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महर्षि पतंजलि द्वारा संकलित योगदर्शनम् में समाधि |
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Samadhi in Yogadarshanam Compiled by Maharishi Patanjali | |||||||
Paper Id :
19212 Submission Date :
2024-08-06 Acceptance Date :
2024-08-21 Publication Date :
2024-08-23
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सारांश |
महर्षि पतंजलि को योगदर्शन के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। कहा जाता है कि महर्षि ने एक बड़ी नदी का रूप दिया है जिसके अन्दर योग की सभी पद्धतियों को समाहित किया गया है। संस्कृत व्याकरण ग्रन्थों के अनुसार महर्षि पतंजलि अपने पिता की अंजलि में अर्घ्य दान करते समय दिव्य रूप से उर्ध्वलोक से आकर गिरे। जिसके कारण ही इनका नाम पतंजलि पड़ा। महर्षि के सभी ग्रन्थों में योगदर्शन मुख्य ग्रन्थ कहलाता है तथा यह ग्रन्थ व्यक्ति के लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही दृष्टि में विकास करने में सक्षम है। महर्षि द्वारा रचित वर्तिका में कहा गया है कि ‘योगेनचितस्यपदेनवाचांमलं शरीरस्य च वैद्यकेन। योऽपाकरोक्तं प्रवरं मुनीनां पंतजलि प्राजलिरानतेस्मि । |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Maharishi Patanjali is known as the originator of Yoga Darshan. It is said that Maharishi has given the form of a big river in which all the methods of Yoga have been included. According to Sanskrit grammar texts, Maharishi Patanjali, while offering Arghya in his father's hands, fell from the heavenly world in divine form. Due to which he was named Patanjali. Yoga Darshan is the main text among all the texts of Maharishi and this text is capable of developing a person in both worldly and spiritual perspective. It is said in Vartika written by Maharishi that 'Yogenachitasyapadenavachaamlam sharirasya cha vaidyaken. Yopakaroktam pravaram muninaam Patanjali prajliraantesmi. | ||||||
मुख्य शब्द | महर्षि पतंजलि, योगदर्शन, योगसूत्र । | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Maharishi Patanjali, Yogadarshan, Yogasutra. | ||||||
प्रस्तावना |
योग से मन तथा वाणी से मैल और चिकित्सक से शरीर शुद्ध होता है। जैसा कहा
गया है कि ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ मुनि पतंजलि को मैं नमस्कार करता हूँ।
योगसूत्र के रचनाकार महर्षि पतंजलि का जन्म उत्तर प्रदेश के गोण्डा में हुआ
था। कुछ लोगों के अनुसार इन्हें शेषनाग का अवतार भी कहा जाता है।
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अध्ययन का उद्देश्य |
महर्षि पतंजलि द्वारा संकलित योगदर्शनम् में समाधि का अध्ययन करना है । |
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साहित्यावलोकन |
प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकों जैसे व्याकरणमहाभाष्यम्, योगकरनिका, योगभक्तिसूत्र तथा पतंजलि कालीन भारत आदि का अध्ययन किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
महर्षि पतंजलि काशी में लगभग 200 ई0 पू0 के लगभग विद्यमान थे। साथ ही योगसूत्र के रचनाकार होने के कारण इनको योग का पिता भी कहा जाता है। महर्षि पतंजलि द्वारा रचित 3 मुख्य ग्रन्थ मिलते है- 1-योगसूत्र या योगदर्शन 2- महाभाष्य 3- आयुर्वेद पर ग्रन्थ 1 योगसूत्र - इसमें चार ग्रन्थ हैैं। महर्षि ने 200 ई0 पू0 लिखा था ये पुस्तक चार अध्यायों में विभक्त है तथा इसमें 195 सूत्र है। समाधिपाद, साधनापाद, विभूतिपाद , कैवल्यपाद यही योगसूत्र के चार अध्याय है। यागदर्शन में चित्त को एकाग्र तथा मन को शान्त करने के लिए योग के आठ साधनों का अभ्यास बताया गया है। ये आठ साधन इस प्रकार है -(यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाव अंङ्गानि) यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इन साधनों अथवा अंगों के अपने उपअंग भी है। इन आठ साधनों के कारण इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है। महाभाष्य- यह एक व्याकरण ग्रन्थ है। परन्तु इस ग्रन्थ में कहीं-कहीं पर राजाओं, महाराजाओं और जनतंत्रों के घटनाक्रमों का विवरण भी मिलता है। साथ ही इसमें शिक्षा, व्याकरण और निरुक्त पर भी चर्चा की गई है। यह ग्रन्थ मूलतः शुंग वंश के दौरान लिखा गया था इसका समय ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी बताया गया है तथा इसमें आठ है। प्रत्येक अध्याय में चार पाद है और प्रत्येक पाद में 38 से 220 सूत्र हैैं। अतः हम कह सकते है कि महर्षि पतंजलि का महाभाष्य एक विवरणात्मक ग्रन्थ है। महाभाष्य के विषय में भर्तहरि ने अपने वाक्यपदीय में एक बड.ा ही यथार्थ वचन कहा गया है- ‘अलब्धेगाधे गाम्भीर्यादुत्तन इव सौष्ठवात्। तस्मिन्नकृबु़ि़़द्धनां नैवावस्थित निश्चय।। महाभाष्य में अथाह गहराई है। वहीं रचना की सुन्दरता के कारण अत्यधिक प्रा´्छलता है, अपरिपक्व बुद्धि वालों को इसके अध्याय का निश्चय ही ज्ञान नहीं हो सकता। समाधिपाद (प्रथम अध्याय)- समाधिपाद में यह बताया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या है और उसका साधन किस प्रकार किया जाता है। इसमें योग के उपाय, अभ्यास, वैराग्य, सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात समाधि, ईश्वर का निरुपण ऋतम्भराप्रज्ञाजन्यसंस्कार निरोधसमाधि, चित्त के परिकर्म इत्यादि ये प्रथम अन्तर्गत आते हैैं। अनुशासन पद अर्थ शास्त्र है- इस बात को टीकाकार वैद्यनाथ भी कहते हैैं। ‘अनुपूर्वकशासेर्विविच्यज्ञापने दृष्टत्वस्यान्यत्र प्रसिद्धत्वात’।। अर्थात् इसे पूर्ववर्ती शासक के आदेश में देखा जाता है क्योंकि सर्वविदित है। साथ ही महर्षि पतंजलि के महाभाष्य का अनुसरण करतेे हुए व्यास लिखते है- ‘योगनुशासनं शास्त्रम् अधिकृतं वेदितव्यम्’। योग अनुशासन को अधिक प्रमाणिक समझना चाहिए तथा इस अध्याय में कुल 51 सूत्र हैं। साधनापाद (द्वितीय अध्याय)- योगसूत्र के दूसरे अध्याय साधनापाद में योग व्यवहारिक पक्ष को रखा गया है तथा इसमें अविद्या आदि पॉंच क्लेशों को सभी दुखों का कारण बताया गया हैै। इनके उपायों में क्रियायोग , अविद्या, लक्षण कर्मफलसिद्धान्त, रागलक्षण इत्यादि हैं। इस अध्याय में सूत्रों की संख्या 55 है। जिनमें पॉच क्लेश निम्नवत् है-क्लेशा इति, पंच विपर्यया इत्यर्थः। ते स्पन्दमाना गुणाधिकारं दृढ. -यन्ति परिणाममव्स्थापयन्ति, कार्यकारणस्त्रोत उन्नमयन्ति परस्परानुग्रह- तन्त्रीभूय कर्मविपाकं चाभिनिर्हरन्तीति।। ये क्लेश मिथ्याज्ञान होेते है। जो गुणों के कार्य को मतबूत करती है परिणाम को स्थापित करती है तथा कारण और प्रभाव के स्त्रोत को बढ़ाती है। परस्पर एक दूसरे के अधीन होकर कर्मफल का निर्वाह करते है। विभूतिपाद (तृतीय अध्याय)- विभूतिपाद आपको दर्द एवं पीड.ा से मुक्ति की ओर ले जाता है तथा यही मुक्ति योग के अभ्यास का अन्तिम लक्ष्य हैै। इस अध्याय में भूतजय और उसकी सिद्धियॉं, इन्द्रियजय और उसकी सिद्धियॉं, देवताओं का निमन्त्रण , विवेकज्ञान निरुपण, धर्मलक्षण अवस्था परिणाम , संयम की सिद्धियॉं इत्यादि का अध्ययन किया गया है। इस अध्याय में विशेषकर 55 सूत्र ज्ञात होेते है। विभूतिपाद में विभूतियों को दो चरणों में बॉंटा गया है- प्रथम चरण बहिरंग योग साधना जन्य विभूतियॉ तथा द्वितीय चरण अन्तरंग योग साधना जन्य विभूतियॉं है। कैवल्यपाद चतुर्थ अध्याय- कैवल्यपाद जैसा की नाम से प्रतीत होता है कि ये अध्याय योग के लक्ष्य कैवल्य की स्थिति को बताने वाला है। इसमें पंचविधिसिद्धियॉ, चित्त निर्माण, चतुर्विधकर्म , वासना , वाह्य्ा पदार्थों की सत्ता धर्ममेद्यसमाणि परिणामक्रमसमाधिं जीवनमुक्त की मनोवृत्ति आदि का अध्ययन कैवल्यपाद में किया गया है। इस अध्याय मंे 34 सूत्र बताये गये है। जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धय।। इसमें जन्म से होने वाली, औषधि से होने वाली, तप से होने वाली और समाधि से होने वाली सिद्धियॉं होती है। साथ ही इस सूत्र में मोक्ष प्राप्त करने की पॉंच सिद्धियों का विवरण दिया है- 1 जन्म सिद्धि 2 औषधि सिद्धि 3 मन्त्र सिद्धि 4 तप सिद्धि 5 समाधि सिद्धि। इस प्रकार, योग के पिता महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगो का विवरण इस प्रकार दिया है- यम- यम का अर्थ है संयम। जो पॉंच प्रकार का होता है -1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय 4. ब्रह्मचर्य 5.अपरिग्रह। यम वह नियम है जो व्यक्ति को समाज में नैतिक तौर-तरीके से जीवन निर्वाह करना सिखाता है।अहिंसा- अहिंसाप्रतिष्ठायांतत्सन्न्धिौ वैरत्यागः।। पातंजलयोग दर्शन 2/35 अर्थात् अहिंसा से प्रतिष्ठित होे जाने पर उस योगी का वैरभाव छूट जाता है उसकाशब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को भी अकारण हानि ना पॅहुचाना।सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रययत्वम्।।पातंजलयोग दर्शन 2/35अर्थात् सत्य से प्रतिष्ठित (वितर्क शून्यता स्थिर) हो जाने पर उस साधक में क्रियाओं और उनके फलों की आश्रयता आ जाती है। वस्तुतः जब साधक सत्य की साधना में प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसके किए गए कर्म उत्तम फल देने वाले होते हैं और इस सत्य आचरण का प्रभाव अन्य प्राणियों पर कल्याणकारी होता है। स्वयं के विचारों में सत्यता, परम- सत्य स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना।अस्तेय- अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।।पातंजलयोग दर्शन 2/37अर्थात् अस्तेय के प्रतिष्ठित हो जाने पर सभी रत्नों की उपस्थति हो जाती है। अस्तेय का अर्थ होता है चोर -प्रवृत्ति का न होना।ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः।।पातंजलयोग दर्शन 2/38अर्थात् ब्रह्मचर्य के प्रतिष्ठित हो जाने पर वीर्य (सामर्थ्य) का लाभ होता है। इसके दो अर्थ होते है-प्रथम चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना द्वितीय सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना।अपरिग्रह-अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोधः।।पातंजलयोग दर्शन 2/39 अर्थात् अपरिग्रह स्थिर होने पर (वर्तमान, भविष्य के) जन्मों तथा उनके प्रकार का संज्ञान होता है। अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। नियम- इसमें ऐसे कर्मों के विषय में बताया गया है जोस्वयं को शुद्ध करने के लिये करने होते है। नियम पॅंाच है- शौच, संतोष, तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान। आसन-पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है मुख्यतः तीन आसन बतलाये गये है- ध्यानात्मक आसन, स्वास्थ्यवर्धक आसनख् आरामदायक आसन। प्राणायाम- तस्मिन्नसति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।। पातंजलयोग दर्शन 2/49 अर्थात् उस(आसन) के सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकना प्राणायाम है। वस्तुतः प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है। प्रत्याहार- इन्द्रियों को उनके आहार के माध्यम से वश में कर लेना प्रत्याहार है तथा वाह्य वस्तुओं से मन को हटा लेना। धारणा- चित्त को किसी एक विचार में बांध लेने की क्रिया को धारणा कहा जाता है। ध्यान- किसी एक स्थान पर या वस्तु पर निरन्तर मन स्थिर होना हि ध्यान है। जब ध्येय वस्तु का चिन्तन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तब उसे ध्यान कहते है। समाधि- तदेवार्थमात्रनिभास स्वरूपशून्यमिव समाधिः।। जब केवल ध्येयमात्र की ही प्रतीति होती है और चित्त का निज स्वरूप शून्य सा हो जाता है। तब वही ध्यान समाधि हो जाता है। महर्षि पतंजलि ने समाधि को दो प्रकार का बताया है - 1 सम्प्रज्ञात समाधि 2 असम्प्रज्ञात समाधि 1. सम्प्रज्ञात समाधि- क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतग्रहनाग्राहेषु तत्स्थतंदजनता समापत्तिः।। अर्थात् जिसकी समस्त बाह्य वृत्तियॉं क्षीण हो चुकी है ऐसे स्फटिकमणि की भॉंति निर्मल चित्त जो ग्रहीता, ग्रहण तथा ग्राह्य में स्थित हो जाना ही सम्प्रज्ञात समाधि है। 2. असम्प्रज्ञात समाधि- विरामप्रत्ययाभ्यापूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः।। अर्थात् विराम प्रत्यय का अभ्यास जिसकी पूर्व अवस्था है और जिसमें चित्त का स्वरूप संस्कार मात्र शेष रहता है। वह योग अन्य है। वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात्सम्प्रज्ञातः।। अर्थात् वितर्क, विचार आनन्द और अस्मिता इन चारों के संबन्ध से युक्त सम्प्रज्ञात योग है। वितर्कानुगत समाधि- जिसमें ध्यान का आलम्बन या विचार विषय होते है वह वितर्कानुगत समाधि है जैसे सूर्य, मूर्ति आदि ये दो प्रकार की होती है (क) सवितर्क- तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः।। उसमें शब्द अर्थ ज्ञान इन तीनों विकल्पो से संकीर्ण- मिली हुई समाधि ही सवितर्क समाधि कहलाती है। (ख) निर्वितर्क- स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थ मात्रनिर्भासा निर्वितर्का। स्मृति की भलीभॉति लुप्त हो जाने पर अपने रूप से शून्य हुई के सदृश केवल ध्येयमात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष कराने वाली चित्त की स्थिति निर्वितर्क समाधि कहलाती है। विचारानुगत समाधि- ये दो प्रकार की होती है। सविचार, निर्विचार (क) सविचार- इसमें ध्यान का आधार सूक्ष्म विषय जैसे तन्मात्रा आदि होते हैै जब विचारानुगत समाधि में शब्द अर्थ और ज्ञान का विकल्प हो तब यह सविचार समाधि कहलाती है। (ख) निर्विचार-जब समाधि में शब्द अर्थ ज्ञान का विकल्प नहीं रहता तब निर्विचार समाधि कहलाती है। 3- आनन्दानुगत समाधि- जिसमें ध्यान का विषय इन्द्रियॉं होती है इस समाधि में अति सूक्ष्म विषय पर केन्द्रित चित्त में सत्वगुण की अधिकता के कारण विशेष आनन्द के अनुभूति होती है। 4- अस्मितानुगत समाधि- इस अवस्था में ध्यान का विषय स्वयं का होता है। जिसमें साधक योगी को केवल मैं हुूॅं का ज्ञान रहता है। |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार महर्षि पतंजलि का योग दर्शन गणतीय भाषा में एवं सूत्रात्मक शैली में रचित, सृष्टि का एक अद्वितीय, यौगिक वैज्ञानिक का विस्मयकारी ग्रन्थ है जिसमें मनुष्य के प्राण से लेकर महाप्राण तक की अंतर्यात्रा, मृणमय से चिन्मय तक जाने का यौगिक ज्ञान, मूलाधार से सहस्रार तक ब्रह्मैक्य का आतंरिक ज्ञान, मर्म और दर्शन समाहित है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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