ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- XII March  - 2024
Anthology The Research

प्रेमचंद-साहित्य और हिंदी सिनेमा का अन्तःसम्बन्ध

Interrelationship between Premchand-Literature and Hindi Cinema
Paper Id :  18816   Submission Date :  2024-03-13   Acceptance Date :  2024-03-22   Publication Date :  2024-03-25
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DOI:10.5281/zenodo.12577932
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सुमिता चट्टोराज
एसोसिएट प्रोफेसर, विभागध्यक्षा
हिन्दी विभाग
महाराजा मनिंद्र चन्द्र कॉलेज
कोलकाता,पश्चिम बंगाल, भारत
सारांश

प्रेमचंद का साहित्य पाठकों की भावनाओं को जाग्रत करता है और सिनेमा भी दर्शक समाज के साथ अपना भावात्मक संबंध स्थापित करता है और जब प्रेमचंद की रचनाएं सत्य-शिव-सुंदरम को फिल्म के जरिए हमारे सामने लाती हैं तब सामाजिक जीवन का सत्य जिसमे कष्ट भी है, समस्याएं भी, आनंद भी, संघर्ष भी, जीने की इच्छा, ये सब हमें चरित्रों के माध्यम से प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों के पन्नों से निकलकर फिल्म की स्क्रीन पर जीवंत हो उठते हैं। तब प्रेमचंद का पराधीन, निर्धन, निरक्षर भारत का सच नजदीक से दिखाई देने लगता है। प्रेमचंद अपने साहित्य में साम्राज्यवाद, सामंतवाद, उपनिवेशवाद, जमींदारी-प्रथा, महाजनी-प्रथा, जातिवाद, पूंजीवाद के जिस भयंकर और कुत्सित रूप का विरोध और प्रतिरोध कर रहे थे वही जब सन् 1934 में निर्देशक मोहन भवनानी के द्वारा मिल मजदूरके नाम से या सन् 1963 में त्रिलोक जेटली के निर्देशन पर गोदानके नाम से या सन् 1959 में दो बैलों की कथापर आधारित हीरा मोतीफिल्म के नाम से या सन् 1977 में सत्यजीत राय के निर्देशन पर “शतरंज के खिलाड़ी” फिल्म के नाम से या सन् 1977 में मृणाल सेन के निर्देशन पर तेलुगु भाषा में ‘कफ़न’ पर आधारित ‘ओका उरी की कथा’ फिल्म के नाम से या सन् 1981 में सत्यजीत रॉय के निर्देशन पर ‘सद्गति’ टेलीफिल्म के नाम से या सन् 1938 में कृष्णस्वामी सुब्रमण्यम के निर्देशन पर ‘सेवा सदन’ फिल्म के नाम से फिल्माया गया तब प्रेमचंद द्वारा निर्मित चरित्र मानो और ज्वलंत होकर हमारे सामने बोलने लगे। सिनेमा की शक्ति से प्रेमचंद को इन्कार नहीं था। वे सिर्फ अच्छे विचारों और आदर्शों का प्रचार-प्रसार चाहते थे चाहे वह साहित्य हो या सिनेमा। एकतरफ जहां वे ‘कजली’ जैसे मनोरंजन करने वाली पुस्तक की कटु आलोचना करते हैं और उसे साहित्य में शामिल नहीं करते हैं वहीँ दूसरी तरफ वे उस सिनेमा की शक्ति को स्वीकार करते हैं जो आदर्श चरित्रों की सृष्टि करने में सक्षम हो। वस्तुतः प्रेमचंद ने अपने समय के सामाजिक - राजनीतिक - सांस्कृतिक विघटन को साहित्य के माध्यम से पहचानने की कोशिश की है। । मनुष्योन्मुखी संवेदना का विकास उनकी रचनाओं का मूल विषय है जिसके परिणामस्वरूप उनका सौन्दर्यबोध और उनकी सौन्दर्य - दृष्टि उनके साहित्य - चिन्तन के स्तर पर फलीभूत होती दिखाई देती है। मनुष्य के संबंधों को मजबूत बनाना प्रेमचंद के रचना - कार्य का ध्येय रहा है और जब यह सिनेमा के साथ जुड़‌कर सामने आता है तब विघटित समय का प्रत्येक मोड़ जीवंत होकर हमारे रोम-रोम को स्पर्श करता है और हम उसी दिशा में उनके आदर्शोन्मुखी और यथार्थोंमुखी चरित्रों की और उन्मुख होते हुए भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत का पुनर्मूल्यांकन और पुनर्पाठ करने लगते हैं और प्रेमचंद द्वारा दिये गये नये सौन्दर्यशास्त्रीय आयाम से जुड़ जाते हैं।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Premchand's literature awakens the emotions of the readers and cinema also establishes an emotional connection with the audience and when Premchand's works bring Satya Shiv Sundaram in front of us through the film, then the truth of social life which includes pain, problems, joy, struggle, the desire to live, all these come alive on the screen of the film through the characters of Premchand's stories and novels. The truth of Premchand's enslaved, poor, illiterate India becomes visible up close. When the same terrible and ugly forms of imperialism, feudalism, colonialism, landlordism, money lending system, casteism and capitalism that Premchand was opposing and resisting in his literature were filmed in 1934 by director Mohan Bhavnani under the name of 'Mill Mazdoor' or in 1963 under the direction of Shrilok Jetley under the name of 'Godaan' or in 1959 under the name of 'Heera Moti' based on 'Do Bailon Ki Katha' or in 1977 under the direction of Satyajit Ray under the name of 'Shatranj Ke Khidali' or in 1977 under the direction of Mrinal Sen under the name of 'Oka Uri Ki Katha' in Telugu language based on 'Kafan' or in 1981 under the name of 'Sadgati' under the direction of Satyajit Ray or in 1938 under the name of 'Seva Sadan', then the characters created by Premchand seemed to speak to us more vividly. Premchand did not deny the power of cinema. He only wanted to propagate good thoughts and ideals, whether it is literature or cinema. On one hand, he harshly criticizes books like 'Kajal' which are meant for entertainment and does not include them in literature, on the other hand, he accepts the power of cinema which is capable of creating ideal characters. In fact, Premchand has tried to show the social, political and cultural disintegration of his time through literature. The development of human-oriented sensitivity is the main theme of his works, as a result of which his sense of beauty and his aesthetic vision are seen to be fruitful at the level of his literary thinking. Strengthening human relationships has been the aim of Premchand's works and when it comes in conjunction with cinema, every turn of the disrupted time comes alive and touches every pore of our being and we, while turning towards his idealistic and realistic characters in the same direction, start re-evaluating and re-reading the historical and cultural heritage of India and get connected to the new aesthetic dimension given by Premchand.
मुख्य शब्द यथार्थवाद, आदर्शवाद, सामंतवाद, उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, महाजनी-प्रथा, जमीन्दारी-प्रथा, प्रतिबद्ध, वितान, जातिवाद, दृश्य - श्रव्य माध्यम, कल्पनाशीलता, प्रतिबंधित, निर्देशित, संलाप, कथा-विन्यास, पात्र-योजना, प्रतिबिम्ब, दलित, उत्पीड़न, प्रतिरोध, फिल्मांकन, बौद्धिक, प्रगतिशील, स्त्री-मनोविज्ञान।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Realism, idealism, feudalism, colonialism, capitalism, money lending system, landlordism system, committed, expanse, casteism, audio-visual medium, imagination, restricted, directed, dialogue, story-setting, character-planning, reflection, dalit, oppression, resistance, filming, intellectual, progressive, women-psychology.
प्रस्तावना

'सेवासदन' में सुमन की दर्दभरी कथा से अपनी उपन्यास-यात्रा शुरू करने वाले कथा-सम्राट प्रेमचंद गोदान' तक आते-आते जो पड़ाव तय करते हैं या यों कहे कि जीवन-यथार्थ की जिन इकाइयों की रचना करते हैं उनसे तत्कालीन भारत के मध्यवर्गीय परिवारों की समस्याएँ सामने आती हैं और यही जब सिनेमा की स्क्रीन पर दिखाई देती हैं तो समाज में अंतर्विरोधों के बीच जीते और संघर्ष करते तमाम लोगों के जीवन की सच्चाई और उनका जीवन- यथार्थ उभरकर आँखों के सामने दिखाई देता है। उपन्यास कहानी का सच स्क्रीन पर आकर मानवीय सच में बदल जाता है और इसी मानवीय सच में स्त्री-पुरुष की वह दुनिया है जिसमें वे निरंतर प्रताड़ित होते दिखाई देते हैं और अनवरत पिसते-पिसते एकदिन मुक्ति की ओर उन्मुख होते हैं। गोदान का किसान होरी की वंचना का उसके बेटे गोबर का मजदूर बनने के सपने में रूपान्तरण इसका ज्वलंत उदाहरण है। ‘पूस की रात' में हल्कू का अपने खेत को नीलगाय द्वारा चरते देखकर भी उसे बचाने न जाना खेती और जमीन्दारी प्रथा के प्रति न सिर्फ उसके निःशब्द विद्रोह को दर्शाता है वरन् खेती से मुक्ति पाने के उसके विचारों को स्पष्ट करता है। हिन्दी सिनेमा ने जब अपनी शैली में प्रेमचंद के पात्रों के इन्हीं विचारों का विन्यास किया तब सेवासदन के स्त्री के आन्दोलीकृत उद्‌गार सिनेमा की भाषा में कभी व्यक्त हुए तो कभी गबन की स्त्री की अनुभूति में अंकित हुई है। जिस बंद सामंतीय समाज का वर्णन प्रेमचंद ने 'शतरंज के खिलाड़ी' में किया है वही सत्यजीत राय की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' में प्राणवन्त होकर सभी दर्शकों के सामने आता है चाहे वह कोई भी भाषा-भाषी क्यों न हो। सामंतीय संस्कृति का संकट सिनेमा की स्क्रीन पर और मुखारित हो उठता है। प्रेमचंद के 'गबन' में जिस मध्यवर्गीय रुझान को उसकी मानसिक गुलामी के रूप में देखा गया है वहीं सिनेमा के पर्दे पर आभूषण की समस्या के तहत देखा गया जब आभूषण प्राप्त करने के लिए जालपा का जी ललचाया किन्तु अन्त में जब वह बदलती है तो मानसिक गुलामी से मुक्त हो जाती है। वर्ग - संघर्ष, जाति-प्रथा, कुसंस्कार, ब्रिटीश नौकरशाही का तानाशाही स्वभाव, भारतीय किसान का नियतिवाद में विश्वास इत्यादि कई विषय प्रेमचंद्र के कथा साहित्य से होकर सिनेमा में प्रतिबिम्बित हुए हैं जो प्रेमचंद के औपनिवेशिक भारतवर्ष के सच का परिचय देता है। प्रेमचंद की कहानी - संसार का उत्तरकाल यथार्थ से समझौता नहीं करता जिसका जीवंत उदाहरण ‘कफन' है। इसी कहानी पर आधारित मृणाल सेन की सिनेमा ओका उरी कथा है’ में जब प्रायः सभी पात्र यथार्थ के बहुरंगी चित्र प्रस्तुत करते नजर आते हैं। तब प्रेमचंद का यह विचार कि जाति, धर्म, अर्थ के बल पर एक सीमित वर्ग हमेशा शक्तिशाली होता है और समाज का दूसरा वर्ग इन सब के न होने के कारण कमजोर होता है, और स्पष्ट हो जाता है। सामाजिक व्यवस्था की यह त्रासदी फिल्म की स्क्रीन पर मजबूत होकर सामने आती है। प्रेमचंद का वर्ग-सत्य पर आधारित सौन्दर्य - दृष्टि और मृणाल सेन का सिनेमेटोग्राफी एक बिन्दु पर आकर मिल जाते हैं जब धूप, बारिश, लू, सर्दी में अनाज पैदा करने वाले घिसू और माधव जैसे किसान जो खुद भूखे, निर्बल बने रहते हैं, जमीन्दारी प्रथा से प्रताड़ित होकर समाज में कामचोर बनने के लिए बाध्य हो जाते हैं। किसान की मजबूरी की यह त्रासदी सिनेमा की स्क्रीन पर ज्वलंत हो जाती है। इस तरह जब कहानीकार और सिनेमा के निर्देशक मिलकर समाज के विघटन को दिखाते हैं तब यह कथा इतिहास में अमर बन जाती है। वस्तुतः शोषित समाज को बदलने की इच्छा रखने वाले दोनों कलाकार चाहे वह कथाकार हो या कलाकार या फिल्म के निर्देशक, पूँजीवादी- सामंतवादी - महाजनी - जमीन्दारी समाज के विकल्प के रूप में जनतान्त्रिक समाज को दूढ़ते हैं और जनवादी संस्कृति के लिए संघर्ष करते हैं। प्रेमचंद की रचनाएँ फिल्म की स्क्रीन पर इसलिए भी सफल और साकार हो पायी हैं क्योंकि उनकी रचनाओं को फिल्म के निर्देशकों ने जनोन्मुखी सौन्दर्य-चिन्तन के नजरिये से देखने की कोशिश की है। ‘बूढी काकी' पर जो टी.वी. सिरियल बनी उसमें भी प्रेमचंद का यथार्थबोध सामने आया जब सिरियलकर्ता ने वृद्धजनों की कठिनाइयों को उसी गंभीरता से उभारा जिस गंभीरता से प्रेमचंद ने इसे अपनी कहानी में इसे विषय बनाया। 'बड़े घर की बेटी’ सीरियल में ‘आनंदी’ जैसे स्त्री पात्र को अपनी अस्मिता से परिचित और विकल्पों के प्रति सचेत उसी रूप में दिखाया गया है जिस रूप में प्रेमचंद ने अपनी कहानी में स्त्री-प्रश्न को उठाया है। रईसों की क्रियाहीनता और गतिहीनता पर तंज कसते हुए प्रेमचंद लिखते हैं 'शतरंज के खिलाड़ी' जब सत्यजीत राय के निर्देशन पर इस पर फिल्म बनी तो दोनों ही इसमें ‘कला कला के लिए' सिद्धांत का खण्डन करते नजर आए। दोनों ने ही इसमें बताया है कि मिर्जा अली और मीर रोशन की निष्क्रियता सामन्तवादी संस्कृति की सुरक्षा से उद्‌भुत है। इस प्रकार एक तरफ अपनी रचनाओं के साथ खड़े प्रेमचंद्रन और दूसरी तरफ खड़े हिन्दी फिल्म के निर्देशक सत्यजीत रे दोनों ने मिलकर इस सृष्टि को सामाजिक जीवन- यथार्थ से जोड़‌कर शाश्वत बनाते हुए सत्य-शिव- सौन्दर्य से जोड़ दिया है।

अध्ययन का उद्देश्य

इस शोध आलेख का यही उद्देश्य है कि हिन्दी फिल्म के साथ प्रेमचंद के साहित्य का जो संबंध लगातार रहा उससे पाठकों को रूबरू करवाना और यह बताना कि किसतरह प्रेमचंद की सृजनशीलता के अनुरूप उनकी कथा हिन्दी फिल्म में ढलती गई और किस तरह हिन्दी इतर भाषा भाषी लोग फिल्म के जरिए प्रेमचंद के कथा-साहित्य से परिचित होते चले गए। साथ ही मानवीय नैतिक मूल्यों से जुड़ते चले गए। पाठकों को यह बताना भी लक्ष्य रहा कि किस प्रकार सिनेमा की स्क्रीन पर जाकर प्रेमचंद के चरित्र जीवंत हो उठते हैं और प्रेमचंद के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हैं। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों पर बनी फिल्मों ने समाज में अलग प्रभाव डाला चाहे वह सद्‌गति' पर बनी फिल्म हो या ‘शतरंज के खिलाड़ी पर' बार-बार प्रेमचंद - साहित्य ने फिल्मी दुनिया को प्रोत्साहित किया। फिल्म ही है जिसके माध्यम से हिन्दी इतर भाषा भाषी दर्शक प्रेमचंद साहित्य को जानने लगे, उनकी कहानियों और उपन्यासों को समझने लगे और जीवन की वास्तविकता से अवगत होने लगे तथा प्रेमचंद के भारतवर्ष की सच्चाई को गौर करने लगे ।

साहित्यावलोकन

इस शोध आलेख में अवलोकन पद्धति का सहारा लिया गया है। 'प्रेमचंद एक पुनर्पाठ' में डॉ० राकेश कुमार ने 'कहानी विधा' में प्रेमचंद के अवदान पर गंभीर विचार विमर्श करते हुए यह बताया है कि प्रेमचंद अपने समय में जिन औपनिवेशिक चुनौतियों से टकरा रहे थे, सामंतवाद, पूँजीवाद, सांप्रदायिकता, जमीन्दारी प्रथा, महाजनी-सभ्यता इत्यादि समस्याएँ जो उनके सामने खड़ीं थी, उन्हें वे अपनी रचनाओं में उठाते हैं और उनका समाधान भी बताते हैं तथा वे सिर्फ इन पर गंभीरतापूर्वक विचार या पुनर्विचार ही नहीं करते वरन् विचारात्मक मसलों को खंगालकर नए परिप्रेक्ष्य में विकल्प - सूत्र भी देते हैं। 'प्रेमचंद और सिनेमा' शीर्षक लेख में संदीप कुमार ने विस्तार से उनकी रचनाओं का सिनेमा के साथ सम्बन्ध को उजागर किया है। इन्होंने प्रेमचंद के उपन्यास - गोदान, गबन, सेवासदन इत्यादि पर बनायी गई फिल्म पर विस्तार से चर्चा की और साथ ही उनकी कहानियों जैसे शतरंज के खिलाड़ी, सद्‌गति, कफ़न इत्यादि की फिल्मी सफर के साथ-साथ टेलीविजन पर धारावाहिकों और टेलीफिल्म्स की भी चर्चा की। इसी क्रम में इन्होंने गुलजार की ‘तहरीर' जैसे कार्यक्रम का जिक्र किया है। 'प्रेमचंद का साहित्य और सत्यजीत रे का सिनेमा : शब्दों से उभरी सांकेतिकता का फिल्मांकन’ लेख में कृष्ण मुरारी ने स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से साहित्य का फिल्मांकन करने की विश्व में बनी लंबी परंपरा को समृद्ध बनाया है। साहित्य का शिल्प और सिनेमा की टाइमिंग पर चर्चा करते हुए वे प्रेमचंद की कहानी 'सदगति' की सांकेतिकता और इसके फिल्मांकन को भी उठाते हैं और जातिवाद जैसे भयंकर सामाजिक समस्या को उखाड़ फेंकने की प्रेमचंद की सोच को साधुवाद देते हैं। उनका यह भी कहना है कि प्रेमचंद और सत्यजीत रे इन दोनों की कला में स्पष्टता, नाटकीयता, चित्रण और सांकेतिकता का मिश्रण दिखाई देता है। इन्होंने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की विवरणात्मकता और सांकेतिकता की बात को भी उठाया है और फिल्मी पर्दे पर पड़ने वाले प्रेमचंद के कथा - साहित्य के प्रभाव को भी दिखाया है।

‘प्रेमचंद की विरासत’ में राजेन्द्र यादव ने प्रेमचंद की विरासत के संदर्भ में उनकी संवेदना और दृष्टि को स्पष्ट किया है और साथ ही उन्होंने प्रेमचंद के रचना - संसार की विशेषताओं को स्पष्ट करने के संदर्भ में उनकी रचनाओं की प्रसंगिकता पर प्रकाश डाला है एवं प्रेमचंद के साहित्य का हिन्दी सिनेमा से जो रिश्ता बना, उस पर भी नजर डाला है। ए अरविंदाक्षन ने 'भारतीय कथाकार प्रेमचंद' में प्रेमचंद की कहानियों का अन्तर्जगत तो खंगालने की कोशिश की है साथ ही उन्होंने प्रेमचंद के साहित्य में उठाये गए स्त्री, दलित, किसान इत्यादि के दर्द को रेखांकित किया है। प्रेमचंद के मनुष्योन्मुख सौन्दर्य पक्ष के कई आयामों को भी लेखक ने दिखाया है। सरिता राम ने ‘उपन्यासकार प्रेमचंद की सामाजिक चिन्ता’ में प्रेमचंद के साहित्य में उभरने वाले कई मुद्‌दो जैसे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन और ब्रिटिश शासन, किसान जीवन की त्रासदी, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, नारी मुक्ति आंदोलन, नारी-पुरुष संबंध इत्यादि पर विस्तार से आलोकपात किया है। इन्द्रनाथ मदान ने 'प्रेमचंद एक विवेचन’ में यह बताया कि प्रेमचंद ने मध्यवर्ग के दृष्टिकोण और किसानों की मानसिकता को वाणी दी है खासकर उस समय जब देश में क्रांतिकारी बदलाव हो रहे थे। उन्होंने यह भी बताया कि आर्थिक शोषण और सामाजिक अत्याचार के विरुद्ध किस तरह कृषक वर्ग एक जुट हो रहा था। 'प्रेमचंद और उनका युग’ में रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद के कथा- साहित्य का विश्लेषण करने के क्रम में प्रेमचंद को भारत की नई राष्ट्रीय और जनवादी चेतना का प्रतिनिधि साहित्यकार बताया। कलम का सिपाही कहलाने वाले प्रेमचंद को युग निर्माता घोषित करते हुए लेखक ने प्रेमचंद के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला और प्रेमचंद द्वारा उठाये गये सवालों तथा सामाजिक समस्याओं पर भी सम्यक दृष्टि डाली । नन्द दुलारे वाजपेयी ने 'प्रेमचंद्र एक साहित्यिक विवेचन’ में प्रेमचंद के कथा-साहित्य के वैशिष्ट्यों का विश्लेषण करते हुए उनके उपन्यासों का ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय विवेचन किया है। सत्येन्द्र ने ‘प्रेमचंद' में प्रेमचंद की यथार्थवादी जीवन-दृष्टि को स्पष्ट करते हुए उनके समाजवादी विचारों पर प्रकाश डाला है। संपादक ने यह भी बताया कि प्रेमचंद ने अपने देखे हुए जीवन को ही चित्रित किया है।

मुख्य पाठ

प्रेमचंद समाज के लोगों के प्रति प्रतिबद्ध हैं, उनसे आबद्ध हैं, सम्बद्ध हैं। वे एक ऐसे बदलते समय के कथाकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में समय के बदलते रुख को नजर में रखते हुए नए भावों और विचारों के साथ-साथ पात्रों को जन्म दिया है। उनकी कहानियों और उपन्यासों में बीसवीं सदी का वह भारतवर्ष दिखता है जो पराधीन हो, गरीबी-अशिक्षा से ग्रसित हो, कुसंस्कार और जातिवाद से आछन्न हो, किसानों और मजदूरों के शोषण से पीड़ित हो तथा साम्राज्यवाद, जमींदारी-प्रथा, पूंजीवाद, सामंतवाद, उपनिवेशवाद का शिकार हो। उनका पूरा का पूरा साहित्य ऐसे हिन्दुस्तान का जीता – जागता प्रमाणिक तस्वीर है । डॉ. राकेश कुमार के अनुसार, “प्रेमचंद हाशियों के दर्द और आक्रोश को वाणी देते हैं।“[1] बदलते समय के बदलते यथार्थ को प्रस्तुत करने के लिए प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों को मानवीय जिंदगी के बेहतर सच से जोड़ा और देश के लोगों की इच्छा – आकांक्षा, विरोध- प्रतिरोध, संघर्ष, त्रासदी, विडम्बना इन सबको एक विराट सन्दर्भ में बृहत् वितान के साथ खड़ा कर दिया है। प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य वह है जो ऊँचे और पवित्र भावों को जगाये, जो सुन्दरम को हमारे सामने लाये।

सिनेमा एक ऐसा दृश्य-श्रृव्य माध्यम है जिसमें यथार्थ को हुबहू प्रस्तुत किया जा सकता है, इस कलाकर्म के अंतर्गत फिल्म भौतिक दुनिया के यथार्थ को प्रस्तुत करती है। प्रेमचंद के अनुसार साहित्य भावों को जगाता है, सिनेमा भी भावों को जगाता है, इसलिए वह भी साहित्य है अब प्रश्न यह नहीं कि प्रेमचंद के लेखकीय व्यक्तित्व ने मुंबई की फ़िल्मी दुनिया के फिल्म निर्देशकों द्वारा उनकी कथाओं के अंतर्निहित भावों को तोड़ने के विचार को स्वीकार किया हो या नहीं वरन् प्रश्न यह है कि क्या प्रेमचंद फिल्म में अपनी कलात्मक संभावनाओं को, अपने उद्देश्य के अनुरूप अपनी भावनाओं को ढालने में समर्थ हुए थे या नहीं। क्या वे अपनी सृजनात्मक कल्पनाशीलता के अनुरूप अपनी कथा को फिल्म में ढाल पाये ? उत्तर है हाँ । इसका सबसे बड़ा उदाहरण उनकी पहली फिल्म 'मिल मजदूर है’ जो मोहन भवनानी के निर्देशन में सन् 1934 में बनी और जिसका प्रभाव इसतरह मजदूरों पर पड़ा कि वे मालिकों का विरोध करने लगे और अपने पारिश्रमिक के लिए आंदोलन खड़ा किए जिसके कारण इस फिल्म को प्रतिबंधित किया गया। संदीप कुमार के शब्दों में “इस फिल्म को इस प्रकार फिल्माया गया कि जीवन्तता साफ़ झलकती रही क्योंकि फिल्म में मजदूरों की समस्या, उन पर होने वाले अत्याचार--इत्यादि का चित्रण किया गया है।"[2] अगर समाज पर इस फिल्म का गहरा असर न पड़ता तो इसे प्रतिबंधित न करना पड़ता। इसका प्रतिबंधित होना साबित करता है कि प्रेमचंद मजदूरों के साथ इसके जरिए संप्रेषण कर पाये थे। प्रेमचंद का मिल मजदूर जैसी फिल्म से जुड़‌ना उनके वैचारिक और साहित्यिक रुझानों के अनुरूप था। इस फिल्म की अच्छी रिव्यू अमेरीका की मशहूर पत्रिका 'एशिया’ में निकली थी।

यद्यपि फिल्म जिस यथार्थ को कैमरा की आँख से जैसा का तैसा प्रस्तुत कर देती है, उसमें कलाकार अथवा साहित्यकार की कल्पना के लिए ज्यादा अवसर नहीं होता क्योंकि निर्देशक, साहित्यकार की कथा का काट-छांट कर सिनेमा की स्क्रीन पर प्रस्तुत करता है फिर भी यह कहना ही पड़ेगा कि प्रेमचंद का साहित्य एक ऐसा साहित्य है जिसके पात्र, कथानक, संलाप सिनेमा की स्क्रीन पर जाकर और जीवंत और सजीव हो उठते हैं। खासकर आज सिनेमा माध्यम में जो तकनीकी परिवर्तन हुए उसके परिणामस्वरूप यथार्थ का अनुकरण करने की विवशता सिनेमा के लिए जरूरी नहीं रही और इसीलिए प्रेमचंद के यथार्थ को उनकी भावनाओं और उद्देश्य के अनुरूप ढालने में कोई भी मुश्किल नहीं है। प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों पर जब फिल्म बनी तब इन उपन्यासों और कहानियों ने यह साबित कर दिया कि फिल्म माध्यम का अपने समय और समाज से गहरा संबंध होता है। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों पर बनी फिल्म देखकर पता ही नहीं चलता कि उनका साहित्य फिल्म की कहानी में शामिल हुआ या फिल्म की कहानी उनके साहित्य में। सन् 1981 में ‘सद्‌गति' पर सत्यजीत रे के निर्देशन पर बनी फिल्म ने एक ओर जहाँ यह स्पष्ट कर दिया कि फिल्म में भी विचारधारा निर्णायक होती है तो दूसरी ओर प्रेमचंद ने 'सद्‌गति' कहानी लिखकर यह प्रमाणित कर दिया कि साहित्य की वैचारिकी भी निर्णायक भूमिका निभाती है। कृष्ण मुरारी के अनुसार “सद्‌गति को सत्यजीत रे ने काफी सटीकता से फिल्माया है, उन्होंने कहानी में जरुर कुछ बदलाव किये लेकिन उनसे कहानी बदरूप नहीं हुई बल्कि कहानी के चरित्रों और शब्दों को सजीवता और नयापन ही मिला।[3] राजेन्द्र यादव 'प्रेमचंद की विरासत' में लिखते हैं कि और अगर बात प्रेमचंद के सरोकार, रवैये और यथार्थ दृष्टि की ही है, तो मेरा सचमुच विश्वास है कि नगर - कथाकार ने अपने आसपास को जिस गहराई और विविधता में देखा है, संबंधों, सन्दर्भों और अस्तित्व की जिन जटिलताओं भरी स्थितियों में अपने समय के आदमी को पकड़ा है, वैसा शायद विषय और क्षेत्र को ही प्रेमचंद की विरासत का दावा करने वाले लेखकों ने नहीं      किया।“[4]

लेखक प्रेमचंद का साहित्य जहां समाज को प्रभावित करता है वहाँ उनका साहित्य फिल्म की दुनिया को भी प्रेरित करता है। भले ही प्रेमचंद ने यह कहा कि “साहित्य दूध होने का दाबेदार है, सिनेमा ताड़ी या शराब की भूख को शांत करता है" पर यह भी सच है कि उनके उपन्यासों और कहानियों पर लगातार फिल्म बनती गई। प्रेमचंद के कथा - विन्यास, घटनावली, पात्र-योजना, संलाप इत्यादि की शैली और कला ने प्रेमचंद के यथार्थ को उनके उद्देश्यों और सर्जनात्मक क्षमताओं के अनुरूप पेश करने की अनंत संभावनाओं को फिल्म में जन्म दिया जो पहली बार हिन्दी साहित्य के लिए नई घटना थी। प्रेमचंद ने समाज जीवन की वास्तविकता का सृजन शक्ति के द्वारा फिल्म में प्रलेखन किया है, नकल नहीं। उनके कलात्मक आख्यान ने फिल्म की स्क्रीन पर उनके यथार्थ को जिसतरह व्यक्त किया है वह सराहनीय है। इसका ज्वलंत उदाहरण है सन् 1977 में 'कफन' कहानी पर आधारित तेलुगु भाषा में मृणाल सेन द्वारा निर्देशित 'ओका उरी कथा है’ फिल्म है जिसमें बिंब और ध्वनि के संयोग से कथा के उस अन्तर्भाव को पेश किया गया है जिसे प्रेमचंद्र ने अपनी कहानी में पेश किया है। ए अरविंदाक्षन के अनुसार “कफ़न बहुविध शोषण के दलदल में जीने के लिए मजबूर हुए लोगों की कहानी है।"[5] प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों पर बनाई गई कथात्मक फिल्मों पर विचार करें तो हम प्रतिनिधिकता के सवाल को ज्यादा जटिल रूप में नहीं पाते क्योंकि प्रेमचंद के साहित्य के पात्र सिनेमा माध्यम के जरिए सीधे दर्शक से संपर्क और संप्रेषण करते हैं और फिल्म की हर शॉट्स के जरिए सार्थक अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। प्रेमचंद के साहित्य पर बनी फिल्म की शॉट्स महज दृश्य नहीं वरन् उसके पीछे लेखक प्रेमचंद और निर्देशक की विचारधारा है। जीवन का दृश्यात्मक अंकन करने की क्षमता से फिल्म के माध्यम से जीवन की कथा प्रस्तुत करना प्रेमचंद के साहित्य का वैशिष्ट्य है। जब प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासो में वर्णित जीवन सिर्फ शब्दों के माध्यम से ही नहीं वरन् दृश्यों और शब्दों के माध्यम से ग्रहण किया जाने लगा वैसे ही जैसे सबका वास्तविक जीवन होता है तब वह समाज में व्यापक स्तर तक फैलने लगा। सिनेमा के सफेद पर्दै पर जब हम प्रेमचंद द्वारा वर्णित जीवन को घटते  हुए पाते हैं तो जीवन और जीवंत हो उठता है। राजेश्वर गुरु के अनुसार “प्रेमचंद ने जीवन को अपने अनुभव की आँखों से देखा था और जीवन के सम्बन्ध में उनकी अपनी विशिष्ट धारणाएं थीं।“[6]

भले ही निर्देशक उसमे काल्पनिक कथा का थोड़ा सहारा ले लेकिन उसमें यथार्थ का प्रतिबिम्ब अवश्य रहता है। प्रेमचंद द्वारा वर्णित जीवन की सच्चाई जब स्क्रीन पर अभिव्यक्त होती है तो उनके दौर की आर्थिक-सामाजिक स्थिति, लोगों की जिन्दगी, लोगों की सफलताएँ-असफलताएं, संभावनाएं - असंभावनाएं, मनुष्य के साथ मनुष्य के रिश्ते, ये सभी अभिव्यक्त हो जाते हैं। सन् 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी' कहानी पर आधारित और सत्यजीत रे द्वारा निर्देशित फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का अंतिम दृश्य मूल कहानी से भले ही अलग हो परन्तु कहानी और फिल्म दोनों में ही समय और समाज को दिखाया गया है। मूल कहानी में प्रेमचंद अंतिम दृश्य में मीर और मिर्जा को शतरंज को लेकर एक दूसरे से भिड़‌ते दिखाते हैं और इस तरह सामंतवाद की मौत को दिखाते हैं पर सत्यजीत रे इन्हें दुबारा शतरंज खेलते हुए दिखाकर यह स्पष्ट करना चाहा कि सामंतवाद अभी भी मरा नहीं था। दोनों ने अपने-अपने तरीके से एक ऐतिहासिक सच्चाई को पेश किया है लेकिन इन दोनों के प्रयास ने कहानी के फिल्मांकन के ऐतिहासिक महत्त्व और उसके महाकाव्यात्मकता को अमर बना दिया है। चूंकि स्वतंत्र भारत में दलित-उत्पीड़न की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया था इसलिए सत्यजीत रे ने 'सद्‌गति' कहानी के यथार्थ को बनाए रखा है, मूल कथा का कोई परिवर्तन नहीं किए हैं, वे उतना ही परिवर्तन किये हैं जो एक माध्यम से दूसरे माध्यम में रूपान्तरण के लिए जरूरी है। इसमें दलितों का सामूहिक प्रतिरोध भी दिखाई देता है। जिस प्रासंगिक कथा को प्रेमचंद ने शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत किया उसी को सत्यजीत रे ने फिल्म के दृश्य के माध्यम से कहा। सरिता रॉय के अनुसार “प्रेमचंद की रचनाधर्मिता अत्यंत यथार्थ रूप में हमारे सामने आती   है।“[7] सन् 1919 में प्रकाशित उपन्यास 'सेवासदन' पर सन् 1934 में बनी फिल्म से प्रेमचंद भले ही असंतुष्ट रहे हों पर फिर से सन् 1938 में कृष्णस्वामी सुब्रमण्यम के निर्देशन पर सेवासदन पर फिल्म बनी (तमिल भाषा में) जो यह साबित करती है कि फिल्मी दुनिया में प्रेमचंद के साहित्य की लोकप्रियता बढ़‌ती जा रही थी। सिनेमा में उनके साहित्य का प्रभाव कम नहीं हुआ। यह सच है कि वे फिल्म वालों की व्यावसायिक मानसिकता से दुखी थे। प्रेमचंद'फिल्म और साहित्य' नामक अपने निबंध में लिखते हैं कि सिनेमा जिनके हाथ में है, उन्हें आप कुपात्र कहे, मैं तो उन्हें उसी तरह व्यापारी समझता हूँ, जैसे कोई दूसरा व्यापारी और व्यापारी का काम जन-रुचि का पथ-प्रदर्शन करना नहीं, धन कमाना है। (नरोत्तम प्रसाद नागर की चिट्ठी का जवाब देते हुए)

लेकिन इस सत्य को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि साहित्य के फिल्मांकन की लंबी परंपरा के यज्ञ में प्रेमचंद ने अपनी सृजनशीलता को समर्पित किया है। साहित्यिक कसौटी पर जीवन की समीक्षा, उसका विवेचन, समाज की हर परत का बारीकी से पड़ताल, समाज के अंतर्द्वंदों, उसकी बुनावट और बिखराव को देखना प्रेमचंद - साहित्य की विशेषताएँ है। रामविलास शर्मा के अनुसार वह एक यथार्थवादी कलाकार थे, वह जीवन की सच्चाई आंकना चाहते थे, जीवन के भ्रमों का खंडन करना चाहते थे।

प्रेमचंद के साहित्य को सिनेमाई परदे पर उतारना निर्देशकों के लिए चुनौती भरा काम भी था क्योंकि उनकी कहानी – उपन्यास की टाइमिंग को सिनेमा की टाइमिंग के साथ, उनकी कहानी - उपन्यास की क्राफ्ट को सिनेमा क्राफ्ट के साथ जोड़ना सहज न था। साथ ही उनके साहित्य के चरित्र को सिनेमा के बिंब और ध्वनि के साथ जोड़‌ना भी चुनौती भरा काम था। जैसे 'सद्‌गति' टेलीफिल्म (दूरदर्शन पर दिखाई गई) में सत्यजीत रे जो कुछ थोड़ा बद‌लाव किये उससे 'सदगति' के चरित्रों और शब्दों को सजीवता और नयापन ही मिले, मूल कहानी की कथा अक्षुण्ण बनी रही। इस कहानी के अंत में प्रेमचंद ने बहुत कम शब्दों में मार्मिक चित्रण किया है जो उनके कथाशिल्प की व्यापकता है पर सत्यजीत रे ने अंत के दृश्य में सांकेतिकता का सहारा लेकर नाटकीयता उत्पन्न किया है। प्रेमचंद के पौत्र आलोक राय ने लिखा है कि प्रेमचंद ने अपने समाज के साथ ऐसी आत्मीयता स्थापित की जो पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी बरकरार है प्रगतिशील लेखक संघ की पहली बैठक जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद्र ने की, वह एक ऐसा आंदोलन है जिसने भारतीय सिनेमा खास‌कर हिन्दी सिनेमा को गहराई से प्रभावित किया कयोंकि इसके उद्‌घाटन भाषण में प्रेमचंद ने कहा कि हमारा साहित्यिक स्वाद तेजी से परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। यह जीवन की वास्तविकताओं के साथ पकड़ में आ रहा है.....। यह उद्‌घोषणा साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, भीष्म साहनी आदि लेखकों और कवियों को प्रभावित किया जो सिनेमा जगत में इस प्रभाव के साथ प्रगतिशील दृष्टि को अपनाते हुए प्रवेश किये। आगे चलकर इसी परंपरा में हम गुलजार को पाते हैं जिन्होंने दूरदर्शन पर प्रेमचंद की कई रचनाओं जैसे 'गोदान', 'बड़े घर की बेटी', 'बूढ़ी काकी', 'ईदगाह', 'पंच परमेश्वर', 'कफन', 'पूस की रात' आदि पर धारावाहिक रुपान्तरण कर निर्देशन दिया और इनके माध्यम से समय और समाज की सच्चाइ‌यों को रखना चाहा।

प्रेमचंद ने तटस्थ दृष्टि और यथार्थपरक संवेदना के साथ समाज और जीवन को देखा है जिसके कारण उनका साहित्य समाज की हर परत को सही परिप्रेक्ष्य में खोलते हुए कथा - विकास को आगे ले जाने में समर्थ हो पाया है।" इन्द्रनाथ मदान के शब्दों में “वे निश्चय ही एक ऐसे मानवतावादी थे जिनका कि मनुष्य की गारिमा में अगाध विश्वास होता है।“[9]

सेवासदन और प्रेमाश्रम यदि प्रेमचंद के हृदय परिवर्तन का आदर्शवाद है तो 'कफन' और 'पूस की रात' उनके मोहभंग का यथार्थवाद है। उनकी बौद्धिक जागरूकता और वैचारिक समृद्धता उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता को इंगित करती है। प्रेमाश्रम में उन्होंने लिखा कि सत्याग्रह में अन्याय की दमन करने की शक्ति है, यह सिद्धांत भ्रांतिपूर्ण सिद्ध हो गया, जिस समय देश के लोग राष्ट्रीय आंदोलन नहीं लड़ रहे थे उस समय प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि' लिखकर साबित किया कि देश की जनता लड़ना जानती है, वह हारना नहीं जानती। सन् 1941 में रंगभूमि' पर बनायी गई फिल्म ने प्रमाणित कर दिया कि प्रेमचंद की कहानियाँ हो या उपन्यास, वे नियम की वस्तु न बनकर हृदय की वस्तु बनी है। उनमें हृदय के दान दिखते हैं तभी तो वे हृदय को छू जाते हैं। तभी तो प्रेमचंद-साहित्य की '', '' न जानने वाले भी सिनेमा या टी० वी० के स्क्रीन पर प्रेमचंद की रचनाओं को देखकर थोड़ी देर के संपर्क से ही उनके चरित्रों से परिचित हो जाते हैं और उन्हें वो बहुत दिनों तक याद रखते हैं क्योंकि उन्होंने सामान्य जनों की जिंदगी को अपनी कथा का विषय बनाया है। सत्येन्द्र के अनुसार “प्रेमचंद ने सामान्य जनों को अपना नायक बनाया और सामान्य दैनिक जीवन की समस्याओं को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया।[10]

'शतरंज के खिलाड़ी' में प्रेमचन्द्र ‘कला कला के लिए' सिद्धांत पर व्यंग्य करते हुए तथा मिर्जा और मीर जैसे सामंतों की मनोरंजन संस्कृति की तीखी आलोचना करते दिखते हैं तो ‘सवा सेर गेहूँ' में किसान शंकर की कर्ज के कारण जिंदगी भर की गुलामी (महाजन द्वारा) दिखाते हैं. तो 'पूस की रात' में मुन्नी द्वारा जमींदारी प्रथा के प्रति विद्रोह को दिखाते हैं तो कर्मभूमि में वे दलित वर्गों की समस्याओं का विवेचन करते दिखाई देते हैं तो 'गोदान' में वे यह बताते हैं कि उनके समाज में होरी जैसे किसान अपने पास गाय हो- इस आकांक्षा रूपी मरीचिका के पीछे जितना दौड़ता है उतना ही ऋण - नागिन उसे अपने बाहुपाश में लपेट लेता है और वह उससे निकल नहीं पाता। कफन में जबरा और हल्कू की बातचीत और पूस की रात की कड़ी ठंड में गंधेते जबरा को हल्कू द्वारा अपने शरीर से चिपका लेना तथा गर्मी का अहसास करना यह साहित्य के साथ-साथ, सिनेमा की स्क्रीन पर भी एक नये सौन्दर्यबोध की प्रतिष्ठा करता है। साथ ही पंत्रतंत्र, हितोपदेश, उपनिषद की कहानियों - इनकी परंपरा में प्रेमचंद भी नैतिक मूल्यबाध का पाठ अपनी रचनाओं के अंत में दर्ज करते हैं जो सिनेमा की स्क्रीन पर भी एक नयी सीख लेकर आता है। भले ही राजेन्द्र यादव जैसे आलोचक ने कहा हो कि प्रेमचंद आदर्श का मॉर्फिया इंजेक्शन देते हैं या उनकी कथा की संवेदना को स्तब्ध - संवेदना की संज्ञा दी हो पर व्यवस्था के प्रति हल्कू जैसा समर्पित किसान भी अंत में खेती को नीलगाय द्वारा बर्बाद होने नही देता अगर वह स्तब्ध चरित्र होता। खेती को बर्बाद होने देना - यह हल्कू के विद्रोह को दर्शाता है। अगर घिसू-माधव स्तब्ध पात्र होते तो पारिश्रमिक न पाकर भी वे खेती करने जाते पर वे भी खेती न करके खेती को चुनौती देते हैं। ग्रामीण कथा को केन्द्र में रखकर प्रेमचंद्र ने जिस प्रगतिशील विचारभूमि पर साहित्य को खड़ा किया है वही फिल्म की आधारभूमि बन गई है जिसके कारण फिल्म हो या साहित्य दोनों में ही उनकी कथा प्रासंगिक बन गई है। नंद दुलारे बाजपेयी अपनी पुस्तक 'प्रेमचंद : एक साहित्यिक विवेचन' में लिखते हैं कि “....प्रेमचंद की आरंभिक कहानियाँ भावनाप्रधान और आदर्शवादी हैं। वह प्रत्येक स्थिति में किसी ऊंचे आदर्श पर जाकर समाप्त होती है।“[11]‘दो बैलों की कथा’ कहानी के आधार पर सन् 1959 में ‘हीरा और मोती’ नाम से बनाई गई फिल्म में बलराज साहनी और निरुपा राय इन दोनों की अभिनय-कला कहानी की मूल कथा को एक ऊंचाई पर ले जाती हैं। जैसा कि आलोचक इंद्रा नाथ मदान ने कहा है कि प्रेमचंद विकास के मार्गों को नहीं समझे यदि प्रेमचंद विकास के मार्गों को न समझे होते तो वे रचनाएँ लिखकर विश्राम ले लेते, पात्रों द्वारा समस्याओं का समाधान करते हुए वे यह पहचान नहीं करवाते कि देश के विकास में बाधक सिर्फ ब्रिटीश नहीं थे वरन् देश के शत्रु - जमींदार, पूँजीपति और महाजन भी थे। रंगभूमि में वे यह न दिखाते कि जमींदार, पूँजीपति और ब्रिटिश सब एक साथ मित्रता में बंधे हुए थे तभी तो पूंजीपति जमींदार से जमीन नहीं ले रहे थे।जिस समाज में विधवा-विवाह के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था उस समय ‘सेवासदन' लिखकर उन्होंने वेश्यावृत्ति के सामंती आधार को खोलकर समाज के सामने रख दिया और आगे चलकर सेवासदन' पर बनी फिल्म ने यह साबित कर दिया कि अगर प्रेमचंद की रचनाएँ किताबों के पन्नों में बंद पड़ी रह जाती तो पूरी दुनिया में अन्य भाषा-भाषी समाज प्रेमचंद-साहित्य के स्वाद से वंचित रह जाता। तभी तो रामविलास शर्मा ने अपनी किताब 'प्रेमचंद और उनका युग' में प्रेमचंद को युगनिर्माता साहित्यकार कहते हुए लिखा है कि “......केवल साहित्य में युग को नाम देनेवाले नहीं बल्कि अपने समय के सामाजिक जीवन को एक नई गति और एक नई दिशा प्रदान करने         वाले।”[12] कर्मभूमि उपन्यास में दिखाई गई अछूत किसानों की भूमि समस्या हो या ‘गबन' में वर्णित स्त्री मनोविज्ञान हो, हर रचना में प्रेमचंद का युग दिखता है, 20वी सदी का इतिहास दिखता है क्योंकि प्रेमचंद का साहित्य उनके समय का वह सच है जो सिनेमा के सफेद पर्दे पर आकर और प्रभावशाली बन  जाता है। वैसे तो सिनेमा और साहित्य की जबान और व्याकरण अलग है, दोनों के दो स्वतंत्र और अलग अनुशासन हैं। न तो स्क्रीन को ध्यान में रखकर कथा की स्वतंत्र कलात्मकता शत प्रतिशत सुरक्षित रखी जा सकती है और न ही स्क्रीन पर कहानी लिखी जा सकती है किन्तु प्रेमचंद की रचनाओं ने यह प्रमाणित कर दिया कि प्रेमचंद- साहित्य में गढ़े गये प्रतीक, फिल्म के साँचे में ढलकर फिल्म की भाषा में यथार्थपरक संवेदना को अभिव्यक्ति दिये हैं। वर्ग संबंधी,समुदाय संबंधी बिम्ब निर्मिति के द्वारा प्रेमचंद साहित्य के साथ-साथ फिल्म में भी उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। प्रेमचंद अपने साहित्य में ही मानो खुद ही पात्र बन गए हैं। कहीं वे हल्लू बने हैं तो कहीं रमानाथ, कहीं होरी तो कहीं शंकर तो कहीं घिसू-माधव जिन्हें फिल्म के पर्दे पर हम कभी देश के गौरवशाली अतीत की ओर खींचते हुए पाते हैं तो कभी स्वतंत्रता का अहसास कर आसमान में उड़ने का सपना देखते हुए तो कभी सामाजिक व्यवस्था की वास्तविकता के आगे टूटते हुए पाते हैं इसलिए प्रेमचंद थे, हैं और रहेंगे। श्री जनार्दन राम को दिये गये प्रेमचंद के जवाब को उद्धृत करके कहना ही पड़ेगा “क्या होगा मर ही तो जाऊँगा । तुम लोग हो। और फिर कौन जाने मै मरूँगा भी।“

निष्कर्ष

प्रेमचंद्र के कथा - साहित्य ने न सिर्फ साधारण मनुष्य के जीवन को स्पर्श किया है वरन् प्रेमचन्द्र के द्वारा कहे गये एक-एक शब्द का असर भी सिनेमा की स्क्रीन पर पड़ा है। भले ही प्रेमचंद को सिनेमा जगत का व्यावसायिक नजरिया पसंद नहीं आया पर फिर भी सिनेमा के साथ उनका रिश्ता बनता ही गया । भले ही फिल्म से उनका मोहभंग हो गया पर सिनेमा ने उन्हें नहीं छोड़ा। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों पर सर्वाधिक फिल्म बनी और सिने संसार में प्रेमचंद पर हुए सभी कामों में सत्यजीत रे की दो फिल्में सर्वाधिक लोकप्रिय सिद्ध हुईं। प्रेमचंद की रचनाओं के फिल्मांकन को असफल प्रयोग नहीं कहा जा सकता। यद्यपि उनकी पहली फिल्म 'मिल मजदूरचुनौतीपूर्ण रही हो किन्तु इतना तो प्रेमचंद समझ गये थे कि फिल्म एक दृश्य माध्यम है और इसके लिए अलग तरह के लेखन कौशल की जरूरत है। यह भी सच है कि भले ही प्रेमचंद की रचनाओं को निर्देशक द्वारा कुछ हद तक बदला गया हो किन्तु दर्शकों पर उसका प्रभाव ज्यों का त्यों पड़ा और कहीं- कहीं तो ज्यादा पड़ा। प्रेमचंद अपने समय के जिन जटिल और अंतर्विरोधों से भरे सामाजिक यथार्थ को वाणी देना चाहते थे वह फिल्मों के जरिए उभरकर आया है भले ही वह कहीं-कहीं चुनौतीपूर्ण रहा हो। प्रेमचंद ने अपने साहित्य में जिसतरह से शोषण, उत्पीड़न, दहेज प्रथा, समाज में व्याप्त कुरीतियों को दर्शाया है उसी तरह फिल्म में भी दर्शाया गया है। प्रेमचंद का साहित्य सिनेमा के माध्यम से कई भाषा-भाषी लोगों तक पहुंचा और अपना अमिट छाप छोड़ा। इसतरह स्पष्ट है कि फिल्म के निर्देशकों ने प्रेमचंद के साहित्य शिल्प को सिनेमा - क्राफ्ट से जोड़कर जिसतरह प्रस्तुत किया वह फिल्म के पर्दे पर करिश्मा ला दिया और लाखों भारतवासियों ने सिनेमा के परदे पर प्रेमचंद के साहित्य को समझा। प्रेमचंद के कथा-चरित्र जैसे घिसू, माधव, होरी, हल्कू, मुन्नी, धनिया, सुमन जो उनकी कहानियों और उपन्यासों में बन्द पड़े थे वे सिनेमा के पर्दे पर बोलने लगे जिन्हें सुनने के लिए भारत के लोग अब तक बेताब थे। अब प्रेमचंद को भारत और व्यापक रूप में दिखने लगा।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. कुमार डॉ० राकेश, प्रेमचंद एक पुनर्पाठ, हिमाचल बुक्स प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष - 2012, संस्करण - प्रथम, पृष्ठ-42

2. कुमार संदीप, प्रेमचंद और सिनेमा, sahityacinemasetu.com, 31/7/2020

3. मुरारी कृष्ण, प्रेमचंद का साहित्य और सत्यजीत रे का सिनेमा : शब्दों से उभरी सांकेतिकता का फिल्मांकन, https://hindi.theprint.in, 31.7.2021

4. यादव राजेन्द्र, प्रेमचंद की विरासत, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष - 2006, पृ० 9

5. अरविंदाक्षन ए, भारतीय कथाकार प्रेमचंद, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, प्रकाशन वर्ष- 2009, प्रथम संस्करण, पृ० 71

6. गुरु राजेश्वर, प्रेमचंद एक अध्ययन, एस चंद एण्ड कंपनी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ० 276

7. राम सरिता, उपन्यासकार प्रेमचंद की सामाजिक चिन्ता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष - 1996, संस्करण - प्रथम, पृ० 105

8. शर्मा रामविलास, प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2014, पृ०150

10. मदान इन्द्रनाथ, प्रेमचंद एक विवेचन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 1989, पृ० 149

11. सत्येन्द्र (संपादक), प्रेमचंद, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष - 1989, पृ०138

12. वाजपेयी नंददुलारे, प्रेमचंद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2000 संस्करण प्रथम, पृ० 96

13. शर्मा डॉ० रामविलास, प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2014,पृ० 253