ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- III June  - 2024
Anthology The Research

भारतीय राजनीति में विपक्ष की भूमिका का अध्ययन

Study of the Role of Opposition in Indian Politics
Paper Id :  18983   Submission Date :  2024-06-11   Acceptance Date :  2024-06-22   Publication Date :  2024-06-25
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DOI:10.5281/zenodo.12672383
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अर्पणा सिंह
शोध निदेशक
राजनीति विज्ञान विभाग
बी.एन.एम.य़ू. नार्थ केम्पस
मधेपुरा,बिहार, भारत
दीपेश कुमार
शोधार्थी
राजनीति विज्ञान विभाग
बी.एन.एम.य़ू. नार्थ केम्पस
मधेपुरा, बिहार, भारत
सारांश

भारत एक विशाल लोकतांत्रिक देश है जिसमें बहुदलीय व्यवस्था है इसमें विपक्ष का होना लाजिमी है। सत्तारुढ़ दल को लगाम लगाने के लिए एक ताकतवर विपक्ष का होना आवश्यक हैअन्यथा सरकार पर अंकुश न होने पर उनकी मनमानी और तानाशाह होने का खतरा बना रहता है। आज डिजिटल युग में सरकार के साथ-साथ इनकी भूमिका भी कई गुणा बढ़ गई है। इस लिए विपक्ष की भूमिका की समीक्षा होनी चाहिए। उनकी बढती प्रासांगिकता का अध्ययन किया जाना चाहिए। वर्तमान में लोकतंत्र के विकास के लिए सतर्क एवं सावधान विरोधी दल का महत्व हमारे देश में बढ़ता ही जा रहा है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद India is a huge democratic country with a multi-party system and it is inevitable that there will be opposition in it. A strong opposition is necessary to keep the ruling party in check, otherwise there is a danger of the government becoming arbitrary and dictatorial if it is not kept in check. Today in the digital age, along with the government, their role has also increased manifold. Therefore, the role of the opposition should be reviewed. Their increasing relevance should be studied. At present, the importance of a vigilant and cautious opposition party is increasing in our country for the development of democracy.
मुख्य शब्द एंटी इनकम्बेंसी, प्रतिपक्ष, विरोधी, हुकुमत, औपचारिक मान्यता, पे.प.सू., सत्ताधारी बहुसंख्यक, गैर-भाजपावाद, गैर-कांग्रेसवाद।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Anti-incumbency, Opposition, Opposition, Government, Formal Recognition, PSU, Ruling Majority, Non-BJPism, Non-Congressism.
प्रस्तावना

भारत के लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में बहुदलीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। जिसमें दो से अधिक राजनीतिक दल आपस में प्रतियोगिता के माध्यम से जीतने पर सरकार बनाते है और उसे चलाते है। इन सबों में विजेता पक्ष जहां सरकार बनाती है तो वही हारा हुआ सबसे बड़ा राजनीतिक दल को सरकार की आलोचना करने एवं उसे समय-समय पर सरकार द्वारा देशहित में कार्य नहीं करने पर जनता के सामने उजागर करने का कर्तव्य भी उसी दल का होता है जिसे विपक्षी दल कहा जाता है। नेहरू से लेकर वर्तमान समय के राजनीति में भी विपक्षी दल की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता है। विपक्षी दल सरकार पर लगाम लगाने का कार्य़ भी करती है। जिससे वे लोगों के लिए कोई भी अनुचित नीति का निर्माण नहीं कर सके। वर्तमान समय में भारत में विरोधी दल की जरुरत बढ़ गयी है। इनका महत्व पहले से बढा है। एक प्रभावी विपक्ष ही सत्ताधारी दल को ठीक रास्ते पर रख सकता है।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत लेख का उदेश्य भारतीय राजनीति में विपक्ष की वर्तमान स्थिति एवं उनकी भूमिकाओं का अध्ययन करना है। क्योंकि 21वीं सदी के पहले दो दशक में भारत की राजनीति में बड़ा तबदिली देखने को मिला। 

साहित्यावलोकन

सुभाष काश्यप ने अपनी पुस्तक भारतीय राजनीति और संसद,विपक्ष की भूमिका में बड़े ही अच्छे ढंग से 20वीं सदी के उत्तरार्ध तक के भारतीय राजनीति में विपक्षी दल की स्थिति एवं उनके भूमिका की व्याख्या की है जो यहां के दलों पर सटीक बैठता है।

रजनी कोठारी कोठारी अपनी कालजयी पुस्तक भारत में राजनीतिमें कांग्रेस सिस्टम की चर्चा करते है और कांग्रेस की आंतरिक फूट से विरोधी दलों के विकास की भी बात करते है।

अजय मलिक मलिक जी अपने शोध पुस्तक में भारतीय राजनीति में गठबंधन युग की राजनीति के समय विपक्षी दलों के कार्यशैली पर भी प्रकाश डाला है कि किस तरह वो आपस में ही संघर्षरत रहे है।

मुख्य पाठ

अर्थ एवं परिभाषा – चुनाव में दूसरे नम्बर पर सफल होने वाले ऐसे किसी भी राजनीतिक समूह या दल को जो सरकार का अथवा सत्तारुढ दल का विरोध करे, विपक्ष कहा जाता है। विपक्ष शब्द का प्रयोग या प्रतिपक्ष का प्रयोग साधारणतया दोनों शब्दों का पर्यायवाची रुप में प्रयोग किये जाते है।

भारतीय राजनीति में विपक्ष का उद्भव एवं विकास – आजादी से पहले भारतीय कांग्रेस ही एकमात्र प्रभावी राजनीतिक संगठन था। एक राजनीतिक दल के लिए अपेक्षित कुछ गुण तो इस में बहुत अधिक मात्रा में थे और कुछ गुणों का नितांत अभाव भी था। अतः कांग्रेस राजनीतिक दल से बहुत कुछ ज्यादा भी थी और कुछ कम भी। वास्तव में कांग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं एक राष्ट्रीय संगठन था,एक स्वतंत्रता आंदोलन था जिसके झण्डे के नीचे विभिन्न विश्वासों, दृष्टिकोणों और पृष्ठभूमियों के नर एवं नारी एकत्रित हुए थे। कांग्रेस ऐसा संगठन था जिसके नीचे विभिन्न राजनीतिक सिद्धांतों और विचारधाराओं के प्रतिपादक और भिन्न मतों के अनुयायी खड़े किये जा सके। कांग्रेस का एकमात्र उद्देश्य था देश को विदेशी शासन से आजाद कराना। स्वाधीनता से पूर्व राजनीति में भाग लेने का अर्थ था कांग्रेस में शामिल होना। उन दिनों लोग देश के हित में उच्च आदर्शवाद ,प्रतिष्ठा और सेवा की भावना से कांग्रेस में शामिल होते थे या राजनीति में भाग लेते थे। ऐसा करने के लिए प्रायः अपने काम धंधे, सुख और आराम का पर्याप्त त्याग करना पड़ता था। यह सार्वजनिक पद की लोलपता अथवा राजनीतिक शक्ति या सत्ता के प्रलोभन से नहीं किया जाता था। लेकिन स्वतंत्रता पश्चात जब सत्ता का हस्तांतरण हुआ तो कांग्रेस इसे हथियाने के लिए दौड़ी। सब कुछ बदल गया। कांग्रेस का सर्वव्यापी एवं एकताकारी राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरुप न जाने कहां विलुप्त हो गया। कांग्रेस राजनीतिक दल और देश की सरकार की संचालिका के रुप में प्रकट हुई।[1] कांग्रेस के भीतर गुटों का कभी अभाव नहीं रहा। चूंकि कांग्रेस में गुटों को न केवल प्रोत्साहित एवं पोषित किया जाता रहा बल्कि नेताओं ने कांग्रेस के भीतर भिन्न मत रखने वाले को स्वीकार भी किया और कई बार पुरस्कृत भी किया। केन्द्र में और राज्य स्तर पर कांग्रेस के सत्तारुढ़ होने की वजह से कांग्रेस के भीतर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं, पद और धन का लोभ,दलगत प्रतिद्वन्द्विता और जातीय विचारात्मक मत-भिन्नता की अपेक्षा कहीं अधिक प्रोत्साहन मिला। इसलिए गांधीजी ने सुझाव दिया था कि कांग्रेस को राजनीतिक संगठन के रुप में भंग कर दिया जाये और ‘लोक सेवक संघ’ का नाम देकर इसे एक समाज सेवा संगठन का रुप दिया जाय।[2] परंतु उस समय के कांग्रेसी नेताओं नेहरु एवं पटेल जैसे चोटी के नेता भी,इसका कड़ा विरोध किया। शायद उनके विचार में सरकार चलाने के लिए कांग्रेस का चलते रहना अनिवार्य था क्योंकि उसका स्थान लेने के लिए कोई अन्य दल उपस्थित नहीं था और फिर कांग्रेस का पुराना जमा हुआ काम था। अभी तक उसने त्याग और तपस्या के बीज बोये थे,कष्ट और यातना की पूंजी लगाई थी। फसल काटने का मौसम तो अब आया था। जल्द ही देशभक्ति कांग्रेस की बपौती बन गई। आजादी के बाद लम्बे समय तक भारतीय राजनीति में सत्ता पर कांग्रेस का एकाधिपत्य रहा। उसने किसी समर्थ-स्वस्थ विरोधी लोकतांत्रिक दल को कांग्रेस के विकल्प के रुप में उभरने नहीं दिया,ऐसा करने के लिए नीतियों और सिद्धांतों के आधार पर संघर्ष करने के बजाय कांग्रेस नेतृत्व ने क्षुद्र हथकंडों और सत्ता की सारी शक्ति का सहारा लिया। आजादी से पहले सुभाष चन्द्र बोस के साथ भी जघन्य बर्ताव हुआ था और स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस समाजवादी दल को जिस प्रकार कांग्रेस से निकलने पर बाध्य किया गया वह सरासर अनुचित और अनैतिक था।[3] और जब समाजवादी दल एक सशक्त विपक्ष के रुप में उभरता दिखाई दिया तो एक-एक करके उसके नेताओं को तोड़कर कांग्रेस में मिला लिये गये। इस प्रकार प्रारंभिक वर्षों में ही विपक्ष को पनपने से पहले ही,कुचल दिया गया। संसदीय लोकतंत्र में एक स्थिर और समर्थ विरोधी पक्ष,विपक्ष या प्रतिपक्ष उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। जितना कि एक स्थिर और समर्थ सरकार। संसद में विरोधी पक्ष की भूमिका रचनात्मक और बहुआयामी होती है। संसद में विपक्ष का काम केवल आलोचना करना और विरोध मात्र करना नहीं है। वस्तुतः विपक्ष को विरोध और आलोचना का अधिकार भी इस विश्वास और आश्वासन के आधार पर मिलता है कि जब उसको अवसर मिले तो वह सत्तारुढ़ दल से ज्यादा अच्छा कुछ करके दिखाएगा।[4] संसद में बहुमत दल के साथ-साथ अल्पसंख्यक भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अल्पमत की मर्जी से ही बहुमत का शासन लोकतंत्र कहा जाता है। संसद में अंत में चाहे सत्ताधारी बहुसंख्यक दल की ही जीत हो, विरोधी पक्ष को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार होना चाहिए। कहते हैं कि एक व्यक्ति की तानाशाही बुरी चीज है किन्तु बहुमत की तानाशाही उससे भी बुरी है। लोकतंत्र और अधिनायकवाद में अंतर एक निर्भीक और स्वतंत्र विपक्ष की भूमिका से ही पड़ सकता है। एक सक्षम विपक्ष का अस्तित्व इस बात का आश्वासन हो सकता है कि किसी तानाशाह के निरंकुश शासन के विरुद्ध ही नहीं अपितु कट्टर बहुमत के क्रुर शासन से भी वह देश को बचाएगा। यदि निर्णय करना हो कि किसी देश में लोकतांत्रिक संस्थाएं कहां तक सफल हुई है या कहां तक सक्षम है तो जरुरी होगा कि हम विपक्ष की भूमिका का मूल्यांकन करें क्योंकि सशक्त विपक्ष का अस्तित्व और विकास ही लोकतंत्र को अर्थ दे सकता है।[5]

सत्ताधारी दल और विपक्ष दोनों को कुछ स्वीकृत आदर्शों और मानकों के आधार पर काम करना होता है। संसदीय लोकतंत्र का मूल आधार है सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच परस्पर विश्वास और आदर का भाव। सरकार और संसद दोनों सत्ता पक्ष और विपक्ष के सहयोग से ही चल सकती है और सबल हो सकती है। यह जरुरी है कि सत्तारुढ़ दल यह न भूले कि विपक्ष संख्या में कितना ही कमजोर क्यों न हो उसका भी प्रत्येक सदस्य देश के प्रति उतना ही निष्ठावान है और अपने उत्तरदायित्व को समझने वाला है जितना सत्तापक्ष का कोई सदस्य।[6]

लेकिन यह कहना गलत होगा कि भारत में सत्ता पर कांग्रेस का एकाधिकार रहा है। 1967 के पहले भी यह बात सही नहीं थी। इसका एक कारण यह है कि कांग्रेस का विरोध करने वाली पार्टियां अनेक थी और उनमें से कुछ ने कांग्रेस को अपदस्थ भी किया। गैर-कांग्रेसी दलों को मिले सब वोटों को जोड़ दिया जाए तो उनकी संख्या कांग्रेस को मिले वोटों से हमेशा अधिक रही है। सीटों में भी हर राज्य में कांग्रेस का पूर्ण बहुमत नहीं रहा। 1952-53 एवं 1963-64 दो बार थोड़े-थोड़े समय को छोड़कर कांग्रेस ने अकेले सारे देश पर राज नहीं किया। 1952 में उसे चार राज्यों में पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका जिसमें मद्रास,पे.प.सू. वर्तमान का पंजाब,उड़ीसा एवं त्रावणकोर-कोचीन वर्तमान का केरल राज्य थे। राजस्थान में उसे किसी तरह से बहुमत मिल पाया। मद्रास में उनकी स्थिति इसलिए बच गई कि आंध्र प्रदेश उससे अलग हो गया। आंध्र प्रदेश में कम्युनिस्टों ने 1954 के नवम्बर में कांग्रेस सरकार को गिरा दिया और वहां राष्ट्रपति का शासन लागू करना पड़ा। पे.प.सू. 1954, त्रावणकोर-कोचीन 1954 एवं आंध्र प्रदेश 1955 में फिर से चुनाव कराने पड़े क्योंकि वहां कांग्रेस सरकार अपना बहुमत कायम नहीं रख सकी। पे.प.सु. में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिल गया और आंध्र में भी उसने कम्युनिस्टों की शक्ति तोड़ दी, किन्तु कोचीन में वह ऐसा नहीं कर सकी और उसे वहां प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की अल्पमत सरकार का समर्थन करना पड़ा। यह सरकार 1956 तक कायम रही। इसके बाद राज्यों का पुनर्गठन हुआ और केरल राज्य की स्थापना हुई और 1957 के आम चुनाव तक वहां राष्ट्रपति का शासन लागू रहा।[7]

आंध्र प्रदेश की रचना से और कम्युनिस्ट प्रधान मलाबार जिले के मद्रास से निकल जाने के बाद आंध्र प्रदेश और मद्रास दोनों जगह कांग्रेस की प्रधानता स्थापित हो गई। वहीं दूसरी तरफ केरल और उड़ीसा में उसे बहुमत नहीं मिल सका। उड़ीसा में उसे अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी गणतंत्र परिषद से गठजोड़ करना पड़ा। केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने कांग्रेस को हरा दिया और अपनी सरकार कायम की जो 1959 तक बनी रही। 1959 में ही उसे गैर-कम्युनिस्ट दलों के मोर्चे  ने गिरा दिया। 1960 में केरल में फिर मध्यावधि चुनाव हुआ, इसमें कांग्रेस,प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग के मोर्चे ने कम्युनिस्ट पार्टी को हरा दिया और संयुक्त सरकार बनाई। लेकिन इसके बाद दबाव पड़ने पर कांग्रेस ने पहले मुस्लिम लीग को संयुक्त सरकार से अलग किया,फिर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को। इसके बाद 1964 में कांग्रेस सरकार भी गिर गई। राष्ट्रपति शासन और दो चुनावों के बाद 1965 एवं 1967 कम्युनिस्ट संयुक्त मोर्चे ने कांग्रेस को हरा दिया और अपनी सरकार बनाई।[8] 63 सीटों से कांग्रेस केवल 09 सीटें रह गई। 1970 में मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस-कम्युनिस्ट-मुस्लिम लीग मोर्चे ने फिर बहुमत प्राप्त कर लिया। यह मानना गलत है कि 1967 के पहले कांग्रेस सर्वशक्तिमान थी और  इसके  बाद वह अनेक पार्टियों में महज एक पार्टी रह गई। यह ठीक है कि 1967 में कांग्रेस की प्रतिद्वंदी पार्टियां तगड़ी हो गई,पर इसके पहले भी कांग्रेस को कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ रहा था।

कांग्रेस की आंतरिक फूट से विरोधी दलों का विकास हुआ। कांग्रेस एक दल नहीं बल्कि एक राष्ट्रीय मोर्चा थी। एक ओर इसके हाथ में सत्ता आ गई जिससे इसके हाथ में केन्दीय, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर बहुत साधन आ गए। दूसरी ओर इसके संगठन का विस्तार हुआ और उसके अंदर बहुत से बिचवई नेता तथा साधारण लोग भी आए। पद और अधिकार की आकांक्षा से कांग्रेस के अंदर गुटबाजी और सौदेबाजी की प्रवृति बढ़ी। जिसके परिणाम स्वरुप हर स्तर पर विविध प्रकार के संगठन कायम हो गए। ये गुट अपने समाज के मुख्य हितों और वर्गों का प्रतिनिधि करते थे तथा कांग्रेस के अंदर के गुटों और कांग्रेस के बाहर विरोधी दलों के जरिये ये संगठित हुए।[9] भारत के प्रथम तीन निर्वाचन का विश्लेषण करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इनमें कांग्रेस की विजय का मुख्य कारण विपक्षी दलों का आपस में संघर्षरत रहने के कारण होने वाले मत-विभाजन के कारण उसे मिलने वाला लाभ था।[10]

विपक्ष का नेता -  विपक्ष के नेता के पद का उद्भव और विकास शासन कला के क्षेत्र में 19वीं सदी की महानतम उपलब्धि माना जा सकता है। ब्रिटेन में वैधानिक रुप से पहली बार 1937 में इस पद को मान्यता मिली। कनाडा और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में पहले से ही विधि द्वारा ऐसी व्यवस्था की जा चुकी थी। इन दोनों देशों में प्रत्येक सदन के लिए अलग-अलग नेता विपक्ष का प्रावधान है। आस्ट्रेलिया में विपक्ष के दो नेताओं के अतिरिक्त प्रत्येक सदन में अन्य मुख्य दलों के नेताओं को भी मान्यता और वेतन प्रदान किया जाय ऐसा माना गया।[11] ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे मैकमिलन के अनुसार विपक्ष के नेता का पद सबसे अधिक कठिनाई और जिम्मेदारी का होता है। उसे स्मरण रखना होता है कि वह राष्ट्र का भावी प्रधानमंत्री है। अगर सरकार आम निर्वाचन के समय या सदन के फर्श पर पराजित हो जाती है तो शासन का  दायित्व उसका होगा। उसे सरकार की आलोचना करनी होती है। सरकार का विरोध करना होता है और अपने दल की नीतियां स्पष्ट करनी होती है किन्तु वह ऐसी कोई बात नहीं कह सकता जिसे सत्ता में आने पर स्वयं न कर सके।[12]

भारत में सर्वप्रथम 1969 में डॉ. रामसुभग सिंह कांग्रेस(ओ) को विपक्ष के नेता के रुप में मान्यता दी थी। 1977 में जनता पार्टी की सरकार आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो कांग्रेस(आई) के यशवंतराव चव्हाण,सी.एम.स्टीफन और फिर चव्हाण को नेता विपक्ष के रुप में मान्यता दी गई। जब जनता दल की सरकार आई और वी.पी. सिंह नवीं लोक सभा में प्रधानमंत्री बने तो विपक्ष में सबसे बड़े दल कांग्रेस का होने के नाते राजीव गांधी को दिसम्बर 1989 में नेता विपक्ष के रुप में मान्यता दी गई लेकिन एक वर्ष बाद जब कांग्रेस के बाहर से समर्थन के आधार पर चन्द्रशेखर पीएम बने तो दिसम्बर 1990 में सरकार के विरोध में जो सबसे बड़ा दल था भाजपा उसके नेता को नेता विपक्ष के रुप में मान्यता दी जो लालकृष्ण आडवाणी बने।[13] दसवीं लोक सभा चुनाव 1991 के परिणाम आये तो किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था किन्तु कांग्रेस सबसे बड़े दल के रुप में उभरी थी। कांग्रेस ने नरसिम्हा राव के नेतृत्व में अपनी सरकार बनाई। गैर-भाजपावाद का बोलबाला शुरु हुआ। भाजपा मान्यता प्राप्त विपक्ष बना,इसे 120 सीटें थी और लालकृष्ण  आडवाणी नेता प्रतिपक्ष बने। बाद में यह दायित्व अटल बिहारी वाजपेयी ने संभाला। उस वक्त विपक्ष का विभाजित रहना कांग्रेस को अपदस्थ नहीं कर सका। गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर एकजुट होने के कई प्रयास किये गये किन्तु गैर-भाजपावाद गैर-कांग्रेसवाद से अधिक ताकतवर साबित हुआ।[14] गठबंधन व मिली जुली सरकार के दौर में 11वीं एवं 12वीं लोक सभा चुनाव के बाद विपक्ष का स्वरुप बदला-बदला सा रहा। क्योंकि सत्तापक्ष अल्पकालीन रहा और कुछ समय बाद विपक्षी दल ही सत्ताधारी दल बने। ऐसे में इस दौर में विपक्ष का आकार और उनके नेताओं का प्रभाव जोरदार नहीं रहा। हालांकि बाजपेयी जी एक दमदार विपक्षी व विपक्षी दल के रुप में भाजपा उभर कर सामने आए।

13वीं लोक सभा चुनाव 1999 के नतीजे से किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रुप में सामने आया और एनडीए की सरकार बनी। अमेठी से लोक सभा के सांसद रही सोनिया गांधी इसके विपक्षी दल के नेता रही। 14वीं लोक सभा चुनाव में कांग्रेस 145 सीटें, भाजपा 138 सीटें जीती और केन्द्र में कांग्रेस एवं यू.पी.ए. की सरकार बनी जिसमें मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। विपक्ष के नेता के रुप में लालकृष्ण आडवाणी रहे। 15वीं लोक सभा में भी यूपीए की सरकार बनी और भाजपा फिर से विपक्षी दल की भूमिका में आया। सुषमा स्वराज नेता विपक्ष बनी। 16वीं लोस चुनाव 2014 के परिणाम स्वरुप एनडीए को 336 स्थान तो वही मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को मात्र 44 सीटें ही मिली, जिसके कारण आवश्यक दस प्रतिशत स्थान नहीं होने के कारण 2014 के लोक सभा में नेता विपक्ष का पद खाली रह गया। वही हाल 17वीं लोस चुनाव 2019 का रहा जिसमें फिर से विपक्ष के नेता का पद खाली रह गया।

भारत में 1969 में सर्वप्रथम नेता विपक्ष के पद की घोषणा की गई। तब से लेकर आज तक के विपक्ष के नेताओं की सूची निम्न प्रकार से रहा है -                    

तालिका - 1                  

संख्या

नाम

अवधि

लोकसभा

प्रधानमंत्री

दल का नाम

1.

राम सुभग सिंह

17 दिसम्बर 1969 से 27 दिसम्बर 1970

4था

इंदिरा गांधी

कांग्रेस(ओ)

2.

रिक्त

27 दिसम्बर 1970-30 जून 1977

5वां

इंदिरा गांधी

----

3.

यशवंत राव चव्हाण

01 जुलाई 1977 - 11 अप्रैल 1978

6ठा

मोरारजी देसाई

कांग्रेस

4.

सी.एम. स्टीफन

12 अप्रैल 1978 - 09 जुलाई 1979

6ठा

मोरारजी

कांग्रेस

5.

यशवंत राव चव्हाण

10 जुलाई 1979-28 जुलाई 1979

6ठा

मोरारजी

कांग्रेस

6.

जगजीवन राम

29 जुलाई 1979-22 अगस्त 1979

6ठा

चरण सिंह

जनता पार्टी

7.

रिक्त

22 अगस्त 1979-31 दिसम्बर 1984

7वीं

इंदिरा गांधी

---

8.

रिक्त

31 दिसम्बर 1984-18 दिसम्बर 1989

8वीं

राजीव गांधी

---

9.

राजीव गांधी

18 दिसम्बर 1989-23 दिसम्बर 1990

9वीं

वी.पी.सिंह

कांग्रेस

10.

एल. के. आडवाणी

24 दिसम्बर 1990-13 मार्च 1991

9वीं

चंद्रशेखर

भाजपा

11.

एल.के. आडवाणी

21 जून 1991-26 जुलाई 1993

10वीं

पी.वी. नरसिम्हा राव

भाजपा

12.

अटल बिहारी वाजपेयी

21 जुलाई-1993-10 मई 1996

10वीं

पी.वी. नरसिम्हा राव

भाजपा

13.

पी.वी. नरसिम्हा

16 मई 1996-31 मई 1996

11वीं

अटल बिहारी वाजपेयी

कांग्रेस

14.

अटल बिहारी वाजपेयी

01 जून 1996-04 दिसम्बर 1997

11वीं

एच डी देव गौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल

भाजपा

15.

शरद पवार

19 मार्च 1998-26 अप्रैल 1999

12वीं

अटल बिहारी वाजपेयी

कांग्रेस

16.

सोनिया गांधी

31 अक्टूबर 1999-06 फरवरी 2004

13वीं

अटल बिहारी वाजपेयी

कांग्रेस

17.

एल.के. आडवाणी

21 मई 2004-18 मई 2009

14वीं

मनमोहन सिंह

भाजपा

18.

सुषमा स्वराज

21 दिसम्बर 2009-19 मई 2014

15वीं

मनमोहन सिंह

भाजपा

19.

रिक्त

20 मई 2014-30 मई 2019

16वीं

नरेन्द्र मोदी

---

20.

रिक्त

29 मई 2019-08 जून 2024

17वीं

नरेन्द्र मोदी

---

21.

राहुल गांधी

09 जून 2024 से वर्तमान तक

18वीं

नरेन्द्र मोदी

कांग्रेस

स्त्रोत – लीडर ऑफ द अपोजिशन इन लोक सभा.कोम

मूल्यांकन – अब तक के संसद में विपक्ष की भूमिका का लेखा-जोखा तैयार करें तो देखते है कि 1969 तक के पहले दो दशकों में विपक्ष दुर्बल लेकिन गुणात्मक रुप से और सदस्यों की उच्च नैतिकता और योग्यता की दृष्टि से प्रभावी रहा। 1969-70 में कांग्रेस में विभाजन के बाद जब कांग्रेस दो गुटों में बँट गई तो कांग्रेस का ही एक पक्ष सत्ता में था तो दूसरा विपक्ष में। इस प्रकार पहला औपचारिक मान्यता प्राप्त विपक्ष सत्तापक्ष से ही निकला जो प्रभावी नहीं रहा और यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं चली। 1971 से 1977 का दौर इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत प्रभुत्व का रहा। इंदिरा, नेहरु की तरह विपक्ष पर मेहरबान नहीं थी। स्वयं विपक्ष का स्वरुप भी बदल चुका था। न गिनती में और न ही गुणात्मक रुप से विपक्ष सशक्त भूमिका निभाने की स्थिति में था। आपातकाल के निरंकुश शासन ने तो उसकी सार्थकता ही मिटा दी थी।[15] 1977-79 के बीच द्विदलीय व्यवस्था के पनपने से संभावनाएं बढ़ी थी,लेकिन जनता पार्टी ने वो सुनहरा मौका बुरी तरह गँवा दिया और कांग्रेस विरोध का प्रयोग अल्पकालीन रहा। 1980 से 1989 के बीच एक बार फिर से कांग्रेस के शासन एवं इंदिरा और राजीव गांधी के शासन का दौर रहा और इस काल में भी विपक्ष का स्थान रिक्त रहा।[16] परंतु दिसम्बर 1990 से 1996 तक भाजपा विपक्षी दल के रुप में जरुर धमाकेदार उपस्थिति देती रही और दो सप्ताह के ब्रेक के बाद फिर से भाजपा ही विपक्षी दल के रुप में 1997 तक भूमिका निभाती रही। यह दौर गठबंधन का युग रहा जिसमें विपक्ष ने भी अपनी गिरेबान में झांक के देखना मुनासिब नहीं समझा,जहां मौका मिला सत्ताधारी दल में शामिल होने का तो दोनों हाथों से लपका-लपकी किया। विपक्षी दलों का बंदर बांट प्रतियोगिता भी उस वक्त खूब देखी गई। 1998-99 एवं 1999 से 2004 तक कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल की भूमिका मिली जिसे स्थायित्व देने का प्रयास कांग्रेस ने भी किया। इसी बीच 1998 में भाजपा की सरकार ने पोखरण परमाणु परीक्षण भी पूरा किया था।

21वीं सदी के शुरुआत की बात की जाय तो 2004 से 2014 के बीच भाजपा को विपक्षी दल के रुप में पुनः मौका मिला जिसमें आडवाणी एवं सुषमा स्वराज ने नेता प्रतिपक्ष के रुप में कार्य किया। विपक्ष की जो भूमिका धीरे-धीरे समाप्त होने के कगार पर थी उसे  इस काल में मजबूती प्रदान की गई और भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष का महत्व पहले से बढ़ा लेकिन एक बार फिर से देश की राजनीति ने करवट ली और 20 मई 2014 से मई 2024 के बीच एनडीए सरकार का विरोध करने के लिए राजनीतिक दल औपचारिक विपक्षी दल की उपलब्धि पाने के लिए आवश्यक सीटें तक प्राप्त नहीं कर पाई। वर्तमान में 18वीं लोक सभा चुनाव में 99 सीटें मिलने के बाद कांग्रेस को विपक्ष का रोल मिला है और कुल 232 सीटें महागठबंधन को मिली जो सशक्त विपक्षी के लिए संजीवनी का कार्य करेगी। जबकि तीसरी बार भाजपा एवं एनडीए की केन्द्र में सरकार बनी।

निष्कर्ष

राजनीतिक दल को लोकतंत्र का प्राण कहा जाता है क्योंकि इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों एक गाड़ी के दो पहिये के समान अपनी भूमिका निभाते है। यहां एक पहिया के खराब प्रदर्शन से लोकतंत्र रुपी गाड़ी की गति अवरुध हो सकती है। इसी गतिशीलता को ध्यान में रखकर विपक्ष की भूमिका भारत के राजनीतिक भविष्य को तय करती है। अभय कुमार दुबे ‘लोकलुभावनवाद और तानाशाही’ शीर्षक नामक लेख में कुछ प्रश्नों के उत्तर इस प्रकार देते है जो वर्तमान के विपक्ष की भूमिका एवं उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण बातें भी शामिल है जो इस प्रकार है – पिछले दो दशकों में विपक्ष की राजनीति कहां पहुँची? उनकी बात करें तो पायेंगे कि लोकतंत्र को समझने के लिए उन्हें जानना बहुत जरुरी है। उसकी सबसे बड़ी समस्या क्या है?, सबसे बड़ी कमी क्या है? उससे कैसे वह उबर करके आगे बढ़ सकता है,ताकि बहुसंख्यावादी लोकतंत्र का मुकाबला कर सके और विकल्प प्रस्तुत कर सके। उनके द्वारा दिये गये जवाब इस प्रकार है – जो लोग आज विपक्ष में हैं उन्होंने तमाम मौकों पर तरह-तरह से हुकूमत की है। दूसरी पार्टिया है उन्होंने भी हुकूमत की है। उन्होंने जो शासन किया था उनके अनुभव भारतीय जनता को पता है। उन लोगों ने वादों को पूरा नहीं किया जिन्हें करके वे सत्ता में चुने गये थे। वे न केवल वादों को पूरा करने में विफल रहे बल्कि इनकी वजह से लोकतंत्र में बहुत ज्यादा विकृतियां आयी है। इन लोगों की सार्वजनिक जीवन में साख बहुत अच्छी नहीं है। मोदी के नेतृत्व में आज जो सरकार चल रही है उस लिहाज से नरेन्द्र मोदी खुश किस्मत  है कि विपक्ष की सार्वजनिक जीवन में कोई अच्छी साख नहीं है। इसलिए जब वे विपक्षी बात कहते हैं उनकी बात पर जनता ज्यादा विश्वास नहीं करती। जो पार्टियां नई उभरी है उनकी बात पर जनता यकीन कर सकती है। जैसे कि आम आदमी पार्टी है उनकी बात जनता सुनती है। जिन क्षेत्रों में इनका प्रभाव है वहां उनकी बात ज्यादा सुनी जाती है। जहां क्षेत्रिय शक्तियां है वहां उनकी बात ज्यादा सुनी जाती है। लेकिन ऐसी शक्तियां जो अपने को अखिल भारतीय दावेदारी के साथ पेश करती थी उनकी साख काफी गिर गई है। उन्हें अपने उस साख को पूरा करने में काफी वक्त लगेगा। जब वे उस साख को प्राप्त करेंगे विपक्षी एकता का सूचकांक बढ़ेगा तो वे मोदी को मजबूत चुनौती दे सकेंगे।[17]

नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा यह जानती है कि विपक्ष की साख गिरी हुई है। यह गिरी साख जो जनता के मन पर है वह पुरानी न पड़ जाय इसको वे ताजा करते रहते है। इसके लिए वे लगातार चाहे वास्तविक हो या कल्पित हो तमाम मुद्दों पर छापेमारी करते रहते है। लगातार विपक्ष के बारे में कहा जाता है कि हथकड़ियां उनसे थोड़ी ही दूर है। यह इसलिए है ताकि विपक्ष की साख गिरी हुई है वह किसी भी तरह से दोबारा ऊपर न उठ पाये। जो पार्टी लम्बे समय तक शासन करती है उसकी साख जनता की नजर में कुछ न कुछ गिर ही जाती है। उसे चुनाव की भाषा में सत्ता विरोधी जनमत कहते है। भाजपा की सरकार को भी दो पंचवर्षीय कार्यकाल पूरा करने का मौका मिला जो अब पूरा हो चुका है। एंटी इनकमबेंसी इसके खिलाफ भी जमा हो रही है। बेरोजगारी बढ़ रही है। मँहगाई बहुत है। बहुत सारे मसलों पर सरकार की नाकामियां है। अगर जनता के सामने विकल्प मजबूती से खड़ा नहीं है तो जनता एंटी इनकमबेंसी के बावजूद सरकार को चुनती रहती है। यह कई बार देखा गया है कि सरकार विरोधी भावनाओं के बावजूद सरकारें वापस आती रहती है। उसके लिए एंटी इनकमबेंसी को नियंत्रित करने का तरीका यह है कि आप विपक्ष को लगातार कटघरे में रखें। यह लोग लगातार विपक्ष को कटघरे में खड़ा रखते है। पहले कांग्रेस मुक्त भारत कहते थे अब विपक्ष मुक्त भारत कहते है। विपक्ष मुक्त भारत की दावेदारियां बढ़ने लगी है।[18]

परन्तु 18वीं लोक सभा चुनाव में कांग्रेस  को 99 सीटें मिली है और महागठबंन को 232 सीटें मिलने से विपक्ष पहले से मजबूत हुआ है। 21वीं सदी के विश्व में सभी लोकतांत्रिक देशों की सरकार की जिम्मेदारी दिन प्रति दिन बढ़ी है। उसी तरह भारत सरकार की जिम्मेवारी भी पूर्व से कहीं  अधिक बढ़ गया है। जो कार्य पहले सरकार को नहीं करना पड़ता था वो भी कार्य आधुनिक वैज्ञानिक यांत्रिकीकरण के दौर में करना पड़ता है। अब सिर्फ रोटी,कपड़ा मकान,शिक्षा,स्वास्थ्य,बेरोजगारी जैसी ही समस्याएं नहीं है बल्कि पहले से ज्यादा वैश्विक दबाव,राष्ट्र सुरक्षा,वैश्विक व्यापार,टेक्नोलोजी के मामले में समय से आगे चलना,रुप बदलता आतंकवाद आदि समस्याओं से सरकार को रोज दो-चार होना पड़ता है। ऐसे में सशक्त विपक्ष का होना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अति आवश्यक है ताकि कोई भी सरकार तानाशाही न कर पाये। जब कभी सत्तारुढ़ दल लड़खड़ाता हुआ नजर आये तो विपक्षी दल उसे संभलने का मौका न दे,इस तरह उसे तैयार व तत्पर रहना होगा तभी उन्नत भविष्य व लोकतंत्र के फल का स्वाद ले सकेंगे। अन्यथा गिद्ध जैसी नजरे चारों तरफ से भारत पर भी रखे हुए है,कई दुश्मन देश जिसे सिर्फ मौके का इंतजार रहता है कि कब कमजोर राजनीतिक दल की सरकार बने और उसका फायदा वो उठा सके।

अतः हम कह सकते है कि हमारे देश के कई राजनीतिक दलों को विपक्षी दल के रुप में नेतृत्व करने का मौका मिला परंतु हाल के दो लोक सभा चुनाव 2014 एवं 2019 में अधिकारिक विपक्षी दल का न होना सफल लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में एक दाग की तरह था जो अब जाकर साफ हुआ है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. काश्यप सुभाष – भारतीय राजनीति और संसद,विपक्ष की भूमिका, पृ. 96-97
  2. वही, पृ. 98
  3. वही, पृ. 99
  4. वही, पृ. 100
  5. वही, पृ. 101
  6. वही, पृ. 102
  7. कोठारी रजनी-भारत में राजनीति दूसरा संस्करण,प्रस्तावना-प्रकाश सी. सारंगी, पृ. 123
  8. वही
  9. वही, पृ. 124
  10. डॉ. मलिक अजय-गठबंधन की राजनीति तथा भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, पृ. 97
  11. काश्यप सुभाष-भारतीय राजनीति और संसद,विपक्ष की भूमिका पृ. 88
  12. वही, पृ. 89