P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- XI , ISSUE- IX May  - 2024
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika

जनपद अम्बेडकर नगर (उ०प्र०) में सिंचाई एवं कृषि उत्पादकता: एक भौगोलिक विश्लेषण

Irrigation and Agricultural Productivity in Ambedkar Nagar District (U.P.): A Geographical Analysis
Paper Id :  19033   Submission Date :  2024-05-03   Acceptance Date :  2024-05-12   Publication Date :  2024-05-25
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DOI:10.5281/zenodo.12664603
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वीरेन्द्र कुमार
शोधार्थी
भूगोल विभाग
श्री गांधी पीजी कॉलेज, माल्टारी,
आजमगढ़,यूपी, भारत
सारांश

कृत्रिम विधियों जैसे - नहर, नलकूप, तालाब आदि द्वारा पौधों को जल उपलब्ध कराने को सिंचाई कहते हैं। सिंचाई कृषि का एक आधारभूत निर्धारक तत्व है क्योंकि अधिक उपज वाले (उन्नत) बीजों, रासायनिक उर्वरकों तथा बहुफसली कृषि को अपनाने से नियन्त्रित सिंचाई उत्पादकता वृद्धि में प्रधान कारक बन गयी है। विभिन्न योजना - कालों मे सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधायें के विस्तार पर विशेष ध्यान दिया गया है। अध्ययन क्षेत्र में सिंचाई के विकास तथा उन्नति कृषि - प्रविधियों के प्रयोग द्वारा निम्न कृषि उत्पादकता, शस्य प्रतिरूप, निर्वाहक कृषि तथा ग्रामीण निर्धनता जैसी आधारभूत समस्याओं का समाधान सम्भव हुआ है। अध्ययन क्षेत्र में सिंचाई की सुविधाओं में विकासखण्ड स्तर पर भिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं। ये भिन्नताएँ धरातल, जलस्तर, भूमिगत जल की गुणवत्ता मिट्टी आदि कारकों से उत्पन्न होती हैं। अध्ययन क्षेत्र का धरातल समतल होने के कारण नहरों तथा नलकूपों का पर्याप्त विकास हुआ है फिर भी वर्षा की अनिश्चितता से फसलों की उत्पादकता प्रभावित होती है। जनपद के जलवायु उष्ण मानसूनी होने के कारण यहाँ कृषि का मूल आधार सिंचाई है। खरीफ की फसल की अपेक्षा रबी एवं जायद को फसलों को सिंचाई की नितान्त आवश्यकता होती है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Providing water to plants through artificial methods such as canal, tube well, pond etc. is called irrigation. Irrigation is a basic determining factor of agriculture because by adopting high yielding (improved) seeds, chemical fertilizers and multi-cropping, controlled irrigation has become the main factor in increasing productivity. In different planning periods, special attention has been given to the expansion of irrigation facilities in drought-affected areas. In the study area, the development of irrigation and the use of advanced agricultural techniques have made it possible to solve basic problems such as low agricultural productivity, cropping pattern, subsistence agriculture and rural poverty. In the study area, differences in irrigation facilities are visible at the development block level. These differences arise from factors such as surface, water level, quality of underground water, soil etc. Due to the flat surface of the study area, canals and tube wells have developed considerably, however, the uncertainty of rainfall affects the productivity of crops. Due to the hot monsoon climate of the district, irrigation is the basic basis of agriculture here. Rabi and Zaid crops require more irrigation than Kharif crops.
मुख्य शब्द सिचाई, शुद्धसिंचित क्षेत्र, सकल सिंचित क्षेत्र, सिंचाई के साधन, कृषि उत्पादकता, कृषि उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Irrigation, Net Irrigated Area, Gross Irrigated Area, Means of Irrigation, Agricultural Productivity, Factors Affecting Agricultural Productivity.
प्रस्तावना

सिंचाई को सामान्यतः फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए कृषि भूमि में जल के कृत्रिम अनुप्रयोग के रूप में परिभाषित किया जाता है। फसल उत्पादन में सिंचित जल मुख्य रूप से सूखे की अवधि में अनुपस्थित वर्षा जल की जगह इस्तेमाल किया जाता है लेकिन इसके साथ ही सिंचाई का उपयोग ठंड के मौसम में कोहरे, तुषार आदि से पौधों की रक्षा करने के लिए भी किया जाता है किसी भी कृषि संबन्धित सिंचाई के दो प्राथमिक उद्देश्य होते है -(1) पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक नमी प्रदान करना जो पोषक तत्वों के आंतरिक परिवहन के लिए आवश्यक है। (2) मिट्टी में उपस्थित लवणों को पतला करना ताकी पौधों की जड़े उन्हें आसानी से ग्रहण कर सके। इसके अलावा, सिंचाई, मिट्टी और वातारण को ठंड कर फसल के विकास के लिए अधिक अनुकूल माहौल भी बनाती है। इस प्रकार सिंचित जल, कृषि भूमि के लिए वर्षा जल और अन्य जल के पूरक के रूप में उपलब्ध है। कर कृषि उत्पादकता में अभीष्ट भूमिका निभाता है।

अध्ययन क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए और विशेष रूप से कृषि उत्पादकता के लिए उन्नति सिंचाई तकनीकी एक अति महत्वपूर्ण और निर्णायक कारक है। इतिहास इस बात साक्षी है कि सभी पुरानी सभ्यतायें, सिंचित कृषि आधारित समाज पर ही विकसित हुई थी जनपद की जलवायु मानसूनी होने के यहाँ कृषि का मूल आधार सिंचाई है। खरीफ की फसल की अपेक्षा रबी एवं जायद की फसलों का सिंचाई की नितान्त आवश्यकता पड़ती है। आर० एल० सिंह के अनुसार सम्पूर्ण मध्य गंगा मैदान में मिट्टी एवं वर्षा की उपयुक्तता के कारण भूमिगत जल का भण्डार है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि उसका विस्तृत रूप से वैज्ञानिक सर्वेक्षण एवं स्थिति का निर्धारण किया जाये।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत अध्ययन का मुख्य उद्देश्य अध्ययन क्षेत्र में सिंचाई एवं कृषि उत्पादकता को बढ़ाना तथा सिंचाई के कारणों का पता लगाना, कृषि को प्रभावित करने वाले विविध आयामों की समीक्षा करना। तथा कृषि के अभिनव तकनीकों का प्रयोग करते हुए कृषि नवाचारों के विकास को प्रोत्साहन करना।

साहित्यावलोकन

सिंचाई व्यवस्था, कृषि उत्पादकता तथा सम्बंधित सामाजिक-आर्थिक विकास प्राचीन काल से ही भूगोलविदों के बीच अध्ययन का विषय रहा है इस विषय पर वर्तमान समय में नई तकनीकि, सीमित संसाधन, बढ़ती जनसंख्या, संसाधनों का अनुकूल तथा वैज्ञानिक उपयोग एवं बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करना भूगोलविदों के लिए एक चुनौती से कम नहीं है 20वीं सदी के आरम्भ में 1991 में कोलंसिकी की विद्वतापूर्व कृति "कृषि भूगोल का वैज्ञानिक आधार" में कृषि भूगोल की वैज्ञानिक स्थिति की व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। कैण्डल ने कृषि दक्षता का निर्धारण करने के लिए 1939 में कोटि गुणांक विधि का प्रतिपादन किया जो बहुत सरल है। कैण्डल ने कृषि उत्पादकता निर्धारण करने के लिए इंग्लैण्ड की 48 काउन्टियों में 10 प्रमुख फसलों की प्रति एकड़ उपज को आधार बनाया। उन्होंने प्रत्येक काउण्टी में प्रति एकड़ उत्पादन के आधार पर प्रत्येक फसल के लिए कोटि निर्धारणा की। यह कोटि निर्धारण का कार्य अवरोही क्रम में किया गया। इस प्रकार प्रत्येक काउण्टी की 10 कोटियों को जोड़कर फसल की संख्या से भाग देकर औसत संख्या ज्ञात कर ली गयी, इसे ही केण्डाल ने कोटि गुणांक कहा है। ई० डब्ल्यू जिम्मरमैन (1951) ने कृषि के अन्तर्गत भूमि से जुड़े हुए सभी मानवीय कार्यों - खेत का निर्माण, जुताई बुवाई, फसल उगान, सिंचाई करना, पशुपालन, मत्स्य पालन और अन्य जीवों का पालन इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है। 

आर. सी. तिवारी एवं बी. एन. सिंह ने इस पुस्तक में कृषि भूमि उपयोग, सिंचाई एवं कृषि उत्पादकता के बारे में विस्तृत दिया है एवं बताया है कि वर्तमान में कृषि उपयोग एवं सिंचाई में किस प्रकार परिवर्तन हो रहा है।

सामग्री और क्रियाविधि

प्रस्तुत अध्ययन में अवलोकनात्मक एवं विश्लेषणात्मक विधि तत्वों का प्रयोग करते हुए पूर्णतः द्वितीयक आँकड़ों का प्रयोग किया गया है। प्राथमिक आँकड़े प्रायः सर्वेक्षण पर आधारित होते है इन आँकड़ों का एकीकरण कृषकों से व्यक्तिगत पूछत्ताह प्रक्रिया के द्वारा किया गया है इसी प्रकार द्वितीयक आँकड़े विकास खण्ड स्तर पर कार्यालयों से प्रकाशित एवं अप्रकाशित दोनों रूपों में लिया गया है। तदोपरान्त समस्याओं के समाधान हेतु उपर्युक्त सुझाव भी प्रस्तुत किये गये हैं।

विश्लेषण

अम्बेडकर नगर जनपद उ.प्र. के फैजाबाद मण्डल के अन्तर्गत इसके पूर्वी भाग में स्थित है। यह प्रदेश का 67वाँ जनपद है। इसकी स्थिति 26 डिग्री 10 मिनट से 26 डिग्री 30 मिनट उत्तरी अक्षांश और 82 डिग्री 20 मिनट से 83 डिग्री 00 मिनट पूर्वी देशान्तर के मध्य है। इसके उत्तर में बस्ती, संतकबीर नगर तथा गोरखपुर जनपद और दक्षिण में सुल्तानपुर जनपद तथा पश्चिमी सीमा पर फैजाबाद और पूर्वी सीमा पर आजमगढ़ जनपद स्थित है। सरयू नदी जनपद की उतरी सीमा निर्धारित करती है।

सिंचित क्षेत्र से तात्पर्य ऐसी भूमि से है जिस पर सिंचाई की जाती है एवं उस पर कृषि की जाती है।
(1) शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल - अध्ययन क्षेत्र के सबसे अधिक शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल टाण्डा (99.16 प्रतिशत) विकासखण्ड में पाया जाता है। दूसरे स्थान पर अकबरपुर विकास खण्ड में (98.30 प्रतिशत) तथा सबसे कम शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल जहाँगीरगंज विकासखण्ड (86.78 प्रतिशत) में पाया जाता है।


विकासखण्ड

शुद्ध सिंचित

सकल सिंचित

भीटी

97.94

177.66

कटेहरी

96.67

159.50

टकबरपुर

98.30

189.14

टाण्डा

99.16

173.05

बसखारी

97.46

169.42

रामनगर

97.38

161.34

जहाँगीरगंज

86.78

157.80

जलालपुर

97.31

172.48

भियांव

91.19

151.49

जनपद

95.80

167.98

(2) सकल सिंचित क्षेत्रफल - अध्ययन क्षेत्र में जनपद का सकल सिंचित क्षेत्रफल 167.98 प्रतिशत है सबसे अधिक सकल सिंचित क्षेत्रफल अकबरपुर विकास खण्ड में 189.14 प्रतिशत पाया जाता है तथा सबसे कम सकल सिंचित क्षेत्र भियांव विकासखण्ड का 151.99 प्रतिशत है जनपद का विकासखण्डवार सकल सिंचित क्षेत्रफल का प्रतिशत संतोष जनक है।

सिंचाई के साधन- किसी भी क्षेत्र की कृषि सिंचाई के समुचित साधनों द्वारा नियंत्रित एवं प्रभावित होती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व अध्ययन क्षेत्र में सिंचाई मुख्यतः तालाबों, कुओं, छोटी-छोटी नदियों एवं नालों आदि से तत्कालीन प्रचलित उपकरणों जैसे- दोन, ढेकुली, चखी, दुमला, रहट आदि के माध्यम से की जाती थी ये सभी साधन अपर्याप्त होने के साथ-साथ सर्वसुलभ नहीं थे जिससे पर्याप्त सिंचाई की जा सके। वर्तमान परिस्थितियों में अभियांत्रिक सिंचाई साधनों के परिणाम स्वरूप तालाब, कूप तथा अन्य प्रचलित सिंचाई स्रोतों की नहर, विद्युत एवं डीजल चालित नलकूप व पम्पिंगसेट ने स्थान ले लिया है।

अम्बेडकर नगर जनपद में सिंचाई के साधनों में नलकूप का स्थान सर्वोपरि है जिससे सम्पूर्ण सिंचित भूमि का 91.77 प्रतिशत भाग सींचा जाता है दूसरे स्थान पर नहरों का प्रभुत्व है अध्ययन क्षेत्र में क्षेत्रीयता के आधार पर सिंचाई के साधन इस प्रकार है-

(1)- नहर, (2) नलकूप - राजकीय व निजी, (3) अन्य स्रोत - तालाब, नदी, नाले व कुएं आदि

नहर- अध्ययन क्षेत्र में नहर की कुल लम्बाई 721 किमी. है। जनपद में चार प्रमुख नहर तंत्र हैं - टाण्डा पम्प नहर, टाण्डा मुख्य नहर, समानान्तर नहर तथा फैजाबाद शाखा की सहायक नहरे पवसरा, जहाँगीरगंज, हंसवर और कटघर नहरें प्रमुख है। यहाँ के 5.60 प्रतिशत भाग पर नहरों द्वारा सिंचाई की जाती है।

नलकूप- नलकूप सिंचाई के साधनों में सबसे नवीन साधन है। सन् 1971 में कृषि ऋण कार्पोरेशन द्वारा योजना के तहत 140.05 लाख रुपये की योजना बनायी गयी और सभी क्षेत्रों को नलकूप द्वारा सिंचाई उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया। इससे नलकूप और पम्पिंग सेट के माध्यम से भूमिगत जल प्राप्ति आसान हो गयी है, जनपद में सिंचाई राजकीय नलकूप, व्यक्तिगत नलकूप व पम्पिंग सेटो द्वारा होती है। नलकूपों द्वारा सिंचित क्षेत्रफल में 2.74 प्रतिशत भाग राजकीय नलकूपों द्वारा तथा 89.03 प्रतिशत भाग निजी नलकूपों द्वारा सिंचित है।

सिंचाई के अन्य साधन - सिंचाई के अन्य साधनों में तालाब, पोखरा, झील व कुआँ है। अध्ययन क्षेत्र में तालाब और कुआँ परम्परागत सिंचाई के स्रोत रहे हैं। वर्तमान में जनपद में अन्य सिंचाई के साधानों से 2.72 प्रतिशत भाग की सिंचाई की जाती है इन सिंचाई के साधनों

कृषि उत्पादकता- कृषि उत्पादकता से तात्पर्य किसी क्षेत्र विशेष में प्रति हेक्टेयर उत्पादन से है। कृषि उत्पादकता में मिट्टी, जलवायु, कृषि तकनीक, पूँजी एवं उर्वरकों का विशेष महत्व होता है। कुछ क्षेत्रों में अधिक उर्वरकों के प्रयोग से भी अनुकूल उत्पादन नहीं प्राप्त हो पाता है। यहाँ मिट्टी की जाँच आवश्यक होती है जिससे मृदा में जिस अनुपात में सिंचाई और उर्वरकों की आवश्यकता हो उसी अनुपात में उनका प्रयोग किया जा सके। कृषि उत्पादकता रखने के लिए फसलों में अन्तराल तथा मिट्टी में विद्यमान पोषक तत्वों की नियमित जाँच आवश्यक होती है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने में भौतिक कारकों उन्नतशील बीजों, सिंचाई के साधनों, उर्वरकों, मशीनीकरण, कृषकों की कुशलता, पूंजी एवं नवीन तकनीकों का विशेष महत्व है।

कृषि उत्पादकता के निर्धाण में विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग कारकों को आधार मानकर अध्ययन किया है। इस क्षेत्र में प्रमुख रूप से स्टैम्प (1958), एम० शफी. (1960 तथा 1972) सप्रे एवं देशपाण्डे (1964), एस. एस. भाटिया (1967), जी० इनेडी (1964), बी० एन० सिन्हा (1968), जसवीर सिंह (1976 तथा 1985 1990), मालिद हुसैन (1976) आदि विद्वानों ने कृषि उत्पादकता सम्बन्धी अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

कृषि उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारक

कृषि उत्पादकता किसी क्षेत्र की प्रति इकाई उत्पादन की मात्रा को प्रदर्शित करता है। किसी भी क्षेत्र के अलग-अलग भागों में अलग-अलग कृषि उत्पादकता पायी जाती है जिसके लिए भौतिक तथा मानवीय कारक उत्तरदायी होते हैं। भौतिक कारकों जैसे जलवायु, मिट्टी एवं उच्चावच सर्वाधिक प्रभाव डालते हैं। मानवीय कारकों में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी कारक महत्वपूर्ण हैं।

निष्कर्ष

सम्पूर्ण अध्ययन क्षेत्र की कृषि मानसून से ही नियन्त्रित है। यहाँ पर सिंचाई की व्यवस्था कम है। यहाँ सस्ती एवं भरोसेमन्द सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराने का हर सम्भव प्रयास किया जाना चाहिए कृषि में सिंचाई जैसे- आधारभूत अवस्थापना सुविधा के विकास व विस्तार के लिए कृषक का हर सम्भव प्रयास होना चाहिए। हर गाँव में सिंचाई और विद्युत व्यवस्था करना अनिवार्य है। भूगर्भजल प्रबन्धन की प्रस्तावित रूपरेखा में नलकूपों के लिए सस्ती दर पर नियमित और विश्वसनीय विद्युत आपूर्ति आवश्यक हैं। इस क्षेत्र में सरकारी नलकूप कम है तथा जो मौजूद है वो अधिकांशतः खराब है जिससे किसानों को निजी पम्पसेट का सहारा लेना पड़ता है जो डीजल चालित होने के कारण अधिक खर्चीला है। अतः इस समस्या के निवारण हेतु पारस्परिक सहयोग एवं संगठन तथा सरकार द्वारा समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में देखने से ही सम्भव है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. तिवारी, आर० सी०2018) भारत का भूगोल, प्रवालिका पब्लिकेशन्स, इलाहाबाद, पृ०-163

2. मौर्य एस० डी० (2006) संसाधन भूगोल प्रयाग पुस्तक भवन युनिवर्सिटी रोड, इलाहाबाद पृ०-32

3. गौतम, अलका (2012) ’कृषि भूगोलशारदा पुस्तक भवन यूनिवर्सिटी रोड प्रयागराज पृ०-137

4. दूबे, बेचन एवं सिंह, मंगला (1985) समन्वित ग्रामीण विकासपृ०-110

5. तिवारी आर० सी० एवं सिंह बी० एन० (2021) कृषि भूगोल, प्रयाग पुस्तक भवन प्रयागराज पृष्ठ-76

6. https://www.usda.gov/oce/sustainability/spg-faqs