ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- V August  - 2024
Anthology The Research
डूब’ उपन्यास में कृषक-जीवन का अध्ययन
Study Of Farmer Life In The Novel Doob
Paper Id :  19179   Submission Date :  2024-08-16   Acceptance Date :  2024-08-23   Publication Date :  2024-08-25
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DOI:10.5281/zenodo.13626398
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हिमानी सिंह
शोध पर्यवेक्षक एवं आचार्य
हिन्दी विभाग
राजकीय कला कन्या महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
अनुराधा मीना
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
राजकीय कला कन्या महाविद्यालय
कोटा, राजस्थान, भारत
सारांश

वीरेंद्र जैन कृत ‘डूब’ उपन्यास किसान जीवन की त्रासदी पर आधारित उपन्यास है यह उपन्यास ग्रामीण जीवन पर बाँध परियोजना का प्रभाव प्रदर्शित करता है तथा ग्रामीण जीवन की वास्तविकता का यथार्थ रूप में चित्रण करता है। यह उपन्यास शासनप्रशासन द्वारा किए नए प्रयासों व धरातल पर उनकी कथनी-करनी में अंतर को उजागर करता है। इसमें विस्थापन से कमजोर पड़ती ग्रामीण अर्थव्यवस्था का निष्पक्ष चित्रण किया है। विकास परियोजना के कारण  किसान के जीवन में जो परिवर्तन हुए है जैसे खेती की जमीन डूब में आना,अशिक्षा, बेरोजगारी, आर्थिक तंगी आदि समस्याओं पर गहनता के साथ प्रकाश  डाला है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Virendra Jain's novel 'Doob' is based on the tragedy of farmers' lives. This novel shows the impact of the dam project on rural life and depicts the reality of rural life in a realistic manner. This novel highlights the new efforts made by the government and administration and the difference between their words and actions on the ground. It has an unbiased portrayal of the rural economy weakening due to displacement. The changes that have taken place in the lives of farmers due to the development project, such as agricultural land getting submerged, illiteracy, unemployment, financial crisis etc., have been highlighted in depth.
मुख्य शब्द किसान, विस्थापन, अशिक्षा, विकास परियोजना, ग्रामीण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Farmers, Displacement, Illiteracy, Development Project, Rural.
प्रस्तावना

‘डूब' उपन्यास बुंदेलखंड अंचल पर केन्द्रित है। 'डूब' तीन तरफ पहाड़ों से और एक तरफ बेतवा नदी से घिरे लडैई गाँव की कथा है। जहाँ सरकार विकास के नाम पर बाँध बनवाना चाहती है। इसके लिए सरकार द्वारा राजघाट के आसपास के सैकड़ों गाँव खाली कराये जाते हैं। जैसे बारी, टोठे, शंकरपुर, पंचमपुर, सिरसौदिया, सिद्धपुर, किशोरपुर, प्रानपूरा आदि । बाँध बनवाने के नाम पर प्रशासन ग्रामीण लोगों का उचित प्रबंध किए बिना ही विस्थापन करना चाहता है जिसके कारण लडैई गाँव एवं सभी आस-पास के गाँवों की अर्थव्यवस्था पूरी तरह तहस-नहस हो जाती है। भारत की ग्रामीण स्थिति और विकास के कारण गांवों में फैलती अव्यवस्था को जीवंत और मार्मिक माध्यम से इस उपन्यास में चित्रित किया है। इस उपन्यास में बांध  परियोजना के कारण विस्थापन से होने वाली ग्रामीण किसानों की समस्याओं एवं उसके दुष्परिणामों का वास्तविक चित्रण है।

अध्ययन का उद्देश्य
  1. इसके माध्यम से किसानों के जीवन पर प्रकाश डालना ।
  2. किसानों के जीवन में स्वतंत्रता से अब तक हुए परिवर्तनों का अध्ययन करना।
  3. विकास परियोजनाओं के कारण ग्रामीण किसानों के जीवन पर पड़ने वाले दुष्परिणामों से आम लोगों को अवगत करवाना ।
  4. सरकार की ग्रामीण किसानों के प्रति संवेदनहीनता को प्रदर्शित करना ।
साहित्यावलोकन

सरकार बाँध परियोजना के लिए जमीन लेने से पहले किसानों से एक बार भी नहीं पूछती है एवं अपनी मर्जी से जमीन हड़प लेती है एवं मुआवज़ा भी तय कर देती है तब इस बात से दुखी माते कहता है कि “यह कहाँ का न्याय है। यह कैसी उलटी रीति -चलाई है सरकार ने । औने-पौने दाम लगाकर, कानून का भय दिखाकर हमसे हमारी जमीन हड़‌पी, हमें बिना बताए, बिना हमसे सलाह किए, बिना हमारी मांग  जाने, बिना हमसे हां करवाए, हमरे  मुँह में अपने बोल डाल दिए। कह दिया दुनिया से कि हम अपनी जमीन बेचने को तैयार हैं।"1 सरकार जमीन लेने से पहले बड़े बड़े वादे करती है। किसानों का विस्थापन कही अच्छी  जगह करने रोजगार देने, एवं जीवन की मूलभूत आवश्यकताऐं पूरी करने का वादा करती है। लेकिन सरकार के वादे भी भला कहा पूरे होते हैं वादे तो वादे ही होते हैं। और ग्रामीण किसानों को जमीन के बदले उचित मुआवज़ा भी नहीं दिया जाता " सिंचित भूमि दर्शाई गई हो कागज में या असिंचित, खेतिहर ज़मीन हो या बंजर, या हो रिहायशी, खेतबधा हो या नदी में समा गया हो, उस पर चारा उगता हो या टपरा खड़ा हो, सब तरह की जमीनों का मुआवजा सोलह सौ रुपए प्रति बीघा की दर से मिलेगा।"2 भला एक बीघा के 1600 रुपयों से क्या होगा इसी के बल पर पुराना कर्ज भी चुकाना है किसान को, इसमें से भी किसान को केवल 600 ही मिलते है बाकी के देहात साहूकारों, बाबुओं व कर्मचारी हड़‌प लेते हैं। जब किसानों को मुआवजों की आधी रकम भी नहीं मिलती तो माते क्षुब्ध होकर कहता है कि  "और जो दाम दिए उसमें से भी आये झपट लिए। दाता की हथेली नीचे रखवाई और मंगते ने रखी उपर। यह उलटा चलन चलाया, इसलिए तो न देने वाले के हाथ में कुछ रह पाया न पाने वाले तक कुछ पहुँचा। सब-का-सब जा गिरा धरती पर। उस गिरे को चाट गए, हजम कर गए घात में बैठे चटोर कुत्ते और सुअर।”जब  गरीब किसान मुआवजा लेने चंदेरी सरकारी कार्यालय में जाता है तो वहाँ के कर्मचारी उसके साथ भिखारियों जैसा बर्ताव करते है अर्थात भिखारी की तरह उपेक्षित नजरों से देखते हैं।" जैसे अपनी जमीन की सही कीमत लगाने का अनुरोध करने या जो सरकार ने तय कर दी है,मन मारकर वही कीमत पाने की तमन्ना लेकर आने वाला कोई लाचार, बेबस ठगा गया भोला भाला किसान नहीं- भिखारी आ खड़ा हुआ हो।"4

भारतीय किसान चारों ओर से समस्याओं से घिरा रहता है जैसे बाढ़, अकाल, बेमौसम बारिश,प्राकृतिक आपदाऍ,कर्ज, खाद, बीज, अशिक्षा, अंधविश्वास आदि अनेक समस्याओं से,खेती किसानी करना किसान के लिए घाटे का सौदा होता जा रहा है। खेती करते समय किसान को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन वह जिस भी प्रकार वह खेती करता है एवं जैसे ही फसल तैयार होती है वैसे ही महाजन, साहुकार उसके सिर पर गिद्ध की तरह मण्डराने लगते हैं। और आधे  से ज्यादा अनाज को अपने घर ले जाते हैं।  "ज्यों ही किसान के घर अनाज पहुंचता है, उसकी घरवाली उसे अच्छी तरह धो बीन कर रखती है । पसीना सींचकर पैदा किए अनाज के दानों के साथ दुराव करने की वह कल्पना तक नहीं कर सकती। वो यह जानते हुए भी कि इसमें से ज्यादातर अनाज साहूकार ले जाएगा पर पूरे अनाज को साफ करने का पुण्य कमाने से अपने को वंचित कैसे रखे।"5 गाँव में गोरी सरकार ने मदरसा स्थापित किया था ताकि बच्चों को शिक्षित किया जाए। लेकिन अब सरकार बाँध बनवाकर  उसे वहाँ से हटवा रही है। इस बात से दुःखी होकर माते कहता है कि “अब तो अपना राज है, न कोई राजा है, न कोई प्रजा। तो क्या प्रजा ही प्रजा पर जुल्म ढा रही है? पर हमरी तो किसी प्रजा से कोई दुश्मनी नहीं है। न हम किसी के लेने में, न किसी के देने में। हमरी तो जो भी बैर-प्रीत है वो यहीं के लोगों से है। मगर ये सब तो हमरे अपने है।”6 गाँव में अधिकतर किसान अशिक्षित होते है यही कारण है कि लोग (साहुकार, महाजन) इनका शोषण करते है। जब किसान की फसल अच्छी नहीं होते तो ये पूजा पाठ, होम यज्ञ जैसे अंधविश्वास की ओर भागते है “अगर फसल पहले जैसी या उससे भी कम हो तो अपने भाग्य को कोसता हुआ किसान जा पहुँचता है वामन महाराज के चरणों में ग्रहदशा सुधरवाने।”7 भारत के लिए किसान व विकास परियोजनाएँ दोनों ही आवश्यक है लेकिन विकास परियोजनाएँ ऐसी हो जिससे शहर एवं गाँव दोनों का समान रूप से विकास हो लेकिन विकास के नाम पर गाँवो को केवल झूठे आश्वासन मिलते है और वास्तविक विकास शहर में होता है। सरकार ग्रामीण किसानों को भूल जाती हैं जिसके फलस्वरूप शहर एवं गाँव के मध्य की खाई दिन प्रतिदिन गहरी होती जाती है। गाँव आज भी पिछड़ा हुआ है। सड़क, बिजली, संचार, शिक्षा, रोटी, कपड़ा मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से दूर ही है।

शहर और गाँव में जो खाई बढ़ती जा रही है उसकी ओर संकेत करते हुए माते कहते हैं कि “हां इतना जश जरूर सरकार के खाते में जाता है कि जब-जब शहर आता है हमरे पास, कि हम जाते हैं शहर के पास, अवस्था चाहे कोई भी हो हम निहारत रह जाते हैं उजबक की नाई शहर को।”8 आजादी के बाद से अब तक सरकार ने ग्रामीण समाज(किसानों) से जितना लिया उतना दिया नहीं। आज भी सरकार किसानों से उनकी जमीन कौड़ियों के भाव लेकर बड़े-बड़े पूंजीपतियों को सौंप रही है जिसमें वह उस जमीन पर बड़ी मिल और फैक्ट्रियां खोल रहे है। आजादी से पूर्व जो जमीदार, साहूकार, महाजन किसानों का शोषण करते थे वही काम आज सरकार कर रही है बल्कि महाजन,साहूकार तो गांव के थे इसलिए किसानों पर थोड़ी दया कर देते थे बल्कि यह सरकार तो एकदम दयाहीन है। इसी विडंबना की ओर संकेत करते हुए माते कहते हैं कि “साब तो चलो हमारा भरण-पोषण करते थे, हमें हर संकट की घड़ी में मदद पहुंचाते थे, कष्ट का निवारण करते थे, दुविधा से उभारते थे सो दो के पांच वसूलते रहे मगर यह सरकार तो बनियों से ज्यादा बेरहम निकली इसका क्या हक बनता था हमसे कुछ लेने का ? यह तो उल्टे हम ही से कुछ खरीद रही थी। फिर हमरी कीमत में इसकी काहे की हिस्सेदारी।”9 सरकार विकास के नाम पर बाँध बनवाने के लिए ग्रामीण किसानों से बिना पूछे उनकी जमीन लेने का फैसला कर लेती है जिस कारण उन्हें अपनी मातृभूमि का त्याग करना पड़ता है। जिस जमीन पर उस के पूर्वज कभी रहे थे और आज तक वह उसकी पैतृक संपत्ति है, भला उसे कोई आसानी से कैसे छोड़ दे। यदि वह कानून से डर से छोड़ता है तो उसको दर्द केवल वही समझता है “ताज्जुब की बात तो यह है कि यह सब तय हुआ कब? हमसे बिना पूछे हमारी तबाही का फैसला ले लिया ऐसा तो डाकू भी नहीं करते वह धन जरूर लूटते हैं पर घर से बेघर नहीं करते। वह तो अमीरों को सताते हैं हाँ उन्हें सताते हैं जो दीनों को सताते हैं, दिन-रात और यह सरकार! यह गरीबों को सताएगी। उन्हें सताएगी जिन्हें भाग्य, भगवान, धनवान सभी पहले ही सताने पर आमदा है?”10 चुनाव की तारीख आते ही नेता अपने भाषणों में किसानो को लुभाने वाले वादे करते हैं। परंतु चुनाव के पश्चात सरकार ग्रामीण किसानों से जल,जंगल व जमीन विकास परियोजना के नाम पर छीनना शुरू कर देती है। उपन्यास का पात्र माते यद्यपि अनपढ़ है लेकिन अनुभवी है यह सत्ता पक्ष की नीतियों से भली-भांति परिचित है। “हम से वोट के सिवा तुमने कुछ चाहा है भला? हमारी जो दशा बनाई है तुमने, उसमें और देने को है ही क्या हमारे पास? तुम्हारी दी तो चीज तो तुम हर 5 बरस पीछे मांग ही लेते हो । कभी मुंह से हमें खबर भी नहीं देते कि तुमने चीज बची भी है । इसके सिवा तुमने दिया क्या है हमें? हमसे तो छीना ही है । मदरसा छीना, मोटर छीनी, सड़क छीनी, तेंदू के पत्ते का रोजगार छीना मुसलमान भाई छीने, अट्टू साहब छीने, शांति छीनी मेलजोल छीना”। विश्व में लोकतंत्र सबसे अच्छी शासन प्रणाली माना जाता है इसमें जनता का, जनता के लिए, जनता का शासन माना जाता है  सभी लोग मिलकर सरकार चुनते हैं किंतु इस शासन प्रणाली ने भी किसानों का शोषण ही किया है । इससे दु:खी होकर माते राजतंत्र को अच्छी शासन प्रणाली मानता हुआ दोनों में तुलना करता है “कि पुराने राजा महाराजा अपनी प्रजा की खैर खबर मंत्री-संत्री से ले लेते ही थे, गुप्तचर भी रखते थे, ताकि सही बात सही मालूम हो सके इन गुप्तचर को सख्त हिदायत होती थी कि वह राजा को सच-सच जस की तस बताएं भरमाए नहीं, अंधेरे में ना रखें। उन्हें अभयदान मिला होता था राजा की ओर से । तभी वह खरी-खरी कहते थे बिना लाग लपेट के सारे राज्य का हाल ....और एक यह है अपनी सरकार। खबर लेना तो दूर, खुद हमारे दरवाजे आना तो सपना की बात है जैसे ही, संकट पर संकट भेजे जा रही है निर्दोष जनता पर”12
निष्कर्ष
विकास परियोजनाएँ किसी भी देश के विकास के लिए अति आवश्यक है लेकिन विकास परियोजनाएँ ऐसी होनी चाहिए जिसके कारण ग्रामीण किसानों को विपरीत परिस्थितियों का सामना न करना पड़े । राजनीतिक प्रशासनिक गठजोड़ विकास के नाम पर जितना हानिकारक हो सकता है इसका डूब उपन्यास में यथार्यता के साथ चित्रण हुआ है । विस्थापन में भ्रष्टाचार व नौकरशाही की असंवेदनशीलता  पीड़ितों (ग्रामीण किसानों) पर दुष्प्रभाव डालती है । अतः विस्थापन से संबंधित सभी समस्याओं को सरकार को भली प्रकार से समाधान करना चाहिए एवं लोगों (ग्रामीण किसानों) के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। सरकार लडेई गांव के आसपास के क्षेत्र को खाली करवा कर वहां अभयारण्य स्थापित करना चाहती है तो इससे दुखी होकर माते कहते हैं “सरकार की निगाह में तो अभी भी यहां जानवर ही रह रहे हैं। जानवर भी ऐसे जिनके ने दांत है, ना पंजा। फिर हमें कहां खदेड़ेगी यह सरकार? कब लगाने  रही है हाँका।”13
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. वीरेंद्र जैन , डूब, वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 242
  2. वही पृष्ठ सं. 231
  3. वही पृष्ठ सं. 242
  4. वही पृष्ठ सं. 232
  5. वही पृष्ठ सं. 25
  6. वही पृष्ठ सं. 109
  7. वही पृष्ठ सं. 25
  8. वही पृष्ठ सं. 251
  9. वही पृष्ठ सं. 242
  10. वही पृष्ठ सं. 108
  11. वही पृष्ठ सं. 181
  12. वही पृष्ठ सं. 207
  13. वही पृष्ठ सं. 279