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हिन्दी के जनवादी कवि नागार्जुन | |||||||
Nagarjuna, the Democratic Poet of Hindi | |||||||
Paper Id :
16000 Submission Date :
2022-04-03 Acceptance Date :
2022-04-19 Publication Date :
2022-04-25
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सारांश |
सारांश रुप मे कहा जा सकता हैं कि जनवादी कवियों में नागार्जुन शीर्ष कवि हैं उनकी कविता का सबसे बड़ा हथियार व्यंग्य है जिसके सहारे वे अपनी अपार संवेदनाएं व्यापक जनता के लिए व्यक्त करते हैं नागार्जुन के व्यंग्य मे क्रूरता और करुणा दोनों है भ्रष्ट राजनेताओं की चालबाजियों, छल-छद्मों जनता के शोषण की प्रक्रिया में उनका व्यंग्य बड़ा क्रूर हो जाता हैं। स्वाधीनता के बाद की जनवादी कविता के केन्द्र में भारतीय राजनीति और उसकी स्वार्थपरता है। अवसर वादिता और दोगलापन हैं समकालीन राजनीति ने भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन को अपनी जकड़बंदी में ले लिया था नागार्जुन की जनवादी कविता में इसी चरित्र का खुलासा किया है। मजदूर, कृषक, दलित एवं निम्न मध्यम वर्ग पर शोषण का जो चक्र चल रहा था उसे अपनी कविता के माध्यम से बेनकाब कर आम आदमी के दुःख दर्द को संवेदनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In summary, it can be said that Nagarjuna is the top poet among the democratic poets, the biggest weapon of his poetry is satire, with the help of which he expresses his immense feelings for the wider public. In Nagarjuna's satire, both cruelty and compassion are the tricks, deceit of corrupt politicians. . In the process of exploiting the pseudo-public, his satire becomes very cruel. Post-independence democratic poetry is central to Indian politics and its selfishness. Opportunities are rhetoric and hypocrisy. Contemporary politics had taken hold of Indian social, cultural and economic life, this character is revealed in Nagarjuna's democratic poetry. By exposing the cycle of exploitation that was going on the laborer-e-krishi, Dalit and lower middle class, through his poem, he has given a sensitive expression to the sorrow and pain of the common man. | ||||||
मुख्य शब्द | जनवाद, प्रगतिवाद, मार्क्सवाद, मार्क्सवादी विचारधारा, सामाजिक विचारधारा, सोशलिज्म, पूंजीवाद, शोषकवर्ग, शोषितवर्ग, तानाशाही, लालफीताशाही, भाई भतीजावाद, आक्रोश, अनाचार, मजदूर, कृषक, सामन्तवाद, धारदार तेंवर, व्यंग्य मगरो के आंसू, विद्रूपता, कलुशित, अमानुशिक, अवसरवादिता, दोगलापन, विडम्बना, भगवाध्वजधारी, पर्दाफाश, प्रखर, गंवई, अफसरशाही, नौकरशाही, प्रभुसत्ता, पेचिस, अंधश्रद्धा, कालीमाई, रक्तपिपासा, मुर्दा, अन्त्येष्ट, शिद्दत, बेड़ि़या, पीताम्बर। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Democracy, Progressivism, Marxism, Marxist Ideology, Social Ideology, Socialism, Capitalism, Exploitative Class, Oppressed Class, Dictatorship, Red-Tapism, Nepotism, Anger, Incest, Laborer, Cultist, Feudalism, Sharp Temper, Sarcasm, Tears of Satire, Squid, Filthy, Inhuman , Opportunism, Hypocrisy, Irony, Saffron-Clad, Exposed, Intense, Earthy, Bureaucratic, Bureaucratic, Sovereignty, Dystopia, Superstition, Blackness, Bloodthirsty, Dead, Funeral, Feisty, Fetters, Pitambar. | ||||||
प्रस्तावना |
नागार्जुन ऐसे कवि है जिसने स्वाधीनता आन्दोलन मे सक्रिय भागीदारी की ओर स्वाधीन भारत के कई दशकों का स्वाद भी चखाए वे स्वाधीनता आन्दोलन से परिचित ही नही, उन मूल्यों के निर्माताओ मे से एक थे जो हमे विरासत मे प्राप्त हुए थे किन्तु उन मूल्यों की विरासत को समूल नष्ट होते हुए भी उन्होंने देखा। रोकने मे जुटे भी, किन्तु सुनियोजित कुचक्रो मे वे असहाय प्रमाणित हुए यही कारण है कि नागार्जुन का व्यंग्य इतना तेज हो गया है कि आक्रोष का धारदार तेवर देखकर ही उनके हदय की पीड़ा का अनुमान लगा सकते है-
नागार्जुन ने अपने व्यंग्य के माध्यम से अपने समय की राजनीतिक घटनाओं को जिस तल्खी से उजागर किया उसका प्रत्यक्ष प्रभाव हिन्दी की पूरी जनवादी काव्य परम्परा पर देखा जा सकता है मुक्तिबोध, केदारनाथ, रघुवीर सहाय तथा धूमिल की राजनीतिक समझ और उनके काव्य मे व्यक्त राजनीतिक पतन की स्थितियाँ वास्तव में नागार्जुन की जनवादी काव्य परम्परा का स्वस्थ विकास है, स्वाधीनता के बाद के जनवादी कवियो की राजनीतिक स्थितियों को एक ठोस रुप दिया। एक तो आजादी के बाद की ”स्वप्न-भंगी स्थितियाँ” और दूसरे इन कवियो की माक्र्सवादी समझ दोनो ने मिलकर उस समय की राजनीति का यर्थाथ रुप हमारे सामने रखा हे आम जनता से जो छल किए गए, उन पर जो अत्याचार किए गए, उनकी तल्ख प्रतिक्रिया इन कविताओ मे है, किस तरह राज्य सत्ताए साम्राज्यवाद और सामंतवाद के गठजोड़ ने देश की आम जनता को छला ओैर प्रताड़ित किया, पूंजीवादी विकास के मार्ग पर चलने वाली भारत की नई सरकार ने किस तरह व्यापक जन समूह के हितो को अनदेखा किया किस तरह पुनरुत्थानवादी ताकतों ने सामाजिक विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध किया। ऐसी तमाम स्थितियों का नागार्जुन ने खुलासा किया।
नागार्जुन जनवादी कविता के शीर्ष कवि है। अपनी सीधी सीधी गवई कविताओ मे उन्होंने सही अर्थो मे जनवादी कविता को एक सार्थक पहचान और स्वरुप प्रदान किया उनकी कविता का सबसे बड़ा हथियार व्यंग्य है जिसके सहारे वे अपनी अपार संवेदनाएं व्यापक जनता के लिए व्यक्त करते है।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोध पत्र में हिन्दी के शीर्ष जन कवि नागार्जुन के जनवादी विचारो को रेखाकिंत किया गया है। स्वाधीनता के बाद नागार्जुन की हिन्दी जनवादी कविता में जो मूल्य स्थापित हुए, जो प्रतिमान निरुपित हुए तथा जो सीमाएं एंव सम्भावनाएं दृष्टिगत हुई उनका विश्लेषण यहां किया गया है। जन कवि नागार्जुन की कविता की व्यापक प्रवृत्तियो को इस शोध पत्र में देखना एंव परखना, वास्तव मे काव्य रचना की यथार्थवादी ओर जनवादी परम्परा को रेखांकित करना है नागार्जुन ने अपनी व्यंगय कविताओ के माध्यम से यथार्थ जीवन को चित्रित किया है। उन्होनें आम आदमी के दुःख दर्द को पहचान कर अर्थात् युगीन यथार्थ रख समसाययिक चेतना को अपनी कविता के माध्यम से वाणी प्रदान की है। |
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साहित्यावलोकन | समकालीन राजनीति ने भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन को पूरी तरह से अपनी जकड़बंदी मे लिया है एक तरह से राजनीति अब सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक परिस्थितियो की विधाता बन गई। स्वाधीनता के बाद की जनवादी कविता मे राजनीति के इसी चरित्र का खुलासा किया गया है जहां नब्बे प्रतिशत जनता शोषण के दुश्चक्र मे फंसी है- नब्बे प्रतिशत का................................. |
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मुख्य पाठ |
मजदूर, कृषक, एंव निम्न मध्यम वर्ग पर पोषण का जो चक्र चल रहा था उसे अपनी कविता के माध्यम से बेनकाब किया- “जमीदार है साहूकार हैं बनिया है व्यापारी है। अन्दर-अन्दर विकट कसाई, बाहर खदरधारी है।“ नागार्जुन ऐसे कवि है जिसने स्वाधीनता आन्दोलन मे सक्रिय भागीदारी की ओर स्वाधीन भारत के कई दशकों का स्वाद भी चखा, वे स्वाधीनता आन्दोलन से परिचित ही नही, उन मूल्यों के निर्माताओ मे से एक थे जो हमे विरासत मे प्राप्त हुए थे किन्तु उन मूल्यो की विरासत को समूल नष्ट होते हुए भी उन्होंने देखा। रोकने मे जुटे भी, किन्तु सुनियोजित कुचक्रो मे वे असहाय प्रमाणित हुए यही कारण है कि नागार्जुन का व्यंग्य इतना तेज हो गया है कि आक्रोश का धारदार तेवर देखकर ही उनके हदय की पीड़ा का अनुमान लगा सकते है- नागार्जुन ने अपने व्यंग्य के माध्यम से अपने समय की राजनीतिक घटनाओं को जिस तल्खी से उजागर किया उसका प्रत्यक्ष प्रभाव हिन्दी की पूरी जनवादी काव्य परम्परा पर देखा जा सकता है मुक्तिबोध, केदारनाथ, रघुवीर सहाय तथा धूमिल की राजनीतिक समझ और उनके काव्य मे व्यक्त राजनीतिक पतन की स्थितियाँ वास्तव में नागार्जुन की जनवादी काव्य परम्परा का स्वस्थ विकास है, स्वाधीनता के बाद के जनवादी कवियो की राजनीतिक स्थितियों को एक ठोस रुप दिया। एक तो आजादी के बाद की “स्वप्न- भंगी स्थितियाँ” और दूसरे इन कवियो की माक्र्सवादी समझ दोनो ने मिलकर उस समय की राजनीति का यर्थाथ रुप हमारे सामने रखा है, आम जनता से जो छल किए गए, उन पर जो अत्याचार किए गएए उनकी तल्ख प्रतिक्रिया इन कविताओ में है, किस तरह राज्य सत्ता, साम्राज्यवाद और सामंतवाद के गठजोड़ ने देश की आम जनता को छला ओैर प्रताड़ित किया, पूंजीवादी विकास के मार्ग पर चलने वाली भारत की नई सरकार ने किस तरह व्यापक जन समूह के हितो को अनदेखा किया किस तरह पुनरुत्थानवादी ताकतों ने सामाजिक विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध किया। ऐसी तमाम स्थितियों का नागार्जुन ने खुलासा किया। समकालीन राजनीति ने भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन को पूरी तरह से अपनी जकड़बंदी मे लिया है एक तरह से राजनीति अब सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक परिस्थितियो की विधाता बन गई। स्वाधीनता के बाद की जनवादी कविता मे राजनीति के इसी चरित्र का खुलासा किया गया है जहां नब्बे प्रतिशत जनता शोषण के दुश्चक्र मे फंसी है- नब्बे प्रतिशत का................................. नागार्जुन जनवादी कविता के शीर्ष कवि है। अपनी सीधी सीधी गवई कविताओं मे उन्होंने सही अर्थो मे जनवादी कविता को एक सार्थक पहचान और स्वरुप प्रदान किया उनकी कविता का सबसे बड़ा हथियार व्यंग्य है जिसके सहारे वे अपनी अपार संवेदनाएं व्यापक जनता के लिए व्यक्त करते है। नागार्जुन के व्यंग्य मे क्रूरता और करुणा दोनो है भ्रष्ट राजनेताओ की चालबाजियों, छल-छद्मो, जनता के शोषण की प्रकिया में उनका व्यंग्य बड़ा क्रूर हो जाता है और इन लोगो से प्रभावित प्रताडित होने वाले जन सामान्य के प्रति नागार्जुन के व्यंग्य मे अपार करुणा प्रकट होती है नागार्जुन की कविताओ के व्यंग्य का आधार लोक जीवन की विद्रूपताएं है इन विद्रूपताओं को नागार्जुन ने अपनी रचनात्मक मेधा से पुनर्सृजित किया है। 'नागार्जुन की कविता की केन्द्रीय विशेषता मानवीय जीवन से उसकी गहन संपृक्ति है। उसकी बहुरंगी भाव-राशि का अक्षय स्रोत अत्यन्त भरा-पूरा, यह अनन्त रुपात्यक वस्तु जगत ही है जिसे उसके समूचे वैविघ्य सम्पूर्ण प्रसार एंव समूची सघनता मे कवि ने आत्मसात किया है, और अपनी कविता मे उसे अभिव्यक्ति दी है। नब्बे प्रतिशत का दश प्रतिशत खुल कर करते तकदीर हरण निश्चय ही सपना हो जाता पीड़ित आखो का नीर हरण ओठते संत कुछ खाल टपका करती कुछ राल और झुकती स्वराज्य की डाल और तुम रह जाते दस साल और।“ नागार्जुन को समकालीन भारतीय राजनीति की गहरी समझ थी उन्होंने राजनीति को जितनी गहराई से और यथार्थ रुप मे विश्लेषित किया है वह कविता के क्षेत्र मे विशेषकर राजनीतिक कविता के क्षेत्र मे किसी कवि ने नही किया। इसी राजनीतिक समझ की वजह से नागार्जुन ने गांधीजी पर, उनकी विचारधारा पर और उनके अनुयायियो पर काफी लिखा है उसका अधिकांश हिस्सा तीखा और व्यंग्यात्मक है - “दिन दिन पद यात्रा कर्महीन चिता का केवल चमत्कार बतला दो बापू क्या थे तुम गोरस मधु सेवन फलाहार” मारे देश के कर्णधारो ने राश्ट्रीय और नैतिकता के स्थान पर विसंगतियों को जन्म दिया। नेताओ की संक्रीर्ण मानसिकता से राजनीतिक परिदृष्य लगातार कलुषित होता गया। ऐसे मे प्रजातंत्र के नाम पर व्यक्तितंत्र भ्रष्टाचार का सरकारी करण तथा राजनीति का विकृत रुप ही युवा एंव वयस्क पीढी को विरासत मे मिला है ऐसी विशम स्थिति मे स्वाभाविक था कि कवि या तो उस दुषित व्यवस्था का हिस्सा बनता अथवा असहमति व्यक्त करते हुए आक्रोष व्यक्त करता। इस सन्दर्भ में डा श्यामसुन्दर घोष की टिप्पणी है - आज जबकी सम्पूर्ण समाज व्यवस्था और शासन तंत्र शुरु से लेकर आखिर तक भ्रष्ट, कलुशित और अमानुशिक है तो साहित्य का प्राथमिक कर्तव्य है कि वह पहले हथियार की भांति प्रयुक्त हो। अब तलवार की जरुरत पहले है उसके बाद ही फूलो और तितलियो का समय आयेगा।“ नागार्जुन ने अपने साहित्य का उपयोग हथियार की तरह किया है। आजादी के पश्चात किस तरह सरकारी नीतियो ने जनता के एक बड़े वर्ग को सुविधाओं से वंचित कर रखा है नैतिकता और राष्ट्रीयता का पतन किस सीमा तक हुआ है उनकी कविताएं ऐसी सभी विसंगतियों पर लगातार चोट करती रहती है। आजादी के तेरह साल कविता मे नागार्जुन ने व्यंग्य किया है। पाच वर्ष की बनी योजना एक नही दो तीन कागज के फूलो ने ले ली सबकी खुशबू छीन बलिहारी कागज खुशी की क्यो न बजा, बीन फटे बांध से बालू बोले हम भी है स्वाधीन अश्वमेघ का घोडा दोड़ा चित है चारो नाल कौन कहेगा आजादी के बीते तेरह साल।“ प्रशासन को पूंजीपतियो के हित का ध्यान है किन्तु मंहगाई के बोझ तले दबी जनता की क्या स्थिति हो रही हेै उस ओर उसका बिल्कुल ध्यान नही है। देश उन्नति की और अग्रसर क्यों नही होता क्यों जनता अशिक्षा और गरीबी के दल-दल मे फंसी है प्रशासन इन विसमताओं को मिटाने का ढोंग ही क्यों करता है। इसलिए कवि के मन मे आक्रोष है तो नागार्जुन क्षुब्ध हो जाते है- " रहो ताकतेए बिडला-डागा-डालयिया की और रहो ताकते, पडे मुसीबत मे न कही कोई भी डाकू चोर रहो ताकते, रंज न हो अंग्रेज और अमेरिकी वाणिक् समाज रहो ताकते, बना रहे लाढी गोली का राज रहो ताकते, सुखी ने हो जाए मजदूर किसान रहो ताकते, दबे रहे मध्यमवर्गी इंसान रहो ताकते, राजनीति घुस न जाये कही घर-घर मे रहो ताकते हो न मुअत्तल महापलित आफिसर।" शासक वर्ग भीतर ही भीतर पूंजीपतियों को बढावा देता है समानता का नारा देने वाले अपनी कुर्सी की रक्षा के लिए पूंजीवाद को प्रश्रय देते चले जाते है। सरकार की इस दोहरी नीति को जागरुक कवि समझ जाते है इसलिए उसे अभिव्यक्त भी करते है। तानाशाही का ताम-झाम है शोसलिज्म का नारा पार्लियामेंट पर चमक रहा है मारुति का ध्रुवाधारा।“ इन्दिरा गांधी के शासन काल मे 20 सूत्री कार्यक्रम की योजना बनी । इस याजना से ऐसा आभास हुआ कि देश की प्रगति मे यह महत्वपूर्ण साबित होगी। मगर ये कार्यक्रम भी हाथी के दांत की तरह नकली निकला। क्या समग्र क्रान्ति का ही अगला चरण 20 सूत्रीय कार्यक्रम है। यह नागार्जुन पूंछते है- "सम्पूर्ण क्रान्ति मुर्गा सम्पर्क शून्य मुर्गी क्या उसी का अंडा तो नही वह 20 सूत्री वाला प्रोगाम पौष्टिक है सुलभ, सुपाच्य है आकार मे भी अपेक्षाकृत कुछ तो बडा ही तो है बेचारी जनता को और भला क्या चाहिए हमको और आपको, उनको और इनको, भला और क्या चाहिए।“ देश को 21 वीं सदी मे ले जाने का स्वप्न दिखाने वाले नेता पर कवि को गहरा आक्रोष है एक और तो वे देश को वैज्ञानिक युग मे ले जाने की बात करते है वही दूसरी और संसद मे कलाकारो का जमघट लगाते है कलाकारो की लोकप्रियता से वोट भुनाने की कोशिश करते। शासन व्यवस्था चलाने के लिए अपनी कार्यकारिणी में अनुभवहीन मित्रो को उच्च पदो पर आसीन करते है उनकी इस समझदारी पर नागार्जुन व्यंग्यपूर्वक कहते है- "खुद ही यह अपने लिलार मे, अपनी किस्मत लिखा करेगा लंबा-लंबा भाषण देना भी सीखेगा, शहंशाहो के लिबास मे भी दिखेगा बुद्धू होगा साथी इसमे अक्ल भरेंगे कुछ तो इसकी नकल करेंगे.........।" गाँधीजी पर लिखी गई कविता के माध्यम से नागार्जुन पूरे भारतीय राजनीतिक परिदृष्य पर गंभीर चोट करते है। गांधीजी के आदर्शो का नाम लेकर चलने वाली कांग्रेस सरकार भगवाध्वजधारियोें के खिलाफ जनता के आक्रोष को दबाने, जनउभार को रोकने का ही काम कर रही है नागार्जुन ने षडयंत्र का खुलासा किया । गांधीजी ने देश मे रामराज्य की कल्पना की थी लेकिन देश के कर्णधारो ने राम के आदर्शो के स्थान पर रावण की प्रवृतियो को अपना कर रावण राज्य की स्थापना की। "देश व्यापी भ्रष्टाचार को रावण मानकर कवि करारा व्यंग्य करता है- श्राम राज्य मे अबकी रावण नंगा होकर नाचा है सुरत षक्ल वही है भय्या बदला केवल ढाचा है.... नेताओ की नीयत बदली फिर तो अपने ही हाथों भारत माता के गालो पर कस कर पड़ा तमाचा है.....।" अवसरवादी नेता अपने सुखो के लिए किसी भी अच्छे बुरे अवसर को हाथ से नही जाने देते। "आए दिन बहार" कविता मे कवि ने चुनावी दौड़-धूप मे लगे लोगो का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है टिकट प्राप्त कर नेताओ की बाछे खिल गई क्योंकि उन्हें भविष्य मे आती हुई बहार दिखलाई देने लगती है सबके सब हमारे नेतागण अपनी असफलताओ को ढकने के लिए विपक्ष को उत्तरदायी ठहराने मे माहिर है उनके पास न सिर्फ सत्ता है अखबार, आकाशवाणी, पुलिस भी उनके है। मगरो के आंसू बहते है कविता मे सत्ताधारियो की इन कमजोरियो को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया गया है- मगरो के आंसू बहते है झील भर गईए अपने ही अपराध दूसरो पर मढने का कौशल कोई इनसे सीखे........... निज रेडियो निज के अखबार सभी है सब साधन, हथियार सभी है फिर भी इन को नींद ना आती....... नागार्जुन ने अपने किसी भी समकालीन कवि से ज्यादा जन-विरोधी चरित्रों का पर्दाफाश किया है अपनी कविताओ मे कवि ने निर्भीकता से प्रत्यक्ष व्यंग्य किया है। "प्रशंसा की बिखरती फुहार" के इस युग में नागार्जुन ऐसे कवियो मे प्रमुख है जिन्होने अनुचुति को अनुचित कहने का साहस किया। स्वतंत्रता के कई दशक बीत जाने के बाद भी जनता के स्वप्न पूर्ण होते नहीं दिखाई देते क्योंकि साधारण जनता के लिए वास्तविक आजादी तो अब तक नही आई। निम्न वर्ग अंग्रजो और जमीदारो द्वारा वर्षो पीड़ित होता रहा किन्तु आजादी के इतने वर्षो बाद भी वह वर्ग किसी न किसी के शोषण का शिकार बना ही हुआ है। आजादी आखिर किसकी आई है उस वर्ग की जो अभी स्वतंत्रता से सुखो से वंचित है या उसकी जो दिनो-दिन और अधिक समृद्ध होता जा रहा है तथा- "किसकी है जनवरी किसका है अगस्त। कौन यहाॅ सुखी है, कौन यहाॅ मस्त..... खिला खिला सेठ है श्रमिक है बुझा बुझा मालिक बुलन्द है कुली मजदूर पस्त है।" अकर्मण्य लोगों के हाथ मे सत्ता आ जाने से लोकतंत्र का दुरुपयोग हो रहा है भ्रष्ट अफसरशाही व नौकरशाही के चक्र मे पिसती जनता के लिए कुछ भी कह पाना कठिन हो गया है यदि कहा भी जाता है तो सार्थक हो पाता है यह उदाहरण देखिए- "लोकतंत्र के मुंह पर ताला द्वारे पर मकड़ी का जाला बैठ गया है अफसर आला, पगलो से पड़ना था पाला कही दाल है पानी पानी कही दाल मे काला काला लोकतंत्र के मुंह पर ताला।" स्वातन्त्र्योत्तर भारत मे निम्न और मध्यम वर्ग लालफीताशाही का शिकार हुआ। पाश्चात्य संस्कृति के पिछलग्गू ये अफसर जनता की मुसीबतो को कोई महत्व ही नहीं देते है। ऐसे मोटे वेतन प्राप्त करने वाले आफीसरो पर कवि को क्रोध आता है सरकारी अफसरो की मनमानी और प्रभुसत्ता ने प्रशासन को गर्व की ओर धकेल दिया। जनता के सेवक जनता के मालिक बन बैठे। इन स्थितियो से चन्द स्वार्थी लोगो को तो फायदा हुआ। लेकिन प्रशासन मे भ्रष्टाचार भाई भतीजावाद अनुशासन हीनता कामचोरी आदि बुराईया पनपने लगी। देश मे गरीबी महामारी की तरह फैलने लगी समाज चेता कवि नागार्जुन इन्ही सब स्थितियो से जुझता है। "प्रेत का बयान" कविता मे कवि ने उद्घाटित किया है कि आज स्थिति यहाँ तक पहुॅची है कि प्रेत भी भय के मारे सत्य नही बोल पाते। भूख से मृत्यु पर गहरा व्यंग इस कविता मे व्यक्त हुआ है- "किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका ऐसी किसी व्याधि का पता नही हमका सावधान महाराज नाम नही लीजियेगा हमारे सामने फिर कमी भूख.......... तनिक भी दुःख नही दुविधा नहीं सरलता पूर्वक निकलते प्राण सह नही सकी आंत पेचिस का हमला। धर्म के नाम पर पलती साम्प्रदायिकता, अंधश्रद्वा अंधविश्वास तथा पोषण से मुक्त हो यही कवि चाहता है इसलिए तिकड़मी साधु की चालो परए कालीमाई की रक्त पिपासा पर, लक्ष्मी की विशम कृपा दृष्टि पर नागार्जुन का रोष है। वे चाहते है कि परिस्थितियां बदले ताकि समाज का शोषित वर्ग ऊपर उठ सके। देवी की कृपा दृष्टि को नागार्जुन गरीबो पर बरसाना चाहते है आलोचना मे विश्वास त्रिपाठी ने लिखा है- नागार्जुन का काव्य लोक मंगल का पक्ष धर है अशिव तत्व का विरोधी है इसलिए वह एक बहुत बड़े गरीब वर्ग की रक्षा हेतु देवी से लड़ने को तत्पर हो जाता है। लेकिन मन करता जैसी पोषण विरोधी कविता, अत्यन्त सरल है- “मन करता है मे उस अगस्त्य-सा-पी डालू सारे समुद्र को अंजलि से उस अतल वितल मे तब मुझको मुर्दा भगवान दिखाई दे उस महामृतक को ले जाऊ फिर इस तट पर अंत्येष्ट करु लकड़ी तो बहुत मंहगी इस बालू मे दफना दूंनंगा कर के निर्लज्ज देवता-गण ले लेना तुम उसकी भी वह पीताम्बर अनमोल रेशमी पीताम्बर।“ |
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निष्कर्ष |
नागार्जुन के काव्य मे अतिष्य आक्रामकता, व्यंग्य का अतीव चुटीलापन है नागार्जुन सरीखे संघर्शशील रचनाकारो के प्रयासो का ही परिणाम हैै कि हिन्दी साहित्य मे मानव मुक्ति की आवश्यकता पहले से कही अघिक सिद्दत से महसूस की जा रही है सामाजिक वास्तविकताएं जो सबकी जानी बूझी है वह नागार्जुन की सहज कलात्मता के स्पर्श से कालोपयोगी बन जाती है। उनकी अनेक कविताएं हमारे दिल पर चोट करने वाली कर्तव्य याद दिलाने वाली और राह दिखाने वाली भी है इसलिए डाॅ0 रामविलास शर्मा ने युगधारा के वक्तव्य मे लिखा है वे इस बात की पेशगी है कि दलित और अपमानित जनता अपनी बेड़िया तोड़कर रहेगी। नागार्जुन हमारे राष्ट्र के सम्मान का रक्षक हमारा वक्ता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. गजानन माधव मुक्तिबाध- नयी कविता का आत्म संघर्ष
2. डाॅ0 अजय तिवारी - नागार्जुन की कविता
3. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी - समकालीन हिन्दी कविता
4. वशिष्ट अनुप: हिन्दी की जनवादी कविता
5. रामविलास शर्मा: माक्र्सवाद एक प्रगतिशील साहित्य
6. जीवन सिंह: कविता और कविकर्म
7. नागार्जुन - हजार - हजार बाहों वाली
8. नागार्जुन - तुमने कहा था
9. नागार्जुन - युग धारा
10. नागार्जुन - पुरानी जूतियों का कोरस
11. नागार्जुन - इस गुब्बारे की छाया में |