|
|||||||
भारतीय स्थापत्य कला एवं नवीन इंडो-गोथिक शैलीगत परिवर्तन |
|||||||
Indian Architecture and New Indo-Gothic Stylistic Changes | |||||||
Paper Id :
18978 Submission Date :
2024-06-13 Acceptance Date :
2024-06-22 Publication Date :
2024-06-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.12703091 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
|
|||||||
| |||||||
सारांश |
इंडो सारसैनिक स्थापत्य इतिहास ही इंडो गोथिक, मुगल गोथिक, नव मुगल, 19वीं शताब्दी के इन नामों से जाना जाता था। 19वीं शताब्दी में यह भारत में प्रतिद्वंदी के द्वारा मुख्य रूप से प्रयोग किया गया था। विशेषकर ब्रिटिश स्थापत्य भारत में जनता न सरकारी इमारतो के निर्माण में प्रयोग किया गया था। कोल्हापुर का महल 1881, म्योर कालेज 1886 इलाहाबाद में ब्रिटिश स्थापत्य के विशेष उदाहरण थे। अठारहवीं सदी के अंत में भारत में यूरोपीय स्थापत्य कला का उच्च स्तर प्राप्त हुआ। यही स्तर भारतीय इंडो-गोथिक शैली में प्रदर्शित होता है एवं दर्शाने का प्रयास किया गया है। |
||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Indo-Saracenic architecture has been known in history by various names such as Indo-Gothic, Mughal Gothic, Neo-Mughal, 19th century. In the 19th century, it was mainly used by the British in India. European architecture was especially used in the construction of public and government buildings in India. Kolhapur Palace (1881), Muir College (1886) in Allahabad were special examples of British architecture. At the end of the eighteenth century, a high level of European architecture was achieved in India. This level is reflected in the Indian Indo-Gothic style. An attempt has been made to show it. |
||||||
मुख्य शब्द | इंडो सारसैनिक वास्तुकला, इंडो इस्लामिक शैली, ब्रिटिश वास्तुकार, भारतीय स्थापत्य कला। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Indo Saracenic Architecture, Indo Islamic Style, British Architects, Indian Architecture. | ||||||
प्रस्तावना | इंडो सारसैनिक वास्तुकला (जिसे इंडो-गोथिक, मुगल गोथिक, मुगल गोथिक, नियो मुगल के नाम से भी जाना जाता है) 19वीं शताब्दी में अक्सर इंडो इस्लामिक शैली एक पुनरूत्थानवादी स्थापत्य शैली थी, जिसका इस्तेमाल ज्यादातर ब्रिटिश वास्तुकारों द्वारा भारत में 19वीं शताब्दी में किया जाता था। शोध पत्र में यही जानकारी देने की कोशिश की गई है। इंडो-गोथिया शैली का प्रयोग ब्रिटिश राज में सार्वजनिक और सरकारी इमारतों और रियासतों के शासकों के महलों में किया जाता था। इसने देशी इंडो इस्लामिक वास्तुकला, विशेष रूप से मुगल वास्तुकला से शैलीगत सजावटी तत्वों को आकर्षित किया। जिसे अंग्रेज क्लासिक भारतीय शैली मानते थे। इमारतों का मूल ले आउट और संरचना अन्य पुर्नउत्थानवादी शैलियों, जैसे गोथिक पुनरूद्वार और नव-शास्त्रीय में समकालीन इमारतों और इस्तेमाल होने वाले के करीब थी। जिसमें विशिष्ट भारतीय विशेषताएं और सजावट शामिल थी। |
||||||
अध्ययन का उद्देश्य | शोध पत्र के मुख्य उद्देश्य है- 1. ब्रिटिश कालीन स्थापत्य को जानकारी एकत्रित करना। 2. जनमानस को इस विद्या से परिचित कराना। |
||||||
साहित्यावलोकन | उपर्युक्त
शोध पत्र को लिखने में सदैव निम्न् बातों का ध्यान रखा गया कि यह लकीर का फकीर न हो
एवं नयी जानकारी निकलकर आये। इस शोधपत्र को लिखते समय डॉ० मोतीचंद, एफ० बी०
हैवेल, अतीय हबीब आदि की सहायता ली गई इन्ही के साहित्य से यह शोध पत्र लिखना संभव हो
पाया। लेखिका से पहले यही विद्वजन जिन्होंने इस विषय पर कार्य किया है। |
||||||
मुख्य पाठ |
कोल्हापुर का महल 1881, म्योर कॉलेज 1886, इलाहवाद विश्वविद्यालय ब्रिटिश स्थापत्य के विशिष उदाहरण थे। यूरोपियन ने जमीदार के किले, योमैन हाउस, और किसानों के कॉटेज (झोपडी) का निर्माण किया। उन्होंने हिन्दू मंदिरो एवं हिन्दू महलों में कोई भी भिन्न आश्चर्य नहीं पाया। लेकिन फर्ग्यूसन ने यह पहचान नही की कि भारतीय स्थापत्य भी विशेष पहचान मुस्लिम, हिन्दू, और बुद्विष्ठ मंदिर शिल्प कला जडों में पायी जाती है। चंद्रगिरी का महल उत्तरी जिला, मद्रास में तालिकोरा युद्ध के बाद विजयनगर (रियासत) राजवंश का अंतिम मजबूत स्थान था। अतिरिक्त दक्षिण भारतीय विद्यालय स्थापत्यकला का विकसित उदाहरण है। जो विकसित और यूरोपिय स्थापत्याकारों के लिए विशेष आकर्षण बना था भारत एवं यूरोप दोनों स्थानो पर। अठारहवीं शताब्दी के अन्त में भारत में यूरापीय कला का उच्च स्तर प्रारंभ हुआ। लखनऊ में ला मार्टिनियर का निर्माण, एक फ्रेन्च व्यक्ति है जिन्होने अवध के नवाब के समय सेवा में उच्च स्थान प्राप्त किया था। नवाब के सामय भारतीय निर्माणकर्ताओं ने इस विदेशी प्रचलन की नकल करना प्रारंभ किया। जिसका त्वरित परिणाम में लखनऊ में कई इमारतों का निर्माण रहा। हांलाकि भारतीय शिल्पकला के विषय में कोई दुविधा नहीं हैं, यद्यपि इसे मुसलमान शासकों के समय स्वतंत्र रूप से प्रायोगिक तौर पर अनुमति दे दी गई थी। जो जल्द ही एक नयी आंग्ल भारतीय परंपरा, नवीन आंग्ल भारतीय स्थापत्य परंपरा के रूप में उदभव हुआ। संपूर्ण भारत में यद्यपि उपनगरीय क्षेत्रों में (एग्लों इंडियन नगरों में, कई इमारतों जब भारतीय शिल्पीयों ने अपने शिल्पकला का उपयोग करना बंद किया, तब ही यूरोपियन जीवन शैली में मृत यूरोपीय जीवन शैली को पुर्नजीवित किया। इसकी महत्वपूर्ण झलक आगरा के सिकंदरा के प्रवेश द्वार के सार्वजनिक कार्यों की तुच्छता के साथ शास्त्रीय शैली के आदर्श रूप के साथ निर्माण किया, जिसमें वास्तविक पाम्पियन बिला की विभिन्नताएं एवं स्वतंत्रताएं भी उपस्थित थी। मुगल दरबार एवं यूरोपिय प्रचलन से बाहर के वातावरण में 19 वीं शताब्दी के स्वदेशी इमारतों अपने देशी उत्साह को बनाए रखती थी। हांलाकि नकारात्मक प्रभाव के साथ आश्चर्यजनक रूप से प्रभावशाली बनी हुयी थी। यह शैली 1795 के आस-पास भारतीय इमारतों के चित्रण के पश्चिमी प्रदर्शन से प्रेरित थी जैसे विलियम हाजेज और डेनियल जोडी द्वारा बनाई गई इमारतें। पहली इंडो सारसैनिक इमारत को चेपक पैलेस कहा गया था जिसे 1768 में वर्तमान चैन्नई में अकार्ट के नवाब के लिए पूरा किया गया था। बम्बई और कलकत्ता भी इन इमारतों शैलियों के लिए प्रसिद्ध थे। हांलांकि कलकत्ता इन इमारतों के लिए गढ़ था। |
||||||
निष्कर्ष |
गहरे अर्थो में देखा जाए, वे कोई स्थापत्य नहीं है, अभी तक आंग्ल भारतीय में बीच किनारों न ही, न ही यह कोई वायदा है परिजीवी वृद्धि के पार विकास करने का जो भारतीय कला को एक बनावट (ढाँचा) प्रदान करता हैं । जो भारतीय शासकों के शिविर जीवन के बाहर का है, इस तथ्य में कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मुस्लिम शासकों के पास कोई स्थापत्य नही था। वे अपनी इमारतों के निर्माण के लिए भारतीय शिल्प शास्त्रियों पर निर्भर रहा करते थे। यद्यपि यह सहमति योग्य नहीं है कि किस प्रकार मुस्लिम शासकों एवं भारतीय शिल्प शास्त्रियों मालिक एवं नौकर का रिश्ता कायम किया होगा। जो आंग्ल-भारतीय स्थापत्य कहा जाता था यह केवल यांत्रिक प्रक्रिया थी। वास्तविक रूप से यूरोपीय पुर्नजागरण के समय शौकीन स्थापत्यकारों, कलाकारों द्वारा अविष्कार किया गया था। जो आज भी भारत के शहरों में अपनी विशेष पहचान बनाए हुए है। |
||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
|