाभ पहुंच सकता है या नहीं, लेखक ने कोई नयी बात लिखी है या नहीं, यही विचारणीय विषय है। समालोचक को प्रधानत: इन्हीं बातों पर विचार करना चाहिए।”[2] आलोचना के क्षेत्र में उनके महत्व को स्वीकार करते हुए आचार्य शुक्ल ने कहा है “यदि द्विवेदी जी न उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित, व्याकरण-विरुद्ध और ऊटपटांग भाषा चारों ओर दिखायी पड़ी थी, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती।”[3] व्याख्यात्मक आलोचना किसी रूढ़ि का अनुसरण न करके आलोच्य विषय की व्यापक उपयोगिता को दृष्टि में रखकर नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एवं सौंदर्यपरक मूल्यों के आधार पर की जाती थी। कभी-कभी परिचयात्मक आलोचना विशद और गंभीर होने पर व्याख्यात्मक आलोचना का रूप ले लेती थी। इस प्रकार की आलोचना का सूत्रपात बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ ने ‘आनंदकादंबिनी’ में लाला श्रीनिवासदास के नाटक ‘संयोगिता-स्वयंवर’ की आलोचना से किया था। बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिंदी-प्रदीप’ में ‘नीलदेवी’, ‘परीक्षागुरु’ और ‘संयोगिता-स्वयंवर’ की गंभीर आलोचना करके इस पद्धति को पुष्ट किया था। बालमुकुंद गुप्त ने ‘हिंदी बंगवासी’ में ‘अश्रुमती’ नामक बांग्ला नाटक के हिंदी-अनुवाद की आलोचना द्वारा इस परंपरा को आगे बढ़ाया। द्विवेदी युग में पाश्चात्य समीक्षकों की आलोचनात्मक कृतियों के कुछ अनुवाद भी प्रस्तुत किए गये। इस युग के आरंभ होने से कुछ वर्ष पूर्व जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ ने समालोचनादर्श(1897) नाम से पोप के ‘एस्से ऑन क्रिटिसिज़्म’ का पद्यात्मक अनुवाद प्रस्तुत किया था। सन् 1905 में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एडिशन के ‘एस्से ऑन इमेजिनेशन’ का ‘कल्पना का आनंद’ नाम से अनुवाद किया। महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अपने काव्य-सिद्धांत-प्रतिपादक कुछ निबंधों में कई अंग्रेज-लेखकों का आधार लिया है। इन सारे प्रयत्नों ने एक ऐसी पृष्ठभूमि प्रस्तुत की, जिस पर आगे चलकर आचार्य शुक्ल और बाबू श्यामसुंदरदास ने हिंदी की वैज्ञानिक आलोचना का भव्य भवन निर्मित किया। छायावाद-युग तक आते-आते समालोचना हिंदी-साहित्य की अनिवार्य आवश्यकता बन गयी थी। हिंदी-साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के संदर्भ में एक ओर तो काव्यशास्त्र विषयक ग्रंथों की रचना की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा था, दूसरी ओर हिन्दी में कतिपय नवीन साहित्यविधाएं विकसित हो रही थीं। इस काल के समालोचना-साहित्य को सबसे महत्वपूर्ण देन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की है, जिन्होंने अपने व्यापक और गंभीर अध्ययन, काव्ययगुणों को पहचानने की अद्भुत क्षमता और विश्लेषण–बुद्धि के द्वारा हिन्दी-समालोचना को अमूतपूर्व उत्कर्ष प्रदान किया। उन्होंने ‘कविता क्या है’(सरस्वती, 1908), ‘साहित्य’(सरस्वती,1914) आदि निबंध लिखा और काव्यशास्त्रीय मेधा और स्वतंत्रचिंतन शक्ति का परिचय दिया। सैद्धांतिक-आलोचना कृति ‘काव्य में रहस्यवाद’, रसमीमांसा’ इस अवधि में प्रकाशित हुआ। शुक्ल जी ने इस काल में हिंदी के तीन बड़े कवियों गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास और जायसी को चुना। तुलसीदास उनके प्रिय कवि थे अतः सर्वप्रथम उन्होंने ‘तुलसी-ग्रंथावली’(1923 ) का संपादन किया और उसकी भूमिका में ‘रामचरितमानस’ तथा तुलसी के अन्य ग्रंथों के काव्यसौंदर्य का विस्तारपूर्वक उद्घाटन किया। उनकी यही भूमिका बाद में ‘गोस्वामी-तुलसीदास’(1933) शीर्षक से स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुई। इसी भांति उन्होंने ‘जायसी-ग्रंथावली’(1925) और ‘भ्रमरगीतसार’(1926) का संपादन कर इनकी लंबी भूमिकाओं में जायसी और सूरदास की काव्योपलब्धियों का सूक्ष्म विवेचन किया। ‘हिंदी-साहित्य का इतिहास’(1929) उनके गंभीर अध्ययन और विश्लेषण-सामर्थ्य का प्रमाण है। शुक्ल जी की आलोचना-सरणि पर अग्रसर होने वाले आलोचकों में ‘कृष्णशंकर शुक्ल’, ‘विश्वनाथप्रसाद मिश्र’, ‘रामकृष्ण शुक्ल ‘शिलीमुख’, ‘ब्रजरत्नदास’, ‘रामकुमार वर्मा’, ‘जनार्दन मिश्र’, ‘कृष्णानंद गुप्त’, ‘अखौरी गंगाप्रसाद’, भुवनेश्वरनाथ मिश्र ‘माधव’, गिरिजादत्त शुक्ल ‘गिरीश’, ‘रामनाथ ‘सुमन’ उल्लेखनीय है।[4] छायावाद को अपना समर्थ आलोचक नंददुलारे वाजपेयी के रूप में मिला था। उन्होंने बहुत ही तर्कपूर्ण और प्रामाणिक ढंग से छायावाद के सामाजिक संदर्भ में व्याख्या की तथा छायावादी काव्य की विशेषताओं का उद्घाटन किया। प्रसाद, पंत, निराला पर 1931 में पृथक-पृथक तीन निबंध लिखकर उन्होंने छायावाद की बृह्तत्रयी की घोषणा की। उनके अनुसार प्रसाद के काव्य में ‘मानवीय भूमि’, निराला के काव्य में ‘बुद्धि तत्व’ तथा पंत के काव्य में ‘कल्पना’ की प्रधानता है। छायावादी कविता की सहानुभूतिपूर्ण व्याख्या और विवेचन करने वालों में शांतिप्रिय द्विवेदी और डॉ० नगेंद्र भी उल्लेखनीय है। आगे चलकर इन्हीं आलोचकों ने हिंदी आलोचना को दिशा और गति भी प्रदान की।[5] छायावादोत्तरकालीन सैद्धांतिक आलोचना के स्वरूप निर्माण में कवियों और अन्य साहित्यकारों के विचारों का अलग महत्व है। छायावादी कवियों ने अपने काव्य की जटिलताओं और बारीकियों को स्पष्ट करने के लिए अपनी मान्यताओं को आग्रहपूर्वक प्रकट किया था। इसी प्रकार ‘तार सप्तक’, ‘दूसरा सप्तक’ और ‘तीसरा सप्तक’ के कवियों ने भी अपने वक्तव्यों में काव्य बदले हुए तेवर को सामने रखने का प्रयास किया है। अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती का नाम प्रमुख है। छठे दशक के अंत में गद्य-साहित्य की अन्य विधाओं की भांति हिंदी आलोचना भी नयी संभावनाओं की ओर उन्मुख हुई। नेमीचंद्र जैन, डॉ० इंद्रनाथ मदान, डॉ० नामवर सिंह, डॉ० रघुवंश, डॉ० बच्चन सिंह, लक्ष्मीकांत वर्मा, डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी, गंगाप्रसाद विमल इन सभी समीक्षकों ने संरचना को महत्व देने के साथ मूल्यों का ध्यान रखा। हिंदी में आधुनिक काल में आलोचना सृजनात्मक साहित्य के विशेषतः कविता और कथा-साहित्य के समानांतर चली है इसलिए प्रगतिवादी आलोचना के बाद वह आलोचना अस्तित्व में आयी, जिसे ‘नयी आलोचना’ कहा जा सकता है। ‘नयी आलोचना’ के आने का सीधा अर्थ था - साहित्य और समाज दोनों में व्यक्तिवाद और पूंजीवाद की प्रवृत्तियों का प्रबल होना।[6] स्वातंत्र्योत्तर काल की नयी लगभग सम्पूर्ण हिन्दी-आलोचना एक ओर पश्चिमी आलोचकों, दूसरी ओर अस्तित्ववाद, मानववाद, यथार्थवाद, अतियथार्थवाद, प्रभाववाद, आधुनिकतावाद, उत्तरआधुनिकतावाद, संरचनावाद इत्यादि वादों और तीसरी ओर ‘नयी आलोचना’ नवअरस्तूवादी आलोचना, शैलीविज्ञान, समाजशास्त्रीय आलोचना आदि पश्चिमी आलोचना-पद्धतियों का लगभग अनुसरण करने लग गयी। जिसमें आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली ही पूर्णतः बदली हुई नजर आती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिककाल(भारतेंदु-युग) से वर्तमान काल तक समालोचना की एक सुदीर्घ परंपरा देखने को मिलती है। इसके विपरीत तेलुगु-साहित्य में समालोचना का सूत्रपात सी०पी० ब्राउन, विशप काल्डवेल आदि महोदयों ने किया, परंतु कुछ विद्वानों के मातानुसार पंतुलुजी तेलुगु साहित्य में प्रथम समालोचक हैं।[7] तेलुगु समीक्षा-साहित्य को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं, पहली तेलुगु भाषा-संबंधी समीक्षा और दूसरी साहित्य - संबंधी। “गद्य ब्राह्म” नाम से विख्यात श्री वीरेशलिंगम् ने “विवेकवर्धिनी” “सतीहित-बोधिनी” और “हास्य-संजीवनी” नामक पत्रों में आलोचनात्मक लेख लिखना प्रारंभ किया। यह तेलुगु-साहित्य के आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी कहे जा सकते हैं। इन्होंने भी द्विवेदी जी की तरह पत्र-पत्रिकाओं में अपने आलोचनात्मक लेखों द्वारा काव्य और कवियों के गुण-दोषों का निरूपण किया और अपने आलोचनात्मक ग्रंथ प्रकाशित किये। इनका प्रथम समीक्षा-ग्रंथ “कोक्कोंड वेंकटरत्न कविकृत “विग्रहतंत्र विमर्शनम्” है।[8] तेलुगु में समीक्षा-साहित्य का प्रारंभिक समय पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख प्रकाशित करने तक सीमित रहा है। उसमें “विवेकवर्धिनी”, “अमुद्रित ग्रंथ-चिंतामणि”, “कलावती” और “आंध्र-भाषा-संजीवनी” आदि पत्रिकाओं में विशेष रूप से समीक्षा प्रधान निबंध प्रकाशित हुए। श्री गोपालराव नायुडु के तेलुगु भाषा के अनुसंधान के परिणामस्वरुप “आंध्र-भाषा-चरित्र संग्रहम्”(तेलुगु भाषा का इतिहास संग्रह) प्रकाश में आया। श्री ए० वरदाचारी ने “तेलुगु वचन(गद्य)-रचना” नाम से गद्य-साहित्य पर एक समीक्षात्मक ग्रंथ उपस्थित किया। श्री परवस्तुरंगाचार्युलुकृत “वर्ण-निर्णय” भी एक उत्तम कृति है। श्री काशीभट्ट ब्रह्मय्या शास्त्री ने भास्कर कवि पर “भास्कर-रोंदंतम्” नामक एक आलोचनात्मक ग्रंथ लिखा। इसी काल में श्री वेनेन्टी रामचंद्र रावजी ने “मनु-वसु-चरित्र-रचना-विमर्शनम्” नामक तेलुगु-साहित्य के उत्तम महाकाव्य “मनुचरित्र” और “वसुचरित्र” पर समीक्षात्मक ग्रंथ लिखा। तेलुगु-साहित्य में पाश्चात्य समीक्षा पद्धति पर प्रथम ग्रंथ-रचना करने वाले श्री कट्टमंचि रामलिंगा रेड्डीजी थे। इन्होंने महाकवि पिगलि सूरन्ना की कविता-शक्ति का निरूपण करने के अभिप्राय “कवित्वतत्व विचारम्” नामक एक सुंदर समीक्षात्मक ग्रंथ लिखा। इसमें समीक्षा संबंधी कई नये सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। श्री वंगूरि सुब्बाराव ने तेलुगु-साहित्य का अनुसंधान करके “आंध्र-वाङ्मय-चरित्र”, “शतक-कवुल-चरित्र” और “वेमना” आदि अनेक समीक्षात्मक ग्रंथ लिखें। इस दिशा में भी श्री के० वेंकटनारायण का “आंध्र-वाङ्मय-चरित्रसंग्रहम्”, श्री काशीनाथुनि नागेश्वरराव पंतुलुकृत “आंध्र-वाङ्मय-चरित्र”, श्री खंडवल्ली लक्ष्मीरजनम्-कृत “तेलुगु-साहित्य का संक्षिप्त इतिहास” प्रमुख हैं। श्री मधुनापंतुल सत्यनारायणकृत “आंध्र रचयितलु” और श्री यंडमूरि सत्यनारायणराव द्वारा विरचित “उपःकिरणालु” तेलुगु के साहित्य संबंधी उतम आलोचनात्मक ग्रंथ है। टेकुमल्ल अच्युत राव ने तेलुगु-साहित्य के स्वर्ण-युग विजयनगर साम्राज्य के समय पर शोध-कार्य किया और “विजयनगर-साम्राज्य-मंदलि-आंध्र-वाङ्मय—चरित्र” नामक आलोचनात्मक ग्रंथ प्रस्तुत किया। श्री गोब्बूरि वेंकटानंद राघवराव जी ने गद्य-साहित्य पर “आंध्र-गद्य-वाङ्मय-चरित्र” लिखा। श्री भोगराजु नारायण मूर्ति ने “आंध्र-कवित्व चरित्र” नामक आलोचनात्मक ग्रंथ लिखा। मद्रास विश्वविद्यालय के तेलुगु-विभाग के अध्यक्ष श्री निडदवोलु वेंकटराव ने “तेलुगु-कवुल-चरित्र” , “आंध्र वचन (गद्य) वाङ्मयम्” और “दाक्षिणात्यांध्र साहित्य-चरित्र” की रचना की। तेलुगु समीक्षा-साहित्य को समृद्ध करने में श्री चागंटि शेपय्याजी का नाम प्रमुख है। इन्होंने तेलुगु वाङ्मयम के समस्त कवियों का समय परिचय वृहत समीक्षा-ग्रंथ “आंध्र-कवितरंगिणि” में प्रस्तुत किया। श्री वीरेलिंगम् जी ने “तेलुगु-कवलु-चरित्र” नाम से तेलुगु कवियों का पूर्ण परिचय (इतिहास) तीन भागों में प्रकाशित किया। श्रीमती ऊटुकूरि लक्ष्मीकांतम्मा ने “आंध्र कवयित्रुलु” (आँध्र कवयित्रियाँ) नामक समीक्षा ग्रंथ लिखा। डॉ० नेलटूरि वेंकटरमणय्या ने मथुरा और तंजाऊर के नायक राजाओं पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए उस युग की समस्त साहित्यिक प्रवृत्तियों पर “दक्षिण आंध्र-वाङ्मय-चरित्र” की रचना की। इस आलोचनात्मक कृति से उस युग के अज्ञात ग्रंथों और कवियों का परिचय आंध्र जगत से हुआ। स्वर्गीय श्री सुरवरम् प्रताप रेड्डी ने आंध्र-वासियों के सामाजिक जीवन पर “अन्ध्रुल सांधिक चरित्र” नामक एक शबृह्त्त ग्रंथ लिखा। साथ ही इनका “रामायण-विशेषालु” एक अत्युत्तम तथा प्रमाणिक आलोचनात्मक ग्रंथ है। श्री जनमंचि शेषाद्रि शर्मा ने “मनुचरित्र-हृदयाविष्करण” नामक समीक्षात्मक ग्रंथ लिखा। श्री हरि आदि शेषुवुजी ने “जनपदगेय विमर्श”(लोकगीतों की समीक्षा) नाम से एक आलोचनात्मक ग्रंथ लिखा। इसी प्रकार श्री मट्नूरि संगमेशमजी ने भी “तेलुगु साहित्य में हास्यरस” नामक एक समीक्षात्मक ग्रंथ लिखा। तेलुगु-साहित्य के अनुसंधानकर्ताओं में श्री वेटूरि प्रभाकर शास्त्री, श्री कोमर्राजु लक्ष्मणराव पंतुलु, श्री मल्लादि रामकृष्ण शास्त्री, श्री राल्लपल्ली अनंत कृष्ण शर्मा, श्री नेलटूरि वेंकट रमणय्या, श्री पिंगलि लक्ष्मीकांतम् विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। श्री प्रभाकर शास्त्री का “कवि-सार्वभौम”, श्रीनाथम् रचित “श्रृंगार-नैषध” और “श्रृंगार श्रीनाथम्” तथा श्री अनंतकृष्ण शर्मा का “वेमना” उत्तम कोटि के समीक्षा-ग्रंथ हैं। उन्होंने नाटक-साहित्य पर जो भाषण दिये (नाटकोपन्यासमुलु), भी समीक्षा-साहित्य में स्थायी मूल्य रखते हैं। श्री पुट्टपर्ति नारायणचार्युलु “प्रबंध-नायिकलु” का भी आलोचना क्षेत्र में महत्व हैं। तेलुगु साहित्य में प्राचीन काव्यशास्त्रों के तत्वों जैसे वस्तु, रस, अलंकार आदि पर भी महत्वपूर्ण समीक्षात्मक ग्रंथों की रचना हुई जिसमें प्रमुख है - श्री बज्झल सीतारामस्वामी शास्त्री कृत “वसुचरित्र-विमर्शनम्”, श्री भूपति लक्ष्मीनारायण रचित “भारतमु-तिक्कन रचना”, श्री वेमूरिवेंकट रामनाथम् कृत “सौंदर्य समीक्षा”, श्री कोराड रामकृष्णय्या प्रणीत “आंध्र भारत-कविता-विमर्शनम्”, श्री गडियारम् वेंकटशास्त्रीकृत “श्री नाथुनि-कविता-साम्राज्यमु” और श्री दुव्वूरि रामिरेड्डी के “साहित्योपन्यासमुलु” तेलुगु-आलोचना साहित्य के रत्न कहे जा सकते हैं। श्री कोराड रामकृष्णय्याजी “भाषोत्पतिक्रमम्” एवं “संधि” आलोचनात्मक ग्रंथ की रचना की।[9] तेलुगु के आधुनिक साहित्य पर भी समीक्षा ग्रंथ निकल रहे हैं। श्री कुरुगंटि सीतारामय्या और श्री पिल्ललमर्रि हनुमंत राव ने “नव्ययान्ध्र-साहित्य-वीथुलु” (आधुनिक तेलुगु-साहित्य की रीतियां), श्री देवलपल्ली रामानुजरावजी ने “नव्य-कविता-निरांजनम्” , श्री उमाकांतम् कवि ने “नेटिकालपु कवित्वम्” (आज की कविता), श्री जयंती रामय्या पंतुलु ने “आधुनिक आंध्र-विकास वैखरि” , श्री जोन्नलगड्ड सत्यनारायणमूर्ति ने “साहित्यतत्व-विमर्श” , श्री जी० वी० कृष्णरावजी ने “काव्य जगतु” और श्री वसवराजु अप्पारावजी ने “आंध्र-कवित्व-चरित्र” नाम से आधुनिक कविता पर श्रेष्ठ समीक्षा-ग्रंथ प्रस्तुत किये हैं। गद्य-साहित्य की विभिन्न विधाओं पर भी अनेक आलोचनात्मक ग्रंथों की रचना हुई है जिसमें महत्वपूर्ण है श्री मोहम्मद कासिम खाँ की “कथानिका-रचना”(कहानी की रचना), श्री गोर्रेपांटि वेंकट सुब्बय्या ने “अक्षरामिषेकम्” , श्री शोंठि कृष्णमूर्ति ने “कथलु व्रायडमेला” (कहानी कैसे लिखी जाय), श्रीनिवास चक्रवर्ती द्वारा रचित “नाट्य-शाला-नटना” तथा श्री पुराणम् सूरि शास्त्रीकृत “नाट्योत्पलम्” , “रूपक रसालमु” और “विमर्शक पारिजातम्” प्रमुख है। तेलुगु भाषा-समिति “विज्ञान सर्वस्वमु” नाम से संपूर्ण “विश्वकोश”(12 भागों में) प्रकाशित करने में संलग्न है उनमें “तेलुगु संस्कृति तथा विश्वसाहिती” नामक भाग तेलुगु समालोचना की निधि कहा जा सकता है। तेलुगु-साहित्य, इन गवेषणात्मक, परिचयात्मक एवं प्रामाणिक ग्रंथों पर गर्व कर सकता है। |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार हम देखते है कि हिन्दी तेलुगु दोनों साहित्य में आलोचना की अपनी-अपनी समृद्ध परंपरा है और अपने भाषायी क्षेत्रों में दोनों का अपना महत्व है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डॉ० गणपतिचंद्रगुप्त, ‘हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ 12वां संस्करण पृष्ठ सं०-474 2. डॉ० नागेंद्र, डॉ० हरदयाल, ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ 40वां संस्करण, पृष्ठ सं०-505 3. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ , 27वां संस्करण, पृष्ठ सं०-268 4. नामवर सिंह, रामचन्द्र शुक्ल संचयन, साहित्य अकादमी, सं०-1993 पृष्ठ सं० 8-9 5. नामवर सिंह, छायावाद, राजकमल प्रकाशन, 21वां संस्करण-2019, पृष्ठ सं०-12-13 6. डॉ० नगेन्द्र, डॉ० हरदयाल ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ , 40वां संस्करण, पृष्ठ सं०-786 7. लेखक, श्री बालशौरि रेड्डी, “तेलुगु साहित्य का इतिहास” , हिन्दी समिति, द्वितीय संस्करण, 1972, पृष्ठ सं०-283 8. वही, पृष्ठ – 284 9. वही, पृष्ठ – 287 |