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दुलाईवाली
कहानी में युगीन चेतना |
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Contemporary consciousness in the story Dulaiwali | |||||||
Paper Id :
19028 Submission Date :
2024-05-05 Acceptance Date :
2024-05-11 Publication Date :
2024-05-19
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.12670352 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
'दुलाईवाली' कहानी में एक मध्यवर्गीय परिवार की साधारण एवं सामान्य सी घटना को लेकर कथानक का निर्माण किया गया है।कहानी का आरंभ रहस्य से भरा हुआ है पूरी कथा में यह रहस्य बना रहता है कि दुलाईवाली आखिर है कौन? कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है तो रहस्य खुलता है और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वंशीधर का ममेरा भाई और मित्र नवलकिशोर ही दुलाईवाली के वेश में है और इसतरह यह एक चुहल भरी हास्यात्मक कहानी के रूप में स्पष्ट होती दिखाई देती है। वंशीधर काशी में अपनी पत्नी जानकीदेई को विदाई करवाने यानी अपने साथ ले जाने अपने ससुराल आते हैं। वे इक्का लाकर अपनी पत्नी की विदाई करवाते हैं ताकि रेलवे स्टेशन की तरफ जल्दी प्रस्थान किया जा सके। पत्नी को साथ ले जाने के लिए इसलिए तत्पर होते हैं क्योंकि वे अपने मित्र नवलकिशोर से तार पाते हैं कि वे कलकत्ता से लौट रहे हैं और वंशीधर अपने मित्र से मिलने के अवसर को गंवाना नहीं चाहते हैं। स्टेशन आते वक्त अपने विलायती धोती के पहनने और स्वदेशी धोती के रखकर आने का प्रसंग छेड़कर वंशीधर ने अपने और नवलकिशोर द्वारा किए गये स्वदेशी आंदोलन के समर्थन को दर्शाया है। वंशीधर का यह अफसोस कि उसने स्वदेशी धोती पहनना भूल गया है, स्वदेशी वस्तु के प्रति उसके प्रेम को प्रमाणित करता है किन्तु विदेशी वस्तु के प्रति मोह को भी दर्शाता है। यहाँ लेखिका स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दे रही है। रेल से राजघाट होते हुए मुगलसराय पहुँचने पर प्लेटफार्म पर नवलकिशोर के न मिलने से वंशीधर का अपनी पत्नी को जनाने वाले डिब्बे में बिठाना और खुद मर्द वाले डिब्बे में बैठना या फिर मिर्जापुर में जाकर भूख लगने पर पुरी और मिठाई खाना इत्यादि वंशीधर के सादगी स्वभाव और परिवार तथा मित्र के प्रति दायित्वबोध एवं प्रेम को दर्शाते हैं। राजेन्द्रबाला घोष उर्फ बंगमहिला ने 'दुलाईवाली' कहानी में जहाँ एकतरफ वंशीधर और नवलकिशोर की गहरी मित्रता को उजागर किया है वहाँ दूसरी तरफ बनारस के तत्कालीन नगर जीवन का वर्णन भी सजीवता के साथ किया है। काशी के दशाश्वमेध घाट, काशी और उसके आसपास के जनजीवन तथा यहाँ के स्त्री- पुरुष की सोच और उनके मनोभावों का स्वाभाविक चित्रण इस कहानी में किया गया है जिससे इस समय की युगीन चेतना स्पष्ट होती नजर आती है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the story 'Dulaiwali', the plot has been built around a simple and ordinary incident of a middle class family. The beginning of the story is full of mystery. Throughout the story, it remains who is Dulaiwali? As the story progresses, the mystery is revealed and it also becomes clear that Vanshidhar's cousin and friend Naval Kishore is in the guise of Dulaiwali and thus it appears as a humorous story full of fun. Vanshidhar comes to Kashi to bid farewell to his wife Janki Dei, that is, to take her with him. He brings an ekka to bid farewell to his wife so that he can leave for the railway station quickly. He is ready to take his wife along because he receives a telegram from his friend Naval Kishore that he is returning from Calcutta and Vanshidhar does not want to miss the opportunity to meet his friend. Leaving aside the incident of wearing a foreign dhoti while coming to the station and keeping a swadeshi dhoti for himself, Vanshidhar has shown his support for the Swadeshi movement started by him and Naval Kishore. It is a pity that Vanshidhar has forgotten to wear a swadeshi dhoti, which proves his love for swadeshi goods but also shows his fascination for foreign goods. Here the writer is emphasizing on the use of swadeshi goods. On reaching Mughal Sarai via Rajghat by train, when Naval Kishore was not found on the platform, Vanshidhar made his wife sit in the ladies compartment and himself sat in the men's compartment or going to Mirzapur and eating puri and sweets when hungry, etc. show the simplicity of Vanshidhar's nature and his responsibility and love towards his family and friends. Rajendrabala Ghosh alias Bangmahila in the story 'Dulaiwali', on one hand has highlighted the deep friendship between Vanshidhar and Naval Kishore, on the other hand, she has also described the then city life of Banaras with vividness. The Dashaswamedh Ghat of Kashi, the life of the people in and around Kashi and the thoughts and emotions of the men and women here have been naturally depicted in this story, which clearly reflects the contemporary consciousness of that time. | ||||||
मुख्य शब्द | पृष्ठभूमि, कैनभास, अभिजात्य, अकृत्रिम, आबद्ध, संवेदना, कथाफलक, यथार्थपूर्ण, मातृत्वबोध, प्रतिबिम्बन, पुरुषतंत्र, सुविधाभोगी, वैचित्र्यपूर्ण, संतुलन, अतिक्रमण, शाशवत, साक्ष्य, सोपान, दुलाईवाली, सांकेतिकता, नाटकीयता, कथा - सौन्दर्य | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Background, canvas, aristocracy, unartificial, bound sensation, storyboard, realistic, motherhood, reflection, masculinity, privileged, bizarre, balance, transgression eternal, evidence, stairs, weaving symbolism, drama, story - beauty | ||||||
प्रस्तावना | 'दुलाईवाली’ कहानी की शुरुआत काशी के दशाश्वमेध घाट से होकर इलाहाबाद में खत्म होती है। स्थानीयपन, युगीन यथार्थ और पात्र के अनुरूप भाषा के कारण इस कहानी को श्रेष्ठ माना गया है। कहानी की कथावस्तु अत्यंत साधारण है किन्तु कहानी में पाठकों को अंत तक बांधे रखने की क्षमता है। कहानी में जिज्ञासा अंत तक बनी रहती है। इसमें तत्कालीन समाज, परिस्थिति, घटना और मानसिकता की चित्रण है। कहानी में हास्य-गुण व्याप्त है। इसमें विलायती धोती का जिक्र कर पश्चिमी संस्कृति पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया गया है। बंगमहिला का हिन्दी कहानी के विकास में अनेक योगदान रहा है जिसका जिक्र आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में किया है। सरस्वती पत्रिका में छपने वाली जिन तीन भावनाप्रधान कहानियों को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहानियों का दर्जा दिया उनमें 'दुलाईवाली’ अन्यतम प्रसिद्ध कहानी है जो सरस्वती पत्रिका के 8 वें भाग के 5 वे अंक में सन् 1907 में छपी थी। कहानी के आरंभ में बंगमहिला बनारस की गलियों और वस्तु-स्थिति का हूबहू वर्णन करती है। पात्रानुकूल भाषा और यथार्थ-चित्रण की दृष्टि से यह कहानी आज भी प्रासंगिक है। इस कहानी में काशी के लोगों के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। यहाँ के लोगों के दिनचर्या का चित्रण किया गया है। नवजागरण की पहली छापामार लेखिका के रूप में प्रसिद्ध राजेन्द्रबाला घोष ने छद्म नाम (बंगमहिला) का सहारा लेकर समाज की विसंगतियों पर कटु प्रहार किया है। ‘दुलाईवाली’ कहानी में लेखिका ने पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की होने वाली दुर्दशा का चित्रण किया है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध आलेख में अवलोकन पद्धति का सहारा लिया गया है। इस शोध का उद्देश्य है
हिन्दी की पहली आधुनिक और मौलिक कहानी 'दुलाईवाली’ से पाठकों का परिचय करवाना और पाठकों के सामने इस कहानी की
मूल - संवेदना को स्पष्ट करना तथा यह बताना कि किसप्रकार बंगमहिला ने इस कहानी के
माध्यम से युगीन यथार्थ को स्पष्ट किया है,
किसप्रकार लेखिका ने बनारसी बोली को इस कहानी में उतारा है और किसप्रकार वह
कहानी में मिठापन और रोचकता लाई है यानी कहानी-कला और कहानी - सौष्ठव की दृष्टि से
इस कहानी का विवेचन करना भी अन्यतम ध्येय रहा है। लेखिका के समय और समाज में रेल
पर सफर करते समय किस प्रकार की बातचीत होती थी,
किस भाषा में लोग बोलते थे, इन सभी विषयों को अभिव्यक्त
करना भी उद्देश्य रहा है। तद्युगीन
पुरुषतांत्रिक समाज में स्त्री की दशा से पाठकों को अवगत करवाना भी उद्देश्य रहा
है। तत्कालीन समाज में चलने वाले स्वदेशी आंदोलन से पाठकों को परिचित करवाना भी ध्येय रहा है। |
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साहित्यावलोकन | आचार्य
रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास' में बंगमहिला का हिन्दी साहित्य के इतिहास
में अवदान स्पष्ट किया है। डॉ० गुन्जन कुमार झांँ ने “‘दुलाईवाली’ आधुनिक हिन्दी कहानी की प्रारंभिक रचना
है" शीर्षक लेख में 'दुलाईवाली' कहानी की कहानी-कला पर विस्तार से विवेचन करते हुए इसे हिन्दी की पहली आधुनिक
कहानी माना है। डॉ० सितारे हिन्द ने ‘राजेन्द्र बाला घोष उर्फ बंगमहिला और उनकी
कहानी 'चंद्रदेव से मेरी बातें’” शीर्षक लेख में भारतीय नवजागरण में साहित्यकार के रूप में
बंगमहिला के योगदान पर प्रकाश डाला गया है। मनीषा यादव ने अपनी लेख "स्त्री
कहानी के स्तंभ 'बंगमहिला’” में बंगमहिला की युगीन चेतना और साहित्य-धर्मिता को स्पष्ट किया है। साथ ही
लेखिका द्वारा वर्णित गाँव की अनपढ़ स्त्रियों के यथार्थ रूप का भी चित्रण की है।
मनीषा यादव ने लेखिका द्वारा प्रयुक्त भोजपुरी भाषा और आंचलिकता का भी जिक्र किया है। साथ ही उन्होंने बंगमहिला द्वारा वर्णित गांँव की स्त्री का बेजान,
निष्क्रिय,
अशिक्षित एवं अज्ञानी रूप को
भी स्पष्ट किया है तथा लेखिका द्वारा उजागर की गई स्त्री- मनोविज्ञान का भी जिक्र
किया है। मनीषा जी की दृष्टि लेखिका द्वारा प्रयुक्त आंचलिक भाषा के यथार्थवादी
प्रयोग पर भी गई है। |
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मुख्य पाठ |
कहानी के आरंभ द्वार पर खड़ी कथा सूर्य की प्रथम रश्मि से स्नात किसी स्थान विशेष (अर्थात् काशी) के वातावरण को समेटते हुए समय की सुई से पृष्ठभूमि बुनती चलती है और तत्पश्चात् कथा विस्तार पाती है, एक पुरुष चरित्र के सहज - अनायास आगमन से। इस बिन्दु पर कथानक - क्षितिज जीवन को जीवन से जोड़ता है। लेखिका के
समय का काशी, वहाँ का दशाश्वमेध घाट, सुबह-सुबह उस बाट पर खड़े लोगों की व्यस्तता, वहाँ की गतिविधियाँ,
घाट के आस-पास के टूटे- पुराने
मकान तथा उसमें रहने वाले लोगों की जिन्दगी इत्यादि का सम्यक चित्र लेखनी के
कैनभास पर बारीकी से उभरा है। काशी के दशाश्वमेध घाट के पास बनी वर्षों की टूटी
फूटी मकान और उसमें रहने वाले लोगों द्वारा अपने रोज की जिन्दगी में मिथ्या
अभिजात्य के अहंकार को पकड़े रहने की ललक इत्यादि को शब्दों में बाँधने की चेष्टा
इस कहानी का वैशिष्ट्य है। गुंजन कुमार झाँ के अनुसार इस कहानी में “तत्कालीन समाज,
परिस्थिति,
घटना और मानसिकता का चित्रण
है। लोगों के दिनचर्या, रेलवे यात्री और स्टेशन का परिदृश्य है।”[1] आरंभिक
कथोपकथन के क्रम में कहीं-कहीं पात्र - पात्राओं का अनुल्लेख कर लेखिका ने पाठकों
की जिज्ञासा बढ़ा दी है। शुरू में कुछ चरित्र, नामों के साथ उपस्थित तो होते हैं किन्तु
किनसे वे वार्तालाप कर रहे हैं, स्पष्ट नहीं है। परिणामतः
कथा कौतुहल के जाल में घिरती हुई प्रश्नचिह्न छोड़ जाती है कि ये चरित्र आखिर है
कौन ? धीरे-धीरे कथा के विकास के साथ- साथ पाठक की चित्त-जिज्ञासा शांत होती है और पाठक अधिक सजगता से कथा में डूब जाता है। आम
दाम्पत्य जीवन में पति- पत्नी के संवाद सहज, स्वाभाविक और अकृत्रिम रूप में कथा को
सामाजिक जीवन से आबद्ध कर विश्वसनीय बना दिये हैं। इस संदर्भ में कहा ही जा सकता
है कि लेखिका ने अपने काल के युगीन सत्य को यथार्थपूर्ण वाणी देते हुए देश काल
वातावरण की अपूर्व सृष्टि की है जिससे कथा यात्रा का सहज विकास संभव हो पाया है। इस कहानी
का कथासार सामाजिक धरातल पर आधारित है। वंशीधर और नवलकिशोर की मित्रता को इनके रिश्तेदारी से बढ़कर
दिखाना लेखिका की कहानी कला का कौशल तो है ही, साथ-सथ यह उस समय की सामाजिक और पारिवारिक
आत्मीयता, संबंधों के मजबूत बंधन को दर्शाता है। वस्तुतः लेखिका कहानी की मूल संवेदना को
वातावरण में विस्तार देती है, इसलिए कथा, कहानी बनने से अधिक युग जीवन बन गई है। कहानीकार ने कई
परिवेश को मूल संवेदना से जोड़कर कथा को सघनता प्रदान की है। इसमें कहीं दशाश्वमेध
घाट का परिवेश है तो कहीं उसके पास खड़ी टूटी मकान में दाम्पत्य जीवन का परिवेश,
कहीं एक जान दो दोस्तों की
मित्रता को और सुदृढ़ बनाने का परिवेश तो कहीं सामाजिक रीति-रिवाज के अनुसार लड़की
को विदा करने का परिवेश वस्तुतः कहानीकार परिवेश का अंकन करते हुए कथाफलक पर
चरित्रों का सृजन करती गई हैं। अपने समय के दर्पण में अपने समाज का यथार्थ चित्र
प्रस्तुत करना इस कहानी की खूबसूरती है जो कहानीकार के आधुनिक बोध का परिचायक है।
डॉ० सितारे हिन्द के शब्दों में "यह सर्वविदित है कि भारतीय नवजागरण में एक साहित्यकार के
रुप में बंगमहिला का अप्रतिम योगदान है। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से
आधुनिकता के बीज बोए।"[2] वंशीधर के
साथ उसके मित्र नवलकिशोर से मिलने के लिए जाना स्थिर होने पर जानकी का रोते-रोते
तैयार होना और उसकी मांँ के द्वारा किसी चीज के भूलने पर धीमी आवाज में अपनी माँ
को याद दिलाने का प्रसंग इतना स्वाभाविक और यथार्थपूर्ण है कि इस बिन्दु पर
कथा-जीवन, आम जीवन की वास्तविकता से एकाकार होते हुए अपने समय के धार्मिक जीवन से संबद्ध
हो जाता है। एक तरफ न चाहते हुए भी अपने पति की बात को,
राय को मान्यता देना और दूसरी
ओर अपने भीतर के मातृत्वबोध को अस्वीकार नं कर पाना, इस मानसिक द्वन्द के बीच पिसती जानकी को
ही तो कहानीकार ने अपने समय की स्त्री के रूप में दर्शाया है। लेखिका ने यह भी
स्पष्ट किया है कि उनके समय के नौकर - चाकरों या खुशामदों से घिरे रहने वाले लोगों
की आर्थिक दशा भी बिगड़ने लगी थी जिसका प्रभाव समाज और देश की आर्थिक स्थिति पर पड़
रहा था। इस कहानी में इस आर्थिक दुर्दशा का प्रतिबिम्बन स्पष्ट तब होता है जब
वंशीधर कहता है ‘चलो इक्का ही सही।’ कहानी में पुरुषतंत्र में शताब्दियों से पलने वाले कटृर पुरुषवादी विचार भी
सामने आये है खासतौर पर जब कथाकार कहती है "वंशीधर विचारने लगे कि इक्के की
सवारी तो भले घर की स्त्रियों के बैठने लायक नहीं होती। क्योंकि एक तो उतने ऊंचे
पर चढ़ना पड़ता है, दूसरे पराये पुरुष के संग एक साथ बैठना पड़ता है। मैं एक पालकी गाड़ी ही कर
लूँ।”[3] वस्तुतः
लेखिका ने इस संदर्भ में यह बताने की कोशिश की है कि उनका पुरूषतांत्रिक समाज, नारी को पराये मर्दों के संग एक साथ चलने-फिरने की इजाजत नहीं देता है लेकिन पौरुष
के अंहकार में मत्त स्त्री पर गर्जन करनेवाला वही स्वार्थी पुरुष जब कायापलट कर
अवसरवादी बनता है तब उसे अपने घर की स्त्री को पराये मर्द के संग इक्के गाड़ी पर
बैठने की इजाजत देने में संकोच नहीं होता। तभी तो लेखिका कहती हैं “पर जब गाड़ी वाले ने डेढ़ रूपया किराया
माँगा, तब वंशीधर ने कहा - ‘चलो इक्का ही सही। पहुंचने से काम- -।[4] कथकार अपने समय के आईने से दिखाती
है कि सुविधाभोगी पुरुष कभी स्त्री पर अपने पौरुष का दबाव डालता है तो कभी अपनी
इच्छानुसार अर्थाभाव होने पर नैतिकता का विसर्जन देकर स्त्री की स्वाधीनता में
अकारण हस्तक्षेप करता है। इस कहानी
की परत दर परत वैचित्र्यपूर्ण है। कथाकार यह कहकर
“पर इस अस्थिर संसार में स्थिरता कहाँ ? यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं । इक्का जैसे-जैसे
आगे बढ़ता गया वैसे जानकी की रूलाई भी कम होती गई। सिकरौल के स्टेशन के पास
पहुंँचते-पहुंँचते जानकी अपनी आंँखें अच्छी तरह पोंछ चुकी थी”[5] अपने समाज की स्त्री (जानकी) को और
यथार्थवादी बना दी है इक्कागाड़ी मानो इस कहानी में बदलते गतिमय जीवन का प्रतीक
है। इक्का का आगे बढ़ना और जानकी की रुलाई का कम होना,
इन दोनों परिवेश के बीच कथाकार
ने एक संतुलन - सेतु स्थापित कर इन दोनों स्थितियों को एक सूत्र में गूंँध दिया है
क्योंकि ये दोनों ही स्थिति जीवन के अभिन्न और अनिवार्य अंग ही नहीं,
जीवन के यथार्थ हैं। लेखिका के
समय और समाज की स्त्री इन दोनों यथार्थो से गुजरती हैं,
उन्हें भोगती हैं,
झेलती हैं और अन्ततः उन यथार्थो
का अतिक्रमण कर युग को वाणी देती हुई अमर बन जाती हैं और काल की पीठिका पर अपना शाश्वत साक्ष्य
छोड़ जाती हैं। तभी तो सिकरौल स्टेशन के पास पहुंचते ही जानकी अपने आँखों को
पोंछ लेती है क्योंकि वह जानती है कि उसे यथार्थ को भोगना है,
यथार्थ में जीना है। मनीषा
यादव के अनुसार “दुलाईवाली मनोरंजक कहानी के साथ ही अनेक गंभीर परिस्थितियों को कलात्मक रूप
में व्यक्त करती है खासकर तद्युगीन समाज की स्त्रियों की स्थिति,
स्त्री चेतना और स्त्री सरोकार
की भूमिका को प्रतीकात्मक रूप में रूपांतरित करती हैं- बंगमहिला ने इसमें गाँव की स्त्री का
यथार्थपूर्ण स्थिति का खाका खींचा है।”[6] इस कहानी में कथाकार का देशप्रेम कथाकार
को विशिष्ट स्थान दिलाता है। यद्यपि कथाकार के समाज में वंशीधर जैसे लोग विलायती शौक,
विलायती आराम से अभ्यस्त हो
चुके थे किन्तु ऐसे लोग जब नवलकिशोर जैसे स्वदेशी आंदोलन करने वाले मित्रों के
सान्निध्य में आते हैं तो वे विलायती सुख से अभ्यस्त होने के कारण अफसोस भी
प्रकट करते हैं । “नहीं एक देशी धोती पहनकर आना था सो भूलकर विलायती ही पहिन आये । नवल कट्टर
स्वदेशी हुए हैं न ।[7] वंशीधर विलायती ऐशोआराम के दासत्व को त्यागने की इच्छा
प्रकट करते हुए देश की बिगड़ती जाती आर्थिक स्थिति के पुनर्रूद्धार की बात भी करता
है “देशी लेने से भी दाम लगेगा सही। पर रहेगा
तो देश ही में।”[8] किन्तु
जिसतरह कथाकार के समय तक आते आते पुरुष पात्र अपने देश के प्रति सजग और सचेतन बनता
है, उतना
स्त्री पात्र नहीं और इसका साक्षी बन जाता है जानकी का कथन जब वह कहती है “ऊँह धोती तो धोती,
पहिनने से काम,
क्या यह बुरी है?”[9] लेखिका के स्त्री पात्र न तो
देशप्रेमी है, न तो वह देश की आर्थिक दुर्दशा को लेकर सोचती है,
वह तो सिर्फ अपने पारिवारिक
जीवन में डूबी हुई पुरुष के हाथों की पुतली है, पुरुष के निर्देश का पालन करने वाली
आज्ञावाही दास है जिसे अपने अधिकार का, नारीत्व का, राष्ट्रीय परिस्थितियों का बोध नहीं। अंतिम सोपान पर पहुंचकर कथा रहस्यपरक बन जाती है जब वंशीधर रेल के डिब्बे में नवलकिशोर को खोजने. जाता है पर नहीं पाता है और लौट आने पर कमरे में कपड़े की गठरी सी बनी एक औरत को एक हाथ लंबा घुँघट काढ़े सिर झुकाये बैठी पाता है। इस परत पर आकर रेल के डिब्बे में पलती कथा रेल की गति जैसी अद्भुत बाँक लेती नजर आती है जहांँ दृश्यपट पर है रेल का कमरा और उसमे बैठे वंशीधर एवं अन्य अशिक्षित देहाती स्त्रियाँ जिनकी दृष्टि सिर से पैर तक ओढ़े उस औरत पर जाती है जिसे लेखिका ने अपनी लेखनी से रहस्यमयी पात्रा बना दी है कि आखिर वह कौन है? किस स्टेशन पर उसे उत्तरना है? क्या वह रेल पर अकेली सफर कर रही है? उसका पति कहाँ है? इत्यादि। कथाकार ने सभी (उस कमरे में उपस्थित) के आंँखों में इन प्रश्नों के बौछार को जन्म देकर उनकी दृष्टि को ही कौतुहलमयी बना दी है। कथा के इस स्तर पर कुछ अशिक्षित देहाती स्त्रियों का प्रवेश, उनकी बोलचाल, देहाती भाषा में उठे उनके प्रश्न इत्यादि रेल के तीसरे दर्जे के वातावरण को जीवंत बनाने में सक्षम हैं। मनीषा यादव के अनुसार “कहानी का समूचा हाँचा खड़ीबोली हिन्दी को रखकर उन्होंने आंचलिक भाषा के यथार्थवादी प्रयोग किए।[10] वे यह भी कहती हैं कि-- लेकिन इन्होंने इन सबसे हटकर यथार्थ का भाव, कथोपकथन,आंचलिकता का पुट समाहित करते हुए अलग अंदाज में कहानी का प्रारूप बनाया ।” [11] रेल पर
सफर करते वक्त किसी स्त्री के साथ उसके पति के न होने को लेकर उस वातावरण से जुड़े
अन्य स्त्रियों का अकारण कौतुहल तो अत्यंत स्वाभाविक ही नहीं प्रासंगिक भी है
इसलिए कि कथाकार का समय और समाज न तो सोच सकता है कि कोई स्त्री रेल पर किसी सहारे
के बिना अकेली सफर कर सकती है और न तो वह समाज किसी स्त्री को ऐसा करने का इजाजत
देता है। अतः स्पष्ट है कि कथाकार का समय और समाज बारबार नारी की स्वतंत्रता पर
प्रहार करता है। तभी तो इस कहानी में पुरुष भी उक्त संदर्भ में अपना कौतुहल छिपा
नहीं पाता। हाँ यह उस समय के समाज की खूबी है कि पुरुष मानवीयता की रक्षा करना
जानता है इसलिए तो वंशीधर किसी अपरिचित स्त्री को भी रेल पर अकेली सफर करते देख
उसे उसके गंतव्य पर पहुँचाने का दायित्व लेता है अंतिम चरण पर आकर कहानी इसलिए भी रहस्यकथा बनती है क्योंकि रेल के पिछले कमरे में बैठी दूलाई ओढ़ी एक स्त्री वंशीधर को घूंघट के भीतर से ताक देती है और उसका सामना होने पर मुँह फेर लेती है और रहस्यमयी हरकतों के कारण कथा के केन्द्र में आ जाती है। लेखिका ने वंशीधर को जितना नवलकिशोर की पत्नी के लिए चिन्तित होते, घबराते और असमंजस में पड़ते दिखाया है उतना ही नवलकिशोर को रहस्यमयी पात्र के रूप में उपस्थित किया है। इसतरह खट्टे - तीखे रहस्य कथा का अंत होता है मित्रता के मिठास में। कहानी की संवाद योजना कहीं-कहीं नाटकीयता और सांकेतिकता समेटी हुई है। कथा-यात्रा, के दौरान संवाद बदलती हुई मनः स्थितियों के अनुसार बदलते गये हैं। कहानी में जिज्ञासा की मात्रा अंत तक संचित रहती है। कहानी के पात्र-पात्रा देशभक्त, मिथ्या अभिजात्य के अहंकार मे मस्त, कर्तव्यपरायण, देश की आर्थिक स्थिति के प्रति सजग, मातृत्व के गुणों से परिपूर्ण, अच्छे मित्र हैं। परिवेश और पात्रों के अनुसार भाषा-संरचना इस कहानी की विशिष्टता है। लाक्षणिक भाषा का प्रयोग कथा-सौन्दर्य और कथा - माधुर्य को बढ़ा दिया है जिसकी झांँकी कई पंक्तियों में मिलती है। जैसे “रेल देवी भी अपनी चाल धीमी करती हुई गंभीरता से आ खड़ी हुई ।”[12] कहानी की मूल भाषा, खड़ीबोली हिन्दी है किन्तु कहीं-कहीं देहाती ग्रामीण शब्दों को समेटा गया है। चित्रात्मक शैली में लेखिका ने पूरी कथा को भावाभिव्यंजक ही नहीं यथार्थपरक बना दिया है। शीर्षक कौतुहलवर्धक है। कथा के जरिए कुछ संदेश भी दिये गये हैं।जैसे मित्रता, देशप्रेम इत्यादि। डॉ नामवर सिंह ने उचित ही कहा है कि एक समर्थ कहानीकार किसप्रकार जीवन की छोटी से छोटी घटना में अर्थ के स्तर - स्तर उद्घाटित करता हुआ उसकी व्याप्ति को मानवीय सत्य की सीमा तक पहुंचा देता है। "दुलाईवाली' कहानी भी जीवन की एक छोटी सी घटना- 'एक मित्र का एक मित्र से भेंट' को परत दर परत विकसित करते हुए उसे मानवीय सत्य से जोड़ते हुए उसे मानव के द्वार पर पहुंँचा देती है। कथा-सृजन के द्वारा कथाकार ने इस कहानी में मनुष्य के पारस्परिक संबंधों की वास्तविकता को अत्यंत कौशल के साथ अभिव्यक्त किया है। यह कहानी अपने समाज के लोगों का सवाक चित्र है। हिन्दी की पहली कहानी होने के बावजूद भी इसमें कहानी कला के गुणों को सुरक्षित रखते हुए मानवीय संबंधों के विविध पक्ष उद्घाटित किये गये हैं। देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आर्थिक परिस्थितियों से परिचय करवाकर कथाकार ने अपने देशवासियों को सचेतन बनाने का प्रयास किया है ताकि वे अपने मिथ्या अभिजात्य से चिपका न रहकर जीवन के आधुनिक मूल्यों को महत्त्व प्रदान कर सके । अपने पुरुष पात्रों का चरित्रांकन करते वक्त कथाकार ने उन्हें परंपरागत एवं आधुनिक मूल्यों से समन्वित किया है किन्तु नारी चरित्रों में उन्होंने सिर्फ परंपरागत नारी के गुणों को समाविष्ट किया है। वस्तुतः यह कथाकार के समय और समाज की मजबूरी भी है। इसतरह कथाकार ने इस कहानी में अपने युग के परिवेश और परिस्थितियों के चित्रण के संदर्भ मे अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, पारिवारिक, धार्मिक सभी प्रकार की प्रवृत्तियों और मान्यताको को हमारे सामने उपस्थित किया है। तभी तो मनीषा यादव कहती हैं कि “बंग महिला का प्रथम मौलिक योगदान यह है कि इन्होंने पहली बार आधुनिक ढंग की कहानी लिखी।" [13] और सितारे हिन्द कहते हैं कि “बंग महिला का समय हिन्दी गद्य का आरंभिक समय था और वैसे समय में इन्होंने हिन्दी की साहित्यिक दुनिया को कई वैचारिक निबंध तथा अनेक कहानियों से समृद्ध बनाया।”[14] इस प्रकार स्पष्ट है कि बंगमहिला ने दुलाईवाली कहानी में अपने युग के मध्यवर्ग के सामाजिक- पारिवारिक जीवन का यथार्थपूर्ण चित्रण किया है। |
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निष्कर्ष |
'दुलाईवाली' बंगमहिला द्वारा रचित हिन्दी की पहली मौलिक और आधुनिक कहानी है जिसमें बंगमहिला ने युगीन परिस्थितियों को कलात्मक रूप प्रदान किया है। इसमें जहाँ स्त्री-चेतना व्यक्त हुई है वहाँ युगीन-चेतना भी स्पष्ट हुई है। साथ ही आंचलिक भाषा का यथार्थवादी प्रयोग कहानी को और गंभीर और सुन्दर बना देता है। इसमें स्त्रियों की दुर्दशा का वर्णन किया गया है। इस कहानी में काशी से इलाहाबाद की यात्रा का वृत्तान्त है। वंशीधर और नवलकिशोर की मित्रता इस कहानी में तद्युगीन मध्यवर्ग के लोगों के सु-संपर्क को दर्शाती है। साथ ही इसमें स्त्री-मन की विविध झांकियों का सुन्दर चित्रण भी किया गया है। ‘अरे इनकर मनई तो नाहीं अइलेन’ जैसी पंक्ति का प्रयोग कर लेखिका ने आंचलिकता के पुट को समाविष्ट किया है जो उनकी लेखन शैली को पोख्ता बना दिया है। पुरुष सत्तात्मक समाज पर व्यंग्य कर लेखिका ने अपनी अलग पहचान बनाई है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. झाँ गुन्जन कुमार,
बंग महिला : दुलाईवाली,
https://gunjankumarjha.com, सितंबर २०२० 2. हिन्द डॉ० सितारे,
राजेन्द्र बाला घोष उर्फ बंग महिला और उनकी कहानी 'चंद्रदेव से मेरी बातें', सेतु
पत्रिका, https: // www.setumag.com, जून 2022 3. दुलाईवाली कहानी / हिन्दवी, https://www.hindusi.org 4. दुलाईवाली कहानी / हिन्दवी, https://www.hindusi.org 5. दुलाईवाली कहानी / हिन्दवी, https://www.hindusi.org 6. यादव मनीषा,
स्त्री कहानी की स्तंभ 'बंगमहिला’,आर्यवर्त शोध विकास पत्रिका,
https:// www.aryavartsvs. org.in,अगस्त 2020 7. दुलाईवाली कहानी / हिन्दवी,
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