P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- IX , ISSUE- II May  - 2024
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation

गोदान : किसान-जीवन की त्रासद-कथा

Godaan : A Tragic Tale of Life of Peasants
Paper Id :  19027   Submission Date :  2024-05-08   Acceptance Date :  2024-05-16   Publication Date :  2024-05-22
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DOI:10.5281/zenodo.12670628
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सुमिता चट्टोराज
एसोसिएट प्रोफेसर, विभागध्यक्षा
हिन्दी विभाग
महाराजा मनिंद्र चन्द्र कॉलेज
कोलकाता,पश्चिम बंगाल, भारत
सारांश

प्रेमचंद ने गोदानउपन्यास में किसान-जीवन के विषाद को व्यक्त किया है। इसमें होरी की मृत्यु और गोबर का शहर में गमन उपन्यास की कथा को मानो समापन नहीं वरन् प्रारंभ करता है। इसमें उपन्यासकार ने उपन्यास को औपन्यासिक तत्वों की अपेक्षा जीवन के उपादानों से अधिक सजाया है । हाशिए में जाने वाले कृषक वर्ग की समस्याओं से भारतीय समाज का परिचय करवाते हुए उसके उजड़ने और रास्ते पर फेंक दिए जाने की त्रासदी  को इसमें प्रस्तुत किया जाता है। प्रेमचंद इसमें किसानों से संवाद करते नजर आते हैं, उनकी झोपड़ियों के भीतर झांककर उनकी नित्यदिन के उत्पीड़न की कथा कहते नजर आते हैं, उनकी आँखों से शस्य- श्यामला वाले हिन्दुस्तान का सपना रोपते दिखाई देते हैं। गोदान में प्रेमचंद्र ने होरी, धनिया, गोबर को लेकर जिस किसान परिवार की जिन्दगी को केन्द्रीय विषय बनाया है उसमें शुरुआती तौर पर इस परिवार की अच्छी जिन्दगी के  चित्र खिंचे गये हैं किन्तु जैसे- जैसे कथा रंग पकड़ती है, होरी का जीवन या यों कहें पूरे परिवार की जिन्दगी उजड़‌ने लगती है। जिससे साफ जाहिर होता है कि प्राचीन भारत के किशानों का जीवन अच्छा रहा किन्तु जैसे-जैसे बदलता के हुआ प्रेमचंद का बदलता हुआ भारत औपनिवेशिक परिवेश में पूँजीवाद, जमीन्दारी-प्रथा, महाजनी-प्रथा और सामंतवाद का शिकार हुआ, किसानों की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी। बेलारी गाँव और वहाँ रहने वाले पात्रों के माध्यम से प्रेमचंद ने किसानों का जीवन-चित्र इस प्रकार खड़ा किया है मानो वह पूरे देश के किसान - जीवन का चित्र हो। वस्तुतः लेखक ने ऐसा आधारपटल तैयार किया जिस पर खड़ा होकर कोई भी भारतवासी प्राचीन, वर्तमान और आने वाले दिनों के किसानों की जिन्दगी के तल्ख को टटोल सकता है। गोदानमें लेखक ने ऐसी शहरी और ग्रामीण भारतीय जीवन को प्रस्तुत किया है जो अपने सामाजिक यथार्थ के दायरे में एक खास वैचारिकी को लेकर चलने का प्रयास करता है। जमीन्दार राय साहब का दोहरा - व्यक्तित्व - एक तरफ उपनिवेशवाद की तरफ झुकना और दूसरी तरफ राष्ट्रीय आंदोलन की तरफ, तत्कालीन भारतवर्ष के जमीनदारों के द्वन्द्वात्मक मानसिकता और स्वार्थपरता तथा मौकापरस्ती विचारधारा को दर्शाता है। वे न तो राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर अड़ पाये और न ही किसानों की दशा सुधारने की नीति अपना पाये वरन् सामंतीय व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयासरत हुए और अंग्रेजों से हाथ मिलाकर  जमीन्दारी प्रथा को पोख्ता बनाये। 

जिसप्रकार विदेशी शक्ति के साथ मिलकर महाजनों, जमीन्दारों, सामंतों और पूँजीपतियों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ को तोड़ा, उस पर प्रेमचंद ने  सवाल उठाये हैं। गोदान' की धनिया समझ जाती है कि कोई कितना भी पेट काटके जिन्दगी गुजार करे, कोई कितना ही कौड़ी दाँत से पकड़ के रखे पर लगान का बेबाक होना संभव नहीं है तभी तो भारतीय किसान कभी भी ऋण से मुक्त नहीं हो पाया और इसे वे एकप्रकार अपनी नियति मान लिये क्योंकि भारतीय किसानों का आर्थिक-सामाजिक शोषण सिर्फ अंग्रेज नहीं कर रहे थे वरन् देशी पूँजीपति, महाजन, सामंत, जमीन्दार इत्यादि सभी इसमें जुटे थे। इसी के परिणामस्वरूप कभी किसान हल्कू बन 'पूस की रात' में खेती के खिलाफ मूक प्रतिवाद करता है  या कफनमें जमीन्दारों से परिश्रमिक न मिलने पर घिसू-माधव बन कामचोर बनता है और जमीन्दारी व्यवस्था में शामिल न होने का निःशब्द ऐलान करता है। गोदान की धनिया की विद्रोही चेतना भारतीय किसानों की विद्रोही चेतना बनती दिखाई देती है जिसके पिछे किसानों का लंबा संघर्ष रहा । औपनिवेशिक शासन ने जिसतरह देश की आर्थिक दशा को गिराया इसका प्रभाव किसानों की आर्थिक दशा पर पड़ा।

होरी खेत की अच्छी पैदावार के लिए कर्ज तो नहीं लेता पर वह महाजनी सभ्यता के चंगुल में फँस जाता है और उसकी कीमत उसे चुकानी पड़ती है। 'गोदान' में किसान को निरंतर गरीब होते दिखाया गया है। वह ऋण अपनी जिन्दगी को सुधारने के लिए नहीं लेता बल्कि लगान चुकाने, सूद चुकाने के लिए लेता है जिसके कारण उसकी आर्थिक स्थिति बिगड़‌ती चली जाती है। वह जितनी बार इस जाल से निकलना चाहता है वह और फँसता ही चला जाता है। यह समस्या महाजनों और अंग्रेजों द्वारा किसान - जीवन में संकट उत्पन्न करने के लिए पैदा की गई थी, ऐसा ही प्रेमचंद का मानना है। किसानों का जमीन छीन जाना, उन्हें  झूठे मुकदमों में फँसाना, उन्हें सूद की भयंकर आग में झोंक देना, उन्हें उनकी जिन्द‌गी गिरबी रखने के लिए मजबूर करना, कृषकों में फूट डालना और उनका संगठन बनने न देना, किसानों के सामने गाय जमीन और खेती की समस्या बनाए रखना इत्यादि गोदान के केन्द्रीय विषय हैं। परन्तु इन तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद प्रेमचंद ने किसान होरी को जीवन संग्राम में हारते हुए नहीं दिखाया है वरन् वह उल्लास के साथ विजय-पताका उड़ाता है और यह विजय सिर्फ होरी की नहीं वरन् प्रेमचंद की विजय है। गोदानमें लेखक ने यह भी दिखाया है है कि पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के प्रभाव से किस प्रकार मनुष्य के आपसी संबंध टूट रहे थे, किस प्रकार मजदूर शोषित हो रहे थे और उनकी पारिवारिक भावना नष्ट हो रही थी । किस प्रकार लोग शहर में अजनबीपन और कुंठाओं से भरे जीवन जी रहे थे। होरी की शहर जाने वाली सड़‌क पर मजूरी करना और मृत्यु को प्राप्त करना तथा गोबर की शहर में मजदूरी के लिए जाना और शोषण-उत्पीड़न का शिकार होना, इन सभी स्थितियों के द्वारा प्रेमचंद ने 20वी सदी के औपनिवेशिक भारतवर्ष के यथार्थ को उजागर किया है जिसमें किसान, मजदूर दोनों पिस रहे थे और यहाँ से निकलने का रास्ता खोज रहे थे।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Premchand has expressed the sadness of the farmer's life in the novel 'Godaan'. In this, Hori's death and Gobar's departure to the city do not end the story of the novel but start it. In this, the novelist has decorated the novel with elements of life rather than novelistic elements. By introducing the Indian society to the problems of the marginalized farmer class, the tragedy of its destruction and being thrown on the road is presented in it. Premchand is seen talking to the farmers in this, peeping inside their huts, telling the story of their daily oppression, sowing the dream of a green India through their eyes. In Godaan, Premchand has made the life of a farmer family the central theme with Hori, Dhaniya, Gobar, in which initially the picture of the good life of this family has been drawn, but as the story takes color, Hori's life or rather the life of the entire family starts getting ruined. From this it is clear that the life of the farmers of ancient India was good but as Premchand's India changed and became a victim of capitalism, landlordship system, money lending system and feudalism in the colonial environment, the economic condition of the farmers started deteriorating. Through the Bellary village and the characters living there, Premchand has created a picture of the life of the farmers in such a way as if it is a picture of the farmer life of the entire country. In fact, the author has prepared such a base on which any Indian can stand and feel the bitterness of the life of the farmers of ancient, present and future days. In 'Godaan', the author has presented such urban and rural Indian life which tries to follow a specific ideology within the scope of its social reality. The dual personality of landlord Rai Saheb - on one hand leaning towards colonialism and on the other hand towards the national movement, shows the dual mentality and selfishness and opportunistic ideology of the landlords of the then India. They could neither stick to the principle of nationalism nor adopt a policy to improve the condition of farmers, but instead they tried to revive the feudal system and strengthen the Zamindari system by joining hands with the British. Premchand has raised questions on the way the moneylenders, landlords, feudal lords and capitalists broke the backbone of the rural economy by joining hands with foreign powers. Dhaniya of 'Godaan' understands that no matter how much one spends his life on poverty, no matter how much money one holds on to, it is not possible to be fearless about rent, that is why Indian farmers could never be free from debt and they accepted it as their destiny because it was not only the British who were exploiting the Indian farmers economically and socially, but the native capitalists, moneylenders, feudal lords, landlords etc. were all involved in it. As a result of this, sometimes the farmer becomes Halku and silently protests against farming in 'Poos ki Raat' or in 'Kafan', on not getting remuneration from the landlord, he becomes a slacker like Ghisu-Madhav and silently declares his decision of not joining the landlord system. The rebellious consciousness of Dhaniya in Godaan is seen as the rebellious consciousness of Indian farmers, behind which there was a long struggle of the farmers. The way the colonial rule deteriorated the economic condition of the country, it affected the economic condition of the farmers.
Hori does not take loan for good yield from the field, but he gets trapped in the clutches of moneylender culture and has to pay its price. In 'Godaan', the farmer is shown to be continuously getting poor, who does not take loan to improve his life, but to pay rent and interest, due to which his economic condition keeps deteriorating. Every time he tries to get out of this trap, he gets trapped more and more. Premchand believes that this problem was created by the moneylenders and the British to create problems in the lives of farmers. Taking away the land of farmers, trapping them in false cases, throwing them into the fierce fire of interest, forcing them to mortgage their lives, creating divisions among farmers and not allowing them to form an organization, keeping the problems of cow, land and farming in front of farmers, etc. are the central themes of Godaan. But despite all these adversities, Premchand has not shown farmer Hori losing the struggle of life, rather he hoists the victory flag with joy and this victory is not only Hori's but Premchand's victory. In 'Godaan', the author has also shown how human relationships were breaking due to the influence of capitalism and imperialism, how laborers were being exploited and their family feeling was being destroyed. How people were living a life full of alienation and frustration in the city. Through Hori's work and death on the road to the city and Gobar's going to the city to work and facing exploitation and oppression, Premchand has exposed the reality of 20th century colonial India in which both farmers and laborers were being crushed and were looking for a way out.
मुख्य शब्द यथार्थ, पूँजीवाद, उपनिवेशवाद, महाकाव्यात्मक इतिहास - फलक, ग्रामीण अर्थव्यवस्था, मोहताज, ऋण - समस्या, सामंतवाद, महाजनी - सभ्यता, वस्तु- योजना, शोषण, उत्पीड़न, जमीन्दारी प्रथा, त्रासदी
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Reality, Capitalism, Colonialism, Epic History - Panel, Rural Economy, Needy, Debt - Problem, Feudalism, Moneylender - Civilization, Object- Planning, Exploitation, Oppression, Zamindari System, Tragedy
प्रस्तावना

गोदान कर्ज की समस्या पर आधारित एक उपन्यास है जिसमें प्रेमचंद ने गाँवों के कृषक - जीवन का चित्रण किया है। इसमें एक तरफ जहाँ लेखक ने होरी, धनिया, गोबर, हीरा इत्यादि चरित्रों के संसारों के चित्र खींचा है तो दूसरी तरफ जमीन्दार रायसाहब, खन्ना, मालती, मेहता इत्यादि पात्रों की दुनिया को अंकित किया है। इसे देखकर ऐसा लगता है मानो दुनिया दो पाटों में विभाजित है। एक पाट में शोषितों का संसार है, तो दूसरे में शोषकों का। प्रेमचंद दो पाटों में बंटी इसी दुनिया को गोदान' के माध्यम से हमारे सामने उभारते हैं जहाँ एक तरफ गाँव की जिन्दगी में होरी जैसे किसानों का शोषण होता है तो शहरी जिन्दगी में गोबर जैसे मजदूर का । प्रेमचंद के भारत में चाहे किसान हो या मजदूर, दोनों की आर्थिक स्थिति लगातार बिगड़‌ती जा रही थी जिसके लिए अंग्रेज के साथ- साथ देशी पूँजीपति, महाजन और सामंत समान रूप से जिम्मेदार थे और इसी समस्या को लेखक ने गोदानउपन्यास में उठाया है। होरी जैसे किसान को दबाकर जब तलहटी से लगा दी जाती है तब गोबर के मजदूर रूप का जन्म  होता है। जब होरी जैसे किसान की लाश अंग्रेजो की कुव्यवस्था रूपी लहरों के थपेड़े खाकर जीवन- सागर में उतराती हुई बहने लगती है तब जमीन्दारी-प्रथा और महाजनी-प्रथा के प्रचंड झोंकों से आहत और व्यथित होकर गोबर अपने मूल बसेरे से प्रस्थान कर शहरी ज़िन्दगी की ओर  कदम बढ़ाता है और उसका नव जन्म होता है।

होरी की मृत्यु और गोबर का शहर में पदार्पण दिखाकर प्रेमचंद कृषक-सभ्यता की मृत्यु और शहरीकरण-औद्यागिकीकरण के उदय की बात नहीं करते वरन् जमीन्दारी-प्रथा, और महाजनी-प्रथा और पूंजीवादी व्यवस्था के भयंकर चेहरे को बेनकाब करते हैं जो उनके समाज में देश की समग्र आर्थिक व्यवस्था को बिगाड़ रहे थे। होरी का अकेला होना कृषकों का एक जुट न हो पाने को इंगित करता है। किसानों का लगातार कर्ज के बोझ से झुक जाना देश का आर्थिक रूप से गिर जाने को दर्शाता है। प्रेमचंद दिखाते हैं कि किस तरह रायसाहब जैसे जमीन्दार किसानों में फूट डालने में सफल हो रहे थे और होरी जैसे किसानों के चरित्र की कमजोरी (जमीन्दार का तलवे सहलाना) से फायदा लूट रहे थे। लेकिन दूसरी तरफ धनिया और गोबर के कटाक्ष और अकाट्‌य तर्क के आगे होरी को झुंझलाते हुए भी दिखाया गया है। होरी और गोबर की वैचारिक टकराहट एक पुराने किसान और एक नये किसान की चेतना की टकराहट है। होरी जहाँ अपने अधिकारबोध से बेखबर है वहाँ गोबर अपने अधिकारों को पहचानना सीख जाता है। मेहता जैसे बुद्धिजीवी भी जमीदारों की सच्चाई को समझने लगे थे। मालती के माध्यम से लेखक ने यह संदेश दिया है कि शिक्षित लोगों को बेसहारे लोगों का सहारा बनना चाहिए। इस तरह 'गोदान' मे प्रेमचंद के समय और समाज का यथार्थ होरी के माध्यम से बोलता है और होरी की त्रासद मृत्यु  के लिए जिम्मेदार तमाम व्यवस्थाओं को चुनौती देता हुआ गोबर काल का अतिक्रमण कर जीवित रहता है और प्रेमचंद गोबर की आँखों से नवोदित भारत का स्वप्न देखते हैं।

अध्ययन का उद्देश्य

इस शोध कार्य का मुख्य उद्देश्य है किसानों की जिन्दगी की समस्याओं को 'गोदान' उपन्यास के समीक्षात्मक अध्ययन के माध्यम से उजागर करना और गोदान की प्रासंगिकता को पाठकों के सामने प्रस्तुत करना । साथ ही गोदान में वर्णित कृषक वर्ग के सामाजिक और आर्थिक शोषण से अवगत करवाना भी ध्येय रहा है। गोदान के माध्यम से किसानों  की दर्द भरी जिंदगी से वाकिफ होकर उन्हें आर्थिक सहायता कर देश की आर्थिक स्थिति की सुधार में सहयोग देना, अनाज की पैदाइश में किसानों को हर तरह से मदद करना  इत्यादि संबंधी विचारधाराओं को पाठकों से साझा करना भी इस शोध का उद्देश्य रहा है। प्रेमचंद के भारत के किसानों की जिन्दगी की सच्चाई को पाठकों के सामने उजागर करना भी लक्ष्य रहा है।

साहित्यावलोकन

इस शोध आलेख में अवलोकन पद्धति का सहारा लिया गया है। 'प्रेमचंद : एक साहित्यिक विवेचन' में नंद दुलारे वाजपेयी ने गोदान उपन्यास में वर्णित कृषक जीवन पर विस्तार से चर्चा की है। होरी, गोबर, धनिया, दातादीन् इत्यादि चरित्रों पर विशद दृष्टि डालते हुए लेखक के इन पात्रों पर होने वाले शोषण को स्पष्ट किया है। उपन्यास का कथा विवेचन, चरित्र विवेचन, विचार विवेचन और कला विवेचन करते हुए वाजपेयी जी ने तत्कालीन भारत की समस्याओं का विश्लेषण किया है। 'प्रेमचंद और उनका युगमें डॉ० रामविलास शर्मा ने किसानों के संघर्ष को स्पष्ट करते हुए ऋण को उनकी मूल समस्या बताया है। होरी, धनिया आदि चरित्रों की दर्दभरी जिन्दगी का बयान देते हुए महाजनी सभ्यता, पूँजीवाद इत्यादि के कारण उत्पन्न होने वाले देश के संकट को भी उन्होंने दर्शाया है। ए अरविंदाक्षन ने 'भारतीय कथाकार प्रेमचंदमें महाजनों द्वारा किसानों के शोषण को भारत की आर्थिक स्थिति के बिगड़‌ने का मुख्य कारण बताया है। साथ ही उन्होंने होरी को मुख्य चरित्र के रूप में दिखाकर तत्कालीन ग्रामीण जीवन के संघर्ष को प्रकट किया है। सत्यन्द्रे द्वारा संपादित पुस्तक प्रेमचंदमें लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने भारतीय जीवन के खोखलेपन पर प्रकाश डालते हुए अंग्रेजी शासन के अंतर्गत किसानों की जिन्दगी के वास्तविक चित्रों को उभारा है। डॉ० हरदीप कौर ने प्रेमचंद के गोदान में अभिव्यक्त यथार्थ’  नामक अपने लेख में किसान जीवन की विसंगतियों, कमजोरियों और  विवशताओं को दर्शाया है जो उनके जीवन यथार्थ से जुड़े हुए हैं। साथ ही उन्होंने गोदन में वर्णित किसानों की कई समस्याओं जैसे अशिक्षा, अंधविश्वास, गरीबी, आपसी फूट इत्यादि का यथार्थवादी चित्रण किया है। देवाशीष और डॉ० योगेन्द्र महतो ने 'गोदान' : आदर्श और यथार्थ का समन्वयशीर्षक लेख में गोदान में आदर्शवाद  और यथार्थवाद दोनों की प्रतिष्ठा को दिखाया है।

मुख्य पाठ

आधुनिक हिंदी कथा-साहित्य में प्रेमचंद के 'गोदान' उपन्यास का आगमन महाकाव्यात्मक इतिहास-फलक पर ग्रामीण चेतना और ग्रामीण परिवेश के साथ हुआ जिसमें भारतीय जातीय जीवन का सामाजिक यथार्थ अपने समस्त वैविध्य और विराटता के साथ मुखरित हुआ और होरी के बेटा गोबर के मोहभंग के रूप में वस्तुतः प्रेमचंद का आदर्श के प्रति मोहभंग बन कर उपस्थित हुआ। प्रेमचंद ने मानो कभी होरी बन जातीय जीवन में कृषकों के विविध समस्याओं का अनुभव किया तो कभी गोबर बन उन समस्याओं से उबरने की कोशिश की तो कभी एक लेखक होने के नाते तटस्थ होकर किसानों के सामाजिक परिवेश और उसमें से उत्पन्न होने वाले संकटों का वैविध्य अनेक रूपों में विश्लेषित करने का प्रयत्न किया है। नंद दुलारे बाजपेयी के अनुसार गोदान का कथानक ग्रामीण जीवन का कथानक है। उसका नायक एक भारतीय कृषक है। गोदान में भारतीय ग्राम के अनेकमुखी जीवन का दिग्दर्शन कराया गया    है।………. इस उपन्यास का नायक होरी आरंभ में अपने घर में एक गाय रखने को लालायित है…. वह कृषक उस गाय को रख सकने में असमर्थ हो जाता है। उसका परिवार छिन्न- छिन्न हो जाता है और जब वह मरता है तब गोदान के लिए न तो उसके पास गाय है, न बछिया और न पैसा ।"[1]

इस उपन्यास की वस्तु-योजना को सामाजिक यथार्थ के साथ विस्तार देते हुए प्रेमचंद ने होरी के जीवन-यथार्थ का संयोजन कर भारतीय संस्कृति और भारतीय परंपरा को प्रतिनिधित्व दिया है। होरी का दमन, शोषण तथा उत्पीड़न आज के किसानों के शोषण को वाणी देता है और इस यथातथ्य चित्रण के जरिये कथाकार ने खुद आदर्श का मोहभंग होने के पश्चात् किसानों को सब्जबाग दिखाने का सपना बुनने से साफ इनकार किया है। यही कारण है कि लेखक ने कथा को चरम बिंदु पर ले जाकर भी कथा का त्रासद अंत किया है। प्रेमचंद ने हमेशा चाहा कि उपेक्षित अनपढ़ किसान पढ़े-लिखे समाज के आकर्षण का केन्द्र बन जाएँ और यही उनका उच्चतम आदर्श भी रहा पर 'गोदान' उपन्यास की रचना तक आते-आते वे यथार्थोन्मुख बनते हैं और तब वे अपने ही हाथों निर्मित किसान चरित्रों को उनकी समस्याओ के प्रति सजग और सचेतन ही नहीं बनाते वरन् समस्याओं का हल किस प्रकार यथार्थपूर्ण तरीके से किया जाए, इसके लिए भी लेखक अपने कृषक-चरित्रों को सामर्थ्यपूर्ण बनाते हैं। गंभीर अध्ययन, चिंतन और अनुभव ने प्रेमचंद के व्यक्तित्व में भविष्यद्रष्टा की शक्ति उत्पन्न कर दी तभी तो 'गोदान' में उन्होंने सिर्फ किसानों की दुर्दशा, व्यथा, शोषण, विषमताओं का ही विस्तार से चित्रण नहीं किया वरन् ऐसी अनेक समस्याओं को चिन्हित किया है जो कृषक जीवन के लिए घातक सिद्ध हुए जैसे किसानों का पारस्परिक संघर्ष, गाँव की पंचायतें तथा उनके संचालक पंच और सरपंच द्वारा गोदान की दुनिया को विकृत और विषादमय बनाना और किसानों की मेहनत की कमाई को बड़ी चतुरता से हजम करना। पटेश्वरी, नोखेराम, दातादीन गाँव के ऐसे भाग्य विधाता हैं जो मरघट के कुत्तों के सदृश अवसर की खोज में बैठे रहते हैं। जब उन्हें शोषण का पूरा मौका मिल जाता है तब वे चुकते नहीं हैं। रामविलास शर्मा के अनुसार " गोदान की मूल समस्या ऋण की समस्या है।--- गोदान लिखकर उन्होंने किसान की उस समस्या पर प्रकाश डाला जो आए दिन उनके जीवन को सबसे ज्यादा स्पर्श करती है।"[2]

इन पंचों में न दया है न ममत्व या अपनत्व वरन् वे किसानों का सर्वनाश करने पर तुले रहते हैं। दरिद्र किसान होरी की पत्नी धनिया इनके विरुद्ध कहती है "पंचों, गरीबों को सताकर सुख न पाओगे, इतना समझ लेना। हम तो मिट जायेंगे लेकिन मेरा सराप तुमको जरूर से जरूर ले डूबेगा।" लेखक ने 'गोदान' के माध्यम से भारतीय ग्रामीण पंचायत व्यवस्था का स्वरूप स्पष्ट किया है जो भारत के शोषित किसानों को बराबर अर्द्ध-जीवित मात्र रहने देना चाहती है और इनका काम ही है अनाचार, दुराचार और भ्रष्टाचार को फैलाना। डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के शब्दों में "प्रेमचंद ने गोदान की रचना परतंत्र भारत में की थी। इसलिए उनके सामने सबड़े बड़ी चीज तो थी अंग्रेजी शासन के फलस्वरूप भारतीय जीवन का खोखलापन। यथार्थ जीवन पर दृष्टि केन्द्रित रहने के कारण वे इस राष्ट्रीय खोखलेपन से विमुख न हो सकते थे।"[3]

गोदान में उच्च, मध्य और निम्न वर्ग के पात्र गढ़कर प्रेमचंट ने वस्तुतः शोषकों और शोषितों में स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी है। गाँव के किसान और नगर के मजदूर, इन दोनों श्रमजीवियों का शोषण कुभी जमींदार करता है, कभी महाजन और कभी पूँजीपति।

ए अरविंदाक्षन के अनुसार कृषकों का जीवन बीसवीं सदी में भी अपरिवर्तनीय है। उस दौर में जमीन्दारों तथा महाजनों के शोषण का वह ऐसा शिकार था कि वह मुक्त नहीं हो सकता    था।”[4] गोदान में किसान हो या श्रमिक, दोनों ही शोषण के शिकार हैं। लेखक ने समाजशास्त्रीय दृष्टि से गोदान के पात्रों को यथार्थोन्मुख रूप दिया है और यह यथार्थवादी चरित्र-चित्रण ही चरित्रों की सजीवता और गतिशीलता का आधार है चाहे गोबर हो, झुनिया हो, पुनिया हो या सिलिया। प्रेमचंद के ये पात्र प्रतिनिधि पात्र हैं फिर भी उनमें चारित्रिक चक्रवाक नहीं होता। गोदान में आकर प्रेमचंद ने चरित्रों का विन्यास कथा-प्रसंगों की अनिवार्यता के अतिरिक्त अपने विविध यथार्थपूर्ण वैचारिकता को ध्यान में रखकर किया है इसलिए ये पात्र कथा-प्रवाह में बहते तृण नहीं है वरन् प्रेमचंद के दर्शन, अनुभूति और यथार्थपरक चिंतन की संवेदनात्मक फसल है।

एक भारतीय किसान होने के नाते होरी के मन में एक गाय और एक खेत की लालसा का होना अत्यंत ही स्वाभाविक है, किंतु उसके जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ यह है कि वह आजीवन अपनी इस छोटी-सी आशा को पूरी नहीं कर पाता पर धार्मिक आधार की कैसी विडंबना कि होरी की मृत्यु के पश्चात् होरी की अधूरी साध पूरी होती है गोदान के द्वारा। जीते जी जो अपने द्वार पर एक गाय न बाँध सका, उसकी मृत्यु पर गोदान- इससे बढ़कर होरी के जीवन पर्यन्त तक का और जीवन की सीमा के पार तक का यथार्थ और क्या हो सकता है? जीवन और मृत्यु से परे जाकर भी होरी का यथार्थ समाप्त होकर भी शेष नहीं होता, उसका यथार्थ आज के कृषक-जीवन का भी यथार्थ बन जाता है। होरी की मृत्यु किसी भी समय या समाज के किसान की मृत्यु नहीं है वरन् जीवनीशक्ति से अनुप्राणित किसान का एक जीवन से दूसरे जीवन में, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में गतिशील संचरण है, जहाँ सिर्फ किसानों का जीवन ही जीवन है, उत्पीड़न से मुक्ति का स्वप्न है, जहाँ उनमें स्थिरता या ठहराव नहीं आता वरन् बहता हुआ उनका चिंतन प्रवाह उन्हें उनकी तंगी, विवशता, शोषण से बाहर निकालती है। तभी तो नामवर सिंह लिखते हैं "गोदान भारतीय साहित्य में उस समय की जितनी कथाकृतियाँ लिखी गई हैं, उसमें आज भी अपतिम और बेजोड़ है और यह गौरव हिन्दी कथा-साहित्य को    हैं।”[5]

भारतीय समाज में बार-बार धनिया जन्म लेती है और कहती है "क्या करे, पैसे नहीं है, नहीं तो किसी को भेजकर डॉक्टर बुलाती" या कहती है "महाराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है।" धनिया का भी यथार्थ भी होरी के यथार्थ की तरह जीवन के करुण संघर्ष का यथार्थ है जिसे सिर्फ होरी और धनिया ही नहीं, प्रेमचंद भोगते हैं। प्रेमचंद जिस युगबोध को अभिव्यक्त करते हैं उसमें वे गाँव और नगर के संपूर्ण भारतीय जीवन की गहराई में प्रवेश करते हैं। इस उपन्यास में मनुष्यत्व तभी दबता नजर आता है जब मनुष्यों का संबंध यांत्रिक हो जाता है। फिर भी प्रेमचंद अपने चरित्रों के व्यक्तित्व को सामाजिक यथार्थ के संदर्भ में दबने नहीं देते। लेखक की सुधारवादी दृष्टि इस उपन्यास में स्पष्ट है जो सामाजिक-आर्थिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में भी उभरकर आती है और यह दृष्टि नवजागरण-कालीन मानव मूल्यों के प्रभाव को ग्रहण करते हुए औपनिवेशिक परिवेश में स्थित वर्ग संघर्ष के उभार को दर्शाती है।

ग्रामीण अर्थव्यस्था की रीढ़ की हड्डी को तोड़ने में सिर्फ ब्रिटिश ही जिम्मेदार नहीं था वरन् इस पड़यंत्र में सामंत, जमीन्दार, महाजन, पंचायत सभी शामिल थे। भारतीय कृषकों के अनेकायामी शोषण और साथ ही आर्थिक मंदी, दुर्भिक्ष, अकाल, सूखा जैसी स्थितियों से गुजरना तथा लगान और ऋण का चुकता न होना उनके जीवन में आम बात हो गयी थी। औपनिवेशिक शोषण ने कृषक जीवन को दयनीय बना दिया और महाजनी सभ्यता ने किसानों के लिए ऋण-समस्या को बढ़ा दिया। सामंत और महाजनों के षड्यंत्र के जाल में किसान फंसते चले गये और इसके लिए औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था भी जिम्मेदार रही। सूद की दर भयानक होने पर भी किसान महाजन-साहूकार को अपनी जिंदगी गिरवी रखकर भी उधार लेने के लिए बाध्य थे। यह एक ऐसा यथार्थ है जिसका समाधान प्रेमचंद खोज रहे थे। पंडित दातादीन का होरी को बैल खरीदने के लिए 30 रुपये देना और नौ साल में सूद बढ़ने से उसका 200 रुपये हो जाना भारतीय किसान-समाज की ऐसी समस्या थी जिससे किसान निकल नहीं पा रहे था क्योंकि इसके पीछे राजनीतिक षड़यंत्र था। इन्द्रनाथ मदान के अनुसार "गोदान' में समाज के सम्पन्न और विपन्न वर्गों का विरोध स्पष्ट शब्दों में दिखाया गया है।[6]

कृषक जितनी आपसी समस्याओं से घिरे रहेंगे, शोषक वर्ग की सत्ता उतनी ही सुरक्षित रहेगी। शोषक वर्ग ने हमेशा चाहा कि किसान कौड़ी-कौड़ी के लिए दूसरों का मोहताज हो और उसकी छोटी से छोटी लालसा भी कभी पूरी न हो। एक किसान जीवन की इससे करुण ट्रैजेडी और क्या हो सकती है? होरी का अभाव पूरे भारत के किसान वर्ग का अभाव है। होरी कहीं उत्पीड़न, अभाव और तनाव से मुक्त नहीं है।

इंद्रनाथ मदान के शब्दों में "उपन्यास का प्रमुख पात्र होरी उपन्यासकार की अमर सृष्टि है। यह पहला अवसर है जबकि हिन्दी कथा-साहित्य में किसान का चित्रण एक व्यक्ति के रूप में किया गया है।”[7]

परिस्थिति की क्रूरता ने होरी को तोड़ा है और वह जितनी बार टूटा, कृषकों की मानसिकता भी खंडित हुई और उतनी ही बार परंपरागत ग्रामीण व्यवस्था भी टूटी जिसके कारण होरी की विवशताएँ भी बढ़ीं। जहाँ सामंती समाज पूँजीवादी समाज में बदल रहा था वहाँ प्राचीन और रूढ़िहीन मूल्यों से जुड़ने की चाह रखकर भी होरी उससे जुड़ नहीं पाता, न ही उसे बचा पाता है। होरी हार रहा था पर उसकी हार में भी एक उल्लास था, तभी तो वह कहता है "कौन कहता है, वह जीवन संग्राम में हारा है। यह उल्लास, यह गर्व, यह पुलक क्या हार के लक्षण हैं?" वस्तुतः प्रेमचंद कृषक समाज का जनतांत्रिक विकास चाहते हैं तभी तो वे व्यक्ति और परिवार के पारस्परिक संबंध को महत्त्व देते हैं तथा मानवीय मूल्यों की रक्षा बाछनीय बताते हैं। होरी एक यथार्थपरक चरित्र है जो औपनिवेशिक परिवेश में सामंती समाज के अंतर्गत विषमता की मार खाकर भी यथार्थ को भोगता है और तमाम दुर्बलताओं के बावजूद उच्च्च जीवन- मूल्यों को जीता है। स्त्री-उत्पीड़न, स्त्री की इच्छा का महत्त्व न होना, परिवार में स्त्री का जानवर की तरह खटना, पुरुष- तांत्रिक समाज में स्त्री   पर शक्ति-प्रदर्शन करना इत्यादि भी इस उपन्यास की कथा का एक और यथार्थ है जो प्रेमचंद के समाज में आधुनिक दृष्टिकोण के पनपने पर भी लक्षित होता है। पीढ़ियों का संघर्ष एक और चुनौती बनकर कथा में उपस्थित हुआ है।

जाफ़र रज़ा के अनुसार "प्रेमचंद को हिन्दी - उर्दू साहित्य में जहाँ अनेक रूपों में विशिष्टता प्राप्त हैं वहाँ यह भी साफ है कि उन्होंने हिन्दी-उर्दू साहित्याकारों के लिए जिस प्रगतिशील विचारधारा का आवाहन अपने अंतिम दिनों में किया था, वही वर्तमान में भी साहित्य- रचना का आधार बनी हुई है।”[8]

गोदान में हिंदू धर्म के बाह्याडंबर का सच एक बार पुनः प्रस्तुत होता नजर आता है। धर्म की आड़ में कृषक समाज का शोषण भारतीय समाज का एक और यथार्थ है। यद्यपि गोबर के माध्यम से प्रेमचंद धार्मिक शोषण पर चोट करते हैं पर दातादीन को सुधार नहीं पाते। जातिभेद की समस्या प्रेमचंद के समाज की एक बहुत बड़ी समस्या रही और साथ पिछड़ी जातियों का भूमिहीन रहना भी जाति-संघर्ष जैसी समस्या को जन्म दिया पर दूसरी ओर धर्म और जाति संबंधी नई चेतना भी गाँव में उभरी।

होरी का जीवन भले ही विलगाव और कुंठाओं से भरा हो किंतु गोबर के चरित्र के माध्यम से प्रेमचंद ने मानो होरी के चरित्र को और शक्ति के साथ ही पुनर्निर्मित कर दिया है। गलत को गलत कहना और गलती को स्वीकारते हुए चरित्रों में हृदय-परिवर्तन लाना प्रेमचंद की कथा का अन्यतम वैशिष्टय है जिसके परिणामस्वरूप प्रेमचंद का आदर्श के प्रति मोहभंग होता है और गोदान में वे अपनी कथा के चरित्रों को जिन्दगी की छोटी-छोटी अनगिनत कश्मकश से ले जाते हुए यथार्थ के धरातल पर पहुंचा देते हैं जहाँ पर उनकी जीवन-स्थिति बहुत अच्छी तो नहीं है पर जीवन-संघर्ष बरकरार रहता है जो उनकी जीवंतता का साक्षी बन हर समाज में उनके उज्जवल चिह्न छोड़ जाते हैं।

देवाशीष एवं डॉ० योगेन्द्र महतो के अनुसार "ग्रामीण जीवन का इतना यथार्थवादी और व्यापक चित्रण शायद ही किसी भारतीय उपन्यास में मिले। गोदान भारतीय कृषक जीवन की आँसू भरी कहानी अथवा विषाद गीत है।”[9]

हरदीप कौर के अनुसार “--- किन्तु ध्यान से देखा जाए तो गोदान तक आते-आते प्रेमचंद की लेखनी ने आदर्शवाद को छोड़‌कर एक दम यथार्थवाडी क्रांतिकारी का रूप ग्रहण कर लिया था। गोदान में प्रेमचंद की दृष्टि वस्तुवादी रही है।”[10] अतः स्पष्ट है कि गोदान में जिस सामाजिक मूल्य का दर्शन और अनुभव होता है वह आज भी प्रासंगिक है।

निष्कर्ष

गोदान' में प्रेमचंद ने जहाँ किसानों और मजदूरों के शोषण की बात रखी है वहाँ किसानों की कई समस्याओं को भी उठाया है खासकर ऋण की समस्या ।  किसानों का एकजुट न हो पाने की समस्या, किसानों द्वारा जमीन्दारों का तलवे सहलाने और उनके अन्याय का प्रतिवाद न करने की समस्या, जातिवाद की समस्या, किसानों का कुसंस्कार में विश्वास रखने की समस्या तथा एक दूसरे के प्रति हिंसा-विद्वेष रखने की समस्या और घिसी-पिटी पुरानी परंपराओं और मान्यताओं में उनका विश्वास रखने की समस्या, भूमि व्यवस्था की समस्या, सूदखोरी की समस्या इत्यादि कई समस्याओं को प्रेमचंद ने इस उपन्यास मे ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ में देखने की कोशिश की है। प्रेमचंद ने इसमें संयुक्त परिवार के टूटन को भी दिखाया गया है जो उनके समाज की बड़ी घटना थी। ग्रामीण समाज में आपसी संबंध किस तरह से बिखर रहे थे-इसको भी प्रेमचंद के गोदान' में दिखाया है। मेहता के माध्यम से प्रेमचंद ने अपने विचार रखे हैं, अपना जीवन दर्शन रखे हैं। गोबर द्वारा जमीन्दार का मजाक उड़ाना गोदान की विचारधारा का एक अन्यतम हिस्सा है। होरी की मृत्यु होरी को जीवन-संग्राम में हारता हुआ नहीं दिखाता वरन उसे कालजयी घोषित करती है। इसमें प्रेमचंद की दलित-चेतना, स्त्री - चेतना और राष्ट्रीय चेतना भी उजागर हुई हैं। द्वार पर गाय का बंधना और थोड़ी सी जमीन का होना - किसानों के ये दोनों सपने पूरे न होने का कष्ट प्रेमचंद को दुखी बनाते हैं। जनवादी - लोकतांत्रिक समाज का सपना कौन नहीं देखना चाहता ? प्रेमचंद ने भी देखा है यह सपना गोदान में किसानों के माध्यम से इसीलिए वे गोदान में महाजनी, पूँजीवादी, सामन्तीय और औपनिवेशिक समाज की उद‌घोषणा करते हैं जो सिर्फ उनकी प्रगतिशील विचारधारा का परिचायक नहीं है  वरन् उनका यथार्थबोध है जिसे उन्होंने अपने आदर्श के मोहभंग होने पर पाया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. वाजपेयी नंद दुलारे, प्रेमचंद : एक साहित्यिक विवेचन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष - 2000, पृष्ठ 90

2. शर्मा डॉ० रामविलास, प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014, पृष्ठ 96

3. संपादक - सत्येन्द्र, लेखक- वार्ष्णेय डॉ० लक्ष्मीसागर, प्रेमचंद, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रकाशन वर्ष - 1989 , पृष्ठ 40

4. अरविन्दाक्षन ए, भारतीय कथाकार प्रेमचंद, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, प्रकाशन वर्ष 2009, पृष्ठ 54

5. सिंह नामवर, प्रेमचंद्र और भारतीय समाज, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष - 2011, पृष्ठ 156

6. मतदान इन्द्रनाथ, प्रेमचंद : एक विवेचन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष - 2006, पृष्ठ 102

7. वही 

8. रज़ा जफर, कथाकार प्रेमचंद, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष - 2010, पृष्ठ 297

9. देवाशीष एवं महतो डॉ० योगेन्द्र, गोदान : आदर्श और यथार्थ का समन्वय, https://www.jetir.org, 2020

10. कौर हरदीप, प्रेमचंद के गोदान में अभिव्यक्त यथार्थ, https://www.jetir.org, 2021